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________________ (८) तीसरे उद्देशक में कर्मप्रकृतियों की चर्चा के सम्बन्ध में गणधर गौतम ने एक विचित्र प्रश्न उपस्थित किया। उन्होंने पूछाभन्ते ! किसी भावितात्म अनगार के अर्श की बीमारी है । वह कायोत्सर्ग में उपस्थित है। उस समय कोई वैद्य अर्श का छेदन करे तो उसकी क्रिया वैद्य को लगेगी या मुनि को ? सूत्रकार ने वैद्य के क्रिया बताई। वृत्तिकार ने इस क्रिया को शुभ माना है। इस बिन्दु पर जयाचार्य ने ९२ गाथाओं में विस्तृत समीक्षा करते हुए वृत्तिकार के अभिमत को विरुद्ध प्रमाणित किया है। इसके लिए उन्होंने निसीहज्झयणाणि, उत्तरज्झयणाणि, रायपसेणइज्ज, आयार चूला आदि आगमों को उद्धृत कर अपने मन्तव्य की पुष्टि की है। चतुर्थ उद्देशक में गणधर गौतम ने एक प्रश्न उठाया है-नारक जीव सौ, हजार, लाख, करोड़ और करोड़ा-करोड़ वर्षों में जितने कर्मों का क्षय करते हैं, एक मुनि उतने कर्म कितनी तपस्या के द्वारा क्षय कर लेते हैं ? भगवान् ने उक्त प्रश्न को उत्तरित कर एक उदाहरण के द्वारा उसे बुद्धिगम्य बना दिया । इसी प्रकार पांचवें उद्देशक में गंगदत्तदेव के पूर्वभव का वर्णन है। छठे उद्देशक में स्वप्नों और उनके फलों की विस्तृत चर्चा है । सातवें उद्देशक में पासणिया-पश्यत्ता, आठवें उद्देशक में लोक के विभिन्न भागों में जीवों और परमाणु-पुदगलों की गति, नौवें उद्देशक में बलि सभा, दसवें उद्देशक में अवधिज्ञान तथा ग्यारहवें से चौदहवें तक चार उद्देशकों में द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार एवं स्तनित कुमार की चर्चा की गई है। सतरहवां शतक सतरहवें शतक में सतरह उद्देशक हैं । संग्रहणी गाथा में प्रत्येक उद्देशक में प्रतिपादित होने वाले विषयों की सूचना है। प्रथम उद्देशक में उदायी और भूतानंद नामक हाथियों की उत्पत्ति और मुक्ति की संक्षिप्त चर्चा के साथ क्रिया का वर्णन है। अन्त में छह भावों का उल्लेख है । दूसरे उद्देशक में संयत, असंयत और संयतासंयत की धर्म-अधर्म में स्थिति, बाल, पंडित के सम्बन्ध में अन्यतीथिकों का मन्तव्य, जीव और जीवात्मा का एकत्व और रूपी-अरूपी विक्रिया के सन्दर्भ में भगवान् महावीर और गणधर गौतम के प्रश्नोत्तर हैं । तीसरे उद्देशक में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव एजना, शरीर, इन्द्रिय और योग की चलना का निरूपण हुआ है तथा संवेग, निर्वेद आदि धर्मों की साधना का अन्तिम फल मोक्ष बताया है । चौथे उद्देशक में भिन्न प्रकार से क्रिया की चर्चा के बाद दुःख के वेदन की प्रक्रिया बताई गई है। पांचवें उद्देशक में दूसरे स्वर्ग ईशान की सभा आदि का संक्षिप्त वर्णन है। छठे से ग्यारहवें उद्देशक तक छह उद्देशकों में जीवों के मारणान्तिक समुद्घात और मृत्यु के बाद उत्पत्ति-क्षेत्रों का वर्णन है । शेष छह उद्देशकों में एकेन्द्रिय जीवों तथा नागकुमार, सुवर्णकुमार, विद्युतकुमार, वायुकुमार और अग्निकुमार देवों के आहार, श्वासोच्छवास, आयुष्य आदि की समानता के सम्बन्ध में चर्चा की गई है। अठारहवां शतक अठारहवें शतक के दस उद्देशक हैं । प्रारंभिक पद्यों में संग्रहणी-गाथा के आधार पर प्रत्येक उद्देशक की विषयवस्तु का उल्लेख किया गया है । यह क्रम प्रायः सभी शतकों में इसी प्रकार है। प्रस्तुत शतक की जोड़ इक्कीस ढालों में निबद्ध है। इसके प्रथम उद्देशक को दो ढालों में समेटा गया है। विषय प्रतिपादन की दृष्टि से प्रमुख रूप में दो बिन्दुओं का स्पर्श हुआ है-प्रथमअप्रथम और चरम-अचरम । जीव प्रथम है या अप्रथम ? सिद्ध प्रथम है या अप्रथम? इस प्रकार के प्रश्नों द्वारा अत्यन्त रोचक ढंग से तत्त्वज्ञान परोसा गया है । प्रथम-अप्रथम की तरह ही विविध दृष्टियों से चरम-अचरम की चर्चा है। इनके आधार पर ज्ञानवर्धक और रोचक दो थोकड़ों का निर्माण किया जा सकता है। दूसरे उद्देशक में भगवान् महावीर की उपस्थिति विशाखा नाम की नगरी में दिखाई गई है। वहां प्रथम स्वर्ग सौधर्म का देवराज शक्र अपनी दिव्य ऋद्धि के साथ भगवान् के समवसरण में दर्शन करने आया। उसके आभियोगिक देवों ने बत्तीस प्रकार के नाटक दिखाए । शक लौट गया । गणधर गौतम ने शक के पूर्वभव के बारे में जिज्ञासा की। भगवान् गौतम को बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत के युग में ले गए। उस समय हस्तिनापुर नामक नगर में कार्तिक नाम का श्रेष्ठी था। वह तत्त्वज्ञ श्रमणोपासक था। उसने तीर्थकर मुनिसुव्रत के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करता हुआ आयुष्य पूरा होने पर वहां से अनशनपूर्वक मृत्यु का वरण कर सौधर्म कल्प में इन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ है । इस उद्देशक में बताया गया है कि संसार से विरक्त व्यक्ति को यह लोक जलता हुआ दिखाई देता है । जन्म-मरण की अग्नि से अपनी आत्मा को बचाने के लिए प्रव्रज्या को ही एक मात्र उपाय बताया गया है। इस दृष्टि से इस उद्देशक को वैराग्य की प्रेरणा देने वाला माना जा सकता है। तीसरे उद्देशक में तत्त्व-चर्चा का एक रोचक प्रसंग है । भगवान् के शिष्य माकन्दीपुत्र ने कापोत लेश्या वाले पृथ्वीकायिक, अपकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों की मुक्ति के बारे में भगवान् से कुछ प्रश्न पूछे । अपने प्रश्नों के उत्तर पाकर उसने अन्य श्रमण Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003621
Book TitleBhagavati Jod 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages422
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size21 MB
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