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________________ सोरठा ६१. नारक आदिज ख्यात, त्रिविध पिण ह तेह विषे । एक आदि असंख्यात, जंतू ऊपजवा थकी ।। ६२. पृथ्वीकायिक आदि, निश्चै अकइसंचिया। एक समय उत्पाद, असंख्यात नौं इज ह। ६३. वनस्पती रै मांय, यद्यपि जीव अनंत ही। स्वजातीय थी आय, उपजै छै तो पिण इहां ।। ६४. विजातीय थी आय, करै प्रवेशज तरु मझे। असंख ईज ते पाय, तेहिज सूत्रे वांछियो ।। ६५. *सिद्धां नीं पूछा कियां रे, छै कइसंचिया सिद्ध । नहीं छ अकइसंचिया रे, अवत्तगसंचिया ऋद्ध कै ।। ६१. तत्र नारकादयस्त्रिविधा अपि, एकसमयेन तेषामेका दीनामसंख्यातान्तानामुत्पादात्, (वृ०प०७९९) ६२. पृथिवीकायिकादयस्त्वकतिसञ्चिता एव, तेषां समयेनासंख्यातानामेव प्रवेशाद्, (वृ० प०७९९) ६३,६४. वनस्पतयस्तु यद्यप्यनन्ता उत्पद्यन्ते तथाऽपि प्रवेशनकं विजातीयेभ्य आगतानां यस्तत्रोत्पादस्तद्विवक्षितं, असंख्याता एव विजातीयेभ्य उद्वृत्तास्तत्रो त्पद्यन्त इति सूत्रे उक्तम् (वृ०प० ७९९) ६५. सिद्धाणं-पुच्छा। गोयमा ! सिद्धा कतिसंचिया, नो अकतिसंचिया, अवत्तब्वगसंचिया वि। (श० २०११०१) ६६. से केणठेणं जाव अवत्तव्वगसंचिया वि? गोयमा ! जे णं सिद्धा संखेज्जएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं सिद्धा कतिसंचिया, ६७. जे णं सिद्धा एक्कएणं पवेसणएणं पविसंति ते ण सिद्धा अवत्तव्वगसंचिया। से तेणठेणं जाव अवत्तव्वगसंचिया वि। (श०२०।१०२) ६८,६९. एएसि णं भंते ! नेरइयाणं कतिसंचियाणं अकति संचियाणं अवत्तव्वगसंचियाण य कयरे कयरेहितो जाव (सं० पा०) विसेसाहिया वा ? ६६. किण अर्थे ? तब जिन कहै रे, संखेज प्रवेशनेह । करै प्रवेश सिद्धा तिके रे, कइसंचिया कहेह के ।। ६७. एकज प्रवेशने करी रे, जे सिद्ध प्रवेश करेह । कहिये तेह सिद्धां भणी रे, अवत्तगसंचिया लेह के।। ६८. हे भगवंत ! ए नेरइया रे, कइसंचिया जाण । वलि जे अकइसंचिया रे, अवत्तगसंचिया माण कै॥ ६९. एहने विषे कुण-कुण थकी रे, यावत ही अवलोय । विसेसाहिया वलि कह्या रे? हिव जिन उत्तर जोय कै ।। ७०. सर्व थी थोड़ा नेरइया रे, अवत्तगसंचिया एह । तेहथी संख्यातगुणा कह्या रे, कइसंचिया जेह के ।। ७१. असंख्यातगुणा एह थी रे, अकइसंचिया तेह ।। इम एकेंद्रिय वर्ज नै रे, जाव वैमानिक लेह के ।। ७२. पांचं एकेंद्रिय मैं नहीं रे, अल्प बहुत अवलोय । जीव असंख तेह विषे रे, ऊपजवा थी जोय के। ७३. प्रभु ! सिद्ध कतिसंचिया रे, अवक्तव्यसंचिया मांय । कुण-कुण थी अल्प बहु अछै रे, तुल्य विशेष कहाय कै? ७०. गोयमा ! सम्वत्थोवा नेरइया अवत्तव्वगसंचिया, कतिसंचिया संखेज्जगुणा, ७१. अकतिसंचिया असंखेज्जगुणा । एवं एगिदियवज्जाणं जाव वेमाणियाणं अप्पाबहुगं । ७२. एगिदियाणं नत्थि अप्पाबहुगं। (श० २०१०३) ७३. एएसि णं भंते ! सिद्धाणं कतिसंचियाणं अवत्तव्वग संचियाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा? बया वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा ? ७४. गोयमा ! सम्वत्थोवा सिद्धा कतिसंचिया, अवत्तव्वगसंचिया संखेज्जगुणा। (श. २०११०४) ७४. जिन कहै थोड़ा सर्व थी रे, कइसंचिया सिद्ध । तेहथी अवक्तव्यसंचिया रे, संख्यातगुणा समृद्ध कै।। सोरठा ७५. इहां एकेंद्रिय टाल, उगणीस दंडक नै विषे । सर्व थकी जे न्हाल, थोड़ा अवक्तव्यसंचिया ।। ७६. तेह थकी सुविचार, संखगुणा कइसंचिया। तसु स्थानक अवधार, संख्याता छै ते भणी ।। ७७. तेह थको पहिछाण, असंखगुणा अकइसंचिया। तेहनां स्थानक जाण, असखपणां माटै कह्यो ।। *लय : सीता सुन्दरी रे ७५. 'एएसी' त्यादि, अवक्तव्यकसञ्चिताः स्तोकाः अवक्तव्यकस्थानस्यकत्वात, (वृ० प० ७९९) ७६. कतिसञ्चिताः संख्यातगुणाः, संख्यातत्वात् संख्यातस्थानकानाम्, (वृ० प० ७९९) ७७,७८. अकतिसञ्चितास्त्वसंख्यातगुणाः असंख्यात स्थानकानामसंख्यातत्वादित्येके, (वृ० प० ७९९) श० २०, उ० १०, ढा० ४०७ ३६७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003621
Book TitleBhagavati Jod 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages422
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size21 MB
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