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________________ यतनी ३५-३७. एकत्र च त्रिकसंयोगेऽष्टाविति षडविशतिरिति । (व० ५०८०१) ३५. कृष्ण एक नील एक, कापोत एक संपेख । एक कृष्ण नील इक होत, बहुवचन करी कापोत ।। ३६. एक कृष्ण नील बहु होय, एकवचन कापोत सुजोय । एक कृष्ण नील बहु जाण, बहुवचन कापोत सुजाण ।। ३७. कृष्ण इकवचने चिउं धार, कृष्ण बहु वच पिण इम च्यार। त्रिकयोगिक भंग ए अष्ट, सर्व छब्बीस भंग सुदृष्ट ।। तीन लेश्या नां भांगा २६ कृष्ण नील कापोत १ १ १ एवं ३ कृष्ण नील कापोत ३ ३ एवं ६ द्विकसंयोगिक १२ भांगा कृष्ण नील कृष्ण कापोत नील कापोत त्रिकसंयोगिक ८ मांगा कृष्ण नील कापोत कृष्ण नील कापोत mr ~ m ال m m م or mm له ३८. दिट्ठी जाव इंदिया जहा (श० ११११३-२८)। ३८. *तथा दृष्टि जाव इंद्रिय वली रे, ___कह्यो उत्पल उद्देशे जेम जी। गोयम ! कहिवो तिणहिज रीत सूं रे, तिको कहियै छै हिव एम जी ।। उप्पलुद्दे से (श० २११५) सोरठा ३९. मिथ्यादृष्टिज एक, ज्ञान नहीं अज्ञान बे। काय जोग इक पेख, बे उपयोगज जाव थी ।। ३९. तत्र दृष्टौ मिथ्यादृष्टयस्ते ज्ञानेऽज्ञानिनः योगे काययोगिनः उपयोगे द्विविधोपयोगाः, (वृ० प०८०१) ४०. ते णं भंते ! साली-वीही-गोधूम-जव-जवजवग मूलगजीवे कालओ केवच्चिरं होति ? ४०. *प्रभु ! सालि ब्रीही गोहूं तेहनां रे, जीव जवजव धान्य नां जेह जी। प्रभु ! जीव मूल नां काल थी रे, " केतलो काल रहेह जी ? ४१. उत्तर अंतर्मुहूर्त जघन्य थी रे, उत्कृष्ट असंखिज्ज काल जी। गोयम ! आ तो कायस्थिति आखी इहां रे, आगै कहिस्यै भवस्थिति न्हाल जी।। *लय : हंसा नदीय किनारे रूंखड़ो रे ४१. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखेज कालं। (श० २२६) ३८२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003621
Book TitleBhagavati Jod 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages422
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size21 MB
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