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________________ ९. जे श्रुत ज्ञान रहीत, नहि जाणें देखे नहीं । भंग द्वितीय इम रीत, वृत्तिकार इहां इम कह्यो । १०. अतिशय अवधि रहीत श्रुतज्ञानी छ तेहने श्रुत उपयोग सहीत, प्रथम भंग ए आखियो । । 1 ११. नंदी मांहि निहाल, श्रुतज्ञानी उपयोग सूं । सर्व द्रव्य द्रव्य सुविशाल जाने में देखे असे । १२. सर्व क्षेत्र सहु काल, श्रुतशानी सह भाव प्रति । वर उपयोगे न्हाल, देखें कह्यो । १३ तास वृत्ति में बाय जाणे में श्रुतज्ञानी जाणण जोग्य कहाय, जाणें पिण 1 १४. तसु उत्तर तिण स्थान, किम देखिये || उपमा वंछी छै इहां । देखण नीं पर जाण, देखें छं इम आखियो || १५. मेरू आदिज ख्यात, अणदेख्या पिण शिष्य प्रते । आचार्य अवदात, आलंकी १६. श्रोता ने तिणवार, एहवी बुद्धिज जिम सूत्रे ते गणि गुणभंडार, प्रत्यक्ष देखें १७. इमहिज से क्षेत्रादि ते मार्ट देखे यह द्रव्यादि दोष नहीं छ १८. हे प्रभु! छद्मस्य मनुष्य जे, वलि देखे छे तेहने ? १९. एवं यावत जाणवो, श्रुतज्ञान में द्विप्रदेशिक हो बंध प्रति जानंत के Jain Education International कोइ जाणं में देखे नहीं, । देखाये || ऊपजे । । कहै ॥ का । तेहमें ।।' (ज.स.) जिन भाखै हो इमहीज उदंत के ।। असंख्यात हो प्रदेशिक खंध कै । नहि जाणें हो नहि देखे को संघ के ।। २०. हे प्रभु! छद्मस्थ मनुष्य स्यूं, जिन भाख अनंत प्रदेशिक हो खंध प्रश्न उदार के ? गुण गोयमा ! कहिये छै हो एहनां भांगा च्यार के ।। २१. कोइक जाणें देखे अछे, कोइ जाणें हो नहि देखे विशेख कै । कोइ न जाणें देखें अ नहि जाणं हो नहि देखे को एक के ।। सोरठा 1 २२. फर्शादिक करि जेह जाणें अनंतप्रदेशियो । वली चक्षु करि तेह, देखें विण ए भंग घुर ।। २३. द्वितियो भंग कहंत, स्पर्श करी जाणें तिको। नेत्रे नहि देखंत, चक्षू तणां अभाव थी । *लय : नींदडली हो वे रण १५२ भगवती जोड़ ९. तदन्यस्तु 'न जाणइ न पासइ' त्ति (व० प० ७५५) ११, १२. नंदी सू० १२७ १३. नंदी हा० वृ० पृ० ९५ १५. नंदी चू० पृ० ८२ १८. छउमत्थे णं भंते! मणुस्से दुपए सियं बंध कि जाणति पासति ? एवं चेव । (पाटि० २ ) १९. एवं जाव असंखेज्जपएसियं । ( ० १८१७५) २०. छउमत्थे णं भंते! मणुस्से अनंतपएसियं बंध कि पुच्छा ? गोवमा ! २१. अस्गतिए जाति-पाति, बागतिए जागति न पासति अनलिए न जाणति पासति अत्येतिए न जाणति न पासति । ( श० १८ ।१७६ ) २२. जानाति स्पर्शनादिना पश्यति च चक्षुषेत्येकः ? ( वृ० प० ७५५, ७५६ ) २३. तथाऽन्यो जानाति स्पर्शादिना न पश्यति चक्षुषा वादिति द्वितीयः । (२०१० ७५६) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003621
Book TitleBhagavati Jod 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages422
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size21 MB
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