________________
३७. एवं पच्चथिमिल्ले वि, उत्तरिल्ले वि ।
(श० १६।११२) ३८. लोगस्स णं भंते ! उरिल्ले चरिमंते कि जीवा
पुच्छा । ३९. गोयमा ! नो जीवा, जीवदेसा बि जाव अजीवपदेसा
वि। ४०. जे जीवदेसा ते नियम,
४१. एगिदियदेसा य अणिदियदेसा य,
३७. इम पश्चिम परिमंत, उत्तर नोंज कह्यो जी।
इणहिज विधि विरतंत,श्री जिन वच थी लह्यो जी। ३८. लोक तणों भगवान ! चरिमंत ऊपरलो जी।
स्यूं जीवा पहिछाण ? गोयम प्रश्न भलो जी ॥ ३९. जिन कहै जीचा नांय, जीव नां देश घणां जी।
यावत वलि कहिवाय, प्रदेश अजीव तणां जी ।। ४०. जे जीव नां बहु देश, ते नियमा थी लहै जी।
द्विकयोगिक सुविशेष, भांगो एक कहै जी ।। ४१. एकेंद्रिय बहु देश, वले अणिद्रिय नां जी। देश बहू सुविशेष, ए बेहं निश्चै धनां जी ।।
सोरठा ४२. ऊपरलो चरिमंत, सिद्ध उपलक्षित वांछियो।
ते माट इम इंत, अणिदिया नां देश बहु ।। ४३. एकेंद्रिय सह लोग, सिद्ध अणिदिया ते भणी।
ए बेहुं तणां प्रयोग, देश घणां निश्चै करी ।। ४४. ते माटै आख्यात, द्विकयोगिक ए भंग इक ।
नियमा तसु विख्यात, देश अनंता बिहुँ तणां ।।
हिवै त्रिकसंयोगिक तीन भांगा कहें छ४५. *तथा एकेंद्रि नां बहु देश, अणि दिया देश बहू जी।
एक बेइंदि कहेस, तसु एक देश कहूं जी ।। ४६. तथा एकेंद्रि नां बहु देश, अणि दिया देश बहू जी।
घणां बेइंदिया कहेस, तसु बहु देश कहूं जी ।। ४७. लहै द्विकयोगिक भंग एक, त्रिण त्रिक योग विषे जी।
मध्यम भंग म लेख, शेष बे भंग अखे जी ।।
४२-४४. 'उवरिल्ले चरिमंते' त्ति, अनेन सिद्धोपलक्षित
उपरितनचरिमान्तो विवक्षितस्तत्र चैकेन्द्रियदेशा अनिन्द्रियदेशाश्च सन्तीतिकृत्वाऽऽह--'जे जीवे' त्यादि, इहायमेको द्विकसंयोगः, (वृ० प० ७१५)
४५. अहवा एगिदियदेसा य अणिदियदेसा य बेइंदियस्स य
देसे, ४६. अहवा एगिदियदेसा य अणिदियदेसा य बेइंदियाण य
देसा, ४७. एवं मज्झिल्लविरहिओ त्रिकसंयोगेषु च द्वौ द्वौ कायौं , तेषु हि मध्यमभङ्गः।
(वृ० प० ७१५)
सोरठा ४८. एकेंद्री बहु देश, अणिदिया नां देश बहु ।
इक बेंद्रिय बहु देश, ए मध्य भांगो नथी ।। ४९. इक बेंद्रिय बहु देश, तास असंभव थीज इम।
हिव तसू न्याय विशेष, कहियै छै ते सांभलो ।। ५०. इक बेइंद्रिय ख्यात, ऊपरलै चरिमांत जे । ___ मारणांतिक समुद्घात, तसु देश एक-इक संभवै ।।
४८. 'अहवा एगिदियदेसा य अणिदियदेसा य बेइंदियस्स
य देसा' इत्येवंरूपो नास्ति, (वृ० प० ७१५) ४९. द्वीन्द्रियस्य च देशा इत्यस्यासम्भवाद्,
(वृ० ५० ७१५) ५०. यतो द्वीन्द्रियस्योपरितनचरिमान्ते मारणान्तिकसमुद्घातेन गतस्यापि देश एव तत्र संभवति
(वृ० प० ७१५) ५१-५३. न पुनः प्रदेशवृद्धिहानिकृतलोकदन्तकवशादनेक
प्रतरात्मकपूर्वचरमान्तवद्देशाः, उपरितनचरिमान्तस्यैकप्रतररूपतया लोकदन्तकाभावेन देशानेकत्वाहेतुत्वादिति,
(वृ० प०७१५)
५१. प्रदेश नीं वृद्धि हान, ऊपरलै चरिमंत नहीं।
दंतक अभाव जान, तिणसू बहु प्रतर नहीं। ५२. पर्वले चरिमंत, दंतक तणांज वश थकी।
प्रतर अनेकज हुँत, तिम उवरिम चरिमंत नहीं।। ५३. ऊपरलै चरिमंत, इक हिज प्रतरपणे करी ।
दंतक अभाव हुत, बहु देश नहीं इण कारणे ।।
*लय : एक दिवस जय राज पभण
६० भगवती जोड़
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org