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________________ ८५. तेहने आदि श्रमणसंघ माटै, श्रमण संघ तसु कहिये। चतुर्वर्ण आकीर्ण श्रमण संघ, एहवु शब्दज लहिये ।। ५६. किणहि ठामे चाउवण्णे श्रमणसंघ छै ताय । पिण आकीर्ण शब्द ए नहीं छै, वृत्ति विषे इम वाय ।। २७. श्रमण श्रमणी श्रावक श्राविका, ए चिहुं बहुवचनेह । आदि श्रमण चिहं वर्ण संघ रै, तिणसू श्रमणसंघ का एह ।। वर्णा यत्र स चतुर्वर्णः स चासावाकीर्णश्च क्षमादिगुण प्प्तश्चतुर्वर्णाकीर्णः, (वृ० ५० ७९३) ५६. क्वचित् 'चाउवन्ने समणसंधे' त्ति पठ्यते, सच्च व्यक्तमेवेति । (वृ०प० ७९३) ८७. समणा, समणीओ, सावया, सावियाओ। (श० २०७४) ८८, उक्तानुसार्यवाह-- (वृ० ५०७९३) ८९. पवयणं भंते ! पवयणं ? पावयणी पवयणं ? सोरठा ८८. आख्या पूर्वे अर्थ, ते अनुसारे ईज जे। कहियै हिवै तदर्थ, श्रोता चित दे सांभलो॥ ८९. *हे भगवंत ! प्रवचन सिद्धांतज, कहियै प्रवचन तेह। प्रवचन नां वक्ता पावयणी, तेह प्रवचन कहेह ? ९०. श्रीजिन भाखै अर्हत प्रथमज, नियम थकीज सुचंगं । प्रवचनकथिक पावयणी कहिये, वलि प्रवचन द्वादश अगं ।। सोरठा ९१. कहिये प्रकर्षण, इणे करीनै अर्थ जे। प्रवचन तास कहेण, आगम नुं ए नाम छै ।। ९२. *गणो आचार्य तणी मंजसा, द्वादश अंग सुसाध । आचारंग प्रथम इत्यादिक, यावत दृष्टिवाद ।। ९०. गोयमा ! अरहा ताव नियम पावयणी, पवयणं पुण दुवालसंगे ९१. प्रकर्षेणोच्यतेऽभिधेयमनेनेति प्रवचनम्-आगमः (वृ० प० ७९३) ९२. गणिपिडगे, तं जहा-आयारो जाव (सं० पा०) दिद्विवाओ। (श० २०७५) ९३, प्राक् श्रमणादिसंघ इत्युक्तं श्रमणाश्चोग्रादि कुलोत्पन्ना भवन्ति ते च प्रायः सिद्धयन्तीति दर्शयन्नाह (वृ० प० ७९३) सोरठा ९३. कह्या पूर्व श्रमणादि, जे श्रमण उग्रादिक कूल विषे । उत्पन्न थया संवादि, बहुलपणे सीभै हिवै ॥ उग्र आदि का निर्ग्रन्थ धर्मानुगमन पद ९४. *हे प्रभु ! उग्र कुले ऊपनां, भोग कलेज ऊपनां । राजन कुल में जेह ऊपनां, ईखाग कुले सुजनां ।। ९५. ज्ञात कुले वलि जे ऊपनां, कोरव कुले ऊपजी में । एह निग्रंथ नां धर्म विषे जे, प्रवत्तै प्रवर्ती नै ।। ९४. जे इमे भंते ! उग्गा, भोगा, राइण्णा, इक्खागा, ९६. अष्ट प्रकार कर्म रज मल प्रति, अधिक प्रक्षालै जेह। प्रक्षाली नै पछै ते सीझ, यावत अंत करेह ? ६७. श्रीजिन भाखै हंता गोयम ! उग्र भोगादिक जेह ।। इमहिज जावत अंत करै दुख, चरमशरीरी तेह । ९८. केयक श्रमण धर्म प्रति पाली, इह देवलोक विषेह । देवपणे ऊपजवो व तसु, चरमशरीरी न एह ।। *लय : रूड़े चंद निहाल रे नव रंग ९५. नाया, कोरव्वा-एए णं अस्सि धम्मे ओगाहंति, ओगाहित्ता 'अस्सि धम्मे' त्ति अस्मिन्नर्ग्रन्थे धर्मे इति । (वृ० प० ७९३) ९६. अट्ठविहं कम्मरयमलं पवाहेति, पवाहेत्ता तओ पच्छा सिझति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति ? ९७. हंता गोयमा ! जे इमे उग्गा, भोगा जाव (सं. पा.) अंतं करेंति, ९८. अत्थेगतिया अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। (श० २०७६) ३५६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003621
Book TitleBhagavati Jod 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages422
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size21 MB
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