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________________ प्राणातिपात आदि की आत्मा रूप में परिणति * प्रभुजी ! घिन घिन पांरो जी ज्ञान । मिथ्या तिमिर निवारवा जी, जाणक ऊमो भान । (ध्रुपदं ) ३. अथ हिव हे भगवंत जीरे, प्राणातिपात पिछाण । 1 मृषावाद यावत वली रे मिथ्यादर्शणसत्य जाण || ४. वेरमण प्राणातिपात नों जी, हिंसा ते निवर्त्तेह | जाव मिथ्यादर्शण तणुं जी, विवेक तजिवूं जेह || ५. उत्पत्तिवा जावत वलि जी, बुद्धि परिणामकी जाण । अवग्रह ने ईहा वली जी, अपाय धारणा पिछाण || ६. उद्वाण में कर्म दूसरो जी, बल अरु वीर्य जोय । पुरुषकार पराक्रम को जी, एह अरूपी होय ॥ ७. नारकपणं कह्यो बलि जी, असुरकुमारपणेह । यावत वैमानिकपणें जो भाव जीव छै एह || ८. ज्ञानावरणी कर्म नैं जी, यावत वलि अंतराय । ए आइ कर्म छै जी, पुद्गल रूपी ताय ॥ ९. कृष्ण लेश यावत वली जी, शुक्ल लेश अवलोय ! द्रव्य लेश रूपी कही जी, भाव अरूपी होय ॥ १०. तीन दृष्टि दर्शण चिउं जी, पंच ज्ञान पहिछान । त्रिण अज्ञान संज्ञा चिउं जी, एह अरूपी जान ॥ ११. पुद्गल पंच शरीर छै जी, साकार ने अनाकार ही जी, १२. जे पिण अन्य ते सारिखा जी, आत्म साथ वर्त्तेह | जीव बिना अन्य स्थानके जी, नहि वर्त्ते नहिं परिणमेह ? जोग तीन अवलोय । ए उपयोगज दोय || १३. जिन कहै हंता गोयमा जी ! प्राणातिपात पिछान । जाव सर्व आतम बिना जी, नहिं व अन्य स्थान || सोरठा १४. 'यां बोलां में जान, पुद्गल केयक बोल छै । पण जीव बिना अन्य स्थान, नहि वर्त्ते नहि परिणमे ।। १५. केयक बोल विचार, लक्षण छै द्रव्य जीव रा । ते व द्रव्य लार, अन्य स्थान नहि परिणमे ॥ १६. जे स्थान बत्तह, पूर्व प्रगटपणं कह्यो । गर्भ विषे उपजेह, तेह जीव नों हिव कहै ।' (ज.स.) गर्भोत्पत्ति के समय वर्णादि पद १७. *गर्भ विषे भगवंत जी! रे, जीव ऊपजतो रे तास । किता गंध रस फास ? किता वर्ण हमें हुवै रे, *लय : कांसी जल नहि भेदं Jain Education International ३. अह भंते! पाणाइवाए, मुसावाए जाव मिच्छादंसणसल्ले, ४. पाणातिवायवेरमणे जाव मिच्छादंसणसल्ल विवेगे, ५. उप्पत्तिया जाव (सं० पा० ) पारिणामिया, ओग्गहे ईहा अवाए धारणा, ६. उट्टा कम्मे बसे वीरिए पुरसकारपरक ७. नेरइयत्ते, असुरकुमारते जाव वैमाणियत्ते ८. नाणावरणिज्जे जाव अंतराइए, ९. कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा, १०. सम्मदिट्ठी मिच्छदिट्ठी समामिच्छदिट्ठी, चक्खुदंसणे अचक्खुदंसणे ओहिदंसणे केवल दंसणे, आभिणिबोहियनाणे जाव विभंगनाणे, आहारसण्णा भयसण्णा मेहुणा परिग्गहसण्णा, ११. ओलसरीरे सिरे आहारणसरीरे तेयगसरीरे कम्मगसरीरे, मणजोगे वइजोगे कायजोगे, सागारोवओगे, अणागारोवओगे, १२. जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते नण्णत्थ आयाए परिणमंति ? गण्णत्थ आयाए 'परिणमंति' त्ति नान्यत्रात्मनः परिणमंति- आत्मानं वर्जयित्वा नान्यत्रैते वर्त्तन्ते, ( वृ० प० ७७७ ) १३. हंता गोयमा ! पाणाइवाए जाव सव्वे ते नण्णत्थ आयाए परिणमति । (१० २०२०) १७. जीवे णं भंते ! गब्भं वक्कममाणे कतिवण्णं कतिगंध कतिरसं कतिफासं परिणामं परिणमइ ? For Private & Personal Use Only श० २०, उ०३, ढा० ४०१ २५५ www.jainelibrary.org
SR No.003621
Book TitleBhagavati Jod 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages422
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size21 MB
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