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१४. तथा विपाक थी वेदंत, किंचित प्रदेशथीज फुन ।
इति हेतू थी मंत, कर्म विशेषित उदय करी ।।
१५. तथा ज्ञानावरणी ताम, उदय छते जे कर्म नैं।
बांधै वेदै आम, ज्ञानावरणी उदय ते ।। १६. *इम नारक पिण जाण ए, इम जाव वैमानिक माण ए।
एवं जावत संध ए, अंतराय उदय नों बंध ए॥ १७. इत्थी वेद नों भदंत ! ए, ओ तो कतिविध बंध कहंत ए?
एवं चेव पिछाण ए, बंध तीन प्रकारे जाण ए।।
१४. अथवा ज्ञानावरणीयतयोदयो यस्य कर्मणस्तत्तथा,
ज्ञानावरणादिकर्म हि किञ्चिज्ज्ञानाद्यावारकतया विपाकतो वेद्यते किञ्चित् प्रदेशत एवेत्यु येन विशेषितं कर्म,
(वृ० प० ७९१) १५. अथवा ज्ञानावरणीयोदये यबध्यते वेद्यते वा
तज्ज्ञानावरणीयोदयमेव तस्येति, (वृ० ५०७९१) १६. एवं नेरइयाण वि। एवं जाव वेमाणियाणं । एवं
जाव अंतराइओदयस्स। (श० २०१५६) १७. इत्थीवेदस्स णं भंते ! कम्मस्स कतिविहे बंधे
पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे बंधे पण्णत्ते एवं चेव ।
(श. २०१५७) १७. असुरकुमाराणं भंते ! इत्थीवेदस्स कम्मस्स कतिविहे
बंधे पण्णत्ते ? एवं चेव ! एवं जाव वेमाणियाणं, १९. नवरं-जस्स इत्थिवेदो अस्थि । एवं पुरिसवेदस्स
वि। २०. एवं नपुंसगवेदस्स वि जाव वेमाणियाणं, नवरंजस्स जो अत्थि वेदो।
(श० २००५८) २१. दसणमोहणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स कतिविहे बंधे
पण्णत्ते ? एवं चेव । निरंतरं जाव वेमाणियाणं ।
२२. एवं चरित्तमोहणिज्जस्स वि जाव वेमाणियाणं ।
१८. असुरकुमार ने संध ए, इत्थी वेद नों कतिविध बंध ए ?
एवं चेव कहाय ए, इम जाव वैमानिक आय ए॥ १९. नवरं इतलो विशेष ए, जेहन इत्थी वेद संपेख ए।
तेहनै कहिवं ताम ए, इम पुरुष वेद पिण पाम ए॥ २०. नपुंसक वेद नों पिण एम ए, जाव वैमानिक ने तेम ए।
नवरं जेहनें जेह ए, वेद पावै कहिवं तेह ए॥ २१. दर्शन मोहकर्म नों भदंत ! ए,
ओ तो कतिविध बंध कहत ए? एम निरंतर जाव ए, वैमानिक नै कहिवाव ए॥ २२. चारित्त मोहनी नों पिण बंध ए,
ओ तो कहि त्रिविध संध ए। जावत ही सुप्रसिद्ध ए, वैमानिक ने त्रिविद्ध ए ।। २३. इम एणे अनुक्रमेह ए, ओदारिक शरीर नों जेह ए।
जाव कार्मण नों बंध ए, कहिवं तीन प्रकारे संध ए॥ २४. आहार संज्ञा नों जोय ए, जाव परिग्रह संज्ञा नों होय ए। कृष्ण लेश्या नों जेह ए, जाव शुक्ल लेश्या नों कहेह ए।।
सोरठा २५. संज्ञा जीव व्यापार, मोहकर्म नां उदय थी।
जीव परिणाम असार, संबंधमात्रज बंध तसु ।। २६. जीव प्रयोग करेह, उत्पत्ति संज्ञा नी हवै।
अणंतरादि भणेह, धुर समयादि विषे हवै। २७. ज्ञानावरणी आद, कर्म तणों नहिं कथन इहां।
संबंध मात्र संवाद, अत्र विवक्षा संभवै ।।
इहा बन्ध शब्द करिके कर्म पुद्गल नों बन्धन वांछ्यो। किंतु संबंधमात्र इहां संभवै । २८. समदृष्टि नों सोय ए, मिथ्यादृष्टि नों जोय ए।
मिश्रदृष्टि नों प्रसिद्ध ए, संबंध मात्र बंध त्रिणविद्ध ए।। *लय : जाण छै राय तू बातरा ए
२३. एवं एएणं कमेणं ओरालियसरीरस्स जाव कम्मग
सरीरस्स २४. आहारसण्णाए जाव परिग्गहसण्णाए, कण्हलेसाए जाव
सुक्कलेसाए,
२८. सम्मदिट्ठीए मिच्छादिट्ठीए सम्मामिच्छादिट्ठीए,
श०२०, ०७, ढा०४०४ ३४७
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