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________________ हीज हुवै इति अचरम। अनं शेष नारकादिक ज्ञान सहित नारकपणादिक नै वलि पाम न हुवै ते चरम अनै अन्यथा अचरम इति । सव्वत्थ कहितां सर्व जीव आदि सिद्ध पर्यंत पद नै विषे एकद्रिय वर्जन इम जाणवो। ज्ञान भेद अपेक्षा करिके कहै छ --- शेषास्तु ज्ञानोपेतनारकत्वादीनां पुनर्लाभासम्भवे चरमा अन्यथा त्वचरमा इति, 'सव्वत्थ' त्ति सर्वेषु जीवादिसिद्धान्तेषु पदेषु एकेन्द्रियवजितेष्विति गम्यं ज्ञानभेदापेक्षयाऽऽह -- (वृ० प०७३७) ८९ आभिणिबोहियनाणी जाव मणपज्जवनाणी जहा आहारओ, नवरं जस्स जं अस्थि । ८९.*आभिनिबोधिक जाव मनपर्यव, आहारक जिम तस कहिये। कदा चरम कदा अचरम णवरं, जेहने छ तेहनैज गहिये ।। सोरठा ९०. धुर चिउं ज्ञानी जान, केवल पामी पुनरपि । नहिं लहिस्यै चिउं ज्ञान, चरम तिके अन्य अचरमा ।। ९१. तिरि पं० नारक देव, तीन ज्ञान तेहमें हवै। मन में पंच कहेव, विकलेंद्रिय में ज्ञान बे।। ६२. केवलज्ञानी जीव मनु सिद्ध पद में, नोसन्नी-नोअसन्नी जेम । अचरम जीव अनैं सिद्ध पद में, चरम मनुष्य पद खेम ।। ६३. अज्ञानी जाव विभंगअनाणी, आहारक जिम अवलोय । कदा चरम कदा अचरम कहिये, आगल न्याय सुजोय ।। ९०. तत्राभिनिबोधिकादिज्ञानं यः केवलज्ञानप्राप्त्या पुनरपि न लप्स्यते स चरमोऽन्यस्त्वचरमः । (वृ०प०७३७) ९२. केवलनाणी जहा नोसण्णी-नोअसण्णी । ९३. अण्णाणी जाव विभंगनाणी जहा आहारओ। (श० १८३१) ९४. यो ह्यज्ञानं पुनर्न लप्स्यते स चरमः । (वृ० प० ७३७) ९५. यस्त्वभव्यो ज्ञान न लप्स्यते एवासावचरम इति । (व० प०७३७) ९६. एवं यत्र यत्राहारकातिदेशस्तत्र तत्र स्याच्चरमः स्यादचरम इति व्याख्येयं । (वृ० प० ७३७) ९७. शेषमप्यनयव दिशाऽभ्युह्यमिति । (बृ० ५०७३७) सोरठा ९४. जे अज्ञानी जाण, ज्ञान लहीने पुनरपि । लहिस्यै नहिं अज्ञान, सिद्धि-गमन थी चरम ते ।। ९५. अभव्य ते अवलोय, ज्ञान कदै लहिस्यै नहीं। ते अज्ञानी जोय, अचरम छ पिण चरम नहीं ।। ९६. जिहां-जिहां इम जेह, आहारक आदिक देश जे । ___ तिहां-तिहांज कहेह, कदा चरम अचरम कदा ।। ९७. कहिबा जोग्यज जेह, शेष द्वार पिण छै जिके । एणे देश करेह, कहिवो सर्व विचार नै । योग द्वार ९८. *सजोगी यावत कायजोगी, ते आहारक जिम अवदात । कदा चरम कदा अचरम कहिये, जेहमें जोग छै ते थात ।। ९९. अजोगी जोव मनुष्य सिद्ध पद में, नोसन्नी-नोअसन्नी जेम। अचरम जीव अने सिद्ध पद में, मनुष्य में चरमज तेम ।। उपयोग द्वार १००. साकार ने अनाकारोवउत्तो, अनाहारक जिम एह । जीव सिद्ध इक वच बहु वचने, नो चरम अचरमा जेह ।। १०१. शेष स्थानक विषे इक बहु वचने, आहारक जिम विध वरिमा। इक वच कदा चरम कदा अचरम, बहु वच चरिमा अचरिमा ।। *लय: रे भवियण! सेवो रे साधु सयाणां ९८. सजोगी जाव कायजोगी जहा आहारओ, जस्स जो जोगो अस्थि । ९९. अजोगी जहा नोसण्णी-नोअसण्णी । (श० १८३२) १००, सागारोवउत्तो अणागारोव उत्तो य जहा अणाहारओ। (ण०१८।३३) १२६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003621
Book TitleBhagavati Jod 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages422
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size21 MB
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