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________________ ७. *जिन भावं सोमिला ! अर्थ म्हारज अखी। तप अनशन जे आदि भेद द्वादशज रखी। द्वादशज रखी जी, वलि नियम सखी, तसु विषय अभिहते परखी। तूं तो सुण-सुण सोमिल विप्र ! कहे चि तीर्थमुखी ॥ ८. संजम सतर प्रकार, सभायज धर्मकथा | ध्यान निमल वर शुक्ल, आवश्यक छविध यथा । छविध यथा जी, नहीं छै ज वृथा तसुं निरतिचारपणूंज तथा । तूं तो सुण-गुण सोमिल विप्र ! स्वाम भाखे अरथा || ९. एह प्रमुख जे जोग, विमल जे तास विखे जयणा जेह प्रवृत्ति, तिका जात्राज अर्थ | जात्राज अखै जी, जिनराज दखे, ज्ञानादिक गुण सुध रीत रखें। तूं तो सुण-सुण सोमिल विप्र ! एह जात्राज लखे ॥ १०. वृति विषे इम वाय आवश्यकादिक ताय, ११. तथापि तप नियमादि, तप नियमादिसंवादि सोरठा यद्यपि प्रभु केवलिपणें । बोल केइक नहि छे तमु ॥ तसु फल नां सद्भाव थी। कहिये ए फल आषयी ॥ दूहा १२. बलि सोमिल पूछे अछे, हे प्रभुजी ! भगवंत ! जवणिज्जं स्यूं बाहरे ? ते मुझ कहो उदंत ॥ १३. जिन भावे सोमिला ! वापनीय द्विविध थुणी । इंद्रिययापनीय जाण, नोइंद्रिय द्वितीय गुणी । द्वितीय गुणी जी, बिहुं वस करणी, तसु जवणिज्जं आखेज मुणी । तूं तो सुण-सुण सोमिल विप्र ! कहे इम तीर्थक्षणी ॥ १४. इंद्रियमापनीय कवण ? वाम प्रभु एम कहे। पांचू इंद्रिय मुझ निरुपहल जेह रहै ॥ जेह रहे जी, यसवर्ती व इंद्रियमापनीय तास लहै । तूं तो सुण-सुण सोमिल विप्र ! त्रिलोकीनाथ कहै ।। १५. बलि नोइंद्रिय जेह यापनीय कवण कही ? जिन कहै मुझ क्रोधादि विछेद थयाज सही । याज सही जी, मुझ उदय नहीं, नोइंद्रिय यापनीय तेह लही । तूं तो सुण-सुण सोमिल विप्र ! नाथ वचनामृत ही ॥ *लय : म्हानें लागं लागं चरण सुहायो / धिन धिन भिक्खू स्वाम १९२ भगवती जोड़ Jain Education International ७. सोमिला ! जं मे तव-नियमइह तपः विशेषा: ८९. संजम सजाय भाषावादी जयणा, सेत्तं जत्ता । संयमः --- प्रत्युपेक्षादिः जोगेसु (स०१८।२०७) स्वाध्यायो -- धर्मकथादि ध्यानं धर्मादिः आवश्यकं षड्विधं, 'जयण' त्ति प्रवृत्तिः । (२०१० ७३९) -अनशनादि नियमाः तद्विषया अभिग्रह ( वृ० प० ७५९ ) १०,११. एतेषु च यद्यपि भगवतः किञ्चिन्न तदानीं विशेषतः संभवति तथाऽपि तत्फलसद्भावात्तदस्तीत्यवगन्तव्यं, ( वृ० प० ७५९) १२. किति भंते! जवणिज्जं ? १३. सोमिला ! जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाइंदियजवणिज्जे य, नोइंदियजवणिज्जे य । ( श० १८१२०८ ) १४. से किं तं इंदियजवणिज्जे ? इंदियजवणिज्जे-जं मे सोइंद्रियक्षि घाणिदिय जिभिदिय- फासिंदियाई निरुवहयाई वसे बति तं इंद्रियजयगि ( श० १८२०९) 1 For Private & Personal Use Only १५. से किं तं नोइंदियजवणिज्जे ? - नोईदियनवणिज्जेमेोहमा माया लोभा वोडा नोउदीति से मोदिय सेत्तं जवणिज्जे । (१० १० २१० ) www.jainelibrary.org
SR No.003621
Book TitleBhagavati Jod 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages422
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size21 MB
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