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________________ ४१. जिन कहै केयक जीवड़ा जी, असंजती छै जेह । वर्त्ते प्राणातिपात में जी, जाव मिथ्यादर्शण वर्त्तेह || ४२. केइक प्राणातिपात में जी, जाव मिथ्यादर्शण मांय । नहीं प्रवर्त्ते सर्वथा जी, संजती ए कहिवाय || ४३. ते एकेंद्रियादिक जीवनें जी, हण्या पंचेंद्री जीव । तेह एकेंद्रियादिक तण, हिव विज्ञान भेद कहीव ॥ सोरठा एकेंद्री जाव जाणपणों ४४. जीव हणाणा जेह, तेहनों हिवै कहेह, ४५. केइक सन्नी ने हुवे जी, विज्ञान भेद विचार । * ते अम्हे हगाणां छां सही जो, ए मुझ मारणहार ।। ४६. केइक ने इस नहि हुबे जी, विज्ञान भेद पिछाण अम्हणा एणे हया इम, असन्नी र नहि विज्ञान ॥ पंचेंद्रिया । विज्ञान ते ।। ४७. उपपनी हुवं जाव सव्वट्टसिद्ध थी इष्ट स्थित अंत जपन्य थी जी, तेतीस सागर उत्कृष्ट ।। ४८. समुपात घट पामिये जी, केवल वर्जी तेह। नकल जाये सह स्थानके, जाव सव्वट्टसिद्धलग जेह || ४९. शेष विस्तार बेइंदिया नैं, आख्यो छै जेह रीत । कहि सर्व विचार ने जी जिन विच परम प्रतीत ॥ अल्प बहुत्व , ५०. ए प्रभु ! जीव बेइंदिया जी, जाव पंचेंदिया सोय । कुणकुण थी जावत कला जी, विशेषाधिक अगलोय || ५१. जिन कहै थोड़ा सर्व थी जी, पंचेंदिया पहिचाण तेह की उरिदिया जी, विसेसाहिया जाण ॥ ५२. तेह की दिया जी विसेसाहिया जोव । तेह थकी बेदिया जो विसेसाहिया होय ॥ ५३. सेवं भंते ! इम कही जो जाव गोतम विचरंत । प्रथम उद्देशा नो वंत ! अष्ट नेऊमी म्हाल। अर्थ बोसमा शतक नो जो ५४. ढाल तीनसी ऊपरं जी भिक्षु भारीमात्र ऋषिराम थी जी, Jain Education International *लय : अभड़ भड़ रावणो इंदा स्यूं अडियो २४६ भगवती जोड़ 'जय जय' मंगलमाल ॥ विशतितमशते प्रथमोद्देशकार्थः || २०|१|| ४१. गोयमा ! अत्थेगतिया पाणातिवाए वि उवक्खाइज्जति जाव मिच्छादंसणसल्ले वि उवक्खा इज्जति 'अत्थेगइय | पाणाइवाए उवक्खाइज्जति' त्ति असंयताः ( वृ० प० ७७५) ४२. अत्थेगतिया नो पाणाइवाए उवक्खा इज्जंति, नो मुसावाए जाव नो मिच्छादंसणसल्ले उवक्खाइज्जति । 'अत्थेगइया नो पाणाइवाए उवक्खाइज्जति' त्ति संयताः (१०१० ७७५) ४३. जेसिपि जीवाणं ते जीवा एवमाहिति सि पिणं जीवाण 'जेसिपि णं जीवाण' मित्यादि येषामपि जीवानां सम्बन्धिनाऽतिपातादिना ते पञ्चेन्द्रिया जीवा एवमाख्यायन्ते यथा प्राणातिपातादिमन्त एत इति तेषामपि जीवानाम् (१०१० ७७५) ४५,४६. अत्थेगतियाणं विष्णाए नाणत्ते अत्थे गतियाणं नो विष्णाए नाणत्ते । अस्त्यवमर्थो केषां सङ्गिनामित्यर्थः "विज्ञात" प्रतीतं 'नानात्वं' भेदो यदुतैते वयं वध्यादय एते तु वधकादय इति अस्त्ये केषां - असञ्ज्ञिनामित्यर्थः नो विज्ञातं नानात्वमुक्तरूपमिति । ( वृ० प० ७७५) ४७. उववाओ सव्वओ जाव सव्वट्टसिद्धाओ । ठिती जहतो उनको ती सागरोदमाई । ४८. छस्समुग्धाया केवलिवज्जा, उव्वट्टणा सव्वत्थ गच्छंति जाय सिद्धं ति ४९. सेसं जहा बेइंदियाणं । ( श० २०1७ ) ५०. एएसि णं भंते ! बेइंदियाणं जाव पंचिदियाण य कपरे कमरेहितो जाब (सं० पा०) विसेसाहियावा ? ५१. गोयमा ! सव्वत्थोवा पंचिदिया, चउरिदिया विसेसाहिया, ५२. इंदिया विसेसाहिया, बेइंदिया विसेसाहिया । (१० २०१८ ) ५३ सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ । ( श० २०1९ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003621
Book TitleBhagavati Jod 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages422
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size21 MB
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