________________
१२४. मुनि अनुमोदै नांहि, तो गृहस्थ करै ए ऋषि तणां।
धर्म पुन्य तिण मांहि, किण ही बोल विष नथी ।। १२५. मुनि तनु व्रण छेदंत, धर्म कहै इक बोल में।
तो तसु लेखै हुँत, धर्म सर्व बोलां मझे। १२६. धर्म पुन्य नहि होय, ते सगला बोलां मझे।
तो पाप गही में जोय, जिन-आज्ञा नहि ते भणी ।। १२७. तिम ते हरस छेदंत, अशुभ क्रिया ते वैद्य नैं।
मुनि नहि अनुमोदंत, धर्म पुन्य किणविध हवै।। १२८. हरस छेद्यां शुभ कर्म, तो आचारंग में कह्या।
त्या सगला में धर्म, कहिवो तिणरै लेख ए।। १२६. धर्म नहि अन्य मांहि, तो छेदै व्रणादि गृही।
तिणमें पिण पुन्य नांहि, ए सावज आज्ञा नथी ।। १३०. हरस छेद्यां धर्म हुँत, तो मुनि शिर सेती गृही।
जंआ पिण काढंत, तिणमें पिण तसू लेख पुन्य ।। १३१. वलि मुनिवर नी सोय, पगचंपी मर्दन करै।
करैज ओषधि कोय, तसु लेख पुन्य सह मझे।।' [ज० स०] १३२. *सेवं भंते ! सत्य वाणी, सोलम शतके जाणी।
तृतीय उद्देश पिछाणी रे, गुणखाणी अर्थ थकी कह्यो ।। १३३. ढाल तीनसो ताह्यो, ऊपर एकावनमी कहायो। भिक्षु भारीमाल ऋषिरायो रे,
सुखदायो 'जय-जश' संपदा ॥ षोडशशते तृतीयोद्देशकार्थः ॥१६॥३॥
१३२. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति।
(श० १६।५०)
ढाल : ३५२
१. अनन्तरोद्देशकेऽनगारवक्तव्यतोक्ता, चतुर्थेऽप्यसावेवोच्यते ।
(वृ०प०७०४)
दूहा १. तृतीय उद्देशक मुनि तणी, वक्तव्यता आख्यात ।
तुर्य उद्देशक पिण हिवै, तेह तणो अवदात ।। नैरयिक-निर्जरा पद २. नगर राजगह नै विषे, यावत इम बोलंत । वीर प्रत वंदी नमी, प्रश्न गोयम पूछत ।।
तप बड़ो प्रभु भाखियो । (ध्रुपदं) ३. अन्न विना भगवंत जी! हवै गिलान अत्यंतो रे।
अन्नग्लायक तिणनै कयो, एहवो श्रमण निग्रंथो रे ।।
२. रायगिहे जाव एवं वयासी
३. जावतियं णं भंते ! भन्नगिलायए समणे निग्गंथे
*लय : आबूगढ तीरथ ताजा लय : तप बड़ो संसार में
श०१६ उ०३,४ ढा० ३५१,३५२ २९
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org