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४. दक्षिण नां चरिमंत थकी जे, उत्तर यावत जायो।
उत्तर नां चरिमंत थकी जे, दक्षिण यावत ध्यायो?
५. ऊपरला चरिमंत थकी जे, हेडिल्ल चरिमंत ताह्यो ।
एक समय मांहै ते जावे? पंचम प्रश्न कहायो।। ६. वलि हेड्रिल्ल चरिमंत थकी जे, ऊपरलै चरिमंतो। एक समय जावै परमाणु ? हंता कहै भगवंतो।।
सोरठा ७. परमाणु नो एह, गमन समर्थपणों कह्यो। तथा स्वभावपणेह, तेह थकी ए गति वृत्तौ ।।
४. दाहिणिल्लाओ चरिमंताओ उत्तरिल्लं जाव (सं० पा०) गच्छति ? उत्तरिल्लाओ चरिमंताओ दाहिणिल्ल जाव (सं० पा०) गच्छति ? ५. उवरिल्लाओ चरिमंताओ हेट्ठिल्लं चरिमंतं एगसम
एणं गच्छति ? ६. हेट्ठिल्लाओ चरिमंताओ उवरिल्ल चरिमंतं एगसमएणं गच्छति ? हंता गोयमा ! गच्छति ।
(श० १६.११६)
सारा
७. 'परमाणु' इत्या दि, इदं च गमनसामर्थ्य परमाणोस्तथास्वभावत्वादिति मन्तव्यमिति ।
(वृ०प०७१७) ८. अनन्तरं परमाणोः क्रिया विशेष उक्त इति क्रियाधिकारादिदमाह -
(वृ०प०७१७)
८. अनंतरे आख्यात, परमाण नी गति क्रिया। क्रिया अधिकारात, आगल क्रिया कहीजिये ।। क्रिया पद ९. *पुरुष प्रभु ! घन पारख करिवा, मेह वरसै इण वारी।
अथवा मेघ न बरसै हिवड़ा, एहवी मन में धारी ।।
वा० .. वृष्टि निजर न आवै ते भणी आकास नै विषे हस्तादिक पसारवा थकी जाणिय, ते मार्ट हस्तादिक संकोचै तथा पसारै ।
९. पुरिसे णं भंते ! वासं वासति, वासं नो वासतीति
१०. हस्त पांव बाहु साथल प्रति, जे संकोचन करतो।
अथवा कर पग आदि पसारतो, क्रिया केतली धरतो? ११. श्री जिन भाखै ए अभिलाखै, ज्यां लग जे नर जाणी।
वरषा वरसै कै नहि वरसै, इम पारख मम आणी ।। १२. हस्त पांव बाहु साथल प्रति, संकोचे रु पसारै ।
ते नर फर्श पंच क्रिया प्रति, काइयादिक तिण वारै ।।
वा० - अचक्षुरालोके हि वृष्टिराकाशे हस्तादिप्रसारणादेव
गम्यते इतिकृत्वा हस्तादिकं आकुण्टयेद्वा प्रसारयेद्वाऽऽदित एवेति ।
(बृ०५० ७१७) १०. हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा आउंटावेमाणे वा
पसारेमाणे वा कतिकिरिए ? ११. गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे वासं वासति, वासं
नो वासतीति १२. हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरु वा आउंटावेति वा
पसारेति वा, तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव (सं० पा०) पंचहि किरियाहि पुठे ।
(श० १६।११७)
१४. आकुण्टनादिप्रस्तावादिदमाह-
(वृ०प० ७१७)
सोरठा १३. एहवं इहां जणाय, जल बिंदु फयें पंच क्रिय।
छांट न लागी काय, तो त्रिण क्रिया जणाय छै ।। १४. संकोचन रु पसार, अनंतरे जे आखियो।
तेह तणोज प्रकार, तसु प्रस्ताव थकी हिवै।।
अलोके गति-निषेध पद १५. *हे भगवंतज सुर ! महाऋद्धिवंत, जाव महेश्वर जोई।
लोक तणां जे अंत विषे रही, समर्थ ते अवलोई ।। १६. कर पग वाहु उरु साथल प्रति, जेह अलोक रै मांह्यो।
संकोचन करिवा समर्थ छै वलि पसारिवा ताह्यो ? १७. जिन कहै अर्थ ए समर्थ नाही, किण अर्थे भगवंतो?
इम कहिये जे सुर महाऋद्धिवंत, जाव महेश्वरवंतो।।
१५.१६. देवे णं भंते ! महिड्ढिए जाव महेसक्खे लोगंते
ठिच्चा पभू अलोगंसि हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा ?
१७. नो इणठे समठे। (श० १६।११८)
से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ देवे णं महिड्ढिए जाव महेसक्खे
*लय : पर नारी रो संग न कीजे
६६ भगवती जोड़
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