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निर्ग्रन्थों के सामने वह चर्चा की। श्रमणों को उसके कथन पर विश्वास नहीं हुआ। वे भगवान् के पास गए। उन्होंने माकन्दीपुत्र अनगार द्वारा बताई गई सारी बातें पूछी । भगवान् बोले-माकन्दीपुत्र ने तुम्हारे सामने जो कुछ कहा, वह सत्य है। यह बात सुन सब श्रमणों ने माकन्दीपुत्र अनगार के पास जाकर उससे 'खमत-खामणा' किया। उसके बाद माकन्दीपुत्र अनगार पुनः भगवान् के उपपात में पहुंचा । उसने भावितात्म अनगार की अन्तक्रिया के प्रसंग में निर्जरा-पुद्गलों के बारे में विस्तार से अपने प्रश्नों का समाधान प्राप्त किया।
चौथे उद्देशक में प्राणातिपात पाप आदि अठारह पापों के परिभोग, कषाय तथा संख्या के संदर्भ में कृतयुग्म आदि का वर्णन है। पांचवें उद्देशक में भवनपति देवों और नरक भूमि में उत्पन्न होने वाले नैरयिकों के बारे में चर्चा की गई है। छठे उद्देशक में फाणित गुड़, भ्रमर आदि में पाए जाने वाले वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि का विवेचन निश्चयनय और व्यवहारनय के आधार पर किया गया है। सातवें उद्देशक में केवली के असत्य संभाषण सम्बन्धी अन्यतीथिकों के असत् अभिमत का निरसन करते हुए बताया गया है -यक्षाविष्ट केवली असत्य और मिश्र भाषा बोलते हैं, यह कथन मिथ्या है। न तो केवली यक्षाविष्ट होते हैं और न उक्त भाषाएं बोलते हैं । वे सत्य और व्यवहार-ये दो भाषाएं बोलते हैं।
राजगृह नगर में कालोदाई, सेलोदाई आदि अन्यतीथिकों ने मदुक श्रमणोपासक से पंचास्तिकाय के बारे में कुछ प्रश्न किए। मद्दुक के उत्तरों से उनको सन्तोष नहीं हुआ । मद्दुक ने प्रतिप्रश्न उपस्थित कर उनको समाहित किया । अन्यतीथिकों के प्रश्नों के उत्तर देकर मदुक भगवान् के पास पहुंचा । भगवान् ने मदुक के उतरों को सही बताया । मदुक कृतार्थ हो गया। उसने भगवान् के चरणों में बैठकर अपनी अन्य जिज्ञासाओं को समाहित किया । यह प्रसंग भी इसी उद्देशक में है।
आठवें उद्देशक में ईर्यापथिकी और सांपरायिकी-इन दो क्रियाओं के वर्णन में जयाचार्य द्वारा की गई लम्बी समीक्षा है। ६८ पद्यों की समीक्षा में अनेक आगमों के उद्धरण प्रस्तुत कर यह सिद्ध किया है कि वीतराग के ईर्यापथिकी क्रिया होती है । इसी उद्देशक में गणधर गौतम की अन्यतीथिकों के साथ हुई चर्चा का वर्णन है। उद्देशक के अन्त में छद्मस्थ मनुष्य और केवलज्ञानी के ज्ञान-दर्शन की क्षमता का उल्लेख हुआ है।
नौवें उद्देशक में भव्य द्रव्य नारक आदि जीवों का वर्णन है । दशवें उद्देशक में सोमिल ब्राह्मण और भगवान् महावीर के बीच हुई रोचक चर्चा को विस्तार से दिया गया है । सोमिल वेदों का ज्ञाता था। विद्वान् था । उसने यात्रा, यमनीय, अव्याबाध, प्रासूक विहार और भक्ष्याभक्ष्य के सम्बन्ध में प्रश्न उपस्थित किए। भगवान् से समाधान प्राप्त कर वह संतुष्ट हआ। उसने भगवान के पास श्रमणोपासक की दीक्षा स्वीकार की। उन्नीसवां शतक
उन्नीसवें शतक के दस उद्देशक हैं । इस शतक के प्रथम दो उद्देशकों में लेश्या की चर्चा है। तीसरे उद्देशक में पृथ्वीकायिक आदि स्थावर जीवों के शरीर पर्याप्ति के बंध, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, योग, उपयोग, आहार, उत्पत्ति, स्थिति, समुद्घात, उद्वर्तन, अवगाहना, अल्पबहुत्व, वेदना आदि का वर्णन है । चौथे और पांचवें उद्देशक में आश्रव, क्रिया, वेदना और निर्जरा की अल्पता और अधिकता को आधार बनाकर चौबीस दण्डकों का निरूपण किया गया है । छठे उद्देशक में द्वीप-समुद्रों की संक्षिप्त-सी चर्चा है। सातवें उद्देशक में देवों के भवनों और विमानों की संख्या और स्वरूप पर विचार किया गया है । आठवें उद्दे शक में निर्वृत्ति-निष्पत्ति के संदर्भ में जीव, कर्म, शरीर, इन्द्रिय, भाषा, मन, कषाय, वर्ण, गन्ध, रस, संस्थान, संज्ञा, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान, योग और उपयोग के प्रकार बतलाए गए हैं। नौवें उद्देशक में करण की चर्चा में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव करण का उल्लेख करने के बाद शरीर करण, इन्द्रिय करण, प्राणातिपात करण, पुद्गल करण, वर्ण करण और संस्थान करण का वर्णन है। दसवें उद्देशक में व्यन्तर देवों के आहार करण और ऋद्धि की अल्पता-अधिकता की चर्चा के साथ प्रस्तुत शतक समाप्त हो जाता है। बीसवां शतक
बीसवें शतक के दस उद्देशकों में द्वीन्द्रिय आदि जीवों की वक्तव्यता प्रथम उद्देशक में है। दूसरे उद्देशक में आकाश के दो भेद लोकाकाश और अलोकाकाश का उल्लेख है । लोकाकाश के संदर्भ में पांच अस्तिकाय की सूचना के साथ उनके पर्यायवाची शब्द दिए गए हैं। तीसरे उद्देशक में प्राणातिपात आदि की आत्मा के साथ अभिन्नता बताई गई है। चौथे उद्देशक में इन्द्रियों के उपचय का उल्लेख करके इस विषय को पन्नवणा के आधार पर समझने का संकेत दिया गया है।
बीसवें शतक के पांचवें उद्देशक की जोड़ प्रस्तुत ग्रन्थ के २५६ पृष्ठ से शुरू होकर ३४२ पृष्ठ तक पहुंचती है। ग्रन्थ के ८७ पृष्ठों में परमाणु और स्कन्ध में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के आधार पर किए गए भंगों का वर्णन है। यह उद्देशक एक प्रकार से गणित का उद्देशक है । मूल तथ्यों को पद्यवद्ध रचना में प्रस्तुति देने के बाद जयाचार्य ने उनको अंकों में स्थापित किया है।
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