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________________ ५३. नायव्वं जस्स जइ सरीराणि। (श०१९८३) ५३. जास जिता तनु होय, तेतला तास भणीजिये। नारक ने त्रिण जोय, इम यथायोग्य थुणीजिये ।। सर्वन्द्रिय-निर्वत्ति पद ५४. कतिविध हे जगतार! सर्व-इंद्रिय-निवृत्ति । जिन कहै पंच प्रकार, श्रोत्रंद्रियादिक-निष्पत्ति ॥ ५५. इम नारक नैं पंच, जाव थणित ने पंच ही। पृथ्वी प्रश्न सुसंच, इक फासिदिय नी कही ।। ५४. कतिविहा णं भते ! सब्विदियनिव्वत्ती पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा सविदियनिव्वत्ती पण्णत्ता, तं जहा-सोइंदियनिव्वत्ती जाव फासिदियनिब्बत्ती। ५५. एवं नेरइयाणं जाव थणियकुमाराणं । __ (श० १९।८४) पुढविकाइयाणं-पुच्छा गोयमा ! एगा फासिदियनिव्वत्ती पण्णत्ता । ५६. एवं जस्स जति इंदियाणि जाव बेमाणियाणं । (श० १९।८५) ५६. इम जसु जेतली होय, तेतली तसु इंद्रिय कही। यावत ही अवलोय, वैमानिक ने पंच ही ।। भाषा-निर्वृत्ति पद ५७. कतिविध हे भगवंत! आखी भाषा-निवृत्ति । जिन कहै चउविध हंत, सत्या भाषा निष्पत्ति ।। त पद ५७. कतिविहा णं भंते ! भाषानिव्वत्ती पण्णता? गोयमा ! चउबिहा भासा निव्वत्ती पण्णत्ता, तं जहा-सच्चभासानिव्वत्ती, ५८, मोसभाषानिव्वत्ती, सच्चामोसभासानिव्बत्ती, असच्चामोसभासानिव्वत्ती। ५९. एवं एगिदियवज्ज जस्स जा भासा जाव वेमाणियाणं । (श० १९।८६) ५८. मृषा भाषा निर्वृत्ति, सत्यामृषा वलि कही। असत्यामृषा निष्पत्ति, ए च्यारूं भाषा सही ।। ५९. एकेंद्रिय वर्जेह, जे भाषा छै जेह तणें । तेहने कहिये तेह, जाव विमानिक नै भणे ।। मन-निर्वत्ति पद ६०. हे प्रभु! कितै प्रकार, मनो-निवत्ति जाणिय ? जिन कहै चउविध धार, आगल तेह बखाणियै ।। ६१. सत्य मनो-निर्वत्ति, जाव असत्यामृषा कही। ए चिउं मन निष्पत्ति, हिव निर्णय दंडक मही ।। ६२. एकेंद्रिय वर्जेह, वलि विकलेंद्रिय वर्ज नै। कहिवा च्यारूं एह, जाव विमानिक अमर नै । कषाय-निवृत्ति पद ६३. कतिविध हे भगवान ! कही कषायज-निवत्ति? जिन कहै चिउं विध जान, प्रथम क्रोध नी निष्पत्ति ।। ६०. कतिविहा णं भंते ! मणनिव्वत्ती पण्णता? गोयमा ! चउम्विहा मणनिव्वत्ती पण्णत्ता तं जहा६१. सच्चमणनिब्बत्ती जाव असच्चामोसमणनिव्वत्ती ६२. एवं एगिदियविलिदियवज्जं जाव वेमाणियाणं । (श० १९८७) ६३. कतिविहा णं भंते ! कसायनिव्वत्ती पण्णत्ता ? गोयमा ! चउब्विहा कसायनिवत्ती पण्णत्ता, तं जहा-कोहकसायनिव्वत्ती ६४. जाव लोभकसायनिव्वत्ती। एवं जाव वेमाणियाणं । (श० १९।८८) ६४. यावत लोभ कषाय-निर्वृत्ति चउथी जाणियै । एवं जाव कषाय, वैमानिक ने आणिय ।। वर्ण-निर्वृत्ति पद ६५. कतिविध हे जगतार! वर्ण-निवत्ति आखियै । जिन कहै पंच प्रकार, वर्ण-निष्पत्ति दाखियै ।। ६६. कृष्ण वर्ण-निर्वृत्त, जाव शुक्ल वर्ण छै सही। एम सर्व ही कथित्त, यावत वैमानिक मही ।। ६७. एवं गंध-निर्वृत्त, दोय प्रकारे जाणियै । यावत चर्म कथित्त, वैमानिक नै माणिय ।। ६५. कतिविहा णं भंते ! वण्णनिव्वत्ती पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा वण्णनिव्वत्ती पण्णत्ता, तं जहा६६. कालावण्णनिव्वत्ती जाव सुक्किलावण्णनिव्वत्ती । एवं निरवसेसं जाव वेमाणियाणं । ६७. एवं गंधनिव्वत्ती दुविहा जाव वेमाणियाणं श०१९, उ०८, ढा० ३९६ २३३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003621
Book TitleBhagavati Jod 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages422
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size21 MB
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