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________________ ढाल : ३७६ १. चतुर्थोद्देशकान्ते तेजस्कायिकवक्तव्यतोक्ता ते च भास्वरजीवा इति पञ्चमे भास्वरजीवविशेषवक्तव्यतोच्यते (वृ० प० ७४६) २. दो भंते ! असुरकुमारा एगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमारदेवत्ताए उववन्ना, दूहा १. तुर्य उद्देशक अंत में, तेजसकायिक देख । भास्वर जीवा ते हिव, भास्वर जीव विशेख ।। *हं बलिहारी हो, हूं बलिहारी हो श्री जिन वचनां तणी॥(ध्रुपदं) २. हे प्रभु ! असुरकुमार बे, इक असुरकुंवार आवास हो प्रभुजी ! असुरकुमार देवतपणे, ऊपनां ते सुखरास हो प्रभुजी ! हूं बलिहारी ! ३. इक तिहां असुरकुमार ते, प्रासादनीक पिछाण हो प्रभुजी ! रूप मनोहर अति घणों, देखवा योग्य सुजाण हो प्रभुजी! ४. अभिरूप अति ओपतो, प्रतिरूप पेखंत हो स्वामी जी ! टबा विषे चिउं पद तणों, एक अर्थ आखंत हो स्वामी जी ! ५. अस रकुमारज इक वली, नहीं प्रासादनीक तद्रप हो प्रभजी! देखवा योग्य तिको नहीं, नहिं अभिरूप प्रतिरूप हो प्रभजी ! ६. ते किम ए भगवंत जी? प्रश्न एम पूछत हो प्रभुजी जिन कहै असुरकुमार ते, दोय प्रकार दाखंत हो गोयमजी ७. वे उब्वियसरीरा कह्या, ते विभूषित तनुवंत हो गोयम जी ! अविउब्वियसरीर ते, तनु विभूषा न करत हो गोयम जी ! ३. तत्थ णं एगे असुरकुमारे देवे पासादीए दरिसणिज्जे ४. अभिरूवे पडिरूवे, ८. विभूपित तनुवंत जे, असुरकुमार अनूप हो गोयम जी ! प्रासादनीक मनोहरू, यावत ते प्रतिरूप हो गोयम जी! ९. अविभूषित तनुवंत जे, असुरकुमार तद्रूप हो गोयम जी ! प्रासादनीक नहीं तिको, जाव नहीं प्रतिरूप हो गोयम जी ! ५. एगे असुरकुमारे देवे से णं नो पासादीए नो दरिसणिज्जे नो अभिरूवे नो पडिरूवे, ६. से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! असुरकुमारा देवा दुविहा पण्णत्ता, ७. वेउब्वियसरीरा य, अवेउब्वियसरीरा य । 'वेउब्वियसरीर' त्ति विभूषितशरीरः । (वृ० ५० ७४६) ८. तत्थ ण जे से वेउब्वियसरीरे असुरकुमारे देवे से णं पासादीए जाव पडिरूवे । ९. तत्थ णं जे से अवेउब्वियसरीरे असुरकुमारे देवे से णं नो पासादीए जाव नो पडिरूवे। (श० १८१९७) १०. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-तत्थ णं जे से वेउब्वियसरीरे तं चेव जाव नो पडिरूवे? ११. गोयमा ! से जहानामए-इह मणुयलोगंसि दुवे पुरिसा भवंति१२. एगे पुरिसे अलंकियविभूसिए, १३. एगे पुरिसे अणलं कियविभूसिए। १०. किण अर्थे प्रभु ! इम कह्य, तन जे विभूषितवंत हो प्रभुजी ! तं चेव यावत जाणवं, नो प्रतिरूप कहंत हो प्रभुजी ? ११. जिन भाखै सुण गोयमा ! यथादष्टांते जोय हो गोयम जी ! इण मनुष्य लोक विषे हुवै, दोय पुरुष अवलोय हो गोयम जी! १२. एक पुरुष अलंकृत अछ, अधिक विभूषित अंग हो गोयम जी ! वस्त्र अलंकार सहित छै, आमरण सखर सुचंग हो गोयम जी! १३. एक पुरुष तिहां एहवं, अलंकार नहीं अंग हो गोयम जी ! शरीर विभूषित ते नहीं, आभरण वस्त्र न चंग हो गोयम जी ! १४. ए बिहं पुरुष में गोयमा ! कुण नर कहियै अनूप हो गोयम जी ! प्रासादनीक मनोहरू, यावत ते प्रतिरूप हो गोयम जो ! १५. कवण पुरुष दोयां मांहिलो, प्रासादनीक न होय हो गोयम जी! जाव नहीं प्रतिरूप ते, मनहर पिण नहीं कोय हो गोयम जी! १६. जेह अलंकृत पुरुष छ, अधिक विभूषित चंग हो गोयम जी! जेह पुरुष अलंकृत नहीं, नहीं छै विभूषित अंग हो गोयम जी! *लप : हूं बलिहारी हो, हूं बलिहारी हो श्री जिनजी री आगन्या १५२ भगवती जोड़ १४. एएसि णं गोयमा ! दोण्हं पुरिसाणं कयरे पुरिसे पासादीए जाव पडिरूवे, १५. कयरे पुरिसे नो पासादीए जाव नो पडिरूवे । १६. जे वा से पुरिसे अलंकियविभूसिए, जे वा से पुरिसे अणलंकियविभूसिए? Jain Education International Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003621
Book TitleBhagavati Jod 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages422
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size21 MB
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