SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आकाशास्तिकाय के अभिवचन ४२. *पूछा आकाशास्तिकाय नीं, जिन कहै नाम अनेक । प्रथम नाम आकाश छै, तास अर्थ इम पेख ।। ४२. आगासत्थिकायस्स णं भंते ! केवतिया अभिवयणा पण्णत्ता? गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णत्ता, तं जहाआगासे इ वा, ४३,४४. 'आगासे' त्ति आ-मर्यादया अभिविधिना वा सर्वेऽर्थाः काशन्ते-स्वं स्वभावं लभंते यत्र तदाकाशं, (वृ० प० ७७६) सोरठा ४३. आ मर्याद करेह, अथवा आ अभिविध करी। __सर्व अर्थ छै जेह, काशै प्रकाशै जिहां ।। ४४. निज-निज भाव प्रतेह, लाभ प्रकाशै अछै । जे आकाश विषेह, ते आकाश कहीजिये ।। ४५. *अथवा आगासथिकाय छै, अति गमन विषय थी जन । गमन कहीजै तेहनें, निरुक्त वस थी गगन ।। ४६. अथवा ए दीपै नहीं, तिणसं नभ कहिवाय । अथवा सम कहिय वलि, उच्च नीचपणों नाय ।। ४७. अथवा दुर्गम भाव थी, विषम कहीजै एह । खणियो न जावै ते भणी, खह कहीजै तेह ।। ४५. आगासत्थिकाए इ वा, गगणे इ वा, _ 'गगणे' त्ति अतिशयगमनविषयत्वाद् गगनं निरुक्तिवशात्, (वृ०५०७७६) ४६. नभे इ वा, समे इ वा, 'नभे' त्ति न भाति ... दीप्यते इति नभः, 'समे' त्ति निम्नोन्नतत्वाभावात्सम (वृ० प० ७७६) ४७. विसमे इ वा, खहे इ वा, 'विसमे' त्ति दुर्गमत्वाद्विषमं 'खहे' त्ति खनने भुवो हाने च--त्यागे यद्भवति तत् खहमिति निरुक्तिवशात्, (वृ० प० ७७६) ४८. विहे इ वा, 'विहे' त्ति विशेषेण हीयते-त्यज्यते तदिति विहायः अथवा विधीयते-क्रियते कार्यजातमस्मिन्निति विहं, (वृ० ५० ७७६) ४९. वीयी इ वा, विवरे इवा, 'बीइ' त्ति बेचनात्-विविक्तस्वभावत्वाद्वीचिः, 'विवरे' त्ति विगतवरणतया विवरम् (व०प० ७७६) ५०. अंबरे इ वा, अंबरसे इ वा, ४८. विशेष तजिये ते भणी, विहाय नाम तदर्थ । कीजै कार्य ए विषे, विध ए दूजो अर्थ ।। ४९. अथवा वीची नाम ए, विविक्त ठाली स्वभाव । आवरण रहितपणे करी, विवर नाम कहिवाव ।। वा०-'अंबर' त्ति अम्बेव-मातेव जननसाधादम्बा-जलं तस्य राणाद्-दानान्निरुक्तितोऽम्बरं, 'अंबरसे' त्ति अम्बा-पूर्वोक्तयुक्त्या जलं तद्रूपो रसो यस्मात्तन्निरुक्तितोऽम्बरसं, (वृ० प० ७७६) ५०. अथवा जल दै ते भणी, अंबर नाम कहेह । अथवा अंबरस नाम छै, उदक रूप रस देह ।। वा०---अंबा नाम माता रो छ । तेहनी पर जनन उत्पत्ति सादृश्य धर्मपणां थी अंबा उदक । तेहना राणात् - देवा थकी निरुक्ति थी अंबर। एतल ए अंबा कहिय माता । ते सरिखो आकाश छै। तेह थकी मेघ वर्षे जल दिये ते मारी । तथा इमहिज अंबा पूर्वोक्त युक्ति करिके जल रूप रस जेह आकाश थकी निरुक्ति थकी अंबरस नाम कहिये । ५१. अथवा छिद्रज नाम छै, जायै देइ विहार । छेदन को अस्तिपणुं, तेहथी छिद्र विचार ।। ५२. अथवा झसिर नाम छ, पोलाळ भणी कहेह। ___शोष तणां देवा थकी, शुषिर झुसिर नामेह ।। ५१. छिड्डे इ वा, "छिड्डे' त्ति छिद्रः-छेदनस्यास्तित्वाच्छिद्रं (वृ०प० ७७६) ५२. झुसिरे इ वा, 'झुसिरे' त्ति झुषेः- शोषस्य दानात् शुषिरं, (वृ० प० ७७६) *लय : मुनिवर गेहणा कठा सूं लाविया २५० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003621
Book TitleBhagavati Jod 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages422
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy