Book Title: Anekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06 Author(s): A N Upadhye Publisher: Veer Seva Mandir Trust Catalog link: https://jainqq.org/explore/538020/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ the l+• } *:є ні дляй. Чczъ н . (- 4 и 7Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रेल १९६७ SxkkkkK*********XXXXXXXX********kkk - Jণকান UUUUUUUITMuna अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुखपत्र XXX***************kkkkkkkkkkk******* Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची अनेकान्त के पाठकों से माक विषय पृष्ठ अनेकान्त के प्रेमी पाठकों में निवेदन है कि पिछले प्रक के साथ सदस्य फीस समाप्त हो चकी है। अब यह २०५ नये वर्ष का प्रथमाक है, अतएव इम चालू वर्ष का वार्षिक मूल्य ६) रुपया इस किरण के मिलते ही मनीग्राउंर में भेजने की कृपा करे। अन्यथा अगला अकवी. पी में भेजने में ६० मे अधिक देने होगे। प्राशा है प्रेमी पाठक हम निवेदन पर ध्यान देगे। व्यवस्थाप 'अनेकान्त' बोरसेवामन्दिर २१, दरियागज, दिल्ली २७ १. श्री शान्तिनाथ स्तवनम् - वादी मह २. ग्वालियर के तोमर राजवश के समय जैनधर्म -परमानन्द शास्त्री ३. श्री अतरिक्ष पाश्वनाथ पौली मन्दिर शिरपुर नेमचन्द धन्नूमा जैन ४ ज्ञानार्णव न योग शास्त्र : nक तुलानात्मक अध्ययन-बालचन्द सिध्दान्त शास्त्री ५. रूपक पद (गीत) ---कवि घासीगम ६. चारु कीर्ति-डा० विद्याधर जोहग पुरकर ७ भ. विनयचन्द्र के समय पर विचार परमानन्द जैन शास्त्री ८. धनपाल विचित भविसयतकहा और उसकी रचना तिथि-डा. देवेन्द्र कुमार जैन ६. जैन प्रागमो के कुछ विचारणीय शब्द मुनि श्री नथमल जी १०. श्री गुरुवयं गोपालदास जी वरया प० माणिकचन्द जी न्यायाचार्य १. कविवर प. श्रीपाल-व्यक्तित्व एव कृतित्व HAI कल्लूरचन्द कासलीवाल वीरसेवामन्दिर को सहायता वीर सेवामन्दिर को बाबू निर्मल कुमार जी मुपुत्र ३३ | बाबू नन्दलाल जी सरावगी ने श्रवण बेल्गोल के मस्तका भिपेक मे लौटते हुए वीर सेवामन्दिर मे ठहरे थे । प्रापन २१) रुपया प्रदान किए, इसके लिए वे धन्यवाद के पात्र व्यवस्थापक वो सेवा मन्दिर, २१ दरियागज दिल्ली Pथा सम्पादक-मण्डल डा० ने० उपाध्ये डाप्रेमसागर जन श्री यशपाल जैन - अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पै० अनेकान्त में प्रकाशित विचारो के लिए सम्पानक मगरल उत्तरदायी नहीं है। व्यवस्थापक अनेकान्त Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार सेवा मरेर लय मोम् मम : : .. अनेकान्ता परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वर्ष २९ } वर्ष २० किरण १ । । बीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-द वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६३, वि० सं० २०२३ मिल.. अप्रेल सन् १९६७ श्री शान्तिनाथ-स्तवनम् भगवन दर्णयध्वान्तराको पथि मे सति । सज्ज्ञानदीपिका भूयात्संसारावधिवर्धनी ॥ जन्म-जीर्णाटवीमध्ये जनुषान्धस्य मे सतो। सन्मार्गे भगवन भक्तिर्भवतान्मुक्तिदायिनी॥ स्वान्तशान्ति ममैकान्तामनेकान्तं कनायकः । शान्तिनाथो जिनः कुर्यात्सं पतिक्लेशशान्तये ॥ -वादोभसिंह अर्ष-हे भगवन् ! दुर्नय रूप अन्धकार से व्याप्त मेरे मार्ग में प्रापकी भक्ति मोक्ष की प्रकाशक सम्यग्ज्ञान रूप दीपिका होवे । अर्थात् मुझे उस परम ज्ञान की प्राप्ति हो जिममे मेरा प्रज्ञान दूर हो ।। हे भगवन् ! जन्म जरा मरण रूप संसार वन मे जन्माय की तरह भ्रमण करते हुए मुझे, सन्मार्ग में प्रवृत्ति कराने वाली प्रापकी भक्ति मुक्ति देने वाली हो जाय । अनेकान्त अथवा स्याद्वाद के नायक हे शान्तिनाथ जिन ! ससार सम्बन्धी दुःखो को शान्त करने के लिए मेरे अन्तःकरण में दृढ़ शान्ति उत्पन्न करें। अर्थात् प्रापकी भक्ति में मेरे अन्तर्मानम में ऐसी सुदृढ शान्ति उत्पन्न हो, जिमका कभी विनाश न हो सके । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्वालियर के तोमर राजवंश के समय जैनधर्म परमानन्द जैन शास्त्री 'तोमर' शब्द एक प्रतिष्ठित प्राचीन क्षत्रिय जाति डोल हो गई थी। इसी समय अवसर पाकर वीरसिंह ने का सूचक है। इस वंश के राजा अनंगपाल प्रथम द्वारा ग्वालियर किले पर अधिकार कर लिया था। वीरसिंह दिल्ली को बसाये जाने का श्रेय प्राप्त है। इतना ही नहीं एक वीर पराक्रमी शासक था और राजनीति में दक्ष था। किन्तु इस वश के अनेक राजानों ने दिल्ली और उसके वह बड़ा साहसी और विवेकी था, उसमे दोषों को पचाने पास-पास के प्रदेशो पर शासन किया है। सभवत. ग्वा- और उनका निग्रह करने की क्षमता थी। लियर का तोमर राजवंश भी दिल्ली के तोमर वश का उद्धरण देव वीरसिंह का पुत्र था२ जो अपने पिता के वशज हो, लगता है दिल्ली का राज्य चले जाने पर वह बाद गद्दी पर बैठा था। मभवत. सन् १४०० (वि० स० वश ग्वालियर की प्रोर चला गया हो। ग्वालियर के १४५७) के पास-पास ही राज्य सत्ता इसके हाथ में पाई तोमर वश ने डेढ सौ वर्ष के लगभग शासन किया है। थी। इसने थोडं ही समय राज्य किया है। इसके राज्य ग्वालियर के तोमर राजामो के नाम इस प्रकार है - समय की कोई घटना मेरे अवलोकन में नहीं पाई। वीरसिंह, उद्धरणसिंह, वीरमदेव, गणपतिदेव, डूंगर वीरमदेव उद्धरणदेव का पुत्र था ३ । सन् १४०२ सिह, कीतिसिह या करणसिंह, कल्याणमल, मानसिंह और (वि०म० १४५६) या उसके कुछ समय बाद राज्य सत्ता विक्रमादित्य । वीरमदेव के हाथ में पाई थी४। यह राजनीति में चतुर इनमे वीरसिंह १ दिल्ली के बादशाह की सेवा में रह और पराक्रमी शासक था। इसने अपने राज्य की सुदृढ कर ग्वालियर का किलेदार नियत हुमा था। परन्तु वहा व्यवस्था की थी। शत्रु भी इसका भय मानते थे। इसके के शय्यद किलेदार ने वीरसिंह को किला सोपने से इकार ममय हिजरी सन् ८०५ सन् १४०५ (वि० स० १४६२) कर दिया। फिर भी वीरसिंह ने उससे मित्रता बढ़ाने का मे मल्लू इकबाल खा ने ग्वालियर पर चढाई की। परन्तु यत्न किया और उसको अपने यहा मेहमान कर नशीली उसे निराश होकर ही लौटना पडा। फिर उसने दूसरी चीजो से मिश्रित भोजन कराया और जब वह बेहोश हो बार वालियर पर घेरा डाला, किन्तु इस बार भी उसे प्रासगया तब उसे कैद कर लिया। यह सन् १३७५ (वि० स० पास के इलाके नट-पाट कर दिल्ली का रास्ता लेना पड़ा। १४३२) की घटना है। उस समय भारत पर तैमूरलग ने प्राक्रण किया था, तब भारत मे मुस्लिम सता डाबा- २. ईश्वर चुडारत्नं विनिहत करघातवत्तसंहातः । चन्द्र इव दुग्धसिंधोस्तस्मादुद रणभूपतिजनित. । + देशोस्ति हरियानाख्या पृथिव्या स्वर्गसन्निभ । -यशोधरचरित प्रशस्ति ढिल्लकाख्यापुरी तत्र तोमरैरस्ति निम्मिता ।।१॥ ३ तत्पुत्रो वीरमेन्द्रः सकलवसुमतीपालचूडामणियः, -दिल्ली म्यूजियम लेख ।। प्रख्यातः सर्वलोके सकलबुधकलानदकारी विशेषात् । १. जातः श्रीवीरसिंह. सकलरिपुकुलवातनिर्घातपातो, तस्मिन् भूपाल रत्ने निखिलनिधिगृहे गोपदुर्गे प्रसिद्धि, वशे श्रीतोमराणा निजविमलयशोख्यातदिक्चक्रवाल । भुजाने प्राज्यराज्यं विगतरिपुभय सुप्रजः सेव्यमानः ।। दाननि विवेकनं भवति समता येन साक नृपाणा, -यशोधरचरित प्रशस्ति केशामेषा कवीनां प्रभवति धिषणा वर्णने तद्गुणाना।। ४. वि० स० १४६० की लिखित प्रशस्ति मे वीरमदेव -यशोधरचरित प्रशस्ति के राज्य का उल्लेख है, जिसे आगे दिया गया है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्वालियर के तोमर राजवंश के समय जनधर्म वोरमदेवके महामात्य द्वारा मन्दिर और ग्रंथनिर्माण थी। प्रथम पत्नी रल्हो से कल्याणसिंह नाम का पुत्र कुशराज वीरमदेव का विश्वासपात्र महामात्य था, उत्पन्न हुअा था, जो बडा ही रूपवान, दानी पौर जिनजो जैसवाल जैन कुल में उत्पन्न हपा था। राजनीति मे गुरु की चरणाराधना में तत्पर रहता था। दक्ष और पराक्रमी था। इसके पिता का नाम नपाल वीरमदेव के राज्य मे जैनधर्म धारकों को अच्छा और माता का नाम 'लोणा' देवी था। कुशराज के ५ सुअवसर मिला था, क्योंकि जब राज्य में सुस्थिरता होती भाई और भी थे जिनमे चार बड़े और एक छोटा था। है तब जनता पूजा और उपासना में अपना समय ठीक हसराज, सौगज, रेराज, भवराज, ये बड़े भाई थे रूप मे लगा सकती है। यद्यपि वह समय विषम स्थिति और क्षेमराज छोटा भाई था१। इसने ग्वालियर मे चन्द्र- का था। शत्रुनो की दृष्टि उसे हडपने की थी, किन्तु प्रभ जिनका एक विशाल मन्दिर बनवाया था और उसका वीरमदेव ने राज्य को सुदृढ बनाने का यत्न किया था, प्रतिष्ठोन्सव बडे भारी समारोह के साथ सम्पन्न किया और विवेक के साथ उसके सरक्षण पर दृष्टि रखता था। था। कुशगज की तीन पत्निया थी-रल्हो, लक्षणश्री इस कारण शत्रुगण उससे भय खाते थे। प्रतएव जनता और कौशीग। ये तीनो ही धर्मपत्नी सती साध्वी, गुण- उस समय निर्भयता से धर्म साधन कर सकी थी। वती और पतिव्रता थी। नित्य जिनपूजन किया करती कुशराज ने वीरमदेव के राज्य में पद्मनाभ नाम के १. वशेऽभूज्जैमवाले विमलगुणभूलरण साधुरन्न, कायस्थ विद्वान से यशोधरचरित्र (दया सुन्दर विधान) साधुथी जैनपालो भवदुदितयास्तत्सुतो दानशील । नाम का काव्य बनाने का अनुरोध किया था जिसे पद्मनाभ जैनेन्द्र राधनेसु प्रमुदित हृदय सेवक. सद्गुरूणा, ने भ० गुणकीति के आदेशानुसार रचा था। इसके प्रति. लोगगारूपा सन्यशीलाऽजनि विमलमतिजैनपालस्य भार्या रिक्त अन्य कोई ग्रथ उस काल का रचा हा मेरे प्रवजान पटननयास्तयो सुकृतिनो श्रीहसराजोभवत्, लोकन मे नही पाया। नेपामाद्यनमस्ततस्तदनुजः सौराजनामा जनि । वीरमदेव के राज्य में जैन ग्रन्थों की प्रतिलिपियांरैगजोभवरानक ममनि प्ररूपातकीतिमहा वीरमदेव के राज्यकाल मे गोपाचल में लिखी गई ४ साधुश्री कुशराजकस्तदनु च श्री क्षेमराजो लघुः ।।६।। ग्रन्थलिपि प्रशस्तियां मेरे प्रवलोकन मे पाई है जो सवत् जाता: श्रीकुश राज एव सकलक्ष्मापालचूडामणः, १४६०, १४६८, १४६६ पोर सं० १४७६ की लिखी हुई श्रीमत्तामर वीरमम्य विदितो विश्वासपात्रं महान् । है। अन्वेषण करने पर और भी अनेक प्रशस्तिया उपलब्ध मत्री म विचक्षण. क्षणमय क्षीणारिपक्ष. क्षणात् । हो सकती है। क्षोणीमीक्षण रक्षणक्षणमति नन्द्र पूजारत. ७ स० १४६० मे गोपाचल मे साह वरदेव के चैत्यालय स्वर्गपद्धिसमृद्धिको तिविमलश्चत्यालय. कारितो, में भ० हेमकीति के शिष्य मुनि धर्मचन्द्र ने माघवदि १० लोकाना हृदय गमो बहुधनंश्चन्द्रप्रभस्य प्रभो । मगलवार के दिन सम्यक्त्वकौमुदी को प्रति प्रामपठनार्थ यन तत्समकालमेव रुचिरं भव्य च काव्य तथा, लिखी थी। यह ग्रन्थ जयपुर के नेरापथी मन्दिर के शास्त्र साधुश्रीकुशराजकेन सुधिया कीतश्चिरस्थापक || भण्डार में सुरक्षित है। तिम्रस्तस्यैव भार्या गुणचरितयुषस्तासु रल्होभिधाना, पत्नी धन्या चरित्रा व्रतनियमयुता शील शौचेन युक्ता। १ मवत् १४६० शाके ११२५ षष्ठान्दयोमध्ये विरोधी दात्री देवार्चनाढया गृहकृतिकुशला तत्सुत: कामरूपो, नाम मवत्मरे प्रवर्तन गोपाचल दुर्गस्थाने राजा वीरमदाता कल्याणसिंहो जिनगुरुचरणाराधने तत्परोऽभूत् ।। देव राज्य प्रवर्तमाने साहु वरदेव चैत्यालये भट्टारक लक्षणश्रीः द्वितीयाभूत्सुशीला च पतिव्रता । श्री हेमकीतिदेव तत्शिष्य मुनि धर्मचन्द्रेण प्रात्मपठकोशीरा च तृतीयेयमभूद् गुणवती सती ॥१० नार्थ पुस्तकं लिग्वित, माघ वदि १० भौमदिने । -यशोधर चरित प्रशस्ति -तेरापंथी मन्दिर जयपुर Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त सं० १४६८ मे प्राषाढ़ वदि २ शुक्रवार के दिन विमलमति को पूजा विधान महोत्सव के साथ समर्पित की ग्वालियर में राजा वीरमदेव के राज्यकाल में काष्ठासघ थी, जिसे पडित रामचन्द्र ने लिखा था। यह प्रति मामेर माथुरान्वय पुष्करगण के प्राचार्य श्री भावसेन, सहस्रकीति भण्डार में उपलब्ध है। और भ० गुणकीति की प्राम्नाय मे साह मरदेव की पुत्री यद्यपि वीरमदेव के राज्यकाल मे अनेक धार्मिक, देवसिरि ने 'पचास्तिकाय' टीका की प्रति लिखवाई थी, सामाजिक राजनैतिक और मास्कतिक काम जो इस समय कारंजा के शास्त्रभडार मे उपलब्ध है। है। किन्तु उन सब का एकत्र संकलन न होने से उस पर सवत् १४६६ में उक्त राजा के राजकाल में प्राचार्य इस समय कुछ नही लिखा जा सकता। वीरमदेव के बाद अमृतचन्द्रकृत प्रवचनसार की 'तत्त्वदीपिका' टीका लिखी उनका पुत्र गणपतिदेव गद्दी पर बैठा । परन्तु उसने भी गई थी, जैसा कि उसकी प्रशस्ति के निम्न वाक्यो से प्रकट थोडे समय ही राज्य कर पाया है, इसी से उसक राज्य काल के कोई उल्लेख अभी उपलब्ध नहीं हुए। विक्रमावित्यराज्यऽस्मिश्चतुर्दशपरेशते । नवषष्ठया युते किन गोपाद्री देवपत्तने ॥३॥ राजा डूंगररांसह अनेकभूभकपद पद्मलग्नस्तस्मिन्निवासी नन पाररूपः । मन् १४२४ (वि० स० १४८१) में गणपतिदेव का शृंगारहारो भुवि कामिनीनां भभक प्रसिद्धःश्रीवीरमेन्द्रः।।४ पूत्र इगमिह गद्दी पर बैठा, डगरसिह एक वीर सेनानी __सवत् १४७६ मे अपाढ़ सुदि ५ बुधवार के दिन और पराक्रमी शामक था। वह तोमर वश का राजहस र गोपाचल मे वीरमदेव के राज्य समय२ गढोत्पूर के नेमि था, उसकी जैन धर्म पर पूर्ण प्रास्था थी। उसके जीवन नाथ चैत्यालय में काष्ठासंघ माथुरान्वय पुष्करगण के में जैनधर्म के सिद्धान्त उसके सहयोगी बने हुए थे । यद्यपि दिन जमा भट्रारक भावसेन, सहस्रकीति प्रतिष्ठाचार्य गुणकीति ग्वालियर की सुदृढ़ स्थिति और वैभव को देखकर शत्रुगण देव, विमलकीर्तिदेव, रामकीतिदेव, खेमचन्द्रदेव, भट्टारक डूंगरमिह को चन से रहने नहीं देना चाहते थे। मालवा गुणकीति के शिष्य यश कीति, हरिभूषण, अजिका का हुशगशाह और दिल्ली का मुबारक शाह दोनो ही धर्मथी, सयमधी, शीलश्री, चारित्रश्री, धर्ममति विमल मतत कष्ट देते रहते थे। परन्तु डूंगरसिह राजनैतिक मति और सुमतिमति की प्राम्नाय में अग्रवाल कुलोत्पन्न विवेक के साथ अपने कर्तव्य का पालन करता था "हुशंग चतुर्मुख के निवासी साहु यजन पत्नी उदसिरि पुत्र जौतु शाह मे पीछा छुड़ाने के लिए वह कभी मुबारक शाह का गुर्जर, जौतु पत्नी सरो पुत्रवाधू उसकी दो स्त्रिया थी और कभी हुशंग शाह का सहयोग प्राप्त कर लेता था। जोल्हाही और सुहागधी, पुत्र प्राढा। इनके मध्य में इसके लिए उसे कर भी देना पड़ता था, इस तरह वह जौतकी स्त्री सरो ने अपने ज्ञानावर्णी कर्म के क्षयार्थ पट. अपनी चतुराई मे स्वतंत्रता को कायम रखने में समर्थ हो कर्मोपदेश की यह प्रति लिख कर जैत थी की शिष्या सका था। उसमे दयालुता और धार्मिकता के साथ अदम्य १. संवत्सरेस्मिन् विक्रमादित्य गताब्द १४६८ वर्षे प्राषाढ उत्साह और साहस था जिससे वह विपदा मे भी धैर्य वदि २ शक्र दिने श्री गोपाचले राजा वीरमदेव विजय रखता था। धर्म मे उसे दृढ़ता थी। वह राजनीति मे दक्ष, राज्य प्रवर्तमाने श्री काष्ठासघे माथरान्वये पुष्कर गणे शत्रुयो के मान मर्दन करने में समर्थ और क्षत्रियोचित प्राचार्य श्री भावसेनदेवा तत्पट्ट श्री सहस्रकीतिदेवाः क्षात्र तेज से अलंकृत था। गुण समूह से विभूषित, अन्याय तत्प भट्रारक श्री गुणकोतिदेवास्तेषामाम्नाये सघद रूपी नागों के विनाश करने में प्रवीण, पचाग मत्र शास्त्र महाराजवधू साधु मरदेव पुत्री देवसिरि तया इदं मे कुशल, तथा प्रतिरूप अग्नि से मिथ्यात्वरूपी वंश का पंचास्तिकायसार ग्रंथ लिखापितम् । दाहक था, जिसका यश सब दिशापो में व्याप्त था। राज -कारजा भडार पट्ट से अलकृत विपुल भाल और बल से सम्पन्न था। २. देखो, मामेर भडार अथ प्रशस्ति स० । डूंगरसिंह की पटरानी का नाम चदादे था जो अतिशय Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्वालियर के तोमर राजवंश के समय जैनधर्म रूपवती और पतिव्रता थी। इनके पुत्र नाम कीर्तिपाल१ डूंगरीसह तोमरवंश का शिरोमणि था, मनेक राजामों से या कीतिसिह था, जो अपने पिता के समान ही गुणज्ञ, पूजित और सम्मानित था और शत्रुमो का मान मर्दन बलवान और राजनीति में चतुर था२ । डूंगरसिह ने सन् करने में दक्ष था३ । शत्रु जन सके प्रताप एव पराक्रम से १४३८ (वि० सं० १४६५) मे नरसर के किले पर घेरा भयभीत रहते थे। युद्ध स्थल में उसके समान मन्य कोई डाला था, जो उस समय मालवे के प्राधीन था। यद्यपि बीर योद्धा नहीं था। जब उसकी तलवार शत्रुकपोलों पर डूंगरसिंह को उस समय सफलता न मिली, परन्तु बाद में पडनी थी तब वे कमलनाल की तरह खडित हो जाते थे। उम पर तोमर वश का अधिकार हो गया था। राजा वह शत्रुगरणों की कामनियो के मन को सल्ल देने वाला था, १. कवि रधु ने श्रीपाल चरित मे–'तह कित्तिपालण- बहुत कहन में क्या उसका यश दशो दिशा में व्याप्त था४। दणु गरि?' वाक्य द्वारा कीर्तिपाल नाम का उल्लेख गरसिंह द्वरा जंन मूति निर्माण कार्य किया है, और कीतिसिंह नाम भी दिया है। जैनधर्म पर उसका केवल अनुगग ही न था किन्तु स्व० गौरीशकर हीराचन्द जी ओझा ने टाड उम पर उसकी परम प्रास्था भी थी। उसने किले की राजस्थान के २५० पृष्ठ की नवर वाली टिप्पणी में बेडोल और अमन्दर लगने वाली चट्टानो को अपार कीतिसिह के दूसरे भाई पृथ्वीराज का उल्लेख किया मौन्दयं में परिगत कराया। जंन मूर्तियों के निर्माण में है, जो मन् १४५२ (वि. स. १५०६) म जोनपुर उसने महम्रो रुपया व्यय किये थे। जैन प्रतिमानो के के मुलतान महमूद शाह शर्की और दिल्ली के बाद उन्कोर्ण होने का काल ३३ वर्ष पाया जाता है। यह कार्य शाह बहलोल लोदी के बीच होने वाले सग्राम म डूगर्गसह अपने जीवनकाल में पूग नही कग सका, तब महमूद शाह के सेनापति फतहखा हावी के हाथ से उसके प्रिय पुत्र की तिमिह ने पूग कगया। ग्वालियर गढ़ मारा गया था। परन्तु र इधू कवि ने डूंगरीमह क के चारो मोर कलात्मक जैन मुनियो का निर्माण कराकर द्वितीय पुत्र का कोई उल्लेख नहीं किया। अपनी उदार भावना का परिचय दिया है। ग्वालियर गढ़ २. हि तोमर कुल मिरिरायहमु, को यह भावमयी प्रतिमाए मूर्तिकलाकी महत्वपूर्ण वस्तु है । गुणगण-रयणायरु लद्धसमु । किले की बेडौल और मुक चद्राने शिल्पियो की माधना अण्णाय-णाय-णासण पवीण,.. ३ श्री लोमन कशिखामणिन्त्र, अरिराय उरत्थलि-दिण्णि-दाहु । य प्राप भूपालगतावितानिः । समरंगणि पत्तउ विजय-लाहु, श्रीगजमानो हतशत्र मान , खग्गगि डहिय जे मिच्छ-वसु । श्रीड़गरेद्रात्र नगघिपोस्ति। जस ऊरिय रिय जे दिसतु, ---ममयमार लिपि १० मनगण भंडार, कारजा णिवपट्टाल किय विउलेभालु । ... ... .. भय बल पमाण, अतुलिय बल खल-पलय-कालु, ममरंगणि अण्ण ण तहु ममाणु । मिरिणिव गणेस णदणु पयडु । णिरुवभ अविरल गुण मणि पिके उ, ण गोरक्खण विहिण उ वमडु, माहणममुद्दु जयसिरिणिवामु, मत्तग रज्ज भर दिण्ण खधु । जस ऊयरि परियदहदिसामु । सम्माण-दाण तोसिय - सब, करवाल णिहाएं अरि-कवाल, करवाल पट्टि विप्फुरिय जीहु । तोडि वि घल्लि उ ण कमलणालु । - X X X दुम्पिच्छ मिच्छ रणरगु मल्लु, तह पट्ट महाएवी पसिद्ध, चदादेगामा परणयरिद्ध । अरियणकामिणिमण दिण्णु सल्लु। सयलते उरमज्भह पहाणु णिय-पद-मण-पोषण सावहाणु। -सम्मत्तगुणनिधान प्रशस्ति Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त और कठोर छैनी से पाहत होती हुई शान्ति और तपस्या नार्थ लिखवाई थी। की महान् भावना से मुखरित हो उठी हैं । शिल्पी ने कला कवि र इधू ने ग्वालियर निवासी साह कमलसिंह के की अभिव्य जना करते हुए विशालता, वीतरागता पोर लिए सम्मत्त गुणनिधान नामक ग्रन्थ की रचना सं० सौन्दर्य की अपूर्व पुट देकर भूतियों को उत्कीर्ण किया है। १४९२ में भाद्रपाद मास की पूर्णिमा के दिन समाप्त की और निर्मापक की निर्मल भावनामों को साकार रूप देकर थी। इस ग्रथ की रचना कवि ने तीन महीने में की थी, अमर बनाने का प्रयत्न किया है। इनसे गढ़ के चारों ओर जैसा कि उसके पद्यो से प्रकट है :का वातावरण अपूर्व सौन्दर्य और शान्ति से मुखरित हो चउदह सय वणव उत्तरालि, वरिसइ गय विक्कमरापकालि, उठा है। वक्खयत्तु जि जण-वय समक्वि, भद्दवमासम्मि ससेय पक्खि । उरवाही द्वार की २२ जैन मूतियो मे आदिनाथ की पुण्णमि दिण कुजवारे समोई, सुहयार सुहणामें जणोइं । मूर्ति सबसे विशाल है । वह ५७ फुट की है, उसके चरणो तिहु मास रंयति पुग्ण हूउ, सम्मत्त गुणाहिणिहाणु धूउ । के पास ६ फुट की चौड़ाई है। इनमें नेमिनाय की पद्मासन मवत् १४९२ मे पूर्व साहु खेमसिह के पुत्र कमलसिह मूर्ति ३० फुट ऊंची है। इतनी विशाल मूर्ति अन्यत्र ने ११ हाथ ऊंची प्रादिनाथ की एक विशाल सर्ति का मिलना कठिन है । इन २२ प्रतिमानों में से छह पर सं0 निर्माण कगया था । जिसके प्रतिष्ठोत्सव के लिए राजा १४६७ से १५१० के लेख अंकित हैं । डूगर्गमह में प्राज्ञा मागी थी। तब राजा ने स्वीकृति देते किले के उत्तर पश्चिम के मूर्ति समूह मे प्रादिनाथ हा कहा था कि आप इस धार्मिक कार्य को सम्पन्न की एक महत्वपूर्ण मूर्ति है जिस पर १५२७ का अभिलेख अकित है। उत्तर पूर्व की मूर्तियों की कला साधारण है, १. मवत् १४८६ वर्षे अश्वणि वदि १३ सोमदिने और उन पर लेख भी नही हैं। गोपाचल दुर्गे राजा डूंगरसिंहदेव विजयराज्य प्रवर्तदक्षिण पूर्व की कलात्मक विशाल मूर्तिया ग्वालियर के माने श्री काष्ठामधे माथुरान्वये प्राचार्य श्री भावसेन फून बाग दरवाजे से बाहर निकलते ही लगभग अर्ध मील देवास्तत्प? श्रीसहस्रकीति देवास्तत्प? श्री गुणकीति तक उत्कीर्ण की हुई दिखाई देती है। इनमे अनेक मूनिया देवास्ततिष्येन थी एश कीतिदेवेन निजज्ञानावरणी २० फुट से ३० फुट तक की ऊचाई को लिए हुए है। कर्म क्षयार्थ इदं सुकमाल चरित लिखापितं । कायस्थ उनमे प्रादिनाथ, नेमिनाथ, पद्मप्रभ, चन्द्रप्रभ, कुन्थनाथ यान नपुत्र थलू लेखनीय । -जयपुर भडार पौर महावीर आदि की मूर्तिया है। जिनमे से कुछ पर मवत् १४८६ वर्षे प्रापा ढ वदि ६ गुरु दिने गोपाचलपं० १५.५ से १५३० तक के अभिलेख उत्कीर्ण है। दुर्गे राजा डूगरसीह राज्य प्रवर्तमाने श्री काष्ठासंघे माथुरान्वये पुष्करगणे प्राचार्य श्री सहस्रकीति देवाडूंगरसिंह के राज्य में ग्रंथ निर्माण और मूतिप्रतिष्ठा स्तत्पट्ट प्राचार्य गुणकीति देवास्तच्छिष्य यश:कीति राजा डूंगरसिह के समय ग्वालियर के जैन धर्मानु देवास्तेन निजज्ञानावरणी कर्म क्षयार्थ इदं भविष्यदत्त गायी श्रावकों ने भी अनेक मूर्तियों का निर्माण कराया पत्रमी कथा लिखापित । और उनका प्रतिष्ठा महोत्सवादि कार्यभी सम्पन्न किया है । (नया. मंदिर धर्मपुरा दिल्ली) इतना ही नहीं किन्तु अनेक ग्रंथों की रचना भी हुई। और २ जो देवाहिदेव तित्थंकरु, पाइणाह तित्थोय सुहंकरु । अनेक प्रथों की प्रतिलिपियां भी की गई है । जिनमे से यहा तहु पडिमा दुग्गइ-णिण्णासणि, कुछ का उल्लेख पाठकों की जानकारी के लिए किया जा मिच्छत्त-गिरिद-सरासणि । नाता है। जा पुणु भब्वह सुहगइ-सासणि, संवत् १४८६ (सन् १४२६) मे भ० गुणकीति के जा महिरो-सोय-दुह-णासणि । शिष्य भ. यश कीति ने सुकमाल चरित और कवि श्रीधर सा एयारह कर पविहंगी, काराविय णिरुवम प्रस्तुगी।। की संस्कृत भविष्यदत्त पचमी कथा की प्रतिया प्रात्म पठ- -सम्मत गुण नि० जैन ग्रंथ प्रश. स भाम २ पृ.८६ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्वालियर के तोमर राजवंश के समय जनधर्म कीजिए । मुझसे जो पाप मांगेगे वही दू गा । और ताम्बूल जीवन बिता रही थी। नैतिक धरातल उच्च कोटि का आदि से उसका सम्मान भी किया था। इससे डूंगरसिंह था, इसी से वहा चोरी, अन्याय, अत्याचार प्रादि नहीं की धार्मिक उदारता का परिचय मिलता है। इसका होते थे। प्रजा मे कहीं भी दीनता दिखाई नहीं देती थी। उल्लेख कवि रइधू ने सम्मत्त गुणनिधान की पीठिका मे सभी वर्ग अपने-अपने व्यवसाय में अनुरक्त रहते थे। पौर किया है। सभी को अपने-अपने धर्मसेवन की स्वतत्रता प्राप्त थी। इसके बाद कवि रइध ने नेमिनाथ चरित, पाश्वनाथ हा राज्य की भोर से गौ संरक्षण अनिवार्य था। वहां के चरित और बलभद्र चरित (रामायण) की रचना की है। बाजारो मे विविध वस्तुग्रो का क्रय-विक्रय होता था। क्योंकि सं० १४९६ में रचे जाने वाले सुकौशल चरित मे जनता का व्यवहार निष्कपट और सुखद था। वहा खल, उक्त ग्रथो के रचे जाने का उल्लेख किया है। दुष्ट और पिशुन जन देखने में नहीं पाते थे। लोगो का सवत् १४९७ में परमात्मप्रकाश की सटीक प्रति व्यवहार सरल और प्रेममय था। लोग प्रात्म निरीक्षण लिखी गई, जो इस समय जयपुर के ठोलियों के मन्दिर को अधिक पसन्द करते थे। यही कारण है कि राज्य मे के शास्त्रभडार मे सुरक्षित है। कही भी प्रशान्ति दृष्टिगोचर नहीं होती थी। उस समय सवत १५०६ मे धनपाल की भविष्यदत्त पचमी कथा ग्वालियर में महाजन और धनाढय व्यक्ति निवास करते की प्रति लिपि की गई, जो कारजा के शास्त्र भडार में थे, जो देवशास्त्र और गुरु की विमय करते थे। श्रावक मौजूद है। लोग प्रावश्यक पट्कर्मो का दृढता से पालन करते थे। सवत् १५१० में समयसार की प्रतिलिपि की गई, और नारीजन शील व्रत का दृढता से पालन करती थीं। जो अब कारजा के सेनगण भडार मे उपलब्ध है। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र का निरन्तर प्रयास होता था, सवत् १४६७ और सवत् १५१० मे प्रतिष्ठापित लोग भव-भोगों से विरक्त रहते थे, सामायिक और स्वामूर्तियो के लेख उपलब्ध है१ । ध्याय समय पर होते थे, पर्व के दिनो मे प्रोषध (उपवास) भी किया करते थे। इस तरह श्रावक जन विषय-कषायों डूंगरसिंह के राज्य में ग्वालियर को जीतने का उपक्रम करते थे। दूसरों के अवगुणों पर इस तरह गोपाचल जैन संस्कृति का केन्द्र बना हुआ कभी दृष्टि नहीं डालते थे। जुमा प्रादि सप्तव्यसनो मे रहित था। वहा जैन सस्कृति के प्रचार और प्रमार मे भ० गुण होकर अणुव्रतादि द्वादश व्रतो का अनुष्ठान करते थे। कीर्ति, उनके शिष्य प्रशिष्यो का पूर्ण सहयोग रहा है। मयान में विपित थे। लोक कला मम्यग्दर्शन से विभूपित थे । लोक कल्याण मे प्रवृत्ति करते भ० गुणकीर्ति एक प्रभावशाली विद्वान भट्टारक और हा ग्रात्म-साधना में निरत रहते थे। अहार के समय प्रतिष्ठाचार्य थे। उन्होने अनेक मूर्तियो की प्रतिष्ठा कराई द्वारापेक्षण मे मावधान रहते थे। दानादि द्वारा जन थी। ग्वालियर के तोमर राजवश पर भ. गुणकीति का कल्याण करना प्रात्म कर्तव्य मानते थे। जिनेन्द्र पूजा और महत्वपूर्ण प्रभाव था। उनके शिष्यों का बडा परिकर महोत्सव रूप व्यवहार धर्म मे प्रवृत्ति करते हुए भी अपने ग्वालियर में विद्यमान था। राजा डूगरमिह के गज्यकाल लक्ष्य भूत प्रात्मा के चैतन्य गुण पर दृष्टि रखते थे। और मे ग्वालियर चरमोन्नति की सीमा को पहुँच चुका था। निरन्तर जिन मूत्र रूप रमायन के पान से सतुष्ट रहते थे । वहा की प्रजा अत्यन्त खुशाल थी और सन्तोष पूर्वक इस प्रकार उस समय के श्रावको की दिनचर्या से स्पष्ट है १. देखो, जनरल एशियाटिक सोसाइटी भाग ३१, कि ग्वालियर में जैन धर्म का प्रचार एवं प्रसार किस रूप पृ० ४२३ । में हो रहा था। गोपाचन दुर्गे तोमरवशे राजा श्री गणपति देवास्त राजा डूगरमिह ने संवत् १४५१ से स, १५१० तक पुत्रो महाराजाधिराज श्रीडूंगर्गसह राज्ये [प्रतिष्ठित] ३० वर्ष तक ग्वालियर पर शामन किया है। उसके राज्य चौरासी मथुरा की मूलनायक मूर्ति का लेख । काल मे प्रजा सुखी और समृद्ध रही है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त राजा कोतिसिंह जौनपर वालों का सहायक बन गया था। सन् १४७८ में यह एक वीर पराक्रमी शासक था। इसने अपने पिता दर्शनशाह दिल्ली के बादशाह बहलोल लोदी से पराजित के राज्य को संरक्षित रखते हुए उसे और भी बढाने का होकर अपनी पत्नी और सम्पत्ति वगैरह को छोड़ कर यत्न किया था। यह दयालु, सहृदय और प्रजावत्सल था। भागा और भागकर ग्वालियर में राजा की तिसिंह की यह भी अपने पिता के समान जैनधर्म पर विशेष अनुराग शरण मे गया था। तब कीर्तिसिंह ने धनादि से उसकी रखता था। और उसने अपने पिता द्वारा प्रारब्ध जैन सहायता की थी और कालपी तक उसे सकुशल पहुँचाया मतियों की खदाई के अवशिष्ट कार्य को पूरा किया था। भी था। कीतिसिह के समय के दो लेख सन १६८ कविवर र इधू ने इसके राज्यकाल मे 'सम्यक्त्व कौमुदी या (वि. स. १५२५) और सन् १४७३ (वि. सं. १५३०) के श्रावकाचार की रचना की थी। उसमे कवि ने कीतिमिह मिले है । कीर्तिसिंह की मृत्यु सन् १४७६ (वि. सं. १५३६) के यश का वर्णन करते हुए लिखा है कि-"वह तोमर में हुई थी। अत: इसका राज्यकाल स. १५१० से १५३६ कुल रूपी कमलो को विकसित करने वाला मूर्य था और तक माना जाता है । दुर्वार शत्रुनों के संग्राम से प्रतृप्त था। भोर अपने पिता इसके राज्यकाल में होने वाला मूर्ति उत्खनन का के समान राज्यभार के धारण करने में समर्थ था । कार्यकाल मं० १५२२ से स. १५३१ तक का मिलता है। सामन्तों ने जिसे भारी अर्थ समर्पित किया था, तथा र्मवत् १५२५ की प्रतिष्ठित की कई मूर्तिया है जिन पर जिसकी यशरूपी लता लोकव्याप्त हो रही थी और वह प्रकित लेख में की तिसिह के राज्य का उल्लेख है । , उन मे उस समय कलिकाल चक्रवर्ती था।" मे पाठकों की जानकारी के लिए बाबा वावडी के दाहिनी राजा कीतिसिंह ने अपने राज्य को खूब पल्लवित एवं र का खूब पल्लावत एवं मोर पार्वनाथ की खडगामन मूर्ति के चरणभाग मे उत्कीर्ण विस्तृत किया था और वह उस समय मालवे के समकक्ष । समकक्ष लेख नीचे दिया जाता है। इसकी साइड मे ६ मूर्तिया और हो गया था । और दिल्ली का बादशाह भी कीतिसिह की भी है जिनमे कुछ पद्मासन और खड्गासन है। उनका कृपा का अभिलापी बना रहना चाहता था, परन्तु सन् मुग्व खडित कर दिया गया है १४६५ (वि. स. १५२२) मे जोनपुर के महमूद शाह के पुत्र हुर्शनशाह ने ग्वालियर को विजित करने के लिए श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादोमोघलाञ्छनम् । बहुत बडी सेना भेजी थी, तब से कीतिसिंह ने दिल्ली के जीयात्रलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। बादशाह बहलोल लोदी२ का पक्ष छोड दिया था और स्वस्ति सवत् १५२५ वर्षे चैत्र सुदी १५ गुरौ श्रीमूल १. तोमर कुल कमल वियास मित्तु, सघे सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे श्री कुन्दकुन्दाचार्याम्नाये दुबार-वरि सगर प्रतित्तु । भट्टारक श्री प्रभाचन्द्रदेवा तत्पट्ट भट्टारक श्री पद्मनन्दिडूंगर निव रज्जघरा ममत्थ, देवा तत्प? भट्टारक श्री शुभचन्द्र देवा तत्प? भट्टारक श्री बदियण समप्पिय भूरि प्रत्थ । जिनचन्द्र यतीश्वरा; तत्प? भ० सिहकीर्ति ऋषीश्वरास्ते. चउराय विज्ज पालण प्रतंदु, षामुपदेशात् श्री गोपाचल पर्वताये श्री तोमरान्वये महाणिम्मल जसवल्नी भवण-कदु। राजाधिराज श्री कीर्तिसिंह विजय राज्ये प्रतिष्ठापकः श्री कलि चक्कट्टि पायड णिहालु, श्रावक बंशोद्भव गोलाराईति मजक. श्री शान्तिरस्तु तुष्टि. सिरि कितिसिघु महिवइ पहाणु ॥ रस्तु..... 'सदास्तु मे। -सावयचरिउ प्रशस्ति २. बहलोल लोदी देहली का बादशाह था। उसका संवत् १५२१ मे उक्त कोतिमिह के राज्यकाल मे राज्यकाल सन् १४५१ (त्रि० स० १५०८) से लेकर ग्वालियर के जसवाल कुलभूषण उल्हा साहुक ज्य० पुत्र सन् १४८६ (वि. म.१४४६) तक ३८ वर्ष पाया पद्मसिह ने अपनी चचल लक्ष्मी का सदुपयोग करने के लिए जाता है। २४ जिनालयों का निर्माण कराया और एक लाख ग्रन्थ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्वालिपर के तोमर राजवंश के समय जनधर्म लिखवा कर भेट किए थे। यह ग्रन्थ बाराबंकी के के 'मात्म संबोध काव्य' की २६ पत्रात्मक जीर्ण प्रति मिली शास्त्रभंडार मे मौजूद है। है जो संवत् १४४६ की लिखी हुई है। "संवत् १४४८ सवत् १५२१ मे लिपि की गई ज्ञानार्णव की एक प्रति वर्षे फाल्गुण वदि १ गुरौ दिने स्रावग लष्मण कम्मक्षय जैन सिद्धान्त भवन पारा में उपलब्ध है। विनाशार्थ लिखितं ।" इस प्रशस्ति से स्पष्ट है कि यह भ० गुगभद्र ने अनेक कथामो का निर्माण भी ग्वा. रधु कवि की प्राद्य रचना है। इससे रइधू कवि का समय लियर निवासी श्रावको की प्रेरणा से किया था। इस तरह सं. १४४८ से १५२५ तक का उपलब्ध होता है जिसमे कीर्तिसिंह के राज्य में अनेक सांस्कृतिक कार्य निर्माण किये रचनाकाल सभवतः १५१५ और उसके कुछ बाद तक रहा गये हैं, कीतिसिंह ने स. १५१० से १५३६ तक राज्य किया। है। और प्रतिष्ठाकार्य स. १४६७ से १५२५ तक जान कीर्ति सिंह के बाद राज्यसत्ता कल्याणमल (मल्लसिंह) पड़ता है। इससे यह तथ्य निकलता है कि रइधू कवि दीर्घ के हाथ में आई थी, इसके राज्यकाल के सांस्कृतिक कोई जीवी थे। इससे वे शतवर्ष जीवी रहे जान पड़ते हैं । उल्लेख नहीं मिले । सिर्फ १५५२ का एक मूर्तिलख उप मानसिंह लब्ध है। कल्याणमल का पुत्र मानसिंह अपने पिता के बाद बलहहचरिउ मे मिर्फ हरिवशपुगण (नेमिजिन ग्वालियर की गद्दी पर बैठा था। यह राजा प्रतापी संगीत चरिउ) के रचे जाने का उल्लेख है। इससे स्पष्ट है कि प्रिय और कला प्रिय था। और जिस किसी प्रकार से वलहद्द चरिउ के बाद हरिवंश पुराण की रचना हुई है। अपने पूर्वजों द्वारा संरक्षित एवं संवद्धित राज्य को स्वतत्र हरिवंश पुराण में त्रिषप्ठिशलाकाचरित (महापुराण) रखने में समर्थ हो सका था। इसके राज्य समय दिल्ली मेघेश्वर चरित, यशोधर चरित, वृत्तसार और जीवधर के बादशाह बहलोल लोदी ने ग्वालियर पर भाक्रमण चरित्र इन छह ग्रन्थो का उल्लेख है। इससे ये छह ग्रन्थ करना प्रारम्भ कर दिया। तब मानसिंह ने कूटनीति से भी स १४६६ मे पूर्व रचे गये है। कभी धन देकर उस संकट से पीछा छुडाया। वह लोल मम्मइजिनचरिउ प्रशस्ति मे मेघश्वर चरित, ' लोदी की मृत्यू सन् १४८६ में हो गई। उसके बाद त्रिषष्टि महापगण, सिद्धचक्रविधि, बलहद्दचरिउ, सुदर्शन सिकन्दर लोदी गद्दी पर बैठा । इसकी ग्वालियर पर दृष्टि चरित और धन्यकुमार चरित नामक ग्रथो का समुल्लेख है। । थी ही, परन्तु उसने इम बलिष्ठ राजा की मोर पहले प्रत कहना चाहिए कि ये ग्रथ भी रइधु ने स. १४६६ से मंत्री का हाथ बढाया। और राजा को घोडा तथा पूर्व किमी ममप चे है। स भवत. ये सभी ग्रथ स. १४६२ पोशाक भेजी। मानसिह ने भी एक.हजार घुड़सवारों के से १४६६ के मध्यवर्ती काल मे रचे गये है। इनसे कवि माथ अपने भतीजे को भेंट लेकर सुल्तान से मिलने के वर रइध की कविता करने की शक्ति का अंदाज लगाया लिए वयाना भेजा। इमसे मानसिह कुछ समय तक . जा सकता है। निष्कटक राज्य कर सका। सन् १५०५ मे तोमरो के __मुझे अभी हाल में जयपुर के मामेर भंडार मे रहधू राजदूत निहाल से कुद्ध होकर सिकन्दर लोदी ने ग्वालियर १. विज्जुल चंचलु लच्छीसहाउ, पर प्राक्रमण किया, किन्तु मानसिंह ने धन देकर और पालोइविउ जिणधम्मभाउ । अपने पुत्र विक्रमादित्य को भेजकर सुलह कर ली। सन् जिण गंथु लिहावउ लक्खु एकु, १५०५ मे सिकन्दर ने ग्वालियर पर प्राक्रमण किया, और सावय लक्खा हारीति रिक्खु । १. एक सोवनको लका जिसि, तो वरु राउ सबल वरवीर। मुरिण भोजण भुंजाविय सहासु, भयबल प्रायु जु साहस धीरं, मानसिह जग जानिये । चउवीस जिणालउ किउ सुभासु । ताके राज सुखी सब लोग, राज समान करहिं दिनभोग। -जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सं० पृ० १४४ जनधर्म बहुविधि चलें, श्रावगदिन न कर पट् कर्म । २. जैन लेखसंग्रह पूर्णचन्द नाहर भाग २ -नेमीश्वर गीत Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त इस बार भी मानसिंह ने धन देकर तथा पुत्र को भेजकर सन् १५१२ (वि. स. १५६६)२ में राजा मानसिह सलह कर ली। सन १५०५ में सिकन्दर ने ग्वालियर पर के राज्य में गोपाचल में श्रावक सिरीमल के पत्र चतरूने पनः प्राक्रमण किया। अबकी बार ग्वालियर की सेना नेमीश्वर गीत की रचना ४४ पद्यों में की है। यह ग्रन्थ ने उसके दांत खट्टे कर दिये । उसकी रसद काट दी गई, आमेर भडार में सुरक्षित है। जिसमें जैनियों के २२वें और वह बड़ी दुरावस्था के साथ भागा। पश्चात् सन् तीर्थकर नेमिनाथ का जीवन परिचय प्रकित है। १५१७ तक मानसिंह को चैन मिला। परन्तु इस बार तोमरवंश का अन्तसिकन्दर पूर्ण तैयारी के साथ ग्वालियर पर हमला सिकन्दर के बाद इब्राहीम लोदी दिल्ली की गद्दी पर करना चाहता था किन्तु सिकन्दर मर गया। बैठा। राज्य सभालते ही उसकी महत्वकांक्षा ग्वालियर मानसिंह का कलाप्रेम लेने को हुई। उसे अपने प्रपिता वहलोल लोदी और पिता मानसिंह ने मृगनयना गुजरी के लिए गूजरी महल सिकन्दर लोदी के प्रसफल होने की बात याद थी ही। बनवाया। और 'मान कुतूहल' नाम के संगीत ग्रन्थ को अत: उसने सम्पूर्ण शक्ति तय्यारी में लगाई। उसने रचना की। ग्वालियर का मानमन्दिर (चित्रमहल) हिन्दू ग्वालियर के किले पर घेरा डाल दिया, उसी समय मानस्थापत्य कला का प्रभुत नमूना है। इसका निर्माण सिह की मृत्यु हो गई। मानसिंह के बाद तोमर लोदियों विशुद्ध भारतीय शैली में हुआ है। जिसने मुगल स्थापत्य के प्राधीन हो गए। और मानसिह का बेटा विक्रमादित्य कला को प्रभावित किया है । इस महल को अनुपम चित्रो अपने पूर्वजो की स्वातत्र्य भावना को निभा न सका। से अलंकृत किया है। उनका रग आकर्षक चटकीला है। उपसंहारमानमन्दिर के प्रागनो और झरोखों मे अत्यन्त सुन्दर इस तरह ग्वालियर के तोमर वश में जैन धर्म का ठोस खुदाई का काम है। प्रागन के खभों, भीतो, तोडो और सांस्कृतिक कार्य हुअा है, उसका यहां कुछ निर्देश किया गया गोखों में सुन्दर पुष्पों, मयूरो तथा सिंह, मकर आदि है। मेरा विचार है कि ग्वालियर राज्य में जितने जैन उत्कीर्ण किये गये हैं। बाबर ने भी इस महल की कारी शिलालेख, मूतिलेख है, यदि उनका संकलन कर सका तो गरी की प्रशंसा की है। तत्कालीन विद्वान भट्टारको, राजाओं और धावकों का मानसिह के राज्य समय मे क्या कुछ सास्कृतिक प्रामाणिक इतिवृत्त भी लिखा जा सकेगा। कार्य हुए है। इस सम्बन्ध में यद्यपि विशेष अनुसंधान नहीं हो पाया है तो भी एक दो उल्लेख नीचे दिए जाते ग्वालियर मे पुरातनकाल से जैन सस्कृति के पालक बिद्वान मुनि, भट्टारक और श्रेष्टि जन अपनी शक्ति भर जैन धर्म को समुन्नत करने के प्रयत्न मे लगे रहे है । यही सन् १५०१ (वि० स० १५५८) मे चैत्र सुदी १० सोमवार के दिन गोपाचल दुर्ग मे राजा मानसिंह के कारण है कि वहां जैनियों के पुरातत्त्व की विपुलता है। राज्य में काष्ठासघ नदिगच्छ विद्यागण के भट्टारक सोम मघे नदिगच्छे विद्यागणे भ. श्री सोमकीतिदेवास्तकीर्ति और भ० विजयसेन के शिय ब्रह्मकाला ने प्रमर पट्टे भ० श्री विजयसेन देवास्तत् शिष्य ब्रह्मकाला कीर्ति के षट्कर्मोपदेश की प्रति अपने पठनार्थ लिखाई द षट्कर्मोपदेशशास्त्रं लिखाप्यं प्रात्मपठनार्थ । थी । -प्रशस्ति स० आमेर पृ० १७३ १. अथ नपति विक्रमादित्य सवत् १५५८ वर्षे चैत्र सुदी २. सवतु पंद्रह से दो गने, गुनहुत्तरि ताऊपर भने । १० सोमवासरे प्रश्लेखा नक्षत्रे गोपाचलगढ़ दुर्गे महा- भादी वदि पंचमीवार, सोम नषितु रेवती सार । राजाधिराज श्री मानसिह राज्ये प्रवर्तमाने श्री काटा -ने मीश्वर गीत Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ पौली मंदिर, शिरपुर नेमचन्द धन्नूसा जैन शिरपुर जिला अकोला मे श्री प्रतरिक्ष पार्श्वनाथ प्रभु मादि की दि० जैन प्रतिमाएं स्थापित है, तो भी इस नाम के दो दिगम्बर जैन मंदिर हैं। जहा प्राज देवाधिदेव ही श्री प्रतरिक्ष पाश्वं प्रभु की मूर्ति के लिए यह मंदिर १००८ श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है बधाया गया था इसलिए इस मदिर को प्राज भी श्री पं. और जिसके दोनो मंजिल पर अनेक दिगम्बर जैन मूर्ति पार्श्व पौली मंदिर ऐसा ही कहते हैं। पादुका, गुरुगादी प्रादि विराजमान है। इसका विवेचन या यों कहिए कि यह इस मदिर का विशेष नाम' हम आगे करेगे। आज जिस मदिर की जानकारी हम है, शास्त्रो मे जिसे 'नाम निक्षेप' कहते है। क्योंकि इस वाचक को देना चाहते है वह है दूसरा मदिर। जो गाव मंदिर पर जो शिलालेख ई. स. १४०६ का सत्कीर्ण है के पश्चिम मे और हेमाडपंथी है। यह मदिर एलिचपुर उसमे 'अंतरिक्ष श्री पार्श्वनाथ' यह नाम है। और इसी के धोपाल ईल राजा ने बनवाया है। यह मदिर बगीचे मे लिए इस मंदिर को श्री प्रतरिक्ष पार्श्वनाथ पौली मदिर है और यहा के ही पुगने कुवां के जल से श्रीपाल-ईल कहते है। गजा का कुष्ट रोग गया था। आज भी श्रद्धापूर्वक इसी पानी का उपयोग करने से अनेको लोगो के कुष्ट, इस लेख के ऊपर के एक शिला पर 'श्रीमन्नेमिचन्द्राचर्मरोग, नष्ट हो रहे है और उदर व्याधि भी चली जाती चार्य प्रतिष्ठित दिगंबर जैन मदिर' ऐसा लेख मिलता है। है ऐमा अनुभव प्राता है। दीर्घ काल भगवान की इससे इतना तो स्पष्ट है कि यह मदिर प्राज तक प्रतिप्रतिमा इसी कप मे रही है तो उसके ससर्ग से उस जल ष्ठित है, ऐसा जो श्वेताम्बर कहते है वह प्रसत्य है और होगये होगे तो प्राश्चर्य नही। श्री नेमिचद्राचार्य नाम के दि० मुनि के तत्वावधान में इस मंदिर की प्रतिष्ठा हुई है। बड़ी भक्ति और श्रद्धा के बाद राजा ईल को यह प्रतिमा मिली थी। अत वे इस प्रतिमा को एलिचपुर मंदिर की रचना शैली और शिल्प-यद्यपि इस ले जाना चाहते थे। लेकिन वह यहां ही-जहा बस्ती । र मदिर का काम देवगिरी के हेमाद्विपत के करीबन एक मदिर बना है-स्थिर हो गई । इसलिए बीच मे शतक पहले प्रारम्भ हुपा था, तो भी बाद मे ही पूरा ही इसकी स्थापना करने के बजाय जहाँ इसको प्राप्त करने का प्रयत्न किया गया इसलिए इस मदिर को किया वहा ही इसके लिए भव्य मंदिर बना कर उसमे हेमाडपथी ही कहते है। अर्थात् यह मदिर मूल में पूरा इस प्रतिमा को स्थापन करना इस हेतु से ईल राजा ने पापाण का ही है और पाषाण को मिट्टी या चना सेन यह मंदिर निर्माण किया। लेकिन मूति यहा से न हटने जोड़ते हुए लोहे के कांच से जोड़ा गया है। के कारण इस मंदिर में प्रभु की मूर्ति की स्थापना न हा मदिर के सामने एक महाद्वार बनाया गया है इससे सकी। यद्यपि इस मंदिर में बाद में अन्य अनेक पात्र प्रस्टिा के दौ-गि १. श्वे. लोग कहते हैं कि "राजा को इस मंदिर निर्माण ऐमा लगता है, लेकिन वह पूरी न हो सकी, पोर यह करने के बाद गर्व हो गया था, इसलिए प्रतिमा ने प्रवेशद्वार प्राज धूप तथा पानी के मार से जीर्ण हो गया इस मंदिर में प्रवेश नहीं किया" यह बात एकदम है। इसकी मरम्मत प्रदाजा २०० साल पहले हो गई थी मगर अभी इसकी पश्चिम बाजू गिर गई है। इसके पूर्व Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त के दरवाजे पर एक पपासनी दि० जन मूर्ति उत्कीर्ण है। पर नत्य पथक तथा वाद्य पथक अनेक वाद्यों से अलंकृत है मूल मंदिर की रचना दो भागों मे बट सकती है। दरवाजे पर भी अनेक वाद्यपटु बताये गये हैं। इस सभागर्भागार और सभामडप । गर्भागार-बाहर से पचकोणा- मंडप की दीवाल में १२ तथा गर्भागार के पास के दो ऐसे कृति होकर प्रत्येक बाजू में जो देवली रखी है उनमे एक- कुल १४ स्तभ है। इस बीच एक और चार स्तंभ वाला एक क्षेत्रपाल की स्थापना की गई है। सभामडप चौरस सभामंडप है। इसके पश्चिम-दक्षिण के स्तंभ पर एक ६ है, इसके पूर्व, पश्चिम और दक्षिण मे ३ दरवाजे है। इंची खड़ी नग्न प्रतिमा है। इस बीच के सभामडप में इन तीनों द्वार के सामने स्वतंत्र तीन छोटे सभामडप जमीन पर पाषाण की कमलाकार रचना की है। बनाये गये थे, लेकिन सामने के दर्शनीय भाग का सभामडप जब गर्भागार में प्रवेश करते है तो वह अन्दर से नष्ट हा है। उसके अवशेष प्रभी वहा पड़े हुए है । एक चौरस और एकदम 'लेन देख कर अाश्चर्य होता है । अन्दर बडा भन्न धर्मचक्र भी उस प्रसिद्ध कुवा के पास रखा कोई शिल्प या नक्शीका काम नहीं है । सीधे हाथ के कोने गया है। मे एक अखड पापागाका मानम्तभ है । उस पर सामने का मदिर पूर्वाभिमुख है। मदिर में प्रवेश करने के पहले उल्लेख करने वाला शिलालेख है। अन्दर वेदी पर तथा ऊपर उल्लेखित शिलालेखो पर नजर जाती है। तथा बाहर भी सगमरमर की अनेक दि० जैन मूर्तिया है तथा उसके ऊपर प्राज 'श्री प्रतरिक्ष पाश्वनाथ दिगम्बर जैन पापाण की एक पच परमेष्ठी की प्रतिमा वहा है जो अति पौली मदिर' ऐसा बोर्ड भी लगा हुआ है। इस पर से प्राचीन है। श्वेताम्बर यात्री भी यह कहते है कि यह मदिर दिग- इस मदिरकी मूर्तिया, यत्र, शिलालेख तथा घण्टा प्रादि म्बरों का ही है। तथा अनपढ़ प्रादमी भी इस मंदिर के उपकरण मबधी दो लेख अनेकान्त के पिछले अंको में क्रमश शिल्प को देखकर कहते है कि यह मदिर दिगम्बर जैनो प्रसिद्ध हए ही है। अदाजा १०-१५ साल पहले इस मदिर का ही है। क्योंकि इस मदिर के जो ३ द्वार है उन पर के प्रसिद्ध कूप का गार निकालते समय एक दो फुट को प्राज बाज २ यक्षेन्द्र तथा कम से कम एक फुट ऊँची ऐसी पद्मासनी पाषाण की प्रतिमा मिली थी, उसका सिर धड़ से दो-दो खड़गासन प्रतिमाजी उत्कीर्ण है, और ऊपर एकेक अलग था, लेकिन शिल्पकार ने पूरी वीतरागता उसमे भर पपासन मति है। इसी तरह गर्षागार के द्वार पर भी दी थी। यह प्राचीन प्रतिमा इस मदिर मे स्थापन की एक पद्मासन मूर्ति है। होगी मगर परचक्र के प्राकमग मे इसका विध्वस किया तथा गर्भागार के पास सीधे हाथ के कोने में स्तभ गया होगा। इसलिए उसे जल समाधि दी गई है। पर एक ६ इंच की खडी नग्न प्रतिमा उत्कीर्ण है। रचनाकाल और क्रम-इस मंदिर को देखने के बाद इसलिए गर्भागार में जाकर प्रभुजी के दर्शन करने के ऐसा लगता है कि इस मदिर का काम चार बार प्रा है पहले मन मभामंडप के स्तम्भो पर के शिल्प देखने में दग और वह भी अन्त मे अधूरा ही रहा है। महाद्वार का होता है। वह जैसा थोडा पीछे हटता है वैसे ही उसको अकेला रहना या परिकर नही होना यह तो उसकी पश्चिमोत्तर बाज के स्तम्भ पर पूर्वाभिमुख खडी ६ इच ऊची अपूर्णता ही दिखती है। मगर मूल मदिर मे पापाण का हाथ मे पीछी कमण्डलु लिए हुए प्रतिमा दिखाई देती है। इस काम दो दफे हुआ है, बाद मे चना और ईट का काम भी पर से जान पडता है कि इस मदिर के निर्माण में किसी दो दफे होकर ऊपर शिखर को सिर्फ चाल छोड़ी है, दि. जैन मुनि का सहयोग जरूर रहा होगा। शिखर की अपूर्णता पूरे बाधकाम की अपूर्णता ही बताती उसी स्तम्भ पर प्रभुजी के जन्माभिषेक समय प्रभु के है। माता-पिता को जो कृत्रिम निद्रा पाती है उसका दृश्य पाषाण का काम दो दफे हमा था, यह कहने के दो बहुत ही उठावदार है। बाजू मे उन माता पिता की सेवा हेतु है । (१) मदिर पर जो दर्शनीय भाग के दरवाजे पर करने वाले देवगण है। उसी पोर उसके सामने के स्तंभ लेख खुदा है उसमे ई०स०१४०६ तथा जयसिंह राजा Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ पौली मंदिर, शिरपुर का उल्लेख मिलता है। अगर यह मंदिर दमवीं सदी के तो भी उस मंदिर के ऊपर शिखर नहीं है। ईल राजा ने ही बंधाया है तो उस पर १४वी या १५वी ऐसा लगता है कि बरतीके मदिर की पच परमेष्ठी की सदी और जयसिंह चालुक्य (अन्तिम ई० स० १३०४) पाषाण की बड़ी प्रतिमा औरंगजेब के जिस सरदार ने का उल्लेख कैसा? यह लेख पढ़ने वाले कुछ पाश्चात्य खडित की उसी सरदार ने इस मंदिर का दर्शनीय भाग को विद्वान कहते हैं कि-'इस लेख की खुदाई के कम से कम नष्ट कर मदिरके विध्वंस की चेष्टा की होगी । बाद में श्री सौ साल पहले यह मंदिर बाधा गया होगा। जिनसेन जी भट्टारक महाराज ने यहाँ प्रपना लम्बा जीवन सानोमा खटाया होगामा (ई० स० ...... तक) बिताया और इस मंदिर की चूना माकपा और ईटो से दुरुस्ती की। इसको भी मधूरा जान कर करने का प्रयत्न उस समय हुना होगा और वैसा उन्लेख भट्टारक श्री पद्मनन्दि के उपदेश से ई० स० १८२० के या 'जीर्णोद्धारक' ऐसा जयसिह का नाम होगा तो उचित दरम्यान महाद्वार की मरम्मत की गयी, इस मदिर के ही होगा। तथा मदिर के अन्दर गर्भागार के पास सभा- ऊपर फिर ईट और चूना से छत की गयी और शिखर मडप का काम देखने से ऐसा लगता है कि गर्भागार का बनाना प्रारम्भ किया । मदिर मे जहा-जहा गोल काम पहले ही किया गया होगा बाद में सभामंडप जुडाया गुम्मट की रचना की है वहा-वहां अगर शिखर बांधा जाता गया होगा। इसका कारण भी स्पष्ट है कि भगवान की तो यह मदिर छह शिखर वाला होता, और अभी भी पांच मूर्ति बाहर धूप मे थी। अत. जड से जमीन तक का और शिखर वाला बन सकता है। तो भी उस समय भी वहा मदिर का सम्पूर्ण तलकाम तो एकदम चालू किया गया एक भी शिखर पूर्ण न हो सका। आज भी वही हालत होगा मगर मूर्ति को जल्दी से जल्दी अन्दर विराजमान कायम है। करने की दृष्टि से पहले गर्भागार का काम कर लिया है समाधि :- इस मदिर के सामने ४ दिगबर जैनों की और बाद मे सभामडप जुड़ाया है। इस समय भगवान की समाधिया है-(१) भट्टारकजी श्री जिनसेन उर्फ कुबडे मूर्ति को यहा लाने का प्रयत्न किया गया, लेकिन वह स्वामी (२) भट्टारक श्री शांतिसेन महाराज (३) पं० अपने ही स्थान पर स्थिर रहने से बस्ती में उमी स्थान जीतमलजी (४) ५० गोविद बापुजी। पर एक नया मदिर बाधा गया। इम मदिर बावत साहित्यिक उल्लेख तथा लोकमतइस तरह गांव मे दूसरा मदिर बनने से इम मंदिर के इस बाबत सबसे प्राचीन उल्लेख 'गुरु नती' में मिलता तरफ स्वभावत: दुर्लक्ष हो गया और ई० स० १०२० के है। उसमें लिखा हैदरम्यान शाह अब्दुल रहमान गाजी के साथ ईल राजा का "विवादि भूतवाद हि त्यक्त्वा श्री जिलयम् । युद्ध हो गया। बाद में कुछ दिन के भीतर ही राजा का नुतनं विरचय्यासौ दक्षिणापथगावभत ॥" पच पिगे द्वारा खून हो गया। इससे इस क्षेत्र को मिला श्री मलधारि पद्मप्रभदेव प्राचार्य जब श्रीपुर बुलाये हुप्रा राजाश्रय बन्द हुप्रा । शायद चालुक्य राजा जयसिह गये, तब उन्होंने इस मदिर मम्बन्धी वाद को जानकर मूर्ति (द्वितीय वा तृतीय) इन्होने इस मदिर को पूरा करने के जहा रुकी थी वहा ही नया मदिर बघाया। उस समय लिए मदद दी होगी। इसीलिए उनका नाम उस मदिर के दूसग मदिर निर्माण होने से पहला यह मदिर अधूरा रह शिलालेखो में मिलता है। गया हो तो प्राश्चयं नहीं। यद्यपि उस समय भी यह मदिर शिखर बन्द न हो (२) भट्टारक श्री महीचद्र जी (स. १६७४) श्री सका तो भी उसका काम बहुत कुछ हो गया था। या यो अ. पा० विनती मे लिखते है-"राजा को प्रतिमा का कहिए कि उस समय शिखर विरहित भी जिनमदिर बनते साक्षात्कार होने से राजा ने प्रथम मदिर का काम शुरु थे। जिन्तूर (जि. परभणी) के पास मे नेमगिरी करके किया। बाद में मूर्ति को कर प्राप्त उसे एलिचपुर ले एक अतिशय क्षेत्र है, वहां बड़े विशाल तीन जिनबिंब है जना चाहा । लेकिन वह वहा ही स्थिर होने से राजा के हा । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ भनेकान्त मदिर तक भी न जा सकी । ज्योतिषी लोगों से राजाको यह पहले का तो निश्चित है।" हाल मालूम पडा कि यह मूर्ति राजा के मंदिर मे न प्रवेश (४) श्री रायब. हीरालाल जी-डिस्क्रिप्सन प्रॉफ करेगी तो राजा वैसा ही एलिचपुर गया। (देखो श्लोक...) लिस्ट प्रॉफ इंस्क्रिप्सन इन सी. पी. एंड वेरार १६१६ की ___इस पर से यह तो स्पष्ट है कि राजा के मदिर मे किताब मे सफा १३४ मे लिखते है-"यह अंतरिक्ष पार्श्वमूर्ति ने प्रवेश नही किया इसलिए राजा के एलिचपुर चले नाथ मदिर दिगबर जैनो का है। उस पर के शिलालेख जाने पर श्रावकों ने ही बस्ती में मदिर बधाया। आश्चर्य यह में 'अतरिक्ष पाश्वनाथ का और मदिर बांधनेवाले 'जगहै कि इसमें या अन्य दिगम्बर साहित्य मे दो मदिर और मिह' (जर्यासह) का उल्लेख पाता है।" गुरु का कोई उल्लेख नही है। श्वेताबरों के भी किसी इसी तरह इस मदिर को दिगंबर जैनो का प्रमाणित साहित्य में१ इस मूर्ति के लिए दो मदिर या किसी गुरु का करने वाले नीचे के चार प्रथ है । उल्लेख नही है। इसीलिए ईल राजा ने मूर्ति की स्थापना (५) गवर्नमेंट आफ बाम्बे जनरल डिपार्टमेंट प्राचियाकहां की थी-इस बाबत शका किसी को प्राती है। कोई लोजिकल प्रोग्रेस रिपोर्ट आफ दि प्राचियालोजिकल सर्वे कहते है कि राजा ने इसी पौली मदिर में उस मूर्ति की प्राफ वेस्टर्न इंडिया फार दि इयर एडिग ३० जून १६०२ । स्थापना की थी और वह मुगलो के प्राक्रमण के समय गाव (६) अकोला डि० गजेटियर वोलूम न० १ में लाकर प्रतिष्ठित की होगी। इस प्रकार मानने से किसी (७) मेट्रल प्रोविन्सेस एंड वेरार डिस्ट्रिक्ट गजेटियर गुरु को भी बुलाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। अकोला डिस्ट्रिक्ट वोलूम ८ डिस्ट्रिक्टिव बाय-सी. ब्राऊन कोई कहते है राजा के मदिर मे मूर्ति ने प्रवेश नही पाय-सी. यस्. एड ए. ई. निलेन आय सी. यस्. जनरल किया इसलिए बस्ती में दूसरा मदिर बघाया गया। और एडोटर एड सुपरिटे डेट आफ गजेटियर्स । तथा जैसे पूजा-प्रतिष्ठा महोत्सव प्रसग में चतुर्विध संघ को (८) इपोरियल गजेटियर्स ग्राफ इंडिया वालूम २३ । मामंत्रित करने की पहले से प्रथा तो है ही, उसमे इस सातिशय मूर्ति की स्थापना किसी त्यागी के हाथ से करने (8) श्री गठी जज (वाशीम)--इस पौली मदिर की भावना होना स्वाभाविक है। सवाल यही है कि के खेत के केश के जन्मेट में लिखते है-"यह ऊपर की के खन के केश । जिस हेतु से गुरु महाराज को बुलाया गया वह हेतु सफल चारो किताबे स्पष्ट करती है कि पौली मदिर अति प्राचीन नही हुआ और दूसरा मदिर बाधना ही पड़ा। साथ मे वे है, तथा दिगबर जैनो का है। दी इपीरियल गजेटियर थे इसलिए उनके तत्वावधान में प्रतिष्ठा हई होगी, अन्यथा इसके भी आगे जाकर बताता है कि शिरपुर का अंतरिक्ष वह किसी के हाथ से तो हो ही जाती। इस प्रकार उस पार्श्वनाथ बस्ती मदिर भी दिगबर जैनो का है।" प्रसंग को खास महत्त्व न देकर किसी ने यदि वह घटना (१०) श्री यादव माधव काले-'व-हाडचा इतिहास' नही बताई तो उसका मतलब वह घटना ही नहीं घटी, पृष्ठ ७० पर लिखते हैं-"इलिचपुर को इलावतं कहते ऐसा नहीं होता। है। यहां ईल नरेश राज्य करता था। वह जैनधर्मी होकर (३) मि० कोझिन साहेब "प्रोग्रेस रिपोर्ट १६०२ महान पराक्रमी था। इसका प्रभल एलोरा तक था। इसने पृष्ठ ३ पर लिखते है-"श्री अंतरिक्ष पाश्र्वनाथ मदिर णाह दुल्हा रहिमान गाजी का प"भव किया। (तथा पृ० दिगबर जनों का है। उस पर सस्कृत मे एक शिलालेख ३०४ पर) जैनधर्मी इमारती-एक दफे बहाड पर ई० स० १४०६ का है। लेकिन वह मंदिर इससे सौ साल जैन राजा का प्रभल था। उससे वहाड में जैनधर्मी मंदिर विविजय जी की जो रचना बतायी जातीवर भी बहुत हैं। उनमे सातपुडा में मुक्तागिरी के धबधबा के कृत्रिम है। वह शायद ऊपर निदिष्ट गाविनतीको पास का मंदिर तथा शिरपुर का जैन मंदिर प्रसिद्ध है। नकल है। उसमें जो काल बताया है वह एकदम (११) मि. फर्ग्युसन साहेब-हिस्ट्री माफ इंडियन गलत है और कुछ घटना भी कपोलकल्पित है। ईस्टर्न चिटेक्चर इस किताब में लिखते है-“एलिच Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ पौली मंदिर, शिरपुर पुर के राडू (ईल) राजा ने यह अतरिक्ष पार्श्वनाथ का 'हम मैनेजर है' याने संस्थान की पूरी स्टेट के अकेले ही मंदिर बधाया। वह दिगबर जैनों का है।" प्रादि । सर्वाधिकारी हो गये ऐसे मनोराज्य में वे पीछे कब, कैसा (१२) श्री अं० पा० सस्थान के १६१० के केस में क्यों बके इसका विस्मरण होकर वे प्रब खद ही उस मंदिर परा २० के में जब दि. जैनों की तरफ से कहा गया की तारीफ कर रहे हैं। था शिरपुर का प्राचीन हेमाडपंथी मदिर श्री देवाधिदेव श्वेताबरो ने 'श्री प्रतरिक्ष पार्श्वनाथ' इस नाम से गुजप्रतरिक्ष पार्श्वनाथ की मूर्ति को विराजमान करने के लिए राती, हिन्दी, मराठी पोर संस्कृत भाषा मे एक किताब दिगंबर जैन ईल राजा ने बंधाया था। और उस पर का प्रसिद्ध की है। उसमें वे लिखते है-"वहां (शिरपुर मे) शिल्प भी दिगंबर पंथ का ही पोसक है" प्रादि । तब इस एक कलापूर्ण और विशाल सुन्दर जिनमदिर है। पौर विधान को ठुकराते हुए श्वेताबर कहते थे-"कि इस कलम उसके पास ही एक बड का बड़ा वृक्ष है। शिरपुर के में किया गया विधान वादी को मंजूर नही। यह लोग कहते है, कि इस ही पेड के नीचे प्रतिमा प्रचल मूर्ति विराजमान करने के लिए दिगबर धनिक ने यह और अधर हई थी। और इसी प्रतिमा के लिए ही राजा हेमाडपंथी मदिर बधाया नही। जिस श्वेताबरी राजा को ने यह मदिर बधाया है। लेकिन राजा के अभिमान से यह मूर्ति मिली और जिसने वह शिरपुर तक लाई वही भगवान ने इस मदिर में प्रवेश नहीं किया। इसलिए अब राजा ने मूर्ति के लिए एक मदिर बधाया। और उसमे वह मंदिर खाली है। यह बात अन्य दृष्टि से देखते हुए यह मूर्ति ले जाने का प्रयत्न किया। लेकिन वह सिद्धि को भी बराबर दीखती है। अनेक यूरोपियन अधिकारियों ने गया नही। उस राजा ने बघा हुमा मदिर हाल में पहले बहाड (विदर्भ) में प्रवास करके बहाड के शिल्प स्थापत्य जैसा कायम नही। उस मदिर का बहुत सा भाग अनेक पर लिखा है। उन्होंने कहाड के सुन्दरतम और प्राचीनतम कारणों से नष्ट हया है। और उसमे कालांतर से और शिल्प स्थापत्य मे शिरपुर गाव के बाहर होने वाले अपने कालगती से बहुत फेरफार हुए है। इससे 'शिरपुर गाव के जैन मदिर का भी वर्णन किया है। बहाड के महान पश्चिम बाज में हाल जो मंदिर है वह ही प्राचीन मंदिर इतिहासज्ञ यादव माधव काले इन्होंने वहाड चा इतिहास' है। अब जिस स्थिति मे है उस ही स्थिति मे जब बाधा नामकी पस्तक मे इम मदिर का पार्ट पेपर पर सुन्दर फोटो गया तब था' ऐसा वादी (श्वे०) मान्य नहीं करता। छपा के मुन्दर मचमुच इसकी मुन्दरता और महत्ता प्रका(देखो ता. २०-१२-१९११ का जवाब) शित की है। साथ ही शिल्पशास्त्रों के ऐतिहासिक टोप -श्वेतांबरों ने यह जवाब हेतुपुरस्सर दिया अभ्यास से भी यह स्पष्ट है कि शिरपुर का यह मदिर था। इस मंदिर का रूप अनिश्चित रख कर जिस मूति करीबन एक हजार माल पुराना है।" के लिए यह मदिर बनाया उसका भी स्वरूप अनिश्चित इन दोनो उतारो से पाठक समझ गये होगे कि ऊपर सा कर दिया। ऐसा नहीं करते तो इस मदिर के स्पष्ट का उल्लेख श्वेताबरो का स्पवचनवाधित ही है। यूरो. स्वरूप से, जैसा यह मदिर दिगंबरी सिद्ध होता है वैसा ही पियन और भारतीय लेखको के विचार इमी लेख मे दिए टिस मूर्ति के लिए यह मंदिर बनाया गया वह मूर्ति भी दिगबर पाम्नाय को स्पष्ट सिद्ध होती। यह मान्यता १. असल मे तो शिरपुर के वृद्ध लोग इस बात का उपश्वेताम्बरो को अनिष्ट थी, इसलिए उन्होने ऊपर जमा हास करते हुए कहते है कि यह वृक्ष हमारे सामने जवाब दिया और वह मून मूर्ति श्वेतांबर सम्प्रदाय की है लगाया गया है और इसके पहले न वहा कोई वृक्ष ऐसा कोठं को झूठा भास कर दिया। उससे उनको सिर्फ था और न वहा मूर्ति अड गयी थी। मूर्ति पौर मंदिर का केवल मैनेजमेट करने का अधिकार २. इस मदिर मे पहले जमाने से । नेक दि. जैन मूर्ति दिया गया। साथ मे दिगंबरो का भी समान रूप से पूजन प्रतिष्ठिन हैं। मगर वहा एक भी श्वेतांबर मूति न और मैनेजमेंट का अधिकार कायम रखा गया। लेकिन होने से उनकी दृष्टि से यह मंदिर रिक्त ही है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त हैं तथा यादव माधव काले का उतारा भी देखा है । काले (१४) महाराष्ट्रातील जिल्हे-अकोला जिला इस जी के और भी विचार ग्रागे के लेख में दिए जाएगे। ये किताब मे भी ऊपर जैसा उल्लेख मिलता है। सब इतिहासज्ञ और शिल्पज्ञ पौली मंदिर को दिगंबरों का टीप :-शिरपुर मे पांच साल पहले एक विशाल ही सिद्ध करते हैं । तो भी 'मेरे मुर्गे की एक ही टांग' ऐमा श्वेताबर मन्दिर की प्रतिष्ठा हुई है। उसका नाम विघ्नकरने वाले विघ्नसंतोषी लोग प्राज भी कहते है कि- हर पार्श्वनाथ है। "(i) यह मदिर श्वेताबर का ही है। (ii) इस मंदिर मे (१५) 'मन्दिरमाल मुक्नागिरी' इस किताब का अजैन एक भी दिगबरी मूर्ति नहीं है। (iii) इस मंदिर पर लेखक दि. जैन सिद्ध क्षेत्र मुक्तागिरी का इतिहास बता मैनेजमेंट श्वेतांबरों का ही है।" कर पृष्ठ पर लिखता है-(अनुवाद) “सातपुडे के एक श्वेतांबर साधु तो यहा तक लिखते हैं कि पायथे मे एलिचपर इस राजधानी में राज्य करने वाले दिगबरो ने जबदस्ती से इस मंदिर मे हालही कुछ दिगंबरी ईल राजा ने (ई० स० १०५८) ईशान्य दिशा में पाच मूर्तियां रखी हैं पादि । यह सब उल्लेख जनता के सामने कोम पर मुक्तागिरी यह रमणीय स्थल निर्माण किया। रखने का कारण यह है कि यहां हमको कुछ धोखा दिख निदान इस क्षेत्र का पहला जीर्णोद्धार ईल राजा ने किया रहा है। ग्राज तक कब्जा और मैनेजमेट इस मदिर पर और तब से जैनो का यात्रास्थल करके उसको प्रसिद्धि दिगबरों का ही है। मगर उसमें बाधा डाली जायगी तथा मिली। इस ईल राजा के अंभल में विदर्भ मे अनेक जैन शायद वहा प्रतिष्ठित दिगंबर मूर्तिया हटाकर श्वेताबर स्थल निर्माण हए। जैनों के इतिहास का वह बहरकाल मुर्तियां स्थापित होगी। इस धोखाको टालने के लिए दुरुस्ती था। शिरपुर, मादक, पातूर आदि के जैन मन्दिर भी कार्य प्रारम्भ कर दिया है, उसका बजेट १५ हजार रुपये इसी काल मे निर्माण हए है। इस कार्य मे ईल राजा का के करीबन है। प्रागा करता है दानी लोग इसको न बड़ा महयोग था।" भूलेगे। (१६) 'एलिचपुर के राजाईल तथा मुक्तागिरी' इस अब पाठको के अधिक विश्वाम के लिए और भी कुछ ७ लेख में प्राधुनिक महान इतिहासज्ञ श्री य. खु देशपाडे प्राधुनिक उतारे पेश कर रहा है। बीमवी सदी के मन्त लिखते है कि ईल गजा दिगबर जैन धर्मानुयायी था। मे भी इस मदिर के शिला बाबत लिखने वाले इग मन्दिर उसने शिरपुर का भी मन्दिर बनवाया था। को 'दिगंबरी' ऐसा स्पष्ट लिखते हैं। देखिए प्रादि अनेक भारतीय इतिहासज्ञों के मत, इस मंदिर (१३) महाराष्ट्र राज्य परिचय-(सरकारी प्रका को स्पष्टयता दिगंबरी ही घोषित करने वाले, दिये जा शन) पान १२८ पर 'प्रेक्षणीय स्थले' मे लिखा है सकते हैं। लेकिन विस्तार भय के कारण इस विषय को 'शिरपूर यह दो जैन मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। उसमें एक यहां ही छोड़ देता हैं। अमत पूरा चाखने पर ही मोठा दिगंबर जैन समाज का अंतरिक्ष पार्श्वनाथ का प्रतिशय लगता है, ऐसा नहीं तो उसका प्रश भी मिठाई के लिए प्राचीन मंदिर है।" पर्याप्त है। १. जब इस मदिर मे इलेक्ट्री फिटिग दिगम्बरियों की अन्त मे कहता हूँ कि जिस श्री देवाधिदेव अंतरिक्ष तरफ से की गई, तब उसमे बाधा लाते हुए श्वेतांबरो पार्श्वनाथ की मूर्ति के लिए यह दिगंबरी शिल्पवाला मंदिर ने ऐसा लेखी जवाब दाखल किया है। लेकिन संतोप निर्माण हुमा वह मूर्ति भी दिगबरी ही है। इसका पूरा की बात है कि इस कार्य की दिगंबरी ने नानोमे लगन विवेचन पाठको को प्रागे के लेख में मिलेगा । पाठक देरी रहने से वह कार्य देरी से क्यों न हो, पूर्ण हमा है। के लिए क्षमा करें । अस्तु । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानार्णव व योगशास्त्र : एक तुलनात्मक अध्यन बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री ज्ञानार्णव निश्चय नही हपा है, तथा जिनकी प्रशुभ भावलेश्या नष्ट प्राचार्य शुभचन्द्र विरचित ज्ञानार्णव एक प्रसिद्ध ग्रन्थ नहीं हुई है। ऐसे व्यक्तियो को उस ध्यान का अनधिकारी बतलाया गया है। इसी प्रमग मे यह भी संकेत किया इसी इमे योगप्रदीपाधिकार भी कहा गया है। यह परम गया है कि जो मुनिधर्म को जीवन का उपाय बना थन प्रभावक मण्डल बम्बई में प्रकाशित (१९२७) प्रति लेते है उन्हें लज्जा पानी चाहिए। उनका यह दुष्कृत्य के अनुमार ४२ प्रकरणो में विभक्त है। भाषा उसकी एमा ऐमा घृणास्पद है जैसे कोई अपनी मा को वेश्या बनाकर मस्कृत है जो मरल व माकर्षक है। ग्रन्थ का अधिकाश जीवनयापन करने लग जाय । जो साधु होकर भी निलंज्ज जविनय भाग अनुष्टुप् छन्द में है, माथ ही उसमें यत्र तत्र शार्दल- होते हुए इस प्रकार के घृणित कार्य किया करते है वे सन्मार्ग विक्रोडिन. सग्यरा, मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी और मालिनी की विराधना करके नरक के मध्य में प्रविष्ट होते है।। आदि अनेक अन्य रोचक छन्दो का भी उपयोग किया गया प्रकृत मे प्रयोजन मोक्ष का है और उस मोक्षरूपी है । ग्रन्थ का प्रमुग्ध वर्णनीय विषय ध्यान होनेसे यहा उससे महल की सीढ़ियां है अनित्यादि बारह भावनाए। इसीमम्बद्ध घाता- ध्यान के अधिकारी, ध्येय और ध्यान- लिए प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रथमत: उन बारह भावनामो का फल का भी वर्णन किया गया है। निरूपण किया गया है। कर्मरूप सांकलों के तोड़ने का __ध्याना का वर्णन करते हुए ग्रन्थकर्ता ने उस ध्यान के उपाय एक ही है, वह है सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप अधिकारी उन धीर वीर महामुनियों को बतलाया है। रत्नत्रय की प्राप्ति । प्रतः ध्यान की सिद्धि के लिए रत्नजो कामभोगो मे विरक्त होकर अपने शरीर की भोर से त्रय की प्राप्ति को अनिवार्य समझ यहा सम्यग्दर्शन, सम्यगभी निर्ममत्व हो चुके है, जिनका चित्त चपलता को छोड ज्ञान और सम्यकचारित्र का भी वर्णन किया गया है। स्थिरता प्राप्त कर चुका है, तथा जिन्होने सयम की तत्पश्चात् कपाय और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के धुग को धारण कर प्राणो का विनाश होने पर भी फिर लिए उनके स्वभाव का चित्रण किया गया है। कभी उसे नही छोडा है। इसके विपरीत जो लोकानु-: ३. लोकानुग्न पापः कर्मभिगौरवं श्रिताः। रजन करने वाले पापकार्यों को करते हुए अपने को गौर अजिननिजस्वान्ता प्रक्षार्थगहने रताः ।। वान्वित ममझते है, जिनका मन प्रात्मध्यान में नही रगा अनुदधूनमन शन्या प्रकृताध्यागमनिश्चया । है, जो इन्द्रियविषयो में अनुरक्त हो रहे है, जिनके अन्त - पभिन्नभावदुर्लेश्या निपिडा ध्यानसाधने ।। करण मे शल्य नहीं निकल सकी है, अध्यात्म का जिन्हे पृ. ८० श्लोक ४६-४, १ इत्यादिपरमोदाम्पूण्याचरणलक्षिताः । ४ यनित्व जीवनोपय कुर्वन्त. कि न लज्जिताः । ध्यानमिद्धे ममाख्याता पात्र मुनिमहेश्वर ॥ मान पण्यमिवालम्ब्य यथा केचिद् गतघृणा ॥ ८७ श्लोक १७ निस्त्रपा. कर्म कुर्वन्ति यतित्वेऽप्यतिनिन्दितम् । २. ममयमधुग धीरनं हि प्रारणात्ययेऽपि य.। नतो विराध्य सन्मार्ग विशन्ति नरकोदरे । स्याना महत्त्वमालम्ब्य ने हि ध्यान-धनेश्वरा ॥ पृ. ८१ श्लोक ५६-५७ पृ. ८५ श्लोक ४ ५. पृ.९१-१९५. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त कुछ लोगो ने शिवतत्त्व, गरुडतत्त्व और कामतत्त्व को किया गया है२ (पृ० ३०७-१६) । कल्पना की है। ये तत्व परमात्मस्वरूप ही है, उससे जिसने निज के स्वरूप को नहीं समझा है वह परभिन्न नहीं है। यह प्रगट करते हुए प्रकृत ग्रन्थ मे गद्य मात्मा को नहीं जान सकता । प्रतएव यदि उस परमात्मा सन्दर्भ के द्वारा उक्त तीन तत्त्वो को उमी रूप से प्ररूपणा को जानना है तो सर्वप्रथम प्रत्मस्वरूप का निश्चय की गई है (पृ० २२१-२६)। करना चाहिए। इसी तत्त्व को लक्ष्य में रखकर यहा अन्यत्र किन्ही ऋषियो के द्वारा यम, नियम, प्रामन, आचार्य शुभचन्द्र ने समस्त प्राणियों में विद्यमान उस प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि; ये पाठ मात्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा इन तीन अग१ तथा किन्ही के द्वारा यम-नियमके विना शेष छह ही भेदो का निर्देश करते हुए उस पात्मस्वरूप को विस्तार से ध्यान के स्थान माने गये है। उनके विषय में प्राचार्य समझाया है३ (. ३१६-३५) । शुभचन्द्र कहते है कि उक्त योग के पाठ प्रग चित्त की खत योग के माठ प्रग चित्त की अनादि काल से पडे हुए सस्कार के कारण अन्य की प्रसन्नता के द्वारा मुक्ति के कारण हो सकते है । मो जिस ताब तो बात क्या, किन्तु जिस योगी ने उस पात्मतत्त्व को जान ने उस चित्त को वश में कर लिया है उसके वश में सब लिया है वह भी मोहादि के वशीभूत होकर उसमे भ्रष्ट हो जाता है, इसीलिए यथावस्थित समस्त लोक का कुछ हो चुका है। इस प्रकार उन्होने मन के नियन्त्रण पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। मन की शुद्धि से राग-द्वेषादि का माक्षात्कार करने के लिए तथा प्रात्मविशुद्धि को प्राप्त भी निरोध हो जाता है और जहा राग-द्वेषादि का निरोध करने के लिए निरन्तर वस्तुस्वरूप में स्थिर रहते हुए हुमा कि योगी समताभाव पर प्रारूढ़ हो जाता है। अलक्ष्यभूत तत्त्व से लक्ष्यभूत तत्त्व का, स्थूल तत्व से मुक्ष्म तत्त्व का पोर पालम्बन सहित तत्त्व से पालम्बन ध्यान के मामान्यतया दो भेद निर्दिष्ट किये गये है विहीन तत्त्व का चिन्तन करना चाहिए । इस प्रकार उस दुर्ध्यान और प्रशस्त ध्यान । इनमे प्रातं और रौद्र के भेद निरालम्बन-निर्विकल्प समाधि-की प्राप्ति के उपायभूत से दुनि दो प्रकारका है तथा धर्म और शुक्ल के भेद से. .प्रशस्त ध्यान भी दो ही प्रकारका है। अपने-अपने भेद- २ मम शक्या गुरणग्रामो व्यक्त्या च परमेष्ठिन । प्रभेदोंके साथ इन चारों ध्यानों का यहा यथास्थान विस्तार एतावानावयो दः शक्ति-व्यक्तिस्वभावतः ।। मे वर्णन किया गया है। प्रसगवश यहा प्राणायाम (पृ० पृ. ३०६ श्लोक १० २८४-३०३), प्रत्याहार और धारणा का भी निरूपण ३. बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा से सम्बद्ध यह किया गया है। पूग प्रकरण प्राचार्य पूज्यपाद के समाधितंत्र से प्रतिसवीर्य ध्यान का विवेचन करते हुए कहा गया है कि शय प्रभावित है-समस्त प्रकरण समाधितत्र को अपने ही विलास से उत्पन्न राग-देषादि से बद्ध होकर मैं सामने रखकर रचा गया है। इसका निर्णय सख्या कमसे उक्त दोनों ग्रन्थों के निम्न श्लोकों का मिलान इस दुर्गम संसार में परिभ्रमण करता रहा हूँ। आज मेरा करने से होता हैवह रागभाव विनष्ट हुमा है तथा मोह-निद्रा भी दूर ___ ममाधितत्र-८-६, १०, १३, १८-२६, २७. २८ हुई है, इसीलिए अब मैं ध्यानरूप खड्ग के द्वारा कर्मरूप मे ३७, ३६-५३, ६३-६६, ६७.६६, ७,७१, ७२ से शत्रु को नष्ट कर देता हूँ । सम्यग्दर्शनादि गुणो का समु ७५, ७७, ७६.८४. दाय शक्तिरूप से मुझमे है, और व्यक्तिरूप से परमेष्ठी के है, यही तो शक्ति और व्यक्तिरूप स्वभाव से दोनो मे भेद ज्ञानार्णव (३२वा प्रकरण)-१३-१४, १५, २०, २५-३३, ३६, ४२.५१, ५२.६६,७० (समाधितत्र के है। इत्यादि रूप से यहा प्रात्मा-परमात्मा का विचार ६३.६६ श्लोकों का भाव ज्ञानार्णव के ७२वें श्लोक १. यम-नियमासन-प्राणायाम - प्रत्याहार-धारणा-ध्यान मे सगृहीत है), ७३-७५, ७७, ७६, ७८.८१. ८२, समाधयोऽष्टावङ्गानि । योगसूत्र २-२६. ८३.८८. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानार्णव व योगशास्त्र: एक तुलनात्मक अध्ययन यहा धर्मध्यान के प्राज्ञाविचयादि चार भेदों का विस्तार- वह वर्षा, प्राधी और शीतातपादि को बाधा से कभी पूर्वक निरूपण किया गया है (पृ. ३३६-८०)। विचलित नहीं होता; तथा वह न कुछ देखता है, न कुछ तत्पश्चात् ध्यान के पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ पौर सुनता है, न सूंघता है, और न किसी प्रकार के स्पर्श का रूपातीत, इन चार भेदों का निर्देश करके पिण्डस्थ ध्यान भी अनुभव करता है। इस प्रकार योगी धर्मध्यान के मे पार्थिवी, प्राग्नेयी, श्वसना (वायव्य), वारुणी और प्रभाव से देव व मनुष्यों के अनुपम सुख को भोगता हुमा तन्वरूपवती. इन पांच धारणामो का तथा पदस्थ ध्यान में इस शुक्ल ध्यान का सहारा लेकर प्रविनश्वर पद को प्राप्त अनेक प्रकार के मत्रपदों का वर्णन किया गया है । तृतीय करता है (पृ. ४२३-२६) । रूपस्थ पान में निरन्तर स्मरणीय प्रहंत प्रभ के अलौकिक अन्त में सर्वसाधारण के लिए असभव उस शुक्ल माहात्म्य को प्रगट किया गया है तथा अन्तिम रूपातीत ध्यान ध्यान के पथक्त्ववितर्क प्रादि चार भेदो का उल्लेख का वर्णन करते हुए यह कहा गया है जो योगी वीतराग कर ग्राहंन्त्य अवस्था, केवलिगमुद्घात और योगनिरोध परमात्मा का स्मरण करता है वह स्वय वीतराग होकर प्रादि का दिग्दर्शन कराते हुए ग्रन्थ को समाप्त किया गया कमबन्धन ने मुक्ति पा लेता है, और जो रागी सराग है तथा सन्ति में यह सूचना कर दी है कि ज्ञानार्णवदवादि का आश्रय लेता है वह कर कर्मो के दह बन्धन मे ज्ञान-समुद्र-के माहात्म्य का चिन मे निर्धारण कर भव्य बद्ध होकर भयानक दुख को सहता है। इस रूपातीत जाव दुस्तर भव-समुद्र स पार ह ध्यान में ग्राकाश के समान निर्लेप, निराकार-वर्णादि से योगशास्त्र राहत, सिद्धि को प्राप्त-कृतकृत्य, शान्त, अच्युत-जन्म- जिस प्रकार दिगम्बर सम्प्रदाय मे योगविषयक मरणादि मे प्रतीत, अन्तिम शरीर से कुछ हीन, सघन पूर्वोक्त ज्ञानार्णव अन्य अप्रतिम है उसी प्रकार श्वेताम्बर ग्रामप्रदेशों मे अवस्थित, लोकशिखर पर विराजमान, सम्प्रदाय में प्राचार्य हमचन्द्र का यह योगशास्त्र भी एक गिवीभूत-सर्व दुखों से निर्मक्त होकर निराबाध व महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। बारह प्रकाशो में विभक्त वह भी शाश्वनिक अनन्त सुख मे परिपूर्ण, रोग से सर्वथा रहित ज्ञानार्णवके ममान सरल व सुबोध सस्कृत मे रचा गया है । और पुरुषाकार को प्राप्त, ऐसे अमूर्त मिद परमात्मा का इसका ६१ पद्यमय ११वां प्रकाश पार्यावृत्त मे मोर १२वं ध्यान करना बतलाया गया है। (पृ. ३८१-४२३) प्रकाश के प्रारम्भिक ५१ पद्य भी आर्या मे, ५२ व ५३ ये इस प्रकार धर्मध्यान को पूर्ण कर व शुक्लध्यान को दो पद्य क्रम से पृथ्वी व मन्दाक्रान्ता वृत्तों मे तथा मन्तिम लक्ष्य बनाकर ग्रन्थकार कहते है कि जो मुनि विश्वदृश्वा दो पद्य शार्दलविक्रीडित वृत्त मे रचे गये है । शेष सब ही को श्री को-सार्वजय लक्ष्मी को-चाहता है उसे दुरन्त अन्य अनुष्टप छन्द में निर्मित हुमा है । ग्रन्थ के कर्ता जन्म-मरण रूप ज्वर से कृटिल अपने मनका सम्यक् प्रकार हेमचन्द्र मुरि ने मंगल के पश्चात् प्रकृत योगशास्त्र के निरोध करना चाहिए। पर अल्प वीर्यवाला मुनि यदि रचने की प्रतिज्ञा करते हुए यह सूचना की है कि मैं श्रुतउसे वश में करने के लिए समर्थ नही होता है तो उसे समुद्र, गुरूपरम्परा और स्वकीय अनुभव से योग का निर्णय राग-द्वेष को दूर कर उस मन को स्थिर करना चाहिए। कर हम योगशास्त्र को रचता हूँ। तत्पश्चात् योग के प्रल्ल शक्तिके धारक प्राणियो का मन चकि स्थिर करने पर प्रभाव को प्रदर्शित करते हुए यह कहा गया है कि वह भी विचलित हो उठता है, अतएव ऐसे हीन शक्ति वाले योग समस्त विपत्तियो का विघातक व अनेक ऋद्धियो का प्राणियों को शुक्ल ध्यान का अधिकार नहीं प्राप्त है. उत्पादक है। यह उम योग का ही प्रभाव है जो भरत किन्तु जो वर्षभ-वचनाराचसहनन का धारक-महा- क्षेत्र का अधिपति भरत विस्तृत साम्राज्य को भोगकर शक्तिशाली-पुरुष है वही उस क्लध्यान मे अधिकृत है। १. ताम्भोधेरधिगम्य संप्रदायाच्च सद्गुरो । ऐमा महानुभाव शरीरके छिन्न-भिन्न होने, नष्ट होने और स्वमवेदनतश्चापि योगशास्त्र विरच्यते ॥ जन जाने पर भी अपने को उससे सर्वथा दूर देखता है, यो. शा.१-४. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त कैवल्यविभूति को भी प्राप्त हुआ है। चारों पुरुषार्थों मे ध्यान की रसायन बतला कर उनका भी संक्षेप में स्वरूप प्रधान पुरुषार्थ मोक्ष है और उस मोक्ष की प्राप्ति का दिखलाया गया है। उपाय है जान-श्रद्धान-चारित्ररूप रत्नत्रय । इसमे ग्रन्थकार ध्यान की सिद्धि के लिए योगी को, जिसने प्रासन ने प्रथमत: सम्यग्ज्ञान और सम्यकश्रद्धान-सम्यग्दर्शन- पर विजय प्राप्त कर ली है, अात्मस्थिति के हेतुभूत किसी का स्वरूप मात्र निर्दिष्ट करते हुए चारित्र का विस्तार से तीथस्थान अथवा अन्य किसी भी पवित्र स्थान का प्राश्रय वर्णन किया है । चारित्र के कथन मे प्रथमत. मुनिधर्म को लेना चाहिए। इसके लिए प्रकृत में पर्यक, वीर, वच, लक्ष्य करके अहिंसादि पाच व्रतों और उनकी पृथक् पृथक् कमल, भद्र, दण्ड, उत्कटिका (उत्कुटुक), गोदोहिका और भावनामों का वर्णन करते हुए पाच समितियों एव तीन कायोत्सर्ग; इन प्रासनविशेषो का निर्देश करके उनका गुप्तियो के स्वरूप का निर्देश किया गया है। पृथक पृथक् लक्षण भी दिखलाया गया है। ____ मुन जहा उपयुक्त हिमादि व्रतों का सर्वात्मना पाचवे प्रकाश में प्राणायाम की प्ररूपणा करते हुए परिपालन करते हैं वहा उस मुनिधर्म मे अनुरक्त गृहस्थ प्राणापानादि वायुभेदो के साथ पार्थिव, वारुण, वायव्य उक्त व्रतों का देशत: ही पालन करते है। इस गृहिधर्म और ग्राग्नेय नामक वायुमण्डलो तथा उनके प्रवेग-निगमन को प्ररूपणा करते हुए ग्रन्थकार ने प्रथमत: १० श्लोको मे को लक्ष्य मे रखकर उसमे मूचित फल की विस्तार से (४७-५६) यह बतलाया है कि कंसा गृहस्थ उस गृहियमं चर्चा की गई है। के परिपालन के योग्य होता है। ततश्चात् पाच अणु- छटे प्रकाश मे परपुर प्रवेश व प्रगाायाम को निरथक व्रतादिस्वरूप गृहस्थ के बारह व्रतो को सम्यक्त्वमूलक कष्ट द बतलाकर उसे मुक्ति प्राप्ति मे बाधक बतलाया बतला कर यहा उस सम्यक्त्व व उसके विषयभूत देव, है। साथ ही धमध्यान के लिए मन को इन्द्रियविषयो की गृह और धर्म का भी वर्णन करते हुए उन बारह व्रता का ओर से खीचकर उसे नाभि प्रादि विविध ध्यानस्थानो विस्तार से कथन किया गया है। यह सब वर्णन प्रारम्भ मे से जिस किसी भी स्थान में स्थापित करने की प्रेरणा के तीन प्रकाशो मे पूर्ण हुआ है। की गई है। चतुर्थ प्रकाश में कषायजय, इन्द्रियजय, मनःशुद्धि मातवे प्रकाश के प्रारम्भ मे कहा गया है कि ध्यान पौर राग-द्वेषजय को विधि का विवेचन करते हुए समता के इच्छुक जीव को ध्याता, ध्येय और उसके फल को जान भाव को उद्दीप्त करने वाली बारह भावनामो का वर्णन लेना चाहिए, क्योकि, सामग्री के बिना कभी काय सिद्ध किया गया है। साथ ही वहा यह कहा गया है कि मोक्ष नही होते है। तदनुसार यहा ध्याता के विषय में कहा जिस कर्मक्षय से संभव है वह कर्मक्षय पात्मज्ञान से होता गया है कि जो मयम की धुरा को धारण करके प्राणो का है, और वह मात्मज्ञान सिद्ध किया जाता है ध्यान से । नाश होने पर भी कभी उसे नहीं छोड़ता है, शीत-उष्ण साम्यभाव के विना ध्यान नहीं और ध्यान के विना वह आदिकी बाधासे कभी व्यग्र नहीं होता है, क्रोधादि कपाया स्थिर साम्यभाव भी सम्भव नही है। इसीलिए दोनों से जिसका हृदय कभी कलुपित नही होता है, जो कामपरस्पर एक दूसरे के कारण है। इस प्रकार ध्यान की भोगो से विरक्त होकर शरीर मे भी नि.स्पृह रहता है, भूमिका बाधते हुए भागे ध्यान का स्वरूप व उसके धम्यं तथा जो सुमेरु के गमान निश्चल रहता है, वही याता पोर शुक्ल ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये है तथा धर्म्यध्यान प्रशसनीय है। को सस्कृत करने के लिए मैत्री आदि भावनाप्रो को ध्येय (ध्यान का विषय) के पिण्यस्थ, पदस्थ, रूपस्थ १. यो. शा. १, १८४६ और रूपातीत; इर चार भेदो का निर्देश करके पिण्डस्थ २. सागारधर्मामृत के अन्तर्गत 'न्यायोपात्तधनो यजन् मे सम्भव पार्थिवी, प्राग्नेयी, मारुती, वारुणी और तत्रभू गुणगुरून-' इत्यादि श्लोक (१,११) इन इलोको इन पाच धारणामो का पृथक पृथक् विवेचन किया गया स पूर्णतया प्रभावित है। है । साथ ही उस पिण्डस्थ ध्येय के पाश्रय मे जो योगी Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानार्णवबयोगशास्त्र: एक तुलनात्मक अध्ययन को अपूर्व शक्ति प्राप्त रोती है उसका भी दिग्दर्शन कराया विपय समाविष्ट हैं, भले ही वे क्रम की अपेक्षा पागे पीछे गया है। क्यो न हों। यह बात निम्न विषयसूची से और भी स्पष्ट पाठवे प्रकाश में पदस्थ, नौवे प्रकाश मे रूपस्थ और हो जाती हैदसवे प्रकाश में रूपातीत ध्यान का वर्णन किया गया है। विषय ज्ञानार्णव योगास्त्र इसके अतिरिक्त दमवे प्रकाश मे उस धर्मध्यान के प्राज्ञा- १२ भावनाये पृ. १६-६० ४,५५-११० विचयादि अन्य चार भेदो का स्वरूप दिखलाते हुए उक्त रत्नत्रय ,, ९१-१९५ १, १५ से ३-५५ धर्मध्यान का फल भी मूचित किया गया है। ४ कपाये .. १६६-२१२ ४, ६-२३ __ ग्यारहवं प्रकाश मे पृथक्त्ववितक प्रादि चार प्रकर- इन्द्रियजय . २१२-१६ , २४-३४ के शुक्नध्यान का उल्लेख करके केवली जिनके माहात्म्य मनोनिरोध , २३२-२८ .३४-४४ को प्रगट किया गया है। गग-द्वपजय .. २१६-४५ , ५-५० अन्तिम बारहवे प्रकाश के प्रारम्भ में 'थुन-ममुद्र और माम्यभाव ., २४६-५२ , ५०-५४ गुरु के मुख से जो कुछ मैने जाना है उसका वर्णन कर मंत्री ग्रादि ४ भावनाये .. २७२-७४ , १९७-२२ चुका है, प्रब यहा निर्मल अनुभवसिद्ध तत्त्व को प्रकाशित ध्यानस्थान ॥ २७४-७८ , १२३ करता है ऐसा निर्देश करके विक्षिप्त, यातायात, दिलष्ट धानासन २७८-८० , १२४-३६ प्रौर मूलीन, रन चित्तभेदो के स्वरूप का कथन करते हुए प्राणायाम-प्रत्याहार ,२८४-०३ ५, १-२६१ बहिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा का स्वरूप भी कहा बहिरात्मादि ३ जीवभेद ३१७-३५ १२, ७-१२ गया है। अन्त मे चित्त की स्थिरता पर विशेष बल दिया प्राज्ञाविचयादि ४ , ३३ -० १०, ७-४ गया है। पिण्डस्थ पदस्थ प्रादि४,३८१-४२३ ७, ८ से १०-६ उक्त दोनों प्रन्यों को समानता शुक्ल ध्यान ४ , ४३०-४७ ११, १-५१ उपर जो दोनों ग्रन्थों का सक्षिप्त परिचय कराया हा. यह अवश्य है कि किसी विशेष विषयकी प्ररूपणा गया है उसमे इतना तो भली भाति विदित हो जाता है यदि एक मे सक्षिप्त है तो दूसरे में वह कुछ विस्तृत है। विषयविवेचन की अपेक्षा दोनो ग्रन्थ समान है-एक में जमे-बहिरात्मा प्रादि ३ जीवभेदोका वर्णन ज्ञानार्णव जिन विषयों का ममावेश है, दूसरे में भी प्राय १ वे ही - (२) ज्ञानाणव म कुछ स्थान ध्यान के अयोग्य कहे गये १. 'प्रायः' कहने का अभिप्राय यह है कि कुछ २४ गये है (१.२७४ दलोक २०-३४), जो योगशास्त्र विषयो की दोनो ग्रन्थो मे हीनाधिकता भी देखी मे नही देखे जाते। इसी प्रकार ध्यानयोग्य प्रासन भी जाती है। जैसे ज्ञानार्णव में निर्दिष्ट हैं (पृ. २७७ श्लोक १-८), (१) ज्ञानार्णव मे ध्यान के प्रशस्त व प्रशस्त इस प्रकार परन्तु इसके लिए योगशास्त्र में यह एक ही लोक सामान्य से दो भेदो का निर्देश करके पात रौद्र पाया जाता हैस्वरूप पप्रशस्त ध्यान का भी निरूपण किया है तीर्थ वा स्वस्थताहेतु यत्तद्वा ध्यानसिद्धये । (पृ २५६-७१) व उनका फल क्रम से तियंच और कृतासमजयो योगी विविक्त स्थानमाधयेत् ।।४-१२३ नरक गति की प्राप्ति बतलाया है। इस प्रप्रशस्त (३) योगशास्त्र मे चारित्र के प्रसग में महाश्रावक ध्यान का उल्लेख योगशास्त्रमे उपलब्ध नही होता- की दिनचर्या (३, १२१-१४७) की प्ररूपणा की गई वहा मात्र ध्यान के धर्म्य और शुक्ल ये दो भेद ही है, जो ज्ञानाणंव में उपलब्ध नहीं होती। वह दिननिर्दिष्ट किये गये है। यथा चर्या सागारधर्मामृत के छठे अध्याय में उपलब्ध होती मुहन्तिमंनःस्थय ध्यान छद्मस्थयोगिनाम् । है, जो यागशास्त्रप्रापित इस दिनचर्या में पर्याप्त धर्म्य शुक्ल च तद्धा यागरोधस्त्वयोगिनाम् ।४-११५ प्रभाविम है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त में कुछ विस्तार से किया गया है, जो योगशास्त्र में सक्षिप्त इस प्रकार दर्शाया गया हैहै। इसी प्रकार प्राणायाम की प्ररूपणा योगशास्त्र मे तन्नाप्नोति मन स्वास्थ्यं प्राणायामः कथितम् । ज्ञानार्णव की अपेक्षा कुछ विस्तृत है। (देखिए पूर्वोक्त ६-४ का पूर्वार्ध विषयसूची)। इसका उत्तरार्ध इस प्रकार हैइस प्रकार विपयविवेचन व रचनाशैली को देखते प्राणस्यायमने पीडा तस्यां स्याच्चित्तविप्लवः । हए यदि यह कहा जाय कि एक ग्रन्थ को सामने रखकर यह ज्ञानार्णव (प. ३०६) गत श्लोक के पूर्वार्ध दूसरे ग्रन्थ की रचना हुई है तो यह अतिशयोक्ति नही से समानता रखता है। यथाहोगी। उदाहरण स्वरूप यहा दोनो ग्रन्थो के कुछ इलोको प्राणस्यायमने पीडा तस्यां स्यादातंसम्भवः । का मिलान किया जाता है, जिससे यह ज्ञात हो सके कि दोनों में अन्तर मात्र 'चित्तविप्लव.' और 'मार्तसम्भवः' एक ग्रन्थ का प्रभाव दूसरे पर सुनिश्चित है। यथा- का है। प्रशंसनीय ध्याता का उल्लेख करते हए ज्ञानार्णव में ज्ञानार्णव (प ३०६) मे निम्न श्लोक के द्वारा ध्यान (पृ. ८५) मे यह कहा गया है के कुछ (१०) स्थान दिखला कर उनमे से किसी एक सत्संयम-धुरा धोरन हि प्राणात्ययेऽपि यः। स्थान पर विषयवाछा मे रहित मन को प्राश्रित करने की स्यक्ता महस्वमालम्ब्य ते हि ध्यान-धनेश्वराः ॥४॥ प्रेरणा की गई है इससे मिलता-जलता यह श्लोक योगशास्त्र मे उप- नेत्रद्वन्द्व श्रवणयुगले नासिकाग्रे ललाटे लब्ध होता है वक्त्रे नाभौ शिरसि हवयं तालुनि भ्रयुगान्ते । प्रमुञ्चन् प्राणनाशंऽपि संयमकधुरीणताम् । ध्यानस्थानान्यमलमतिभिः कीतितान्यत्र देहे परमप्यात्मवत् पश्यन् स्वस्वरूपापरिच्युतः ॥७-२ तेष्वेकस्मिन विगतविषयं चित्तमालम्बनीयम् ॥१३ इसी प्रकरण मे ज्ञानार्णव (पृ ८६) मे दूमग श्लोक यही अभिप्राय योगशास्त्र में निम्न दो श्लोको के यह उपलब्ध होता है द्वारा व्यक्त किया गया है-- स्वर्णाचल इवाकम्पा ज्योतिःपथ इवामलाः । नाभि हृदय-नासाप-भाल-भ्रू-तालु दृष्टयः । समीर इव निःसङ्गा निर्ममत्वं समाश्रिताः ।।१५।। मुखं कर्णां शिरश्चेति ध्यानस्थानान्यकीर्तयन् ।। इसका मिलान योगशास्त्रके निम्न श्लोक से कीजिए- तेषामेकत्र कुत्रापि स्थाने स्थापयतो मनः । सुमेहरिव निकम्पः शशीवानन्ददायकः ।। उत्पद्यन्ते स्वसवित्तबहवः प्रत्ययाः किल ॥६, ७-८ समीर इव निःसङ्गः सुषोर्ध्याता प्रशस्यते ॥७-७ इस प्रकार कितने ही स्थल ऐसे है जहा उक्त दोनो ज्ञानार्णव मे (पृ. २१८) 'मोना मृत्यु प्रयाताः' आदि ग्रन्थो के अन्तर्गत अनेक श्लोकों मे शब्द, प्रर्थ अथवा २ श्लोकों (३५-३६) के द्वारा पाचों इन्द्रियो मे से एक उभय से भी समानता देखी जाती है। इसके अतिरिक्त एक इन्द्रिय के वशीभूत होकर कष्ट भोगने वाले मछली प्राणायाम का प्रकरण तो ऐसा है जहा पूरे प्रकरण मे ही आदि प्राणियों का उदाहरण देते हुए उन प्राणियो पर प्रायः अनुक्रम से दोनों ग्रन्थों में समानता पाई जाती है। पाश्चर्य प्रगट किया गया है, जो पांचो ही इन्द्रियो के इस प्रकरण को प्रारम्भ करते हुए ज्ञानार्णव (प. विषयों में मग्न रहा करते है। २८४) मे कहा गया है कि जिन मुनियों ने सिद्धान्त का यही अभिप्राय योगशास्त्र में भी ६ (४, २८-३३) निर्णय कर लिया है वे ध्यान की सिद्धि और अन्तरात्मा श्लोकों द्वारा व्यक्त किया गया है। (अन्तःकरण) को स्थिर करने के लिए प्राणायाम की मानार्णव (प. ३०५) में श्लोक ४ का उत्तरार्ध है- प्रशंसा करते हैं । यथा-- प्राणायामेन विक्षिप्तं मनः स्वास्थ्यं न विन्दति । सुनिर्णीतसुसिद्धान्तः प्राणायामः प्रशस्यते । यही भाव उसी प्रकार के शब्दो द्वारा योगशास्त्र में मनिभिनिसिखयर्थ स्थर्यापं चान्तरात्मनः ॥१ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानाणव व योगशास्त्र: एक तुलनात्मक अध्ययन लगभग यही भाव योगशास्त्र में भी इन शब्दों द्वारा हुए उनके धारण के फल की भी सूचना की गई है (५, व्यक्त किया गया हैप्राणायामस्ततः कश्चित् प्राधितो ध्यानसिद्धये। यह हुई योगशास्त्र की विशेषता । अब मागे जो इन शक्यो नेतरथा कर्तुं मनःपवननिर्जय ॥५-१ दोनो ग्रन्थो मे ममानता दृष्टिगोचर होती है वह इस उक्त प्राणायाम के पूरक, कुम्भक और रेचक इस प्रकार हैप्रकार से तीन भेद दोनो ही ग्रन्थो मे निर्दिष्ट किये गये ज्ञानार्णव (पृ. २८५) में कहा गया है कि नाभि से है। यथा निकलकर हृदय-कमल के मध्य में जाती हई द्वादशान्त में त्रिधा लक्षणभेदेन संस्मृतः पूर्वसूरिभिः ।। विधाम को प्राप्त हुई वायु को परमेश्वर जानना चाहिए। पूरक कुम्भकश्चैव रेचकस्तदनन्तरम् ।। ज्ञा०२ माथ ही यह भी कहा गया है कि उक्त वायु के संचार, प्राणायामो गतिच्छेदः श्वास-प्रश्वासयोर्मतः । गति और स्थिति को जानकर निरन्तर अपने काल, प्रायु रेचकः परकरचव कम्भकश्चेति स विधा ।। यो. ५.४ एव शभाशभ फल की एव शुभाशुभ फल की उत्पत्ति को जानना चाहिए । यथा-- निको मात विशेषता यह है कि योगशास्त्र में प्राणायाम के नाभिस्कन्धाद् विनिएकान्तं हृत्पदमोदरमध्यगम् । मामान्य स्वरूप का निर्देश करते हुए उक्त तीन भदो का द्वावशान्ते सुविधान्तं तज्जय परमेश्वरम ॥७॥ उल्लेख किया गया है, परन्तु ज्ञानार्णव मे उम प्राणायाम तस्य चार गति बुध्वा संस्था चंबात्मनः सदा । सामान्य का लक्षण नही निर्दिष्ट किया गया है। इसके चिन्तयेत् कालमायुश्च शुभाशुभफलोदयम् ॥८॥ अतिरिक्त योगशास्त्र मे अन्य ऋषियो मतानुसार उक्त लगभग उन्ही शब्दों में इसी अभिप्राय के२ सूचक तीन भेदो के साथ प्रत्याहार, शान्त, उत्तर और प्रधर ; इन निम्न दो श्लोक योगशास्त्र में भी उपलब्ध होते हैचार अन्य भेदों को सम्मिलित करके उसके सात भेद भी नानिष्कामतश्चारं हृन्मध्ये नयतो गतिम् । कहे गये है। यथा तिष्ठतो द्वावशान्ते तु विद्यात् स्थान नभस्वतः ।।५-३७ प्रत्याहारस्तथा शान्त उत्तरश्चापरस्तथा । तच्चार-गमन स्थानमानावभ्यासयोगतः। एभिवेश्चतुभिस्तु सप्तधा कोत्यंते परैः ॥५-५ जानीयात् कालमायुश्च शुभाशुभफलोद्यम ॥५-३० प्रागे चलकर वहा इन सात भेदो का उसी क्रम में मागे ज्ञानाणंव मे 'उक्त च श्लोकद्वयम्' कहकर निम्न लक्षणनिर्देश करते हुए उनमे से प्रत्येक के फल का भी दो श्लोक कहे गये हैउल्लेख किया गया है (५, ६-१२) । समाकृष्य यदा प्राणधारणं स तु पूरकः । तत्पश्चात् वहा प्राण, अपान, समान, उदान और नाभिमध्ये स्थिरीकृत्य रोषन स तु कुम्भकः ।। व्यान , इन पाच वायुभेदो का उल्लेख कर उनके जीतने की । यत् कोष्ठावतियत्नेन नासाब्रह्मपुरातनः । प्रेरणा करते हुए पृथक् पृथक् लक्षणनिर्देशपूर्वक उनके जीतने की विधि भी बतलाई गई है (१३-२०) । इसके बहिः प्रक्षेपणं वायो. स रेचक इति स्मृतः॥ अतिरिक्त उक्त पाच वायुनों में ये, पं, वे और लो इन ये दोनों श्लोक कुछ पाठभेद के माथ विपरीत क्रम बीजपदो के ध्यान करने की पोर आकृष्ट करते हुए उनके मे योगशास्त्र में इस प्रकार उपलब्ध होते हैजीतने के फल का भी निर्देश किया गया है (५, २१-२४)। यत् कोष्ठादतियत्नेन नासाब्रह्मपुराननः । से न arचो वायनों के अभ्यास में कशल होकर बहिः प्रक्षेपणं वायोः स रेचक इति स्मत उनको कहा किस क्रम से धारण करे, इसका निर्देश करते - २. भेद इतना है कि जहा ज्ञानार्णव में उक्त वायु को १. जानार्णव मे मात्र पूर्व मूरियो के अनुसार उक्त ३ ही परमेश्वर-मर्वश्रेष्ठ-कहा है वहा योगशास्त्र मे भेदों का निर्देश करते हुए उन्हीं तीनों का लक्षण उक्त वायु का स्थान जानना चाहिए, ऐसा कहा गया निर्दिष्ट किया गया है (पृ. २८५, ३-६) । है । यहा वाक्य कुछ माकाक्ष सा बना रहता है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ममाकृष्य यदापानात् पूरण स तु पूरकः । कुछ मगत नही दिखता। वहा के पाठभेद के अनुसार नाभिपदमे स्थिरीकृत्य रोषनं स तु कुम्भः ॥५-७ पूरक का लक्षण यह होता है-'समाकृष्य यदा प्राणधारण पहा यह विचारणीय है कि क्या ये दोनो श्लोक मत परकः । तदनमार , जानार्णव मे योगशास्त्र से लेकर उद्धृत किये गये है। इस वह तो पूरक है' यह सम्बद्ध पर्थ नही है। 'यदा' का विषय में अभी अन्तिम निर्णय करना तो शक्य नही है। 'तदा' मे जैसा मम्बन्ध अपेक्षित है वैसा 'स.' से नही कारण कि बहुधा ऐमा हुमा करता है कि प्रकृत विषय के बनता, और योगशास्त्रगत 'समाकृप्य यदापानात् पूरणं स विद्वान कूछ समानता देखकर ग्रन्थान्तरो के प्रवतरणों को त पूरक' पाठभेद के अनुमार सम्बद्ध अर्थ यह होता हैहस्तलिखित प्रतियों के मार्जिन प्रादि पर लिख देते है, जा अपान वायु से खेच कर जो (यत्-अपानात्) पूर्ण किया प्रागे चलकर उस प्रनि के माधार से अन्यान्य प्रतियो के जाता है वह परक प्राणायाम होता है। लेखकों द्वाग उसी का अंग समझ कर मूल प्रति मे सम्मि- अन्यत्र परक के लक्षण इस प्रकार उपलब्ध होते लित कर दिये जाते है। इसके अतिरिक्त यह भी सम्भव है-'दक्षिणेन बाह्यपरणं पूरक' (यो. सू. ना. भट्टवृत्ति है कि 'उक्तं च श्लोकद्वयम्' यह पाठ मूल मे न रहा हो २-५०)। अर्थात् दक्षिण नामिकापुट से बाह्य वायु को और पीछे किसी प्रकार से जुड़ गया हो। पूर्ण करना, इसका नाम पुरक है। इसके अतिरिक्त दोनों ग्रन्थो मे उन दोनो श्लोको का वक्त्रेणोत्पलनालेन तोयमाकर्षयेन्नरः । क्रमव्यन्यय भी विचारणीय है। यदि प्रा. शुभचन्द्र बुद्धि एवं वायुगहीतव्यः पूरकस्यति लक्षणम् ।। पुरस्मर उन दोनो इलोको को योगशास्त्र से लेकर उद्धृत अर्थात् जिस प्रकार मनुष्य कमलनाल के द्वारा मुख व ग्ते है तो उनके विपरीत बम से उद्धृत करने का कोई मे जल को खीचना है उसी प्रकार वायु को जो ग्रहण कारण नहीं दिखता। यह अवश्य है कि ज्ञानार्णव में पूरक, किया जाता है, यह पूरक का लक्षण है। कुम्भक और रेचक इन तोन वायुनों का जो ऋम रहा है। दूसरे श्लोक मे जो 'पुरानन ' के स्थान में ज्ञानाणव (देग्विा श्लोक ३) तदनुसार वहा वे दोनो श्लोक यथाक्रम में 'पुरतन' पाठभेद हुया है वह त और न को बनावट मे ही है। साथ ही योगशास्त्र में भी उनके जिस क्रम को मे अधिक भेद न होने के कारण लिपिदोप मे हुमा है। अपनाया गया है तानुमार वे वहा भी यथाक्रम से ही है। और यह पाठ चूकि हिन्दी टीकाकार श्री प. जयचन्द्रजी के वास्तव में तो पुरातन योगविषयक ग्रन्थो में उक्त वायुनो सामने रहा है, अतएव उन्होने "नासिकाब्रह्म के जानने के क्रम के विषय मे मनभेद रहा ही है। यथा- वाले पुगतन पुरुषों ने कहा है" ऐसा अर्थ करके पाठ की स प्राणायामो बाह्यवृत्तिराभ्यन्तरवृत्ति-स्तम्भवृनि- मंगति बैठाने का प्रयत्न किया है, परन्तु उक्त अर्थ वस्तुत रित्ति त्रिधा, रेचक-पूरक-कुम्भकभेदात् ।xxx याज. मगत प्रतीत नही होता। वहां 'जानना' अर्थ का बोधक वल्क्येन पूरक-कुम्भक-रेचक इति क्रम उक्त.. कोई शब्द भी नहीं है। प्रत्युत इसके योगशास्त्रगत पाठ(योगसूत्र-नागोजीभवृत्ति २-५०) भेद के अनुमार 'अतिशय प्रयत्न पूर्वक जो वायु को दोनों ग्रन्थगत उन इलोको मे जो पाठभेद दृष्टिगोचर नासिका, ब्रह्मपुर और मुख के द्वारा बाहिर फेका जाता है होता है उस पर विचार करने से ज्ञानार्णव का पाठभेद उमे रेचक कहा जाता है। यह प्रर्थ सगत प्रतीत होता है। १. देखिए जैनसिद्धान्त-भास्कर भाग ११ किरण १५ *यो मू. २-४६ की जयकिसनदास जेठा भाई विरचित ६-१२ में श्री पं० फूलचन्द जी शास्त्री का "ज्ञाना- गुजराती टीका मे उद्धत । र्णव और उसके कर्ता के काम के विषय में कुछ ____ गुजराती अनुवाद-जेम कमलना नालवडे माणस शातव्य बातें" शीर्षक लेख तथा 'जैन साहित्य ब पाणीन माकर्षण करे छ तेज प्रमाणे नासिका व मुम्ब इतिहास' में स्व. श्रद्धय प्रेमी जी का "शुभचन्द्र का द्वाग वायु ने पाकर्षण करीने प्रपन्तर देशमा स्थापी ज्ञानार्णव" शीर्षक लेख । देवो ये पूरक लक्षण छ। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानार्णव व योगशास्त्र: एक तुलनात्मक अध्ययन २५ रेचक का लक्षण योगसूत्र (२-५०) को नागोजी ये २ श्लोक योगशास्त्र के भी देखिएभट्टवृत्ति में इस प्रकार प्राप्त होता है ततः शनैः समाकृष्य पवनेन समं मनः। तत्र वामनामापुटेन अन्तर्वायोस्त्यागो रेचकः । योगी हृदय पदमान्तविमिवेश्य नियन्त्रयेत ॥३॥ प्रर्थात् बायें नासिकारम्ध्र से भीतरी वायु का त्याग ततोऽविद्या विलीयन्ते विषयेच्छा विनश्यति । करना-निकालना-इसका नाम रेचक है। विकल्पा विनिवर्तन्त जानमन्तविज़म्भते ॥४. उसकी पूर्वोक्त गुजराती टीका (पृ. २७५) मे उसके प्रागे जाकर दोनों ही प्रन्थों में यह कहा गया है कि लक्षणस्वरूप उद्धृत यह श्लोक उपलब्ध होता है उक्त प्रकार से चित्त के स्थिर हो जाने पर वायु का उक्षिप्य वायुमाकाश शून्यं कृत्वा निरात्मकम् । विश्राम कहा पर है, नाडिया क्या है, वायुमो का सक्रमण शून्यभावेन यजीयाद्रेचकस्येति लक्षणम् ।। नाडियों में किस प्रकार होता है, मण्डलगति क्या है, और अभिप्राय यह कि भीतरी वा! को [नासिका द्वारा] यह प्रवृत्ति क्या है; यह सब जाना जाता हैबाहिर निकाल कर निरात्मक करके शन्य प्राकाश में कुत्र श्वसनविश्राम: का नाउयः संक्रमः कपम् । जोडना-छोड देना-इसका नाम रेचक है । का मण्डलगतिः केयं प्रवृत्तिरिति बुध्यते ॥जा. १३ एक बात और भी है, वह यह है कि उक्त दोनो क्व मण्डले गतियोः सक्रम. क्व व विश्रमः । श्लोक चाहे प्रा. शुभचन्द्र द्वारा स्वय सग्रहीत किये गये का च नाडीति जानीयात तत्र चित्ते स्थिरीकृते । हो या विषय की समानता देखकर अन्य किसी के द्वारा यो. ५, ४१ मूल में सम्मिलित कर दिये गये हो; पर वे प्रा शुभ चन्द्र द्वारा पूर्व में निर्दिष्ट (४-६) उक्त पूरक प्रादि के लक्षणो तत्पश्चात् ज्ञानार्णव (श्लोक १६ व १८) और योगके पोषक है और किसी अन्य ग्रन्थ के ही है, अन्यथा पुन शास्त्र मे (५-४२) भी नासिकार को अधिष्ठित करके जो पार्थिव (भौम), वारुण, वायव्य और अग्निझविन अनिवार्य है। इसीलिए उनका अवस्यानक्रम श्लोक ६ के बाद सम्भव है। मण्डल, ये चार पुर (मण्डल) अवस्थित है उनके नामो का निर्देश किया गया है। इस प्रकार प्रसंगनाप्न उन दोनो श्लोको की स्थिति ज्ञानार्णव के उपर्युक्त दोनो श्लोको के मध्य में पर विचार करके अब हम प्रकृन विषय पर पा जाते है स्थित १७वे श्लोक में यह कहा गया है कि उक्त पार्थिव __उक्त दोनो श्लोको के अनन्तर ज्ञानार्णव में श्लोक १० मे कहा गया है कि योगी निरालस होकर वायु के प्रादि चार वायुमण्डल यद्यपि दुर्लक्ष्य है तो भी कुशाग्रमाथ मन को निरन्तर धीरे-धीरे हृदय-कमल की कणिका बुद्धि मनुष्य के लिए वे अभ्याम के वश स्वकीय संवेदन में प्रविष्ट कराते हुए उसे वही पर नियन्त्रित करे। फिर (स्वानुभव) के विषय बन जाते है। प्रागे २ श्लोकों द्वारा उस मन के स्थिर कर देने से क्या- यह मूचना योगशास्त्र में प्रागे-उन चारो के लक्षणक्या लाभ होता है, यह मूचित किया गया है। वे तीनो निर्देश के पश्चात् ---४७३ श्लोक द्वारा की गई है। श्लोक इस प्रकार है उन चारो मण्डली के लक्षण का निर्देश ज्ञानाणंद में शनैः शनर्मनोऽजस्र वितन्द्रः सह वायुना । क्रम से श्लोक १६-२२ के द्वाग और योगशास्त्र में श्लोक प्रवेश्य हक्याम्भोजकणिकायां नियन्त्रयेत् ।।१० ४३-४६ के द्वारा किया गया है । विकल्पा न प्रसूयन्ते विषयाशा निवर्तते । तदनन्तर जानाणंव में श्लोक २४.२७ भोर योगशास्त्र अन्तः स्फुरति विज्ञानं तत्र चित्त स्थिरीकृते ॥११ में श्लोक ४५-५१ द्वारा उक्न मण्डलों में सम्भव चार एवं भावयतः स्वान्ते यायविद्या भयं क्षणात् । वायुप्रों के म्पर्श, वर्ण, प्रमाण और नाम (१ पुरन्दर, विमबी स्युस्तषामाणि कषायरिपुभिः सम २. वरुण, ३. पवन और ज्वलन-दहन) का उल्लेख इसी भाव को वैसे ही शब्दों में अन्तहित करने वाले समान रूप से किया गया है । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त पश्चात् दोनों ग्रन्थों में यह सूचना की गई है कि के ध्यान में प्रा जाने पर उसके पागे ३१वां लिख दिया म्तम्भादि कार्य में पुरन्दर (महेन्द्र-इन्द्र), प्रशस्त सब और संख्या मागे की डाल दी गई है। स्वीकृत क्रम के कार्यों में वरुण, चल-मलिन कार्यों में वायु और वश्यादि अनुसार पवन के पश्चात् दहन का उल्लेख किया जाना कार्य में वह्नि को उद्देश्य करना चाहिए-प्राज्ञा देना चाहिए था। चाहिए । यथा २ ज्ञानार्णव का ६१ और योगशास्त्र का २५०वा स्तम्भाविके महेन्द्रो वरुणः शस्तेषु सर्वकार्येषु । श्लोक उभयत्र शब्दशः समान है। चल-मलिनेषु च वायुर्वश्रादौ वह्निद्देश्यः ॥ ज्ञा. २८ ३ तुलना मे ६४ के बाद योगशास्त्र के २१५-१६ इन्द्रं स्तम्भाविकार्येषु वरुणं शस्तकर्मसु । प्रादि श्लोक पाते है। इसका कारण यह है कि वहा इस वायं मलिन-लोलेषु वश्यादौ वह्निमाविशत् । यो ५२ बीच में श्लोक ६५-८५ मे वामा नाडी (चन्द्रनाडी) और दक्षिणा नाडी (सूर्यनाडी) शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष मे इस प्रकार तुलनात्मक रूप से इतने क्रमिक विषय सूर्य-चन्द्र के उदयादि मे कैसा शुभाशुभ फल देने वाली है, विवेचन को देख कर पाठक यह निर्धारित कर सकेगे कि इत्यादि विचार किया गया है। प्रागे श्लोक ८६-२.४ मे उक्त दोनो में प्राथय-प्राश्रयी भाव अवश्य रहा है। पर काल का निर्णय-नाडी, जन्मनक्षत्र, नाडियो में वायुकिसने किमको आधार बनाया है, इस सम्बन्ध में अभी सचार, इतर शकुन-अपशकुन व स्वप्न प्रादि के प्रवलोकन कुछ न लिख कर यथावसर अन्य लेख के द्वारा उस पर के प्राश्रय से अन्य शुभाशुभ के साथ ही मृत्युकाल का भी कुछ प्रकाश डालने के लिए प्रयत्नशील रहूँगा। निश्चय किया गया है । इसके प्रागे २१२ श्लोक तक अब मैं पागे अधिक विस्तार में न जाकर इन दोनो विद्याबल से उस काल का विचार किया गया है। इस सब ग्रन्थों की श्लोकसंख्या का निर्देश मात्र कर देता हूँ जो की सूचना वहा निम्न श्लोको द्वारा की गई हैविषय, अर्थ और बहुताश मे शब्दो की अपेक्षा भी परस्पर मे समानता रखते है । यथाक्रम से मिलान कीजिये प्रथेवानी प्रवक्ष्यामि किचित कालस्य निर्णयम् । सर्यमार्ग समाश्रित्य स च पौष्णे च गम्यते ॥८६ ज्ञानाणव-२६-३२, ३३-३४, ३५. ३७, ३८, ३६, इति यन्त्रप्रयोगेण जानीयात् कालनिणयम् । ४०, ४३-४५, ४७, ४८-४६, ५०, ५१, ५२, ५३-५६, ६१, ६२-६३, ६४, ६५, ६६, ६७-६८, ६६, ७०, ७७, यवि वा विद्यया विद्याद् वक्ष्यमाणप्रकारया ॥२०॥ एवमाध्यात्मिकं का विनिश्चेतुं प्रसंगतः।। ५६.८०, ८१.८६, ८८.८६, ६१, १२, ६३.६८, ६६, १००, पृ. ३०५ श्लोक ५ उ., १० । बाह्यस्यापि हि कालस्य निर्णयः परिभाषितः ॥२१२ __ योगशास्त्र-५-५६, ५७-५८, ५६ का पू. व ६० उपर्युक्त यह सब वर्णन ज्ञानार्णव मे दृष्टिगोचर नहीं का पू.. ६० का उ. व ५६ का उ, ६५, ६६, ६७, ६२ हाता न होता है। से ६४, २१३, २१५-१६, २१७, २१८, २१६, २२० से ४ ज्ञानार्णव श्लोक १३-१८ और योगशास्त्र श्लोक २२६, २३०, २३१-३२, २२७, • ३३, ३४, २३६.३६, २५४.५६ मे परपुर प्रवेश- उत्तरोत्तर अभ्यास को २४०, २४१, २४२, २४३, २४४.४७, २४८-५६, २५०, बढ़ाते हुए योगी का क्रम से अकंतूल, जाति (मालती) २५१, ५२४-५६, २६१, ६-१, ६-४ पू, ६-५। मादि पुष्प, कपूर मादि गन्धद्रव्य, मूक्ष्म पत्रि-(पक्षि-) विशेष काय, भ्रमर-पतंग मादि के शरीर, मनुष्य घोडा-हस्तिशरीर १. ज्ञानार्णव के ३१-३२ श्लोको (प. २६०) मे और अन्त मे पत्थर प्रादि मे प्रात्मप्रवेश एवं नि.सरण की जो क्रमव्यत्यय उपलब्ध होता है वह लिपिकार के प्रमाद क्रिया-णित है। से हुमा दिखता है-किसी लिपिकार के द्वारा प्रमादवश यहा योगशास्त्र मे मागे के लोक मे यह सूचना दी ३१ को छोडकर ३२वा लिख देने पर व तत्पश्चात् गलती गई है कि इस प्रकार वाम नासिका से मृतशरीर में प्रवेश Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानाणव व योगशास्त्र : एक तुलनात्मक अध्ययन करना चाहिये । पाप की शका से जीवित शरीर में प्रवेश पृष्ठौ च दक्षिणाक्षरवेस्तवाहराचार्याः ॥ यहां नहीं कहा जा रहा है । यथा जाना. पृ. २६७-७० एवं परासु-देहेषु प्रविशेद वामनासया । ३. नाडीशुद्धि करते वहनपर बिनकरस्य मार्गेण । जीवद्देहप्रवेशस्तु नोच्यतं पापशंकया ॥५, २६० निष्कामद्विशदि दोः पुरमित रेण केऽच्याहुः॥ ज्ञाना. पृ. ३००-८७ पूर्व साहित्य का परिशीलन ४. षोडश मितः कश्चित् निर्णीतो वायसंक्रम । दोनो ग्रन्थो मे प्ररूपित विषयो को देखते हुए यह यह महोरात्रमित काले द्वयोर्नाड्योर्ययाक्रमम् । निश्चित ज्ञात होता है कि प्राचार्य शुभचन्द्र और हेमचन्द्र ज्ञाना पृ. ५०१-६० दोनो ही तलस्पर्शी विद्वान् थे। उनके सामने जो भी योगशास्त्रयोगविषयक प्राचीन साहित्य उपस्थित था उसका उन्होने १. प्राणायामस्ततः कश्चित् प्राधितो ध्यानसिखये। ५-१ गम्भीर अध्ययन किया था। इसका मंकेत इन दोनो ग्रन्थो .. प्रत्याहारस्तथा शान्त उत्तरश्चापरस्तथा । के विषय विवेचन में स्वय उपलब्ध होता है। यथा एभिवेश्चभिस्तु सप्तधा कीर्यते परंः ॥ ५-५ १. त्रिधा लभणभेदेन सस्मृतः पूर्वसूरिभिः । ३. चन्द्र स्त्री पुरुषः सूर्ये मध्यभागे नपुंसकम् । पूरकः कुम्भक चंव रेचक स्तदनन्तरम् ॥ प्रश्नकाले तु विज्ञेयमिति कश्चिन्निगद्यते ॥ .३५ जाना पृ. २८५-३ ४. अग्रे वाभिागे हि शशिक्षेत्र प्रचक्षते । २. अग्ने वामविभागे चन्द्रक्षेत्र वदन्ति तत्त्वविवः । पृष्ठे दक्षिणभाग त रविक्षेत्र मनीषिणः।२४१ रूपक पद कवि धासोराम मोहनी गग में गाया गया कवि घासीराम का यह रूपक पद प्रात्मा और शरीर की पृथकता पर सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करता है। कवि कहता है कि जीव को इस कायारूपी नगरी मे किस प्रकार से रहना चाहिए। उसका एक सुन्दर दृश्य अकित किया है । शरीर रूपी कुप्रा एक है पाचो इन्द्रिया पनिहारी है, वे प्रपना-अपना नीर भरती है। उसके पुर जाने से कुमा का पानी सूख गया, तब वे पाचो पनिहारी विलखती है । हम उड गया केवल मिट्री पडी रहनी है, उस कचन महल और रूपामय छज्जे को छोड कर नगरी का राजा चला गया। इससे हमे विवेक की मोर दृष्टि देना चाहिए और पर पदार्थों में ममता हटा कर चैतन्य स्वरूप प्रात्मा की पोर दृष्टि दना चाहिए । राग सोहनी इस नगरी में किस विधि रहना नित उठ तलब लगावे री भेना । एक कुमा पांचों पणिहारी, नीर भरे सब न्यारी न्यारी १ पुर गया कमा सूख गया पानी, विलख रही पांचों पणिहारी॥२ बालू की रेत मोस को टाटी, उड गया हंस पड़ी रही माटी ॥३ कंचन महल रूप्यमय छाजा, छोड़ चला नगरी का राजा ।।४ 'घासीराम' सहज का मेला, उड़ गया हाकिम लुट गया रेरा ॥५ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारुकीर्ति डा० विद्याधर जोहरापुरकर भगवान गोम्मटेश्वर की महामूति से पवित्रीकृत तीर्थ चौथे उल्लेख का अनुमानित समय भी सन १२०० श्रवणबेलगुल मे जैन भट्टारकों का एक मठ है। यहा के है। बन्दलि के ग्राम के इस लेख मे अभय चन्द्र के शिष्य बहुत से प्राचार्यों के उल्लेख माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला द्वारा चारुकोति द्वारा एक मन्दिर का जीर्णोद्धार किये जाने का प्रकाशित जैनाशिलालेखसंग्रह के पहले और तीसरे भाग मे वर्णन है (भाग ३ प० ६५) । प्राप्त होते है। इन में कई आचार्य चारुकीति इस एक ही एक हा पाचवा उल्लेख धवणबेलगुल के एक समाधिलेख मे नाम से जाने जाते थे। पिछले वर्ष जनशिलालेखमग्रह का है जिसका समय शक १२३५ सन १३१३ है । इसम चौथा भाग प्रकाशित हुआ है। इस मे भी चारुकीति नामक वर्णित देशीगण की गुरुपरम्परा इस प्रकार है-कुलभूषणकई प्राचार्यों के उल्लेख है । इन सब उत्लेखो का समन्वित माघनन्दि-शुभचन्द्र-चारुकीर्ति-माघनन्दि-प्रभयचन्द्र अध्ययन प्रस्तुत करना ही इस लेख का उद्देश है। इस में -बालचन्द्र-रामचन्द्र । रामचन्द्र के शिष्य शुभचन्द्र का जो ग्रन्थ-पृष्ठों के उल्लेख है वे सब उपर्युक्त जैनशिलालेख उक्त वर्ष में स्वर्गवास हुप्रा था । अतः इसमें वर्णित चारसग्रह के है। कीर्ति का समय भी सन १२०० के आसपास प्रतीत होता हमारे अध्ययन के अनुसार चारकीति नामक मब से है (भाग १ पृ. ३०-३३) । पुगतन प्राचार्य यापनीय सघ के वृक्षमूल गण के मुनिचन्द्र विद्य के शिष्य थे । इन्हे सोविमेट्टि नामक सज्जन ने एक छठवा उल्लेख हले बीड के एक सम धिलेख मे है। उद्यान अर्पण किया था ऐमा वर्णन दोणि ग्राम के एक इसमे देशीगण की इगलेश्वरबलि की गुरुपरम्परा इस शिलालेख मे है । यह लेख सन १०६६ का हे (भाग ४ प्रकार बतलाई है---गण्डविमुक्त-शुभनन्दि-चारुकीर्तिपृ० १२२)। माघनन्दि-अभयचन्द्र-बालचन्द्र-अभयचन्द्र । अन्तिम __ चारुकीर्ति नामक दूसरे प्राचार्य का उल्लेख श्रवणबेल- आचार्य अभयचन्द्र का स्वर्गवास शक १२०१=सन १२९६ गुल के शक १०५०-सन ११२८ के एक लम्बे शिलालेख मे हुमा था। अत इममें वर्णित चारुकीर्ति का समय भी मे है । लेख का लेखक बोकिमय्य उनका शिष्य था। किन्तु सन १२०० के ग्रामपास प्रतीत होता है (भाग ३ १० इसमे उनकी परम्परा अथवा गुरु ग्रादि के बारे में कोई ३७१-७३) । विवरण नहीं मिलता। (भाग १ पृ० ६७) । सातवा उल्लेख श्रवणबेनगुल के एक शिलालेख में तीसरा उल्लेख सौराष्ट के वेरावल नगर के एक है जिसका अनुमानित समय शक १२४७%१३२५ है। खण्डित लेख में है। नन्दिमघ के कई प्राचार्यों के नाम इसमें देशीगण के अभिनव चारुकीर्ति पण्डित के शिष्य इसमे है जिनमें एक चारुकीति भी है। किन्तु लेख प्राधा । द साधा मगायि द्वारा त्रिभुवनचूडामणिवसति बनवाने का वर्णन है टूटा होने में उनके गुरु-शिष्यादि के बारे में कोई विवरण (भाग १ पृ० २६०)। इसमे नही मिलता । इस लेख का समय बारहवी शताब्दी पाठवा उल्लेख कणवे ग्राम के शक १२८४मन का अन्तिम चरण है (भाग ४ पृ० २२१) । मंसूर प्रदेश १३६२ के एक लेख में है। इसके प्रारम्भ मे देशीगण गे बाहर चारुकीति नामक प्राचार्य का यह एकमत्र के चारुकीर्ति पण्डित की प्रशंमा है और बाद में महाराज उले व है। बुक्कराय के समय में एक मन्दिर की भूमि के बारे मे Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारकोति कुछ विवादों का अधिकारियो द्वारा निर्णय दिये जाने का पार्श्वनाथ मन्दिर के लिए शंकरसेटि ने कुछ दान दिया वर्णन है (भाग ३ पृ० ३६३)। था जो अभिनव चारुकीर्ति पण्डित के प्राज्ञावर्ती सेटिनौवा उल्लेख गेर सोप्पे के शक १३२३ सन १४०१ कारो को सौपा गया था। (भाग ४ पृ. ३२६-७)। क समाधिलेख में है। इसमे नगिरपुर के सामन्त चौदहवां उल्लेख चिक्कहनसोगे के सन १५८५ के मंगरस के स्वर्गवास का वर्णन है । लेख टूटा होने से इसमे शिलालेख में है। इसके अनुमार चारुकीर्ति पण्डित के जो चारुकीर्ति पण्डित का नाम है उसका पूर्वापर सम्बन्ध शिष्य पण्डितय्य द्वारा तीन जिनमूर्तियो की स्थापना की अस्पष्ट है (भाग ४ पृ० २६७ ।। गई थी (भाग ४ १० ३३१) । दसवा उल्लेख श्रवणबेलगुल के दो लेखो मे है जिनका पन्द्रहवा उल्लेख श्रवणबेलगुल के शक १५५६ सन समय शक १३६०सन १३६८ तथा शक १३५५=सन १६३४ के शिलालेख मे है। इसके अनुसार बेलगुल के १४३३ है। इसमें वर्णित चारुकीर्ति देशीगण की इगलेश्वर- मटिको मनि गिरती वी गई थी। गजा चाurna वलि के श्रनकीर्ति के शिष्य थे। वोडेयर के कहने पर तथा चारुकीर्ति पण्डित के समक्ष लेखो मे चारुकीर्ति के शिष्य पण्डितयति, पण्डितयति चेन्नण प्रादि सेठो ने इस सम्पत्ति को ऋणमुक्त कर दिया के शिष्य सिद्धान्तयोगी और सिद्धान्तयोगी के शिष्य श्रुत थ। (भाग ११ १६८)। मुनि की प्रशमा है । थुनमुनि का स्वर्गवास शक १३५५ सोलहवा उल्लेख मूडविदुरे के शक १५६२ सन मे हुअा था । प्रत इस लेख में वणित चारुकीति का समय १६४१ के ताम्रपत्र में है। इसके अनुसार अभिनव चारसन १३५० के पास पास पनीन होता है। इन चारुकोति कीर्ति तथा उनके शिष्यवर्ग को चिक्कराय प्रोडयर द्वारा के वर्णन मे सारत्रय, युक्तिशास्त्र और शब्दविद्या मे मुरक्षा का प्राश्वासन दिया गया था (भाग ४१० ३४१) । उनकी प्रवीण ना की प्रशमा है तथा बल्लाल राज को सत्रहवा उल्लेख श्रवणबेलगुल के एक समाधिलेख में नीरोग करने का थेय भी उन्हे दिया गया है (भाग १ है। इसके अनुसार शक १५६५-मन १६४३ में चार कीर्ति पृ० २१३ तथा २०३)। पन्डित का स्वर्गवास हुआ था (भाग १ पृ० २६३) । ___ ग्यारहवां उल्लेख मूडबिदुरे के एक ताम्रपत्र का है अठारहवां उल्लेख श्रवणबेलगुल के एक मूर्तिलेख में जिसका समय गक १४२६ मन १५०४ है। इसमें कदम्ब है। इसके अनुमार कारजा के भट्टारक धमचन्द्र तथा कुल के शासक लक्ष्मप्पस अपरनाम भैरस द्वारा जैनो के चारुकीर्ति पण्डित के उपदेश से शक १५७० मन १६४८ ७२ मस्थानो के प्रधानाचार्य चारुकीर्ति के एक शिष्य को अपने राज्य के एक भाग के धार्मिक अधिकार प्रदान में यह मूति स्थापित की गई थी (भाग ११० २२६)। किये जाने का वर्णन है (भाग ४ पृ० ३१३) । उन्नीसवा उल्लेख श्रीरगपट्टम के मन १६६६ के एक बारहवा उल्लेख अजनगिरि के शक १४६६सन शिलालेख में है। इसके अनुसार चारुकीर्ति पण्डित के १५४४ के एक लेख मे है। इसके अनुसार देशीगण- शिष्य पायण्ण ने अष्टान्हिका महोत्सव के लिए कुछ दान इंगुलेश्वरबलि के बेलगुलपूर के चारुकीर्ति पण्डित के दिया था (भाग ४ पृ० ३४३) । प्रशिष्य के शिष्य अभिनव चारुकी ति पन्डित थे। इनके बीसमा उल्लेख मदने ग्राम के शक १५६५=सन शिष्य शान्तिकीति थे जिन्होने सुवर्णावती नदी से प्राप्त १६७३ के एक शिलालेख में है। इसके अनुसार बेलगुल दो जिनबिम्बो की प्रतिष्ठा के लिए एक मन्दिर बनवाया के चारुकीर्ति पण्डित को मैमूर के देवराज पौडेयर ने मदने था तथा उसके लिए चन्दा एकत्र किया था (भाग ३ ग्राम दान दिया था (भाग ३ १० ५६६) । पृ० ५३०-३३)। इक्कीसवा उल्लेग्व मूडबिदुरे के शक १६७९सन तेरहवां उल्लेख मूडबिदुरे के शक १४८५=सन १५६३ १७५७ के एक ताम्रपत्र में है। इसके अनुसार हम्मडि के ताम्रपत्र में है। इसके अनुसार मूडबिदुरे के चण्डोन [शेष पृ० ६२ पर] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक विनयचन्द के समय पर विचार परमानन्द जैन शास्त्री भट्टारक विनय चन्द्र का जो ममय मैंने 'प्रशस्ति संग्रह का निर्णय नहीं देना चाहिए। द्वितीय भाग की प्रस्तावनामे दिया था। उस पर आपत्ति भटारक विनयचन्द्र माथर संघ के भट्टारक उदयचन्द्र करते हुए अगर चन्द जी नाहटा ने जन सन्देशकेशोधाक के शिष्य और बालचन्द मुनि के दीक्षा शिष्य थे । विनय की १८ मे पृष्ठ २७३ पर 'चूनडी' के रचयिता भ. विनय चन्द ने 'चूनडीगम' में 'मायुर मंघहँ उदय मुगीसर' और चन्द्र का समय' शीर्षक लेख में बिना किसी प्रमाण के निर्भर पचमी कहागम' मे उदयचन्द गुरु' रूप से उदयविनयचन्द्र का ममय १४०० के ग्राम-पास का बतलाया चन्द का स्मरण किया है। और बालचन्द का चूनड़ी में है। पौर निग्या है कि भापा के प्राधार पर उसका ममय बालइन्द गा गणहरू, नथा निर्भर पचमी कहा गस' में इसमे पूर्व का नहीं हो सकता । परन्तु प्रापने भाषा क उम 'वंदिवि बाल मूणे' रूप में उल्लेख किया है। इस कारण आधार का, जो पापके समय की समर्थक हो, उसका कोई वे उन दोनों के शिष्य थे। किन्तु उदय वन्द ने जब 'सुगधविश्लेषण या प्रमाण उपस्थित नहीं किया, और न कोई दशमी कथा बनाई, उस समय वे गृहस्थ थे; क्योंकि ऐसा ऐतिहामिक प्राधार ही उपस्थित किया जो उनके उन्होने उक्त कथा के अन्त में अपनी पत्नी 'देमति' का अभिमत को पुष्ट करना हो। ऐसी स्थिति मे उम कल्पना उल्लेख किया है। बाद में वे मुनि हो गए जान पडते है। को १४०० के ग्राम पास का समर्थक कैसे कहा जा सका। विनयचन्द ने जब 'नरक उतारी-कथा' लिखी, तब उसकी है? बिना किमी प्रमाण के दिगम्बर विद्वानों और उनकी प्रशस्ति मे उदयचन्द को मुनि नही लिखा किन्तु 'गुण रचनात्रों को अर्वाचीन बतलाना, तथा ज्ञान भंडारों की गणहर गरुवउ' रूप मे स्मरण किया है। और बालचन्द बिना किसी जाच के यह लिख देना कि दि० विद्वानो को मनिरूप मे स्मत किया है। जैसा कि उसके जिम्न पद्य द्वारा हम विषय का माहित्य नही रचा गया। बाद में से सष्ट है:वह साहित्य दि० भडागे मे मिल गया, तब उनकी वह 'उदय चन्दु गण गणहरु गहवउ, कल्पना निरर्थक हो गई । इममे लेख लिखते समय विचार सो मई भावें मणि अणसरियउ। कर ही लिखना चाहिए। दूसरे अमुक ग्रन्थकार ने अमुक बालइंदु मणि विवि णिरंतरु, सम्प्रदाय के ग्रन्थो का उल्लेख तक नहीं किया। यह उस जरग उतारी कहमि कहता ॥' शोधक विद्वान की कमी नही, उसने तो अपना प्रबन्ध इस कथा को कवि ने यमुना नदी के तट पर बसे हुए लिखने के लिए प्रयत्न किया ही होगा। फिर भी यदि महावन नगर के जिन मन्दिर मे रचा है। इससे सष्ट किमी सम्प्रदाय के किसी ग्रन्थका परिचय या अथ लेखक को जान पडता है कि उदयचन्द बाद में मुनि बने है। प्राप्त नहीं हा हो तो वह ऐमी स्थिति में उसका उल्लेख विनय चन्द ने 'निझर पचमी कहा रास' त्रिभुवन गिरि कमे कर सकता है ? गल्ती तो तब कहलाती जब उसके (नहनगड) की तलहटी में रचा है । और चूनड़ी रास की म मने वह ग्रथ होता और वह उसका उल्लेख भी न करता। रचना का स्थल त्रिभुवनगिरि नगर के प्रजय नरेन्द्र प्रत भविष्य मे इन बातो के सम्बन्ध मे नाहटा जी को १ अमिय सरीसउ जवण जलु, णयह महावणु सग्गु । थोडा-मा सयम से काम लेना चाहिए, जल्दी से उस विषय १ तहि जिण भवणि वसंत इणि विरहउ रासु समग्गु ।। १. देखो, जैन अन्य प्रशस्ति सग्रह दूमरा भाग पृ. ११७ -नरग उतारी कथा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० विनयचन्द के समय पर विचार (मजयपाल) कृत राज विहार को बतलाया गया है। तब उससे पूर्व स० १३८४ मे वे कहा के राजा थे। यह उस समय तहनगढ़ जन धन से समृद्ध था। उसकी इस स्पष्ट करना चाहिए था। मर्जुनपाल क्या त्रिभुवन गढ़ समृद्धि की पुष्टि चूनड़ी रास की निम्न पक्ति से होती है भी रहा, यदि नही तो फिर उसके साथ एकत्व कैसा? जिसमे उसे—'सग्गखण्ड णं धरियल पायउ'- स्वर्ग खण्ड अर्जुनपाल प्रजयपाल नही हो सकते । क्योकि दोनो के समान सुभग बतलाया गया है। उसे विजयपाल के के समय मे काफो अन्तराल है। प्रजयपाल की प्रशस्ति पुत्र तहनपाल ने बसाया था । वयाना (श्रीपथ) तहनगढ़ सन् १९५० की है और अर्जुनपाल का समय १३८४ से (त्रिभुवनगिरि) और करौली के शासक यदुवंशी क्षत्रिय १४१८ तक बतलाया गया है। ऐसी हालत में दोनों की थे, जो श्रीकृष्ण के वंशज कहलाते थे। उनकी परम्परा एकत्व कल्पना निरर्थक जान पड़ती है। मेरे पास करौली निम्न प्रकार मिलती है - जैताल, विजयपाल, तहनपाल के शासकों को जो सूची है। उसमें भी बहुत राजानो के धर्मपाल, अजयपाल, हरिपाल, सहनपाल और कुमारपाल बाद अर्जुनपाल का नाम दिया है। प्रोर कुवरपाल के बाद प्रादि । इस परम्परा में कुमारपाल का नाम महनगल के अजयपाल का सप्रमाण उल्लेख पागे किया गया है अजय बाद प्राता है, जिसका उल्लेख मन ११९२ के लेख में नरेन्द ही अजयपाल है। और उनका समय भी दिया गया मिलता है । किन्तु वृत्त विलाम वाली परम्पग में प्रयुक्त है। उससे स्पष्ट हो जाता है, कि अर्जुनपाल अजयपाल नामो में कुछ क्रम भग भी पाया जाता है । जैसे धर्मल नही हो सकते । के बाद और अजयपाल से पूर्व कुवरपाल का नाम दिया वत्तविलास की वशावली प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान हुपा है। हीराचन्द जी प्रोझाके निबन्ध मग्रह में प्रकाशित हुई है। किन्तु नाहटा जी ने लिखा है कि-"जगदीश मिह उसी पर से कुछ पद्य नीचे दिये जाते है। और वे इस गहलोत लिखित गजस्थान के इतिहास मे कगैनी राज्य प्रकार हैका इतिहास दिया है. उसमे अजय राज कुमारपाल के बाद भये कृष्ण के वश में विजय ल महिपाल । सोहनपाल, नागार्जुन, पृथ्वीपाल के नाम पाते है। तद तिनके सुत परगट भये, तिहणपाल छितिपाल ॥६ नन्तर तिलोकपाल विमलदेव, सांसदेव, प्रामलदेव के नाम प्रश्वमेध जिहि जग किय, दीने अगनित दान । प्राते है। फिर गोकूलदेव के उत्तराधिकारी महाराजा हेमकोटि वस सहस गो, गज सहस्र परिमान ॥७ अर्जुनपाल का विशेष विवरण है जिसने करौली स १४०५ वीस सह (सह) य सातसं, सासन बीने गाम । में बसा कर राजधानी बसाई। प्रर्जुनपाल का समय म. धर्मपाल तिनके भये, भप परम के घाम ॥८ १३८४ से १४१८ का दिया है।" कुंवरपाल तिनके भये, भपति बखत विलास । (जैन सन्देश शोधाक पृ० २७४) प्रजपाल प्रगट बहुरि, कर्यो जगत प्रतिपाल । नाहटा जी ने ऊपर जिस इतिहास का उल्लेख किया हरिपाल तिनके भय, भूप मुकुट जिमि हीर । किया है, वह यहा नही है। पर उन्होने अर्जुनपाल को तिनके साहनपाल नप, साहस समद गंभीर ॥१० प्रजयपाल समझ कर विनयचन्द का समय म० १४०० के अनगपाल नृप प्रगट हुव, तिनके पथ्वीपाल । तिनके सुत प्रगटे बहुरि, राजपाल महिपाल ॥११ पास-पास का बतलाया है। जो किमी तरह भी मंगत नही बैठता । अर्जुनपाल ने स. १४०५ मे जब करौली बसाई यह क्रम ऐतिहामिक दृष्टि से विरुद्ध-सा जान पडता है ; क्योंकि अजयपाल की महावन से प्राप्त प्रशस्ति में समय १. तिहुयण गिरि पुरु जगि विक्खायउ, सन् ११५० (वि० स० १२०७) दिया हपा है । और सग्ग खंडु ण धरियलि प्रायउ । तहिं णिवसंते मुणिवरे प्रजयरिंदहो राज विहारहि । प्रजयपाल के उत्तराधिकारी हरिपाल के राज्य को उत्कीर्ण प्रशस्ति उमी महावन से मन् ११८० (वि० स० १२३७) वेगे विरइय, चूनडिय सोहह मुणिवर जे सुयधारहिं ।। .. --चुनड़ीरास प्रशस्ति २. देखो, एपिग्राफिका इडिका जिल्द ११० २८६ । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ अनेकान्त की मिली है १ । तथा भरतपुर के 'अघपुर' नामक स्थान मूर्तिया नष्ट-भ्रष्ट कर दी गई। वि० स १२७५ मे रचे से प्राप्त मूर्तिखण्ड पर सन् ११९२ के उत्कीर्ण लेख में गये जिनदत्त चरित को प्रशस्ति में कवि लक्ष्मण ने तहनसहनपाल नरेश का उल्लेख है । एव मुसलमानी तवारीखो गढ़ के विनाश की घटना का उल्लेख किया है । चूंकि कवि में हिजरी सन् ५७२ सन् ११६२ मे कुमारपाल का स्वयं वहा का निवासी था और स्वयं अपने परिवार सहित उल्लेख है। इन ऐतिहासिक तथ्यों से ऊपर वाली परम्परा वहां से भागा था। कवि लक्ष्मण ने वहाँ के राजा का का क्रम ठीक जान पडता है। फिर भी इस सम्बन्ध मे और यदि उल्लेख कर दिया होता तो समस्या सहज ही समाप्त अन्वेषण करने की प्रावश्यकता है। जिससे अन्य प्रमाणो हो जाती, पर ऐसा नहीं हुग्रा । की रोशनी में उम पर विशेष प्रकाश पड़ सके। हो सकता जब अजयपाल का गज्य वहा सन् ११५० (वि० है कि करौली में शासको की प्रामाणिक सूची और सम स० १२०७) मे तहनगढ़ में था, और कितने समय रहा, यादि मिल सके। यह अभी प्रज्ञात है। पर मन् ११७० स पूर्व तक उसकी कहा जाता है कि कुमारपाल मन् ११९२ (वि. स. सीमा का अनुमान किया जा सकता है। क्योंकि सन् १२४६) के ग्रास-पाम गद्दी पर बैठा था। मुसलमानी ११७० मे हरिपाल का राज्य था। चूकि चूनड़ी रास तबारीख 'जलमामोर' म हसन निजामी ने लिखा है विनयचन्द्र ने अजयनरेन्द्र (अजयपाल) के राज विहार मे कि-हिजरी सन् ५७२ (वि० स० १२५२) मे मुहम्मद बैठ कर बनाया। इमसे स्पष्ट है कि उक्त चूनड़ी रास गोरी ने तहनगढ़ पर प्राक्रमण कर अधिकार कर लिया विक्रम की १३वी शताब्दी के प्रारम्भिक समय में रचा था। उस समय वहा का राजा कुमारपाल था। उस गया है। मुसलमानी माम्राज्य होने पर तो वहा राज समय वहा के हिन्दू जैन मभ्य परिवार नगर छोडकर यत्र- विहार में बैठ कर रचना करना संभव भी नही जचता। तत्र भाग गये। वहा मूर्तिपूजा का बड़ा जोर था अतएव उस समय तो उस नगर की बहुत बुरी दशा थी। ऐसी वहां बडा अन्याय अत्याचार किया गया. मन्दिर और दशा में बिना किसी प्रमाण के उसे स० १४०० के प्रास पाम को रचना कैसे कहा जा सकता है । प्राशा है नाहटा १. एपिग्राफिका इडिका खण्ड २ १० २७६ तथा जी इस पर विचार करेगे और आगे झट-पट लिखने की A canningham V.L. XX. प्रपेक्षा सोच-विचार कर लिखने का प्रयत्न करेगे। ★ [१० २६ का शेषास] अरसप्पोडेय ने चारुकीर्ति पण्डित को वेण्णेगाव की कुछ प्रदान की थी। यह सनद मन १८१० की है (भाग १ भूमि अर्पित की थी (भाग ४१० ३४७)। १० ३५६) । बाईसवा उल्लेख श्रवणबेलगुल के शक १७३१-सन चौबीसवा उल्लेख भी श्रवणबेलगुल की एक सनद १.१० के एक समाधिलेख मे है। इसके अनुसार देसिगण का है । इसके अनुसार मन १८३० में कृष्ण राज वडेयर के चारुकीर्ति के शिष्य प्रजितकीति के शिय शान्ति कीर्ति ने चारुकीर्तिमठ की रक्षा के लिए चार ग्राम अर्पित किये के शिष्य अजितिकीर्ति का उक्त वर्ष में स्वर्गवास हुआ थे (भाग ११० २६१) था (भाग ११० १५४)। पच्चीसवा उल्लेख श्रवा बेलगुल के दो मूर्तिलेखो का तेईसवा उल्लेख श्रवणबेलगुल मे प्राप्त एक सनद का है। इसके अनुसार शक १७७८-सन १८५६ मे चारुकीर्ति है। इसके अनुसार दीवान पूर्णया ने बेलगुल के सन्यासी पण्डित के शिष्य मन्मतिसागर वर्णी के लिए ये मूर्तिया चारुकीर्ति को एक ग्राम की प्राय दिये जाने की संमति स्थापित की गई थीं (भाग १ पृ० ३६४-६५)।* Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनपाल विरचित "भविसयत्त कहा" और उसकी रचना-तिथि डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री अपभ्रश साहित्य मे "भविसयत्तकहा" अत्यन्त महत्त्व- "अभी तक जो मरभ्रश साहित्य उपलब्ध हुमा है पूर्ण प्रबन्धकाव्य है । भारतवर्ष मे प्रकाशित होने वाला उसमे गद्य पौर दृश्य काव्यों का प्रभाव है। समूचा अपभ्रश का यह प्रथम काव्य ग्रन्थ है । सन १९२३ में यह साहित्य पाठय काव्य के अन्तर्गत है। उनके मुख्य तीन कथाकाव्य गायकवाड़ प्रोरियन्टल सीरिज, बड़ौदा से भेद हो सकते हैं-प्रबन्ध, खण्ड पौर मुक्तक काव्य । जो प्रकाशित हपा था। उस समय तक अपभ्र श-साहित्य के प्रबन्ध-काव्य ग्रन्थ उपलब्ध है, वे मुख्य रूप से कथासम्बन्ध मे बहत ही कम जानकारी मिल पाई थी। इधर काव्य हैं। उनमें कथा पौर काव्य का पदभुत मिश्रण है। अपभ्रश की प्रमुख रचनामों के प्रकाशन से हिन्दी-जगत् इस काव्यधारा के भी दो भेद है-पुराणकाव्य भौर मे पर्याप्त चर्चा होने लगी है। किन्तु अपभ्रश-साहित्य चरितकाव्य । चरितकाव्य के दो रूप है-एक शुद्ध या का वास्तविक मूल्याकन अभी तक कई दृष्टियों से नहीं धार्मिक चरितकाव्य और दूसरा रोमाण्टिक।........... हो सका है। इसका मुख्य कारण यही है कि सम्प्रति प्रबन्धकाव्य को कथाकाव्य कहना अधिक संगत है, क्योंकि अपभ्रश का अधिकांश साहित्य भण्डारी मे है। जब तक उममें कथा की ही मुख्यता है । कथा चाहे पौराणिक हो प्रामाणिक रूप मे हिन्दी अनुवाद सहित इस साहित्य के या काल्पनिक ।" सामान्य रूप से डा. जैन अपभ्रश के प्रकाशन की समुचित व्यवस्था नहीं होती तब तक साहित्य प्रकों प्रबन्धकों को कथाकाव्य कहते हैं । और इसलिए उन्होंने मसार में इमे यथोचित स्थान नही मिल सकेगा। केवल "णायकुमारचरिउ" की भाति "भविसयतकहा" को कथा MMS भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी एक ऐसी सस्था है जो काव्य माना है, जो उनकी दृष्टि मे वास्तव मे रोमाण्टिक अपभ्रंश के प्रकाशन का कार्य हाथ में लिए है, अन्य चरितकाव्य है । वस्तुत डा. जैन की यह मान्यता अपभ्रंश प्रकाशनों से कोई प्रामार लक्षित नहीं होते। क्योकि हम की कुछ प्रकाशित रचनामों के प्राधार पर है । अपभ्रंश स्वय इसे महत्वपूर्ण नही समझते । वास्तव में यह भावना मे अभी तक कई ऐमी हस्तलिखित रचनाएं लेखक की हीन प्रवृत्ति का द्योतन करने वाली है। कुछ प्रकाशक जानकारी मे है जो उक्त सीमा के अन्तर्गत नहीं पाती। अपने निहित स्वार्थों के कारण तथा व्यापारिक उद्देश्य मे अपभ्रंश का कथा-साहित्य विषय और परिणाम की दृष्टि इम पोर ध्यान ही नहीं देना चाहते। अतएव समाज मे मे प्रचर मात्रा में उपलब्ध हुअा है । इसे न तो चरितकाव्य ऐसे सस्थानो की आवश्यकता है जो इस प्रकार का कह सकते है और न पौराणिक । सामान्य रूप से यह हस्तमहत्त्वपूर्ण कार्य-भार वहन करने में समर्थ हो। लिखित साहित्य दो रूमो मे मिलता हैअभी हाल में ही भारतीय ज्ञानपीठ मे डा. देवेन्द्रकुमार जैन का शोधप्रबन्ध "अपभ्रश भाषा और मामिय" सन्धिबदबहत कथानो के रूप में, जो निश्चय ही प्रकाशित हमा है। डा. जैन ने इस कृति में चरितकाव्य प्रबन्धकाव्य है और दूसरे सन्धिबद्ध लघुकथापो के रूप में। और कथाकाव्य मे कोई अन्तर नही माना है। उनके ही यह समस्त साहित्य पद्यबद्ध है । मन्धिबद्ध होने के कारण शब्दों में इसमे कथा और काव्यतत्त्व का समान रूप से संयोग है। इनमें कुछ ऐसी भी रचनाए है जो कविकल्पनाप्रधान या १. डा. देवेन्द्रकुमार जैन : अपभ्र श भाषा और माहित्य, लोकजीवनप्रसूत हैं; जैसे कि जिनदत्तकथा (लाखू कृत १६६५, पृ० ८५ । जिणयत्तकहा)। इसी प्रकार के अन्य कथाकाव्यों का Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त विचार उक्त शोधप्रबन्ध में नहीं किया गया। यह सम्भव कालान्तर में काव्य के साचे में प्रबन्ध के रूप मे ढाल दी भी नहीं था । क्योकि डा. जैन १६५६ ई० मे गई है। इसीलिये इन कथानो में कई प्रकार के परिवर्तन अपना शोधप्रबन्ध लिख चुके थे। इस प्रबन्ध के लिखे जाने तथा जोड़-मोड़ मिलते है। कुछ कथाए लोककया या के उपरान्त जो महत्त्वपूर्ण रचनाए प्रकाश में आई है जन थति के रूप में प्रचलित होने पर भी व्रत-माहात्म्य उनमे से एक साधारण सिद्धसन कृत-"विलासवईकहा' है, तथा अनुष्ठानों से सम्बद्ध होकर काव्य-बध का अग ही जिसका उल्लेख डा० कोछड, डा० तोमर और डा० जैन नहीं, प्राण बन गई है। हीरोइक पोट्री में कया अल्प की किसी भी कृति में नहीं है। इसी प्रकार अन्य रचनाए तथा सूक्ष्म रहती है। परन्तु कथाकाव्य मे मुख्य वस्तु. भी है। प्रतएव जब तक सम्पूर्ण प्रकाशित-अप्रकाशित एव कथा संयोजना तथा घटनाओं का महत्वपूर्ण वर्णन रहता हस्तलिखित अपभ्र श-साहित्य का अनुशीलन न किया है। भविष्यदत्तकथा ऐसी ही कथा है जो पहले श्रुति के जायेगा तब तक डा० जैन जैसे विद्वान् भले ही अपभ्रंश- रूप में जन-मानस में प्रचलित रही और फिर परम्परागत कथाकाव्य की स्वतन्त्रविधा का अस्तित्व स्वीकार न करे प्रबन्ध काव्य की शैली में लिखी गई । इसीलिए हीरोइक पर प्राकृत-अपभ्रश साहित्य मे कथाकाव्यमूलक कई प्रकार पोइटी से भी कई बातो मे अन्तर दिखाई पड़ता है, की रचनाए मिलती है, जिनसे यह पता चलता है कि क्योकि जब हीरोइक पोइदी रोमाश में परिणत होने कथाकाव्य की इस विधा का विकास अपभ्रंश में प्राकृत लगती है तब उसमे गेय चेतना, कोमल भावनाप्रो और काव्य-धाग से हुआ। पाकर्षक दृश्यों से मृदु तथा साहसिक कारों के मध्य भारतीय माहित्य में कथाकाव्य की परम्परा अत्यन्त विराम देने वाली ग्रानन्दमयी अनुभूतियों से मवेदनीय हो प्राचीन काल से चली पा रही है । काल के मूल मे जीवन जाती है । प्रतएव अपभ्र श तथा भारतीय साहित्य में की लिपिबद्ध कथाए ही है जो श्रुति रूप में वर्षों तक कथाकाव्य तथा चरितकाव्य की विधा अपने ढग की अलग प्रचलित रही है और देश-देशान्तरो मे अपने अपने मूल ही प्रबन्ध-रचना है। अप में स्थानान्तरित होती रही है। अपभ्रंश मे ऐसी ही भारतीय साहित्य में कदाचित् प्राकृत और अपभ्रश कथाएं महाकाव्यों की कडी में परिबद्ध कथाकाव्य के रूप में इस साहित्यिक विधा का मूत्रपात हमा जिनमें कथा में लक्षित होती है जिनमे मानवीय सवेदना कतिपय और काव्य मिल कर लोक जीवन के परिपावं मे यथार्थ घटनामो के विग्रह मे सजीव एव चारित्रिक बन्धनो मे रीति से गनिशील तथा मनुष्य जीवन में घटनायो का अनुस्यत रहती है । कथा ही कथाकाव्य में मुख्य होती है रोमाचक एवं वास्तविक प्रभाव दर्शाते हुये लक्षित होते जो किसी उद्देश्य से कही जाती है और वह उद्देश्य नायक है। यद्यपि कही कही पौराणिक प्रवृत्ति के अनुगमन से के कार्य-व्यापागे से मम्बद्ध रहता है। यह कथाए प्राय घटनाप्रो मे अस्वाभाविकता-सी जान पड़ती है परन्तु वक्ता-श्रोता शैली में कही जाती है । इनमे कही-कही सुनने प्रबध-मंघटना और रचना-शिल्प में शिथिलता नहीं दिखाई वाला कथा एवं घटना के सम्बन्ध मे जिज्ञासा और पडती । अपभ्र श के इन कथाकाव्यो की विशेष प्रवृत्ति उत्सुकता प्रकट करता चलता है और लेखक उसकी है-प्रेम की मधुर व्यजना । अधिकतर नायक पवित्र प्रेम उत्सुकता की वृद्धि करता हुआ आगे की घटनाग्रो का से प्रेरित एव सचालित दिग्वाई पड़ते है। कही-कही प्रेम सजीव वर्णन करता चलता है। चरितकाव्यों मे नायक के की उदात्त व्य जना धामिक वातावरण में हुई है और न हीजीवन का समूचा इतिवृत्त अलौकिक रूप मे वणित रहता कहीं शुद्ध मानवीय । इस रूप मे हिन्दी के प्रेमाख्यानक है। उनमे अभिप्राय विशेष भी नायक के प्रादर्श तथा काव्यवस्तु एव शिल्प-रचना की दृष्टि से ही नहीं शैली असाधारण गुणों तथा अतिलौकिक चमत्कारो से समन्वित और प्रेम की मधुर व्यजना में भी अपभ्रश के इन कथाहोते है। जिन कथाकाव्यो मे वस्तु सोद्देश्य नियोजित नहीं काव्यो से प्रभावित जान पड़ते है। है वे लोककथाएं है जो साहित्यिक रूढ़ियों के साथ कथा पहले पाख्यात थी, जो शुरू इतिवृत्त थी परन्तु Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनपाल विरचित भविसयत्तकहा" और उसकी रचना-तिथि ज्योज्यों काव्य-तत्वों से उसका ताल-मेल बैठता गया, त्यो अतएव हम इस युग को पुनर्जागरण काल (Renaissance) त्यो वह कहानी और उपन्यास का रूप ग्रहण करती गई। कह सकते है, जिनमे जनवादी प्रवृत्तियां जन्म ले रही थी भविष्यदतकथा को पद्य मे लिखा हा एक प्रकार का मोर पौराणिकता से हट कर साहित्य लोक-चेतोन्मुखी उपन्यास ही समझना चाहिये । यद्यपि रचना-तत्वो मे हो रहा था। प्रतएप लोक-जीवन के विविध तत्व कथाप्रममानता है पर हम उसे कथा ही कहते पाये है और काव्य में सहज ही लक्षित होते है । इस युग में कथाकाव्य इसलिए भी कि वस्तु रूप में वह लोक कथा ही है। का नायक प्रादर्श पुरुष ही नहीं, राजा, राजकुमार, बरिया, संस्कृत में लिखी गई कथाए गद्य मे हैं। बाणभट्ट को राजपूत या अन्य कोई साधारण से साधारण पुरुष हो 'कादंबरी' तो उपन्यास ही जान पड़ती है। परन्तु वह सकता था जो अपने पुरुषार्थ से साधारण व्यक्तित्व तथा कथा ही है । प्राकृत और अपभ्रश में छोटी तथा बड़ी गुणों को प्रकट कर मानव बन सकता था। सभी कथालगभग सभी प्रकार की कथाये छन्दोबद्ध है । 'कुवलयमाला काव्यो मे यह व्याप्ति पूर्णतया लक्षित होती है । इससे देश कथा' प्रदश्य गद्य मे लिखी मिलती है। इसी प्रकार अन्य के साहित्यिक विकास की एक नवीन उत्थानिका का पता रचनाए भी गिनाई जा सकती हैं, परन्तु प्राकृत और लगता है जो मध्ययुगीन साहित्य की विशिष्टता है। अपभ्रश मे पगबद्ध कथाएं लिखने की सामान्य प्रवृत्ति रही अपभ्रश और हिन्दी के प्रेमाख्यानक काव्यो मे निम्नहै । गुणाढ्य की 'बृहत्कथा' से लेकर प्राज तक न जाने लिखित बातो में बहुत कुछ समानता मिलती है :कितनी तरह की कथाए और कहानिया लिखी गई जो १. कथा-वस्तु एवं घटनामों में कहीं-कहीं अद्भुत नीति-रीति, मानवीय स्थितयों की विविधता और यथार्थता समानता दृष्टिगोचर होती है । प्रत्येक कुवर या राजकुमार मे ममन्वित लिखी जाती रही है। भापा की भाति की समुद्र-यात्रा और सिंहलद्वीप मे सुन्दरी का वरण करना, माहित्यिक विधाम्रो का भी यह परिवर्तन माज इतिहास एक ऐमी सामान्य घटना है जो लगभग सभी प्रेमाख्यानक की वस्तु बन कर रह गया है। उन परिवर्तनो का पूर्ण काव्यों में मिलती है। इसी प्रकार चित्र-दर्शन-रूप-दर्शन, विवरण देना पाज असभव-सा जान पडता है। प्रथम मिलन व दर्शन में ही प्रेम हो जाना प्रादि बाते अपभ्र श साहित्य का ही नही, यदि हम दसवी समान रूप से मिलती है। शताब्दी से लेकर पन्द्रहवी शताब्दी तक के भारतीय २. सामन्तयुगीन वैभव, भोग-विलास तथा युद्ध के साहित्य का अनुशीलन करे तो ज्ञात होता है कि मध्य- चित्रण भी इन काव्यों में वर्णित है। किमी-किसी कथायुगीन भारतीय काव्यों की मुख्य प्रवृत्ति उदात्त प्रेम की काव्य भे मुन्दरी के लिये भी युद्ध किया जाता है, जैसे कि भविष्यदत्तकथा में भविष्यदत्त सुमित्रा की रक्षा के प्रेम प्रतिलौकिक भाव-भूमिका में भी चित्रित हा है. लिये युद्ध करता है और अपनी शूर-वीरता प्रदर्शित परन्तु काव्य का समान्य धरातल लौकिक प्रेम में ही अभि- करता है। व्यक्त हमा है। इसलिये अतिलौकिक प्रेम और पादों ३. कथानक-रूढियो के साथ ही प्रबन्ध-रचना एवं को समझने के लिये हमें किन्ही प्रतीकों और रूपको के संघटना म भा साम्य लक्षित हाता है। इश-वन्दना, नम्रतारहस्यो को खोलना पड़ता है। परन्तु अपभ्रश के कथा- प्रदशन, कवि या काव्य-रचनामा का उल्लेख, काव्य पढ़ने काव्यों में प्रायः यह व्यंजना नहीं मिलती है। यद्यपि प्रेम का अधिकारी, काव्य विषयक सकेत तथा मान्यता प्रादि बीज से लेकर उसके विकास तक की सम्पूर्ण परिस्थितियो बातों का उल्लेख परम्पगगत रूढ़िया हैं जिनका प्रचलन एव अवस्थामों का इनमें पूर्ण विकास लक्षित होता है सम्भवत. प्राकृत युग से हुमा है। परन्तु व्यक्तिवादी वैचित्र्य एवं चमत्कार नहीं मिलता। अपम्रश-कथाकाव्यो मे धनपाल कृत "भविसयत्तकहा" वस्तुतः ये कपाकाव्य मध्ययुगीन भारतीय साहित्य की देन का प्रत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। सपा -काव्य साहित्य हैं जो लोकजीवन की परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं। में कथाकाव्यों में "भविसयत्तकहा" और प्रेमास्यानक Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त काव्यों मे साधारण सिद्धसेन विरचित "विलामवईकहा' अपभ्रश-साहित्य की रचना हुई है और प्रभाव रूप में प्रतिनिधि रचनाए है । ये दोनो ही काव्य प्राकृत सस्कृत-साहित्य की कई विशेषताएं अपभ्रश-कवियो की काव्य-परम्परा से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए उस रचनायो मे मिलती है पर अपभ्रश-भाषा के व्याकरण की शृखला के समान है जो एक ओर प्राभिजात्य रचना की भाति इम देशी भाषा के साहित्य के लिए साहित्यिक सूत्र से सम्बद्ध है और दूसरी मोर नव- शास्त्रीय साहित्य प्रादर्श नही बन सका है। इस साहित्य युगोन्मेषी स्वच्छन्द प्रवृत्तियों की विकसनशील भाव- का समग्र रूप लोक-जीवन से हिल्लोलित है। यथार्थ मे धारा से प्रान्दोलित है। जिसमे एक पोर सामन्तीय समाज वातावरण लोक-जीवन का होने पर भी मालोच्यमान का वर्णन है और दूसरी ओर जन मानव का यथार्थ साहित्य-शास्त्रीय तथा लोकशैली के मध्यवर्ती रूप में लिखा नित्रण है। यद्यपि दोनों प्रबन्धकाव्य धार्मिक परिवेश में गया है। प्रतएव स्थानीय रूप-रगों से चित्रित होने पर रचे गये है पर काव्य-कला की दृष्टि से तथा शृगार की भी प्रबन्ध काब्यो की साहित्यिक शैलियो तथा सामन्तवादी पूर्ण अभिव्य जना होने से विशुद्ध कथाकृतिया है। कथाओं जीवन-रेखायो से भी चचित है। और यही कारण है कि मे निबद्ध घटनाए सहज तथा लोक-जीवन का है। यद्याप शुद्ध रूप में इसे लोक-माहित्य भी नहीं कहा जा सकता कही-कही उन्हें प्रति लौकिक तत्त्वो से भी समन्वित किया। है। यह इन दोनो ही साहित्य के बीच की कड़ी है जो गया है पर वे यथार्थ से दूर नहीं है । उनमे कथाभि- पवन नम कथाभि- परवर्ती युगो मे देशी साहित्य के नाम से अभिहित प्राय तथा रूढ़ियों का प्रचुर सन्निवेश लक्षित होता है। माना यथार्थ में मध्ययुगीन भारतीय साहित्य मे इस प्रकार की कहा जाता है कि हिन्दी के सूफी काव्यों की रचना काव्य-रचनाए विशेष महत्वपूर्ण है जो एक और प्राचीन 'मसनवी' शैली में हुई है। मसनवी का अर्थ 'दो' है। परम्परा का निर्वाह करती है और दूसरी ओर नवीन इसमें प्रत्येक शेर के दो मिसरे होते है। इसका प्रत्येक शेर विधामों में प्राधुनिक भारतीय प्रार्य भाषामो के साहित्य छन्द और भाव की दृष्टि से पूर्ण होता है। मुक्तक की के लिए प्रेरणादायक तथा नव्य भूमिकाए सस्थापित करने भाति इनमे भाव या चित्रपूर्ण होता है तथा वाक्य-रचना वाली सिद्ध हुई है । अतएव पुरानी हिन्दी, जनी गुजराती, भी कसी हुई रहती है। मिसरा समतुकान्त होता है, प्राचीन बगला तथा राजस्थानी ग्रादि भापायों में लिखा जिनका पागे की पवितयो से तूक की दृष्टि से कोई सम्बन्ध हमा प्रारम्भिक साहित्य बहुत कुछ प्राकृत एव अपभ्रश- नही होता। काव्य सगों में या परिच्छेदो मे विभवत न साहित्य से प्रभावित है। प्राधुनिक भारतीय प्रार्यभापायो होकर विषयानुरूप शीर्षको मे तथा घटनाग्रो मे प्राबद्ध के जिन साहित्यिक अग तथा रूपो पर अपभ्रंश-साहित्य रहता है। इस शैली में लिखा गया किसी प्रकार का भी का प्रभाव लक्षित होता है उनमे से मुरूप है-प्रबन्ध- प्रबन्ध काव्य क्यों न हो वह मसनवी माना जायगा । सघटन, पद-शैली, छन्दोयोजना, वर्णन की तारतम्यता, फिरदौसी का 'शाहनामा' और 'यूसुफ-जुलेखा' मसनवी कथानक रूढ़ियों का प्रयोग, भाषागत शब्द-प्रयोग तथा काव्य माने जाते है। किन्तु अपभ्रंश कथाकाब्य पोर भाषा की सवेदनशीलता के हेतु अनुरणन-श्रुति-सगीत-नाद चरितकाव्य की रचना संधिबद्ध होती है तथा सन्धि या आदि विविध तत्वो का समावेश । मध्यकालीन भारतीय परिच्छेद 'कडवकबद्ध' होते है । कडवक पद्धड़िया, प्रडिल्ला, संस्कृति और इतिहास पर भी इस साहित्य के अध्ययन से या उसी प्रकार के किमी छन्दों का समूह होता है पर्याप्त जानकारी मिलती है। केवल भाषा के रूप मे ही जिसमे किसी एक दृश्य या भाव का वर्णन रहता है। नहीं धर्म, समाज तथा संस्कृति के रूप में इस साहित्य के अपभ्रश मे कडवकों तथा उनमे विहित छन्दों की संख्या आलोक में मध्ययुगीन भारतवर्ष के सहजस्फूर्त तथा रूप नियत नहीं है । साधारणत. एक कम्बक में माठ यमक या मे मण्डित रेखा-चित्र परिलक्षित होते है । सोलह पक्तियों का प्रयोग किया जाता रहा है। परन्तु - -- - - - यद्यपि संस्कृत-साहित्य के समानान्तर ही प्राकृत तथा १.देखिए, दिदीबहाकाबकास्वरूप विकास, प्र. ४१६ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनपाल विरचिन "भविसयत्तकहा" और उसकी रचना-हिघि कई काव्यों मे अठारह, बीस, बाईस, चौबीस, तीस, बत्तीस की कथाये भी जैन कथाम्रो से बहुत कुछ मिलती जुलती और छत्तीस तक पक्तिया तथा छन्द एक कडवक मे है२ । परम्परागत प्रचलित भारतीय लोककथापो को ग्रहण लक्षित होते है। कडवक द्विपदी या दुवई प्रथवा दोहा के कर मूफी कवियों ने प्रेम अभिव्यजना तथा अलौकिक प्रेम आकार के किसी छन्द से जुड़े रहते है। कही कही कड- की अभिव्यक्ति के लिए कहीं-कही उनमे परिवर्तन भी वक के प्रादि मे और कही-कही अन्त-मादि दोनो में दोहा किया और पन्तकथानो को छोड कर जन मानम में अपने के आकार का कोई न कोई छन्द सयुक्त रहता है। ग्रादर्शी की प्रतिष्ठा करने का भी प्रयत्न किया। वस्तुत: अधिकतर यह पन्त मे जड़ा देखा जाता है। प्रबन्ध-रचना वे इस रीति को छोडकर भारतीय जनता के बीच लोक की यह शैली अपभ्रंश तथा हिन्दी के प्रेमाख्यानक काव्यो प्रिय नही बन सकते थे। इसलिये कथा, चरित्र, शैली, के समान रूप से मिलती है। वस्तु, घटना, कथानक-रूढि भाषा और अभिव्यक्ति के अन्य उपादानो को भी उन्होने नथा चरित्र-चित्रण में ही नही प्रबन्ध रचना भी मुफी ग्रहण कर पादों का प्रचार किया। अपभ्रंश के कथा काव्य अपभ्रश काव्यो की परम्परा से प्रभावित जान पडत नथा चरितकाम्यो से ये केवल एक बात में ही भिन्न है । स्पष्ट रूप मे हिन्दी के प्रेमाख्यानक काव्यो की रचना लक्षित होते है और वह है-चलते हुये कथानक मे चौपाई-दोहा शैली में हुई है जो अपभ्रश काव्यो का दन अलौकिक प्रेम की व्यजना । परन्तु यह विशेषता जायसी है। यह अवश्य है कि अपभ्रश काव्यो की रचना सन्धि, के पद्मावत मे ही मिलती है। अपभ्रश की अभी तक परिच्छेद, विक्रम या भास प्रादि में की गई है और सूफी कोई रचना नहीं मिल सकी है। तथा प्रेमाख्यानक काव्यो की रचना शीर्षकबद्ध है। परन्तु अपभ्र श में प्राकृत की भाति धार्मिक वातावरण मे प्राकृत का 'गउडवह', कुवलयमालाकहा और अपभ्रश म ही लोक-जीवन की उन्मुक्त दशाग्रो मे भी स्ववत्र भावहरिभद्रमूरि रचित मिरणाहचरिउ' सर्गहीन रचनाए है। भूमि पर लोक गाथाम्रो को प्रेम एवं रममयी वाणी प्रदान मभव है कि इस प्रकार की रचनाए और भी लिखी गई की गई है उनमे लोक-चेतना का महज प्रवाह लक्षित होता हो पर काल-प्रवाह में न वच पाई हो। इम सबध में श्री है। तथा मामन्तकालीन प्राभिजात्य वग के मामाजिक रूप परशुराम चतुर्वेदी द्वारा निष्कर्ष रूप मे अभिव्यक्त विचार का स्पष्ट दर्शन होता है। अपभ्रश मे कथा काव्यो म ही उचित जान पडता है-"जिस समय हिन्दी के मूफी प्रयुक्त अधिकतर कथाए प्रेमगाथाए है जो किन्ही विभिन्न प्रेमाख्यानो की रचना प्रारम्भ हुई उम ममय तक उनके उद्देश्यो मे कई उप-कथानो के माथ जुड़ी हुई है और रचयितानों के लिये ऐसी अनेक बाते प्रस्तुत की जा चुकी उद्देश्य प्रशन होने के कारण कई स्थानों पर धार्मिक थी जिनका वे किसी न किसी रूप में बड़ी सरलता से वातावरण में अभिव्यक्त की गई है। चरितकाव्यो की उपयोग कर सकते थे। क्या कथा-वस्तु, क्या काव्य-रूप, कथानो मे मोह तथा परिवर्तन कम है, क्योकि उनमे क्या रचनाशली, और कथा-रूड़ियो जैसी सामग्री, इनम प्रारम्भ मे ही नायक को अमाधारण एव अनिलौकिक रूप से कदाचित् किसी के लिये भी उन्हे न तो कोई सवया चित्रित किया जाता है । देव लोग उनका स्नान-अभिषेक नवीन मार्ग निर्मित करने की आवश्यकता थी और न करते है, तरह-तरह के माधन जुटाते है और उनके प्रतिअधिक प्रयास करने को१" । और यह सर्वमान्य सत्य है कि शय म्प तथा माप में पहले में ही प्रभावित एव सूफी प्रेमाख्यानों में प्रयुक्त अधिकतर कथाय भारतीय है, प्राकर्षित रहते है। किन्तु कथाकाव्य में दुख मुख के भारतीय लोक-जीवन की है। उदाहरण के लिये-अपभ्रश भलो में झूलते हुए, मघर्ष-विषयो मे टकराते हुए, प्राशाकी 'विलासवतीकथा' और दुखहरनदासकृत 'पृहपावती' निगशा में डूबते-उतरने हुए नायक अपने जीवन का स्वय मे अद्भुत साम्य है। इस प्रकार पद्मावती तथा मृगावती नि HATHIावती निर्माण करते है और माधारण मे माधारण पुरुष की १. "लोकगाथा और मूफी प्राख्यान" शीर्षक लेग्य, २. देखिये, कुतुबन कृत मगावनी-डा. शिव गोपाल "हिन्दुस्तानी", भाग २३ अक २, पृ० ३८ । मिश्र, हिन्दी साहित्य मम्मेलन, प्रयाग । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त भांति दुःख तया वेदनामो को झेलते है। में किसी न किसी प्रादर्श की प्रतिष्टा हुई है। भारतीय यद्यपि चरितकाव्यो में भी नायक के साहस तथा शूर- मान्य सिद्धान्तों की भाति इनका मूल स्वर प्रादर्श का है, वीरता के कार्य व्यापारी का वर्णन रहता है पर वह अति- यथार्थ का नहो । यद्यपि व्यक्तिवादी प्रादर्शो तथा मान्यता लौकिक शक्तियों से प्रेरित तथा समन्वित होता है। की अवहेलना नहीं की गई है और कही-कही उनका प्रभाव इसलिए उममें सहज ही देवी भाव लक्षित होता है। भी दर्शाया गया है किन्तु सन्त धार्मिक वातावरण तथा पुराणों की भाति चरितकाव्यों में प्रायः एक से अधिक प्रादर्श सिद्धान्तो के पालन और पूर्णता के साथ हुअा है। कथाए एक साथ वणित देखी जाती है। कथा में से कथा स्पष्ट ही अपभ्रश के कथा तथा चरितकाव्यों का प्रारम्भ फुट कर जन्म-जन्मान्तरों की घटनामों तथा इतिवृत्तों से और अन्त शान्त रस में पर्यवसित हुमा है। इमलिये इन इस प्रकार स युक्त हो जाती है मानो कथा की ही मुख्य काव्यो के अध्ययन से कभी-कभी यह प्रतीत होने लगता है अंग हों। चरितकाव्यों की अपेक्षा कथाकाव्यों में इस प्रकार कि जीवन के मूल्यों की अपेक्षा की गई है परन्तु मरे ही की चिप्पिया कम लगी मिलती है और कम से कम पूर्वार्द्ध क्षण शान्त और वैराग्य की झलक बहिर्मुखी लोक से कथानों तथा घटनायो मे ऐमा व्यवस्थित क्रम मिलता है अन्तर्लोक की पोर प्रापित किये बिना नही रहती है। कि क्रियान्वित का निर्वाह नही देखा जाता है । चरितो के यही इसकी सामान्य विशेषता है। माध्यम से प्रपम्रश कवियो ने किसी-किसी चरितकाव्य मे धामिक उद्देश्य भी प्रकट किया है। महाकवि पुष्पदन्त ने भविसयत्तकहा की रचना-तिथि 'जसहरचरिउ' पी रचना "हिमा परम धर्म है" इस यह प्रत्यन्त प्राश्चर्य की बात है कि दसवी शताब्दी मन्यता को प्रभावशाली ढग से प्रकट करने के लिये को से लेकर मोलहवी शताबी तक जो अपभ्र श-साहित्य है, और इस उद्देश्य के साथ ही ग्रन्थ की भी समाप्ति लिखा गया उसमे कही भी- धनपाल का उल्लेख किसी हो जाती है। हिन्दी के प्रेमाख्यानो में भी यही प्रवृत्ति भी कवि नही किया। भी कवि ने नही किया। इसका एक कारण यह कहा मिलती है। जा सकता है कि कवि की प्रसिद्धी लोक मे अधिक समय अपभ्रश के कथा तथा चरितकाव्यों मे जिस सामन्त· तक नहीं रही। इसलिए अपभ्रश के परवर्ती कवियो ने कालीन वातावरण का चित्रण मिलता है वहीं प्रागे चलकर जिन पूर्व कवियों का उल्लेख किया है उनम किसी भी कुतुबन कृत्त 'मृगावती' तथा अन्य मूफी एव प्रेमाख्यानक धनपाल का नाम नहीं मिलता। अपश मे धनपाल काव्यों में दिखाई पडना है राजकुमार का बहुपत्नीत्व, नामक दो कवियों का विवरण प्राप्त होता है। इनमे से समुद्र-यात्रा, आदर्श प्रेम, रोमान्च तथा धन-यौवन प्रादि "भविसयत्तकहा' के लेखक धनपाल चौदहवी शताब्दी के वैभव एवं समद्धि से उल्लसित जीवन इमी तथ्य की ओर लगभग हए थे। और दूसरे धनपाल "बाहुबलि चरित" संकेत करते है। के रचयिता है, जो पन्द्रहवी शताब्दी के कवि थे। ये इस प्रकार मध्ययुगीन साहित्य मे विकसनशील गजरात के परबाड वश के तिलक स्वरूप थे। इन दोनो पौराणिक तथा लोकाख्यानो से एक नवीन काव्यधाग का ही कवियों का विशेष विवरण प्राप्त नही हाता। "भविप्रचलन हुमा, जो आगे चलकर सूफी प्रेमारूपानक तथा सयत्तक हा" मे अवश्य स्वयं कवि ने उल्लेख किया है कि हिन्दी के प्रेमापानकों मे पल्लवित तथा पुष्पित हई। उसे सरस्वती मे वर मिला था। इससे यह अनुमान वस्तुत: अपभ्रश-कथाकाव्य की यह धारा चिरप्रचलित लगाया जाता है कि कवि प्रसाधारण व्यक्तित्व से सम्पन्न प्राकृत लोकाख्यानो की परम्परा मे विकसित हुई है. जो था काव्य-रचना से इस संबंध में विशेष पुष्टि नहीं होती। मूलत: नायको के चरित तथा धार्मिक प्रभाव को प्रकाशित परन्तु यह निश्चय ही कहा जा सकता है कि अपभ्रंश एवं प्रसारित करने में प्रत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुए हैं। यही कथाकाव्यों में यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है। रचनाकारण है कि अपभ्रंश के प्रत्येक कथा तथा चरितकाव्य परिभाग की दृष्टि से कथाकाव्य की विधा में अभी तक Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनपाल विरचित "भविसयतकहा" और उसकी रचना-तिथि इतनी बृहत् रचना उपलब्ध नहीं हो सकी है। यद्यपि देर पत्ता' अर्थात् प्रत्यन्त दुर्गम दूर देशों में पहुँच गये बहिरङ्ग रूप में कोई ऐमा ठोस प्रमाण नहीं मिलता, थे। उस समय मुहम्मद शाह का शासन दिल्ली राज्य पर जिसके प्राधार पर काव्य की रचना-तिथि का निर्णय था। कहा गया है कि उसका राज्य दक्षिण भारत तक किया जा सके, किन्तु अन्तरङ्ग प्रमाण के आधार पर यह बहत दूर-दूर तक फैला था। इतिहास के उल्लेखों से कथाकाव्य महाकवि धनपाल के शब्दो में "पौष शुक्ल पता लगता है कि वह एक सफल शासक था। उसने द्वादशी, मोमवार, सवत् १३६३ (१३३६ ई.) में लिखा दक्षिण भारत तक के कई बलवों को दबाया था। जिस गया था।" उन दिनो दिल्ली के राज्य-सिहासन पर समय प्रचण्ड मुहम्मदशाह दिल्ली में गज्य कर रहा था, मुहम्मदशाह थारूद था। कवि ने स्वय उसका उल्लेख उसी समय दिल्ली से साठ कोस दूर पश्चिम मे अत्यन्त किया है । इतिहास में मुहम्मद नाम के कई बादशाह हुए। रम्य 'मासोपवण्ण' नगर में रत्नपाल नाम का अग्रवाल इमलिए मुहम्मदशाह से यहा पर-इतिहास प्रसिद्ध कुल मे उत्पन्न जैन धावक रहता था। उसका पुत्र मदनमुहम्मद बिन तुगलक अभिप्रेत है। मुहम्मद तुगलक के मिह अत्यन्त परोपकारी था। उसके चार पुत्र उत्पन्न हुए अन्य नामो में मुहम्मदशाह भी मिलता है२ । मुहम्मदशाह ज्येष्ठ पुत्र का नाम 'दुल्लह' था। उसके तीन सुपुत्र का राज्य काल सन् १३२५-१३५१ माना जाता है। उत्पन्न हुए। पहले का नाम हिमपान, दूसरे का देवपाल कवि-लिखित-प्रशस्ति के अनुमार १३३५ ई. के लगभग और तीसरे का लुद्दपाल बा। हिमपाल दिल्ली मे रहता दिल्ली में बगावत विद्रोह हुआ था। मन् १३३५ ई० मे था । वह अत्यन्त धन-सपन्न था। उसके पुत्र का नाम मुल्तान मुहम्मदशाह जब मदुग के लिए कूच करता है। वाधू पा । अकाल पड़ने पर वाधू जफराबाद चला गया। तब वारगल में ही लौट पाता है। जब सुल्तान दिल्ली जफराबाद जौनपुर के पाम, जौनपुर मे चौदह मील दूर वापिस लौट कर पाता है तब देखना है कि चारो ओर है। वही पर कवि धनपाल ने वाघू के हेतु इस काव्य ग्रन्थ अकाल पड रहा है। सहस्रो मनुष्य और पशु मर गये । का प्रणयन किया५ । इमसे यह भी स्पष्ट है कि कवि इमलिए वह अपनी गजधानी दिल्ली से हटा कर-गगा धनपाल जफराबाद में रहते थे। इस प्रकार ऐतिहासिक के पाम शमशाबाद में ले गया३ । प्रशस्ति में भी कवि ने। उल्लेखो के अाधार पर यह निश्चित है कि कवि धनपाल इस प्रकाल का सत किया है। प्रतीत होता है कि उम महम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में तथा गज्य मे रहते ममय दिल्ली में भयंकर अकाल पड़ा था, जिगमे हिमपाल थे और उन्होने गजनैनिक स्थिति के मम्बध मे जो कुछ जैसे माहकार भी-दरिद्र हो गये थे और बहुत से लोग लिखा है वह अक्षरश मन्य है। अपने प्राण-धन की रक्षा करते हुए बहुत दूर-दूर प्रदेशो - में जा कर बस गये थे। प्रशस्ति में कहा गया है कि- ४. महम्मद माहो वि गमी पय डो, लोग अपने-अपने स्थानों को छोड कर-'महादुग्गदूरम्मि लियो तेण मायर पमाणेहि दई । उमक्विट्ट णिलिवि मलिग्रोवि माणो, १. सुमवच्छरे अक्किग विक्कमेणं, कियो रज्ज इकच्छत्ति हुई उवयतमाणो। अहीएहि तेणवदि तेरहसएण । -अन्त्य प्रगम्ति, भविसयत्तकहा । वरिस्मेय प्रमेण मेयाम्बि पस्मे, ५. पयट्ट वि दूमम्मि काले रउद्दे, तिही वारमी सोमि गहिहि रिक्वे ।। पहनो मुवलूम दफगयवाद । २. दिल्ली मजनत, प्रकाशित भारतीय विद्याभवन, हहत्ते परते मुहायारहेड, बम्बई, प्रथम सस्करण, पृ०६१। तिणे लिहिये मुअपंचमी णियहं हेउ । ३. वही, चतुर्थ परिच्छेद, पृ०७७ । -अन्तिम प्रशस्ति Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगमों के कुछ विचारणीय शब्द मुनि श्री नथमल पम्ह या पम्म पद्म का अर्थ लाल है। छठे तीर्थकर का नाम पद्मजैन मागमो में छह लेश्याए प्ररूपित है। उनमे पाचवी प्रभ है। उनका वर्ण रक्त बतलाया गया है। माणक लेझ्या पप है । पन का प्रावृत रूप 'पम्म' या 'पउम' हो धातु का नाम पदमराग है। वह लाल होता । इसीलिए सकता है किन्तु वेताम्बर साहित्य-मागम कर व भागमेतर उसे लोहितक और अरुणोपल कहा गया। ग्रन्थों में 'पम्ह' रूप मिलता है। पम्ह का सस्कृत रूप पदम लेश्या का हरिताल, हलदी आदि के समान सक्षम होता है। प्राकृत व्याकरण के अनुसार म को 'म्ह' हैहम पर पर संदेह है कि पीत लेश्या होता है। के पुद्गलो को पद्म क्यों कहा गया ? इसका समाधान पक्ष्म-पम्ह, पद्म-पम्म या उम हम निम्न शब्दों में पा जाते हैं। पद्म पीला नहीं होता पम्ह का संस्कृत रूप पद्म नही होता-यह प्रश्न इतने लम्बे समय में क्यो नही उठा? पम्ह का प्रयोग किन्तु उसका गर्भ भाग पीला होता है। उसी के आधार किसी एक स्थल में एक बार नहीं है, किन्तु अनेक बार पर इस लेश्या का नाम पद्म रखा गया है। अभयदेव मूरि है। इस स्थिति में यह मान लेना कि लिपि-दोष के कारण ने इसे पदम गर्भवर्ण वाली बताया है । यह रूप परिवर्तित हो गया. सहज नहीं है। उच्चारणभेद यदि पाह का पक्षम रूप किया जाय तो भी पीत वर्ण के कारण इमा हो, यह फिर भी संभव हो सकता है। के साथ इसका सम्बन्ध हो सकता हैं। पक्ष्म का एक अर्थ पम्म प्रौर पम्ह के उच्चारण में बहुत कम भेद है। किन्त केसर (किंजल्क-पुप्परेण) है। पुष्परेणु के समान पीत वर्ण यह उच्चारण भेद सर्वत्र स्थान पा गया, यह भी कठिन वाली लेश्या को पक्षम-लेश्या कहा जा सकता है। कल्पना है। स्थानाग मूत्र मे पम्ह पम्ह कूड, पम्ह गावती इस चिन्तन के तीन फलित हैपम्ह लेस्सा, पम्हा और पाहावई -- इतने प्रयोग मिलते है। १ पम्म का रूप परिवर्तन होकर पम्ह शब्द प्रचलित इनमें वृत्तिकार अभयदेवमुरि ने पम्ह२ का मस्कृत रूप हुप्रा है। पक्ष्म और पम्हकड का सस्कृन र पद्मकट किया है। २. पद्म का पम्म पार्ष व्याकरण-सिद्ध हो तो भले किन्तु वर्तमान प्राकृत व्याकरणो से इसका समर्थन नही हो किन्न वर्तमान प्राकृत-व्याकरण से यह सिद्ध नही है। होता। उनके अनुसार पम्हकूड का सस्कृत रूप पदमकूट ३. पम्ह का मस्कृत हा पक्षम किया जाय तो भी भी हो सकता है। अर्थ मे सगति हो सकती है। लेश्याम्रो के नाम वर्ण के ग्राधार पर है इन तीनो फलितो पर विशेष विमर्श के मै अनुसन्धिविश्या वर्ण लेश्या वर्ण युत्सु वर्ग को मादर प्रामत्रित करता हूँ। कृष्ण काला नेजम अग्निकण, लाल भोग या भोज--- नोल हग परम पद्मगर्भ वर्ण, पीला रूप-विपर्यय के उदाहरण मिलते है। उनमे एक है कापोत कबूनमिया रग, धूम्र वर्ण शुक्ल सफेद ४. अभिधान चिन्तामणि १४६ ' रक्तौ च पदमप्रभ १. हेमचन्द्र । वासुपूज्यो। ५. वही ४.१३० । २. स्थानोगवृति, पत्र २० । ६. स्थानाग वृत्ति २२१ पद्मगर्भवर्णा लेश्या पीत वर्णे३. स्थानाग वृनि, पE२ । त्यर्थ , पद्मलेश्या...... Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंन प्रागमों के कुछ विचारणीय शम्ब भोग । वश के करग मे 'उग्गा भोगा राइण्णा'-ऐमा के प्राधार पर हम अपने प्राचीन उल्लेखों एवं मान्यतामों पाठ मिलता है । भोग पशब्द का मूल 'भोज' है। भोजवश को सहमा कैसे झुठला सकते है। महाभारत कालीन प्रसिद्ध वंश है। उत्तराध्ययन१ तथा चाहे फासुप्र शब्द को लीजिए, चाहे नायपुत्त शब्द दशवकालिक२ मे 'भोग' का प्रयोग मिलता है। उत्तरा- को या किमी पौर शब्द को। प्राचीन प्राकृत विशेष नामो ध्ययन के वत्तिकार श्री शातिमूरि ने 'भोग' का सस्कृत के मस्कृत रूपान्तर की कल्पना करते समय बहुत बड़ी रूप 'भोज' किया है३ । श्रीपपातिक (सूत्र १४) मे 'भोग सावधानी की अपेक्षा है। अन्यथा स्वकल्पना प्रेरित मात्र पव्व इया' पाठ है। प्रभयदेवसूरि ने उसका अर्थ भोग शब्द-साम्य की दृष्टि संस्कृतीकरण की प्रवृत्ति से, केवल (मादिदेव का गुरु स्थानीय वश) किया है। यह मूल से एक और अधिक नई भ्रान्ति उत्पन्न करने के अतिरिक्त दूर है। इस प्रकार एक ही शब्द अनेक प्राचार्यों द्वारा और कुछ भी परिणाम नहीं होगा ।" अनेक प्रों में व्याख्यात हुभा है। प० बेचरदास जी नायपुत्त का नागपुत्त रूप करने पर ज्ञात या नाग यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि प्राचार्य हरिभद्र और प्राचार्य 'भगवान महावीर जातपुत्र थे या नागपुत्र ?'- हेमचन्द्र प्रादि प्राचीन बहुश्रुत प्राचार्यों ने भी नायपुत्त पोषक मेरे लेख को मोर सकेत करते हुए ५० बेचदरास का ज्ञातपुत्र ही संस्कृत रूप बनाया है और भनेकत्र उनका जी जीवराजजी दोसी ने लिखा है-"कुछ समय पूर्व ज्ञात नदन के रूप मे उल्लेख किया है। ऐसी स्थिति में अनेकान्त नामक जैन पत्र में, एक जैन मुनि ने नायपुत्त व्यर्थ की निराधार एव भ्रान्त कल्पनामो के प्राधार पर का सस्कृत रूपान्तर नागपुत्र करके श्रमण भगवान महावीर हम अपने प्राचीन उल्लेखों व मान्यतामों को सहमा कैसे को नागवशी प्रमाणित करने का यत्न किया है। यह भला सकते है ?" किन्तु दूसरी पोर फासुप पाद का प्रयत्न जैन और बौद्ध साहित्य तथा ऐतिहासिक परम्परा अनेक बहश्रत प्राचार्यों द्वारा 'प्रासुक' रूप किया गया है, की दृष्टि मे सर्वथा प्रमगत है। जब कि बौद्ध त्रिपिटक उसके स्थान पर पडिनजी 'सर्शक' रूप को उपयुक्त बताते ग्रन्थो के मून में 'दीघ तपस्मी निग्गटो नातपुत्तो' के रूप है। ए 'नातपुत्त' शब्द का मडाई-मृतादी का अर्थ क्या प्रभयदेवमूरी ने प्रामुकप्रयोग हमा है और वह माक्षी रूप मे माज भी निविवाद सोजी नहीं किया किन्न पडिनजी इसका अर्थ याचितरूप में पानी त्रिपिटक मे उपलब्ध है, तब प्राकृत जैनागमो भोजी करना चाहते है और वह उपयुक्त भी लगता है। में प्रयुक्त नातपुत्त का सस्कृत रूप नागपृत्त ममझना मोर इमी प्रकार नायपून का अर्थ यद्यपि अनेक बहुश्रुत भगवान महावीर को इतिहास प्रसिद्ध ज्ञातवा से मबधित प्राचार्यों ने ज्ञानात्र किया है किन्तु वश-इतिहामके अध्ययन न मानकर उनका नागवश से सम्बन्ध जोडना स्पष्ट ही में यह ज्ञात होता है कि वह मगत नही है। इसका प्रतिनिराधार कल्पना नही तो और क्या है? माचार्य हरिभद्र पादन मैं अपने पूर्ववर्ती दो निबन्धो में कर चुका है। प्राचार्य पौर प्राचार्य हेमचन्द्र यादि प्राचीन बहुथुन प्राचार्यों ने अभयदेवमगे भी नाय के मस्त हा के बारे में प्रसदिन भी नायतुत्र का ज्ञातपुत्र ही मस्कृत रूप बताया है। और नहीं थे। उन्होंने प्रोपानिक (मूत्र १४) मे पाये हुए 'णाय' प्रनेका उनका ज्ञात-नदन के रूप से उन्लेख किया है। मटके दो किा है-जान या नाग३ । पत. पाय ऐसी स्थिति में पर्थ की निराधार एवं भ्रान्त कल्पनामों का नागकर निराधार नही है। १. उत्तराध्ययन २३।४३ । ६ रत्नमुनि स्मृति ग्रन्य, प्रागम पोर माया महिन,पृ.१०१ २ दशवकालिक २८ ७ रकमुनि स्मृति अन्य प्रागम और व्याख्या सहित, ३. वृहद्वत्ति , पत्र ४६५ । पृष्ठ १०१। २. वही । ४. प्रौपपातिक वृत्ति, पृष्ठ ५० । ८. भोपपातिक १४ वृत्ति, पृष्ठ ५.: जाता इदाकुवंश५. उत्तराष्पयन बृहद्वति, पत्र ४६५। विशेषभूना नागावा-नागवंशप्रसूताः । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गुरुवर्य गोपालदासजी वरैया पं० माणिकचन्द जी न्यायाचार्य इम शताब्दी मे श्रीमान् गुरु गोपालदाम जी बडे किया था । लगन के पक्के धनी थे । अनुभवी गणनीय विशिष्ट विद्वान हो चुके है। मैं मंवत् गुरुजी जैन सिद्धान्त के तो अगाध तलस्पर्शी अधि(विक्रम) १९६४ मे बनारस अध्ययनार्थ गया था उससे कारी पण्डित थे। एक बार त्रिलोकमार पढाते हुए उनसे २० वर्ष प्रथम काशी में ब्राह्मणों में प० बालशास्त्री जी ऊध्र्वलोक का पिनप्टि गणित नही लगा। किन्तु दो दिन बड़े भारी विद्वान् विद्यमान थे । वे व्याकरण, न्यायसाहित्य घोर परिश्रम कर पण्डित जी ने पिनष्टि के रेखागरिणत परिष्कार, काव्य प्रादि विषयों के प्रकाण्ड पण्डित थे। को परिपूर्ण हस्तगत कर लिया और तीसरे दिन हम मभी षड्दर्शनों के पारदृश्वा थे । मैं जब बनारस पहूँचा था तब छात्रो को हस्तामलकवत् स्पष्ट समझा दिया । जिम स्वर्गीय पं० बालशास्त्री जी के शिष्य श्री शिवकुमार जी गणित के लिए महाविद्वान प्राचार्य देशीय पण्डित टोडरशास्त्री, दामोदर जी शास्त्री, सीतागम जी शास्त्री, राम- मलजी मा० ने भी त्रिलोकसार भाषा टीका मे लिख दिया मिश्र जी शास्त्री, तात्या जी शास्त्री, गगाधर जी शास्त्री, है कि यह प्रकरण मेरी समझ में नीका नही पाया है। देवीप्रसाद जी शुक्ल प्रति विद्वान् बनारस मे ख्याति गोम्मटसार, त्रिलोकसार, पंचाध्यायी के तो पण्डित जी प्राप्त थे। ये सब राज्यमान्य महामहोपाध्याय थे। एक से अन्तः प्रवेशी विद्वान् थे ही, जन न्याय के भी प्रकाण्ड एक प्रखर पण्डित थे। इनका परस्पर शास्त्रार्थ बडा रुचि- विद्वान् ५। प्रमाण, प्रामाण्य, प्रमाण फल, स्वत प्रामाण्य कर होता था। परत. प्रामाण्य का मच्चा विवेचन करते थे । उमी प्रकार ५०-५५ वर्ष प्रथम पण्डित प्रवर निःस्वार्थ सेवी गोपालदास जी हा थे। उनके शिप्य पण्डित बन्शीधर जी पण्डित जी ममाज से भेट, दक्षिणा नहीं लेते थे। (बेरनीवासी), प. खूबचन्द्र जी उमरावसिह जी, ५० यद्यपि उनकी आर्थिक स्थिति प्रशस्त नहीं थी फिर भी मक्खनलाल जी, पं० वशीधर जी, (महरौनी), ५० देवकी जैन बन्धुओं से स्वभावत: उनने एक पैसा नहीं लिया। नन्दन जो और मै ऐसे पाठ, दस विद्वान् इस जैन धरा एक बार बम्बई समाज से मार्ग व्यय जो दिया गया था मण्डल को अलकृत कर चुके थे। पण्डितजी को बुद्धि बड़ी उममे दस पाने अधिक प्रा गये थे। वे मनीआर्डर करके पनी थी। वे यद्यपि चोटी बाँध कर, आग्वे पानी से भिगो बम्बई वापिस भेज दिए गए। पण्डित जी यदि चाहते तो कर, घडी में अलार्म लगा कर, व्याकरण न्याय की पुस्तकों ५०.४० हजार रुपये उनको जैन धनिकों से अनायास मिल को गुरु सन्मुख खोलकर एकाग्र बैठकर चार, छ वर्ष तक मकते थे, किन्तु पण्डित जी ने एक पैसा नही लिया। एक न्याय, व्याकरण, साहित्य, धर्मशास्त्र नही पढे थे फिर भी बार एक पण्डित जी को बाहर के दो भाई लिवाने पाये। प्रतिभा नितान्त तीक्ष्ण थी। क्षयोपशम तीव्र होने से वे कुछ गृह कलह के कारण पण्डित जी घर मे कपड़े नही ले व्याकरण, न्याय, साहित्य विषयो मे भी अन्त -प्रवेश कर पाए । जसा मलिन कुर्ता पहने थे, उसी वेष मे चल दिए, लेते थे। अगाध गम्भीर पण्डित वरेण्य बल्देवदास जी से मुझे भी साथ ले गये थे। इटावा पहुँच कर पण्डित जी ने आगरे में पण्डित जी ने कुछ अध्ययन किया तथा अजमेर नवीन दो कुर्ता बनवाए और दूकानदार को मूल्य २ =) मे प० मोहनलालजी पहाड़े साहब के साथ गुरु जी का फौरन अपनी जेब से निकाल कर दे दिए। तत्रस्थ जैन चर्चा पूर्ण सम्पर्क रहा। मागरेमे स्तोक संस्कृत का अध्ययन बन्धु मेषवत् यो ही देखते रहे, कुछ कहते नही बना निः Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गुरुवर्य गोपालदासजी वरया स्वार्थ ज्ञानदानी का प्रक्षुण्ण प्रभाव था। पण्डित जी को प्रष्टसहस्री, श्लोकवात्तिक पर्यन्त न्याय ग्रन्थ पढ़ाए । जैन धर्म प्रभावना, शास्त्रार्थ करना, स्याद्वाद प्रचार का अन्य भी पचासों छात्र न्याय, सिद्धान्त ग्रन्थों को पढ़ते रहे। गाढ अनुराग था । नितान्त घोर परिश्रम करके, परीषहे प० जी जिनवाणी के नितान्त श्रद्धालु थे। कभी कभी थी सह कर उन्हे जैनधर्म की पताका ऊची फहराना अभीष्ट १०८ विद्यानन्द प्राचार्य की कठिन पक्तियो को सुनने के था। इटावा के पण्डित पुत्तलाल जी, चन्द्रसैन जी वैद्य लिए अथवा मेरा अध्यापन परीक्षण करने के लिए पाठनादिग्विजयसिह जी, रूपचन्द्र जी वैद्य आदि उत्साही जैन वसर पर बैठ जाते थे। बन्नो ने तत्त्वप्रकाशिनी सभा स्थापित कर रखी थी। पण्डित जी की तीक्षण प्रतिभा न्यायशास्त्रो मे मन्त. उसके द्वारा जीवनर, टेर, अजमेर मादि अनेक स्थानो प्रवेश कर जाती थी भयोsex प्रवेश कर जाती थी, क्षयोपशम तीव जो था। जिनवाणी पर शास्त्रार्थ किए गए तथा जैनमिद्धान्त की उत्कट प्रभा- की प्रभावना की उत्कट भावना जो थी। गोम्मटसार प्रादि वना की गई। के तो वे अन्र्तामी महारथी विद्वान थे ही। ___ प्राद्य परिचय तीन चार वर्ष तक मोरेना मे किराए के मकान मे जोवनेर (जयपुर स्टेट) के ठाकुर साहब विचार गुरु जी सिद्धान्त ग्रन्थो मे गोम्मटसार, त्रिलोकसार, पञ्चाविमा के अनुरागी थे। पार्यसमाजी विचार के थे। ध्यायी को पढाते थे। और मैं प. वंडर वैशाख मम्बत् १९६८ मे ठिकानेदार रईस ने तत्त्वप्रका- मक्खनलाल जी प्रादि को प्रष्टसहस्री, मार्तण्ड, श्लोक शिनी मभा (इटावा) को निमन्त्रित किया । मुझे भी ठोस वातिक पढ़ाता था। और गुरुजी से सिद्धान्त ग्रन्थों का प्रतिभाशाली, विद्वान् श्री प्रजनलाल जी सेठी ने तार अध्ययन भी वशीधर जी प्रादि के साथ करता था। बड़ा देकर ग्रामन्त्रित किया। तदनुसार मैं चावली से जीवनर आनन्द प्राता था। दिन रात अध्ययन, अध्यापन, शास्त्र. पहुँचा। प० गोपालदास जी, सेठी जी, दिग्विजयसिह जी, चर्चा में ही व्यतीत होते थे । पण्डित जी की तीव्र भावना चन्द्रमन जी मन्त्री वहा प्रथमत शास्त्रार्थ में डटे हुए थे। थी कि विद्यालय उन्नति करे और विद्यालय का निज का बडा मुशोभन प्रबन्ध था, वातावरण सन्तोषक था। भोर के व्याख्यान हुए। गुरूजीकी सुकीति विद्वत्ता व्या- पावन तीव्र भावना अवश्य फलवती होती है। पचायत ख्यान शैली पाण्डित्यपूर्ण थी। मुझे भी व्याख्यान देने का विचारानुसार स्थानीय दिगम्बर पाश्वनाथ जैनमन्दिर के अवसर दिया गया। मुझसे गुरू जी भारी प्रसन्न हुए। विशाल अहाते में ही विद्यालय भवन का निर्माण प्रारम्भ मेरे गले मे बाँहे डालकर गुरुजी ने सामोद प्राग्रह किया हो गया । इस कार्य में पण्डितजी को भारी परिश्रम करना कि अब मै तुमको नहीं छोडगा, माथ ही मोरेना ले पडा। उनके अर्थोपार्जन का कार्य भी शिथिल पड गया। चलगा। प. जी बड़े माहसी, पराक्रमी थे। प्रारम्भ करके हट उनके गाढ स्नेहपूर्ण आन्दोलन को मै नहीं टाल सका जाना उनकी प्रकृति में नहीं था। दो तीन वर्ष मे ही और १५ दिन मे पूज्य भाई जी की प्राज्ञा लेकर मोरेना सिद्धान्त विद्यालय भवन पूर्ण बन गया और नवीन भवन में पहुँच जाना मैंने स्वीकार कर लिया। पठनपाठन चालू हो गया। जेठ मुदी वि० सं० १९६८ को मै मोरेना पहुँचा। उस समय मोरेना विद्यालय की कोत्ति प्रशस्त थी उस समय गुरुजी गोम्मटसार की देशावधि मागला को प्रत्येक विद्यालय के छात्र मोरेना अध्ययन की छाप लगपढा रहे थे। पं0 खूबचन्द्र जी, प० वंशीधर जी, प० वाते थे । यों सं० १९७२ मे मोरेना विद्यालय मे २५ छात्र मक्खनलाल जी, पं. उमरावसिंह जी, प० देवकीनन्दन जी ४ अध्यापक (प० मक्खनलाल जी, ५० वशीधरजी महये प्रधान विद्यार्थी थे। दूसरे दिन गुरुजी ने मुझे न्याया- रौनी। प० जगन्नाथ जी शास्त्री और मैं) नियुक्त थे। ध्यापक नियुक्त कर दिया। मैंने मोरेना मे उपयुक्त छात्रो फिर विद्यालय का कार्य बढ़ता ही गया। गुरूजी ने सर्वदा को प्रमेयरत्नमाला, प्राप्तपरीक्षा, प्रमेयकमल मार्तण्ड, से मुझे प्रधानाध्यापक पद पर प्रतिष्ठित किया । कुछ दिन Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रनेकान्त मै मन्त्री भी रहा। किन्तु प्रबन्ध करने में राग-द्वेप की कलकत्ता में बाबू धन्नूलाल जी अटर्नीके निमन्त्रण पर भनेक झंझटे होती है । मूरजभान जी वकील देवबन्द की सं. १९७२ में गए थे। तब भी पण्डितजी मुझे साथ ले प्रेरणा से एक जैन छात्र मुझे निकालना भी पड़ा जिसका गए थे । कलकत्ते के सैकडो उद्भट विद्वान् सभा मे प्रामत्रित कि मुझे अद्यापि अनुताप है। अत: पठन-पाठन ही मेरी थे। पण्डितजी ने बडी विद्वत्ता के साथ जिनागमोक्त द्रव्य, प्रकृति के अनुकल पड़ा। विद्यालय के अंगभूत छात्राश्रम, गुण, पर्यायों तथा अनेकान्त का प्रतिपादन किया। १० मुपरिन्टेन्डेन्ट, रसोइया. भोजनशाला की सुव्यवस्था भी सतीशचन्द्र जी डी. लिट् , प्रमथनाथ न्यायचक्रवर्ती आदि कर दी गई, यो मोरेना विद्यालय का तदानीन्तन अत्यधिक २०० वैष्णव ब्राह्मण चूड़ामणि विद्वानो ने प० जी को का नाम काम बढ़ गया था। १०० छात्र थे ७ अध्यापक न्यायवाचस्पति' पदवी से अलकृत किया । इसी प्रकार अजमेरमे हजारो जैना जैन जनता के सन्मुख बम्बई परीक्षालय की वार्षिक परीक्षाएं होती थीं। स्वामी श्रद्धानन्दजी के साथ पण्डितजी का शास्त्राथं हुआ। फल १० प्रतिशत निकलता था। विद्यालय में पढ़कर प० पडितजी की अकाटय यक्तियो के सम्मुख स्वामी जी की वंशीधर जी, पं० मक्खनलाल जी ने प्रष्ट सहस्री में अच्छे युक्तियां निर्बल रही। उस समय "सरस्वती" पत्र के नम्बर प्राप्त किए थे। पुनः अग्रिम वर्ष नोकवातिक मे सम्पादक महावीर प्रसाद जी द्विवेदी अादि प्रौढ विद्वानो ने भी परीक्षा देकर उत्तीर्णता प्राप्त कर ली । अत्यन्त प्रसन्न स्वकीय प्रसिद्ध पत्रिकामो मे यही टिप्पणी लिखी थी कि होकर गुरुजी ने १० मक्खनलाल जी पोर वशीधर जी का जनो की ओर से विशेष प्रबल यक्तिया दी गई थी। अजन्यायालकार पदवी से विभूपित किया था उस दिन विद्या- मेरमें मेरा भी प० यज्ञदत्तजी न्यायशास्त्री से सस्कृत भाषा लय मे विशेष अधिवेशन किया गया था। और पण्डितजी मे दो दिन शास्त्रार्थ हपा था । जैनधर्म की प्रकाण्ड प्रभाने मुझे अभिनन्दित किया तथा वेतन मे १०) मासिक बना हई।। वटि की। हित बढ़ाया। तथा स्वपुरुषार्थ से जिनवाणी पण्डितजीकी समय पर सूझ बड़ी तीक्ष्ण थी । प्रतिष्ठा, की प्रभावना देखकर अनेक पुत्र जन्मो से भी अधिक मेला, दशलक्षण, शास्त्रसभामो मे भी तत्त्वो का प्रतिपादन प्रात्मीय हर्ष का अनुभव किया, अपने लगाए हुए वृक्ष के अन्तःप्रविष्ट होकर करते थे। जोबनेर, अटेर, भिण्ड, मधुर फलो का पास्वादन कर पण्डित जी ने हर्प से गद्गद् मोनागिर, दिल्ली प्रादि मे गम्भीर सुशिक्षित वकील, होकर ये शब्द कहे कि-"प्राज मुझे परम हप है कि वरिष्टर, दार्शनिक प्रादि विद्वत्समाज में प० जी का धाराविद्यालय में उच्चकोटि के न्याय और सिद्धात के अध्येता, प्रवाही व्याख्यान गम्भीर विद्वत्तापूर्ण होता था। वे अध्यापक विद्यमान है। जिनागम को दिपाबने वाले सूर्य थे। बुद्धि वैभव बम्बई मे माधौबाग मे पडित जी का सार्वजनिक गुरुजी जैनधर्म प्रभावनार्थ बाहर भी जाते थे तो भाषण हुमा । ८ हजार विचारशील जनता उपस्थित थी। मुझे भी साथ रखते थे। कई स्थानो पर गर्विष्ठ विद्वान् ईश्वरदास, अनेकात द्रव्यनिरूपण विषयो पर प० जी २ पा जाते थे जो कि कठिन मस्कृत भाषा मे भाषण करते घण्टे तक बोलते रहे। गुणी सज्जनो ने पण्डितजी को हए पूर्व पक्ष उपस्थित कर देते थे। वे दक्षिण महाराष्ट्र "स्याद्वादवारिधि" पदवी प्रदान कर कृतज्ञता प्रगट की। सभा के सभापति होकर बेलगाव गये थे। उनके साथ परम पण्डित जी स्वल्प सन्तोषी थे। प्राशा रहित थे। प्रभावक मान्य ५० धन्नालाल जी भी थे। ५० जी मुझे प्रतिभाशाली महापण्डित थे। ५० जी के जीवनकाल में भी साथ ले गये थे। वहा उनका सभापति भाषण नितान्त सिद्धान्त विद्यालय मोरेना का भारी मभ्युदय हमा। आज गम्भीर हा था। दक्षिण के जैन भाइयो की गुरुजी पर कल जो पारातीय विद्वान दृष्टिगोचर हो रहे है सब प. तीव्र श्रद्धा थी। हजारो दाक्षिणात्य जैनबन्धु धनिक उनके जी की शिष्य प्रशिष्य परम्परा मे ही अन्तनिहित है।५० भक्त हो गये थे। चरणस्पर्श करते थे। जी ने जैन समाज का बड़ा भारी उपकार किया है । जैन Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गुरुवर्य गोपालदासजी वरया समाज उनके उपकारों से अनृण नही हो सकता है । उनको थे। एक दो बार पेशकार ने कुछ लञ्चा ले ली थी। प. स्नेहपूर्ण कृतियों को हम स्मरण कर उनके चरणो मे जो उस पर अत्यधिक कुपित हुए पुनः उसको पृथक कर श्रद्धाजलि समर्पित करते है। दिया। १० जी का राज्य में विशेष प्रादर प्रभाव था। एक बात प्रकरणान्तर की कहानी है। मुझे पं० ग्वालियर के महाराज साहब ने पण्डित जी को दरबारी दुर्गादास जी, जीवमनाथ झा, हरिवश ओझा, सहदेव झा, पोशाक देकर सत्कृत किया था। राज्य के तदानीन्तर अम्बादासजी शास्त्री, रामावतार पाण्डेय, आदिवष्णव पमारसाब तो गुरुजी के मित्र थे तथा शिक्षा मन्त्री एच. विद्वानो से सिद्धान्तकौमुदी, मनोरमा शब्देन्दुशेखर, व्युत्पत्तिः एम बुल (अग्रेज) पण्डितजी को मान्य करते थे। यो राज्य, वाद, शक्तिवाद, काव्यप्रकाश, रसगगाधर, सामान्य निरुक्ति, राष्ट्र प्रजाजनो मे पण्डितजा का पुस्कल पादर सम्मान था। सिद्धान्तलक्षण, साधारण, सन्प्रति पक्ष प्रादि वैष्णव ग्रन्थी स्थानीय रईस ला० रामजीवनजी (सभापति), लाला को पढ़कर जो आनन्द प्राप्त हया था। गुरुजी से धर्मशास्त्र । मिट्ठनलालजी (व्यापारी), ला वशीधरजी चौधरी, सेठ के ग्रन्थ पढकर वह सब प्रकाण्ड सुख के सम्यग्ज्ञान रूप से गिरवरजी, छीतरमलजी जैन, सभी प्रतिरिठत नागरिक परिणत हुप्रा । यह सब गुरु जी के प्रसाद से प्राप्त हुग्रा सज्जन पं. जी को उच्चासन देते थे। ' विद्वान् सवत्र पूज्यते" "तेभ्यो गुरुभ्यो नम." गुरुजी को जैन ग्रन्यो के ही अध्ययन प. जी ने सम्मेदशिखरजी, जैनबद्री, सोनागिरिजी, अध्यापन का पक्ष था। मुक्तागिरिजी आदि अनेक तीर्थों की भावभक्ति पूर्ण वन्दपुज्य प० वर्णी जी महाराज गणेशप्रसाद जी (गणश- नाए की थी। धर्म अर्थ, काम का परस्परविरोध से सेवन कोति मनिराज) १० महेन्द्रकुमार जी, ५० दरबारीलान करते थे। न्यायपूर्वक प्राजीविका करते थे। अल्प प्रारम्भ जो कोटिया आदि विद्वानो ने भी अवच्छेदकावच्छिन्न परिग्रह उनको रुचिकर था। संवेदी निवदी थे। फक्किकानों, परिष्कार ग्रादि पढ़ाने में भारी श्रम किया पण्डितजी के एक कौशल्या लड़की थी। भाई माणिकहै। मैंने भी १५ वर्ष घोर अध्यवसाय कर वैष्णव न्याय, चन्द्र एक लडका था। दो पौत्र थे। पण्डितानी, पुत्रवधू, व्याकरण, साहित्य के अध्ययन में अजमेर, जयपुर, मथुग, पौत्र, नातिनी २ यो छोटा सा ही परिवार था । मोरना मे काशी मे समय यापन किया है किन्तु इनमे अमृताब्धि प्राड़त की दुकान की। साधारण वस्त्र भूपावेप था। विलोडन कर भी प्रवाल ही प्राप्त हुआ। पण्डित जी का पठन-पाठन चर्चावार्ता, शङ्का समाधान हा गोम्मटसार, राजवात्तिक, श्लोकवात्तिक ग्रन्थो में व्याख्यान, लेख लिखना, यही रात्रि दिवसीयचर्या थी। पर्याप्त अमृतसर्वस्व मुझे प्राप्त हुमा । अत. मस्कृताध्ययन सात्त्विक वृत्ति के जैन पत्रो के सम्पादक भी रह चुके थे। करने वाले छात्रों से मेरा साग्रह निवेदन है कि वे अल्प उम समय पंडितजी के लेखो का भारी प्रभाव था। सार ग्रन्थों में अधिक श्रम नहीं कर जैन वाइमय जैनन्याय निर्भीक होकर पागमोक्त तत्वो का प्रतिपादन करते थे। काव्य ग्रन्थो मे परिश्रम करे। जिनसे ठाम विद्वत्ता के साथ वे किमी धनिक के प्रभाव या चादकारिता के प्रसङ्ग मे स्वपर कल्याण करते हए घोर परिश्रम को सफल कर नहीं पडे। मके । "तद्धि जानन्ति तद्विदः" न्याय पक्ष अनुमार वे धनिको को भी भत्सित कर शासक देते थे। अन्तरग मे दयालुता, धार्मिक स्नेह, समुद्र तरगित पण्डितजी महोदय गोपाल सिद्धान्त विद्यालय के तो रहता था । पण्डितजी जैन समाज के प्राधार स्तम्भ थे। मर्वागीण शासनकर्ता थे ही। स्थानीय म्युनिसिपल्टी के मे नि स्वार्थ उपकारी, धुरन्धर विद्वान् भी काल कवलित भी कमिश्नर थे तथा स्थानीय पचायती बोर्ड के भी मजि- हो गए । “यमम्य करुणा नास्ति कर्तव्यो धर्म सचयः ।" स्ट्रेट रह चुके थे। वे सत्य और न्याय अनुसार निर्णय देने (जैन मन्देश मे साभार) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर पं० श्रीपाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल एम. ए. पी-एच. डी. १५वी शताब्दी मे भट्टारक सकलकोति के आकर्षक अबाईदाम, अनन्तदास, वल्लभदास एवं विमलदास । पुत्रियां एवं सेवाभावी व्यक्तित्वसे बागड (राजस्थान) एव गुजरात थी अमरबाई, भगनीबाई एव वेलबाई। इस प्रकार प. प्रदेश के साधु एव भावक दोनो ही वों में साहित्य के प्रति श्रीपाल बहु कुटुम्ब वाले विद्वान थे। अद्भत प्रेम उत्पन्न हो गया था। सकलकीति स्वय ने तो कवि ने अपने पदों एव गीतों मे भ. अभयचन्द्र, भ. एक विशाल साहित्य की रचना की ही थी किन्तु अपने शुभचन्द्र एव भ. रत्नचन्द्र के गुण गाये हैं इससे ज्ञात होता शिष्य प्रशिष्यो में भी साहित्य सेवा के भावो को कूट-कूट है कि उन्होंने अपने जीवन में उक्त तीनों भट्टारकोका समय कर भर दिया था। यही कारण है कि उनके पीछे होने देखा था। इन भट्रारकों के सम्बन्ध मे गीत लिखकर कवि वाले प्रायः सभी भट्टारको एवं उनके शिष्योने खूब साहित्य ने एक अच्छी परम्परा को जन्म दिया। इनके पदों एव रचना की। इनमे ब्रह्म जिनदास, भ० ज्ञानभूषण, भ. शुभ- गीतो में ऐतिहासिक सामग्री भरी पड़ी है और कितनी ही चन्द्र, भ. रत्नकीति, कुमुदचन्द्र प्रादि के नाम विशेषरूप से नवीन जानकारी उपलब्ध होती है। कार्य की कृतियो को उल्लेखनीय है । साधूवर्ग से प्रभावित श्रावकोंने भी साहित्य हम निम्न भागो मे विभक्त कर सकते हैसेवा के इस अनुष्ठान मे पूरा योग दिया और कितनी ही १ऐतिहासिक गीत, २. तीर्थवन्दना गीत, ३. स्तुति महत्पूर्ण रचनाए लिखकर समाज को एक नया मार्ग दर्शन परक पद, ४ एव श्रावकाचार प्रबन्ध । दिया । प्रस्तुत लेख में ऐसे ही एक श्रावक कवि का परि ऐतिहासिक गोतचय दिया जा रहा है-- कविवर श्रीपाल ने कितने ही ऐतिहासिक पद लिखे __कविवर श्रीपाल १८वी शताब्दी के विद्वान् थे । गुज है । ये पद तत्कालीन भट्टारको, श्रावकों एवं संघ रात व सूरत नगर इनका जन्म स्थान था जो सभवत। पतियो की प्रशसा मे लिखे गये है। इन गीतों के अध्ययन हेमतर के नाम से भी विख्यात था। इसी नगर में रहते थे। से भट्टारकों के व्यक्तित्व एव लोकप्रियता पर अच्छा प्रभाव कवि के पूर्वज पितामह बणायग एव पिता जीवराज जो पडता है। जैन कवियो ने इस प्रकार के किसी साधु एव सिंपरा जातिके श्रावक थे । श्रीपाल अपने पिता के लाडले शावक के व्यक्तित्व पर बढ़त कम साहित्य लिखा है। पुत्र थे इसलिए लालन-पालन की पोर भी विशेष ध्यान भ. रत्नकीति एव कमदचन्द्र के ग्राम्नाय में होने वाले दिया गया था। प्रारम्भ से ही अध्ययन की पोर विशेष साधनो एव श्रावक विद्वानों ने विशेष रूप से लिखे है । रुचि होने के कारण ये साधुग्रो की सगति में अधिक रहने लेखक को ऐसे १०० से भी अधिक गीत एवं पद प्राप्त हो लगे । पहले उन्होंने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्र श, गुजराती। चके है। श्रीपाल द्वारा भ. अभयचन्द्र के प्रति लिखे हए दो एवं राजस्थानी भाषा का अध्ययन किया एवं उनके पदों को पढियप्रवचनो का लाभ उठाया। राग धन्नासी श्रीपाल का किस प्रायु में विवाह हुअा यह तो उनकी चन्द्रवदनी मृगलोचनी नारि । रचनायो एव प्रशस्तियो से ज्ञात नही हो मका है । किन्तु अभयचन्द्र गछ नायक वंदो सकल संघ जयवारि ॥१॥ एक प्रशस्ति के अनुसार उनकी स्त्रीका नाम महत्तलदे था। मदन महामद मोडेरा मुनिवर, गोयमसम गुणषारी। इसी प्रशस्ति मे उनके ६ पुत्रो एवं तीन पुत्रियो के नाम क्षमावंतवि गंभीर विचक्षण, गयो गुण भंडारी ॥२॥ भी गिनाये गये है पुत्रों के नाम थे प. परवई, अमरसी, निखिल कलानिषि बिमल विद्यानिषि विकटवादी हल हारी। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर पं० श्रीपाल-म्यतित्व एवं कृतित्व रम्य रूप रंजित नर नायक, सज्जन जन सुखकारो॥३॥ प्रावो सची सह संगे सुन्दरी मिली। सरसती गछ श्रृंगार शिरोमणि, मलसंघ मनोहारी।। वांविर्य श्री शुभचन्द्र मननी रली ॥३॥ कुमदचन्द्र पर कमल दिवाकर, श्रीपाल तुम बलिहारी॥४ पच महावत पंच सुमति धारी। २) प्रण्य गुपति गुरु अरेवि चारी॥२॥ धान प्रानंद मन प्रति घणो रा, कई वरतपो जय जयकार। सहस अष्टावस शील गण सागर । अभयचन्द्र मनि प्रावया रा, काई सूरत नयर मझार रे ॥१ पुण्य प्रतापे ए प्रगटयो प्रभाकर ॥३॥ घरे घरे उएव प्रति घणाए, काई माननी मगल गायरे । मूलसंघ मडण मनिवर महन्त । अग पूजा ने उवराणा रा, कांई कंकुम पगदे बडाय रे ॥२ सरसति गछ माहि गोर सोहंत ॥४॥ श्लोक वखाणो गोर सोभता रे, वाणी मोठी अपार सार रे। अभयचंद ने पारि प्रानंदकारी। धर्मकया ये माणीने मतिबोधे रा, जतिवर जगमाहि जपो जे कारी॥५॥ कोई कुमतिनो करे परिहार रे ॥३ परमत वादीगज केसरी कहोर । सवत सतर छलोतरे, काई हरजी मेमजी नी दूंगी भास रे। मकल सिद्धान्त अंब उवधि-नहीए ॥६॥ रामजी ने श्रीपाल हरषी पाए, मनमथ रूपे बुद्ध प्रभयकुमार । काई बेलजी कुंअरजी मोहनकामदे ॥४ शील सुदसण नित ममे श्रीपाल ॥७॥ गौतम समगोर सोभतारा, कांई बूषे जपो अभयकुमार रे। शुभचन्द्र के पश्चात् भ. गमचन्द्र भट्टारक गादी पर सकल कला गुण मडणोरा, काई देवजो कहे उदयो उदार रे॥ बैठे । कवि ने इनका समारोह देखा था। वे इनसे भी उक्त दोनो पदों में भ अभयचन्द्र के विषय में कितने अत्यधिक प्रभावित थे । एक गीत में कवि ने उनके उनम तथ्यो का पता लगता है कि वे भ. कुमुदचन्द्र के शिष्य थे चरित्र की निम्न प्रकार प्रशमा की हैनथा अाकर्षक व्यक्तित्व वाले थे। मवत् १७०६ में वे प्रावो रे सखी चद्रवदन गुणमाल । जब एक बार मूरत नगर पधारे थे तो समाज ने उनका मूरिवर रत्नचन्द्र को वधाम्रो मोतीपर भरे थाल ॥१ हार्दिक स्वागत किया था। सूरत नगर में उस समय हरि शोल प्राभषण अंग मोहे सयम विवश प्रकार । जी, मेमजी, वेलजी, कुवर मोहनदास समाज के प्रतिष्ठित अष्टाविंशति मलमुणोत्तम धर्म सदा वश धार ॥२॥ व्यक्ति थे । स्वय कवि भी इस स्वागत समारोह में मम्मि- परिसा सहे निज अंगे रगं, करे परिग्रह त्याग । लित हुअा था । श्रीपाल कहे यह पंचम काले, प्रगट करे शिव भाग ॥३ भ. शुभचन्द्र अपने समय के अच्छे विद्वान् थे : भ. मकल- भट्टारकों के अतिरिक्त मघपति वाघ जी एव सधपति कोति की परम्परा में होने वाले भ. विजयकीति के शिष्य हरिजी गीत भी लिखे है व भद्रारको के गीतो में प्रमुख भ. शुभचन्द्र से ये भिन्न है। प्रस्तुत शुभचन्द्र भ. अभयचन्द्र श्रावकों के नामो का उल्लेख किया है। के शिष्य थे । कवि इनकी विद्वता एव मिद्धान्त ज्ञान पर विशेष रूप से मूग्ध था। इनकी प्रशमा म भा कवि न ५ कवि ने एक बार सपरिवार मागीतंगी की यात्रा की गीत लिखे है। एक गीत मे संवत् १७२१ मे इनका भट्टारका थी जिमका मक्षित वर्णन एक गीत में किया है। इम मघ पद पर अभिषेक होने का वर्णन भी दिया है का नेतृत्व भ. रत्नचन्द्रने किया था मघ मूरतनगरसे रवाना संवत सतर एक्कीस रे, जेठ वदी पडवे चग। हुप्रा था नथा बारडोली, बोडोड प्रादि होता हा मांगी जय जयकार करे नरनारी, ढाले कलश उत्तंग रे ॥१६॥ नगी पहुंचा था। वहा उमने कितने प्रकार के उन्मव भी धर्मभूषण सूरी मंत्रज प्राप्पा, थाप्या की शुभचन्द्र। किये थे । अभयचन्द्र ने पारि विराजि, सेवे सज्जन वृन्द रे ॥२०॥ मागी तुंगी पूजी चालिए रे, वीन चौथे गणवान । शभचन्द्र के सम्बन्ध में ही एक प्रौर पद देखिये- गीत गाये वर कामिणी रे, जय जय बोले बाण । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त जय जय बोले वाण बदे सहलोक, अपनो फरो थाप्यो फो। संघपति राम तिने उपदे से, कहे सु श्रावकाचार रे। अंगी परे उछव करे सह कोय, पीपल नार प्राव्य सुख होय ।। सहेट वंस सिरोमणि, सोहे जीवराज सुत सार रे। (३) स्तुति परक पद श्रीपाल विवध वंदर वाणी, सांभलता जयकार रे॥ श्रीपाल कवि ने कुछ पद भी लिखे है जो स्तुति परक समयहै तथा वर्णनात्मक हैं। पद बड़े हैं और विभिन्न राग- कवि ने अपने समय के बारे मे बहुत कम उल्लेख रागनियों में लिखे गये है इनमे नेमिनाथ गीत, प्रादीस्वरनु किया है। केवल ५ गीतों एवं प्रशस्तियों में विभिन्न घटगीत. बलभद्र की वीनती, विरहमान विनती प्रादि के नाम नामों के समय का संकेत किया है। इनमें सर्व प्रथम सं० विशेषत: उल्लेखनीय है। ये गीत एवं भाव, भाषा एवं १७०६ की घटना है जब भ. अभयचन्द्र सूरत नगर में शंली की दृष्टि से विशेष उच्चस्तर के नहीं है। पधारे थे और समाज ने उनका पूरे उत्साह से स्वागत श्रावकाचार प्रबन्ध किया था। संवत् १७२१ मे भ, शुभचन्द्र का एव सवत् यह कवि की सबसे बड़ी एवं मौलिक कृति है। इस १७३४ में भ. रत्नचन्द्र के महाभिषेक का भी संक्षिप्त कृति मे इसका दूसरा नाम उपासकाध्ययन भी दिया हुआ पाखों देखा हाल दिया है। सवत् १७४८ की जो एक है। ग्रन्थ की एक प्रति भद्रारकीय शास्त्र भण्डार डूगरपुर प्रशस्ति उपलब्ध हई है उसमे भ. रत्नचन्द्र के साथ साथ में संग्रहीत है। इसमे ६ अध्याय है। प्रथम अध्याय में अपने परिवार के भी पूरे नाम दिये है और अपने पुत्र एव सम्यक्त्व एव मिथ्यात्व का वर्णन है। दूसरे अध्याय में पुत्रियों की संख्या एवं उसके नाम भी दिये है इस प्रशस्ति सात तत्व, नव पदार्थ एव गुगणस्थान चर्चा है। तीसरे में से पता चलता है कि संवत् १७४८ में कवि अपने पूरे सम्यग्दर्शन के पाठ अगों का, सप्तव्यसनो तथा शिक्षाव्रत परिवार के साथ थे । उक्त कुछ लेखों से अनुमान लगाया एवं गुणवतों का वर्णन किया गया है। चौथे अध्याय में जा सकता है कि श्रीपाल ने १७वी शताब्दी के अन्तिम प्रतिमानो का वर्णन चलता है जो अन्तिम अध्याय (छठा) भाग मे जन्म लिया था और स. १७५० के करीब वे तक चलता है। बीच बीच में कथाए भी दी हुई है। जीवित रहे थे। इस प्रकार कवि १७-१८वी सदी के एक प्रबन्ध में चौपाई, दूहा, रागदेगारव, दूहाराग भैरव, अच्छे विद्वान थे। दूहाराग, प्रामाउरी, चाल बारामासनी, ढाल मुक्तावली, अब तक कवि की निम्न रचनार उपलब्ध हो चुकी गग मारू, केदारो, गौडी, मल्हार आदि रागो का प्रयोग है। ये सभी हिन्दी मे है और उनकी प्रतिया डूगरपुर एव किया गया है। इसकी रचना हूंबड वश में उत्पन्न होने रियमदेव के शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत है। इन कृतियो के वाले मधपति गम के प्राग्रह वश की गई थी। इसका नाम निम्न प्रकार हैरचनाकाल नही दिया गया है लेकिन एक प्रशस्ति म १. श्रावकाचार प्रबन्ध, २ शातिनाथना भवांतरनुगीत, भट्रारक शुभचन्द्र का उल्लेख किया गया है इसमें यह ३. पद. ४. बलिभद्र स्वामिना गीत, ५. अभयचन्द्र भट्टारक स्पष्ट है कि यह मंवत् ११२१ के पश्चात् लिखी गई थी। , स्वागन, ६. रत्नचन्द्र स्तवन, ७. गीत (श्री शुभचन्द्र कुल कृति के प्रारम्भ में लिखी हई एक प्रशस्ति पढिए-- वश दिवाकर), ८ रत्तचन्दना गीत, ६. सधपति वाघजी सरस्वती गच्छ सिरोमणी, कांइ बलात्कार गणबार रे। गीत, १०. मंधपनि हीर जी गीत, ११. श्रीपाल प्रशस्ति, अभयचन्द्र सूरी सरह हवा, कांद विद्या गुण दातार रे । १२.१४. मुनि शुभचन्द्र गीत, १५. शुभचन्द्र हमची, तस पद पंकज वसि कसं, कांइ श्री सुभान्द्र मुनीन्द्र रे। १६-१६. पद, २०. गुरूगीत (अभयचन्द्र स्तवन), २१. गच्छ नायक गणे पागलो, काइ सेवित मज्जन बन्द रे। गर्वावलि, २२. बलभदनी वीनती, २३. नेमिनाथ की एह गुरना पद अनुसरी, कहयो पंच मिथ्यात विचार रे। वीनती, - ४. विरहमान वीनती, २५. प्रादिनाथकी धमाल, सांभले समकति उपजे, होय निर्मल भवपार रे । २६. भरतेश्वग्नु नवविधाननु गीत, २७. नेमिनाथ गीत, हूबंड वंश बडी साखा रा, जीवा कुल शृंगार रे। २८. प्रादीश्वरन गीत, २६. गीत । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा और गो. वरैया जन्म शताब्दी समारोह देहली में दि० ११ से १६ मई तक पचकल्याणक प्रतिष्ठा श्री लाला राजकृष्ण जी जैन की ओर से सम्पन्न हो रही है। इसी समय के लगभग दि १७-१८ मे यहा श्री १० गोपालदास जी वरया जन्मशताब्दी समारोह बड़े पैमाने पर होने जा रहा है। उसमें दिल्ली के प्रतिष्ठित महानुभावो के अतिरिक्त भारत सरकार के अनेक मश्री गण और उरुचकोटि के विद्वानो के सम्मिलित होने की प्राशा है। उसी समय 'वरया स्मृति ग्रन्थ' भी भेट किया जावेगा। ऐसे पनीत अवसर पर विद्वानो को उममे मम्मिनित होना अत्यन्त प्रावश्यक है। वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक १०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता १५०) श्री जगमोहन जी सरावगी, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्रकुमार जैन, ट्रस्ट १५०) , कस्तूरचन्द जी प्रानन्दीलाल जी कलकता श्री साहू शीतलप्रमाद जी, कलकत्ता १५०) , कन्हैयालाल जी मीताराम, कलकत्ता ५००) श्री रामजीवन मगवगी एण्ड सम, कलकत्ता १५०) , ५० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता ५००) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता १५०) , मालीराम जी सगवगी, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता १५०) । प्रतापमल जी मदनलाल पाड्या, कलकत्ता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता १५०) , भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जी झाझरी, कलकत्ता १५०) , शिखरचन्द जी सरावगी, कलकत्ता २५१) श्री रा० बा० हरखचन्द जी जैन, रांची १५०) , सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ जी कलकत्ता २५१) श्री अमरचन्द जी जैन (पहाडया), कलकत्ता १० ) , मारवाडी दि० जैन समाज, व्यावर २५१) श्री स० मि० धन्यकुमार जी जैन, कटनी १०१) ,, दिगम्बर जैन समाज, केकडी २५१) श्री सेठ सोहनलाल जी जैन, १०.) . सेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई न० २ मससं मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता १०१) , लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागज दिल्लं २५१) श्री लाला जयप्रकाश जी जैन १०१) , सेठ भंवरीलाल जी बाकलीवाल, इम्फाल स्वस्तिक मेटल वर्क्स, जगाधरी १०१) ,, शान्तिप्रसाद जो जैन, जैन बुक एजेन्मी, २५०) श्री मोतीलाल होराचन्द गाधी, उस्मानाबाद नई दिल्ली २५०) श्री बन्शीवर जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता १०१) ,, मेठ जगन्नाथजी पाण्रया झमरीतलया १५०) श्री जगमन्दिरदास जी जैन, कलकत्ता १०१) , सेठ भगवानदास शोभाराम जी सागर २५०) श्री सिंघई कुन्दनलाल जी, कटनी (म.प्र.) २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता १०१) .. बाबू नपेन्द्रकुमार जी औन. कलकता २५०) श्री बी० प्रार० सी० जन, कलकत्ता १००) , बद्रीप्रसाद जी प्रात्मागम मो, पटना २५०) श्री रामस्वरूप जी नेमिचन्द्र जी, कलकत्ता १००) , रूपचन्दजी जैन, कलकत्ता १५०) श्री बजरगलाल जी चन्द्रकुमार जी, कलकत्सा | १००) , जैन रत्न सेठ गुलाबचन्द जी टोंग्या १५०) श्री चम्पालाल जी मरावगी, कलकत्ता Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन R. N. 10591/62 सभी ग्रन्थ पौने मूल्य में (१) पुगतन-जैनवाक्य-मूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थो की पद्यानुक्रमणी, जिसके माथ ४८ टीकादिग्रन्थो मे उद्धृत दूमरे पद्यो की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। मब मिलाकर २५३५३ पद्य -वाक्यो की सूची। सपादक मुख्तार थी जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट् की भूमिका (Introduction) से भूपित है, शोध-खोज के विद्वानोके लिए अतीव उपयोगी, बडा साइज, सजिल्द १५.०० (२) प्राप्त परीक्षा--श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तो की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक मुन्दर, विबेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८.०० (३) स्वयम्भूस्तोत्र-ममन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित ।। ... २-०० (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, मानुवाद और श्री जुगल किशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द-सहित । (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड–पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर आध्यात्मिकरचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १.५० (६) युक्यनुशासन- तत्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हया था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्ताधनादि से अलंकृत, सजिल्द । ... ७५ (७) श्रीपुरपाश्र्वनाथस्तोत्र-मानार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ७५ (८) शामनचतुस्थिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकोति की १३वी शप्तानी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ७५ (६) समीचीन धर्मशास्त्र--स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । ... ३-०० (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति सग्रह भा० १ संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियो का मगलाचरण महित अपूर्व संग्रह उपर्यगी ११ परिशिष्टो की पोर प० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक माहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना में अलकृत, मजिल्द । (११) ममाधितन्त्र और दृष्टोपदंश-अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका महित (१२) अनित्यभावना-प्रा० पद्मनन्दीकी महत्वका रचना, मुस्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित २५ (१३) तत्वार्थसूत्र--(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्यास्या से पुक्त। ... २५ (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैनतीर्थ । (१५) महावीर का सर्वोदय तीर्थ १६ पैसे, (५) समन्तभद्र विचार-दीपिका १६ पैसे, (६) महावीर पूजा २५ (१६) बाहुबली पूजा--जुगलकिशोर मुख्तार कृत २५ (१७) अध्यात्म रहस्य-प० पाशाधर की मुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । (१८) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति मग्रह भा २ अपभ्र श के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोकी प्रशस्तियो का महत्वपूर्ण सग्रह । ५५ ग्रन्थकागे के ऐतिहासिक प्रथ-परिचय और परिशिष्टो सहित । स. १०१रमान्द शास्त्री । सजिल्द १२.०० (१६) जैन साहित्य पोर इतिहास पर विशद प्रकाश, पष्ठ मख्या ७४० सजिल्द (वीर शासन-सघ प्रकाशन ५.०० (२०) कसायपाहुड सुक्त--मूल ग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिपूत्र लिखे। सम्पादक प हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो मोर हिन्दो अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पाठो में । पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । ... .. २०.०० (२१ Reality मा० पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अग्रेजी मे मनुवाद बड़े प्राकार के ३०० पृ. पक्की जिल्ट ६.०० प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपाणी प्रिटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित। ४-०० Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Bকান। 赛决赛来来来派派来来来来来来来来来来来赛赛球赛 ※※※※※※※※※ - 克力: 来来来来来来来来来来来来来来来来来来来 That I to the cua (gam) समन्तभद्राश्रम (बोर-सेवा-मन्दिर) का मुखपत्र Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची अनेकान्त के ग्राहकों से विषय पृष्ठ क्रमांक अनेकान्त के जिन प्रेमी ग्राहको का वार्षिक मूल्य प्राप्त नहीं हुआ है। उन्हें चाहिए कि वे २० वर्ष का १. ऋषभ जिन स्तोत्रम्-मुनि श्री पद्मनन्दि ४६ | वार्षिक शुल्क छह रुपया मनीग्राईर से भिजवा दे । २. अलोप पार्श्वनाथ प्रमाद-मुनि कातिमागर ५१ अन्यथा अगला अक वी० पी० से भेजा जावैगा, जिममे ३. देवगढ का शान्तिनाथ जिनालय ८५ पंमा वी०पी० ग्वचं का देना होगा। प्रागा ही नहीं प्रो. भागचन्द जी जैन एम. ए. किन्तु विश्वास है कि प्रमी पाठक वार्षिक मूल्य भेज कर ४. श्री अनरिक्ष पाश्वनाथ पनली दिगम्बर जैन अनुगृहीत करेंगे। मन्दिर शिरपुर-नेम बन्द धन्नमा जैन टरवस्थापक 'अनेकान्त' ५. कैवल्य दिवग एक सुझाव-मुनि श्री नगगज ७४ घोरसेवामन्दिर २१, दरियागंज, दिल्ली ६. महावीर और बुद्ध के पारिपाश्विक भिक्ष भिक्षणिया--निधी नगराज ७ गजा श्रेणिक या बिम्बमार का प्रायुप्यकाल - । प०मिलापचन्द कटारिया ८. पंडित भगवतीदास कृत वैद्यविनोदना० विद्याधर जोहगपूरकर वीरमेवामन्दिर का पुस्तकालय अनुमन्धान से सम्बन्ध ६ भारतीय ज्ञानपीठ द्वाग १९६६ का पुरस्कार रखता है। अनेक शाधक विद्वान अपनी थीसिम के लिए घोपिन-लक्ष्मीचन्द जैन भारतीय ज्ञानपीट ६१ / उपयुक्त मंटर यहा से मगहीत करके ले जाते है। मचा१०. साहित्य-समीक्षा-परमानन्द शास्त्री लक गण चाहते है कि वीग्मेवामन्दिर की लायब्रेरी को पौर भी उपयोगी बनाया जाय तया मुद्रित और अमुद्रित शास्त्रों का अच्छा मह किया जाय । अन. जिनवाणी क प्रेमियो ग हमारा नम्र निवेदन है कि वे वीरसेवामन्दिर सूचना लायत्रंगे को उच्च कोटि के महत्वपूर्ण प्रकाशित एव हस्त. लिसित अन्य भेट भेज कर नथा भिजवा कर अनुगहीन इम अक के दूसरे प्रेम में छपने के कारण शुरु दो। फार्मों के नम्बर १ मे १६ तक छा गये है। उनके स्थान | करे। यह मस्या पुरातत्व और अनुसन्धान के लिए प्रमित है। पर ४६ ६४ तक के नम्बर बना लेना चाहिए। व्यवस्मारक वीरसेवा मन्दिर, २१ दरियागज दिल्ली जिनवाणी के भक्तों से 331 सम्पादक-मण्डल डा० प्रा० ने० उपाध्य डा०प्रेमसागर जैन श्री यशपाल जैन अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपय। एक किरण का मूल्य १ रुपया २५५० अनेकान्त मे प्रकाशित विचानी के लिए मम्पाट मण्डल उत्तरदायो नही है। ध्यवस्थापक अनेकानन Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोम पहन 3ণকান परमागस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुर विधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष २० । किरण २ . वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सम्वत २४६३, वि. स. २०२३ । सन् १९६७ ऋषभ जिन स्तोत्रम् (मुनि श्री पद्मनन्दि) णिहोसो प्रकलंको प्रजडो चंदो 'व' सहसि तं तह वि। सीहासणायलत्थो जिणिद कय कुवलयाणंदो ॥२३॥ अर्थ - हे जिनेन्द्र ! मिहासन का उदयाचल पर स्थित प्राप चू कि चन्द्रमा के समान कुवलय (पृथिवीमण्डल, चन्द्र पक्ष में कुमुद) को प्रानन्दित करते है, अतएव उस चन्द्रमा के समान मुशोभित होते है, तो भी प्रापमें उस चन्द्रमा की अपेक्षा विशेषता है-कारण कि जिस प्रकार प्राप अज्ञानादि दोपो से रहित होने के कारण निर्दोष हैं। उम प्रकार चन्द्रमा निर्दोष नही है-वह सदोष है। क्योकि वह दोषा (रात्रि) से सम्बन्ध रखता है। तथा प्राप जड़ता (अज्ञानता) से रहित होने के कारण अजड है, परन्तु चन्द्रमा अजड नही है। किन्तु जड़ है-हिम मे ग्रस्त है। प्रच्छत ताव इयरा फरिय विवेया णमंतसिर सिहरा। होइ प्रशोमो रुक्खो विगाह वह संणिहाणत्थो ॥२४॥ प्रथं-हे नाथ ! जिनके विवेक प्रगट हुआ है नथा जिनका शिररूप शिखर प्रापको नमस्कार करने में नम्रीभूत है ऐसे दूसरे भव्य जीव तो दूर ही रहे, किन्तु प्रापके समीप में स्थिन वक्ष भी प्रशोक हो जाता है। विशेषार्थ- यहाँ स्तुतिकार ऋषभ जिन की स्तुति करते हुए उनके समीप मे स्थित प्रष्ट प्रातिहार्यो में से प्रथम अशोक वृक्ष का उल्लेख करते हैं। यद्यपि वह वक्ष नाम से ही 'अशोक' प्रसिद्ध है, फिर भी वे अपने शब्द चातूथ मे यह व्यक्त करते हैं कि जब जिनेन्द्र मगवान की केवल समीपता को पाकर वह स्थावर वक्ष भी प्रशोक (शोक रहित) हो जाता है तब भला जो विवेकी जीव उनके समीप में स्थित होकर इन्हे भक्सि पूर्वक नमस्कार प्रादि करते हैं वे शोक रहित कैसे न होगे ? अवश्य ही वे शोक रहित होकर अनुपम सुख को प्राप्त करेंगे ॥२४॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त छत्तत्तयमालंबियाणम्मलमुत्ताह लच्छला तुजा । जणलोयणेसु बरिसइ अयमं पि व गाह विहि ॥२५॥ अर्थ-हे नाथ ! आपके तीन छत्र लटकते हुए निर्मल मोतियो के छल से मानो बिन्दुप्रो के द्वारा भव्य जनो के नेत्रो में अमृत की वर्षा करते हैं-भगवान ऋषभ जिनेन्द्र के शिर के ऊपर जो तीन छत्र अवस्थित थे उनके मब अोर जो सुन्दर मोती लटक रहे थे, वे लोगों के नेत्रों में ऐसे दिखते थे जैसे कि मानो वे तीन छत्र उन मोतियो के मिष से अमृत बिन्दुनो की वर्षा ही कर रहे हैं। कमलोयलोयणुप्पलहरिसाइ सुरेसहत्थ चलियाई। तुह देव सरयससहरकिरणकयाई व चमराई ॥२६॥ प्रथ-हे देव । लोगो के नेत्रोरूप नील कमलों को हषित करने वाले जो चमर इन्द्र के हाथों से आपके ऊपर रे जा रहे थे वे शरत्कालीन चन्द्रमा की किरणों में किये गए (निर्मित) के समान प्रतीत होते थे । विहलीकयपंचसरे पंचसरो जिण तुमम्मि काऊण । अमरकयपुप्फविट्ठिच्छला बहू मुवइ कुसुमसरे ॥२७॥ अर्थ-हे जिन ! अापके विषय में अपने पच बागों को व्यर्थ देख कर वह कामदेव देवो के द्वारा की जाने वाली पुष्प वृष्टि के छल से मानो अापके ऊपर बहुत से पुष्पमय बागो को छोड़ रहा है--काम देव का एक नाम पचार भी है, जिसका अर्थ प व बाणों वाला होता है । ये बाग उमके लोहमय न होकर पुष्पमय माने जाते है । वह इन्ही बारगो के द्वारा कितने ही अविवेकी प्राणियों को जीत कर उन्हें विषयासक्त किया करता है। प्रस्तुत गाथा में भगवान ऋषभ जिनेन्द्र के ऊार जो देवो के द्वारा पुष्पो की वर्षा की जा रही थी उस पर यह उत्प्रेक्षा की गई है कि वह पुष्प वर्षा नहीं है, किन्तु भगवान को वश में करने के लिये जब उस कामदेव ने उनके ऊपर अपने पांचो बागो को चना दिया और फिर भी वे उसके वश मे नही हो सके तब उ मने मानो उनके उपर एक साथ बहुत से बाणों को छोडना प्रारम्भ कर दिया था ॥२८॥ एस जिणो परमप्पा णाणो अण्णाण सुणह मा वयगं। तुह दुदही रसंतो कहा व तिजयस्य मिलियस्स ॥२८॥ अर्थ-हे भगवन् । शब्द करती हुई तुम्हारी भेगे तीनो लोको के सम्मिलित प्राणियो को मानो यह कह रही थी कि हे भव्य जीवो । यह जिनदेव ही ज्ञानी परमात्मा हैं, दूसरा कोई परमात्मा नही है; अतएव एक जिनेन्द्र देव को छोड कर तुम लोग दूसरों के उपदेश को मत सुनो ॥२८॥ रविणो संतावयर ससिणो उण जड्यायरं देव। संतावजडत्तहरं तुज्न च्चिय पहु पहावलयं ॥२६॥ अर्थ-हे देव । सूर्य का प्रभामण्डल तो सताप को करने वाला है और चन्द्र का प्रभामण्डल जडता (शैत्य) को उत्पन्न करने वाला है। किन्तु हे प्रभो । सताप और जडता (अज्ञानता) इन दोनो को दूर करने वाला प्रभामण्डल एक प्रापका ही है ।।२६।। मंदिरमहिज्जमाणंबरासिणिग्घोससंणिहा तुज्न । वाणी सुहा ण अण्णा संसारविसस्स णासयरी ॥३०॥ प्री-मेरु पर्वत के द्वारा मथे जाने वाले समृद्रकी ध्वनि के समान गम्भीर प्राप की उत्तम वाणी अमृत स्वरूप हो कर संसार रूप विष को नष्ट करने वाली है, इसको छोड़ कर और किसी की वाणी उस समार विष को नष्ट नहीं कर सकती। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलोप पार्श्वनाथ-प्रासाद (मुनि कान्तिसागर) व्यक्तिस्वातंत्र्यमूलक श्रमण-सस्कृति की गरिमा का बड़ा महत्व है। यहा के कगा-कण मे शताब्दियों के को सर्वागरूपेण अभिव्यक्त करने वाले नामहृद-नागदा हास-विकास अविस्मरणीय का इतिवृत्त परिवशित होता रियन अरक्षिन-उपेक्षित प्रासादो में प्रलोप पार्श्वनाथ का है। किसी समय प्रात्मलक्षी, परकल्याणवाछू और मयमशिखरमण्डित मन्दिर प्रत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । राजमाग से शील मनीषियों का यह सतत मिवास रहता था, प्रासाद ही दष्टि आकृष्ट कर लेता है। लगभग एक सहस्र वर्ष से के घण्टानादो से नागदा की उपलकाए लोकोत्तर स्वर भी अधिक प्राचीन शिखर, भले ही कालिमावृत्त हो गया है लहरियो से गूज गूज उठती थी एवम् भारत के विभिन्न पर इसकी विशालता उसके व्यतीत वैभव को व्यक्त कर कोरगो मे प्रागन श्रद्धालु जन भावभीनी प्रर्पणांजलि रही है। नागदा और कैलाशपुरी के गण्यमान लेखयुक्त समषित कर कृतकृत्य होते थे किन्तु पाज स्थिति यह है मन्दिगे मे इमकी परिगणना की जाती है। यद्यपि यह कि चमगादडे चक्रमण करती हैं और यदाकदा हिसपश ममय-ममय पर जीर्णोद्धत होता रहा है नथापि इमकी भी निर्भयता में विचरण करते है। प्राश्चर्य तो इस बात मौलिकता अपना विशिष्ट महत्व रखती है इम स्वतन्त्र का है कि अहिमा और सस्कृति के परमोन्नायक पाश्वप्रामाद की अपेक्षा गृहा-प्रमाद कहना अधिक उपयुक्त नाथ के स्थान पर कभी विश्वकल्याण का चिन्तन होता जान पडता हैं। कारण कि इसके गर्भगृह की मयोजना था, पर प्राज तो निमिन इतिहास को रौंदने वाला भी किमी गुहा से कम नहीं। पुरातन काल में गृहा-मन्दिगे कदाचित् ही भूले-भटकते पहुंच पाते है, नही कहा जा की ही परम्पग थी, वही मुनि वाम करते थे। भारतीय गकता उनमे में कितने पापागों पर बिखरी हुई स्वनिगम सम्कृति का विकाम गृहा-संस्कृति से सम्बद्ध है। मेदपाट इतिहास की पाठ्य रेखाग्रो को हृदयनेत्रो में पढ-देन शिल्पियो ने इस कला में अद्भुत नैपुण्य प्राप्त किया था। पाते है। । यो तो मन्दिर मात्र प्राध्यात्मिक माधना और पद्म रावल या पार्श्वनाथ उत्प्रेरणा का पावन केन्द्र होता है। पर जहा माधक प्रात्म-निरीक्षण के द्वारा प्रगति का प्रशस्त-पथ पाना है। अपेक्षित ज्ञान की अपूर्णता के कारण और पुरातन पर जहां नमगिक मुषमा है वहां वह मॉस्कृतिक साधनो अवशेषो के प्रनि निश्चित दृष्टिकोण के प्रभाव में भारत में और भी अतुल बल प्रदान करता है। कलाकार भी ग्थापत्यावशेषों के माथ ममुचित न्याय नहीं हो पाया है। प्रकृति से समुज्जवल उपशन ग्रहण कर मौदर्य की रचना प्रामीण जनता द्वारा उनके माथ अनेक प्रकारके लौकिक करता है और अपनी सौदर्याभिव्यजक माधना में जगत् प्राज्यान जोड दिये जाने है। और क्रमश. उन पर जन श्रा को भी सम्मिलित कर लेता है. लोकोनर-साधना पोर थ निया का इतना प्रबार चढ़ जाता है कि सत्य भी अन्तर्मुखीचित्तवत्तियो के विकाम भ निष्ठावंक जो गति- धूमिल हो जाना है। इसी में मंस्कृति और सभ्यता के मान होता है उसे बाह्य-भौतिक वातावरण अधिक मुख को उज्जवल करने वाले प्रेरक कलात्मक प्रतीको प्रभावित नही करता, परन्तु जो सामान्य कोटि के लोग का वास्तविक इतिहास निमिगबन रहा है। पाषाणो हैं उन्हे प्रारम-माधना में बायोपादानो का महाग लेना की वाचा रहित वाणी को प्रात्ममान करना सभी के पड़ता है। प्रत: प्रकृति के प्रांगण मे स्थापित देव भवनो लिए मम्भव नही है । यहा की सदाम रेखाम्रो में शतान्दि. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकान्त यों का जो गौरव सुरक्षित रहा है उसे समझने के स्थित है। विशाल गिरिशृंग से सटा है। यहां भी किसी लिए अन्तर्दृष्टि चाहिए और संवेदनशील हृदय । समय सोपान थे। तोरण सहित सिंहद्वार भी था, किन्तु शताब्दियों के मूसलाधार जल प्रवाह के कारण इन सबका अस्तित्व विलीन हो गया। अवशिष्ट चिह्नों से से इसका सहज ही अनुमान होता है। गिरिशृंग की मुख्य जलधारा का पठन केन्द्र सौपान ही थे, पहाड़ी की तलहटी में निर्मित दोनों प्रासादो को भी पर्याप्त क्षति पहुँची है। यहां तक कि पद्मावती प्रासाद तो बहुत ही ढक गया है। गर्भ गृह का स्थानकिंचित् ही दृष्टि-शेष रहा है। यदि इसी प्रकार इस शिल्प वैभव के प्रति कुछ वर्षों तक उपेक्षा रही तो मन्दिर का उल्लेख केवल इतिहास के पृष्ठो में ही रह जायगा । अनोप पाश्र्वनाथ का प्रासाद भी किंवदन्तियों के अम्बर से अनावृत नहीं है। जनता का विश्वास है कि ग्रामोन्य मन्दिर पद्म रावल का है, जैसे सुमान देवरा फोरममीपवर्ती पद्मावती का मन्दिर, जिसे पद्म रावल की भगिनी का मन्दिर माना जाता है। ये दोनों श्रद्धांगिनी स्मारक नागदा में हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से यह विचार गीय है, किसी भी नरेश का स्मारक बनाने का जहां तक प्रश्न है, यह बात समझ में पानी है, कि पर उनके नाम पर स्वतन्त्र प्रामाद बने हो और वह भी नागदा में । यह तो सर्वथा ही सम्भव है। पुष्ट प्रमारण के प्रभाव में इस जनश्र ुति पर विश्वास नही किया जा सकता, कारण कि मन्दिर के सम्बन्ध में विशेष कुछ कहने की अपेक्षा यहां की शैल्पिक शैली स्वयं बोलती है। स्थापत्य ही उसका इतिहास है । यद्यपि यह सत्य है कि पाट के सिहासन पर पद्मसिंह शक्ल हुआ है जो मथनसिंह का उत्तराधिकारी था, इमी ने योराज को नागदे की कोतवाली सुप्रत की थी, मममुच यदि उनका मन्दिर होता तो चीरवा - प्रशस्ति में उल्लेख अवश्य हो मिलना उनकी रानी पद्मावती रही होगी, सच बात तो यह है कि प्रासाद पाश्र्श्वनाथ का है और पद्मावती उनकी पिटा है प्रामाद की शिल्पकला और तथा उत्कीर्ण लेख भी उपयुक्त तथ्य का समर्थन करते हैं, दूसरी बात यह है कि यहा की मूर्तियाँ स्वयं अपने आपमें अकाट्य प्रमाण है । सं १९६२ का लेख भी इसे जैन मन्दिर ही प्रमाणित करता है, पद्म रावल का अस्तित्व समय तेरहवी शती है। तात्पर्य प्रसाद पर्याप्त पूर्ववर्ती है। प्रासाद-स्थान नागदा से देवकुलपाटक- देलवाडा जाने वाले पुरातन राजमार्ग से कुछ ऊपर उपत्यकारी वरिंगत प्रासाद प्रव 1. ओपर्चासहभूपालो योगराजस्तनारता । नागहृदेपुरे प्राय पौरखीतिप्रदायक ॥ - बोरवा प्रवास्ति प्रासाद का नव्य नामकरण जैन स्तुतिपरक साहित्य में "नाग हृदेश्वर" पार्श्वनाथ का उल्लेख पाता है और उसको लेकर दोनो सम्प्रदायों में कभी बाद भी चला था जिसका विस्तृत विवेचन यथा स्थान होगा, यहाँ तो केवल इतना ही संकेत श्रलम् होगा कि पुरातन 'जैन साहित्य और सिलोरकीर्ण लेखों में पार्श्वनाथ के इस मन्दिर का उल्लेख पाया जाता है पौर समय-समय पर जो भी यात्री आये उनमें के कुछेकने अपने आगमन काल और उद्देश्य मन्दिर की भित्ति पर अंकित कर दिये है। मन्दिर की वर्तमान अवस्था पर विचार प्रकट करने के पूर्व प्रश्न यह उपस्थित होता है कि इसका नाम "अलोप पार्श्वनाथ" कैसे पहा ? भगवान् शंकर भौर तीर्थकरों में पार्श्वनाथ के अनेक नाम हैं, उनमें यह नव्य है। केवल यात्रियो के सकेतो में यह नाम पाया जाता है। अनुमान है कि गर्भगृह में धन्यकार होने के कारण दिन को भी प्रतिमा अदृश्यवत् प्रतीत होती है इस लिए नामकरण भी वैसा ही कर दिया गया है, इस नामकरण का इतिहास १६ वी शती से प्राचीन नहीं है, शिलोत्कीर्ण प्रशस्तियो में तो पार्श्वनाथ का ही सूचन है। प्रासाद की वर्तमान स्थिति कभी-कभी प्रेरक भी स्वय प्रेरणा का पात्र बन Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालोप पाश्र्वनाथ-प्रासाद जाता है, यह प्रासाद इस का अपवाद नही, शिखर पतियो ने स्वतन्त्र कलोपकरणों का उन्मुक्त भाव से कालिमावृत्त है । क्षुप उत्पन्न हो गये हैं, सभा मण्डप के उपयोग कर प्रान्तीय या क्षेत्रगत शैलियो को सुरक्षित पाषाण खिसकने लगे है। भीतरी अंश भी जल धारा से रखा है। राजस्थान के मध्यकालिक देवायतन के प्रवेशप्रभावित है । गर्भगृह चमगादड़ो से परिपूर्ण है। कक्षासन द्वार गुप्तयुगीन कलोपकरणों से सर्वथा अप्रभावित नहीं की प्रतिमाए और मण्डावरीय मूत्तिएँ सरकाई जा चुकी है। नागदा स्थित सास-बहू का मदिर और कैलाशपुगेस्थ हैं, सुन्दर पत्थर गिरने की स्थिति में हैं। तात्पर्य प्रत्येक लकुलीशप्रासाद और प्रशत: कुम्भश्याम गुप्तकला मे दृष्टि से प्रासाद को क्षति पहुंचाने के सभी प्रयत्न साकार प्रभावित होने के बावजूद भी उनमें अपना क्षेत्रगत हुए हैं। बावजूद भी उसका अपना अस्तित्व है। निजत्व है। प्रवेशद्वार वास्तुशास्त्र विज्ञों ने अपनी परिभाषा के अनुसार चार भागो में विभक्त किया है। उदुम्बर-ऊबरा-दहली प्रवीण स्थपतियो ने प्रासाद-प्रवेश द्वार को सवारने दो पार्वस्तम्भ, उत्तरंग-सिरदल इन चतुरगो को स्व. का पूरा प्रयत्न किया है। सौदर्यमण्डित ऐसे द्वारो से क्षमतानुसार सर्वत्र सजाने-संवारने का सदप्रयत्न किया न केवल व्यक्ति का मात्विक भावनामों को ही बल है। द्वारशाखा के निचले अश में अर्द्धच द्राकार प्राकृति मिलता है, अपितु, प्राराध्य के प्रति भी हार्दिक श्रद्धांजलि दोनो गगारे, शंखावटी एवम् लतासह पद्मपत्रो का अपित करने को मन विकल हो उठता है। प्रवेशद्वारो अकन किया जाता था। कवि कालीदास ने उत्तर में इन पर खनित प्राकृतिया प्राध्यात्मिक भाव सृष्टि के साथ शब्दो में उल्लेख किया है :जनजीवन का भी उद्दीपन करती हैं। भारतीय कला की द्वारोपान्ते लिखितवपुषी शंखपवमोच वष्टवा यही सर्वागीण विशेषता है। दहली के तीन अंश कर, तमध्यवर्ती भाग मे लता युक्त कमल पंखुड़ियो का अद्ध गोलाकार तक्षण करने का गुप्तकाल में वास्तु और मूत्तिकला उन्नति के चरम विधान रहा है, शिल्पी परिभाषा में इसे मन्दारक कहते उत्कर्ष पर थी। उस युग के प्रवेशद्वार सौदयाभिव्यजन के साथ अन्तर्मुखी जीवन-विकास की अोर दिशा निर्देश पाश्वस्तम्भो के तीन भागो को छोड कर एक करते है। तिगवा और देवगढ के द्वार इसके साक्षी है । भाग के उदय में दोनों ओर द्वारपाल बनाने का उनकी कलाभिव्यक्ति अद्भुत है। यहा उल्लेखनीय है विधान' है। शेष स्तम्भ शाखा बनानी चाहिए । इन कि गुप्त या गुप्तपूर्वकाल से मध्यकाल तक के इस प्रकार शाखामों को कलाकार अपनी कलामो द्वारा सजातेके गृहा या मन्दिरो के द्वारो का क्रमिक विकास इतिहाम शिल्प-स्थापत्यशास्त्र के प्रकाश में लिखा जाना चाहिए, सवारते थे। इनका क्रम प्रासाद प्रगानुमार रहता था। ताकि विविध कलात्मक अलंकरणो की विकसित परम्परा उत्तरंग अथवा मिरदल भी द्वारका महत्वपूर्ण अंग का सम्यक अध्ययन प्रस्तुत किया जा सके। मन्दिर पौर है। इसक मध्य म गभगृह स्थापित प्रतिमा का बिम्ब मूत्तिकला के विकास मान इतिवत्त के समान इसका भी रहता है, जन मान्दग में इसका सवत्र परिपालन दष्टिरोचक इतिहाम कम उपादेय नही। स्वल्प अध्ययन में 1- द्वारदघय चतुर्थाश द्वारपालो विधीयते । विदित हसा कि प्राचीनतम शैल्पिक रचनामो के सम्पूर्ण म्तम्भ शाखादिक शेष त्रिशाखा च विभाजयेत् ॥६२ सिद्धान्तो का परिपालन सर्वत्र प्रासादो में दृष्टिगोचर -प्रासादमण्डन, अध्याय ३ नहीं होता। यह क्रम मध्यकाल और तदनन्तर भी 2- यस्य देवस्य या मृतिः मैव कार्योत्तरंगके । प्रचलित रहा है । इमका एक मात्र कारण यही ज्ञात शालायां च परिवारो गणेशश्चोनरगके ॥६॥ होता है कि मौलिक सिद्धान्तों की रक्षा करते हए म्थ ---प्रामादमण्गुन, प्रध्याय ३ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त गत होता है, हर जैनेतर प्रासादों में कही.कही केवल के अध्ययन में कभी-कभी अनुभव के प्रभाव में ऐसी गग्गेशप्रतिमा ही स्थापित कर सन्तोष कर लिया जाता विषमतामो का सामना करना पड़ता है। है, उत्तरग के उभयपार्श्व में गवाक्ष आदि भी दृष्टिगोचर रूपशाखाम्रो का अकन बहुत ही सामान्य है, लला होते है, ऐसे अनेक द्वार इम क्षेत्र की विशिष्ट उपलब्धि बिम्बो में पार्श्वनाथ का रूप है। शृगार चौकी सामान है। लगभग यह अश ११ फुट लम्बा चौडा है, साल प्रामाद-द्वारपाला के ममीप ही दोनो मोर क्रमशः प्रस्तर मयोजना से विदित होता है कि वह जीर्णोद्धृत है मकरवाहिनी गगा और कच्छपवाहिनी यमुना की प्रतिमा शैल्पिक वैपम्य भी है। मध्य में जैन तीर्थकरो की मूर्तिय। स्थापित की जाती है। वावाटकवश के मन्दिरों में तो सश्रद्धालू विद्यमान हैं नत्य के अनेक प्रमगो का पालेखन प्राय. सर्वत्र इमका परिपालन किया गया है, कारण कि अाकर्षक है । कक्षासन लगभग सभी गिर चुके थे जिन्हें वाबाटक न केवल गंगाप्रेमी ही थे, अपितु, उनके शको श्री एलिगजी पुरातत्व संग्रहालय के लिए सुरक्षित करवा को परास्त कर गगाप्रदेश पर प्राधिपत्य स्थापित किया लिया है, इनमें त्रिमूर्तियो का मुन्दर अकन है। प्राग्था, हिन्दुकर्मकाण्डमूलक रचनामो मे द्वारपूजन के प्रमग मण्डप मे एक भव्यक कमलाकृति है जिसके अधो भाग में दक्षिणशाखा में गगा और वाम शाखा में यमुना को में यह लेख खुदा है:स्थापित करने का ममर्थन है । बिना किमी माम्प्रदायिक भेदभाव के कैलाशपुरी और नागदा के ममस्त मन्दिरी १ सिद्धी श्री सवत् १७२५ वर्षे में इसका अस्तित्व है। २ श्री मूलसंगे (घे) श्री पारस्व नागहद-नागदा के पार्श्वनाथ मंदिर का प्रवेशद्वार ३ नाथ चैत्यालय पण्डित थान ६ फुट ऊचा और ५ फुट १ इंच चौटा है, उदम्बर, शम्बा ४ सिंह कमल कीथा वटी मरवक्त्र, द्वारपाल, नत्यरता नारी प्रादि का पार. सभामण्डप म्परिक अंकन के साथ पाम्रनम्बमहिन देवी प्रतिमा है मण्डपो की परम्परा के बीज बैदिक यज्ञयाग के जिमकी बायी गोद में एक बालक है, यह अम्बिका की मण्डपो में सम्बद्ध है। कालान्तर में प्रावश्यकतानुसार प्रतिमा है। दाहिनी ओर इमी स्थान में गोमेद यक्ष है। परिवर्तन किये जा रहे । पौराणिक साहित्य और नाटको इराके बायें हाथ में वज्र तथा एक हाथ मे बिजोग एवम् में इमकी मामग्री मुरक्षित है, गुप्त युग में यह विकास शेष खण्डित है। की मीमा पर थी। मध्यकालिक शिल्पियो ने अनुकूल पार्श्वनाथ की अधिष्ठात तो पद्मावती देवी है और परिवर्तन कर माज-मज्जा में उल्लेखनीय अभिवृद्धि की अधिष्ठाता धरणेद्र । अम्बिका तो नेमिनाथ की अधिष्ठान है। शैल्पिक नियमो का परिपालन करते हुए मण्डपो मे है, मदिर पार्श्वनाथ का है, यह विषमता कमी महगा उन-उन सम्प्रदायों के पौराणिक प्रसगो का तक्षण होने प्रश्न उठना है। यहाँ स्पष्ट करना आवश्यक है कि मुनि- लगा था। वाद्ययत्रमाहित नत्यागनाए, विद्याधर गजताल विधान शास्त्री का यह नियम मर्वत्र परिपालित नहीं है पकण्ठ पादि स्थानो के मोदयं की प्रतिष्ठा कर धामिक कि जिम तीर्थकर का मन्दिर हो उमी के अधिष्ठाता यधि- भावो को उद्दीपित किया है। ष्ठान के बिम्ब द्वार के पास स्थापित करने चाहिए। पार्वनाथ मन्दिर मे मभा मण्डपो की लम्बाई अन्तप्राचीन अनेक कामदेव को प्रतिमाए मिली हैं जिनमे गल महित गभंगृहद्वार मे शृगार चौकी के प्रश को छोड चकेश्वरी के स्थान पर अम्बा ही मिलती है, अम्बिका कर २७ फूट है और चौडाई पूर्व में पश्चिम २३ फुट की विशिष्ट मान्यताप्रो के कारण ही ऐमा किया गया २ इच । १६ स्तम्भ मामान्य है। पाठ पर तो प्रश्वारूढा प्रतीत होता है । मुतिविधानमात्र के प्रकाग में प्रनिमामो महिलाए है । मभी के कर में चवर है। गतिमान प्रश्वो Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रलोप पाश्र्वनाथ-प्रामाद का तक्षण अत्यन्त भव्य है। नृत्यमण्डप में नर्तकियो का अंकन अनिवार्य माना गया है सूचित प्रासाद इसका अप। वाद नही। "गीत वाद्य तथा नत्य संगीतंत्रयमच्यते" के भाव ये सुन्दरिया साकार किए है। वितानकी शालभंजिकाए अब नीं रही। भित्ति पर पर्यटक संकेत सभामण्डप त्रिद्रिक खुला है। दीवारो पर पलस्तर कर मेवाड शैली के चित्र अकित किए है, शेष स्थानों में पर्यटको के सकेत है इतिहास की दष्टि से इनकी उपयोगिता है प्रतः इन्हे उद्धृत करना आवश्यक है :१ संवत १६५० वर्षे ज्येष्ठ सदि८ भौमे गांधर्व ठा० बिहारीदास सा. जी दोसी मानसिंग लक्ष्मीचंद सराडा ए सहसाथी भट्टारक श्री क्षेमचन्द्र साथी श्री नागदा पारस्वसनाथ जात्रा सफल कीधी ... ... २ महाराजाधिराज महाराणा श्री अमरसिंह जी, सवत् १७५० चैत बदी १ ए पंचौली गधर्व सन्दर जी रामचन्द्र गंधर्व पारसनाथ जी जात्रा कीधी। ३ ... सुतार गाजी जी एत बेटा टीला राज श्री उदेपुर जात पूरव्या देहरे काम करी जात्रा गया, सुतार नान जी को श्री राणां राज सिंघ जी।। क वर जेसिंघ जी ... सोवन की पालखी प्रतें लि पेथा ॥ ४ सम्वत सिंघ श्री अलोपपारस्वसनाथ जी रा देवरा कमाई भेटवा पर ले जी करावी पाने नवलषागोत्रे बाई जी श्री मेणकबाई जी करावीमा सम्वत १७१३ वर्ष प्राषाढ़ वद ७ सुतरगा जो जसतर ... ... कीर्छ । ५ संवत १७६४ वर्षे माहमासे कृष्णपक्षे तिथौ - गुरुवासरे पारसनाथजीको जात्रा सफल की थी, श्री विजयगच्छ महषि · ..'सौभागयसागर सरी जी रिषि रूपजी रिषि हेमा... 'प्रादीया रिषि बलदेव ...रिषि प्रानन्द जी। ६ सम्बत् १७६६ वर्षे फागण सदि ५ बधवासरे श्रीचंत्रगच्छे ठाणे पाठसुं रिषि छीतरजी शाम जी भाणोजी गिरधर जी सन्दर जी लाभानन्द जी षडगोजी मोजी प्रतरा ठाणे प्रातरा प्रलोप पारसनाथ जी री सफल, मौना भेद भणे जने चीतोडारा पाप. वांचे जिणे वदना धर्मलाभ । ७ सम्वत १७६६ वर्षे मागसर वदि ६ दन्ये गरु लालचन्द देवचन्द गुलाब चन्द मयाचन्द फलजी पुस्त बलोप पारसनाथ जी मात्रा सामल कीधी ...। ८ संवत १७७३ प्रवर्तमाने चैत्रमासे कृष्णपक्षे एकादशी बुधवासरे भट्टारक श्री १०८ विश्वभूषणस्तत्पट्टे भट्टारक श्री १०५ सुरेन्द्र भूषण त० शिष्येण ब्र० कपूरचन्द्रण। है सम्वत १७६८ वर्षे पोप वदि ५ दिने भ० श्री जिनहर्षसरी जी लषित महामहोपाध्याय श्री हीरसागर गणि षेमचन्द जी जात्रा कीधी। इन म केनो के अतिरिक्त बिना काल के भी मनक लेख है। स्तम्भ लेख गर्भगृह मन्मुख एक नम्भ पर विमति पद्मामन और खड़गामन मे उत्कीरिणत, प्रतिमाएं अनावत है। कोरगी में दो लेख खुदे हैं, पठिनाश इस प्रकार है .-- १॥ ५० ॥ स्वस्ति श्रीमलसंघेजनि नंदि २ संघे तस्मिन बलात्कारगणति रम्ये ३ तदभापूर्वपदांश बेदि श्री माघनंदि ४ नरदेववद्य श्री अनन्तकोतिदेवा ... ... द्विरी प ५ दे काका ... ... पित सा० भीमा पत्र ६ लेबु टाली ... ' पुत्र मोहण पासा ७ ताल्हण भदाला जाला ... ... Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त ८ लोकदे ... ... पु० भीभिणि बेटी ३ भाले भी बने हुए हैं, पाश्र्ववर्ती स्तम्भों पर खड़गा९ उसीनां शुभं भवतु गुरु सनस्थ जिन प्रतिमाओं का अकन है। इस प्रासाद को १० सघई भीमा अगिवाण... . नव्योपलब्धि में इस शिलालेख को मानता हूँ जिसमें ११ हु।। पुन सं १४३६ व भगवान पार्श्वनाथ के जीवन सम्बन्धी मुख्य घटनायें १२ ज्येष्ट वदि ११ वारु शुक्र उत्कीरिणत हैं, कमठोपसर्ग का सफल अंकन तो उस समय की पूर्ण स्थिति का तादृश रूप खडा कर देता है, १॥५०॥स्वस्ति श्री देवकीतिदेवः प्रसन्नता है कि इस पर स. ११९० अंकित है , पुरातत्व २ निषेदिका ण और कला-समन्वित इस मंश का विशिष्ट महत्व है। ३ ... पणमति यह शिला मलभाग के ऊपर के भाग में खडी है, लेख ४ सा० राड भार्या का ६ पंक्ति का है, पर भीतरी अंधकार के कारण उसे पढना ५राज... मति ..... भ्राता असम्भव ही है, निरतर वर्षाकालिक जलसे वह बहुत प्रभावित हुअा है। इसमें तक्षित प्रतिमानो पर किरीट७ ... श्री ग्रहवसब मुकुट इस बात का परिचायक है कि नागदा वैष्णव ८ स. १४३६ वर्षे सस्कृति का केन्द्र रहा है और कृष्ण के मस्तक की शोभा किरीट ही अभिवृद्ध करता रहा है, इसका इन दो लेखो के अतिरिक्त इमी स्तम्भ के पूर्वाभि प्रभाव जैन मतियो पर भी पडना स्वाभाविक है। मख अंश में दम्पति युगल है, ऊपर नीचे दो लेख भी सं० ११२ वर्षे चैत्र वदि ४ रवी देवश्रीपाश्र्वखदे हैं. दूसरा स्तम्भ सयक्त होने से उन्हें सम्भव नही नाथ श्रीसकलसघशाचार्यचन्द्रभार्या ....... || पर लेखो का सम्बन्ध दिगम्बर सम्प्रदाय मे है कृष्णवरणीय शिला पर यह लेख भी अकित है :गर्भगृहद्वार और गर्भगृह स० १३५६ वर्षे श्रावण वदि १३ णारेसा तेजल गर्भगृह देवभवन का महत्वपूर्ण भाग होता है । इसी सुत। मे पार !ध्य का प्रावास रहता है, मदिर का गर्भगृहद्वार ६ फुट ऊंचा और ३ फुट चौडा है, सोपेक्षत: इमका संघपति पासदेव सघसमस्त ....." साहइत श्रीमदारक, कीतिमुख और शंखावटी सुन्दर है, द्वार इस पासनाथ । क्षेत्र की परम्परा के अनुमार नही है ।सज्जा का अभाव दोना लेखा से कोई विशेष ऐतिह्य प्रकट नही होता। है। दोनों पोर प्रध: भाग में अन्योपकरणो के माथ गर्भगृह में सुरक्षा की दृष्टि से ऊपर की और पक्का धरणेद्र और पद्मावती का अंकन है। साथ ही यहा भी पलस्तर है। दो विशाल पालो में जिनबिम्ब रहने की अम्बिका अनुप्रेक्षणीय रही है, अग्रिम भाग में दो ताक सम्भावना की जा सकती है। ऊपर की ओर सुरंग समान मतिशन्य है, यहा भी एक विस्तृत लेख के दशन हुए एक ऐसा स्थान बना है जिसके प्रागे शिला जड़ दी जाय परन्तु उन पर चूने का ऐसा गहरा पुनाइ हा गदहक तो गूप्त भण्डार का रूप ले सकता है, यह ८ फूट लम्बा है पर्याप्त सफाई के बाद भी पाठ अपठनीय ही रहा। पराने मन्टिगे से ये गत भण्डार विपत्ति गर्भगह की लम्बाई-चौडाई क्रमश ८ फट ६ इंच लिए बनवाये जाते थे। और ११ फूट ७ इच है। त ३-३ फट ऊची और चौडी यहा प्रश्न हो सकता है कि महापुरुष या जिनसन्दर कलापूर्ण वेदिका उपत्यका के मल में निर्मित है प्रतिमानो का दीवार से सलग्न स्थापित न किया जाना Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रलोप पार्श्वनाथ-प्रासाद चाहिए। यह स्थान इमका अपवाद है। गुहा-चैत्य के , कमल, कमल, वरद, बिजौरा, कारण ही ऐसा हुमा जान पडता हैं। पुस्तक, कमल, वरद, बिजौरा, प्रस्तुत गुहा-चैत्य में स्थापित प्रतिमा दक्षिणाभिमुखी गदा, गदा, वरद, बीजपूरक, है शिल्पशास्त्र का नियम : कमल, पुस्तक, वग्द, बोजपूरक, प्रतिमा दक्षिणाभिमुखी है। जब कि शास्त्रीय नियम कम, वर, कमल, बिजौरा, यह है कि गरगेश, भैरव, चण्डी, नकुलीश, नवगृह और कमल, वर, कमल, बिजौरा, मातकामो की प्रतिमाएं ही दक्षिणाभिमूखी होनी चाहिए. १० सभा कुछ तथव जैन प्रतिमा भी इनका अपवाद नही है। अनेक जैन प्रवेशद्वार के बायी पोर में प्रतिमानो का संकेत :मन्दिर इस प्रकार के पाये गये हैं। १ ऊपर के दो करो में वृत्ताकार वस्तु, वरद, बिजौरा, मन्दिर का बाह्य भाग • कमल, वग्द, कमल, बीजपूरक, ३ मर्प, वग्द, सर्प बिजौरा, इसकी उदरम्य नसे स्पष्ट इसकी मयोजना देवकुलपाठक-देलवाडा के पुरातन दिखती हैं । राजमार्ग पर दागणचौतरे के समीप की ममतल भूमि पर ४ चक्र, वर, चक्र, बिजोग, की गई है। एक ही भित्ति दोनो को अलग करती है। ५ कमल, वर, कमल. बिजीरा, दुर्ग मदश म्थान मे दो वृत्ताकार वृजी मे मे एक का ६ नथैय चिहन प्राज भी विद्यमान है। असम्भव नहीं यहाँ मानसभ की स्थापना रही हो। मन्दिर का बाह्य भाग बहुत ८,९,१० मिट्टी जम जाने में अस्पष्ट कुछ अंशो में मूत्ति विहीन बना दिया है। सौदर्याभिव्यंजक इन मूत्तियों की पक्ति के ऊपर भी किंचित् विशाल ग्रामपट्टी के उपरान्त सर्वत्र देवीमनिया स्थापित है। प्रतिमाएं है, इनमें मे भी स्वल्प ही शेष रह सकी हैं :पत्थर की क्षरगणीलता के कारण पण्डी उतर जाने से बहुत सी प्रतिमानों के आयुध नष्ट हो गये है। प्रत्येक १ म्थान रिकन २ दाहिने ऊपर के हाथ में तू बी की वीणा, बाये में ताडप्रतिमा का स्वतन्त्र परिचय देने की अपेक्षा विहगालोकन पत्राकार पुस्तक, दाये मे दाहिने नीचे के हाथ में ही पर्याप्त होगा : माला और बायें मे कमण्डल, सरस्वती की यह सुन्दर प्रतिमानो का संकेत प्रवेशद्वार में दाहिनी योर मे प्रतिमा स्थान च्युत तो कर दी गई है, प्रारम्भ किया जाता है : - ३-४ विलुप्त १ चतुर्भुज, प्रायुधक्रम कमल, कमल, माला, बीजपूरक, ५ दक्षिणाभिमुख कोमा पर स्थापित प्रतिमा के दोनों २ , , कमल, गदा, वरद, विजोग ऊपर के हाथो में प्रद्धवनाकार संकल थामें है, शेष में ३ , , मर्प, वग्द, बीजपूरक । माला पौर कमाल है, मकर इसका उदर चामुण्डावत् । ६ रिक्त 1. भित्तिसंलगगबिम्ब उत्तमपुरिम सव्वहा प्रमुह ७ चक्र, खण्डित, चक्र, कमण्डलु, -ठक्कुर फैरु वत्थुसार पयरगण, पृष्ठ १२६ । ८ कम,वर, कमल. बिजौरा, 2. विधनेशो भैरवश्चण्डी नकुलीशो ग्रहास्तथा। रिक्न मातरो घनदश्चैव दक्षिणादिडमुखा: (१) ॥३६॥ १० का १० मई, वर, सपं अस्पष्ट, चरण के समीप मृग, 3. प्रसादमण्डन, अध्याय २ । प्रवेशद्वार के बाये भाग की प्रतिमाएं हम प्रकार हैं: Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. - কা १ से ५ स्थान रिक्त उसमें अवकाश नही । प्रात्म-दर्शन ही उसका काम्य है । ६ पाश, अंकुश, माला, खण्डित, समाजमूलक प्रध्यात्मवाद उसकी मौलिक विशेषता है। ७ कम, वर, कमल, कमण्डलु, इन सब बातो के बावजूद भी कालान्तर में सर्वथा वैदिक ८ रिक्त धर्म और परम्परा मे अपने असंपृक्त न रख सकी। ६ त्रिशूल, खण्डित, माला, खण्डित, तान्त्रिक विधानो ने इममें प्रवेश कर ही लिया। देव१. रिक्त देवियो के विशद् परिवार की कल्पना इमी की परिणति इन प्रतिमानो के ऊपर कक्षासन के बाहरी अंशो में है। प्राचारदिनकर, निर्गणलिका आदि कृतियाँ इन मृत्तियां थी, अब नहीं हैं। पक्तियो के समर्थन में उपस्थित की जा मकती है। तीर्थशिखर करी के अधिष्ठाता और अधिष्ठातयो की केवल कल्पना ही नही की, अपितु उनके परिकर में भी इन्हे भारतीय प्रासाद निरिणकला में शिखर का विशिष्ट समुचित स्थान मिला बाद में एतद्विषयक शास्त्रों की स्वस्थान है। छज्जे के ऊपर इसका प्रारम्भ होता है। शुग तन्त्र-रचना भी प्रावश्यक मानी गई। सोलह विद्यादेवियाँ, शिखर की विविध अभिव्यक्ति का माध्यम है। प्रत्युत निशिगयो तान्त्रिक प्रभाव का ही परिणाम है। यद्यपि कहना यह चाहिए कि शृगो के प्राधार पर ही शिखर का इन्हें वहाँ ममकिती मान कर अपनाया गया है। नात्पर्य कि ठाठ बनता है। प्रासादो के विविध नामकरण इन्ही पर जैन संस्कृति में अपने ढंग से तन्त्रवाद प्रविष्ट हो गया और प्राचत है । कैलाशपुरी पोर नागदा में मध्यकालिक शिखर समर्थ जैनाचार्यों ने भी इसका विरोध नहीं किया, परिअध्ययन की नव्य दिशा प्रस्तुत करते है। शिम्वर शिव- णामतःक्तिपूजा ने अपनी जड ऐसी जमाई कि प्राज भी लिंग का प माना गया है। शिल्पशास्त्रीय विकासात्मक उसका अस्तित्व मर्वत्र है। देवियों के स्वतन्त्र बिम्ब और परम्पग के परिप्रेक्ष्य में शिखरों के कमबद्ध और तुलना- प्रसाद भी बनने लगे, पद्मावती प्रामाद भी उसी परम्परा त्मक अध्ययन नही किया गया है। विवेच्य मन्दिर का की एक मबल कही है। शिवर कला की दृष्टि से बहुत मुन्दर और पाकर्पक नो जैन शान्तिपूजा की म्पृति रूप पद्मावती का स्वतन्त्र नही है तथापि परम्परा की अपेक्षा मे नव्यस मूत्र तो प्रामाद साधना का केन्द्र था। अवगहपुगरण, नारदीयदेता ही है। त्रिदक् त्रिमूतियो का सपरिकर खनन है। पूगगा और रुद्रयामल में पदमावती का उल्लेख पाता है, तीन उगो में लघु तीन-तीन शृग निर्मित है । ऊपर पर सूचित पद्मावती इमसे भिन्न है। कोणो में छः छः है। प्रत्येक मे पुष्पाकृतिया तक्षित है। श्रभा-गरम्परा प्रचलित अर्चनपद्धति और प्रतिमादक्षिण में द्वार है। विधानानुमार इनको सुन्दर प्रतिमाए प्रभून परिमाण में प्रामाद पीठ पर लकुन्नीश मन्दिर का अनुकरण उपलब्ध है। दोनों सम्प्रदायों में वह समान भावेन पूज्या दृष्टिगोचर होता है। तमालपत्रिका ग्रासपंक्ति आदि है। वाहन और प्रायुधो में किचित् परिवर्तन अवश्य है, उसीके अनुरूप है। छाद्य के प्रद्यो भाग में तीनो पोर , यह विषमता तो वदिक शक्तिरूपों में भी परिलक्षित प्रतिमाएं विद्यमान है, इनमे कतिपय तो तीर्थकरो की होती है। पोर शेष त्यागमय जीवन की मोर मकेत करती है। मुचित मन्दिर के उत्तर में उमी क्षेत्रफल में अधिनि मन्दह ये प्रतिमाए मुरक्षित और अखण्ड है। इनमे की प्ठातका प्रामाद निमिन है । दशा ग्रास बहुत ही दयनीय ऋषि प्रतिमाएं यहा पाश्चर्य उत्पन्न करता है। है। उपत्यका में पतित मृतिका का मबम अधिक प्रभाव पद्मावती-प्रासाद इमी मन्दिर पर पड़ा है, यहा तक कि इमका गर्भगृह ऐमा जैन मम्कृति त्याग प्रधान रही है। ऐहिकता को दब गया है कि मानो ममतल भूमि ही हो, यह मण्डप मेदर Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलोप पावनाम-प्रामाद और सूक्ष्मकोरणी का परिचायक है । शिखर के कोणो में अवोषो से सिद्ध है। इसका मर्वोच्च भाग नोपाज श्री प्रतिमाए है जो पद्मावती का सफल प्रतिनिधित्व करती है। लिग जी के पुरातत्व मग्रहालय की गोभावद्धि कर रहा है। मानस्तम्भ मन्दिर के अगभाग में विशाल स्तम्भ स्थापित करने प्राचीन उल्लेख को परम्परा रही है । इसे मानम्तम्भ की मंजा म अभिहिन नागददेश्वर पाना मा तीर्थ का पा किया जाना है। स्मरणीय है कि भारतीय ललितकला के नरोकीरिणत लेखों में स्पष्ट है। परन्तु इमके माहित्यिक इतिहास मे स्तम्भ अनुप्रेक्षणीय नहीं रहे। यजमण्डपो मे उल्लेख १३ वी शती के पूर्व के नही मिलते । क्या इस व्यवहत स्तम्मो का ही विकास शिल्पकृतियों में हुअा है। काल मे उपेक्षित रहा? या कहा जा सकता है जैन यो तो मुख्यत शब्द मे वितानाधार का ही बोध होना है, माहित्य मे प्राचार्य मदनकोति ने सर्वप्रथम इसका उल्लेख पर गिल्यशास्त्रज्ञो ने इसके अनेक प्रकार बताकर उनकी अपनी चतुम्बिशिका मे इस प्रकार किया है .वैज्ञानिकता पर विशद् प्रकाश डाला है। उनकी उप- स्रष्टेति द्विजनामहरिरिति प्रोटगीयते वैष्ण योगिता सर्वव्यापक रही है। मौर्यकाल में वास्तुकला मे बौद्धतिप्रमोद विवशः शलीतिमाहेश्वरः मम्बद्ध उपलन्ध स्तम्भो मे प्रमाणित है कि उनका निमाण कुष्टानिष्ट-बिनाशयोजनदशां यो लक्ष्यत्तिविभुः कामिक परिवेश में हुया थ।। गुग्नवान मे उगवला ने सश्रीनागहृदेश्वरो जिनपति विग्वाससां शासनम् पौर भी विकाग किया, मानमार पीर बृहन्महिना जैसे १५वी शनी के उदयकोत्ति ने भी अपनी निर्वाणमप्रतिष्ठि ग्रन्थो मे इनके भेद-प्रभेदी वी चर्चा है । पीति भक्ति में इस प्रकार उल्लेख किया है :म्तम्भ, गरुडम्तम्भ, विजयम्नम्भ । म्मारक ग्तम्भ और मानस्तम्भ प्रादि के रूप में म्नम्भो ने अपनी विकाम नागद्दह परसु सयभुदेउ हां बवजसु गण णस्थि छेव यात्रा की है। धर्मस्तम्भों में गरुडध्वज विशेष महत्व रखता है। परन्तु दिगम्बर जैन विद्वानों ने नागदह का मध्यप्रदेश विष्ण] प्रामादो के सम्मुख यह स्वडा किया जाता था का नागदा मान लिया था, जब उग प्रामाद-प्राप्ति की और इसके सर्वोच्च भाग मे गाड की प्रतिमा बैठाई जाती। मूचना मैने प. परमानन्द जी को दी तो वे प्रसन्न हुए मौर थी, ऐसे स्तम्भो का ढलन गुप्त मुद्राग्री में हना था, अब पथ विष्णु मन्दिरो के मभा मण्डपो में गरुड़ को स्थापना की मी प्रकार बनाम्बर जैन माहित्य में भी नागदा जाती है या मम्मुग्व स्वतन्त्र मण्डप बनाया जाता। के पावनाथ तीर्थ का मन है, पर वह भी प्राचीन नही कैलाशपुरी मे ऐसा स्वतन्त्र मण्डप कुम्भकर्ण ने बनवाया है, इस पर अन्यत्र विचार किया गया है। २०१२२६ के विध्यवन्नी विनोलिया के गिलोत्कीर्ण था। जैन तीर्थंकरो की सभायात्रा के सर्वाग्र भाग म 1 श्राना मदनकोनि विदरेय ग्रन्थकार और विशाल. "इन्द्रध्वज" की व्यवस्था रहती थी। मम्भव है इमी का कीनि केशाय थ। म० १४०१ मे राजशेखरमूरि अनुकरण दिगम्बर जैनो ने किया हो। इसमें मनोरन दाग प्रगी। प्रबन्धकोग मे उनका विग्नत परिचय इतना ही किया है कि मानम्तम्भ ऊपरी प्रम में दिया हुआ है। इनका अमिन ममय वि० मं. चतुर्मुख-मनाभद्र-जिनप्रानमाए स्थापित रहनी थी, १२६ है । विशेष के लिए दाटव्य :नागदा के महातीर्थ पाश्र्वनाथ मन्दिर के आगे भी विशाल -प० दरबारीलाल जी जैन, चन्दाबाई अभिनन्दन मानम्तम्भ का अस्तित्व था जमा कि उसने. विम्बर ग्रन्थ, पृट ७३, Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ अनेकान्त लेख में नागहृदीय पार्श्वजिनेश्वर का उल्लेख' है। अद्यतनोल्लेख डा० भाण्डार करने नागदा के अवशेषो का वर्णन माकियोलोजिकल सर्वे प्रोफ़ इंडिया १९०५-६ के वार्षिक वृतान्त में किया है। इसके आधार पर ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी ने उल्लेख किया है कि: "एकलिंगजी की पहाड़ी के नीचे एक मन्दिर जैनियो पद्मावत के नाम से है। भीतर छोटे मन्दिर हैं । दाहिनी तरफ चौमुखी मूर्ति है शेष खाली है। लेख सं० १३५३ और १३९१] के हैं यहाँ पार्श्वनाथ को मूर्ति होगी चाहिए। यह दिगम्बर जैनों का है। मण्डप में एक मूर्ति श्वेताम्बर रखी है जो किन्हीं धन्यत्र स्थान से लाई गई है । इस पर राजा कुंभकर्ण का खरतरगच्छ का लेख है । एक वेदी पर पाषाण है जिसके मध्य में एक ध्यानाकार जिन मूर्ति हैं। ऊपर मगल-बगल शेष तीर्थंकरो की मूर्तियाँ हैं।" उद्धरण का पद्मावती मन्दिर पास ही बना है। यहां तीन मन्दिरो का प्रश्न ही नहीं उठता, उपयुक्त वर्णन पार्श्वनाथ मन्दिर पर चरितार्थ होता है, कारण कि इसके गर्भ गृह में दोनो ओर के विशाल श्रालो में सभवतः उन दिनो प्रतिमाएं रही हो। जिस चौमुखी प्रतिमा का संकेत है वह तो मानस्तभ का ही उच्च भाग है । कुम्भकरणं को लेखवाली प्रतिमा श्राज उदयपुर के राजकीय पुरातत्व संग्रहालय में 1. तदा नागहृ देयक्ष गिरिस्तत्र पपात सः ॥७३॥ यदावतारमाकमदन पादजिनेश्वरः ।। X X X X तत्राहमपि यास्यामि यत्र पार्श्वविभुर्मम । वीरविनोद पृष्ठ ३८७ 2. प्राचीन जैन स्मारक, पृष्ठ १४५, ( मध्य भारत मौर राजपूताना ) विद्यमान है। भाजक दिगम्बर विद्वान इस मन्दिर के अस्तित्व स्थान के सम्बन्ध में संदिग्ध ही थे । मुनि श्री हिमाणुविजय जी ने भी इस प्रासाद को देखा था, परन्तु यह साम्प्रदायिक अभिनिवेश या इसके साथ न्याय न कर सके, श्रापने इमे श्वेताम्बर प्रासाद स्थापित करने का विफल प्रयास किया, इनके गुरु इतिहास प्रेमी मुनि विद्या विजय जी ने मेवाड़ की यात्रा में इसका तो क्या अबद जी के अतिरिक्त किसी भी जैन मंदिर का उल्लेख ही नहीं किया, एक कलाप्रेमी और शोधक की दृष्टि से केवल यह मंदिर प्रोफल रहा, यह बात नहीं है आपने तो दवद्जी के समीपवर्ती मोकल से भी पूर्व के दो कलापूर्ण मंदिरों का भी सकेत नहीं किया है। यह बड़े । खेद की बात है कि शोधक भी साम्प्रदायिक क्षुद्रता का परित्याग नही कर पाते । निर्माण काल यद्यपि तीर्थ स्थापनकाल पर विस्तार से "आचार्य समुद्रसूरि और पार्श्वनाथ तीर्थ" शीर्षक में विचार किया गया है, यहाँ संक्षेप में प्रासंगिक रूप से ही सकेत करना अलम् होगा । यहा पर उत्कीरिणत लेखों से ऐसा कोई स्पष्ट संकेत उपलब्ध नही जो इस समस्या को समाधान का रूप दे सके । यद्यपि १६ वी सती के प्रभावशाली प्राचार्य मुनि सुन्दरसूरि ने अपनी गुर्वावली में उल्लेख किया है कि मौर्य सम्राट् सम्प्रति ने नागहृद मे मंदिर बनवाया था, परन्तु इस कथन की पुष्टि में आज तक कोई अकाट्य प्रमारण उपलब्ध नहीं हो सका है, सच बात तो 1. लेख इस प्रकार प्रकित है - १ श्रीनामदपुरे राणा श्री कुम्भकर्ण राज्ये २ श्री पादिनाथ विवस्य परिकरः कारितः ३ प्रतिष्ठितः श्री वरतरगच्छे श्रीमतिवद्ध नमूरि ४ भिः । उत्कीर्णवान् सूत्रधार धररणाकेन। श्री ॥ घरा मुत्रधार के लिए दृष्टव्य" कुम्भण्याम प्रासाद ।" 2. आत्मानन्द जन्म शताब्दीच गुजराती विभाग, पृष्ठ १३१ , Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रलोप पाश्र्वनाथ-प्रासाद यह है कि मौर्य काल में नागहृद का अस्तित्व ही नही किया ही जा चुका है कि १३ वी शती से पूर्व कोई सूचना था, इस पुण्यधरा ने नागहृद नाम कब से सार्थक किया? जैन साहित्य नहीं देता, परवर्ती सकेत तो पर्याप्त है। नही कहा जा सकता। सं० ७०२ और सं० ७१८ की नागहृद की स्थापना के समय यदि वह गुहिलकाल में हुई क्रमश. शील और अपराजित की प्रशस्तियों में नागहृद हो तो जैनो का प्रभुत्व था, क्योकि चित्तौड मे हरिभद्रसूरि का सकेत नही है । इसका सर्व प्रथम उल्लेख स० १०८२ का साधना केंद्र स० १०२८ की लकुलीश प्रशस्ति से जैन के लेख में प्राप्त हुमा है जो सग्रहालय के क्रमांक ३५ के सम्पर्क स्वतः मिद्ध है। शिलापट्ट पर अकित है, और नागदा से ही लाया गया। प्रासाद निर्माणकाल के सम्बन्ध में भी प्रमाणाभाव था, पौराणिक पाख्यान तो इसे सोमवंशीय जनमेजय तक में निर्शचत नही कहा जा सकता । स० ११९२ के लेख ले जाते हैं, पर इसमें तथ्य प्रतीत नही होता, मेवाड मे से इतना ही सिद्ध होता है कि इतः पूर्व या समकाल में जनश्र ति है कि नागादित्य ने अपने नाम से नागदा मंदिर का अस्तित्व था, प्राचीन लेख में मम्प्रदाय सूचक बसाया था, रणछोड घट्ट प्रणीत “अमरकाव्य।'' में भी। कोई सकेत नहीं है, तथापि प्रामादस्थ प्रतिमाएं और शिखर यही संकेत है। एतद्विषयक प्रमाण अन्वेषणीय है । प्रस- के बिम्ब दिगम्बर मान्यता का ही समर्थन करते हैं, यहाँ भव नही यहां किसी समय नागवशियों का शासन रहा के साक्ष्य इसे वेताम्बर मदिर प्रमाणित करने में सर्वथा हो या नागपूजा का विशेष प्रचलन, भौर उमी की स्मृति असमर्थ हैं। यह स्पष्ट सकेत इस लिए करना पड रहा है स्वरूप नागहृद नाम पड़ गया हो। कि मुनि श्री मानने हिमांशुविजय जी एवम जैन तीर्थ सर्व ऐतिहासिक घटना प्रमगो से सिद्ध है कि बापा रावल संग्रह के मपादक ने इसे स्पष्टत श्वेताम्बर प्रासाद मनके पूर्व नागहृद का अस्तित्व था। गुहिलकाल में वर्षों वाने का प्रमफल प्रयास किया है। यहां प्रदबद जी के तक पाटनगुर के रूप मे गौरव अजित करता रहा। पास एक और पाश्र्वनाथ का प्रासाद है जिसके स्तम्भ पर पाठवी शती में जैन मस्कृतिका यहा व्यापक प्रचार था, सं० १४२६ का एक लेख है। सभव है उसी ममय गिरिकन्दा में गृहा-चैत्य परिस्था- वास्तुकला के प्रकाश में गृहा-चैत्य ११-१२ वी शती पिन किया जाकर कालान्तर में विशालप्रासाद के रूप में की रचना है, कारण कि इसकी शैली और मकरवक्त्रपरिणत हो गया हो। प्राप्त उल्लेखो का मकेत ऊपर पक्ति, तमालपत्रिका, छाप और खल्वाकृतियाँ, शिखर3. मेरी मेवाड यात्रा पष्ठ ६१, श्रग आदि अन्य प्रयुक्त अलक रण लकुलीश प्रासाद का 1. यह लेख विद्रत्न परमेश्वर जी सोलंकी ने वरदा, वर्ष अनुसरण करते है। कालान्तर मे भक्तो द्वारा प्रान्तरिक ६, अक १ मे प्रकाशित है, यह लेख किसी सूर्यबशी भाग समय-समय पर प्रसाम्प्रदायिक धार्मिक साधना का वैष्णव राजा का है, ६ पक्ति मे नागहद का इम केन्द्र बना रहा । पर पुन सरकार की महति पावश्यप्रकार उल्लेख है:--स्थाननागहृदाभिख्यमस्ति कना है। 2. एलिगान्तिक सोय चक्रे नागहृदापुर । 1. भाग २, पृष्ट ३३६-८, बटोही सम्बोधन मिथ्यामति रैन माहि ग्यानभान उद नाहि प्रातम अनादि पथी भूलो मोख घर है। नरभौ सराय पाय भटकत वस्यो प्राय काम क्रोध ग्रादि तहाँ तमकर को डर है। सोवेगो अचेत सोई खोवेगो घरमधन तहाँ गुरू पाहरू पुकार दया कर है। गाफिल न ह भ्रात ऐसी है अंधेरी राति जागरे बटोही यहा चोग्न को डर है॥१॥ नरभौ सराय सार चारों गति चार द्वार ग्रातमा पथिक तहाँ सोवत अघोरी है। तीनोंपन जाँय प्राव निकस वितीत भए अजो परमाद मद निद्रा माहि धोरी है। तो भी उपगारी गुरु पाहा प्रकार कर हाँ हा रे निद्रालू नर कमी नीद जोरी है। उठे क्यों न मोही दर देश के बटोही अब जागि पंय लागि भाई रही रैन थोरी है ॥२॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगढ का शान्तिनाथ जिनालय प्रो० भागचन जैन, भागेन्दु, एम० ए० शास्त्री सामान्य परिचय इसका प्राचीन नाम 'लुअच्छगिरि" था। इस नाम का देवगढ़ उत्तरप्रदेश में झासी जिले की ललितपुर तह- स्पष्ट उल्लेख विक्रम सं. ११६ के गुर्जर प्रतिहार राजा सील में वेतवा नदी के किनारे, २४° २२ प्रक्षाश और भोज के शिलालेख में है। प्रत १०वी शताब्दी ईस्वी ७८°१५ देशातर पर स्थित है। मध्य रेलवे के दिल्ली- तक यह स्थान 'लअच्छगिरि' नाम से प्रसिद्ध था। बम्बई मार्ग के ललितपुर स्टेशन से यह दक्षिण-पश्चिम में बारहवी शती से इस स्थान का नाम कीति गिरि ३३ किलो मीटर की एक पक्की सड़क से जुड़ा है। उसी प्रचलित हुआ। अत: यह कहा जा सकता है कि इस रेलवे के जाखलौन स्टेशन से इसकी दूरी १३ किलो स्थान का नाम 'देवगढ' १२वीं शताब्दी के अन्त का मीटर है। तेरहवीं के प्रारम्भ में किसी ममय रखा गया। प्राचीन देयगढ विन्ध्याचल के पश्चिमी छोर की एक 'देव' शब्द 'देवता' का वाची है और 'गह' का शाखा पर गिरि दुर्ग के मध्य स्थित था। जबकि अर्थ 'दुर्ग' होता है । मेगे अपनी राय में यहाँ दुर्ग के प्राज वह उसकी पश्चिमी उपत्यका में बसा है। 1.देखिये-मन्दिर मम्या १२ के महामण्डप के मामने वर्तमान में यहाँ ५४ घरो में ३६६ मनुष्य निवास करते अवस्थित अधमरप के दक्षिण पूर्व के स्तम्भ पर हैं। एक विशाल जैन धर्मशाला और शामकीय विश्राम उत्कीर्ण अभिलेख। गृह भी यहा है। ग्राम के उत्तर में प्रसिद्ध 'दगावतार- - 2 देखिये --- देवगढ़ दुर्ग के दक्षिण पश्चिम में राजघाटी ही मन्दिर' तथा शासकीय संग्रहालय और पूर्व में पहाडी पर के किनारे बन्देलवशी गजा कीतिवर्मा के मन्त्री उसके दक्षिणी पश्चिमी कोने पर जैन स्मारक हैं। इस वत्सराज द्वारा उत्कीर्ण अभिलेख। पहाडी की अधित्यका को घेरे हए एक विशाल प्राचीर 3. (अ) ग्रम मह : अमरकोष, वाराणसी, १९५७ : है, जिसके पश्चिम में कुज द्वार और पूर्व में हाथी दरवाजा काण्ड १, वर्ग १, पद्य ७-६ देखे जा सकते है। इसके मध्य एक प्राचीर और है, (ब) धनंजय · नाममाला, अमरकीति विरचित जिसे 'दूसरा कोट' कहते हैं, इसी के मध्य वर्तमान जैन भाष्योपेता, प. शम्भुनाथ त्रिपाठी सम्पादित, स्मारक है । 'दूगरे कोट' के मध्य में भी एक छोटा-सा काशी, १६५० . श्लोक ५६, पृष्ट ३. प्राचीर था, जिमके अवशेष ग्राज भी विद्यमान हैं। इस (स) मस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ, चतुर्वेदी द्वारकाप्रसाद प्राचीर के भी मध्य एक प्राचीर सदा दीवाल सन १६३० गर्मा तथा तारितीश झा सम्पादित, मे स्वर्गीय मठ पदमचन्द जी बैनाडा प्रागरा निवासी की इलाहाबाद, १९५७ पृष्ठ ५३० अोर से बनाई गई, जिसमे दोनो पोर खण्डित मूर्तिया (2) नालन्दा विशाल द मागर, नवलजी मम्पा. जडी हुई है । विशाल प्राचीर के दक्षिण पश्चिम में वराह दिन, : देहली, विकमान २००७ पृष्ट ६१३ मन्दिर और दक्षिण में वेतवा नदी के किनारे नाहर घाटी 4. (अ) अमरसिंह अमरकोष,२-८-१७ पौर राजघाटी है। (ब) धन जय, नाममाला, श्लोक १:, पृष्ठ ६ (स) मस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ, पृष्ठ ५२३ देवगढ, यह इस स्थान का प्राचीन नाम नहीं है। (ड) नालन्दा विशाल शब्द सागर, पृष्ठ ३.५ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगढ का शान्तिनाथ जिनालय अन्दर 'देव' मूर्तियो की प्रचूरता होने के कारण कदाचित् की देखरेख में एक विणाम और मान्यपूर्ण महामय इस स्थान का नाम देवगढ पड़ा। का निर्माण हो गा है। देवगढ़ में सम्प्रति उपलब्ध पुरातत्व सामग्री इस तथ्य यद्यपि देवगढ की जैन कला और पुरातत्व का की पोषक है कि मौर्य युग से लेकर ईसा की १४वी विशेष अध्ययन में कर रहा हूं, किन्तु मेरे इस निबन्ध में १५वी शती तक मुख्य रूप से और १५वी शती तक गौण वहा के एक विदोष उल्लेखनीय मन्दिर का ही परिचय रूप से राजनैतिक, धार्मिक, कलात्मक, ऐतिहासिक और। दिया जा रहा है। साँस्कृतिक गतिविधियो का केन्द्र रहा। यद्यपि वहा के मान्वर सख्या १२ बहुसख्यक स्मारक धराशायी हो गये हैं. और प्रकृति की और पतिकी देवगढ़ दुर्ग के पूर्वी कोण पर जैन मन्दिर ममह के गोद में समाविष्ट है, पुनरपि भारतीय पुरातत्वजो एवं मध्य में अवस्थित इस विशाल, भव्य मोर गगनचुम्बी अन्य समाजसेवियो के प्रयत्न से जो जीरोद्धार होकर पश्चिमाभिमुग्व मन्दिर के प्राकार प्रकार मे अनेक सामने आई है, वह भी बहत है। इस दिशा में मन् सम्भावनाये छिपी है। वर्तमान में यह पचायतन शैली १८७४ में मर्वप्रथम अलक्जेन्डर कनिंघम का ध्यान गया। का मन्धार-प्रामाद है। हम सर्वप्रथम अर्धमण्डप में प्रवेश इस सन्दर्भ में रायबहादुर दयाराम साहनी, विश्वम्भग्दाम करते है। उममे मे ६ मीढियो द्वारा एक चौडे पबतरे गार्गीय और नायराम सिंघई की मेवाये भी उल्लेखनीय पर पाते है । नब छह-छह म्नम्भो की छह पक्तियो पर महत्व रखती है। देवगढ पुरातात्विक अध्ययन और आधारित एक भव्य महामण्डप में प्रवेश करते हैं. जिसके जीर्णोद्धार के क्षेत्र में ललितपुर के श्री परमानन्द बग्या बायें म० स० १३ प्रौर म० स. १४ को दक्षिणी दीवाने ने जो गहरी दिलचम्पी ली है, उन्होने शामन और ममाज स्थित है। इन दीवालो और महामण्डप के बीच लगभग के महयोग से देवगढ की जो सेवा की है और कर रहे हैं, ३ फुट का जो अन्तर पा उममें महामण्डप के फर्श से १ वह तब तक नही भूलाई जा सकती, जब तक देवगढ का फुट ६ इच ऊची और २ फूट लम्बी वेदी बना दी गई। अस्तित्व है। क्षेत्रीय प्रबन्ध समिति के वर्तमान मत्री पोर उम पर २० शिलापट स्थापित किये गए हैं जिनमें श्री शिखरचन्द्र मिघई भी क्षेत्र के बहमुखी विकाम के में दो पर पद्मासन और शेष पर कायोत्सर्गासन तीथंकर लिये सतत् प्रयत्नशील हैं, माह शान्तिप्रमाद जी ने भी मूनिया उत्कीर्ण है। महामण्डप मे अन्तराल में पहुंचा जीर्णोद्धार में स्तुत्य सहयोग किया है। जाता है और जिसके दायें बाय एक एक मढिया विद्यमान देवगढ में सम्प्रति ४० मन्दिर (पुगतत्व विभाग है। बाय पार की माढया में विति-भुजी चक्रेश्वरी' द्वारा प्रकित १ जीर्णोद्वार प्रादि द्वारा अन्वेपित ह न . यह प्रथम नीर्थकर भगवान ऋषभनाथ की शासन मन्दिर ४.) और १८ मानस्तम्भ या स्तम्भ विद्यमान देवी है, - हैं। इसके अतिरिक्त महस्त्राधिक खण्डित अण्डिन द्रष्टव्य-(घ) निवषम निलोय पणती, भाग १, मूर्तियों को चिन कर एक प्राचीर मदश दिवाल है, जो ८६२७, डा० ए०एन० उपाये और डा. हीरालाल यहाँ के प्रमुख मंदिर मख्या १२ को घेरे हुए है। अनेक जैन सम्पादिन, गोलापुर, १९४३ । १० २६७ टोलो प्रादि पर मूर्तियों और भवनो के अवशेष म्पष्ट देखें (ब) प. प्रागाधर, प्रतिष्ठामागेद्धार, अध्याय ३ जा सकते हैं। दुर्ग के पूर्व की पोर हाथी-दरवाजे मे पद्य १५६, बम्बई वि० म० १६७४ । पत्र ७. भी कुछ जैन मुर्तियों जडी हई है। नीम कोट के बाहर (म) नेमिचन्द्र देव, प्रनिष्ठानिलक, परि०७ पर। भी जन सामग्री यदा कदा प्राप्त होती रहती है। पर्वत के बम्बई, १९१८ । पृ. ३८७-२४१। नीचे जैन धर्मशाला मे एक चैत्यालय है और यही माह म) शुक्ल, डा० दिजेन्द्रनाथ, भाग्नीय वास्तुशास्त्र, मान्तिप्रसाद जी की पोर से श्री विशनचन्द प्रवर्गमयर प्रनिमाविज्ञान, ८वा पटल पृष्ठ २७० Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त पौर दाये मोर की मढिया में किसी अन्य जैन यक्षी की मन्दिर तीन या चार बार में निर्मित हुमा प्रतीत होता प्रतिमाय थी, जिन्हे अब वहाँ से धर्मशाला में स्थाना- है। इसका महामण्डप अपनी मादगी से स्पष्ट ही घोषित न्तरित कर दिया गया है। करता है कि उसका निर्माण गुप्तकाल से पूर्व, कदाचित् अन्तराल को पार करके हम ४ फूट ३ इच चौडे मौर्यकाल मे हुया था। इसके मध्यवर्ती चार स्तम्भो के प्रदक्षिणा-पथ में प्रवेश करते है, इसमें चारो ओर बीच एक वेदी थी', जिसमे जडा हुआ एक 'जान शिला' विशालाकार पद्मासन ६ और ४८ कायोत्सर्गासन ५४ नामक शिलालेख प्राप्त हया है। तीर्थकर प्रतिमाये अंकित है। इनमें से १५ अभिलिखित इस अभिलेख की लिपि यद्यपि अनेक भारतीय है । अन्तराल से चार सीढियो द्वारा उतर कर इस मदिर लिपियो का मिश्रण है तथापि इममें अशोक कालीन में भव्य गर्भगृह में पहुंचा जाता है। इसमें एक विशाला- ब्राम्ही लिपि के लक्षण अधिक और स्पष्ट देखे जा सकते कार कायोत्सर्गासन तीर्थकर मूर्ति है, जो यहाँ की मौलिक हैं। इम महामन्डप के मौर्यकालीन होने का नीमरा कारण प्रतिमा है । इसके अतिरिक्त प्रवेश द्वार से मटी हुई दाये यह है कि इतने विशालाकार महामन्डपो का निर्माण बायें दो, और तीर्थंकर की विशालाकार मूर्ति के दोनो उस काल में ही होता था। बाद में महांमडपो का पोर एक एक अम्बिका मूर्तियां विद्यमान है। अवध । अलाहाबाद, १८६१॥ स्थापत्य कला के विकास की दृष्टि से यह सम्पूर्ण (स) माहनी, दयागम, एनुअल प्रोग्रेस रिपोर्ट प्राफ दि मुप्रिन्टेन्डेन्ट हिन्दू एण्ड बुद्धिस्ट मानुमेन्टम, प्रतिष्ठामारोद्वार के अनुसार इस देवी के १६ हाथ नार्दनं मर्विस, (लाहौर, १९१८) पृ०६ किन्तु प्रतिष्ठा तिलक पृ० ३४०-३४१ के अनुसार (ड) श्री परमानन्द जी वग्या, जो देवगढ के जीर्णो२० हाथ होते है। विभिन्न स्थानो मे कलाकारो ने द्वार में प्रारम्भ में ही दत्तचित्त है, ने भी इम इम देवी के हाथो की संख्या और उनमें धारण को गई वस्तुपो में विविधता का निरूपण किया है। तथ्य की पुष्टि की है। यह वेदी अभी कुछ ममय पूर्व हटा दी गई है। यह वेदी मूलतः देवगढ के इम मन्दिर में इस देवी की २० भूजाये है उस समय की होगी जब यह 'महामण्डप' मूल और मभी में चक्र धारण किये है। मन्दिर के रूप में निर्मित हुआ होगा। 8. दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो ही इसे २१वे तीर्थकर 8. साहनी, दयाराम, ए. प्रो. रि०, पृष्ठ १० । भगवान नेमिनाथ की शासन देवी के रूप में स्वीकार 9. (म) देवगढ का यह महामण्डप ४२ फुट ६ इच का करते है। आयताकार है। दृष्टव्य (म) प्रतिष्ठा सारोद्वार, २ । १७६, पत्र ७३। (ब) मोर्ययुग से स्तम्भो पर मन्दिर निर्मित होने (ब) प्रतिष्ठा तिलक, ७ । २२, पृष्ठ ३४७ । लगे थे, पर उडीसा के स्थापत्य में स्तम्भो का (स) बप्प भट्ट सूरि, चतुर्विशतिका, पृष्ठ १५० काई महत्व नही रहा। (3) भारतीय वास्तुशास्त्र, प्रतिमाविज्ञान, 10. 'केवल म्तम्भो पर आधारित मन्दिर, इससे (खूजु पृष्ठ २७४, राहो मे) बहुत पहले देवगत मे निर्मित होने 7. (म) कनिघम, ए : पाकियोलाजिकल म आफ लगे थे। इंडिया, जिल्द १०, (कलकत्ता, १८८०) पृष्ठ देखिये--अनेकान्त, दिल्ली, १९६६ । वर्ष १९, १००-१०१, किरण ३ मे प्रकाशित प० गोपीलाल 'अमर' एम. (ब) फुहरर, ए : मानुमेन्टल एन्टिक्विटीज एण्ड ए. के 'खुजुराहो का घण्टई मन्दिर' शीर्षक निवध इशक्रिप्शन्स, इन दी नार्थ वेस्टनंप्राविशेज एण्ड की पादटिप्पणी मंख्या १८, पृ. २३ । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगढ का शान्तिनाथ जिनालय प्राकार क्रमशः छोटा होता गया मौर खजुराहो तक रित है । सामने के दो स्तम्भ एक समान है, जबकि माता प्राता लगभग १०'x१०' का रह गया प्रथवा पश्चाद्वर्ती दो स्तम्भ पूरी तरह से प्रसमान है । मेरा लुप्त हो गया। विश्वास है कि मूल स्तम्भों के खण्डित हो जाने से इन्हें महामंडप के पश्चात् गर्भगृह अर्थात् मुख्य मन्दिर किसी अन्य स्मारक के अवशेषों में से लाकर समाविष्ट का निर्माण होना चाहिए | इसकी रेखाकृति, अधिष्ठान, किया गया होगा। क्योकि यदि उनमें प्रलंकरण मादि प्रवेशद्वार, उस पर का प्रलकरण, शिखर को गुम्बदनुमा का सूक्ष्म अंकन न भी किया जा सकता, तो भी मोटाई प्राकति. उसके साथ प्रगशिखगें और उरूगी का प्रभाव प्रादि में समानता तो लाई ही जा सकती थी। उन दोनों प्रादि कुछ ऐसे तथ्य हैं, जो इसे गुप्तकाल या उसके की चोकिया भी माघारण पत्थरो से बना दी गई। किचित अनन्तर का सिद्ध करते हैं। यहीं के 'दशावतार यद्यपि उनके शीर्ष मौलिक है। मन्दिर' की अनुकृति पर यह या इसकी अनुकृति पर वह सामने के स्तम्भो पर चौकियो के ऊपरी भाग के निर्मित हुया हो, यह अधिक सम्भव है। चारो मोर क्षेत्रपालो का अंकन है, और उनके ऊपर प्रदक्षिणापथ, निविवाद रूप से गर्भगृह के पश्चात् शिखराकतियो मे यक्त देवकलिकामो में तीन तीन मोर निर्मित हमा है क्योंकि : १. गुप्त कालीन मन्दिरो मे प्रद- कायोत्सर्गासन तीर्थकरो और एक मोर एक एक यक्षिणी - क्षिणा पथ प्राय: नही देखा जाता, २. इम मन्दिर की पर प्रतिमानो का अंकन हमा है। उनके ऊपर दोनो स्तम्भो 'कानिश' को काट कर बाद में समाहित किये गये प्रद- पर प्रत्येक मोर एक क कायोत्मर्ग तीर्थकर दिखाये गए क्षिणापथ के 'उष्णोष' अपनी असमानता को इस समय हैं, और उनके दोनों ओर दो सुन्दरियां उन्हे रिझाने का भी नही छिपा सकते, ३. इसकी भित्तियो के बहिर्भाग निष्फल प्रयत्न कर रही है। उनके भी दोनो ओर एक में चिनी हई जातियां और यक्षिणी प्रतिमानो के प्रकन एक पुरुषाकृतियाँ और एक एक नारी प्राकृतियां दशित सहित स्तम्भो की कला म्वुज़राहो की कला (स्वी शनी हैं। इसके पश्चात् प्रत्येक उन पर मकरमुखो का प्रलकरण ई.) के समकालीन प्रसीत होती है। ४. यक्षिणी और उसके ऊपर विभिन्न देवी देवताग्रो का प्रकन है। प्रतिमानों के नीचे उत्कीर्ण उनके नामो के वरणों की उसके भी ऊपर नत्य मण्डली का अत्यन्त मनोरम मंकन लिपि १०वी शती या ११वी शती की मम्भावित है। हमा है, जिसके ऊपर नयनाभिराम जालीदार कटाव है। ५. प्रदक्षिणा-पथ का प्रवेश द्वार मुख्य मन्दिर के माथ इसके पश्चात् समग्र मण्डप का भार सम्हालने में दत्तचित ही उसके प्रर्धमण्डप के द्वार के रूप में निर्मित हुया था, कीतिमुख दिखाए गए हैं । तोग्गा पर भी मुख यक्ष के क्योकि इसके और गर्भगृह के द्वार की कला और प्रत:- अनन्तर विविध वाद्ययन्त्रो से सज्जित एक लम्बी सगीत करण प्रादि में पूर्ण समानता स्पष्ट रूप से देखी जा मण्डली का अग्न काफी दिलचस्प बन पड़ा है। सकती है, जबकि प्रदक्षिणा-पथ के बाहर अंकित इस मण्डल के दक्षिण-पूर्वी म्तम्भ पर एक ऐतिहासिक यक्षिणियो की मूर्तियों और प्रदक्षिणा-पथ के प्रवेश-द्वार प्रभिलेख उत्कीर्ण है, जिमके द्वारा देवगढ़ का प्राचीन में अंकित मूर्तियों तथा अन्य अन्तःकरण में किसी भी नाम एवं राजा भोजदेव की राज्यमीमा व समय निर्धारित दृष्टि से समानता नहीं है। करने में बहुत बडी महायता मिलती है। यह अभिलेख प्रदक्षिणा पथ के साथ या उसके कुछ समय प्रास- १० पक्तियो में १ फूट ढाई इच ऊचे और १ फुट ५ इच पास ही अन्तराल पौर अर्घमण्डप का निर्माण हुआ होना चौडे स्थान में उत्कीर्ण है। इसके एक अक्षर की लम्बाई चाहिये। लगभग १ इच है। प्रर्ष मण्डप : अन्तराल का प्रवेशद्वार :इस मन्दिर का प्रचं माप चार स्तम्भो पर प्राधा- अन्तराल का प्रवेश द्वार विशेष रूप से प्रलकृत है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त इसके दोनों पक्षों पर गंगा और यमुना का अंकन अत्यन्त मोर बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ का यक्ष पाश्वं और भव्यता से उसकी सहायक देवियो के साथ हमा है । यह लक्ष्मी का अंकन है। तत्पश्चात् प्रत्येक द्वार पक्ष दो द्वार तथा गर्भगृह का प्रवेशद्वार एक ही समय की कृति दो पंक्तियों में ऊपर की ओर बढ़ता है। बाहरी पंक्तियां माने जाने चाहिए । दोनों का प्रलंकरण और विषयवस्तु चौखट के ऊपरी भाग के साथ ऊपरी भाग तक बढ़ती शैली मादि की दृष्टि से एक जैसा है। जाती हैं। उनमें सर्वप्रथम एक एक देवी का और प्रदक्षिणा पथ तत्पश्चात् विभिन्न प्राकृतियो के शार्दूलो का अंकन है, प्रदक्षिणा-पथ की दीवाल के बाहर जालीदार लम्बे जिनमें गजमुख शार्दूल की छटा दर्शनीय है । बाये मोर किन्तु मकरे गवाक्षों की सुन्दर संयोजना हुई है। प्रति दो की भीतरी पंक्ति में अपनी तीन सहायक देवियो के साथ स्तम्भों के मध्य एक शिखराकृति से युक्त देवकलिका मकरवाहिनी गंगा दर्शित है, जिसके ऊपर नाग अंकित है। दर्शायी गई है, जिमके ऊपरी भाग में एक पद्मासन इसके ऊपर एक पुस्तकधारी साधु उत्कीर्ण है। इसके तीर्थकर और उनके नीचे अपनी सहायक देवियों के साथ ऊपर पांच पाच देवकुलिकाओं की तीन पंक्तियाँ नीर्थकर की यक्षिणी का अंकन हया है। प्रत्येक शासन- है। इनमें मे मध्यवर्ती किंचित् प्रागे को निकली हुई है देवी का नाम उसके पादपीठ में उत्कीर्ण है। इस प्रकार और यह चौडाई में पाश्र्ववर्ती पक्तियो से दुगनी है । मध्य प्रदक्षिणा-पथ में चागे मोर चौबीस तीर्थकरों और उनकी की की प्रथम देवकालिका में एक माध् अपनी पीछी यौर शासन देवियो का जो अंकन यहां हना है व भारतीय कमण्डलू लिये खडे हैं और एक दाढीधारी युवक विननापुगतत्व में कदानित एकमात्र है। 12 इससे न निमा. पूर्वक उनके चरण स्पर्श कर रहा है तथा उनके निकट शास्त्र का समृद्धि और परिपूर्णता का मप्रमाग बोध एक महिला अंजलि बांधे हा अपनी नम्रता अभिव्यक्त होता है। कर रही है। इसके ऊपर की तीन देवकालिकायों में तीन गभंगह का प्रवेशद्वार दम्पतियो को प्रेमामक्त मुद्रा में उत्कीर्ण दिखाया गया गर्भगृह का प्रवेशद्वार तत्कालीन स्थापत्य का प्रति है। निकटवर्ती दोनों पंक्तियो की देवकुलिका प्रो में निधित्व करता है। यह प्रत्यन्त भव्य और सूक्ष्मता से सनी विभिन्न मुद्रायो में विभिन्न वाद्ययन्त्रों के साथ खडे हुए दश व मलंकृत है। चौखट के नीचे के भाग के मध्य में कौति- स्त्री-पुरुषों का नयनाभिराम अंकन है। मुख और मकरमुख की उभरी हुई सज्जा के दोनो ओर दायीं पोर मर्वप्रथम अपनी सहायक देवियों के साथ एक एक नत्य मण्डली के पश्चात् स्नेह क्रीडा में मग्न कर्मवाहिनी यमुना देवी का नितान्त नयनाभिराम अंकन सिंह और हाथी की भव्य प्राकृतिया दर्शित हैं, तथा बायी हया है। उसके ऊपर नागी को अवस्थित दिखाया गया 11. इस द्वार के दोनो पक्षों का विवरण गर्भगढ़ के प्रवेश है। इसके बायी अोर साधु पीछी कमण्डलु तथा ज्ञान का द्वार के दोनो पक्षों से मिलता जुलता है। अत: साधन ग्रन्थ घारण किए हुए दिखाये गये हैं। इसके वही से ज्ञात कर ले। ऊपर (बायी प्रोर की भांति) यहां भी पाच पाँच देव12. रायबहादुर दयाराम साहनी इस मन्दिर में केवल कुलिकाओं को तान प कुलिकाग्रो की तीन पंक्तियां हैं। मध्यवर्ती पक्ति में २० यक्षिणी प्रतिमायें देख सके। प्रेमामक्त दम्पतियो और निकटवर्ती पंक्तियों में पूर्ववत् ए. प्रो. रि०, पृ. ।। विभिन्न मुद्रामो मे विभिन्न वाद्ययन्त्र धारण किए हुए कदाचित उन्होंने मढियो के पीछे इमो मन्दिर की 13 पावों धनुर्वाग भण्डि-मुद्गरश्च फल वर । दिवाल में जडी २-२ यक्षी प्रतिमानो पर मर्परूप: श्यामवर्ग: कर्तव्य शान्तिमिच्छना।। नहीं दिया। यदि किया होना तो उन्हे २४ यक्षि- शुक्ल, डा० द्विजेन्द्र नाथ, भारतीय वास्तुशास्त्र, रिगयो की मुतिया अवश्य मिलती। प्रतिमा विज्ञान, पाठवा पटल, पृ० २७४ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगढ़ का शान्तिाय जिनालय स्त्री-पुरुषों का मनोरम अंकन हुपा है। विद्वानों को निमित्त पाठक कहा जाता था। प्राजीवक चौखट के ऊपर मध्य में बहुत ही सुन्दर कमलाकृति सम्प्रदाय में निमित-शास्त्र बहुत प्रचलित था । ईसा पूर्व प्रासन पर द्वितीय तीर्थकर भगवान् अजितनाथ का पना- प्रथम शती में कालकाचार्य ने इन्ही से निमित्त-शास्त्र को सन में और उनके दोनो मोर एक एक तीर्थकर का पर्ण विद्या प्राप्त की थी। इन सोलह स्वप्नो का , कायोत्सर्गासन में अंकन है। उनमें भी दोनो पर पांच दिगम्बर जैन परम्पग में बहत अधिक महत्व है और पांच विद्याधर युगल उडते हुए दिखाये गये हैं और उनके विभिन्न ग्रन्थो में विस्तार से उनका फल बताया गया ऊपर नवग्रहो का प्रकन है । इसके ऊपर एक नवीन पक्ति है। श्वेताम्बर जैन परम्पग में भी भगवान जिनेन्द्र के प्रारम्भ होती है, जिसके मध्य में एक देवकुलिदा में एक पूर्व माता को म्वान-दर्शन अावश्यक माना गया है, विन्तु पघासन तीर्थकर और उनके दोनों ओर चार-चार पद्या- उनके यहां इनकी संख्या चौदह म्वीकार की गई है। सन और छह-छह कायोत्सर्गासन तीर्थकरी का अंकन है। सोलह-स्वप्नो के दृश्य उत्कीर्ण करने की परम्परा बहुत इस पक्ति के ऊपर तथा मध्यवर्ती देवकुलिका के दोनो प्रचलित रही है, इसे खजुराहो के घण्टई मन्दिर और पोर तीर्थंकर की माता के मोलह मंगल म्वप्नों का ग्रादिनाथ मन्दिर में प्राव के स्वरतर बमहि में भी देखा मार्मिक चित्रण है, उनमें (बायें से दाये) एक हाथी, बैन, जा सकता है। यत्र नत्र पब भी ये दृश्य अंकित किये सिह, लक्ष्मी, झूलती हई दो मालाये पूर्ण चन्द्रमा, उदीय- जाते हैं। मान सूर्य, मरोवर में क्रीडा करता हमा मछलियों का इम मन्दिर के गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर उत्कीर्ण युगल । देवकुलिका के दाये : दो स्वर्ण कलश, पद्य म्वानो की मोलह संख्या निर्विवाद रूप में सिद्ध करती है, मगेवर, लहराता हया समुद्र ग्लजटिन मिहामन, स्वर्गीय किएम मन्दिर का सम्बन्ध दिगम्बर जैन परम्परा मे विमान, धरगगेन्द्र का भवन, रत्न ममह और प्रज्वलित रहा है। उपयुक्न मोलह स्वप्नी की बायी पोर महाअग्नि अंकित है। काली नाम की नगमता पाठयी विद्यादेवी का प्रकन है, मंगल-स्वप्नो की मान्यता भारत में प्रत्यन्त प्राचीन जिसका एक हाथ अभय मुद्रा में है, एक हाथ किंचित है। छान्दोग्य उपनिषद् में उल्लेख है कि वह यदि स्त्री खण्डित हो गया है और शेप दो में वज्र तथा घण्टी है। को देखे तो समझ ले कि अभीष्ट कार्य सफल होगा। उन 17 शाह, डा. उमाकान्त प्रेमानन्द : म्टडीज इन जैन स्वप्नों के निमित मे समझ लें कि उन कार्यों में सफलता पार्ट, बनारस १९५२ पृ१०५, टिप्परगी-१ मिलगी"" दिगम्बर जैन परम्परा के अनुसार भगवान 18 (अ) जिनमेन, महापुराण प्रादि पुगण, मर्ग १२, । जिनेन्द्र जब माता के गर्भ में प्राने लगते है, नब माता पद्य १५५ और प्रागे । मोलह स्वप्नों को देखनी हैं। प्रत. ये स्वप्न भगवान् (ब) वीरनन्दी : चन्द्रप्रभ चरित, १६-६३ । 'जिनेन्द्र के जन्म का अनुमान कराने में सूचना स्वरूप है। (म) मुनिमुव्रतकाव्य, ३, २८, २६ । भगवान् महावीर मे पहले स्वप्न-फल प्रदर्शित करने वाले (ड) रूपचन्द्र -पच मगल पाठ. जिनवाणी मग्रह। कलकला, १९३७ । पृ० ५२ ॥ 14 (अ) भगवज्जिनमेनाचार्य, महापुराण प्रादि पुरागाः, 19 (न) भद्रबाह । कल्पमूत्र, डा. हमन याकोबी द्वाग पं. पन्नालाल जैन मम्पादित, काशी, वि.म. मूत्र ३, पृष्ठ २१६ । नथा मूत्र ३१-३६, पृष्ठ २००७ । मर्ग १२. श्लोक १०१ मे १ १तक । २२६ मे २८ नक। (ब) जिनमेन, इग्विश पुराण, (बम्ब, १९२०) (ब) शाह, डा. यू. पी. • स्टडीज इन जैन पार्ट, मर्ग ८ श्लोक ५८ तथा ७४ । पृ० १०५। 15 देखिये-दादोग्योपनिषद, २,८-- | 20 शुक्ल, डा० द्विजेन्द्रनाथ - भारतीय वास्तुशाग्त्र, 16 वोग्नन्द्री-नन्द्रप्रभ पग्नि, मर्ग १६. ५७ पृ. २७१.२७४ । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त दाये बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ की यक्षिणी सिंह भक्तों ने उसकी यथा सम्भव जुड़ाई करा दी है। इसे वाहिनी अम्बिका प्रकित है, जिसके दायें हाथ की गोद १६वें तीर्थकर शान्तिनाथ की प्रतिमा मानकर इस मन्दिर मी और बाये हाथ में प्रामगुच्छक है। उल्लेख- का नाम ही शान्तिनाथ मन्दिर प्रचलित हो गया है । परन्तु नीय यह कि इस मूर्ति में उसका दूसरा पुत्र अनुपस्थित शान्तिनाथ का चिन्ह हिरण या यक्ष यक्षिणी आदि है। इस शासन देवी का मुकुट अपनी निजी विशेषता कोई भी यहाँ दृष्टिगत नही होते । ऐसा प्रतीत होता है । रखता है, जिसकी बनावट माधुनिक सेनापति की टोपी मे म कि प्रहार, खजुराहो, सीरोन, चाँदपूर प्रादि निकटवर्ती ' बहुत कुछ मिलती जुलती है। तीर्थ स्थानो पर विद्यमान कायोत्सर्गामन विशालाकार . इसके ठीक नीचे वीणावादन में तन्मय सरस्वती की शान्तिनाथ की प्रतिमानो की समानता के कारण भक्तों मनोहारी प्रतिमा अंकित है। इसके ऊपर के दायें हाथ में ने इसे भी शान्तिनाथ प्रतिमा कहना प्रारम्भ कर दिया, सूत्र से मजबूती के साथ लेपेटी गई पुस्तक और बाये में जो कदाचित् सम्भव भी है। भक्तो ने इसके चिन्ह या यज्ञ आदि का अन्वेषण या तो किया ही नही, या वे इसमें घट विद्यमान है। इसके प्राभूषणों में पग में पायल, पाँव पोश, करधनी, हथफल, वधमा के चूरा, बाजूबन्द, मोहन असफल रहे, क्योंकि अभी कुछ वर्ष पूर्व तक इस प्रतिमा के सामने २ फुट ३ इंच के अन्तर से एक दीवाल खड़ी माला, भोरला, ठूसी, कर्णफूल और बैदी तथा वस्त्र अत्यन्त मूक्ष्मता के माथ निदर्शित हैं। इसकी केश राशि थी, जिसमें प्रवेश करने के लिये १ फुट ६ इंच चौडाई की एक खिडकी थी, इसमे मे प्रवेश करके एक अन्धकारअत्यन्त घुघराली और जूडा ऊपर को सम्हाल कर बांधा पूर्ण और बदबूदार सकरी कोठरी24 में मूर्ति का चिन्ह गया है। खोज निकालने का साहस कदाचित् ही किमी को होता इसके मुकाबले (चौखट के दाये किनारे) चतुर्भुजा वर्तमान में इम दीवाल को हटा दिया गया है, और एक लक्ष्मी का भी बहुत सुन्दर अंकन हुआ है जिसके दाये ऊपर के हाथ में कमल है और नीचे का वरद् मुद्रा में है, 22 (अ) फुहरर ने पता नही किस प्राधार पर इमे तथा बाया ऊपर का खण्डित है तथा नीचे के हाथ में ऋषभनाथ की मूर्ति लिखा है। फुहार, ए : कमल है। मान्यूमेन्टल ए इ० । अलाहाबाद १८८१ । इस प्रकार गर्भ का प्रवेश द्वार सूक्ष्मता और भव्यता (ब) कनिघम इस विषय में पूर्णत: मौन धारण किये से अलंकृत है, और तत्कालीन स्थापत्य का प्रतिनिधित्व है, वे इसे मात्र विशालाकार दिगम्बर प्रतिमा करता है। कहते हैं। पृष्ठ १००-प्रा०म०रि जिल्द १० (स) किन्तु साहनी ने इसे शान्तिनाथ की मूर्ति कहा गर्भ गृह है । देखिये-साहनी, दयाराम : एक प्रो० रि० . प्रवेश द्वार को वर्तमान में लकड़ी के किवाडो से पृष्ठ १०। बन्द किया जाता है चार सीढियो से उतर कर २ फुट 23 (4) कनिंघम, ए : प्रा०म०रि०, जिल्द १० पृ०१०० नीचे पाना पड़ता है, प्रवेश करते ही दोनों पोर अम्बिका (ब) फुहरर, ए : दि० मा० ए• हं०, । अलाहाबाद, की ४॥ फुट ऊ ची प्रतिमायें अंकित दृष्टव्य है । सामने १८६१ । ही १२.४" ऊंची कायोत्सर्गासन भव्य तीर्थकर प्रतिमा के 24 (म) कनिंघम, ए : प्रा० स० रि०, जिल्द १०, पृ.१०० दर्शन होते ही हृदय भक्ति मे भर उठता है । यह विशाला- (ब) साहनी, दयाराम : ए० प्रो. रि०, पृ० १.। . कार प्रतिमा कल के कराल थपेडो और प्राततायियो की (स) श्री परमानन्द जी बरया ने भी इस दीवाल, काली करतूतो मे बहुत कुछ खण्डित हो गई है। परन्तु खिडकी तथा वहाँ के अन्धकार विषक तथ्यो 21 देखिए-टिप्पणी, सख्या ६ की पुष्टि की है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ पवली दिगम्बर जैन मंदिर, शिरपुर ( नेमचन्द बन्नसा जैन ) विदर्भ के प्राचीन शिल्प के याद में जिसका उल्लेख भर तो निश्चित है तथा उसके एक भाग में चूने का होता ही है तथा जैन शिल्प-कला में जिसका नाम पहले प्लास्टर है। इन ईटो का याने दिवाल का कास प्रदाजा पाता है ऐसा पवली मन्दिर शिरपुर गांव के बाहर गुप्त काल बताया जाना है। यह इंट वजन में बहुत पश्चिम दिशा को पोर है। इस मन्दिर के शिल्प-रचना- हल्की है। वास्तु के बाबत पिछले अंको में विस्तृत चर्चा की गई है। इस मन्दिर के अन्दर गर्भगृह के मामने चूने के इस मन्दिर के इर्दगिर्द कुछ जमीन खोद कर मिट्टी बाजू प्लास्टर की जगह पाषाण की फर्मी बिछाने के इरादे से कर दी, तो पता चला की जमीन पर ४-५ फुट मिट्टी चढ खोदते समय ता०६-३-६७ को ११ मूर्ति प्रखण्ड मिली। गई थी जिसमें मन्दिर का नीचे का भाग दब गया था। बहुतेक मूर्ति हरे पाषाण की है, एक लाल पाषाण की है, अब मन्दिर के तीनों बाजूमो के दरवाजे के सामने सब मूर्तिया आकर्षक है। प्रत्येक मूर्ति पर लेख है १.'x१०' के चबूतरे लगे हैं। और उसके सामने से तथा कुछ पर के लेख घिस गये है। प्राप्त मूर्ति में एक सीढियां भी लगी हैं। इस खुदाई में ता २०-२-६७ के मूर्ति तो सिर्फ दो इच की है। दिन एक प्रति जीर्ण पाषाण का खगासन चतुर्मुख इन जिन बिम्बो का प्रगट होने की बात कई वर्तमान जिन विम्ब, जिनबिम्बस्तम्भ तथा एक शिलालेख स्तम्भ पत्रों में प्रकाशित हुई है तथा कुछ पेपरो में फोटो भी मिला है । कुछ भग्नावशेष भी प्राप्त हुए है । प्राये हैं। उन्हे पढ़ कर और देख कर मुझे शिरपुर जाने मन्दिर के बाहर गर्भागार के दोनो ओर २ से १॥ की इच्छा हुई। इसी समय पर डा. यशवंत खुशाल फीट लम्बी तथा ६ इच चौडी और २।। इच से ३ इच देशपाडे, अध्यक्ष-शारदाश्रम यवतमाल (हल्ली मु. जाही ईटो की दिवाल मिली है। वह जमीन में पुरुष नागपुर) नाती को शादी में परतना डा.(अचलपुर) गार्डर द्वारा टूटी हुई कड़ी को सम्हाल कर उसका उद्देश्य की छत जमीन से १७ फूट ऊँची है और छत पर से पूरे पूरा कर दिया गया है। इस विशालाकार मूर्ति के दोनो शिखर की ऊंचाई लगभग ४५ फुट है। इस प्रकार मोर, प्रवेशद्वार के भीतर दोनो तथा चौखट के ऊपर दाये इस मन्दिर के प्रत्यन्त भव्य प्रधमण्डप, अन्तर्राल, अम्बिका पौर चौखट के नीचे बायें पाश्वं यक्ष का प्रकन प्रदक्षिरण पथ और गर्भगृह से इसकी पचायतन शैली होने से यह सम्भावना अधिक है कि यह मूनि २२ व स्पष्ट है तथा स्थापत्य और वास्तु कला के क्रमिक विकास तीर्थकर नेमिनाथ की होनी चाहिये। की दृष्टि से इसमें अनेक सम्भावनायें छिपी हुई है। ___लगभग ३ फुट ऊंचे ४० फुट ५ इंच लम्बे और ३५ सहस्त्रो शीत, ग्रीष्म और वर्षा ऋतुएं बिता देने पर फुट चौड़े अधिष्ठान वाले इस मन्दिर के प्रदक्षिणा पथ पर भी प्रकृति के प्रागन में निर्भयता से अवस्थित देवगढ 25 मेरी इस मान्यता की पुष्टि शोधक विद्वान् श्री नीरज का यह मन्दिर वहाँ के मभी स्मारको में सर्वाधिक समृद्ध जैन के विचारो से भी होती है। और महत्वपूर्ण है। तथा अपने निर्मातामों की यशोगाथा द्रष्टव्य-अनेकान्त, वर्ष १७ किरण ४ में प्रकाशित भमर किए हुए है। निबन्ध -देवतापो का गर : देवगड. पृ० १६८ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त प्राये थे । उन्होने मुझे टपाल दी और उनके साथ साथ मे सा० २६-३० मार्च को शिरपुर पहुंचा। डा० यशवंतराव ने इस मन्दिर का सूक्ष्मता से निरीक्षण किया, तथा गाँव के भी अंतरीक्ष पार्श्वनाथ मन्दिर की भेट दी। उनकी रिपोर्ट है की, यह पवली मन्दिर ६ वी या १० वी शताब्दी का है तथा स्पष्टतया और पूर्णतया यह मन्दिर दिगम्बरियों का ही है। डा० यशवतराव ने प्राप्त मूर्तियों के लेख तथा शिवाय भी उतार लिये है उसकी एक प्रति उन्होने मुझे भी दी है। उनका सविस्तार अहवाल तथा मूर्तिले ग्रह अनेकान्त में छपवाने की अनुमती उनमे ली है त वह श्रागे दे रहा हूँ । लेकिन पहले "यह मन्दिर भी श्वेताम्बरो का ही है और यह मन्दिर श्वेताम्बरो के मैनेजमेंट के अन्दर ही है ।" आदि एक लेख वहा के श्वेताम्बर मैनेजर ने ता० २४-३-६७ के दैनिक मातृभूमि में प्रकाशित किया है, इसका मरल अर्थ है कि यह दिगम्बरी समाज और इतिहास के लिये लाल झड़ी है । श्वेतांबर लोग किसी बहाने से यहाँ भी कब्जा करने की तैयारी में हैं। हाल ही अप्रेल के पंनिम सप्ताह में ( २६-४-६७ ) बुधवार के दिन उन लोगो ने दिगम्बरी धर्मशाला के ताले तोड़े तथा बोडंस निकलवाये। उम समय जो झगड़ा हुप्रा । उस कारण ताले तथा बोर्डस् स्थानीय पुलिस स्टेशन में जप्त होकर रखे गये हैं । यद्यपि वहां की दिगम्बर जनता जागृत है, तथापि समाज के सारे लोग उनके पीछे तन, मन, धन से नहीं होंगे तब तक उनकी बाजू मजबूत नहीं हो सकती। इस मन्दिर का जीर्णोद्धार का कार्य चालू है । उसके लिये कम से कम १५ हजार रुपये की तथा मन्दिर जी के सामने के महाद्वार के प्राजुबाजू धर्मशाला के निर्माण हेतू २५ हजार रुपये की आवश्यकता है। इसकी पूर्ति अगर हमारे गणमान्य धनी तथा दानी लोग करेगे तो भागे के झगडे तथा विपक्षी से यह स्थान बच सकता है । बाद में हम कोर्ट कचेरी में हजारो रुपये लगा देगे या यह मन्दिर नष्ट होने पर लाखो रुपये लगायें तो भी ऐसा मन्दिर खड़ा नही हो सकता । अतः इसकी कीमत समय पर यदि न आकी जाय तो इसको खतरा है यह सुनिश्चित है । और यह निर्विवाद है कि, आज तक इग मन्दिर पर कब्जा कभी श्वेताम्बरो का न था, और न है। पिछले अंक में इस मन्दिर बाबत ऐतिहासिक तथा संशोधक लोगो के मत प्रकाशित किये हैं। प्रभी और कुछ दिगम्बर जैन समाज के लिये यहा दिये जाते है। इससे भी इस मन्दिर पर हमारा कब्जा कैसा है यह सिद्ध होता है : - (१) एच० सी० जज्जमेंट पृष्ठ ३१२ (पी०पी०बी०) "श्वेताम्बर लोग इस पवली मन्दिर के कभी मालिक नही हो सकते, क्योकि उन्होंने ही मुख्य मन्दिर के केस में मालकी हक्क की माग पीछे ली है।" आदि । (२) कम्रम्वेशन रिपोर्ट बालेस्टोन, प्रांग स्टेन्ट मावियानाजीकल सर्व ईस्टर्न सर्कल बालपुर ता १७-४-१९१३ - 'सिरपुर का प्राचीन मन्दिर त पार्श्वनाथ भगवान का है तथा वह दिगम्बर जैनो का है।' आदि। -- (३) लीस्ट आफ प्रोटेक्टेड मानुपेट एक्स्पेक्टेड बाय दी गवर्नमेंट ग्राफ इण्डिया करेक्टेड ग्राट् सप्टेम्बर १६२६ – यह शिरपुर गाँव के बाहर का अन्तरिक्ष पानाथ का मन्दिर जैनो का है तथा पुरातत्व विभाग ने इसको संरक्षित करके ताबे मे लिया है और ता०८ मार्च १९२१ के करार के अनुसार दिगम्बरी लोग प्रार्डीनरी रिपेरी कर सकते हैं तथा स्पेशल रिपेरी सिर्फ गवर्नमेंट ही करेगी ।" आादि । (४) अकोला जिलाध्यक्ष का वाराम के तहमीनदार को पत्र १३-३-६१ - शिरपुर गाय के पश्चिम में जो दिगम्बर लोगो का प्राचीन मन्दिर है, वहाँ वे लोग सरकार के ताबे में देने के लिए तैयार है क्या ?" आदि। ( ५ ) ऊपर के पत्रको दिगम्बर समाज के पचो की तरफ से श्री यादवराव जी श्रावणे का उत्तर ता० १-४ ६१ "यह मन्दिर समस्त दिगम्बर जैन समाज का होने मे मालकी में अमला नही छोड सकता तथा इस मन्दिर में अभी अनेको दिगम्बर मूर्तियाँ विराजमान है, जो कि समाज मे नित्य पूजी जाती है। और अभी इस मन्दिर के Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ श्री प्रतरिक्ष पार्श्वनाथ पवली दिगम्बर जैन मन्दिर, गिरपुर जीणोद्धार की प्रावश्यकता है, वह एक तो सरकार ने वैशाख मुदि १३ शुक्रवार काष्ठामंपे........ प्रतिष्ठा । करना या हम को करने की परवाणगी देना।" (४) श्री पाश्वनाथ - ऊँची ८॥ इच-शके १५९१ (६) पुरातत्व विभाग-भोपाल से ता० २६-१२-६३ फालगण मृदी द्वितीया मनगगे भ० सोमसेन उपदेशात का पत्र-"पापकी विनती के अनुसार प्रापको पवली श्रीपुर (नगरे) प्रतिष्ठा । मन्दिर की दुरुस्ती करने की परवाणगी दी जाती है। (५) श्री पार्श्वनाथ- इच ऊंची-स्वस्ति श्री सरकार की तरफ से अभी नही होगी।" आदि। सवत १८११ माघ शु० १० श्री कुन्दकुन्दाम्नाये गुरु (७) पुगतत्व विभाग भोपाल से ता. ५-१२-६८ जानमन उपदशात् प्रादिनाथ तत्पुत्र पासोबा सइतवाल का पत्र-"सरकार की तरफ मे शिरपुर के पवली मन्दिर (पुत्र) कृपाल जन्म निमित्ते वीपुर नगरे मतरिक्ष पाश्र्वकी रिपेरी नही हो सकी, क्योकि यह पवली मन्दिर नाथ पवली जी(जि)नालय जीणोद्वार कृत्य प्रतिष्ठितमिदं मरक्षिन स्थलों के याद मे में निकाल दिया है। पाप बिम्बम् । मालिक ही है, अतः अब आप उचित मरम्मत कर सकते (६) (७) श्री चन्द्रनाथ-३ इंच ऊची, लेख नही। है।" आदि। (८) श्री आदिनाथ-२॥ इच ऊची-लेख नहीं। प्रब बताइये इम मन्दिर के मालिक कोन है और टीप---यह सब प्रतिमा हरे पाषाण की है लेख न. आज तक यह मन्दिर किमके मैनजमेट के अन्दर है तथा ४ नथा ५ इतिहाम के लिये विशेष महत्त्व रखते हैं । किमके कब्जे में है ? म मन्दिर बाबत और दतिहाग (९) श्री रत्नत्रय प्रभु-लाल पाषाण ८॥ इस ऊंची कागे के मन ममाज के मामने रखना है: लेख नहीं। (a) प्राचियालाजिकल म ग्राफांडया, मेडिव्हल (१०) श्री पाश्र्वनाथ ---कालसर पाषाण ॥ इंच उंची। लेख नही। टेपल ग्राफ दी दक्खन बाय कोझेन्म १९३१ पेज ६७ - टीप-लेख : तथा १० यह दो मूर्ति शिल्प की दृष्टि "यह अंतरिक्ष पार्श्वनाथ पवली टेपल दिगम्बर जैनी से विशेष महत्त्व की है और प्राप्त मूनियो में मबसे प्राचीन का है।" अदि। है यानं कम से कम एक हजार साल पहले की है। इन 1) हम्पीरियल गझेटीयर (ग्रामफई) पार्ट ७, दो मनियो का अलग फोटो दिया है । तथा गुप फोटो पेज ६७-बासम डिस्ट्रिक्ट-अनरिक्ष पाश्र्वनाथ का एक्ट-अनारक्ष पाश्वनाथ का भी दिया है। प्राचीन मन्दिर इम जिले मे मबमे आकर्षक कलाकृति का (११) चौबीसी पीतल की-१॥ फुट ऊंची सोने की स्थान है। यह मन्दिर दिगम्बर जैनों का है।" प्रादि। जना का है।" प्रादि। पालिम है । इस पर लेख है। लेकिन यह प्रतिमा तिजोरी अब हम ही मन्दिर मे हाल जो ११ मूनि तथा मे होन में लेख बाचन को नहीं मिली। सम्भलख मिला उनके ऊपर के उपलब्ध लेख देखो - (१२) मन्दिर के बाहर जो २०-२-६७ को शील(१) नेमिनाथ प्रभू-७ इंच ऊची "मवत १७२७ स्तम्भ प्राप्त हुमा उमके कार का लेख-श्री प्रतरीक्ष मागीयर्ष मुदि १३ दाक्ले थी काठमधे माथुरगच्छ नम गुरु कुन्द्र कुन्द नम: मवत १८११ माघ मुद १. पृष्करगगणे श्री लोहाचार्यान्वये भट्टारक श्री लक्ष्मीमनाम्नाये भादिनाथ पुत्र पामांबा सहतवाल." "पुत्र कृपाला भट्टारक श्री गणभद्रोपदेशात् .. - ज्ञानीय वाकु- जन्मे देऊब उद्धार केले । वम उपगत यावायक गोत्र स० क (ल्या) न तस्यात्मज. इम परमे इम क्षेत्र में जीवन भरने वाले कौन हैं स० वामुदव तम्यात्मज. इद विम्ब प्रगन्ति। इसका पता चलता है। इस स्थान को निर्माण करने (२) मिफ २ इच ऊची लेख नही, लांछन नही। वाले नथा कायम गबन वाले और सरक्षण सवर्धन का (३) बी पाश्र्वनाथ-ऊची ७ इच- मम्बत् १७५४ इनिहाम बनाने वाले दिगम्बर जैन ही है। इसी बात का Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त समर्थन डा. यशवंत खुशाल देशपांडे जी ने अपने अभिप्राय में किया है। बाचकों के लिये मैं उसका अनुवाद दे रहा हूँ। : ७२ साप्ताहिक तरुण भारत, नागपुर ता० २३-४-६७ पृष्ठ ८ के प्राधार से अनुवादित लेखक - डा० य० स्तु० देशपांडे शिरपुर यहाँ के श्री पंतरिक्ष पार्श्वनाथ मूर्ति, शिल्प और वास्तु इनके निरीक्षण का हवाल ता० २४ मार्च, १९६४ के तरुण भारत के अंक में "शिरपुर में प्राचीन मूर्ति प्राप्त हुई इस शीर्षक के नीचे का वृत बाचा तब भारतीय और तदगभूत विदर्भके प्राचीन मूर्ति शिल्प इनका अभ्यासक इस नाते मेरा लक्ष वेधा बाद में ता० २४-२-६७ के दैनिक मातृभूमि के अंक में शिरपुर के जैन संस्थान मैनेजर का खुलासा, इस ममले के नीचे एक लेख प्रसिद्ध हुआ है, उस पर से वहाँ दिगम्बर और वेताम्बरों के बीच झगड़ा रहते हुए अब दिगम्बर लोगों ने प्राचीन मन्दिर की देवड़ी का खोदकाम चालु करके सब प्राचीन अवशेष नष्ट करने के के कार्य में लगे हैं, प्रादि मजकूर प्रसिद्ध हुआ है। इस पर से दिगम्बरी और वेताम्बरी लोगों में वहा संघर्ष है। ऐसा मालूम पड़ने पर भी इस संघर्ष का विचार न करते हुए भी प्रत्यक्ष वस्तुस्थिति कैसी है, धौर विदर्भ के प्राचीन वस्तु, शिल्प और मूर्ति का अभ्यास पूर्वक निरीक्षण करने के हेतू मेरे इस वृद्धपन में पराधीनता प्राप्त होने पर भी प्रत्यक्ष शिरपुर जाने का मैने ठहराया और ता० २६,३० मार्च को मेरे मित्र की सहायता से रात को शिरपुर धाकर दिगम्बरियो की धर्मशाला में मुकाम किया। ता० ३० को सवेरे प्रथम पौली मन्दिर की तरफ गया। यह मन्दिर अत्यन्त जीणं शीणं हुधा है और इसके तुरन्त दुरुस्ती की व्यवस्था न हुई तो नष्ट होने की और विदर्भ के प्राचीन वास्तुशिल्प तथा मूर्ति जो कि भारतीय वैदर्भीय संस्कृति का बहुमूल्य प्रतीक है नष्ट होने की सम्भावना है । यह सामान्य प्रादमी को भी दिखता है। मन्दिर के सभामण्डप द्वार का ताला था वह दिगम्बर पुजारी ने लगाया था ऐसा मालूम पड़ा। मैं महा द्वार से प्रवेश करके मन्दिर चौक में धाया। वहाँ अनेक शताब्दी का बैठा हुआ ४-५ फुट मिट्टी का थर निकालके मंदिर बंधा उस समय जो पातवी थी वह प्राप्त हुवी भव मंदिर के सामने के चबूतरे को ३-४ हाथ सीढ़ियां मूलस्वरूप में दीख रही है। वहां विद्यमान दिगंबरी लोगों ने वह चालू जीर्णोद्धार की जानकारी दी और यह लेव्हलींग का कार्य करते समय वहां प्राप्त हुवे हुये चतु मुख बिंब, प्रस्तर स्तंभ और उस परका शिलालेख भी बताया। मैंने उस शिलालेख का वाचन करके टीपणे ली। यह सब लेख दिगम्बरी होने का मालूम पड़ा। मन्दिर के ि दक्षिण, पश्चिम और उत्तर बाजू नेका कार्य तथा वहां मिले हुए प्राचीन वस्तु, जमीन में जो गुप्त कालीन ईंटो की (ईट दो फुट लम्बी) दिवाल के अवशेष हैं उसका निरीक्षरण करके उसका टीपण लिया । के अब तक मन्दिर का पुजारी वहाँ माया, उसने मन्दिर का द्वार खोला फिर हमने कुछ दिगम्बरी लोगों के साथ मन्दिर में प्रवेश किया । मन्दिर के बाहर के स्थापत्य तथा अन्दर के स्थापत्य और शिल्प दिवाल पर उत्कीर्ण मूर्ति तथा तीर्थंकरो के चरित्र के कथा प्रसंग वहां दीख पडे । तथा गर्भागार औौर सभा मण्डप मे प्रस्थापित मूर्ति जिसकी पूजा अभी भी दिगम्बरी करते हैं, दीख पड़ी। इस पर से मेरे मुताबिक किसी भी अभ्यासकों को निश्चय होगा की यह मन्दिर तथा जिसने यह मन्दिर बनवाया वह पवेतांबरी नहीं था तो दिगम्बरी पंच का ही था। यह स्पष्ट है। वहाँ के प्रतिष्ठित ऐसी मन्दिर में की स्थापित दिगम्बरी मूर्ति, दिगम्बरी पुजारी यह देश कर इन मूर्तीयो की अब तक दिगम्बरो की तरफ से ही पूजा होती है यह स्पष्ट है । इसके बाद मन्दिर में जहाँ फर्सी नहीं थी वहा लोदने से ११ दिगम्बर मूर्तिया मिली, उनका निरीक्षख किया और जिन मूर्तियों पर लेख में उनका वाचन करके उतारा किया। यह सब दिगम्बरो के ही है ऐसा मालूम पड़ा। इस पौली मन्दिर में एक भी श्वेताम्बरी मूर्ति दिखी नही । निरीक्षण पूर्ण होने के बाद में अपने निवासस्थान में Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ पवली दिगम्बर जैन मन्दिर, शिरपुर प्राया, साथ में एक दो दिगम्बरी बन्धू भी थे। गांव के अनेक स्थलोंपर जो वस्तु-शिल्प तथा मूर्ति है, इनमें मन्दिर में भी परिभ्रमण करते समय श्वेताम्बरी मैनेजर सादश्य है। मैने दाविड मोरिसा प्रांत के प्रमुख पुराने वा अन्य श्वेताम्बरी बन्धु मिले नही, उससे उनको मिल बस्तु-शिल्प-मूर्ति का अभ्यासनीय निरीक्षण किया है। कर मन्दिर बाबत चर्चा करने का योग माया नही। विदर्भ के प्राचीन वास्तु प्रादि का काल ८ से १० वीं ___ मन्दिर समीप जाते ही प्रावार के बाहर जैनों की शताब्दीका पाता है। धर्मशाला लगती है। मन्दिर के बाहर के प्रागन में प्रवेश विदर्भ के प्राचीन वास्तु शिल्प तथा मूर्ति इनको करते ही सामने पूर्व दिशा में श्वेताम्बरियों ने अपने अलग होना वैसा अभ्यास हुमा नही। यह सब भारतीय प्राचीन पूजा के लिये भव्य मन्दिर बना कर जयपुर से खास धन सरक्षण करने की जिम्मेदारी उन धर्मीय लोगोंको संगमरमर पाषाण की विघ्नहर पार्श्वनाथ की श्वेताम्बरीय तथा भारतीय सरकार की है। दूसरे की श्रद्धा को पक्षत की मूर्ति बना कर उसकी यहां प्रतिष्ठापना करने धक्का न देते हुये अपने धर्म का पालन करके दूसरे का ध्यान में पाया । मूल मन्दिर के सामने (पडोस में) को श्रद्धा को धक्का न देते हुये अपने धर्म का पालन करके जो पुरानी धर्मशाला है उसमें सभी यात्रेकरू ठहरते हैं। दूसरे धमियों पर आक्रमण न करके उनसे भाईचारे से ऐसा मालूम पड़ा। फिर मैने मन्दिर के प्रांगन में प्रवेश रहना ही श्रेयस्कर है, ऐसा मेरा इन १-१॥ दिन के किया। वहां से मुख्य मन्दिर के तल घर में प्रवेश किया। निरीक्षण का फल करके मैं नम्रता से जनता के सामने वहां इतना मालूम हुमा कि, मुख्य मूर्ति का जो वाद है या विचार के लिए रखता हूँ। उनके पूजा का जो ममय निश्चित हुपा है उसे छोड कर माने या न माने तो भी यह अहवाल महत्व का ही बाकी मति तथा गुरु पीठ इनकी पूजा मिर्फ दिगम्बरी है। क्योकि, हा०य. खू. देशपांडे साहब ७५ साल के लोग ही कर सकते है । मख्य मन्दिर के बाहर आने पर उमर के हैं, याने वयोवृद्ध होने के माप ज्ञानवृद्ध भी हैं। मामने ही श्वेताम्बरी पथ के व्यवस्थापको की बैठक भारत स्वतन्त्र होने पर भारत की स्वतन्त्रता का इतिहास (अलग अलग) दिखती है। लिखने मे उनका ही सहयोग था। वे इतिहास संशोधन इस तरह मेरे इन एक दिन के निरीक्षण का त्रोटक के लिये तथा ऐतिहासिक अहवाल प्रसिद्ध करने के लिये अहवाल है। और प्राधारभूत ग्रन्थों का तथा लेखो का देश में या विदेशों में जब जागतीक परिषद हुई तब उसमें अभ्यास करके एक विस्तृत अहवाल प्रसिद्ध करने का यथा समय भाग लेते ही रहे हैं। महानुभावों के मराठी माणस है। मैं खुद वैदिक धर्मानुयायी हूँ। मेरा यह दृढ वाङ्गमय पर उनका विशेष अधिकार है। उन्होंने उसका निश्चय है कि किसी भी धमियों ने पोर धर्मपथियो ने अच्छा सम्पादन भी किया हैं । हिन्दु हो या मुस्लिम सबके अपने अपने श्रद्धा के अनुमार धर्माचरण करना, उन पर इतिहाम की तरफ वे गौरव के माप देखते हैं तथा उन अन्य धर्मियो ने वा पंथियो ने दूसरे के श्रद्धा को धक्का सबका जतन करना वे खुद का कर्तव्य समझते हैं। अब लगेगा ऐसा वर्तन नहीं करना। और ये पुरातन भारतीय भी इस ७५ साल की उमर मे व अभ्यासक ही कहलाते धर्म व पंच परस्पर में भाई-चारे से तथा प्रेम से एकत्र है। अत: उनके इस अदम्य उत्साह के लिये वे भारतीय रहना । पर मत सहिष्णूता यह भारतीयों का प्रमुख गुण जनता के धन्यवाद के पात्र तो हैं ही, लेकिन समस्त है। उससे ही भारत में अनेक धर्म और पंथों ने हजारों भारत के इतिहास की चलती निधी है। प्रभु उनको साल से एकीभाव से रह कर परचक्रका विरोध किया दीर्घाय तथा प्रारोग्य प्रदान करे ऐसी मेरी उनके प्रति है। और यह ही सहिष्णूता परस्पर में प्रेम भाव बढ़ाने प्रादगजली है। को कारणीभूत हुयी है। उन्होंने जो हमको भाईचारे की शिक्षा दी उसका हम प्रत में यह स्पष्ट करना है कि, विदर्भ में मिलने सादर करंगे और निज पर कल्याण के लिये तैयार रहेंगे वाली प्राचीन वास्तु, शिल्प और मूर्ति, दक्षिण द्रविड़ मी उम्मीद रखता । देश में तथा प्रोरिसा में कोपारक, पुरी व भुवनेश्वर प्रादि Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैवल्य दिवस एक सुझाव मुनि श्री नगराज जी वैशाख शुक्ला दशमी का दिन माया और चला जैन एकता की दृष्टि से भी कैवल्य-दिवस का मनायो गया। प्राचार्यों, मुनियों व श्रावक-श्राविकामो को यह जाना बहुत उपयोगी होगा। सभी संघो में यह एक मनुभव ही विशेषतः नहीं हुमा कि वह हमारा कोई ऐतिहा निर्विवाद तिथि है। सभी श्वेताम्बर सम्प्रदाय और सभी सिक दिवस था और उसके प्रति हमारा कुछ कर्तव्य भी दिगम्बर सम्प्रदाय वैशाख शुक्ला दशमी को ही महावीर था। वैशाख शुक्ला 'पनरस' का दिन प्राया, अगले दिन की कैवल्य तिथि को मानते हैं। दिगम्बर प्राम्नाय के की समाचार-पत्रों में पढ़ा गया, प्रमुक जगह वैशाली पूणिमा अनुसार महावीर की प्रथम देशना श्रावण कृष्णा प्रतिका समारोह मनाया गया, लोगों ने जाना, यह बाधा का पदो को होती है। इस बीच में भगवान महावीर गणघरो ऐतिहासिक दिवस है इसी दिन बुद्ध का जन्म हुआ था। के प्रभाव में निश्शब्द रहते हैं। इसी दिन बद्ध को सम्बोधिलाभ हुअा था और इसी श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार भगवान महावीर दिन बुद्ध का परिनिर्वाण भी। बुद्ध के सम्बोधि-दिवस की प्रथम देशना कैवल्य-प्राप्ति के अनन्तर ही देव और को जहां सर्व साधारण भी जानते हैं वहाँ महावीर के देवांगनामो के बीच हो जाती है। व्रत-लाभ की दृष्टि कैवल्य-दिवस को बहुत सारे जैन भी नहीं जानते । इसका से वह वाणी फल-शून्य रहती है। दूसरी देशना में कारण है, कैवल्य-दिवस के नाम से जैन धर्म-सघों में कोई इन्द्रभूति प्रादि दीक्षित होते हैं और चतुर्विध तीर्थ की प्राध्यात्मिक समारोह किये जाने की प्रथा नही है। स्थापना होती है। भगवान महावीर के जन्म, कैवल्य और परिनिर्वाण देशना-काल की इस विविधता से कैवल्य-दिवस ये तीन उत्कृष्ट जीवन प्रसंग होते हैं। चैत्र शुक्ला प्रभावित नहीं होता । सभी जैन परम्परामों में त्रयोदशी जन्म-जयन्ती के रूप में मनाई जाने लगी है। तदसम्बन्धी मान्यता ज्यो की त्यो रहती है। कैवल्यकातिक प्रमावस्या भी परिनिर्वाण दिवस के रूप में कुछ दिवस की स्थापना के बाद जैन समाज के पास तीन कुछ मनाई जाती है । वैशाख शुक्ला दशमी कैवल्य-दिवस पर्व ऐसे हो जाते है. जिन्हे वह निर्विवाद तथा एक दिन के रूप में कही मनाई जाती हो, ऐसा नहीं सुना गया। और एक साथ मना सकता है। वे होगे-जन्म-दिवस जन्म और परिनिर्वाण-दिवस से भी अधिक महत्त्व कुछ कैवल्य-दिवस और परिनिर्वाण दिवस । अपेक्षामों से कैवल्य-प्राप्ति का है । सभी जैन संघो में इस सम्बत्सरी पर्व की एकता में अनेक बाधाएं दीवार दिवस को प्राध्यात्मिक समारोह के रूप में मनाने का बनकर खड़ी हैं। इस स्थिति मे कैवल्य-दिवस की क्रम चालू हो, तो एक बहुत ही सात्त्विक परम्परा का स्थापना बहुत कुछ पूरक हो सकेगी ऐसी माशा श्री गणेश होगा। सार्वजनिक स्तर पर इसे मनाते रहने है। अपेक्षा है संघो एवं संस्थानों के दायित्वशील में जैन शासन की गौरव वृद्धि का एक अभिनव सूत्रपात लोग इस ओर ध्यान दे व अपने अपने परिप्रेक्ष में होगा। इम सात्विक परम्पग का श्री गणेश करे। 1बौद्धो की सर्वास्तिवादो परम्परा मे बुद्ध का परिनिर्वाण कार्तिक पूर्णिमा को माना जाता है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर और बुद्ध के पारिपाश्विक भिक्षु भिक्षुणियां ( मुनि श्री नगराज जी ) अवश्य ऐसे होते हैं जो के लिए अमर रहते हैं किसी भी महापुरुष की जीवन-कथा में कुछ पात्र उस जीवन कथा के साथ सदा महावीर और बुद्ध की जीवनयोग भौर भी बहुलता से मिलता । चर्या में ऐसे पात्रों का है । महावीर के साथ ग्यारह गणधरो के नाम अमर हैं । नायक थे। इन्होंने ही द्वादशागी ये सब भिक्षु संघों के का प्राकलन किया। गौतम गौतम उन सब में प्रथम थे और महावीर के साथ अनन्य रूप से संपृक्त थे। ये गूढ से गूढ़ और सहज से सहज प्रश्न महावीर से पूछते ही रहते थे। इनके प्रश्नो पर ही विशालतम श्रागम विवाह पण्णत्त (भगवती सूत्र ) गठित हुआ है । ये अपने लब्धि-बल से भी बहुत प्रसिद्ध रहे है । गौतम का महावीर के प्रति असीम स्नेह था । महावीर के निर्वाण प्रसग पर तो वह तट तोड़ कर ही बहने लगा। उन्होने महावीर की निर्मोह वृत्ति पर उलाहनों का अम्बार खड़ा कर दिया, पर पन्त में सम्भले । उनको वीतरागता को पहचाना और अपनी सरागता को । पर-भाव से स्वभाव में आए। प्रज्ञान का प्रावरण हटा। कैवल्य या स्वयं श्रहंत हो गये । गौतम द्वारा प्रतिबुद्ध पन्द्रह सौ तापस भिक्षुओ को जब सहज ही कैवल्य प्राप्त हुम्रा, गौतम को अपने पर ग्लानि हुई। उनके उस अनुताप को मिटाने के लिए महावीर ने कहा था- "गौतम ! तू बहुत समय से मेरे साथ स्नेह से संबद्ध है। तू बहुत समय से मेरी प्रशसा करता श्रा रहा है । तेरा मेरे साथ चिरकाल से परिचय है । तूने चिरकाल से मेरी सेवा की है। मेरा प्रनुसरण किया है, कार्यों में प्रवर्तित हुआ है । पूर्ववर्ती देव-भव तथा मनुष्य-भव में भी तेरा मेरे साथ सम्बन्ध रहा है, धौर क्या, मृत्यु के पश्चात् भी इन शरीरों के नाश हो जाने पर दोनों समान, एक प्रयोजन वाले तथा भेद रहित (सिद्ध) होंगे ।" 1 उक्त उद्गारों से स्पष्ट होता है, महावीर के साथ गौतम का कैसा अभिन्न सम्बन्ध था । चन्दनबाला चन्दनबाला महावीर के भिक्षुणी संघ में प्रग्रणी थी। पद से वह 'प्रवर्तिनी' कहलाती थी। वह राज- कन्या थी । उसका समग्र जीवन उतार-चढाव के चलचित्रों में भरा पूरा था । दासी का जीवन भी उसने जिया । लोहश्रृंखला में भी वह प्राबद्ध रही, पर उसके जीवन का प्रतिम अध्याय एक महान् भिक्षुणी संघ की सचालिका के गौरवपूर्ण पद पर बीता । कल्पसूत्र' के अनुसार महावीर के भिक्षु संघ में सातवी भिक्षु, चउदह सौ भिक्षुणियों ने कैवल्य (सर्वशत्व) पाया । तेरह सौ भिक्षु भिक्षुणियो ने अवधि ज्ञान प्राप्त किया । पाँच सौ भिक्षु मनः पर्यवज्ञानी हुए। तीन सौ चतुर्दश-पूर्वघर हुए तथा इनके अतिरिक्त अनेकानेक भिक्षु भिक्षुणियाँ लब्धिधर, तपस्वी, वाद-कुशल आदि हुए । महावीर कभी-कभी भिक्षु भिक्षुणियों की विशेषतानों 1. समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं ग्रामंलेता एव वयासी - 'चिरसंमिट्टो ऽमि में गोयमा ! चिरसथुप्रो ऽसि मे गोयमा । चिरपरिचिनो ऽसी मे गोयमा । चिरजुसिनोऽसि मे गोयमा ! चिरागोऽसि मे गोमा । चिराणुवत्तीसि मे गोयमा ! प्ररणतर देवलोए प्रणंतरं ! चुता माक्स भवे, किं परं ? मरणा कायस्स भेदा, इम्रो दो वि तुल्ला एगट्ठा श्रविसेस मरणागता भविस्सामो । - भगवती सूत्र, श० १४, उ०७ 2. सूत्र सं० १३८-४०, ४२, ४४ ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त का नामग्राह उल्लेख भी किया करते थे। और विक्षिप्त मनुष्य को छोड़ कर ऐसा कौन मनुष्य त्रिपिटक साहित्य में बुद्ध के पारिपाश्विक भिक्षुप्रों होगा, जिसे प्रायुष्मान् सारिपुत्र न सुहाते हों। आयुष्मान का भी पर्याप्त विवरण मिल जाता है। सारिपुत्र, मौद्- सारिपुत्र महाज्ञानी हैं, महाप्राज्ञ हैं। उनकी प्रज्ञा प्रत्यन्त गल्यायन, मानन्द, उपालि, महाकाश्यप, प्राज्ञाकौण्डिन्य प्रसन्न, अत्यन्त तीव्र है।' प्रादि भिक्षु बुद्ध के अग्रगण्य शिष्य थे। जैन परम्परा में सारिपुत्र के निधन पर बुद्ध कहते हैं-"माज धर्मगणधरो का एक गौरवपूर्ण पद है और उनका व्यवस्थित रूप कल्प वृक्ष की एक विशाल शाखा टूट गई है।" बुद्ध दायित्व होता है। बौद्ध परम्परा में गणधर जैसा कोई सारिपुत्र को धर्म सेनापति भी कहा करते थे। सुनिश्चित पद नही है, पर सारिपुत्र प्रादि का बोद्ध भिक्षु सौ संघ में गणधरों जैसा ही गौरव व दायित्व था। सारिपुत्र मौद्गल्यायन का नाम भी सारिपुत्र के साथ-साथ बुद्ध के प्रधान शिष्यों में पाता है। ये तपस्वी और ऋद्धिगौतम की तरह सारिपुत्र भी बुद्ध के अनन्य महचरी मान थे । जैन परम्परा में जैसे गौतम के लब्धि-बल के में थे। वे बहन सूज-बूझ के धनी, विद्वान् और व्याख्याता विषय में अनेक बाते प्रचलित है, उसी प्रकार मौद्गल्यायन थे। बुद्ध इन पर बहुन भरोसा रखते थे। एक प्रसंगविशेष पर बुद्ध ने इनको कहा-“सारिपुत्र | तुम जिस के ऋद्धि-बल की अनेक घटनाएं बौद्ध परम्परा में प्रचलित हैं । गौतम का एक ही सीर-पात्र से पन्द्रह सौ तीन दिशा में जाते हो, उतना ही पालोक करते हो, भिक्षुषों को मनोहत्य खीर खिलाना और मौदगल्यायन जितना कि बुद्ध ।" पागम-साहित्य में केशी-गौनम-चर्चा का ऊचाई पर बंधे चन्दन पात्र को प्राकाश में उडकर का बहत ऊँचा स्थान है। केशीकुमार श्रमगा पाँच मौ उतार लाना दोनो के तपोबल की उल्लेखनीय घटनाए हैं। भिक्षु पो के नेता और पार्व-परम्पग के अनुयायी थे। गौतम भी पाच मौ भिक्षयों के परिवार मे विहार करते पाचसौ वज्जी भिक्षुप्रो को देवदत्त के नेतृत्व से मुक्त थे। दोनो का मिलन हया । पाश्र्व और महावीर के करने में मारिपुत्र के साय मौद्गल्यायन का भी पुग हाथ प्राचार-भेदों पर मान्विक चर्चाएं हई । गौतम को रहा है । प्रत्युत्पन्न मेधा मे प्रभावित श्रमण केशीकुमार अपने बुद्ध की प्रमुख उपामिका विशाखा ने सत्ताईस करोड भिमू-समुदाय के साथ महावीर की अनुशासना में प्रविष्ट स्वर्ण मुद्रामो की लागत से बुद्ध और उसके भिक्ष-संघ के लिए एक बिहार बनाने का निश्चय किया। इस कार्य के लिए मारिपुत्र की सूज-बूझ का भी एक अनूठा उदाहरण विशाखा ने बुद्ध से एक मार्ग-दर्शक भिक्ष की याचना की। त्रिपिटक साहित्य में मिलता है। बुद्ध का विरोधी शिष्य बुद्ध न बुद्र ने कहा- 'तुम जिस भिक्ष को चाहती हो, उसी का देवदत्त जब ५०० वज्जी भिक्षुप्रो को साथ लेकर भिक्षु चीवर और पात्र उठालो।' विशाखा ने यह सोचकर कि सघ से पृथक हो जाता है तो मुख्यत: सारिपुत्र ही अपने मौद्गल्यायन भिक्षु ऋद्धिमान है, उनके ऋद्धि-बल से मेरा बुद्धि-कौशल से उन पांच सो भिक्षुप्रो को देवदत्त के । कार्य शीघ्र सम्पन्न होगा, उन्हे हो इस कार्य के लिए चंगुल से निकाल कर बुद्ध की शरण में लाते हैं। मागा । बुद्ध ने पांच सौ भिक्षुषों के परिवार से मौद्गल्याएक बार बुद्ध ने प्रानन्द से पूछा-"तुम्हे सारिपुत्र । यन को वहां रखा। कहा जाता है, उनके ऋद्धि-बल से सुहाता है न ?" प्रानन्द ने कहा-"भन्ने । मूर्ख, दुष्ट विशाखा के कर्मकर रात भर में साठ-साठ योजन से बडे बडे वृक्ष, पत्थर ग्रादि उठा ले पाने में समर्थ हो 1. अंगुत्तर निकाय, अटकथा, १-४-१ 2. उत्तरध्ययन सूत्र, अ० २३ 1. संयुक्त्तनिकाय, प्रनाथपिण्डिकवग्ग, सुसिमसुत्त । 3. विनयपिटक, चुल्लवग्ग, संघ-भेदक-सन्धक । 2. विनयपिटक, चुल्लवग्ग, सघ-भेदक-खन्धक । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर मौर बुद्ध के पारिपाश्विक भिक्षु-भिक्षुरिणया जाते थे। ५. अनेक भिक्ष जल्लोषध लब्धि के धारक थे। जैन परम्परा उक्त समारम्भ पूर्ण उपक्रम को भिक्षु उनके शरीर के मेल से दूसरो के रोग मिटते थे। के लिए प्राचरणीय नहीं मानती और न वह लब्धि-बल ६. पनेक भिक्षु विषोषध लब्धि के धारक थे। को प्रयुज्य ही मानती है, पर लब्धि-बल की क्षमता और उनके प्रस्रवण की बूद भी रोग-नाशक होती थी। प्रयोग की अनेक अद्भुत घटनाएं उसमें भी प्रचलित हैं। ७. अनेक भिक्षु मामपौषध लब्धि के धारक थे। महावीर द्वारा संदीक्षित नन्दीसेन भिक्ष ने जो श्रेणिक उनके हाथ के स्पर्श-मात्र से रोग मिट जाते थे। राजा के पुत्र थे, अपने तपोबल से वेश्या के यहा स्वर्ण ८. भनेक भिक्षु सर्वोषध लब्धि वाले थे। उनके मुद्रामों की वृष्टि कर दिखाई ।। केश, नख, रोम प्रादि सभी प्रौषध रूप होते थे। महावीर ने पंगुष्ठ-स्पर्श से जैसे समय मेरु को ६. अनेक भिक्षु पदानुसारी लब्धि के धारक थे; जो प्रकम्पित कर इन्द्र को प्रभावित किया; बौद्ध परम्परा में एक पद के श्रवण-मात्र से अनेकानेक पदों का स्मरण कर लेते थे। मौद्गल्यायन द्वारा वैजयन्त प्रासाद को अंगुष्ठ-स्पर्श मे १०. अनेक भिक्षु संभन्निश्रोत लम्धि के धारक थे, प्रकम्पित कर इन्द्र को प्रभावित कर देने की बात कही जाती है। कहा जाता है, एक बार बुद्ध, मौद्गल्यायन जो किसी भी एक इन्द्रिय से पांचो इन्द्रियों के विषय प्रहरण कर सकते थे। उदाहरणार्थ-कान से सुन भी प्रति पूर्वाराम के ऊपरी भौम मे थे। प्रासाद के नीचे भी सकते थे, चख भी सकते थे प्रादि । कुछ प्रमादी भिक्ष वार्ता, उपहास प्रादि कर रहे थे। उनका ध्यान खीचने के लिए मौद्गल्यायन ने अपने ऋद्धि ११. अनेक भिक्षु प्रक्षीणमहानम लब्धि के धारक थे, बल से सारे प्रासाद को प्रकम्पित कर दिया। सविग्न । जो प्राप्त अन्न को जब तक स्वयं न खालेते थे; तब तक और रोमाचित उन प्रमादी भिक्षुषो को बुद्ध ने उद्बोधन शतश:- सहस्रशः व्यक्तियों को खिला सकते थे। दिया । १२. अनेक भिक्षु विकुर्वण ऋद्धि के धारक थे। अपने नाना रुप बना सकते थे। प्रोपपातिक सूत्र में महावीर के पारिपाश्विक भिक्षुग्रो के विषय में बताया गया है : १३. अनेक भिक्ष जंघाचारण लन्धि के धारक थे । वे जंधा पर हाथ लगाकर एक ही उड़ान में तेरहवें रुचकवर "१. अनेक भिक्ष ऐसे थे, जो मन से भी किसी को द्वीप तक और मेरु पर्वत पर जा सकते थे। अभिशप्त और अनुगृहीत कर सकते थे । १४. अनेक भिक्ष विद्याचारण लब्धि के धारक थे। २. अनेक भिक्षु ऐसे थे, जो वचन से ऐसा कर वे ईषत् उपष्ठम्भ से दो उडान में पाठवें नन्दीश्वर द्वीप सकते थे। तक और मेरुपर्वत पर जा मकते थे। ३. भनेक भिक्ष ऐसे थे, जो कायिक-प्रवर्तन से ऐसा १५. अनेक भिक्षु पाकाशातिपाती लब्धि के धारक कर सकते थे। थे। वे ग्राकाश में गमन कर सकते थे। माकाश से रजत ४. अनेक भिक्ष श्लेष्मौषध लब्धि वाले थे। उनके प्रादि इष्ट पनिष्ट पदार्थों की वर्षा कर सकते थे।" श्लेष्म से ही सभी प्रकार के रोग मिटते थे। 1. अप्पेगइया मण सावाणुग्गहसमत्था, वएणं 1. धम्मपद अट्ठकथा, ४-४४ । सावाणुग्गहसमत्था, काएण सावाणुग्गहममत्या, अप्पेगइया 2. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम् पर्व १०, सर्ग ६।। खेलोसहिपत्ता, एव जल्लोसहिपत्ता, विप्पोमहिपत्ता,मागमो3. मज्झिमनिकाय, चूलतण्हासंखय सुत्त । सहिपत्ता, सम्वोमहिपत्ता, ......"पयाणुसारो, संमिन्न4. संयुत्तनिकाय, महावग्ग, ऋद्धिपाद सयुत्त, मोप्रा, अक्खीणमहारणसियो, विउव्व रिगड्ढपत्ता, चारण, प्रासादकम्पनवम्ग, मौगालान सुत्त । विज्जाहरा, मागासाइवाइगो। --उववाइय मुत्त१५ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त मौदगल्यायन का निधन बहुत ही दयनीय प्रकार का स्थाक नियुक्त करो। उपस्थाक के अभाव में मेरी बताया गया है। उनके ऋद्धि-बल से जल-भुन कर इतर अवहेलना होनी है। मैं कहता हूँ, इस रास्ते चलना है, तैथिकों ने उनको पशुमार से माग। उनकी अस्थियाँ भिक्षु उस रास्ते जाते है । मेरा चीवर और पात्र भूमि पर इतनी चूर चूर कर दी गई कि कोई खण्ड एक तन्दुल मे यो ही रख देते हैं।" सारिपुत्र, मौद्गल्यायन प्रादि सभी बड़ा नही रहा। यह भी बताया गया है कि प्रतिकारक को टाल कर बुद्ध ने प्रानन्द को उपस्थोक-पद पर ऋद्धि-बल के होते हुए भी इन्होंने इसे भावी का परिणाम नियुक्त किया। समझ कर स्वीकार किया। तब से आनन्द बुद्ध के अमन्य सहचारी रहे । समय मानन्द समय पर गौतम की तरह उनसे प्रश्न पूछते रहते और कुछ द्रप्टियो से बुद्ध के सारिपुत्र और मौद्गल्यायन समय-समय पर परामर्श भी देते रहते। जिस प्रकार से भी अधिक अभिन्न शिष्य प्रानन्द थे । बुद्ध के साथ महावीर से गौतम का सम्बन्ध पूर्व-भवो में भी रहा; उसी इनके मम्मरण बहुत ही रोचक और प्रेरक हैं । इनके प्रकार जातक साहित्य में प्रानन्द के भी बुद्ध के साथ हाथों कुछ एक ऐसे ऐतिहासिक कार्य भी हुए हैं, जो बौद्ध उत्पन्न होने की अनेक कथाएं मिलती है। आगन्तुको के परम्परा में मदा के लिए अमर रहेगे । बौद्ध परम्परा में लिए बुद्ध मे भेट का माध्यम भी मुख्यत: वे ही बनते । भिक्षणी संघ का श्रीगणेश नितान्त प्रानन्द की प्रेरणा से बुद्ध के निर्वाण-प्रसंग पर गौतम की तरह आनन्द भी हमा । बुद्ध नारी-दीक्षा के पक्ष मे नही थे । उन्हें उसमें व्याकुल हु" । गौतम महावीर-निर्वाण के पश्चात् व्याकुल अनेक दोष दीखते थे। केवल प्रानन्द के आग्रह पर महा हुए। आनन्द निवारण म पूव हा एक पार जाकर दीवाल प्रजापति गौतमी को उन्हाने दीक्षा दी। दीक्षा देने के का फूटा पकड कर गन लग, जब कि उन्हें बुद्ध के द्वारा माथ-गाय यह भी उन्होंने कहा-"प्रानन्द | यह भिक्ष उमी दिन निर्वागग होने की सूचना मिल चुकी थी। सघ यदि महसू वर्पक टिकने वाल' था तो ब पाचमो महावीर-निर्वाण के पश्चात् गौतम उमी रात को केवली वर्ष में अधिक नहीं टिकंगा। अर्थात् नारी-दीक्षा से मर हो गये। बुद्ध-निवारण के पश्चात् प्रथम बौद्ध संगीति में धर्म-मघ की पाधी ही उम्र मेष रह गई है।" जाने में पूर्व प्रानन्द भी अर्हन् हा गए। गौतम की तरह प्रथम बौद्ध संगीति में त्रिपिटको का संकलन हुमा । इनको भी अर्हत् न होने की प्रात्म-ग्लानि हुई। दोनो ही घटना-प्रसग बहुत सामीप्य रखते है । पाँचमी अर्हत्-भिक्षुमो में एक प्रानन्द ही ऐसे भिक्षु थे, जो मूत्र के अधिकारी ज्ञाता थे; अतः उन्हे ही प्रमाण मान महावीर के भी एक अनन्य उपासक प्रानन्द थे, पर ये ग्रही-उपासक थे और बौद्ध-परम्परा के प्रानन्द बुद्ध कर सुत्तपिटक का सकलन हुआ। कुछ बातो को स्पष्टता के भिक्षु उपासक थे । नाम-माम्य के अतिरिक्त दोनों में यथा समय बुद्ध के पास न कर लेने के कारण उन्हे भिक्षु कोई तादात्म्य नहीं है। महावीर भिक्षु शिष्यो मे भी एक संध के समक्ष प्रायश्चित्त भी करना पडा। पाश्चर्य तो प्रानन्द थे, जिन्हे बुलाकर गोशालक ने कहा था-मेरी यह है कि भिक्षु-संघ ने उन्हे स्त्री-दिक्षा का प्रेरक बनने तेजोलब्धि के अभिधात में महावीर शीघ्र ही काल-धर्म को का भी प्रायश्चित कराया। प्राप्त होंगे। जिसका उल्लेख गोणालक सलाप में प्राता है। ___ आनन्द बुद्ध के उपस्थाक (परिचारक) थे। उपम्याक बनने का घटना-प्रसंग भी बहुत मग्म है । बुद्ध ने उपालि अपनी प्रायू के ५६ वे वर्ष में एक दिन सभी भिक्षुमों को उपालि प्रथम मगीन में विनय-मूत्र के सगायक थे। प्रामत्रित कर कहा-"भिक्षुप्रो । मेंरे लिए एक उप 1. अगत्तरनिकाय, अट्ठकथा :-४-१ 1. धम्मपद, अट्ठकथा, १३-७ 2. उपासकदशाग सूत्र, अ० १ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर और बुद्ध के पारिपार्श्विक भिक्षु-भिक्षुरिणी UE विनय-सूत्र उन्होने बुद्ध की पारिपाश्विकता स ग्रहल किया गौतमी पा ये नापित कुल मे हा थे । माक्य गजा भदिग, प्रानन्द बौद्ध भिक्षणियो में महाप्रजापति गौतमी का नाम प्रादि अन्य पात्र शाक्य कुमारी के साथ प्रबजित हुए थे। उतना ही प्रतिगम्य है, जितना जैन परम्पग में महासती महाकाश्यप चन्दनबाला का। दोनो के पूर्वतन जीवन-वत्त में कोई महाकाश्यप बुद्ध के कर्मठ शिष्य थे । इसका प्रव्रज्या समानता नही है, पर दोनो ही अपने-अपने धर्म-नायक की ग्रहण से पूर्व का जीवन भी बहुत विलक्षण और प्रेरक रहा प्रथम शिष्या रही है अपने-अपने भिक्षुग्णी-मघ में अग्रणी है। पिप्पली कुमार और भद्राकुमारी का प्रख्यान इन्ही भी। का जीवन व्रत्त है। वही पिप्पलीकुमार माणवक धर्म सघ गौतमी के जीवन की दो बाते विशेष उल्लेखनीय हैं। में पाकर प्रायुप्मान् महाकाश्यप बन जाता है। इसके उसने नारी-जाति को भिक्षु-सध में स्थान दिलवाया तथा सुकोमल और बहुमूल्य चीवर का स्पर्श कर बुद्ध ने प्रगमा भिणियो को भिक्षुमो के समान ही अधिकार देने की की। इन्होने बुद्ध में वस्त्र-गृहण करने का प्रागृह किया। बात बुद्ध मे कही। बुद्ध ने गौतमी को प्रजिन करते बुद्ध ने कहा- मैं तुम्हारा यह वस्त्र ले मी लू, पर क्या ममय कुछ शर्ते उस पर डाल दी थी, जिनमे एक थोतुम मेरे इस जीणं मोटे और मलिन वस्त्र को धारण कर चिर दीक्षिता भिक्षुणी के लिये भी सद्य: दीक्षित भिक्ष मकोगे ?" महाकाश्यप ने वह स्वीकार किया और उमी वन्दनीय होगा। गौतमी ने उसे स्वीकार किया, पर ममय बुद्ध के माथ उनका चीवर-परिवर्तन हा । बुद्ध के प्रव्रजित होने के पश्चात् बहन शीघ्र ही उमने बुद्ध मे जीवन और बौद्ध परम्परा की यह एक ऐतिहामिक घटना प्रश्न कर लिया-"भन्ते । चिर दीक्षिता भिक्षुगी ही मानी जाती है। नव-दीक्षिन भिक्ष को नमस्कार करे, ऐमा क्यो ? क्यो न महाकाश्यप विद्वान थे। ये वृद्ध मूक्तों के व्याख्याकार नव दीक्षित भिक्षु ही चिर दीक्षिता भिक्षणी को नमस्कार के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। बद्ध के निर्वाण-प्रमंग पर ये करे " बुद्ध ने कहा .. "गौतमी | इतर धर्म-मघो में मुख्य निर्देशक रहे हैं। पाच मौ भिक्षयो के परिवार मे भी रोमा नहीं है । हमारा धर्म-मंघ तो बहन श्रेष्ठ है ..'' विहार करने, जिस दिन और जिस समय ये चिता-स्थल प्राज मे ढाई हजार वर्ष पूर्व गौतमी द्वारा यह प्रश्न पहंचते है, उसी दिन और उसी समय बुद्ध की अन्त्येष्टि उठा लेना, नारी-जाति के आत्म-सम्मान का मूचक होती है। उनके दम उत्तर मे पता चलता है, महापुरुष भी कुछ अजातशत्रु ने इन्ही के सुझाव पर राजगृह में बद्ध एक ही नवीन मूल्य स्थापित करते हैं। अधिकाशतः तो वे का धातु विधान (अस्थि गर्भ) बनवाया, जिसे कालान्तर भी लौकिक व्यवहार या लौकिक ढगे का अनुमरण करते से सम्राट अशोक ने खोला और बुद्ध की धानपी को हैं। अम्तृ, गौनमी की यह बात भले ही ग्राज पच्चीम मौ दूर-दूर तक पहुंचाया। वर्ष बाद भी फलित न हुई हो, पर उमने बुद्ध के समक्ष ये महाकाश्यप ही प्रथम बौद्ध मगीति के नियामक अपना प्रश्न रखकर नारी-जाति के पक्ष में एक गौरवपूर्ण तिहाग तो बना ही दिया है। प्राज्ञाकौण्डिन्य, अनिरुद्ध अादि और भी अनेक भिक्षु गौतमी के अतिरिक्त ग्वेमा, उत्सलवर, पटाचाग, ऐमे रहे हैं, जो बुद्ध के पारिपाश्विक कहे जा मकते है। कुण्डल केगा भद्राकापिलायनी प्रादि अन्य अनेक 1. दीर्धानकाय, महापरिनिव्वाण मुत्त । भिक्षणियाँ बौद्ध धर्म-मघ में मुविख्यान रही है। बुद्ध न 2. दोघनिकाय, अट्ठकथा, महापरिनिवारण मुत्त । एनदग्ग वग्ग मुत्त' में अपने दकचालिम भिक्षी तथा 3 विनयपिटक, चूल्लवगा, पचशानिका बन्धक । 1. विनयपिटक, चल्लवग्ग, भिवणी बन्धक Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त बारह भिक्षुरिणयों को नाम-ग्राह अभिनन्दित किया है तथा १४. ....."मारण्यकों (वन वासियों) में रेवतक्षदिर पृथक्-पृथक गुणो में पृथक-पृथक् भिक्ष-भिक्षुणियों को बनिये! ..... भग्रगण्य बताया है । वे कहते हैं : १५. ....."ध्यानियो में कंखा रेवत: .... १. भिक्षमों। मेरे अनुरक्तज्ञ भिक्षुमों में प्राज्ञा- १६. ....."उद्यमशीलों में सोणकोडिवीस........ कोण्डिन्या पग्रगण्य है। १७. ... · सुवक्ताओं में सोणकुटिकण्णा ... २. ... महाप्राज्ञों में सारिपुत्र' .. । ...... 'लाभार्थियों में सीवली...... ३. ... ऋद्धिमानो में महामौद्गल्यायन' १९. ...... श्रद्धाशीलों में वक्कलि .... ४. ..."धुतवादियो (त्यागियों) में महाकाश्यप । २०. ......संघीय-नियम-बद्धता में राहल...... ५. ...."दिव्यचक्षुकों में अनुरुद्ध ...। २१. ..... श्रद्धा से प्रवजितों में राष्ट्रपाल.... .. ६. ..... उच्चकुलीनों में भद्दिय कालिगोधा-पुत्र... २२. ....."प्रथम शलाका ग्रहण करने वालों में ७. ....""कोमल स्वर से उपदेष्टामों में लकुण्टक कुण्डधान' .. .. मद्दिय .... २३. ...... कवियों में वंगीस10 ८. ....."सिंहनादियों में पिण्डोल भारद्वाज ...... २४. ..."समन्तप्रासादिकों (सर्वतः लावण्य सम्पन्न) ९. ....."धर्म-कथिकों में पूर्ण मैत्रायणी-पुत्र.... .. में उपसेन वगन्त पुत्री.... १०. ......व्याख्याकारों में महाकात्यायन ... २५. शयनासन-प्रज्ञापकों में द्रव्य-मल्लपुत्र" . . . . . ११. ... "मनोगत-रूप-निर्मातामों व चित्त-विवर्त २६. .... देवतामों के प्रियों में पिलिन्दिवात्स्य.... चतुरों में चुल्लपन्यकी...... २७. .."प्रखर बुद्धिमानों में बाहियदारुचीरिया . १२. ... संज्ञा-विवर्त-चतुरों में महापन्यका . .... २८. .. .. विचित्र वक्ताओं में कुमार काश्यप....... १३. .. . अरण्य-बिहारियों व दक्षिणेयों में मुभूति.... 1. मगध, नालक ब्राह्मण-ग्राम, सारिपुत्र के अनुज 1. शाक्य, कपिलवस्तु के समीप द्रोण वस्तु ग्राम, 2 कौशल, श्रावस्ती, महाभोग ब्राह्मण 3. अग, चम्पा, श्रेष्ठी 2. मगध, राजगृह से अविदूर उपतिष्य (नालक) 4. अवन्ती, कुररप्पर, वैश्य ग्राम ब्राह्मण 5. शाक्य, कुण्डिया, क्षत्रिय, कोलिय-दुहिता सुप्रवासा 3. मगध, राजगृह से अविदूर कोलितग्राम, ब्राह्मण का पुत्र 4. मगध, महातीर्थ ब्राह्मण ग्राम, ब्राह्मण 6. कौशल, श्रावस्ती, ब्राह्मण 5. शाक्य, कपिलवस्तु, क्षत्रिय, बुद्ध के चाचा अप- 7. शाक्य, कपिलवस्तु, क्षत्रिय, सिद्धार्थ-पुत्र तोदन शाक्य के पुत्र 8. कुरु, युल्लकोण्ति, वैश्य 6. शाक्य, कपिलवस्तु, क्षत्रिय 9. कौशल, श्रावस्ती, ब्राह्मण 7. कौशल, श्रावस्ती, धनी (महाभोग) 10. कौशल श्रावस्ती, ब्राह्मण 8. मगध, राजगृह, ब्राह्मण 11. मगध, नालक ब्राह्मण-प्राम, ब्राह्मण, सारिपुत्र 9. शाक्य, कपिलवस्तु के समीप द्रोण-वस्तु ग्राम के अनुज 10. प्रवन्ती, उज्जयिनी, ब्राह्मण 12. मल्ल, अनूपिया, क्षत्रिय 11. मगध, राजगृह, श्रेष्ठि-कन्यापुत्र 13. कौशल, श्रावस्ती, ब्राह्मण 12. मगध, राजगृह, श्रेष्ठि-कन्यापुत्र 14. वाहियराष्ट्र, कुलपुत्र 13. कौशल, श्रावस्ती, वैश्य 15. मगध, राजगृह लस Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१.प्रतिसावित्प्राप्तो में महाकोष्ठि ३०. स्थाको में श्रानन्द' ... ... ३३. ३४. शोभित... ३५. ३६. ३१. ३२. कुल प्रसादको में काल-उदायी ...निरोगों में वक्कुल पूर्व जन्म का स्मरण करने वालों मे महावीर और बुद्ध के पारिपाश्विक भिक्षु भिक्षुणियाँ बहुश्र ुतो, गतिशीलां, स्थितिमानों व उप ... .... ..... महापरिषद् वालों में उरुवेल काश्यप विनयघरों में उपालि मिथुनियो के उपदेष्टा जितेन्द्रियों में नन्द... ३७ ३८. भिक्षु के उपदेष्टाओ मे महाकपिन" तेज-याला मे स्वागत... ३६. ४०. प्रतिभाशालियां मे राघ ४१. ...... रूक्ष चीवर घारियो मे मोघ राज 3...... भिक्षुणियों में १. भिक्षुत्रो ! मेरी रक्तज्ञा भिक्षुणियों मे महाप्रजापति गौतमी अग्रगण्य है" । २. ...महाशय में ... 1. कौशल, श्रावस्ती, ब्राह्मण 2. शाक्य, कपिलवस्तु, क्षत्रिय, भौदन पुत्र 3. काशी, वाराणसी, ब्राह्मण 4. शाक्य, कपिलवस्तु, अमात्य गेह 5. वत्स, कौशाम्बी, वैदय 6. कौशल, धावस्ती, बाह्मण 7. शाक्य, कपिलवस्तु, नापित 8. कौशल, धावती, कुनगेह 9. शाक्य, कपिलवस्तु, क्षत्रिय, महाप्रजापती- पुत्र 10. सीमान्त, कुक्कुटवती, राजवश 11. कौशल, भावस्ती, ब्राह्मण 12. मगध, राजगृह, बाहाण 13. कौशल, बावस्ती, ब्राह्मण, बाबरी-शिष्य t, 14. शाक्य, कपिलवस्तु, क्षत्रिय, शुद्धोदन की पत्नी 15. मद्र, सागल, राजपुत्री, मगधराज बिम्बिसार की पत्नी ३. ४. ५. ६. धर्मोपदेशिकाथो मे धम्मदिन्ना....... ध्यायिकाओं में नन्दा ... ७. उद्यमनीनाम्रो मे मोरणा * द. प्रखर प्रतिभागातिनियों मे भद्राकुण्डल केला. ... "दिशासिनियो मे उत्प विनयधराम्रो मे पटाचारा ..... ... ह .....पूर्वजन्म का धनुर कारिकाधों में भद्रा कापिलायनी १०. महाप्रमिशा रिकामो में भद्रा काव्या यनी" ११. क्ष चीवर धारिकायां में कृणा गौतमी" १२. श्रद्धा-युवती मे श्रृंगाल माता ...... श्रागम साहित्य में 'एतदग्ग वग्ग' की तरह नामग्राह कोई व्यवस्थित प्रकरण दस विषय का नहीं मिलता, पर कल्पसूत्र का केवनी प्रादि का संख्याबद्ध उल्लेख महावीर के भिक्षुम की व्यापक सूचना हमें दे देता है। प्रोपपातिक सूत्र मे नियो के विविध तपो का पौर उनकी अन्य विविध विशेषनाम्रो का सविस्तार वर्णन है। तप के विषय में बताया गया है- "अनेक भिक्षु कनकावली तप करते थे । अनेक भिक्षु एकावली तप, अनेक भिक्षु लघुनिहित तप, अनेक भिक्षु महासहfroster नग, अनेक भिक्षु लघुमिहनिष्क्रीडित तप, अनैक भिक्षु भद्र प्रतिमा, धनेक भिक्षु महाभद्र प्रतिमा, अनेक भिक्षु प्राबिल वर्द्धमान तप, अनेक भिक्षु मासिकी भिक्षु ८१ 1. कौशल, श्रावस्ती, श्रं पठि-कुल 2. कौन, बावनी, धोष्ठि कुल 3. मगध, राजगृह, विशाख श्रेष्ठी की पत्नी 4. शाक्य, कपिलवस्तु महाप्रजापती गौतमी की पुत्री 5. कौशल, श्रावस्ती, कुलगेह 6. कौशल, श्रावस्ती, कुलगेह 7. मद्र, सागल, ब्राह्मण, महाकाश्य की पत्नी 8. शाक्य, कपिलवस्तु क्षत्रिय, राहुल माता-देव दहवासी, सुप्रबुद्धशाक्य की पुत्री 9. कौशल, श्रावस्ती, वैश्य Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त प्रतिमा, अनेक भिक्षु द्विमासिका भिक्षु प्रतिमा से सप्त चतुर्दश सहस्त्र भिक्षुषों में दुष्कर क्रिया करने वाला है। मासिकी भिक्षु प्रतिमा अनेक भिक्षु प्रथम-द्वितीय-तृतीय मेघकुमार सप्त अहोरात्र प्रतिमा, अनेक भिक्षु एक अहोरात्र प्रतिमा, बिम्बिमार के पुत्र मेघकुमार दीक्षा-पर्याय की प्रथम अनेक भिक्षु एक रात्रि प्रतिमा, अनेक भिक्षु सप्त सप्तमिका रात में संयम से विचलित हो गये। उन्हे लगा, कल तक प्रतिमा, अनेक भिक्षु लघूमोन्द प्रतिमा, अनेक भिक्षु यव- जब मैं राजकुमार था, सभी भिक्षु मेरा आदर करते थे, मध्यचन्द्र प्रतिमा तथा अनेक भिक्षु वज्रमध्यचन्द्र प्रतिमा स्नेह दिखलाते थे। आज मैं भिक्षु हो गया, मेरा वह तप करते थे।" प्रादर कहाँ ? मुह टाल कर भिक्षु इधर-उधर अपने अन्य विशेषतापो के सम्बन्ध से वहा बताया गया कामो में दौडे जाते है। सदा की तरह मेरे पास आकर कोई जमा नहीं हुए । शयन का स्थान मुझे अन्तिम मिला है-"वे भिक्षु जान-सम्पन्न, दर्शन-सम्पन्न, चारित्र सम्पन्न, है। द्वार से निकलते और पाते भिक्षु मेरी नीद उडाते है। लज्जा-सम्पन्न व लाघव-सम्पन्न थे । वे प्रोजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी पोर यशस्वी थे, वे इन्द्रिय-जयी, निन्द्रा-जयी मेरे साथ यह कैसा व्यवहार ? प्रभात होते ही मैं भगवान् और परिषह-जयी थे। वे जीवन की प्राशा और मृत्यु के महावीर को उनकी दी हुई प्रव्रज्या वापिस करूंगा। भय से विमुक्त थे वे, प्रज्ञप्ति प्रादि विद्याप्रो व मंत्रो में प्रात:काल ज्यो ही वे महावीर के सम्मुख पाये, महावीर ने अपने ही ज्ञान-बल से कहा-"मेघकुमार । रात को प्रधान थे। वे श्रेष्ठ, ज्ञानी, ब्रह्मचर्य, मत्य व शोच में कुशल थे। वे चारु वर्ण थे। भौतिक प्राशा-बांधा से वे तेरे मन में ये ये चिन्ताए उत्पन्न हुई। तुमने पात्र-जो हरग आदि संभला कर जाने का निश्चय किया।" ऊपर उठ चुके थे प्रोत्सुक्य रहित, श्रामण्य-पर्याय में माव मेघकुमार ने कहा- "भगवन् । पाप मत्य कहते है।" धान और बाह्य-ग्राभ्यन्तरिक ग्रन्थियो के भेदन में कुगल थे । स्व-सिद्धान्त पौर पर-सिद्धान्त के ज्ञाता थे। परवा महावीर ने उन्हे सयमारूढ करने के लिए नाना उपदेश दियो को परास्त करने में अग्रणी थे । द्वादशाङ्गी के ज्ञाता दिये तथा उनके पूर्व भव का वृत्तान्त बताया मेधकुमार और मसस्त गरिणपिटक के धारक थे । अक्षरो के समस्त पुन- मयमारह हो गया। सयोगो के व मभी भाषायी के ज्ञाता थे । वे जिन (सर्वज्ञ) मेघकुमार भिक्षु ने जाति-रमरण ज्ञान पाया । एकादन होते हुए भी जिनके सदृश थे।" शागी का अध्ययन किया । गुणरत्नसंवत्सर नप की प्रकीर्ण रूप से भी अनेकानेक भिक्षु-भिक्षुणियो के पाराधना की। भिक्षु की 'द्वादश प्रतिमा' पाराधी। अन्त में महावीर से आज्ञा ग्रहण कर वैभार गिरि पर जीवन प्रसग पागम-साहित्य में बिखरे पडे है, जिनसे उनकी विशेषतानो का पर्याप्त व्यौरा मिल जाता है। आमरण अनशन कर उत्कृष्ट देव-गति को प्राप्त हुए। बौद्ध परम्परा में सद्य: दीक्षित नन्द का भी मेधकुमार काकन्दी के धन्य जैमा ही हाल रहा। वह अपनी नव विवाहिता पत्नी काकन्दी के धन्य बत्तीस परिणीता नरुणियों और जनपद कल्याणी नन्दा के अन्तिम ग्रामश्रण को याद कर बत्तीस महलो को छोडकर भिक्षु हुए थे । महावीर के साथ दीक्षित होने के अनन्तर ही विचलित-सा हो गया। बुद्ध रहते उन्होंने इतना तप तपा कि उनका शरीर केवल 1. इमेसिण भन्ते ! इदभुई पामोक्खणं चउदसण्हं । अस्थि कंकाल-मात्र रह गया था। राजा बिम्बिसार के समण साहसीणं कयरे अरणगारे महादुक्कर कारए चेव द्वारा पूछे जाने पर महावीर ने उनके विषय में कहा महारिणज्जरकारएचेब ? एवं खलु सेरिणया । इमीसि "अभी यह धन्य भिक्षु अपने तप से, अपनी साधना से इदभूई पामोक्लवाण चउदसण्ह समण साहसीण धन्ने 1. उववाइय सुत्र, १५ मणगारे महा दुक्करकारए चेज महानिज्जर कारए चेव । 2. उववाइय सुत्र १५-१६ -प्रगुत्तरोबवाई दसाग, वर्ग० ३, प्र. १ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर और बुद्ध के पारिपाश्विक भिक्षु-भिक्षुरिणया 23 ने यह सब जाना और उसे प्रतिबुद्ध करने के लिये पर्वन और अपने पुत्र के दर्शन को तैयार हो रही थी। उत्सुकता पर ले गये । वहां एक बन्दरी का शव उमे दिखाया और मे उमने घर आए मुनि की ओर ध्यान ही नहीं दिया । पूछा- क्या तुम्हारी पत्नी इससे अधिक मुन्दर है ?" कर्मकरी ने भी अपने स्वामी को पहचाना शालिभद्र बिना वह बोला-"अवश्य ।" तब बुद्ध उमे त्रास्त्रिश स्वर्ग में भिक्षा पाए ही लोट पाए रास्ते में एक अहिग्न मिली। ले गये। अप्सरामों-सहित इन्द्र ने उनका अभिवादन दही का मटका लिए जा रही थी। मुनि को देखकर उसके किया। बुद्ध ने अप्सरामो की भोर संकेत कर पूछा- मन में स्नेह जगा । रोमाचित हो गई। स्तनो से दूध की "क्या जनपद कल्याणी नन्दा इससे भी सुन्दर है ?" वह धारा वह चली। उसने मुनि को दही लेने का प्राग्रह बोला-"नही, भन्ते !" बुद्ध ने कहा-"तब उसके किया। मुनि दही लेकर महावीर के पास प्राये पारणा लिए तू क्यो विक्षिप्त हो रहा है ? भिक्षु धर्म का पालन किया। महावीर से पूछा--"भगवन् । मापने कहा था, कर । तुझे भी ऐसी अप्सगएं मिलेगी।" नन्द पुन श्रमण माता के हाथ में पारणा कगे। वह क्यों नही हुमा ?" धर्म में प्रारुढ़ हुआ। उसका वह वैपयिक लक्ष्य तब मिटा, महावीर ने कहा-शालिभद्र | माता के हाथ से ही जब सारिपुत्र आदि प्रस्मी महा थावको (भिक्षो) ने उम पारणा हुपा है। वह पहिरन तुम्हारे पिछले जन्म की इस बात के लिए लज्जित किया। अन्त में भावना से भी माता थी।" विषय-मुक्त होकर वह अर्हत् हुअा। महावीर की अनुज्ञा पा शालिभद्र ने उसी दिन वैभार मेघकुमार और नन्द के विर्चालत होने के निमित्त गिरि पर्वत पर जा प्रामरण अनशन ढा दिया । भद्रा सर्वथा भिन्न थे, पर घटना-क्रम दोनो का ही बहुत ममान समवशरण मे पाई। महावीर के मुख मे शालिभद्र का है। महावीर मेघकुमार को पूर्व भव का दुःख बताकर भिक्षाचारी में ले कर अनशन तक का सारा वृत्तान्त सुना। मुम्थिर करते हैं और बुद्ध नन्द के अागामी भव के मुख माता के हृदय पर जो बीत सकता है, वह बीता । नत्काल बताकर करते है। वह पर्वत पर पाई। निर्मोही पुत्र ने पाम्ब उठाकर भी शालिभद्र उमकी ओर नही देखा। पुत्र की उम नप: क्लिष्ट काया को और मरणाभिमुख स्थिति को देख कर उसका हृदय राजगृह के शालिभद्र, जिनके वैभव को देखकर हिल उठा । वह दहाड मार कर रोने लगी। राजा बिम्बराजा बिम्बिमार भी विस्मित रह गये थे; भिक्षु जीवन स्वार ने उम मान्त्वना दी। उद्बोधन दिया। वह घर में पाकर उत्कट तपस्वी बने । मासिक, द्विमामिक और गई। शालिभद्र मर्वोच्च देवगत को प्राप्त हए। उनके त्रैमासिक तप उनके निरन्तर चलता रहता। एक बार गृही-जीवन की विलास-प्रियता मोर भिक्षु-जीवन की महावीर वृहत् भिक्षु-मघ के माथ गजगृह पाये । शालिभद्र कठोर माधना दोनो ही उत्कृष्ट थी। भी माथ ये । उस दिन उनके एक महीने की नपस्या का स्कन्दक पारणा होना था। उन्होने नतमस्तक हो, महावीर में म्कन्दक महावीर के परिवाजक भिक्षु थे। परिव्राजकभिक्षार्थ नगर मे जाने की प्राज्ञा माँगी। महावीर ने कहा-"जामो, अपनी माता के हाथ में पारणा पानी।" ; माधना में भिक्षु-माधना मे आना और उसमें उत्कृष्ट रूप शालिभद्र अपनी माता भद्रा के घर पाए। भद्रा महावीर में रम जाना उनकी उल्लेखनीय विशेषता थी। पागम बनाते है स्कन्दक यत्नापूर्वक चलते, यत्नापूर्वक ठहरते, 1. सुत्तनिपात, अटकथा, पृ० २७२, धम्मपद, पट्ठ- प्रत्नापूर्वक बैठते. यत्नापूर्वक मोने, यत्नापूर्वक खाते और कथा, खण्ड १, ६६-१०५; जातक स. १८२, येरगाथा यत्नापूर्वक बोलते । प्रागण, भूत, जीव, मत्व के प्रति सयम १५७; Dictionary of Pah Proper Name, रखते। वे कात्यायन गोत्रीय स्कन्दक ईर्या मादि पांचों Vol. I, pp 10-11 ममिनियों में मयत, मनः मंयन, वच. मंयत, काय-मंयत, Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त पच: संयत, जितेन्द्रिय, प्राकांक्षा-रहित, चपलता-रहित स्कन्दक तपस्वी को बोलने में ही नहीं, बोलने का और संयमरत थे। मन करने मात्र से ही क्लान्ति होने लगी। अपने शरीर वे स्कन्दक भिक्षु स्थविरो के पास अध्ययन कर एका- की इस क्षीणावस्था का विचार कर वे महावीर के पास दश अंगों के ज्ञाता बने । उन्होंने भिक्षु की द्वादश प्रतिमा प्राये उनसे आमरण अनशन की प्राज्ञा मागी । अनुज्ञा पा, माराधी। भगवान महावीर से प्राज्ञा लेकर गुणरत्नसंवत्सर परिचारक भिक्षुमो के माथ विपुलाचल पर्वत पर पाये, तप तपा। इम उत्कृट तप से उनका सुन्दर सुडौल और यथाविधि अनशन ग्रहण किया। एक मास के अनशन से मनोहारी शरीर रूक्ष, शुष्क और कृश हो गया। चर्म- काल-धर्म को पा अच्युत्कल्प स्वर्ग में देव हुए। महावीर वेष्टित हडिया ही शरीर में रह गई । जब वे चलते, के पारिपार्श्विको में उनका भी उल्लेखनीय स्थान रहा है। उनकी हड़ियाँ शब्द करती; जैसे कोई सूखे पत्तों से भरी पचमाग भगवती सूत्र में उनके जीवन और उनकी साधना गाडी चल रही हो, कोयलो से भरी गाडी चल रही हो। पर सविस्तार प्रकाश डाला गया है। वे अपने तप के तेज से दिप्त थे। महावीर की भिक्षुग्गियो में चन्दनबाला के अतिरिक्त 1. भगवती सूत्र, श० २, उ० १ मृगावती, देवानन्दा, जयन्ती, सुदर्शना प्रादि भनेक नाम 2. तए णं से अणगारे तेण उरालेणं, विउलेणं उल्लेखनीय है। महागाभागेणं तवोकम्मेण मुक्के, लक्खे, निम्ममे, पट्टि महावीर और बुद्ध के पारिपाश्विक भिक्ष-भिक्षणियो चम्मावणद्धे, किडिकिडियाभूए, किमे, धमणि, संवए जाए को यह सक्षिप्त परिचय-गाथा है। विस्तार के लिए इस यावि होत्या। जीव-जीवेण गच्छइ, जीव जीवेण चिठ्ठइ, दिशा में बहुन अवकाश है। जो लिखा गया है, वह तो भासं भासित्ता वि गिलाइ, भाम भासमारगे गिलाइ, भासं प्रस्तुत विषय की झलक मात्र के लिए ही यथेष्ट माना भासि-स्सामीति गिलायति । से जहानामए कदसर्गाच्या इ ।।स जहानामएसमारा जा सकता है। वा, पत्तसगडिया इवा, पत्त-तिल-भंड सगडिया इ वा, एरडकट्टसडिया इ वा, इंगालमगडिया इ वा उण्हे दिण्णा अवचिए मंसमोणिएणं, हयामणे विव भामारासिपडिच्छणगो मुक्का ममापी समगच्छद, ससहचिट्ठइ, ऐवा मेव खदए तवेणं, तेएणं, तव तेयगिरीए अतीव अतीव उवमोभेमागो वि अणगारे ससद्द गच्छइ, ससद्द चिट्ठइ, उवचिए तवेणं, चिट्टइ। -भगवती मूत्र, श० २, उ०१ जाए . राजा श्रेणिक या बिम्बसार का आयुष्य काल ( पं. मिलापचन्द कटारिया ) जैन शास्त्रो में राजा श्रेणिक की भायु के विषय में "राजा कुणिक को श्रीमती राणी से श्रेणिक नाम कही कोई स्पष्ट निर्देश नहीं मिलता है कि उनकी कितनी का पुत्र हुमा । राजा के और भी बहुत से पुत्र थे। राजा प्रायु थी । तथापि उनके कथा प्रसगों से उनकी मायु का ने एक दिन सोचा कि इन सब पुत्रों में राज्य का अधिकारी पता लगाया जा सकता है। इस लेख में हम इसी पर कौन पुत्र होगा ? निमित्तज्ञानी के बताये निमित्तो से राजा चर्चा करते हैं : को निश्चय हुमा कि एक श्रेणिक पुत्र ही मेरे राज्य का उत्तरपुराण के ७४ वे पर्व में राजा श्रेणिक का उत्तराधिकारी बनेगा। तब राजा ने दायादों से अंगिक चरित्र निम्नप्रकार बताया है : की रक्षा करने के लिये श्रेणिक पर बनावटी क्रोध करके Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा श्रणिक या बिम्बसार का प्रायुष्य काल ८५ उसे नगर से निकाल दिया। वहां से निकल कर श्रेणिक सत्य को ने ज्येष्ठा पुत्री की याचना उसके पिता राजा दूर देश में जाने की इच्छा से चलता हुअा नंदिग्राम में चेटक से की थी। परन्तु चेटक ने उसे नही दी जिससे पहा । कितु नदिग्राम के निवासियो ने राजाज्ञा के भय ऋद्ध हो सत्यकि ने चेटक से सम्राम किया। संग्राम में से राजकुमार श्रेणिक को कोई पाश्रय नहीं दिया। इससे सत्यकि हार गया। प्रतः लज्जित हो वह दमधर मुनि से नाराज हो श्रेणिक पागे बढ़ा। रास्ते में उसे एक ब्राह्मण दीक्षा ले मुनि हो गया। इसी तरह चेलना पुत्री को भी का साथ हमा। उससे प्रेमपूर्वक अनेक बाते करता हुआ राजा श्रेणिक ने मांगी थी परन्तु उस समय श्रेणिक श्रेणिक उस ब्राह्मण के मकान पर जा पहुचा । थेणिक की उम्र ढल चुकी थी जिससे चेटक ने उसे देने से की वाक्चातुरी, यौवन प्रादि गुगणों पर मुग्ध होकर उम इकार कर दिया था। फिर अभयकुमार के प्रयत्न से ब्राह्मण ने उसके साथ अपनी युवा-पुत्री का विवाह कर छिपे तौर पर चेलना के साथ श्रेणिक का विवाह हुमा था दिया । थेणिक अब यही रहने लगा। यही पर थेगिक उस प्रयत्न मे ज्येष्ठा का विवाह सम्बन्ध भी श्रेणिक के के उस ब्राह्मण कन्या से एक अभयकुमार नाम का पुत्र साथ होने वाला था कित चेलना की चालाकी से वैसा हमा । एक दिन थणिक के पिता कुणिक को अपना न हो सका। इमी एक कारण से विरक्त हो ज्येष्ठा ने राज्य छोडने की इच्छा हुई। कुणिक ने ब्राह ग के ग्राम प्रपनी मामी यशस्वती प्रायिका से दीक्षा ले ली थी और से श्रेणिक को बुला कर उसे अपना मब गज्य सभला वह प्रायिका हो गई थी। (श्लोक ३ से ३४ तक) दिया। अब धणिक राज्य करने लगा। पीछे से अभय कुमार और उसकी माता भी राजा श्रेणिक से पा मिले । उत्तरपुरागा पर्व ७६ श्लोक ३१ प्रादि में लिखा है (श्लोक ४१८ से ४३०) कि-श्रेणिक ने महावीर के समवशरण में जा वहाँ उत्तरपुगरण पर्व ७५ में लिखा है कि : गौतमगणधर से पूछा कि-"प्रतिम केवली कौन होगा" मिधुदेश की वैशाली नगरी के राजा चेटक के १० पुत्र इम पर गौतम ने कहा कि-वह यहा समवशरण में पौर ७ पुत्रिया थी प्रियकारिणी मृगावती सुप्रभा, प्रभावती, प्राया हुआ विद्युन्माली देव है जो प्राज से ७ दिन बाद जम्बू नाम का सेठ पुत्र होगा। जिस समय महावीर मोक्ष चेलना, ज्येष्ठा चंदना ये उन पुत्रियो के नाम थे। ये पधारेंगे उस ममय मुझे केवलज्ञान होगा और मैं मुधर्म सब-वय में उत्तरोत्तर छोटी छोटी थी। इनमें सबसे बड़ी गणधर के साथ विचरता हुग्रा इमी विपुलाचल पर पुत्री प्रियकारिणी थी जो राजा सिद्धार्थ को व्याही गई थी जिससे--भगवान् महावीर का जन्म हुआ था। और इससे छदो भंग भी नही होता है। सबसे छोटी पुत्री चदना थी जो बालब्रह्मचारिणी ही रह हरिवंशपुराणत्रिलोय पण्णत्ती त्रिलोयसार, हरिषेण कर महावीर स्वामी की सभा में प्रायिकामो में प्रधान कथाकोश, विचारमार प्रकरण (श्वे.) सभी में ११वे रुद्र गणिनी हुई थी। तथा गंधार देश के महीपुर के राजा का नाम सच्चइ मुप (मत्यकि सुत) देते हुए इस राजा 1 उत्तर पूराण पर्व ५७ इलो० में 'सत्यको' पद है का नाम सत्यकि ही प्रकट किया है। इसी राजा का जिमसे नाम 'सत्यक' प्रकट होता है किन्तु इसी के प्राधार मुनि अवस्था में उत्पन्न पुत्र ११ वा रुद्र है। प्रतः हमने पर बने पुष्पदत्त कृत अपभ्रश महापुराण में इमी स्थल 'सत्यकि' ही नाम सब जगह दिया है। हरिपेण कथा कोप पर (भाग ३ पृ. २४३ में) 'सच्चई' पद है जिससे नाम में सांक के साथ कही कही सात्यकि नाम भी दिया 'सत्यकि' प्रकट होता है इसके सिवा उत्तर पुराण ही में है। ब्र० नेमिदत्त कृत पाराधना कथाकोष में तो सात्यकी सर्ग ७६ श्लो० ४७४ मे "मत्यकि-पुत्रक" पद देते हुए ही दिया है। प्राकृत के 'सच्चह' पद का सात्यकि और सत्यकि नाम सूचित किया है प्रतः पर्व ७५ श्लो० १३ में सत्यकि दोनो बन जाता है। तथा 'कि' भी हस्व और सत्यको की जगह सत्यकि (सत्यकी शुद्ध पाठ होना चाहिए दीघं दोनो रूपों में हो जाती है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रनेकान्त ग्राऊंगा । उस वक्त इस नगर का राजा चेलना का पुत्र र कुणिक परिवार के साथ मेरी वदना को घावेगा। तभी । जम्बूकुमार भी मेरे पास था दीक्षा लेने को उत्सुक होवेगा । उस वक्त उसके भाई बन्धु उसे यह कह कर रोक देंगे कि—थोडे ही वर्षों में हम लोग भी तुम्हारे ही साथ दीक्षा धारण करेगे । बन्धु लोगो के इस कथन को वह टाल नही सकेगा और वह उस समय नगर मे वापिस चला जावेगा । तदननर परिवार के लोग उसे मोह मे फमाने के लिये चार सेठो की चार पुत्रियो के साथ उसका विवाह रच देगे । इतने पर भी जम्बूकुमार भोगानुरागी न हो कर उल्टे दीक्षा लेने को उद्यमी होगा। यह देख उनके भाई बन्धु प्रोर कुणिक राजा ( श्लोक १८३ ) उसका दीक्षोत्सव मनायेंगे । उस वक्त मुझे विपुल चल पर विराजमान जान कर वह जम्बू उत्सव के साथ मेरे पास श्री मेरी भक्ति पूर्वक वदना कर सुधमंगणधर के समीप सयम धारण करेगा । मेरे केवलज्ञान के १२वं वर्ष जब मुझे निर्वाण प्राप्त होगा तब सुधर्माचार्य केवली और जम्बूस्वामी श्रुतकेबली होगे । उसके बाद फिर १२व वर्ष में जब सुधर्म केवली मोक्ष जायेगे तब जम्बूस्वामी कां केवलज्ञान होगा । फिर वे जम्बू केवली अपने भव नाम के शिष्य के साथ ४० वर्ष तक विहार कर मोक्ष पधारेंगे। उत्तर पुराण पर्व ७४ श्लोक ३३१ प्रादि मे लिख। है कि : एक दिन उममिनी के स्मशान में महावीर स्वामी प्रतिमायांग स विराजमान थे । उनको ध्यान से विचलित करने के लिये रुद्र ने उन पर उपसर्ग किया। परन्तु वह भगवान को ध्यान से डिगाने में समर्थ न हो सका । तब रुद्र ने भगवान का महतिमहावीर नाम रखकर उनकी बड़ी स्तुति की और फिर नृत्य किया ८६ 1. उसर पुराण के अनुसार कि के पिता का नाम भी कुणिक है छोर का नाम भी कुणिक है। होने मे ' महर्शन महावीर" यह एक ही नाम सिद्ध होता है 2 भारतीय ज्ञानपीठ, काशी मे प्रकाशित उत्तर पुराण पृ० ४६५-६६ में महनि श्रौर महावीर ऐसे २ नाम अनुवादक जी ने दिये है किन्तु मूल में एक वचनात पद ऊपर हम जिस माये है कि राजा पेटक की पुत्री ज्येष्ठा कुंवारी ही धार्मिका हो गई थी और राजा सत्यकि होने से 'महतिमहावीर' यह एक ही नाम सिद्ध होता है देखो पर्व ७४ " समहतिमहावीराख्या कृत्वा विविधः । स्तुती " ||४३६ ॥ | इसी के आधार पर आशाधर ने भी विषष्ठि स्मृति शास्त्र में सर्ग २४ नो० ३४ में "महतिमहावीर” यह एक नाम सूचित किया है । इसी तरह स्वकृत सहस्त्रनाम के श्लोक ९१ में भी 'महति महावीर' यह एक नाम देते हुए उसका घर्ष इस प्रकार किया हैमस्य मलम्य हतिर्हननमहति । महतो महावीर: महति महावीरः । ( पापो के नाश करने में शूरवीर) पाक्षिकादि प्रतिक्रमण ( क्रियाकलाप पृ० ७३ ) में महदिमहावीरेश मागेगा महाकवेगा" पाठ घाता है इसमें भी 'महति महावी' यह एक नाम ही सूचित किया है। महदि प्राकृन का संस्कृत मे महनि मौर महानिदोनो रूप बनते हैं अतः कवि अशग ने अपने गहावीर चरित में 'महातिमहावीर' यह एक नाम दिया है जिसका अर्थ होता है महान् से भी प्रत्यन्त महान् वीर । स्व० प० खूबचन्द जी सा० ने इसके हिन्दी अनुवाद में प्रतिवीर और और महावीर ऐसे दो नाम बनाये हैं जो मूल से विरुद्ध हैं। मूल मैं तो | एक वचनात प्रयोग किया है देखोस महानि महादिरेष वीरः प्रमदादित्यभिधाव्यधत्तनस्य ॥ १२६ ॥ पर्व १७ मत के अनुसार भी "महानिमहावीर. " यह एक नाम हो सिद्ध होता है। = धनंजय नाम माला के श्लोक ११५ में लिखा हैसन्मति मंहति वीरो महावीरोऽ न्त्यकाश्यपः ।। यहा महाति: 'वीर' महावीर ऐगे घनग चलग नाम बनाये हैं यह कवि की प्रतिभा है अमरकीति ने इसके भाध्य में 'महतिः' नाम का धर्म इस प्रकार किया है- महती पूजा यस्य स महतिः । किन्तु उत्तरपुराण प्रादि में 'महति महावीर यह एक नाम दिया है। दो इसलिये भी नही हो मकते कि उत्तर पुराण पर्व ७४ श्लोक २६५ मे 'महावीर' यह नाम सर्पवेषी संगमदेव ने पहिले ही रख दिया था, देखो - स्तुत्वा भवान्महावीर इति नाम चकार म Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ राजा थेणिक या बिम्बसार का पायुप्य काल जो ज्येष्ठा को चाहता था वह भी मुनि हो गया था। मुनि हो गया । वह नवदीक्षित मुनि ग्यारह प्रग दशपूर्वी उत्तरपुराण में इनका इतना ही कथन किया है। किन्तु तु का पाठी हो गया और रोहिणी प्रादि पानौ महाविद्यामो अन्य जैन कथा ग्रन्थों में इनका प्रागे का हाल भी लिखा व मात मौ क्षुद्र विद्यापो की भी उमे प्राप्ति हो गई । बह मिलता है। हरिषेण कथाकोश की कथा न. १७ में विद्या के प्रताप मे मिह का रूप बना कर उन लोगो को लिखा है कि डगने लगा जो लोग सत्यकी मनि की वंदनार्थ पाते जाते एक बार ज्येष्ठा प्रादि कितनी ही मायिकाये माता थे। उसकी ऐमी चेष्टा जान कर मत्यकी मुनि ने उमे पन योग में स्थित उक्त सत्यकि मुनिकी वदनार्थ गई थी। फटकारा और कहा कि तू स्त्री के निमित्त मे एक दिन वहा से लौट कर पहाड़ पर से उतरते समय अकस्मात् भ्राट होवेगा। गुरु वाक्य मूम कर मयाक पुत्र ने निश्चय जल वर्षा होने लगी जिससे प्रायिकाय तितरबितर हो किया कि मैं ऐमी जगह जाकर उप का' जहाँ स्त्री मात्र गई। उम वक्त ज्येष्ठा एक गुफा में प्रवेश कर अपने भीगे कपडे उतार लर निचोडने लगी। उसी समय वे सत्यकि का दर्शन भी न हो सके तब मैं कैसे भ्रष्ट होऊँगा? ऐसा सोच कर वह कैलाश पर्वत पर जा पहुंचा और वहाँ मुनि भी अपना प्रातापन योग समाप्त कर उसी गुफा में पानापन यांग में स्थित हो गया। वहाँ एक विद्याधर की पा घुमे । वहाँ ज्येष्ठा को खुले अग देख एकान पा मुनि के दिल में काम विकार हो उठा । दोनो का मयोग हुआ। पाठ कन्याये म्नान करने को भाई । उनकी अनुपम ज्येष्ठा के गर्भ रहा। मत्यकि तो इस कुकृत्य का गुरु से मुन्दरता को देख कर वह उन पर मोहित हो गया। ज्यो प्रायश्चित्त ले पुनः मुनि हो गये। किंतु ज्येष्ठा सगर्भा थी ही वे कन्यायें अपने वम्याभुषण उतार वापिका के जल में उसने अपनी गुर्वाणी यशस्वती के पाम जा अपना मब स्नान करने को घुमी नब ही उस ने अपनी विद्या के द्वारा हाल यथार्थ मुना दिया। गुर्वाणी ने उसे रानी चेलना के उनके वस्त्राभूषणों को मगा लिया। वापिका मे निकल यहा पहुंचा दिया। चेलना ने शरण देकर ज्येष्ठा को गुप्त कर उन कन्याप्रो को जब तट पर अपने २ वस्त्राभूषण रूप से अपने पास रक्खा। वही उसके पुत्र पैदा हुमा । न ही मिले तो उन्होने उन मुनि से पूछताछ की। मुनि ने पुत्र जन्म के बाद ज्येष्ठा ने अपनी गूर्वागी में प्रायश्चित्त उन में कहा तुम मब मेरी भार्या बनो तो तुम्हारे बम्बादि तुम्हे मिल मकते है । उत्तर में उन कन्यानो ने कहा कि लेकर पुन आर्यिका की दीक्षा ग्रहण करली। यह बात तो हमारे माता पिता के प्राधीन है। वे अगर ___ ज्येष्ठा के जो पुत्र हुमा था उसका लालन पालन भी हमें प्रापको देना चाहे तो हमारी कोर्ट इंकारी नही है। पलना ने ही किया। वह पुत्र बडा उद्दड निकला । एक उमने कहा अच्छा तो तुम मब अपने माता दिन उसकी उडता मे हैरान होकर चेलना के मुख से पठ लो यह कह उमने उनके वस्त्राभूषण दे दिये । उन निकल पडा कि-"दुष्ट जार जात यहा से चला जा" यह कन्यानो ने घर पर जा यह बात अपने पिता देवदारु को यह मुन उसने अपनी उत्पत्ति चेलना में जाननी चाही। कही। देवदारु ने एक बद्ध कंचकी को भेज कर मत्य की चेलना ने मब वृत्तान्त उम को यथावत् मुना दिया। सून पत्र में कहलवाया कि - मेरा भाई विद्य जिह्व मुझे राज्य कर वह अपने पिता सत्यकी मुनि के पास जा दीक्षा ले में निकाल पाप गजा बन बैठा है। अगर आप उससे 1. ब. नेमिदत्तकृत पाराधना कथा कोश मे इम मेरा गज्य दिलामको तो मैं ये मब कन्याये प्रापको दे जगह यायिकाओं का भगवान महावीर की वंदनार्थ सकता है। मन्यकि पुत्र ने ऐसा करना स्वीकार किया जाना लिखा है। वह ठीक नहीं है। क्योकि इस वक्त और अपनी विद्यापो के बल से उसके भाई विद्य जिह्व तक तो अभी महावीर ने दीक्षा ही नहीं ली है। नब को मारकर देवदारु को गजा बना दिया। तब देवदार उनकी बहना की कहना प्रमंगन है। जैमा कि दम पागे ने भी अपनी पाठी वन्यानो की गादी मायांक के साथ बनायेगे। कर दी। वितु व मब कन्यायें निम के समय उसके Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 अनकान्त शुक्र के तेज को न सह सकने के कारण एक एक करके मर गईं। इसी तरह अन्य भी एक सो विद्याधर कन्याये मरण को प्राप्त हुई । प्राखिर में एक विद्याधर कन्या ऐसी निकली जो इस काम में उसका साथ दे सकी । उसके साथ उस ने नाना प्रकार के भोग भोगे । फिर इसी सत्यकी पुत्र ( २१ वे रुद्र) ने आकर भगवान महावीर पर उपसर्ग किया था। यह कथा श्रुतसागर ने मोक्ष पाहुड गाथा ४६ की टीका में भी इसी तरह लिखी है ० नेमिदत्त ने भी धाराधना कथा कोश में लिखी है। 1 इस प्रकार उत्तरपुराण की कथाम्रो के ये उद्धरण ऐसे हैं जिनसे हम राजा लिक की धायु का पदाजा लगा सकते है कि को देश निकाला होने पर उसने जो देशांतर में एक ब्राह्मण कन्या से विवाह किया था श्रौर उससे अभयकुमार पुत्र हुआ था उस समय श्रेणिक की उम्र कम से कम १८ वर्ष की तो होगी ही । प्रागे चल कर इसी प्रभयकुमार के प्रयत्न से श्रेणिक का चलना के साथ विवाह हुआ है ऐसा कथा में कहा है । तो चलना के विवाह के वक्त धमयकुमार की धा भी १८ वर्ष से तो क्या कम होगी ? इसी प्रकार यहा तक यानी चेतना के विवाह के वक्त तक की उम्र करीब ३६ वर्ष की सिद्ध होती है । उसीसे कथा में लिखा है कि कि की आयु ढल जाने के कारण ही राजा चेटक अपनी पुत्री बेलना को खिक को देना नही पाहता था। अब प्रागे चलिये - चेलना की बहिन ज्येष्ठा को श्रोणिक की प्राप्ति न हुई तो वह दीक्षा ले प्रायिका हो गई। इसी धार्मिक के सत्यक मुनि के संयोग से सत्यकि पुत्र ( रुद्र ) उत्पन्न हुआ है। चेलना के विवाह के बाद 1. इस ११वे रुद्र का असली नाथ क्या था यह किसी ग्रन्थकार ने सूचित नही किया है किन्तु कवि अशाग ने महावीर चरित सर्ग १७ श्लोक १२५-१२६ में भव नाम दिया है । हरिषेण कथाकोश की कथा न०६७ मे तथा श्रीधर के अपभ्रंश वर्द्धमान चरित प्रादि में भी भव दिया है लेकिन यह नाम नही है रुद्र का पर्यायवाची शब्द है देखो धनंजय नाममाला श्जोक ७० अथवा अमरकोष । सत्यकी 'पुत्र की उत्पत्ति होने तक कम से कम एक वर्ष का काल भी मान लिया जावे तो यहा तक श्र ेणिक की उम्र ३७ वर्ष की होती है शास्त्रो मे रुद्रों के ३ काल माने हैं— कुमारकाल संयमकाल और असंयमकान हरिवंश पुराण सर्ग ६० में लिखा है कि वर्षाणि सप्त कोमार्य विशति संयमेटभि । एकाददास्य रुद्रस्य चतुस्त्रिपादसंयमे || ५४५ ।। - ११वे द्र का कुमारकाल ७ वर्ष, संयमकाल २८ वर्ष श्रौर प्रसयमकाल ३४ वर्ष का था । यह विषय त्रिलोकप्रज्ञप्ति में भी भाया है । उसके चौथे अधिकार की गाथा नं १४६७ इस प्रकार है। सगवास कोमारी संजयकाली हवेदि चोती | अडवीसं भंगकालो एयारसयस्स रुट्स्स ॥। १४६७।। इसमें ११ व रुद्र का सयमकाल ३४ वर्ष का श्रौर श्रममकाल २८ वर्ष का बताया है । यह गाथा श्रशुद्ध मालूम पड़ती है। इसलिये इसका कथन हरिवंशपुराण मे नही मिलता है। इस गाथा में प्रयुक्त 'चौतीस' के स्थान में 'अडवीस' और 'अडवीस' के स्थान में 'चोत्तीम' पाठ होना चाहिये। जान पड़ता है किसी प्रतिलिपिकार ने प्रमाद से उलट पलट लिख दिया है। अब प्रकृत विषय पर आइये - रुद्र ने महावीर पर उपसर्ग किया तो वह ऐसा काम सयमकाल में तो कर नही सकता है। रुद्र की संयमकाल की अवधि उनकी ३५ वर्ष की उम्र तक मानी गई है जैसा कि ऊपर लिखा गया है इन ३५ वर्षों को श्रेणिक की उक्त ३७ वर्ष की उम्र मे जोडने पर यहाँ तक कि की उम्र ७२ वर्ष की हो जाती है । फिर संयमकाल की समाप्ति के बाद सत्यकि पुत्र का फैलाश पर पहुँच कर वहा विद्याधर कन्याओ को व्याहने और एक एक करके उन कन्याओ के मरने पर अंत में विशिष्ट विद्याधर कन्या के साथ रमण करते हुए भगवान महावीर तक पहुच कर उन पर उपसर्ग करने में भी ज्यादा नही एक वर्ष भी गिन ले और और महावीर को उनकी उम्र के ४२ वे वर्ष में केवलज्ञान हुआ उसी वर्ष में ही यह उपसर्ग भी मान ले तो इसका यह अथ हुआ कि महावीर को जब केवल ज्ञान पैदा हु Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GÊ राजा श्रेणिक या बिम्बसार का प्रायुष्य काल तब राजा श्रेणिक की उमर लगभग ७३ वर्ष की थी। अर्थात् महावीर से श्रेणिक ३१ वर्ष बडे थे । इस हिसाब से जब श्रेणिक ने चेलना से विवाह किया तब श्रेणिक ३६ वर्ष के थे और महावीर ५ वर्ष के थे। इतिहास में महावीर और गौतम बुद्ध को समकालीन माना जाता है। अत: उस वक्त गौतम बुद्ध भी बालक ही माने जायेंगे ऐसी हालत में उस वक्त हम श्रेणिक को बौद्धमती भी नहीं कह सकते हैं बौद्ध धर्म के चलाने वाले खुद गौतम ही जब उस वक्त बालक थे तो उस समय बौद्धधर्म कहा से प्रायेगा ? अगर हम इतिहास की गड़बड़ी से बुद्ध और महावीर की वय में १०-१५ वर्ष का प्रन्तर भी मान लें तब भी श्रेणिक के समय में बौद्ध मत का सद्भाव नही था । इसीलिये हरिषेण कथाकोश में श्रेणिक को भागवतमत (वैष्णवमत) का बताया है । वह ठीक जान पडता है । तथा महावीर का निर्वारण उनकी ७२ वर्ष की वय में हुप्रा माना जाता है अतः महावीर मे ३१ वर्ष बड़े होने के कारण श्रेणिक की उम्र वीर निर्वाण के वक्त १०३ वर्ष की माननी होगी। उम्र का यह टोटल यहाँ कम से कम लगाया गया है, इससे अधिक भी संभव हो सकता है वीरनिर्वाण के वक्त श्रेणिक जीवित थे कि नहीं थे यह उत्तरपुराण से स्पष्ट नहीं होता है। किंतु हरिवशपुराण में वीरनिर्वाण के उत्सव में रिक का शरीक होना लिखा है । और हरिपेण कथाकोश में वथा २०५५ में कि का अंतकाल वीर निर्धारण से करीब ३||| वर्ष बाद होना बताया है। यथा : ततो निर्वाणमापन्ने महावीरे जिनेश्वरे । तिम्रस्ममाश्चतुर्थस्य कालस्य परिकीर्तिताः ॥ ३०६।। तथा मासाष्टक ज्ञेय षोडशापि दिनानि च । एतावति गते काले नून दुःखमनामनि ॥३०७ || पूर्वोक्त श्रेणिको राजा सीमतं नरक ययो । १३०८ || अर्थ- महावीर के निर्वाण के बाद चतुर्थकाल के ३ वर्ष ५ मास १६ दिन व्यतीत होने पर दुखम नाम के पाँच काल में मनवाचित महाभोगी को भोग कर राजा श्रेणिक मर कर प्रथम नरक के सीमत बिल मे गया । 1. उत्तरपुराण में चतुर्थकाम की समाप्ति में उक्त १०३ वर्ष में वीर निर्धारण के बाद ये ३ ।। वर्ष जोड़ने पर श्रेणिक की कुल प्रायु १०७ वर्ष करीब की बनती है । अब हम श्रेणिक की प्रायु के साथ जम्बूकुमार का संबंध बताते है- ऊपर उत्तरपुराण की कथा में लिखा है कि - गौतम केवली जब प्रथम बार विपुलाचल पर श्राये थे उस समय राजगृह का राजा कुणिक था। यानी राजा श्रेणिक उस समय नही थे वे मर चुके थे । अर्थान् वीर निर्वाण से ३ || वर्ष बाद जब श्रेणिक न रहे तब तक प्रथम बार गौतम केवलो विपुलाच धाये थे। उस समय बांधवो के अनुरोध से जम्बूस्वामी दीक्षा लेते २ रुक गये। पुन जब दुबारा गौतम केवली विपुलाच प श्राये तब उनके सान्निध्य में सुधर्माचार्य के पास से जम्बू स्वामी ने दीक्षा ग्रहण की। इस दीक्षा को अगर हम प्रदाजन वीर निर्वाण से यों कहिये गौतम के केवली होने से ६ वर्ष के बाद होना मान ले और दीक्षा के वक्त जम्बू कुमार की २० वर्ष की उम्र मानते तो कहना होगा कि वीरन के वक्त जम्बूकुमार १४ वर्ष के थे और जम्बू की १७ । । । वर्ष की उम्र के लगभग तक श्रेणिक जीवित रहे थे । इसलिये जम्बू का श्रेणिक की राज सभा में माना जाना व श्रेणिक द्वारा सन्मान पाना तो संगत हो सकता है। परन्तु कुछ जैन कथा प्रन्थों में लिखा है कि- " जम्बूकुमार की मदद से राजा श्रेणिक ने एक विद्याधर कन्या को विवाही थी" यह बात नहीं बनती है । क्योंकि उस समय राजा श्रेणिक बहुत ही वृद्ध हो हो चले थे । जब जम्बू ११ वर्ष के थे तब श्रेणिक एक सौ वर्ष के थे। इसी तरह कुछ कथा ग्रन्थो में जम्बू के दीक्षोत्मय में शिक की उपस्थिति बनाना भी गलत है। उत्तर पुराण के अनुसार दुबारा गौतम केवली विपुलाचल पर प्राये थे तब जम्बू ने दीक्षा ली थी किन्तु प्रथम बार जब गौतम केवली विपुनाचल पर घाये ये उसन वर्ष ८ ।। मास शेष रहने परवीरनिर्वाण होना लिखा है । यहाँ ३ वर्ष मास १६ दिन इसलिये लिखा है कि १६ वे दिन पंचम काल का प्रारंभ होता है धौर उसी दिन में कि की मृत्यु हुई है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त श्रेणिक मौजूद न थे उस वक्त भी कुरिणक ही का राज्य है-उत्तर पुराण, हरिवश तुराण और हरिषेण कथा था ऐमा उत्तर पुराण में लिखा है तब जम्बू के दीक्षोत्सव कोश का। तीनो ही ग्रन्थ प्राचीन हैं। उत्तरपुराण का में श्रेणिक को उपस्थित बताना अयुक्त है। जम्बू की रचना काल वि० स० ११० के करीब । हरिवंश पुराण दीक्षा के वक्त श्रेणिक की विद्यमानता का उल्लेख हरिवश का वि० सं० ८४० और हरिषेण कथा कोश का वि० सं० पुगण और हरिपेण कथा कोश में भी नही है। ९८८ है। इस निबन्ध में ३ कथा ग्रन्थो का उपयोग किया गया पंडित भगवतीदास कृत वैद्यविनोद ( डा० विद्याधर जोहरापुरकर, मण्डला ) १ जैन साहित्य में वैद्यक ग्रन्थ अठारहमूल काढा, गंगाधर चूर्ण आदि औषधियो के प्रयाग प्राचीन जैन प्राचार्यों ने लोकहित की प्रेरणा से का वर्णन है। नीमरे उद्देश्य में ७६ पद्य है तथा प्रर्श, कई लौकिक विषयो पर भी ग्रन्थ लिखे है। वैद्यक भी शूल, कृमि, क्षय ग्रादि रोगो के उपचार बतलाये गये हैं। इन्ही विषथो मे से एक है। यद्यपि अब तक पूज्यपाद चौथे उद्देश्य में ७५ पद्य है तथा इसमे श्वास, कास, नामांकिन वद्यमार और उग्रादित्य विरचित कल्यागा- मदाग्नि. अजीर्ण, विपुची, सर्दी, हिचकी आदि रोगो के कारक ये दो ही जैन वैद्यक ग्रन्थ प्रकाशित हुए है तथापि उपचारों का वर्णन है। इसके बाद ग्रन्थ के अन्त तक अन्य कई अप्रकाशित अवस्था में है। उग्रादित्य के कथन स्त्री-पुरुषो के विशिष्ट रोगो की चिकित्सा बतलाई है। से मालम होता है कि वैद्यक के अनेक प्रगो पर जैन इस प्रकरण का काफी बड़ा हिस्सा पुत्र प्राप्ति के उपायो प्राचार्यों ने ग्रन्थ लिखे थे। उन्होने पूज्यपाद प्रकटित से घिरा हग्रा है। शालाक्य, पारस्वामि प्रोक्त शाल्यतन्य और मिद्धसेन कृत ३ ग्रन्थ रचना का समय और स्थानविपोग्र ग्रहगमन विधि का नामोल्लेख किया है। इन्ही लेखक की अन्तिम प्रशस्ति के अनुसार इस ग्रन्थ की अनुपलब्ध या अप्रकाशित ग्रन्थो में से एक का परिचय रचना शाहजहाँ के काल मे मंवत १७०४, चैत्र शुक्ल कगना इस लेख का उद्देश्य है । १४ गुरुवार को अकबराबाद में पूर्ण हुई थी। यथा२ प्रस्तुत ग्रन्थ वैद्य विनोद सत्रहमइ रुविडोत्तरइ मुकल चतुर्दसि चैतु । यह ग्रन्थ पृगनी हिन्दी में लिखा गया है। इसमें गुरुदिन भनी पूरनु करिउ सुलिता पुरि सह जयतु । ६२४ पद्य हैं। मुख्य रूप से दोहा और चौपाई छन्दो मे ६१६ ये पद्य हैं। कही-कही अडिल्ल, पद्धडिया और सोरठा लिग्विउ अकबराबादि गिर साहजहाँ के राज। साह निमइ माइ सम्मुि देस कोग गज बाजि ।। छन्दों का भी प्रयोग है। ग्रन्थ के पहले उद्देश्य में ५२ पद्य है तथा इसमें मंगलाचरण के बाद वैद्य के गुण-अवगुण ४ ग्रन्थकर्ता पंडित भगवतीदासनाडी के लक्षण, वात, पित्त, कफ, दोषो के लक्षण और साध्य-प्रमाध्य रोगो के लक्षण बतलाये है। दूसरे उद्देश्य अन्तिम प्रशासन मे लेखक ने अपने पिता का नाम में १२० पद्य है। इसमें भिन्न-भिन्न प्रकार के ज्वर, कृष्णदास तथा नगर का नाम बूढिया बताया है, यथामन्निपाल, संग्रहणी, पाण्डगेग, अतिसार ग्रादि रोगो के कृष्णदाम तनुरुह गुणी नयरि बूडियइ बाम् । लिए सुदर्शनचूर्ण, चिन्तामरिण रस, कनकमुन्दरी वटी, सुहिदु जु जोगीदास कउ कवि सु भगवतीदास ।।६२१ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडित भगवतीदास कृत वैद्यविनोद ग्रन्थ के मगलाचरण मे भट्टारक महेन्द्रसेन को नाथ स्तुति । इनके अतिरिक्त हमारी जिस पोथी में नमस्कार है । ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रति की प्रशस्तियो वैद्यविनोद लिखा है उसी म लेखक की एक रचना से मालूम होता है कि महेन्द्रसेन काष्ठासघ - माथुरगच्छ ज्योतिषसार भी अंकित है। अन्तिम प्रशस्ति के अनुसार के भट्टारक थे, उनके गुरु का नाम सकलचन्द्र और प्रगुरु इसका रचनाकाल म० १६६४ तथा स्थान हिसार का का नाम गुरणचन्द्र था। ग्रन्थ में लेखक ने जोगीदास और वर्धमान मन्दिर था। उदयचन्द मुनि के उपदेश से इस नैन मुख इन दो लेखको का एकाधिक बार अाधार के ग्रन्थ की रचना हुई थी। इसमें द्वादशमासफल काण्ड, रूप में उल्लेख किया है । महाज्वगकुशवटी के वर्णन मे अर्धकाण्ड तथा ग्रहफलादि विचारकाण्ड ये तीन भाग हैं । उन्होने वद्यमहोत्सव नामक ग्रन्थ का भी उल्लेख हिन्दी, अपभ्रश और सस्कृत तीनो भापानी के पद्य किया है। इसमें प्रयुक्त हए है। इसकी रचना की प्रेरणा बिहारी ५ लेखक की अन्य रचनाएं दास साधना ने दी थी। अाधार के रूप मे गर्गमुनि और अनेकान्त में पं० परमानन्दजी शास्त्री ने भगवतीदास भडुली के नाम पाए है । इगी पोथी में द्वाविदद्रकेवली के बारे में समय-समय पर चार लेख लिखे है, जिनमे तथा नवाककेवली ये शकुन ग्रन्थ भी है । पहले को गौतम उनकी कई रचनाश्री के नाम मालूम होते है। ये लेख स्वामी कृत और दूसरे को गर्गाचार्यकृत कहा है तथा वर्ष ५ पृ० १३, वर्ष ७ पृ० ५४, वर्ष ११ पृ० २५ उनके अनुवाद भगवतीदासकृत है ऐसा प्रशस्तियो से तथा वर्ष १४ पृ०२२६ पर छपे है। इनसे ज्ञात होन प्रतीत होता है। दल के अतिरिक्त कापिड विचार यह वाली रचनायो के नाम इस प्रकार हैं शकुनदर्शक रचना भी भगवती दाम के नाम में इमी पोथी ___ मुकति शिरोमणि चूनडी गीत (मवत १६८०) में लिखी है। मीता मतु (मं० १६८४), लघु सीता सतु (स । १६८७) यहाँ पर भी नोट करना जरूरी है कि ब्रह्मविलास मृगाक लेखाचरित्र (सं. १७००)' टंडागागम, प्रादित्य के कर्ता भैया भगवतीदास पासवाल थे। वे वैद्यविनाद व्रतरास, दशलक्षणगम, खिचडीराम, साधुममाधिराम, के कर्ता से भिन्न और उत्तरवर्ती है । उनकी रचनायो जोगीराम, मन करहाराम, रोहिणीव्रतरास, चतुरवनजारा, का समय स० १७३१ से ५५ तक अर्थात् वैविनोद द्वादश अनुप्रेक्षा, मुगधदशमी कथा, प्रादित्य वार कथा, कर्ता से कोई प्राधी शताब्दी बाद का है। अनथमी कथा, वीरजिनिद गीन, राजमती नेमीश्वर ढमाल, सज्ञानी ढमाल, आदिनाथ स्तुति और शान्ति भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा १६६६ का पुरस्कार घोषित श्री ताराशंकर बन्द्योपाध्याय की कृति गणदेवता पर (श्री लक्ष्मीचन्द जैन, भारतीय ज्ञानपीठ) दिल्ली, ११ मई, १९६७ यह द्विगीय पुरस्कार है, प्रथम पुरस्कार मलयालम भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रनिन एक लव रुपये के महाकवि जी कर कुरुप को भेट किया गया था वाधिक माहित्यिक पुरस्कार की प्रवर परिषद ने दिनाक जिसका ममर्पण समारोह गत १६ नवम्बर १९६६ को ११ मई, १९६७ को यहा हुई अपनी बैठक में मन् १९६६ प कोयटा प्रपती टक में मन REE विज्ञान भवन, नई दिल्ली में सम्पन्न हुया था। का पुरस्कार सुप्रसिद्ध उपन्यासकार श्री नागशकर बनर्जी यह पुरस्कार भारतीय भाषामो में से सर्वश्रेष्ठ के पक्ष में घोषित करने का निर्णय किया है। सर्जनात्मक माहित्यिक कृति पर दिया जाता है। सन Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त १९६५ में प्रथम पुरस्कार जो महाकवि कुरुप के नाम एक निर्धन अध्यापक जिसकी मानवीय सदाशयता में घोषित हुआ था, वह उनकी इसी कोटि को काव्य रचना पास्था अन्त तक मडिग रहती है। उसे विश्वास है कि "भोटक्कुषल बांसुरी" पर दिया गया। प्रथम पुरस्कार मानवता अपनी पूरी-पूरी प्राब के साथ एक बार फिर के लिए पुस्तकों की प्रकाशन अवधि थी १९२० से १९५८ से सिर ऊंचा करके चलने लगेगी। तक। अब दूसरे पुरस्कार के लिए श्री ताराशकर की यद्यपि उपन्यास में संक्रमणकालीन बंगाल के ग्राम्यकृति को सन् १९२५ से १९५६ तक की अवधि में प्रका जीवन का ही चित्रण है। परन्तु प्रतीकरूप में यह पूरे शित प्रथों में से चुना गया है। समकालीन भारतीय ग्रामों का प्रतिनिधित्व करता है। पुरस्कार प्रदायिनी संस्था भारतीय ज्ञानपीठ की उपन्यासकार ने अपने पात्रों को हाड़-मांस के सजीव स्थापना सन् १९४४ में श्री शान्तिप्रसाद जैन ने की थी। चरित्रों के रूप में प्रस्तुत किया है जो व्यक्तिगत गुणों ज्ञानपीठ प्रकाशनों की संख्या अब ५०० से ऊपर हो के साथ-साथ समूहगत प्रतिनिधित्व भी होकर सामने चुकी है। इनमें संस्कृत, प्राकृत, पाली, अधमागधी, पाते हैं। सामिल एवं कन्नड की प्राचीन पाण्डुलिपियों को वैज्ञा- उपन्यासकार श्री ताराशंकरजी का जन्म २५ जुलाई निक पद्धति से सम्पादित कर प्रकाश में लाये गए शोध १८०८ को लाबपुर, जिला बीरभूम, पश्चिम बंगाल के प्रन्थ तया सुप्रसिद्ध एवं नवीन लेखकों के मूल हिन्दी तथा एक जमींदार परिवार में हुप्रा था। यह स्व० श्री हरिदास अन्य भारतीय भाषामों से अनूदित साहित्यिक ग्रन्थ बनर्जी के ज्येष्ठ पुत्र हैं। नागबाबू केवल पाठ वर्ष के ही सम्मिलित हैं। ये जब इनके पिता का देहान्त हो गया। इनका पालन वार्षिक साहित्यिक पुरस्कार की प्रवर परिषद के पोषण अपनी माता श्रीमती प्रभावती देवी के संरक्षण में अध्यक्ष हैं डाक्टर सम्पूर्णानन्द। परिषद के अन्य सदस्य ही हमा, जो अभी तक जीवित हैं। हैं-काका साहब कालेलकर, डा. प्रार०पार० दिवाकर, अपने गांव के अंग्रेजी हाई स्कूल से ही ताराबाबू ने हा0 हरेकृष्ण महताब, डा. नीहार रंजन रे, डा. मैट्रिक परीक्षा पास की । स्कूल जीवन के अंतिम वर्षों में गोपाल रेड्डी, डा. कर्णसिंह, डा. वी राघवन, श्रीमती इनका संपर्क क्रान्तिकारियों से हो चुका था। मैट्रिक रमा जैन तथा श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन । ये अन्तिम दो ज्ञान करने के बाद प्रापने कलकत्ता के सेण्ट जेवियर्स कालेज में पीठ का प्रतिनिधित्व करते हैं। श्रीमती रमा जैन ज्ञान में प्रवेश किया। यहां प्राकर क्रान्तिकारियो से सम्पर्क पीठ की अध्यक्षा है तथा श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन इसके मोर बढ़ा तथा फलस्वरूप इन्हें कालिज की पहाई छोर मंत्री हैं। कर अपने गाव में नजरबन्द होना पड़ा। प्रबर परिषद की इस बैठक ने पुरस्कार का उच्च निर्णय मर्वसम्मति से किया । गांव में यों तो इनका काम अपनी छोटीसी जमीदारी की देखभाल करना था, मगर इनका मन लेखन कार्य में गणदेवता तथा इसके लेखक श्री ताराशंकर वनों ही रमता था। प्रतः इन्होने इसी क्षेत्र का चयन कर गणदेवता बगाल के उस ग्राम्य जीवन एव समाज लिया, और कविताए तथा नाटक लिम्वने लगे । का प्रतिबिम्ब है जो स्वतन्त्रता संग्राम के प्रारम्भिक वर्षों में विद्यमान था। इस उपन्यास में प्राचीन ग्राम्य सन् १९२८ में तारा बाबू ने कहानियां लिखनी व्यवस्था के विघटन तथा नये पैदा हए लालची धनिक शुरू की। प्रापकी पहली कहानी 'कल्लोल' नामक वर्ग के उभरने की प्रक्रिया का यथातथ्य चित्रण है। पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। परिपाल में चित्रित हैं-छोटे-छोटे प्रापसी झगडे तथा फिर राष्ट्रीय प्रान्दोलन ने इन्हें खीचा पौर प्राप शोषण की मनोवृत्ति जिनके बीच प्रकेला जूझना हा स्थानीय कांग्रेस के रूप में जेन पने गमे । जेन जाने Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडित भगवतीप्रमाद कृत वैद्यविनोद के पहले वे एक छोटासा उपन्याम 'चैताली घग्नी' पुरस्कार मिला। (चैत का नूफान) भी लिख चुके थे, जो इन्होने बाद में १६५६ मे मी उपन्याम पर माहित्य अकादेमी नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को समर्पित किया। नेताजी पुरस्कार प्राप्त हया। से इनका परिचय नया-नया ही हुआ था। मन् १९५६ मे भारत मरकार के दो प्रतिनिधियो में जेल में रहते हुए आपने जेल जीवन पर ही एक मे एक के रूप मे नाग बाबु को चीन भेजा गया, किन्तु अन्य उपन्याम लिग्वा । गम्ते में ही बीमार पर जाने के कारण पापको रगून मे नाग बाब इम ममय तक मो में अधिक पृस्तक म्वदेश लौट पाना पड़ा। फिर अगले ही वर्ष चीन सरलिख चुके हैं, जिनमें चालीम उपन्याम है बाकी मुख्यतया कार के निमन्त्रण पर ग्राप वहा गये और एक महीने कथा संग्रह और नाटक है । मफल उपन्यामकार नथा कहानीकार होने के माथ-माथ आप अच्छे नाटककार भी है। इनके दो नाटको का तो कलकत्ता के रगमच पर। विशिष्ट माहित्यिक उपलब्धियों के कारण आपको बगबर प्रदर्शन होता रहता है। पाकी मुख्य कृतियो मन् १९५६ मे पलकत्ता विश्वविद्यालय की ओर से के नाम है : 'जगत तारिणी' पदक प्राप्त हया । एशियाई लेम्बक मम्मेलन (१९५८) की तैयारी(क) कथा-माहित्य ममिति की बैटा में भाग लेने के लिए पाप माम्को भी १. धात्री देवता, २. कालिनी, ३दावी, ८. गगग गये थे, नथा फिर उमी वर्ष ताशकन्द में हुए अफेशियाई देवना, ५. पचग्राम, ६. हाँमुली बॉकेर उपकथा, ७. गम्मेलन में भारतीय गिष्ट-गण्टल के नता बनाकर नागिनी कन्येर काहिनी, ८. विचारक, ६ आरोग्य भेजे गये। निकेतन, १०. मप्तपदी, ११. पच पाथाली, १० गधा मन १९५१ मे १९६० नक अाप पश्चिम बगान ३३. कन्ना, १४. मंजरी प्रापेग। विधान मभा के मनोनीत मदम्प रहे । फिर १६६० मे (ख) नाटक . १९६६ तक राज्य मभा के मनोनीन मदग्य । १९५८ मे १. द्विपुरुष, २. कालिन्दी। अखिल भाग्नीय लेग्वक मम्मेलन के मद्राम प्रधिवेगन 'हामूली बकर उपकथा' नामक उपन्याम पर नाग का मभापतित्व किया । बाबु को १९४७ मे शरतचन्द्र स्मृति पुरस्कार' मर्वप्रथम रन दिनों आप एक बहद् अन्याम पर काम कर भेट किया गया था। रहे है। जिमको पठभूमि है.---१७६९ मे १९५३ तक १९५५ मे आपके 'प्रागग्य निकेतन' को 'रवीन्द्र बंगाल की जमीदारी प्रथा । माहित्य समीक्षा (१) जैन निबन्ध रत्नावली- लेखक प, मिलाप हुए हैं जो वाजपूर्ण है। बाबू छोटेलाल जी कल कना का चन्द्र जी कटारिया और रतनलाल कटारिया, केकड़ी। विचार मे अनेक खोजपूर्ण माहित्यिक निबन्धी के प्रकाशक, श्री वीर शामन मघ, कलकना। पृष्ट मण्या प्रकाशित करने का था, किन्तु उनकी यह भावना पूर्ण न ४३८, मूल्य ५) रुपये। हो मकी। यह निबन्ध संग्रह गजस्थान के प्रसिद्ध साहित्य प्रस्तुत पुस्तक में विविध विषयो के ५. निबन्ध दिये मेवी, निर्भीक वक्ता, मार्मिक समालोचक और गणी Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त जनानुरागी विद्वान पं० चैनसुखदास जी को समर्पण नजरन्दाज करते हुए ग्रन्थगत विषय का परिचय कराया किया गया है। गया है, किन्तु उसमें बहुत कुछ सावधानी बर्ती पिता और पुत्र दोनो ही लेखको ने बड़े परिश्रम से गई है। फिर भी इतना दिखाने का अवश्य प्रयत्न किया शुद्धाम्नाय में प्राने वाली भ्रान्तियों का उद्भावन करते है कि अचेल परम्परा को भी ये पागम मान्य रहे है या हुए वस्तुस्थिति को सरल भाषा में रखने का प्रयल उनके आधार पर उन्होने (दिगम्बरो ने ) ग्रंथ रचे है। किया है। प्राणा है दोनों विद्वान भविष्य में और भी पृष्ठ ३६ पर लिखा है कि अचेल परम्परा के महत्वपूर्ण निबन्ध लिखकर जैन साहित्य का गौरव प्राचार्य धरमेन, यतिवृषभ, कुन्दकुन्द, भट्ट प्रकलंक बढायेगे। पादि ने इन पुस्तकारूढ प्रगमो अथवा इनमे पूर्वके उपवीर शामन सघ का यह प्रकाशन सुन्दर हुमा है। लब्ध पागमो के प्राधय को ध्यान में रखते हुए नवीन इसके लिए लेखक और प्रकाशक दोनो ही बधाई के पात्र साहित्य का सृजन किया है। प्राचार्य कुन्द कुन्द रचित है । मजिन्द प्रति का ५) मूल्य अधिक नहीं है। ममाज माहित्य में प्राचार पाहुड, मुनपाहुड, समवाय पाहुड मोर विद्वानो को चाहिए कि वे खरीद कर पढ़ें। प्रादि अनेक पाहडान्त ग्रन्थों का ममावेश किया जाता है। इन पाहुडो के नाम मुनने मे ग्राचागंग, स्थानाग, (२) जैन माहित्य का बृहद् इतिहास (प्रथम मभवायाग प्र.दि की मनि हो जाती है। भाग)- लेखक प. बेचग्दास दोषी, और डा० मोहन ___ इस विषय में इतना ही निखना पर्याप्त होगा कि लान मेहता। प्रकाशक, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध महावीर का दामन जब प्रनिम थ नवे वली भद्रबाहु के संग्थान, जैनाथम हिन्दू यूनिवर्सिटी, वाराणमी । पृष्ठ सच्या ३६०. पक्की जिल्द, छपाई-मफाई उत्तम, मूल्य : ममय भिक्षादि कारगी गे दो भागो मे विभक्त हमा सब गगाभर इन्द्रभूनि रचित द्वादशागमूत्र दोनो ही १५) रुपये। परम्परामो के माधुग्रो मे कण्ठस्थ रहे । अन उनके नामो इम ग्रथ मे श्वेताम्बर जैन साहित्य का इतिहास मे ममानता रहना म्वाभाविक है। किन्तु उनके ममान f:या गया है, जो एक संगठित योजना का परिणाम है। नाममात्र की उपलब्धि पर में यह नतीजा नही निकाला मके प्रथम भ ग में प्रग माहित्य का परिचय कराया जा मकला कि वर्तमान में जो श्वेताम्बर्गय प्रागम गया।मग्रन्थ की प्रमावना प० दलमुख मालवग्णि- माहित्य उपलब्ध है. उम पर में दिगम्बर माहित्य रचा या ने निस्वी, जिगमें इनिहाम का विवरण देते हुए अग- गया है। अगो के नाम एक होने पर भी उनके विषय, उपागो के सम्बन्ध में विचार किया गया है, और उनकी विवेचन और परिभाषादि मे भेद पाया जाता है। एक तालिका भी दी है। परन्तु प्रस्तावना में प्रग-सूत्रो अन्वेषण करने पर उनमें कुछ ऐमी विपनाए भी प्राप्त की भाषा और उमके इतिहास के सम्बन्ध में कोई प्राचीन हो सकती है जिनके कारण वे एक नही हो मकने । अतः पुष्ट प्रमाण नहीं दिये गए। प्रग माहित्य के इतिहास दिगम्बर गाहित्य स्वेताम्बर माहित्य के प्राधार पर रचा के इस अन्य में उनकी भाषा के सम्बन्ध में किसी प्राकृत गया है यह कोरी निराधार कल्पना है। भाषा के विशिष्ट अभ्यामी विद्वान से विचार कराना यदि ऐसा होता तो उसके माधार का स्पष्ट उल्लेख मावश्यक था। मिलता। पर कुन्दकुन्दादि जिन प्राचार्यों के नामो का अग ग्रन्थो का २७० पृष्ठो में परिचय दिया गया उल्लेख किया गया है, उनका कोई भी ग्रन्थ श्वेताम्बरीय है जिसमे दो विशेषताएं दृष्टिगत होती है। एक तो प्रागम माहित्य के प्राधारपर नही रचा गया। जमा कि उममे श्वेताम्बर दिगम्बर के स्थान पर सचेल अचेल श्वेताम्बरीय ग्रन्थो में दिगम्बर ग्रन्थों का अनुकरण देखा प मग का उल्लेख किया गया है । दूमरे मत-भेदों को जाता है। कुन्दकुन्दाचार्य का जो साहित्य पाया जाता Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीक्षा है, उस पर श्वेताम्बरीय मागम का कोई प्रभाव नहीं है। जरूर होता, पर ऐसा नहीं है; और न उसका खण्डन ही पोर न समयसारादि ग्रन्थो की मान्य चर्चा भी भागमो है। श्वेताम्बरीय प्रग माहिप पर बौद्ध साहित्य का में मिलती है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थो मे स्थान प्रभाव है। कहा नहीं जा मकना कि ऐसी प्रसगत एव पाहुड और समवाय पाहुड आदि अथो का कोई उल्लख धर्म विरुद्ध बाने अग-मूत्री में कैसे प्रविष्ट हो गई। नहीं किया। पाहुडो के वे नाम कल्पित जान पड़ते है। ये मब कशन प्राचार शिथिलता के द्योतक है। ऐसी इतिहास के पृष्ठ ११४ और १३६ के कथनो की थिान में वर्तमान प्रागम दिगम्बरो को मान्य रहे, सगति अहिमा धर्म के साथ संगत नही बैठनी, क्योंकि लिखना ममुचित नही है। उसमें मांस भक्षण की स्पष्ट अनुमान है। कोई भी अहि- प्रग साहित्य में अनेक कथाम्रो का उल्लेख मिलता सक व्रती थावक माम का नाम सुनकर भोजन छोड है, जिनका मक्षिप्त परिचय प्रस्तुन ग्रन्थ में दिया है, देता है। साथ में मद्य, मक्खन और मधु का मेवन भी भाषा सरल और मुहावरेदार है। अती गृहस्थजनो में वजित है। फिर साधु के नो उमकी (३) जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भाग २ । सम्भावना ही कैमे हो मकनी है? वह तो पनपाप के लेखक, डा. जगदीशचन्द्र और मोहनलाल मेहता। माथ ग्रारम्भ परिग्रह का भी त्यागी है महावना है। प्रकाशक : पार्श्वनाथ विद्याश्रम जोध संस्थान, जैनाश्रम अग्राह्य भोजन का कथन करते हा प्र० ११६ में हिन्दू युनिवमिटी, वाराणसी-५ | पृष्ठ ४६०, मूल्य १५) लिखा है कि-"कही पर अतिथि के लिए माम अथवा प्रस्तुत भाग अग बाह्य पागम से सम्बद्ध है। इसमें मछली पकाई जाती हो अथवा तेल में पूए नले जाते हो उपागों का परिचय दिया हमा है। उपांगो को तीन तो भिक्षु लालचवश लेने न जाय । किमी रुग्ण भिक्षु के भागो में बांटा गया है। उपाग, मूलमुत्र और छेदसूत्र । लिए उसकी पावश्यकता होने पर वैसा करने में कोई इन मबका परिचय उपागो की अच्छी जानकारी प्रदान हर्ज नही। मूलसूत्र में एक जगह यह भी बताया गया करता है। अंग सूत्रो के परिचय से उपागों की कथनगया है कि भिक्षु को अस्थि बहुल अर्थात् जिसमें हड्डी ली और वस्तु-तत्त्व का विवेचन विस्तृत और सरल है। की बहलता हो वैसा मांस व कंटक बहुल पर्थात् जिमम उपागो में प्रज्ञापना, उत्तराध्ययन पावश्यक, दशवकाकाटों की बहुलता हो, वैमी मछली नही लेनी चाहिए। लिक, पिण्डनियुक्ति, वहकल्प, अनुयोगदार और नन्दियदि कोई गृहस्थ यह कहे कि प्रापको ऐसा माम व मूत्र मादि है, जिनमें वस्तु तत्व का विस्तृत व्याख्यान मछली चाहिए? तो भिक्षु कहे कि यदि तुम मुझे यह मिलता है। जिससे जिज्ञासु पाठक अपन विचाग को देना चाहते हो तो केवल पुद्गल भाग दो और हडिया विशद बनाने म ममयं हो सकते है। इस भाग में उपागों व काटे न पावें, इमका ध्यान रखो। ऐसा कहत हा का परिचय मक्षिप्त और मरल गति में दिया गया है। भी गृहस्थ यदि हड्डीवाला मास व कांटो वाली मछली माथ में कुछ पौराणिक मान्याना का भी उल्लेख किया दे तो उसे लेकर एकान्त में जाकर किमी निर्दोष स्थान है, और उसे बोधगम्य बनाने में डा. महता ने अच्छा पर बैठकर माम व मछली खाकर बची हुई हड्डियो व श्रम किया है। उपागो के प्रकाशित सम्करणों का भी काटो को निर्जीव स्थान पर डाल दे।" फूटनोट में परिचय कगया गया है। इस तरह जनइम कथन में भी मांस भक्षण का स्पष्ट उलेख है। माहित्य के इनिहाम का यह द्वितीय भाग भी अपनी जैन प्राचार तो पहिसक मोर संयम प्रधान एवं निवृत्ति- विशिष्टना को लिए हुए है । इसके लेखक विद्वान् भोर परक है। उसमें इस प्रकार के कथनो की मर्गात उपयुक्त प्रकाशक संस्था मभी धन्यवाद के पात्र हैं। नही है। यदि उस काल के जैन साधुमो में माम भक्षण (6) जन प्राचार -लेखा, हा. मोहन लाल की प्रवत्ति होती तो दिगम्बर माहित्य में उमका उम्मलेस मेहना, प्रकाशक पाश्र्वनाथ विद्याथम जोषसस्थान, Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त जैनाथम हिन्दू यूनिवमिटी, वाराणसी-५। पृ० २४४, प्रकाशक मोहनलाल जैनधर्म प्रकाशक समिति अमृतसर । मुल्य ५) रुपया। बडा साईज, मूल्य २४) रुपया । प्रस्तुत पुस्तक का विषय जैन प्राचार है। जो छ प्रस्तुत ग्रन्थ एक खोजपूर्ण शोध प्रबन्ध है जिसमें अध्यायो या प्रकरणों में विभाजित है। जैनाचार की ईसा की ७ वी शताब्दी मे १३ वी शताब्दी तक के इति भूमिका जैन दष्टि मे चरित्र विकाम, जैन आचार ग्रन्थ, वृत्तो पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। ग्रन्थ का फारवर्ड थानकाचार, श्रमगधर्म और श्रमरगसंघ । (भूमिका) प्रसिद्ध विद्वान स्व । डा. वासुदेव शरण जी ___ लेग्वक महोदय ने इन प्रकरणों में जैनाचार को अग्रवाल ने लिखा है। और इस पर लेखक को बनारस स्पष्ट करने के लिए दिगम्बर-श्वेताम्बर ग्रन्थों के प्रति- हिन्दू यूनिवमिटी मे पी. एच. डी. की डिग्री भी रिक्त बौद्र और वैदिक ग्रन्थो का भी उपयोग किया है। मिली है। प्रौर प्रानार सम्बन्धी मान्यताओं को स्पष्ट करने हा डा. गुलाबचन्द चौधरी अच्छे विद्वान है उन्होने विषय ना स्पष्टीकरण किया है। डा० माहब के विचार अपने इम शोध प्रबन्ध में ७वी में १३ वी शताब्दी के मूलभे दा है। भाषा सरल और महावरेदार है। डा० मध्यवर्ती ममय में होने वाले विविध राजवशो, गजानो, मा० ने निगम्बर-वेताम्बर प्राचार ग्रन्थों का तुलनाभ्मक मभ्यता और उस समय के रचे जाने वाले साहित्य में अध्ययन किया है। उसके विकाम के दो रूपो का कथन । उल्लिखित जैन इति- वनो एवं कला पर प्रामाणिक बग्नेहा उसे इस रूप में रखने का प्रयत्न किया है, प्रकाश डालने का यत्न किया है। माथ ही ग्रन्थो, ग्रन्थ निममे नममें किमी विरोध की सम्भावना ही न रहे। प्रशस्तियो, शिलालेखो, नाम्रपत्रो, मुर्तिलेखो प्रादि पर प्राशा है डा. मा० जैन धर्म के जिन सिद्धान्तों पर तलना- से जो इतिवन्न मकलित किया उमे यथा स्थान नियोजित स्मक अध्ययन करना शेष है, उन पर भी तुलनात्मक किया है और फुटनोट में उनके उद्धरण भी दे दिये है। दपिट मे निम्तन प्रकाश डालने का यत्न करेंगे। इममे ग्रन्थ महत्वपूर्ण हो गया है और अन्वेषक विद्वानो प्रम्नत पम्नक पार्श्वनाथ विद्याश्रम के प्रारण ला. और छात्रों के लिए उपयोगी बन गया है। इसके लिए हरजमराय जैन अमनमर को भेट की गई है। इसके लिये डा. गुलाबचन्द नौधरी पोर उक्त सम्था के मनालक लेखक और पकालाक दोनो ही धभावाद के पात्र हैं। गगा मभी धन्यवाद के पात्र है। ५ पोलिटिकल हिस्ट्री प्राफ नार्दन इन्डिया फ्रोम जन सोर्सेज -लेखक डा. गुलाबचन्द चौधरी -परमानन्द जैन शास्त्री अनेकान्त के ग्राहक बनें 'प्रनेकान्त' पूरा ख्यातिप्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उममें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेमरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षासंस्थानों, मंस्कृत विद्यालयों, कालेजों और जनश्रत की प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं "अनेकान्त' के ग्राहक स्वयं बनें और दूसरों को बनावें। और इस तरह जैन संस्कृति के प्रचार एवं प्रमार में सहयोग प्रदान करें। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवामन्दिर में वीर शासन-जयन्ती का उत्सव सानन्द सम्पन्न ता०२२ को प्रात.काल ८ वजे वीरसेवामन्दिर भवन २१ दरियागज में गत वर्षों की भाति इस वर्ष भी वार शासन जयन्ती का उत्सव रा.ब. लाला दयाचन्द जी और बाबू यशपाल जी जैन सम्पादक जीवन साहित्य का अध्यक्षता में सानन्द सम्पन्न हया। वीरशामन की महत्ता पर विद्वानो के भाषण हए और जैन बालाधम क छात्रा क दो उपदेशिक पद हए । तथा महिलाथम की छात्रानो का एक सुन्दर भजन हुआ। भापणकता विद्वाना' शास्त्री, ५० जयन्तीप्रमाद जी, ला. प्रेमचन्द जी जनावाच, प० मथरादाम जी, बा० विमलप्रमाद जी पहाडीधीरज और बाबू यशपाल जी के महत्वपूर्ण भाषण हए। बा विमलप्रमाद जी ने अपने भाषण में कहा कि जब तक हमारी दृष्टि नही बदलेगी तब तक हम धर्म के वास्तविक रहस्य को नही पा सकेंगे। बाह्य क्रियाकाण्डो मे मलग्न रहकर हम पर्म के स्वरूप तक नहीं पहुंच सकते । प्रत दृष्टि का बदलना अत्यन्त प्रावश्यक है। वा० यशपाल जाने अपने पक्षीय भाषण में भगवान महावीर के अपरिग्रह पर प्रकाश जाली हा महत्मा टालस्टाय का ६ गन जमान न कहानी का सार बतलाया और कहा कि महावीर का यह गिद्धान्त किनना मावण है टमका जीवन में अमल कर। पर प्रात्मा वास्तविक शान्ति का पात्र बन सकता है। इग तहमभी भाषण रोचकहए। अन्त में बा० प्रमचन्द मा गे ममागत मज्जनो का आभार व्यक्त किया, और वीरशामन की जयहनि पूर्वक उन्मव गमाप्त हुमा। प्रेमचन्द जैन म. मत्री वीरसवामन्दिर CIPE अंतरिक्ष पार्श्वनाथ पवली दिन मन्दिर शिरपुर के गर्भगृह के सामने का चूने का प्लास्टर खोदने ममय ता० ६-३-६७ को जो ११ प्रखंडित दि० मतियां मिली उनका सित्र ऊपर दिया गया है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R. N. 10591/62 re.. N. साहू शान्तिप्रसाद जी जैन संस्थापक-भरतीय सानपीठ काशी श्रीमती रमा बैन अध्यक्षा-भारतीय ज्ञानपीक काशी ताराशंकर धोपाध्याय पपोवता कृति के रचयिता प्रावक-पवन जैन, वीरसेवा मनिस के लिए, अपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से एद्रित । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वैमासिक अगस्त १९६७ Bকান **** ******* **************** ** ** * ** SATEL - MMAR CARE Home MERHe दिगम्बर जैन पार्श्वनाथ मन्दिर नागदा (उदयपुर) परिचय-देखो, अनेकान्त जून १९६७ XXXXXKKKKKKK********************* समन्तभद्राश्रम (वोर-सेवा-मन्दिर) का मुखपत्र Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय म का विषय-सूची जिनवाणी के भक्तों से क्रमाक वीरमेवामन्दिर का पुस्तकालय अनुसन्धान मे सम्बन्ध १. मुपाश्व-जिन स्तुनि.-ममन्तभद्राचार्य | रखता है। अनेक गोधक विद्वान अपनी थीसिस के लिए २ अग्रवालों का जैन मस्कृति मे योगदान उपयुक्त मंटर यहा में मगहीत करके ले जाते है। मचापरमानन्द शास्त्री १८ लक गण चाहते है कि वीमेवादिर की लायब्ररी को ३. प्राचार्य हेमचन्द के योगशास्त्र पर एक प्राचीन और भी उपयोगी बनाया जाय तथा मुद्रित और अमुद्रित दिगम्बर टीका -श्री जुगलकिशोर मुम्तार १०७ शास्त्रों का अच्छा मग्रह किया जाय । प्रत. जिनवाणी के ४. मागार धर्मामत पर इतर श्रावकाचार्ग का प्रेमियो मे हमारा नम्र निवेदन है कि वे बीसेवामन्दिर प्रभाव-प. बालचन्द्र मिद्धान्त-शास्त्री ११६ लायन को उच्चकोटि के महत्वपूर्ण प्रकाशित एव हस्त५. बादामी के चालुक्य नरेश और जैन धर्म लिखित ग्रन्थ भेट भेज कर तथा भिजवा कर अनुगहीत प्रो० दुर्गाप्रसाद दीक्षित एम. ए | करे। यह मथा पुरातत्त्व पोर अनुसन्धान के लिए प्रसिद्ध है। ६. जैन तक में हन्वनुमान-डा० प्रद्युम्न कुमार १३० व्यवस्थापक ". मह न सन्त भट्टारक विजय कीति-- वीरसेवा मन्दिर, १ दरियागज दिल्ली डा० कस्तुर चन्द कासलीवाल ८. महाकवि समय सुन्दर और उनका दानशील तप भावना सवाद-मयनारायण स्वामी एम. ए. ४६ ६. माहित्य-समीक्षा-परमानन्द शास्त्री अनेकान्त के ग्राहकों से अनेकान्त के ग्राहक बनें । अनेकान्त के जिन प्रेमी ग्राहको का वार्षिक मूल्य 'अनेकान्त पुराना ख्यातिप्राप्त शोध-पत्र है। अनेक प्राप्त नहीं हुग्रा है । हे चाहिए कि वे वे वर्ष का विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियो का अभिमत वार्षिक शुल्क छह रुपया मनीप्रार्डर में भिजवा दे । है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो अन्यथा अगला अक वी० पी० से भेजा जावैगा, जिसमें सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक ८५पमा वी० पी० बर्च का देना होगा। प्राशा ही नही संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है । हम विद्वानों, प्रोफेसरों, | किन्तु विश्वास है कि प्रेमी पाठक वार्षिक मूल्य भेज कर विद्याथियो, सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, अनुगृहीत करेगे। कालेजो पौर जनश्रत की प्रभावना में श्रद्धा रखने वालो व्यवस्थापक 'अनेकान्त' से निवेदन करते है कि वे 'अनेकान्त' के प्राहक स्वयं बने और दूसरों को बनाये । और इस तरह जैन सस्कृति के धोरसेवामन्दिर २७, दरियागंज, दिल्ली प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करे। व्यवस्थापक 'प्रनेकान्त' सम्पादक-मण्डल डा० प्रा० ने० उपाध्ये डा. प्रेमसागर जैन श्री यशपाल जैन __ अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ १० अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक मण्डल उत्तरदायी नहीं हैं। व्यवस्थापक अनेकान्त Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोम पहन अनेकान्त परमागमस्य बीजं निविडजात्यषसिन्धुरविधानम् । सकलमयविलसिताना विरोषमयनं नमाम्यनेकाम्सम् ॥ वर्ष २० किरण ३ । ॥ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६३, वि० सं० २०२४ अगस्त । सन् १९६७ सुपार्श्व-जिन स्तुतिः (मुरजः) स्तवाने कोपने चैव समानो यन्न पावकः । भवानेकोऽपि नेतेव स्वमाश्रेयः सुपाश्र्वकः॥२६॥ -समन्तभद्राचार्य मर्ष-हे भगवन् ! सुपाश्र्वनाथ ! माप, स्तुति करने वाले पौर निन्दा करने वाले दोनों के विषय में समान हैं-राग द्वेष से रहित हैं। सबको पवित्र करने वाले है-सबको हित का उपदेश देकर कर्म बन्धन से छुटाने वाले है। मत: माप एक प्रसहाय (दूसरे पक्ष में प्रधान) होने पर भी नेता की तरह सबके द्वारा प्राश्रयणीय है-सेवनीय हैं।। भावार्य-जिस तरह एक ही नेता भनेक प्रादमियों को मार्ग प्रदर्शित कर इष्ट स्थान पर पहुंचा देता है उसी तरह भाप भी अनेक जीवों को मोक्षमार्ग बतलाकर इष्ट स्थान पर पहुंचा देते हैं। और स्वयं भी पहुंचे हैं। प्रतः पाप सब की श्रद्धा और भक्ति के भाजन है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों का जैन संस्कृति में योगदान (गत वर्ष १६ कि. ५ से प्रागे) परमानन्द जैन शास्त्री अग्रवाल जैन समाज के प्रमेक व्यक्तियों ने राष्ट्रीय समाज के सम्माननीय व्यक्ति है। उनमें धार्मिकता विनय क्षेत्र मे जो अपनी सेवाये प्रदान की है। उनमें से कुछ शीलता और उदारता प्रादि गुग विद्यमान है। उनके द्वारा व्यक्तियों के नाम उल्लेखनीय है। बाबू श्यामलाल जी की जाने वाले तीर्थ रक्षा और प्राचीन मन्दिरो का जीणोंएडवोकेट गेहतक ने कांग्रेस में बड़ा भारी कार्य किया है। द्वार कार्य, जैन प्राकृत विद्यापीठ, ये सब क.यं उनकी उन्होंने अनेक बार जेल यात्रा की और अपने भापरणों महत्ता और मौदार्य के सूचक हैं। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा जनता मे काग्रेस के प्रति दृढ प्रास्था उत्पन्न की। उनकी महत्वपूर्ण प्रकाशन संस्था है प्रापकी धर्मपत्नी उनका भाषण अच्छा और प्रभावक होता था। बाबू श्रीमती रमारानी भी धार्मिक, साहित्यिक कार्यों में भाग मुमनिप्रसाद जी वकील मुजफर नगर, बाबू रतनलाल जी लेती रहती है। और भारतीय ज्ञानपीठ की अध्यक्षा वकील बिजनोर ये दोनो वकील भूतपूर्व एम. एल. है, जो है। समाज को आप दोनों से बहुत प्राशाएँ है। अपने कर्तव्य पालन मे सदा सावधान रहते है। और मापके सुपुत्र प्रशोककुमार और प्रलोकप्रकाश भी सामाजिक कार्यों में सहयोग देते रहते है। बाबू अजित- धार्मिक कार्यों में योग देते रहते है। इस तरह माप का प्रसाद जैन वकील सहारनपुर जो खाद्यमत्री भी रहे है। समूचा परिवार धार्मिक भावना से प्रोत-प्रोत है। आप अयोध्याप्रसाद गोयलीय और लाला तनसुखराय मादि। का जैन समाज की प्राय. सभी सस्थाग्रो में आर्थिक योगस्वराज्य मिलने के बाद भी अनेक व्यक्ति राष्ट्रसेवा मे दान देना, सन्तो की सेवा में समुपस्थित रहना और प्रपने बहुमूल्य जीवन लगाते रहे है।। सामाजिक तथा धार्मिक कार्यों मे तत्परता दिखलाना, खतौली जि० मुजप्फरनगर के सेठ माडेलाल ने खतौली सराहनीय है। जहां माप उद्योगपति है वहा योग्यविचारक के दस्सों को धार्मिक श्रद्धा को कायम रखने के लिये तथा धार्मिक निष्ठावान है। परोपकारी और विनयशील अपना सर्वस्व होम दिया, तब कही उनका स्थितिकरण है। वीरसेवामन्दिर पर पापका विशेष अनुग्रह है। साहु हो सका। वे विपदा के समय भी अपने धैर्य का सतुलन धेयान्सप्रसाद जी की तरह साह शीतलप्रसाद जी भी बराबर रख सके यही उनकी महानता है। धार्मिक तथा सामाजिक कार्यों में मभिरुचि लेते रहते है । इस समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में अनेक व्यक्ति पौर अपनी उदारवृत्ति द्वारा उनमे सहयोग प्रदान कर ऐसे हुए है जिन्होंने धर्म प्रौर सस्कृति के संरक्षणार्थ अपने उनकी प्रगति का प्रयत्न करते रहते हैं। कर्तव्य का निष्ठा के साथ पालन किया है और कर रहे कलकत्ता के सेठ रामजीवन सरावगी और उनका कर हैं । साह खानदान में साहसले खचन्द जी, साह जगमन्दिर परिवार तथा पुत्रादि अपने पिता के अनुकूल धार्मिक दाम जी, साहु श्रेयान्सप्रसाद जी भोर श्रावक शिरोमणि भावना का उद्भावन कर रहा है। उनके पुत्रों में सबसे साह शान्तिप्रमाद जी प्रादि के नाम खास तौर से उल्लेख- अधिक लगन बाबू छोटेलाल जी में थी। पुरातत्व और नीय है। मह श्रेयान्सप्रसाद जी का धार्मिक, सामाजिक जैन साहित्य के प्रचार मे उनका सराहनीय सहयोग रहा प्रादि सभी कार्यों में सहयोग रहता है। राजनैतिक कार्यों है। वे केवल धार्मिक संस्थानों में स्वय दान देते और में भी योग रहा है । वतमान मे साहू शान्तिप्रसाद जी इस दिलाते ही नहीं थे; किन्तु उनकी प्रगति मे सब तरह का Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपवालों कान संस्कृति में योगदान ९६ सहयोग भी प्रदान करते थे। वीरसेवामन्दिर तो उनकी उल्लेख नहीं किया। कवि की प्रथावधि तीन रचनामों प्रवृत्तियों का जीता जागता उदाहरण है। पुरातत्त्व के का उल्लेख मिलता है, जिनमे दो उपलब्ध है तथा उनकी सम्बन्ध में उनके कई महत्व के लेख प्रकाशित हुए हैं, और भाषा अपभ्रंश या पुरानी हिन्दी है तीसरी रचना की भी बहत मी सामग्री उनकी अपूर्ण पड़ी है । खण्ड गिरि भाषा भी अपभ्रंश ही जान पडती है। और तीसरी रचना उदयगिरि के सम्बन्ध में उन्होने जो प्रयत्न किया वह भी चन्द्रप्रभचरिउ' का पाश्वनाथ चरिउ की माय प्रशस्ति मे सराहनीय है। वे प्रतिथि सत्कार के बड़े प्रेमी थे। उनके उल्लेख है। कवि ने पाश्वनाथ चरित्र की रचना सवत् लघुभ्राता बाबू नन्दलाल जी सरावगी भी अपनी उदार ११८६ मे योगिनीपुर (दिल्ली मे) अनंगपाल (तृतीय) के प्रवत्ति द्वारा सामाजिक क्षेत्र में सेवा-कार्य बड़ी लगन से राज्य मे मगसिर वदी अष्टमी के दिन की है। इस ग्रन्थ करते हैं। पूज्यवर्णी गणेशप्रसाद जी के स्मारक तय्यार की स. १५७७ की लिखी प्रति मागेर शास्त्र का भण्डार कराने मे पापने जो सहयोग दिया वह प्रशंसनीय है। मे उपलब्ध है। वीरसेवामन्दिर में तो पापका सराहनीय सहयोग रहा है कि टमरी रचना 'araमाण चरित। और वर्तमान मे है । दोनो ही भाई पूज्यवर्णीजी के प्रत्यन्त की १० सन्धियो मे जैनियो के अन्तिम तीर्थकर वर्धमान भक्त है, वर्णी जी महापुरुष थे, उनका सभी पर सम भाव का जीवन-परिचय प्रकित है । कवि ने इस कृति को रहता था। अन्वेषण करने पर अग्रवाल समाज के अनेक 'वेदार' नगर के जायसवशी दिनकर, ज्ञाह नरवर के पत्र व्यक्तियों का ऐसा परिचय भी उपलब्ध होगा जिन्होने नेमचन्द की मनमति से वि०म० ११६० के ज्येष्ठ मास देश, धर्म और समाज के उत्थान में अपना सर्वस्व प्रपंण के प्रथम पक्ष की पचमी गुरुवार के दिन समाप्त की है। किया है। प्रथ की प्रति ध्यावर भवन में उपलब्ध है। कतिपय अग्रवाल जैन कवि और विद्वान द्वितीय कवि सघारु है जिनकी जाति अग्रवाल थी। जैन संस्कृति के प्रसार प्रौर प्रचार में केवल श्रावको पिता का नाम महाराज और माता का नाम 'मुधनु' था। ने हो योगदान नहीं दिया किन्तु समय-समय पर अनेक जो गुणवती थी। कवि रच्छ नगर के निवासी थे। अग्रवाल जैन कवियो पौर विद्वानो ने अपनी रचनामों इनकी बनाई हुई एक मात्र कृति 'प्रद्युम्न चरित्र' है जिसमे द्वारा लोक कल्याण की भावनामो को प्रोत्तेजन दिया है। यादववंशी श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का जीवनचरित प्रकित इतना ही नहीं किन्तु तात्कालिक रीति-रिवाजों के साथ किया गया है। यह हिन्दी भाषा का एक सुन्दर चमित अपनी धार्मिक भावनामों को वृद्धिगत किया है। अग्रवाल जैनों में अनेक कवि हुए होगे किन्तु यहा उनमें से कुछ १. स णवासिएयारहसएहि, विद्वानो और कवियों का ही संक्षिप्त परिचय दिया जाता परिवाडिए बरिसहं परिगाह । कसणटुमीहि मागहणमासि, प्रथम कवि श्रीधर हरियाना देश के निवासी थे और रविवार समाणिउ मिसिर भामि ।। अग्रवाल कुल में उत्पन्न हुए थे, वे हरियाना से यमुना नदी -पासणाह चरिउ प्रशस्ति को पार कर दिल्ली प्राये थे। कवि ने पार्श्वनाथ चरित २. णिवविक्कमाइच्च हो कालए, की प्रादि प्रशस्ति में दिल्ली का प्रच्छा वर्णन दिया है। णिक्छव वर तूर खालए। वहां के तात्कालिक शासक तोमरवंशी राजा मनगपाल एयारह मएहिं परिविगयहिं, (तृतीय) का भी उल्लेख किया है जिसका राज्य संवत् मंवच्छर सय णवहिं ममेयहिं ।। ११८६ मे दिल्ली में मौजूद था। कवि के पिता का नाम जेट पहम पक्ख इ पंचमि दिणे 'बुधगोल्ह' और माता का नाम 'बील्हा देवी' था। कवि गुरुवारे गयणं गणि ठिइयणे ।। ने अपनी गुरु परम्परा और जीवनादि घटना का कोई -वर्धमान परित प्रशस्ति Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त काव्य है। परन्तु लेखकों की कृपासे उसमें प्रत्यधिक पाठ को दिखलाते हुए उसका त्याग करने की प्ररणा की गई भेद उपलब्ध होते हैं उनसे ऐसा लगता है कि संभवतः. है और बतलाया है कि जिस तरह अन्धा मनुष्य प्रास कवि ने ही उसे संक्षिप्त किया हो, कुछ भी हुमा हो, पर की शुद्धि-अशुद्धि सुन्दरतादि का अवलोकन नहीं कर उसके सम्बन्ध में अभी अन्य प्राचीन प्रतियों का अन्वेषण सकता। उसी प्रकार सूर्य के प्रस्त हो जाने पर रात्रि में करना प्रावश्यक है, जिससे परिस्थिति का ठीक पता चल भोजन करने वाले लोगों से कीड़ी, पतंगा, झींगुर, चिउंटी, सके । कवि ने इस काव्य को सं० १४११ में बनाया हैं। डांस, मच्छर प्रादि सूक्ष्म और स्थूल जीवों की रक्षा नहीं कथानक पतिरंजित है, फिर भी कवि ने उसे संक्षेप में हो सकती। बिजली का प्रकाश भी उन्हें रोकने में समर्थ रखने का यत्न किया है। नहीं हो सकता। रात्रि में भोजन करने से भोजन में उन जब गणधर से द्वारिका के १२ वर्ष में विनाश होने, विर्षले जन्तुषों के पेट में चले जाने से अनेक तरह के रोग हो जाते हैं। उनसे शारीरिक स्वास्थ्य को बड़ी हानि कृष्ण भौर हलघर के बचने और जरत्कुमार के हाथ से पहुंचती है। अतः शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से तथा कृष्ण की मृत्यु का समाचार ज्ञात कर कुंवर प्रद्युम्न ने जिन वैद्यक और धार्मिक दृष्टि से रात्रि भोजन का परिहार दीक्षा लेने का विचार किया तब श्रीकृष्ण ने मना किया। करना श्रेयस्कर है। कवि का समय १५वीं शताब्दी जान पौर कहा कि तुम द्वारिका का राज्य करो। तब कुमार ने जो उत्तर दिया वह बड़ा सुन्दर है : पड़ता है। चिन्तायुक्त भयो परदुबन, दीक्षा लं कीन्हाँ तपचरन् । चौथे कवि वीरु है, जो अग्रवाल कुल में उत्पन्न हुए विलक्ष वदन बोले नारायन हमको साथ पुत्त परदुवन। थे । मोर शाह तोतू के पुत्र थे। तथा भट्टारक हेमचन्द्र के कवन बुद्धि उपजी तुहि माज, तू लेहि द्वारिका भुंज राजु। शिष्य थे। कवि ने 'धर्मचक्र पूजा' सं० १५८६ में रोहतकर तू राजधुरंधर जंठो पुत, तो विद्याबल प्रहिबह तत्तु । तेरो पौरुष जान सब कवनु, १. जिहि दिट्ठि णय सरइ बंधु जेम, जिम त लेहि सो पुत्तु परखुवनु । नहि गास-सुद्धि भणु होय केम । किमि-कीड-पयंगइ भिंगुराइ, नारायन के वचन सुनेहि, ताप कंदपु उत्तर देहि। पिप्पीलई डंसइ मच्छिराई। काको राजु भोगु परवाह, सुपनंतर है यह संसार। खज्जरइ कण्ण सलाइयाई, काको बालक पौरुष घनों, काको बाप कुटुंब मुहितनों। प्रवरइ जीवइ जे बह सयाई। मन्नाणी णिसि भुंजंतएण, इस तरह अन्य के अनेक कथन सुन्दर पौर सरस है। . भाषा में अपभ्रंश और देशी भाषा के शब्दों की बहुलता पसुसरिसु धरिउ अप्पाणु तेण। है। ग्रन्थ का मनन करने से हिन्दी के विकास का मौलिक पत्ता-जं वालि विदीणउ करि उज्जोवउ रूप सामने मा जाता है।। महिउजीउ संभवइ परा। तीसरे कवि हरिचन्द हैं। जो अग्रवाल कुल में उत्पन्न भमराह पयंगई बहुविह भंगई • मडिय दोसह जित्यु धरा ।। हुए थे। कवि के पिता का नाम 'जंड' पौर माता का नाम -जंन ग्रन्थ प्रशस्ति सं० भा० २ पृ० ११५। 'वील्हा' देवी था। यह कहां के निवासी थे और इनकी गुरु परम्परा क्या है ? यह कृति पर से कुछ ज्ञात नहीं २. रुहितासपुर रोहतक का नाम है । यह हरियाना प्रदेश होता । कवि की एक मात्र कृति 'प्रणयमियकहा' है, जो में है, और यहां अग्रवाल जाति के सम्पन्न लोग अपभ्रंश भाषा में रची गई है। उक्त कथा में १६ कडवक निवास करते हैं । १६वीं शताब्दी में अनेक विद्वानों दिये हुए है जिनमें रात्रि भोजन से होने वाली हानियों द्वारा अन्य रचना की गई है। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों का न संसहति में योगदान नगर के पाश्र्वनाथ मन्दिर में बनाकर समाप्त की थी। पतएव पट्टावली का उक्त समय (सं० १५०७) संकित कवि की दूसरी रचना 'वहत्सिक चक्रपूजा' है। जिसे ग्रन्थ हो जाता है। म. जिनचन्द्र उस काल के प्रभाविक विद्वान कर्ता ने वि० सं० १५८४ में दिल्ली के बादशाह बाबर के थे। पापके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां भारत के प्रत्येक राज्यकाल में रोहतक के उक्त पाश्र्वनाथ मन्दिर में काष्ठा- प्रान्त के मन्दिरों में पाई जाती है। पापके पनेक शिष्य थे संघ माथुरान्वय पुष्करगण के भट्टारक यशोसेन की शिष्या उनमें पं. मेधावी प्रमुख थे। ये हिसार के निवासी थे प्रायिका राजश्री के भाई नारायणसिंह पद्मावती पुरवाल और कुछ समय नागौर भी रहे थे। उन्होंने नागौर में के पुत्र जिनदास की पाज्ञा से बनाई थी। कवि की ही सं० १५४१ में फिरोजखान के राज्य काल में 'मेधावी दोनों रचनाएं संस्कृत भाषा में हैं और वे सब पूजा के संग्रह श्रावकाचार' पूरा किया था। पापके द्वारा अनेक विषय में लिखी गई हैं। कवि की अन्य रचनामों के अन्य दातृ प्रशस्तियां लिखी गई हैं जो सं० १५१६ से सम्बन्ध में अन्वेषण करना चाहिए। नन्दीश्वर पूजा मोर १५४२ तक की लिखी हुई उपलब्ध होती हैं। म.जिनऋषि मंडलयत्र पूजा ये दो ग्रंथ भी इनके बताये जाते हैं। चन्द्र के शिष्य पुस्तक गच्छीय श्रुतमुनि और दो अन्य परन्तु उनके बिना देखे यह कह सकना कठिन है कि वे मुनियों से मेधावी ने प्रष्टसहस्री का अध्ययन किया था। इन्ही वीरु की कृति हैं या अन्य किसी वीरु नाम के जिनचन्द्र के शिष्य रत्नकीति, रत्नकीति के शिष्य विमलविद्वान की। कीति थे। जो श्रुतमुनि के द्वारा दीक्षित थे। मेधावीकृत पांचवे कवि पं० मेघावी है। जो सोलहवीं शताब्दी के दातृ प्रशस्तियों में अनेक ऐतिहासिक उल्लेख पौर तात्काप्रसिद्ध भट्टारकीय विद्वान थे। पापका वंश अग्रवाल था, लिक श्रावको की धामिक परिणति का परिचय पिता का नाम साह 'उखरण' पौर माता का नाम 'भीषही' है। मघावा ही है। मेघावी प्रतिष्ठाचार्य भी थे। परन्तु इनके द्वारा प्रतिथा३ । कवि प्राप्त मागम के घद्धानी मौर जिन चरणों के ष्ठित मूर्ति मभी अवलोकन में नहीं प्राई है। भ्रमर थे। इनके गुरु भ.जिनचन्द्र थे जो दिल्ली में भ० छठवं कवि है, छोहल जो भग्रवाल कुलभूषण नाल्लिगशुभचन्द्र के पट्ट पर संवत् १५०७ की ज्येष्ठ कृष्णा पंचमी वंश के विद्वान थे। पाप के पिता का नाम नाथ या नाथके दिन प्रतिष्ठितए थे। मापकी जाति बघेरवाल और राम था५। पापकी रचनामों में पच सहेली गीत. पन्थीपट्टकाल ६४ वर्ष बतलाया जाता है। किन्तु मापके द्वारा गीत, पचान जा गीत, पंचेन्द्रियवेलि भोर बावनी भादि है। पंचसहेलीगीत प्रतिष्ठित मूर्तियां सं० १५०२ की उपलब्ध होती है। एक और एक शृगार परक रचना है जो सं० १५७५ मे फाल्गुन १. चन्द्रबाणाष्टषप्ठाकैः (१५८६) वर्तमानेष सर्वतः। ४. सपादलक्षे विषयेऽतिसुदरे श्रीविक्रमनपान्नूनं नयविक्रमशालिनः ।। श्रिया पुरं नागपुरं समस्ति तत् । पोषे मासे सिते पक्षे षष्ठोंदुदिननामकः (के)। पेरोजखानो नृपतिः प्रपाति रुहितासपुरे रम्ये पाश्र्वनाथस्य मन्दिरे | यन्यायेन शौर्येण रिपूग्निहन्ति च ॥१८. -धमंचक पूजा २. वेदाष्टबाण शशि-सवत्सर विक्रमनपादहमाने। मेधाविना निवसन्नहं बुधः, रुहितासनाम्नि नगरे बबर मुगलाधिराज-सद्राज्ये ॥ पूर्वा व्यवां ग्रंथमिमं तु कार्तिके । श्रीपाश्वचैत्यगेहे काष्ठासंघेच माथुरान्वयके । चंद्राम्धिबाणकमितेऽत्र वत्सरे, पुष्करगणे बभूव.......................॥ कृष्ण त्रयोदश्यहनि त्वभक्तितः।। -वृहत्सिरचक्रपूजा। -धर्मस ग्रह श्रा. ३. स्वग्रोतानूकजातोदरणतनुरुहो भीषुहीमातृसूतः। ५ नातिग बंस सि नाथु सुतनु, अगरवास कुल प्रगट रमि। मोहास्यः पंडितो जिनमतनयतः श्रीहिसारे पुरेऽस्मिन् ।। बावनी बसुधा बिस्तरी, कवि कंकण छीहल कवि ।। -धर्म संग्रह श्रा। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त १०२ सुदि १५ के दिन रची गई थी रचना में पंचसहेलियों के विरह का वर्णन है। वर्णन सहज और स्वभाविक है। पन्थीगीत - सासारिक दुख का एक पौराणिक उदाहरण है। इसे रूपक काव्य कहा जा सकता है। यह पौराणिक दृष्टान्त महाभारत और जैन ग्रन्थो मे पाया जाता है । वहाँ इसे संसार वृक्ष के नाम से उल्लेखित किया गया है : एक पथिक चलते चलते रास्ता भूल गया और सिहो के वन मे पहुँच गया । वहा रास्ता भूल जाने मे बह जगल मे इधर उधर भटकने लगा। उसी समय उसे सामने एक मदोन्मत्त हावी प्राता हुआ दिखाई दिया, उसका रूप रौद्र था और वह क्रोधवश अपने शुण्डादण्ड को हिलाता हुमा था] रहा था। पथिक उसे देख भयभीत होकर भागने लगा और हाथी उसके पीछे पीछे चला वहा पासपूम से ढका हुम्रा एक धन्धा कुप्रा था पन्थी को वह न दिखा, और वह उसमें गिर गया, उसने वृक्ष की एक टहनी पकड ली मौर उसके सहारे लटकता हुप्रा दुख भोगने लगा । उस कुए के किनारे पर हाथी खडा था, उसमे चारो दिशाम्रों में चार सर्प मौर बीच मे एक प्रजगर मुहवाए पड़ा था । उम कुए के पास एक वटवृक्ष था, ਰਸ ਸ मधुमक्खियों का एक छत्ता लगा हुआ था। हाथी ने उसे हिला दिया, जिससे भगति मधु मक्सिया उडने लगी और मधु की एक एक विन्दु उम पथिक के मुख मे पड़ने लगी । इसमें कूप संसार है, पंथी जीव है, सर्प गति है, निगोद है, हाथी अज्ञान है और मधु विन्दु विषय कवि कहता है कि यह संसार का व्यवहार है। प्रतः हे गवार तू चैत, जो मोह निद्रा मे गोते है वे अधिक असा! वधान है । इन्द्रियरस मे मग्न हो परमब्रह्म को दिया भुला है, इस कारण तेरा नर जन्म व्यर्थ है । कवि छोहल कहते है कि हे धात्मन् तू जिनेन्द्र प्रतिपादित धर्म का अवलम्वन कर कर्म बन्धन से छूट सकता है— जैसा कि उक्त गीत के निम्न पद्य से प्रकट है:"संसार को यह विवहारो चित चेतहरे गंधारी, मोहनिद्रा में से जनता से प्राणी प्रति के गूता । प्राणी में बहुत से जिन परमा विसारियो, भ्रम भूमि इंद्रिय तनो रस, नर जनमगंवाइयो । ---- अजगर है। बहु काल नामा दुख बरसा छील हे कश्चिर्म, जिन भाषित जुगतिस्यो त्यो मुक्ति पद लह्यो ।” पचेन्द्रिय बेलि ४ पद्यों की एक लघु रचना है, जिसमें धात्मसम्बोधन का उपदेश निहित है। अपने धराध्यदेव को घट में स्थापित करने के लिये हृदय की पवित्रता - वश्यक है, यदि घट पवित्र है तो जप, तप, तीर्थयात्रा दि सब व्यर्थ है, मत घट की प्रान्तरिक शुद्धि को लक्ष्य में रख कर भव-समुद्र से तिरा जा सकता है । चौथी कृति बावनी है, जो छोहल बावनी के नाम से प्रसिद्ध है यह रचना ० १५०० की कार्तिक शुक्ला प्रष्टमी गुरुवार के दिन रची गई है १ । इसकी पद्य संख्या ५३ है । कवि ने इसमे पांचो इन्द्रियो के विषय राग से होनेवाले परिणाम का सुन्दर चित्रण करते हुए इन्द्रिय विषयों से अपना मरक्षण करने की प्रेरणा की है। कवि की भाषा पर ब्रज और राजस्थानी का प्रभाव अंकित है उसका आदि और अन्त भाग इस प्रकार है: मोंकार प्राकार रहित प्रविगत अपरम्पार । अलख जोनी . सृष्टि कर्ता विश्वम्भर । घट-घट अंतर वस तासु चीन्हह नहि कोई 1 जल-बल-सुर-पालि जिहां देख तिहं सोई। जोगसिद्ध मुनिवर जिनके प्रबल महातप सिद्ध । 'छोहल' कहs त पुरुष को किणही प्रन्त न लख ॥। १ X X X नाव श्रवण धावन्त तजह मग प्राण ततक्खण, इन्द्रिय परस गयद वारिज, प्रति मरह विचक्षण । लोण बुधपतंग पड़ाव पेलन्तर । रसना स्वाद विलग्गि, मीन बज्झइ बेखन्तउ मृग मीन- भंवर कुजर पतग ए सम विणसह इक्करसि छोहल कहइ रे लोइया इन्द्रिय रक्खउ प्रप्यवसि ॥२ मृगवन मज्झि चरंत रिउ पारधी पिक्ख तिहि । जब पछि पुनि चल्यो अधिक रोपिय भतिहि । दिसाहिबान सिंह जिय सन्मुख धाय । १- चउरासी प्रग्गल सइजु पनरह संवच्छर । सुकुल पक्ष प्रष्टमी कालिंग गुरुवासर - बावनी हृदय उपग्मी बुद्धि नाम श्री गुरु को लीन्हों । सारद तराइ पसाह कवित सम्पूरण कीन्हों ।। "बावनी Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों का जम संस्कृति में योगदान बाम अंग पर जलिय तासु भय जाण न पायउ। भोर श्रवणदास के पुत्र नन्दलाल को एक मानकर उनके छोहल गमण बहुविसि नहीं चित चिन्ता चिन्तउहरिण साथ पांडे हेमराज की पुत्री जैनी का विवाह हो गया लिखा हाहा व संकट परो तो विण प्रवर न को सरण ३ है। जब कि दोनों नन्दलाल भिन्न भिन्न व्यक्ति हैं। दोनों अन्तभाग: के समय, स्थान पोर माता पिता के नामो में भी भिन्नता बउरासी अग्गल सहज पनरह संबन्छर । है। ऐसी स्थिति में उनका एकस्व सदोष और निराधार सुकुल पक्स मष्टमी कातिग गुरु वासर । है। पाशा है पाठकगण इस भूल का परिमार्जन करने का हृदय उपन्नी बुद्धि नाम श्री गुरु को लीन्हों। प्रयत्न करेंगे। सारद तणइ पसाइ कक्ति सम्पूरण कीन्हीं। दूसरी रचना 'यशोधर चरित्र' है जिसमें राजा यशोनातिगवंश सि नाथसुतनु अगरवाल कुल प्रगट रवि । बावनी वसुधा विस्तरी कवि कंकण छोहल्ल कवि।। धर का चरित अंकित है। कथानक पौराणिक होते हुए भी कवि ने उसमें नवीनता लाने का प्रयत्न किया है । पांचवी कृति उदर गीत है, जो सम्बोधक उपदेशक भाषा मे प्रमाद और गतिशीलता है। कवि ने अन्य के रचना है। कवि की अन्य कृतियों का अन्वेषण होना चाहिये। प्रारम्भ मे जहागीर द्वारा होने वाले गोवध निषेध की घटना सातवे कवि नन्दलाल है, जो प्रागरा के पास गोसना नामक ग्राम के निवासी थे । इनकी जाति . अग्रवाल और का उल्लेख किया है-'गोवध मेट्यो मान दिवाय । गोत्र गोयल था। पिता का नाम भैरों या भैगेदास पौर ___ कीरति रही देश में छाप ।" जहांगीर के राज्यकाल में माता का नाम चंदा देवी था। कवि की दो कृतिया मेरे जैनियो के द्वारा सम्पन्न होने वाली प्रतिष्ठा का भी उल्लेख अवलोकन में पाई है। दोनो ही रचनाए सुन्दर हैं। पहली किया है:रचना सुदर्शन चरित है, जिसमे ५१० पद्यो मे सेठ सुदर्शन होय प्रतिष्ठा जिनवर तनी, दीसहि धर्मवंत बहमनी । के चरित का चित्रण किया गया है। कथानक पर नयनन्दी एक करावहिं जिनवर धाम, लागे जहां प्रसंखिम वाम ॥१४ के 'सुदसण चरिउ, का प्रभाव स्पष्ट है । भाषा और भाव कवि ने इस ग्रन्थ की रचना सवत् १६७० मे श्रावण दोनो का चयन सुन्दर हपा है। अन्य यद्यपि चौपाई छन्द शबला सप्तमी सोमवार के दिन समाप्त की थी, जैसा कि मे लिखा गया है: चरित्र रोचक और शिक्षा प्रद है। कवि उसके निम्न पद से प्रकट है:ने इस अन्य की रचना स० १६६३ माघ शुक्ला १चमी२ ___ संबत सौरह से मषिक, सत्तरि सावन मास । गुरुवार के दिन जहांगीर बादशाह के राज्य में समाप्त की सुकल सोम टिन सत्तमी, कही कथा मृदभास ॥ है । ग्रन्थ की यह प्रति नयामन्दिर धर्मपुरा दिल्ली के शास्त्र भडार में उपलब्ध है। कवि की दोनों ही रचनाएं भी प्रप्रकाशित हैं जिन्हें डा. प्रेमसागर जी ने हिन्दी जैन भक्ति का प्रकाश में लाना चाहिए। * पृ० १५८ पर नन्द कवि के परिचय मे, नन्द कवि पाठवे कवि वशीदास है, जो फातिहाबाद के निवासी १. प्रप्रवार है वंश गोसना थानको, और अग्रवाल कुल में उत्पन्न हुए थे। पौर मूलसंघ के गोइल गोत प्रसिद्ध चिन्ह ता ठाव को। भट्टारक विशालकीर्ति के शिष्य थे। कवि की बनाई हई माता चंदा नाम पिता भैरों भन्यों, एक मात्र कृति रोहिणी विधि कथा है जिसे कवि ने सबत नन्द कही मनमोद सुगुन गनुना गन्यो । १६६५ जेठ वदी दोयज को बनाकर समाप्त की थी, २. संबत सौरहसै उपरान्त, मठि जानह वरस महत 110 जैसा कि ग्रन्थ की मादि प्रशस्ति के निम्न पद्यों से स्पष्ट माघ मास उजार पाख, गुरु वासर दिन पंचमी। है:बंध चोपही भाप, नन्द कही मति सारिणी ॥५०६ सौरहसौ पचामउवई, ज्येष्ठ कृष्णा की दुतिया भई। -सुर्दशन चरित्र फातिहाबाद नगर मुखमान, अग्रवाल शिव जाति प्रधान । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त नववें कवि भगवतीदास हैं, जो बूढ़िया१ जिला प्रस्तुत राजावली शाहजहां के राज्यकाल तक की है। अम्बाला के निवासी थे। भगवती दास का कुल प्रग्रवाल तीसरी रचना चुनड़ी है जिसे कवि ने सं० १६८० में और गोत्र 'वंसल' था। इनके पिता का नाम किसनदास बनाकर समाप्त किया था। चौथी रचना लघुसीतासतु१ था। इन्होंने चतुर्थवय में मुनिव्रत धारण कर लिया था। और पांचवीं रचना अनेकार्य नाममालार जो सं० १९८७ भगवतीदास बढ़िया से देहली मा गये थे और दिल्ली के में रची गई है। कवि ने अनेकार्थ नाममाला और अन्य कई काष्ठा संघी भटारक मूनि महेन्द्रसेन के शिष्य हो गये, रचनाएँ 'सिहरदि' नगर में रची है जो इलाहाबाद के पास थे, जो भट्टारक सकलचन्द्र के प्रशिष्य थे३ । भगवतीदास गंगा नदी के तट पर बसा हुमा था। वहां जैन मन्दिर ने हिन्दी साहित्य की अपूर्व सेवा की है मापकी समस्त पोर अग्रवाल जैनों के अनेक घर थे। कवि ने वहां रह उपलब्ध रचनाएं सं० १६५१ से सं० १७०४ तक की उप- कर अनेक रचना रची है, जिनमें उक्त नगर का उल्लेख लब्ध होती हैं। इससे प्राप दीर्घजीवी जान पड़ते हैं। है। छठी रचना ज्योतिष सार है जिसे कवि ने शाहजहां उनकी पाय ७५-८० वर्ष से कम नहीं जान पडती, पाप के राज्यकाल में हिसार के वर्षमान मन्दिर में सं० १६१४ की प्रायः सभी रचनाएं पद्यों में रची गई हैं जिनकी संख्या में रचा था३ । सातवीं रचना मृगांक लेखाचरित है जिसे ६. से ऊपर है। उन रचनात्रों के नाम इस प्रकार हैं- कवि ने संवत् १७०१ में बना कर समाप्त किया था। १. अगलपुर जिन बन्दना (१६५१) एक ऐतिहासिक यह अपभ्रंश भाषा की रचना है, इससे हिन्दी के विकास 'रचना है जिसमें उक्त संवत् में प्रागरा के ४८ जिन - मन्दिरों प्रादि का वर्णन दिया है, रचनाकाल सं० १६५१ सोलह सइ सतसीह सुसवति जानिए, है जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है जेठनि जलसिय मासि बुधउ मन मानिए । "संवत् सोलह साइक्यावन, रविविन मास कुमारी हो। अगरवाल जिन भवनि पुरि सिहरदि भली, जिनचंदन करिफिरि परिमाए, विजयसमिरजयारी हो।' महा कवि सुभगोतीदास भनी राजाबली ॥६६॥ दूसरी रचना दिल्ली की 'दोहाराजावली' है, जो -दिल्ली राजावली ऐतिहासिक पद्यबद्ध रचना है और जिसका रचनाकाल १. संवतु सुनहु सुजान, सोलह सइ जु सतासिया । (१६८७) और वह सिहरदि नगर में रची गई है। चैति सुकल तिथि दान, भरणी ससि दिन सो भयो। -सीतासतु १. बुढिया पहले एक छोटी-सी रियासत थी, जो धन २. सोलह सयरु सतासिया, साढि तीज तम पाखि । धान्यादि से खूब समृद्ध नगरी थी। जगाधरी के बस गुरु दिनि श्रवण नक्षत्र भनि, प्रीति जोगु पुनि भाखि।। जाने से बूड़िया की अधिकांश प्रावादी वहां से चली साहिजहां के राजमहि, 'सिहरदि' नगर मझार । पाई, मात्र कल वहां खंडहर अधिक दिखाई देते है अर्थ अनेक जुनाम की, माला भनिय विचारि ॥६. जो उसके गत वैभव के सूचक हैं। -अनेकार्थ नाममाला २. किसनदास पणिउ तनुज भगौती, ३. वर्षे षोडश शत च नवति मिते श्री विक्रमादित्यके, तुरिये गहिउ व्रत मुनि जु भगोती। पंचम्या दिवसे विशुद्ध तरके मास्याश्विने निर्मले । नगर बूढिये वसं भगौती, जन्मभूमि है प्रासि भगौती। पक्षे स्वाति नक्षत्र योग सहिते वारे बुषे संस्थिते, अग्रवाल कुल बंसल गोती, पंडित पद जन निरख भगौती। राजत्साहि सहावदीन भुवने साहिजहां कथ्यते॥ -वृहत् सीतासतु -ज्योतिषसार प्रशस्ति ३. सकमचन्द तिस पट्टभनि, भवसागर तार । तासु पट्ट पुनि जानिये, रिसिमुनि माहिंदसेन । ४. सगबह संवदतीह तहा विक्कमराय महप्पए । भट्टारक भुवि प्रकट वसु, जिनि जितियो रणि मनु । प्रगहणसिय पंचमि सोमदिणे पुण्ण ठियर प्रवियप्पए। -प्रमेकार्थ नाममाला -मृगांकलेखा चरित Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों का जन संस्कृति में योगदान का महत्व ख्यापित होता है। भाठवीं रचना 'वैद्यविनोद' ४७. बारहमासा चरित्रगडेका १२५०, ४८. विवाहगीत है जिसे कवि ने सं० १७०४ मे सुलतानपुर (भागग) में वारहमास १२५०, ४६. रुसिनवेली का बारहमास ५ बनाया था। अन्य शेष रचनामो में संवत् नहीं दिया है। १४५०, ५०. गीत ११ १०, गढ़ दिल्ली में बनाया। प्रतएव वे सब रचनाएँ इन्ही के मध्य में रची गई है। ५१ वैगगीलाल बारहमासा १६ प. (मोती बाजार उनके नाम और पद्य संख्या निम्न प्रकार हैं : दिल्ली में बनाया), ५२. चौमासा गीत ५ ५०, मधुकर .टडाणारास, १०. प्रादित्यव्रतगस, ११.पखवाडा गीत १४ प० दिल्ली मोती बाजार में बनाया। ५३. रास, १२. दशलक्षण रास.१३. खिचडीरास. १४. ममा- दिवाली ढाल गीत ११५०दिल्ली मोतीबाजार में बनाया. घिराम, १५. जोगीरास, १६. मनकरहारास, १७. रोहिणी- ५४. रागमारू पद १-१३ ५०, ५५. पश्चिमी भाषा का व्रतरास, १८, चतुरखनजारा रास, १९. द्वादश अनुप्रेक्षा, वणजारा गीत १४ ५०, ५६. ढमाल ३५५०, ५७. राज. सुगध दशमी कथा, २१ प्रादित्यवार कया, २२. अनथमी मती नेमीसुर गीत १८५०, ५८. मुक्तावलिरास २०५०. कथा, २३. चूनड़ी (मुक्तिरमणकी) २४. राजमती नेमी- ५६. राजमती नेमीश्वर ढमाल ८६ ५०, कपिस्थल में नाथ स्तवन, २५. सज्ञानी ढमाल, २६. प्रादित्यनाथ स्तवन, बनाया, ६०. वनजारा गीत ३५ पद्य । २७. शान्तिनाथ स्तवन, ८. बावनी छपई ७ पद्य, २६. इनके प्रतिरिक्त कवि की अन्य अनेक रचनाएँ प्रभी मनहरणगीत मे ६५०, ३०. मनमइगलुगीत २ १३ प०, ३१. मन्वषणाय है । इन रचनामा में से कतिपय रचनाएं सुन्दर दहाढालगीत १२ १० ३२. दहाढाल गीत (द्वितीय) १५ । हैं; और प्रकाशन की वाट जोह रही हैं । खेद है कि दिन पद्य, ३३. ललारे गीत १२५०, ३४. दहागीत ११ १०, समाज का ध्यान साहित्य प्रकाशन की पोर नगण्य सा है। ३५. भमरा गीत १८ प०, ३६. लघुमन्धि, ३७ खिचडी दसवे कवि पाडे रूपचन्द हैं। इनकी जाति मप्रवाल रासु २६ ५०, ३८ बडावीर जिनिंदगीत २२ ५०, ३६. और गोत्र 'गर्ग' था। इनका जम कुरुदेश के सलेमपर' हालिमडे का गीत १७ प०, ४०. सांवला गीत १२५०, नाम के स्थान पर हुमा था। इनके पितामह का नाम ४१. राइसाढालगीत १७ प०, ४२. चैतढमाल ३ राग मामट मोर पिता का नाम भगवानदास था । भगवानदास सालिग १७ प० ४३. ढमाल गग गाडी १७५०, की दूसरी पत्नी से रूपचन्द का जन्म हुमा था। इनके पार मोतीहटकई देह रह रंग भीने, मारूलाल रंग भीने हो। भाई और भी थे, हरिराज, भूपति, प्रभयराज पौर कीति४४. तुम छाडि चले जिन लाहो, गीत १०प०, ४५. मन- चन्द्र । रूपचन्द ने बनारस में शिक्षा पाई थी, विद्वान और सवा गीत १८ पद्य, कर्मचेतना हिंडोला गीत १६ १०, कवि थे और अध्यात्म के प्रेमी थे। इनकी कतिया परमार्थी १. सत्रह सइ रुचि डोत्तरइ. सुकल चतुर्दशि चतु। दोहा शतक, मगल गीत प्रबन्ध, नेमिनाथ गस, खटोलना गुरु दिन भनी पूरनु करिउ, सुलितांपुर सहजयतु ॥ गीत और अध्यात्मपद पापका दोहा शतक और प्रध्यात्मिक गीत दोनों ही सांसारिक विषयों से विराग उत्पन्न करनेवाले २. इद्र धनुष सम सोहनी विषय सुखन की प्राशा रे। सुख चाहइ ते वावरे प्रति जु होहि निरासा रे॥५ तई तजिय मतिहीन समझ मनसूवा रे ॥१॥ अंत-परे धर्म ध्यान मनुलाइए तउ पावमि मिव वासोरे, x ___ मोतीहट जोगिनिपुरे भनत भगोती दासोरे। प्रत-दास भगवती इउं मनइ मनसूवा रे । ३. अंत-ललना मोतीहट जोगिनपुरे भनत भगोतीदास । जो गावहि नरनारि समुझि जिनवाणी, जिनजी जे नर गावही ते खंडति प्रघ-पासु। मनधरह मनसूबा रे। ललना नेमिनवल मेरइ मनिवसे ॥१७॥ ते उतरहि भव पार समझ मनसूवा रे ॥१८॥ ४. पादि-भव वन भमत दुखित भए मन सूवारे । ५. अंत-जे नर नारी जिण गुण गावहि, इद्रिय मुख ज अधीन समभ मन सूवारे । पावहि अमर विलासो। श्री जिनशासन वनु भला मनसूवारे । गढ़ दिल्ली मोतीहटि जिणहरि भणत भगौतीदासो ॥१४ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अनेकान्त और अध्यात्मरस से सराबोर है पढ़ते ही हृदय में विषयों लाया है। वे मात्म-सम्बोधकी भावना से परिपूर्ण है। के प्रति ग्लानि और स्वरूपको पहिचानने की दृष्टि मा जाती खटोलना गीत भी माध्यात्मिकता से प्रोत-प्रोत है। यह है, उनका हृदय पर प्रभाव पडे बिना नहीं रहता, किन्तु रचना अनेक वर्ष १० कि० ३ में प्रकाशित हा चुकी है। मोहवश वह प्रल्पकालिक होता है। पाठकों की जानकारी ग्यारहवें कवि जगजीवन हैं-जो आगरा के निवासी के लिए यहां तीन-चार दोहे दिये जाते है : पोर संघवी अभयराज तथा मोहनदे के पुत्र थे । यह परकी सगति तुम गए, खोई अपनी जाति । विद्वान कवि और अध्यात्म शैली के वरिष्ठ प्रेरक थे। पापा पर न पिछानहू, रहे प्रमावनि माति ॥४२ इनकी जाति अग्रवाल मौर गोत्र गर्ग था। सघवी प्रभैराज बिना तत्स्व पर लगत, अपरभाव अभिराम । उस समय सबसे अधिक सुखी और सम्पन्न थे। उनके ताम और रस हचित हैं, प्रमत न चाख्यो जाम 10% अनेक पत्नियां थीं; जिनमें सबसे छोटी मोहनदे से जगचेतन के परवं बिना, जप तप सब प्रकयत्य । जीवन का जन्म हुआ था। सघवी अभयराज ने प्रागरा कन विन तुष ज्यों फटकते, कछु न प्राव हत्य ।।८५ मे एक जिनमन्दिर बनवाया था। जगजीवन जाफर खां चेतन सौ परचं नहीं, कहा भये व्रतधारि । के दीवान थे, और जाफरखा बादशाह शाहजहा का पाँच सालि विहने खेत की, वृथा बनावति वारि ८६ हजारी उमराव था। उस समय की अध्यात्म शैली मे मगल गीत प्रबन्ध और नेमिनाथ रास दोनों ही सुन्दर रचनाएं है । जो पाठकों को अपनी प्रोर हेमराज, रामचन्द्र, मथुरादास, भवालदास, भगवतीदास प्राकर्षित करती हैं । समवसरण पाठ संस्कृत की और प० हीरानन्द प्रादि थे। “सम जोग पाइ जगजीवन रचना को सं० १६६२ मे बना कर समाप्त किया था। विख्यात भयौ, ज्ञानिन की मण्डली में जिस को विकास वह आगरे मे पाये थे और तिहुना साहु के देहरे (मन्दिर) है।" प० हीरानन्द की जगजीवन की प्रेरणा से समव है। में टहरे थे। तब बनारसी दास और उनके साथियों ने सरण विधान सं० १७०१ में बनाया था और उन्हीं गोम्मट सार ग्रंथ बचवाया था, रूपचन्दजी ने कर्म सिद्धान्त जगजीवन की प्रेरणा से सं० १७११ में पचास्तिकाय का का वर्णन कर एकान्स दृष्टि को दूर किया था, इससे पद्यानुवाद रचा था। (क्रमशः) बनारसीदास और उनके साथी जैनधर्म में दृढ़ हुए थे। देखो जैन ग्रंथ सूची प्र० ४ पृ० १०२।। पाप प्रध्यात्म रस के रसिया थे। पापके प्रध्यात्मिक पदों ३.पब सुनि नगरराज पागरा, सकल सोभ अनुपम सागरा। मे विषय-विरक्ति और अध्यात्मरम का अनुभव मिलता है, साहजहां भूपति है जहां, राज करै नयमारग तहां ।७५ पद बड़े ही सरल एवं प्रात्म-मम्बोधक है। परमार्थी दोहा ताको जाफर खां उमगव, पंचहजारी प्रगट कराउ। पालक मे सुन्दर दोहों द्वारा विषय सेवन से होने वाले ताको अगरवाल दीवान, गरगगोत सब विधि परधान ७६ कटुक फलों का दिग्दर्शन कराते हुए उन्हें निस्सार बत मघही प्रभैराज जानिए, सुखी अधिक सबकरि मानिए। १. श्रीरसहारेऽस्मिन्नरपतिनुतयविक्रमादित्य राज्ये- वनितागण नाना परकार, तिनमें लघु मोहनदे सार ।।८० ऽतीतेदुगनंदभद्रांशु कत परिमिते (१६७२) कृष्णपक्षेषमासे। ताको पूत पूत सिरमौर, जगजीवन जीवन की ठौर ।। देवाचार्य प्रचारे शुभनवमितिथी सिद्धयोगे प्रसिटे। सुदररूप सुभग मभिराम, परम पुनीत घरम धन-धाम १ -समवसरण विधान पौनर्वस्वित्पुटर थे (?) समवसृतिमहं प्राप्तमाप्ता समाप्ति ।।। त।" ४. पभैगज संघपति संघही को वनि उदेहरोनीको हो, २. अनायास इस ही समय नगर पागरे थान । साहिमती वाई उत्तिम सती सयानी भोरी हो। रूपचन्द पडित गुनी, प्रायो गम जान। गिरधर पहित गुनगन मंडित बंधु नरायन जोरी हो। -प्रर्ध कथानक, ६३० प. तिहुनासाहु देहरा किया, तहा प्राइ लिन डेरा लिया। ___ बन्धु नरायनु गिरधरि पांडे, बहुत बिनो करि राखे । -अर्गलपुर जिनवन्दना जैन सं० शोषां० ५ सब प्रध्यात्मी कियो विचार, ग्रन्थ वचायो गोम्मटसार ॥ ५. किम साहु तिहना अग्रवाल और गर्ग गोत्रीय थे। इन्होने सावन सुदि सातमि बुधि रमै । सं० १६१६ में प्राषाढ़ सुदि एकम के दिन मात्मानु- ता दिन सब संपूरन भया, शासन की सटीक प्रति लिसवाई थी। समवसरन कहवत परिनया ॥२-समवसरण विधान Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र पर एक प्राचीन दि० टीका जुगलकिशोर मुख्तार 'पुगवीर' श्रीमदमितगति निःसमयोगिराजविरचित योगसार प्राभृत की हस्तलिखित मूल प्रतियो तथा उस पर लिखी गई किसी संस्कृत टीका की खोज करते-करते समय मुझे हाल में देव योग मे एक ग्रन्यप्रति उपलब्ध हुई है जिसके ऊपर बाद को किसी दूसरी कलम में लिखा गया है:"अयं योगप्रकाशः ग्रन्थः प्रस्य टोका इंद्रनं विनामा भट्टारकेन कृता " ― ग्रन्थप्रति के अन्त मे ग्रन्थ को 'योगसार' प्रोर टीका को 'योगवार टीका' भी लिखा है परन्तु देखने पर मालूम हुया कि यह अपने अभीष्ट योगसारभूत की टीका नहीं है बल्कि प्राचार्य हेमचन्द के योगशास्त्र पर लिखी गई एक टीका है, जिसमे योगशास्त्र को योगशास्त्र नाम से ही नहीं किन्तु योगप्रकाश' और 'योगसार' नाम से भी उल्लेखित किया है। यह टीका प्रति कारंज (अकोला) के एक शास्त्र भंडार से प्रामाणिकचन्द्र जो चवरे द्वारा उपलब्ध हुई है, जिसके लिए मैं उनका प्राभारी हूँ । इस प्रति की पत्र संख्या ७७, पत्रो की लम्बाई ११। प्रोर चौडाई ४।। । इन्ची है, पत्र के प्रत्येक पृष्ठ पर पक्ति संख्या प्रायः ११-कही कही १२ तथा दो तीन पत्रों पर १३-१० भी है. प्रति पंक्ति अक्षर संख्या प्राय: ५५ से ६० तक, कागज पुराना देशी और लिखाई, जो पड़ी मात्राओ के प्रयोग को भी लिए हुए है, अच्छे सुन्दर अक्षरों में प्रायः शुद्ध है— कहीं कहीं कुछ अशुद्धियाँ भी पाई जाती है। कागज प्रादि की स्थिति को देखते हुए यह प्रति प्रायः ४०० वर्ष पुरानी लिसी जान पड़ती है। - इस टीका को देखकर मेरे हृदय में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि क्या यह टीका पहले से उपलब्ध एव लोकपरिचय में भाई हुई है अथवा नई ही उपलब्ध हुई है । दिगम्बर शास्त्र भण्डारों को मैंने बहुत देखा है, बहुतों की सूचियाँ भी देखने मे आई हैं परन्तु इससे पहले कहीं से भी इस टीका का कोई परिचय मुझे प्राप्त नहीं हुमा धीर इसलिए मैंने प० दलसुख जी मालवणिया ( अहमदाबाद ) और पं० सुबोधचन्द्र जी ( जैन साहित्य विकास मंडल, बम्बई ) जैसे कुछ श्वेताम्बर विद्वानों से यह जानना चाहा कि क्या हेमचन्द्राचार्य के योगशास्त्र पर उनके स्वोपज्ञ विवरण के बाद की बनी हुई कोई संस्कृत टीका १० शास्त्र भण्डारी में उपलब्ध है ? उत्तर में यही मालूम पड़ा कि ऐसी कोई टीका उपलब्ध नही है ? पं० सुबोधचन्द्र जी ने तो दिगम्बर टीका की उपलब्धि को जानकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए यह भी लिखा कि "योगसार शास्त्र पर दिगम्बरीय टीका होने का (हाल ) मैं सर्वप्रथम सुन रहा हैं, यह प्रानन्द दायक समाचार है।" ऐसी स्थिति मे इस नवोपलब्ध टीका का सर्व साधारण को परिचय देने के लिए मुझे मन्तःकरण से प्रेरणा मिली और मैंने टीका का तुलनादि के रूप में कुछ विशेष अध्ययन प्रारम्भ किया। इस अध्ययन के लिये पं० दरबारीलाल जी जन कोठिया न्यायाचार्य ने योगशास्त्र की स्वोपज्ञ विवरण सहित मुद्रित प्रति मुझे स्याद्वाद विद्यालय काशी के अकलक सरस्वती भवन से भेज दी, जिसके लिये मैं उनका प्रभारी है । परन्तु योगशास्त्र की यह मुद्रित प्रति मोटे कागज पर होने पर भी इतनी जीणं तथा कडकव्वल जान पड़ी कि पत्रों को इधर उधर पलटने पर उनके टूट जाने का भय उपस्थित हो गया और इसलिए उस पर काम करना कठिन जान पड़ा। श्री ए० मुबोधचन्द्र जी को जब किसी दूसरी मूल ग्रन्थ प्रति को भिजवाने के लिए लिखा गया तब उन्होने भी स्वोपज्ञ-विवरण-प्रति की जीर्णता को स्वीकार किया और लिखा कि हमारा मंडल इसको फिर से छपवाना चाहता है। साथ ही एक दूसरी मुद्रित प्रति की सूचना की जो योगशास्त्र मूल के साथ उसके स्वोपश विवरण में पाये जाने वाले 'प्रान्तर' इलोकों को भी भिन्न Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त और अध्यात्मरस से सराबोर है पढ़ते ही हृदय मे विषयों लाया है । वे प्रात्म-सम्बोधकी भावना से परिपूर्ण हैं । के प्रति ग्लानि और स्वरूपको पहिचाननेकी दृष्टि पा जाती खटोलना गीत भी प्राध्यात्मिकता से प्रोत-प्रोत है। यह है, उनका हृदय पर प्रभाव पडे बिना नहीं रहता, किन्तु रचना अनेक वर्ष १० कि० ३ मे प्रकाशित हो चुकी है। मोहवश वह अल्पकालिक होता है। पाठकों की जानकारी ग्यारहवे कवि जगजीवन हैं-जो आगरा के निवासी के लिए यहां तीन-चार दोहे दिये जाते है . पोर संघवी अभयराज तथा मोहनदे के पुत्र थे । यह परको सगति तुम गए, खोई अपनी जाति । विद्वान कवि और अध्यात्म शैली के वरिष्ठ प्रेरक थे। पापा पर न पिछानहू, रहे प्रमावनि माति ॥४२ इनकी जाति अग्रवाल और गोत्र गर्ग था । सघवी अभैराज बिना तत्व पर लगत, अपरभाव अभिराम । उस समय सबसे अधिक सुखी और सम्पन्न थे। उनके ताम और रस रुचित हैं, प्रमत न चाख्यो जाम ॥ अनेक पत्निया थी; जिनमें सबसे छोटी मोहनदे से जगचेतन के पर बिना, जप तप सब अकयत्थ । जीवन का जन्म हुआ था। संघवी अभयराज ने प्रागरा कन विन तुष ज्यों फटकतै, कछु न प्राव हत्थ ।।८५ मे एक जिनमन्दिर बनवाया था४। जगजीवन जाफरखा चेतन सौ परच नहीं, कहा भये व्रतधारि। के दीवान थे, और जाफरखा बादशाह शाहजहा का पांच सालि विहूने खेत की, वृथा बनावति वारि ८६ हजारी उमराव था। उस समय की अध्यात्म शैली मे __मगल गीत प्रबन्ध और नेमिनाथ रास दोनों ही हेमराज, रामचन्द्र, मथुरादास, भवालदास, भगवतीदास सुन्दर रचनाएँ है । जो पाठको को अपनी ओर । और प० हीरानन्द प्रादि थे। “समै जोग पाइ जगजीवन प्राकर्षित करती है । समवसरण पाठ संस्कृत की । विख्यात भयौ, ज्ञानिन की मण्डली मे जिस को विकास रचना को सं० १६६२ मे बना कर समाप्त किया था। वह प्रागरे मे पाये थे और तिहुना साह के देहरे (मन्दिर) है है।" प० हीरानन्द की जगजीवन की प्रेरणा से समवमें टहरे थे२ । तब बनारसी दास और उनके साथियों ने सरण विधान स० १७०१ म बनाया था। प्रार उन्हा गोम्मट सार ग्रंथ बचवाया था, रूपचन्दजी ने कर्म सिद्धान्त जगजावन क जगजीवन की प्रेरणा से सं० १७११ मे पंचास्तिकाय का का वर्णन कर एकान्त दृष्टि को दूर किया था, इसमे पद्यानुवाद रचा था। (क्रमशः) बनारसीदास और उनके साथी जैनधर्म मे दृढ़ हुए थे। देखो जैन ग्रंथ सूची प्र०४ पृ० १०२ पाप अध्यात्म रस के रसिया थे। आपके प्रध्यात्मिक पदो ३. अब सूनि नगरराज नागरा, सकल सोभ अनुपम सागरा। मे विषय-विरक्ति और अध्यात्मरम का अनुभव मिलता है, माहजहा भूपति है जहा, राज कर नयमारग तहां ।४५ पद बडे ही सरल एव प्रात्म-सम्बोधक है। परमार्थी दोहा ताको जाफर खां उमगव, पंचहजारी प्रगट कराउ । शतक मे सुन्दर दोहों द्वारा विषय सेवन से होने वाले ताको अगरवाल दीवान, गर गगोत सब विधि परधान ।७६ कटुक फलो का दिग्दर्शन कराते हुए उन्हे निस्सार बत मघही अभैगज जानिए, सुखी अधिक सबकरि मानिए। १. श्रीसत्संवारेऽस्मिन्नरपतिनुतयद्विक्रमादित्य राज्ये- वनितागण नाना परकार, तिनमें लघु मोहनदे सार ॥८० ऽतीते दुगनंदभद्रांशुक्रत परिमिते (१६७२) कृष्णपक्षेषमासे। ताको पूत पूत सिरमौर, जगजीवन जीवन की ठोर ।। खाना पचा नामजोशी सुंदर रूप सुभग अभिराम, परम पुनीत धरम धन-धाम।८१ -समवसरण विधान पौनर्वस्वित्पुडर थे (?) समवतिमहं प्राप्तमाप्ता समाप्ति ।। ता' ४. अभैगज सघपति सघही को वनि उदेहरोनीको हो, २. अनायास इस ही समय नगर प्रागरे थान । साहिमती बाई उत्तिम सती सयानी भोरी हो। रूपचन्द पडित गुनी, प्रायो जगम जान ।। गिरधर पडित गुनगन मंडित बंधु नरायन जोरी हो। -प्रधं कथानक, ६३० प. बन्धु नरायन गिरधरि पाडे, बहत विनो करि राखे । तिहुनासाहु देहरा किया, तहा पाइ तिन डेरा लिया । -प्रर्गलपुर जिनवन्दना जैन सं० शोधा. ५ सब अध्यात्मी कियो विचार, ग्रन्थ वचायो गोम्मटसार ।। ५. एक अधिक सत्रह सौ समै, साहु तिहुना अग्रवाल घोर गर्ग गोत्रीय थे। इन्होने सावन सुदि सातमि बुधि रम। स० १६१६ मे प्राषाढ़ सुदि एकम के दिन प्रात्मानु- ता दिन सब सपूरन भया, शासन की सटीक प्रति लिखवाई थी। समवसरन कहवत पग्निया॥२-समवसरण विधान Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र पर एक प्राचीन दि० टीका जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' श्रीमदमितगति-नि.सगयोगिराज-विरचित योगमार- भी इस टीका का कोई परिचय मुझे प्राप्त नही हमा पौर प्राभूत की हस्तलिखित मूल प्रतियो तथा उस पर लिखी इसलिए मैने प० दलसुख जी मालवणिया (प्रहमदाबाद) गई किसी सस्कृत टीका की खोज करते-कराते समय मुझे और पं० सुबोधचन्द्र जी ( जैन माहित्य विकास मडल, हाल में देव योग मे एक ग्रन्थ प्रति उपलब्ध हुई है जिसके बम्बई) जैसे कुछ श्वेताम्बर विद्वानों से यह जानना चाहा ऊपर बाद को किसी दूसरी कलम मे लिखा गया है:- कि क्या हेमचन्द्राचाय के योगशास्त्र पर उनके स्वोपज्ञ "प्रय योगप्रकाशः ग्रन्थः प्रस्य टोका इनदिनामा विवरण के बाद की बनी हुई कोई संस्कृत टीका श्वे. भट्टारकेन कृता" शास्त्र भण्डागे में उपलब्ध है ? उत्तर में यही मालम पहा ग्रन्थप्रति के अन्त में ग्रन्थ को 'योगसार' और टीका कि ऐमी कोई टीका उपलब्ध नहीं है ? 40 सुबोधचन्द्र जी को 'योगसाटीका' भी लिखा है, परन्तु देखने पर मालूम ने तो दिगम्बर टीका की उपलब्धि को जानकर अपनी हा कि यह अपने प्रभीष्ट योगसार पाभत की टीका नहीं प्रसन्नता व्यक्त करते हुए यह भी लिखा कि "योगसार है बल्कि प्राचार्य हेमचन्द के योगशास्त्र पर लिखी गई शास्त्र पर दिगम्बरीय टीका होने का (हाल) मैं सर्वप्रथम एक टीका है, जिसमे योगशास्त्र को योगशास्त्र नाम से सुन रहा है, यह प्रानन्द दायक समाचार है।" ऐसी स्थिति ही नहीं किन्तु 'योगप्रकाश' और 'योगमार' नाम से भी मे इस नवोपलब्ध टीका का सर्व साधारण को परिचय उल्लेखित किया है। यह टीका प्रति कारंजा (अकोला) के देने के लिए मुझे अन्तःकरण से प्रेरणा मिली और मैंन एक शास्त्र भडार मे ब्रह्मचारी माणिक वन्द जी चवरे द्वारा टीका का तुलनादि के रूप में कुछ विशेष प्रध्ययन प्रारम्भ उपलब्ध हुई है, जिसके लिए मैं उनका प्राभारी हूँ। इम किया। इस अध्ययन के लिय प० दरबारीलाल जी जैन प्रति की पत्र संख्या ७७, पत्रो की लम्बाई १० पौर कोठिया न्यायाचार्य ने योगशास्त्र की स्वोपज्ञ विवरण सहित चौडाई ४।। इन्ची है, पत्र के प्रत्येक पृष्ठ पर पक्ति संख्या मुद्रित प्रति मुझे स्यावाद विद्यालय काशी के प्रकलक प्रायः ११-कही कही १२ तथा दो तीन पत्रो पर १३.१३ सरस्वती भवन से भेज दी, जिसके लिये मैं उनका प्राभारी भी है. प्रति पंक्ति अक्षर संख्या प्रायः ५५ मे ६० तक, है । परन्तु योगशास्त्र की यह मुद्रित प्रति मोटे कागज पर कागज पुराना देशी और लिखाई, जो पड़ी मात्रामो के होने पर भी इतनी जीणं तथा कडकव्वल जान पडी कि प्रयोग को भी लिए हए है, अच्छे सुन्दर प्रक्षों में प्रायः पत्रों को इधर उधर पलटने पर उनके टूट जाने का भय शुद्ध है-कही कही कुछ अशुद्धियाँ भी पाई जाती हैं। उपस्थित हो गया और इसलिए उस पर काम करना कठिन कागज प्रादि की स्थिति को देखते हए यह प्रति प्रायः ४०० जान पडा । श्री १० मुबोधचन्द्र जी को जब किसी दूसरी वर्ष पुरानी लिखी जान पड़ती है। मूल ग्रन्थ प्रति को भिजवाने के लिए लिखा गया तब इस टीका को देखकर मेरे हृदय मे यह जिनामा उत्पन्न उन्होने भी म्योपज्ञ-विवरण-प्रति की जीर्णता को स्वीकार हुई कि क्या यह टीका पहले से उपलब्ध एवं लोक- किया पार लिखा कि हमारा मडल इसका फिर स छपपरिचय मे भाई हुई है अथवा नई ही उपलब्ध हुई है। वाना चाहता है। साथ ही एक दूसरी मुद्रित प्रति की दिगम्बर शास्त्र भण्डारों को मैंने बहुत देखा है, बहतो की सूचना की जो योगशास्त्र मूल के साथ उसके स्वोपज्ञ सूचियां भी देखने में प्राई है परन्तु इससे पहले कही से विवरण में पाये जाने वाले 'प्रान्तर' इलोकों को भी भिन्न Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ अनेकान्त टाइप-द्वारा साथ मे लिये हुए है, और कुछ दिन बाद उसे (इन्द्रनन्दी मूरि के) 'ईहित की नन्दिनी' भी बतलाया है। भिजवा दिया, जिसके लिए मै उनका भी प्राभारी हैं। टीका के अन्त मे जो प्रशस्ति पद्य दिया है उसमे टीका का इस टीका के तुलनात्मक अध्ययन और उस पर से नाम 'योगिरमा' सूचित किया है और उसे 'योगसारी' परिचयात्मक नोट्स तथा मूल के पाठान्तर लेने आदि पर विशषण भी दिया है। साथ ही जिसके विशेष बोध के जो परिश्रम किया गया है उसके फल स्वरूप ही प्राज यह निमित्त यह टीका रची गई है उसका नाम 'चन्द्रमती' परिचायक लेख लिखा जाकर पाठकों की सेवा मे उपस्थित दिया है और उसे जैनागम, शब्दशास्त्र, भरत (नाटय) किया जाता है, जिससे अन्धकार में पड़ी हई यह टीका और छन्द.शास्त्रादि की विज्ञा तथा 'चारुविनया' बतलाया प्रकाश में पाए और अपने लाभो से जगत को लाभान्वित है-'चारुविनया विशेषण से वह उनकी अच्छी विनयकरने में समर्थ हो सके। साथ ही हम अपने उपकारी टीका- शीला शिष्या भी हो सकती है । प्रशस्ति का वह पद्य, कार को कुछ जान पहचान सके, जिमने उपकार-बुद्धि से जिसमे टीका के निर्माण का समय भी दिया हुआ है, इस टीका के निर्माण में कब कितना परिश्रम किया था और प्रकार है:उसके द्वारा मूल योगशास्त्र को कहाँ तक उजाला था । खाष्टश शरवीति मासि च शची शक्ल द्वितीयातियों प्रस्तुत टीका के निर्माता भट्टारक इन्द्रनन्दी है, जो उन टीका योगिरमेन्द्रनन्दिमनिप: श्री योगसारी कृता । भट्टारक श्री अमरकीति के शिष्य थे जिन्हे टीका के प्रादि योजनागमशब्दशास्त्र भरत-छन्दोभिमुख्यादिकमे चतुर्धागमवेदी, मुमुक्षुनाथ, ईशिन, अनेकवादिव्रज- वेत्री चन्द्रमतीति चारुविनया तस्या विबोध्य शुभा ॥ मे वितचरण और लोके परिलम्धपूजन जैसे विशेषणो के इसमें टीका का जो निर्माण काल 'खाष्टेशे प्रादि पदो साथ उल्लेखित किया गया है। टीका की प्रादि मे मगला- के द्वारा दिया है उससे वह शक-सवत ११८० की ज्येष्ठ चरणादि को लिए हए जो तीन पद्य है वे इस प्रकार है- शक्ला द्वितीया के दिन बनकर समाप्त हुई जान पड़ती प्रणम्य वीरं त्रिजस्प्रवन्द्य विभावनेकान्तपयोधिनन्द्रम्। है। 'खाष्टेश' पद ११८० का और 'शरवि' पद सवत्सर देवेश महानतमः खराशुं समस्तभाषामयसुध्वनीशम् ॥१ का वाचक है । यह ११८० विक्रम संवत् तो हो नही लसमचतुर्षागमवेदिन परं मुमुक्षनाथाऽमरकोतिमीशिनम्। मकता , क्योकि उस वक्त तक तो मूल योगशास्त्र का अनेकवादिवजसेवितक्रम विनम्य लोके परिलब्धपूजनम् ।२ निर्माण भी नही हुआ था, तब यह शक संवत् ही होना जिना (निजात्मनो ज्ञानविवे प्रशिष्टां चाहिए । दूसरे 'खाष्टेशे' पद में जिस ईश' शब्द का प्रयोग विद्वद्विशिष्टस्य सुयोगिनां च । है वह 'ईश्वर' का वाचक है और शक काल-गणना मे योगप्रकाशस्य करोमि टोकां सूरीन्द्रनन्दोहितनन्दनों वै ॥३ 'ईश्वर' नामका ११वां सवत्सर है, उसीसे उसकी ११ इनमें से प्रथम पद्य वीर भगवान की और दूसरा सख्या का ग्रहण किया जाता है । तदनुसार यहाँ ११८० अपने गुरु अमरकीति स्वामी की स्तुति में है। तीसरा शक संवत् ही ठहरता है । जो विक्रम संवत् १३१५ के पद्य टीका के निर्माण की प्रतिज्ञा को लिये हुए है, जिसमे बराबर है और इसलिए टीका को निमित हुए आज ७०८ मूल ग्रन्थ को यहाँ 'योगप्रकाश' नाम म उल्लेखित किया वर्ष से ऊपर का समय हो चुका है । प्राचार्य हेमचन्द का है, जिसका कारण उसमे योग-विषय के द्वादश प्रकाशो निधन वि० सवत् १२२६ मे हुया है, उनके निधन से यह का होना जान पड़ता है। अन्यत्र संधियों में 'योगशास्त्र' टीका कोई ८६ वष बाद की बनी हुई है। और 'योगसार' नाम से भी उल्लेखित किया है । मूल योगशास्त्र मुख्यत. दो विभागो में विभक्त है, जिनमें ग्रन्यकार के लिये यहाँ 'विद्विशिष्ट' विशेषण का प्रयोग से प्रथम विभाग मे मादि के चार प्रकाश है और द्वितीय किया गया है और टोका को अपने तथा अन्य योगियों के विभाग शेष पांच से बारह तक पाठ प्रकाशो को लिये हुए लिये 'ज्ञानविदे प्रशिष्टा' लिखा है और साथ ही अपने है। प्रा. हेमचन्द्र का स्वोपज्ञ विवरण प्रायः प्रयम विभाग Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र पर एक प्राचीन दिगम्बर-टीका १०६ के ऊपर है, द्वितीय विभाग के ऊपर जो कुछ है उसे प्रायः द्वितीय विभाग के पाठो प्रकाशों पर हो मुख्यत. प्रस्तुत नाम मात्र का विवरण कहना चाहिए-जगह जगह टीका लिखी गई है, जिससे मालूम होता है कि जिन इलोस्पष्टः, स्पष्टी, स्पष्टाः प्रादि लिखकर उसकी स्थान पूति को को स्पष्ट' कहकर छोड़ दिया गया है उनमे विवरण की गई है। शायद इसी से योगशास्त्र की प. हीरालाल के योग्य कितना तत्व भरा हया है । द्वितीय विभाग के श्रावक कृत जो गुजराती टीका (भाषातर) सन् १८६६ माठो प्रकाश टीका में क्रमश द्वितीय अधिकार से प्रारम्भ मे प्रकाशित हई थी उसकी प्रस्तावना मे शा० भाण जी होते है. योगशास्त्र विवरण और टोका मे परस्पर पद्यो का पाथा ने यह साफ लिख दिया है कि कुछ अन्तर भी पाया जाता है --कुछ पद्य एक दूसरे मे तेमा बारा प्रकाशो छ; तेमाना पहेला चार प्रका कमतो-बढती उपलब्ध होते है----मनेकानेक पाठ भेद भी शोन तेमणे विवरण कय छ, भने बाकोना पाठ प्रकाशो पाये जाते है, जिनका कुछ परिचय पागे चलकर दिया नुं क नयी। जायगा । यहाँ सबसे पहले टीका के प्रथम प्रधिकार गत इसमे ग्रन्थ के १२ प्रकागों में से प्रथम चार प्रकाशो मूल पद्यों पर विचार किया जाना ग्रावश्यक है। इस का ग्रन्थकार ने विवरण किया है बाको पाठ प्रकाशो का प्रधिकार में मूल योगशास्त्र के ५.८ पद्यो का उल्लेख है, अधिकार में प्रल गोगा ७.: ततो विवरण नहीं किया, ऐसी स्पष्ट सूचना की गई है । यदि जिनमें मे पहला पद्य टीका-महिन इस प्रकार है:यह ठीक है तब आठ प्रकाशों पर जो कही कही कुछ परमात्मा जिन सर्वदेह व्याप्य निरजनः । विवरण पाया जाता है वह किंगका किया हुप्रा है ? यह सर्वत्र सर्वगः शुदः बुद्धो वसति नित्यशः ॥१॥ एक नया प्रश्न पैदा होता है। टोका-प्रथादो मगलार्थ प्रथम इम पदं कथ्यते प्रथम विभाग के तीन प्रकाशो पर जो विवरण है यदक, प्रादौ मध्ये वम ने च मगल भाषित बुध.। उसमे अनेक लम्बी लम्बी कथाएं. कथानक तथा चरित्र तजिनेन्द्र गुगास्तोत्र तद्विघ्नप्रशान्तये ॥१॥ दिये है. जिनके नाम इस प्रकार है१.महावीर चरित, २-सनत्कुमार चरित, ३-भरत अत्र नमस्कारार्थ जिनेन्द्रस्तुनिविधीयने । जिन पतंत्र चक्रिकथा, ४-प्रादिनाथ चरित, ५-मरुदेवी दृष्टान्त, वमति । इति म चराचर लोक्ये वमति । कि कृत्वा सर्वदेह ६-दृढ प्रहारि कथा, -चिलानिपुत्र कथा, -सुभूम-ब्रह्म व्याप्य मर्व च ततदेह सकलशरीर चाभिगम्य वमति । कि विशिट ? परमात्मा परमश्चामावात्मा परमात्मा प्रकृष्टादत्त कथा, ६-काल सौकरिक पुत्रकथा, १०-कालिकार्य वसुगज कथा, ११-१४ कौशिक-गैहिनेय-रावण मुदर्शन त्मेति । कथ वसनि ? नित्यश सर्वदेव । पुन. कथं भून । सवंगः सर्व गच्छति जानात्येव मग । ज्ञानन कृत्वा मवं की कथाए १५-१८ सगर कुचिकणं-तिलक-नन्द के कथानक, बजति इति वा । शुद्ध. निमल. कर्मकलकजिन । बुद्ध. १६.अभयकुमार कथा, २०-चन्द्रावतम कथा, २१-चुलिनी बुध्यते स्म बुद्ध कान्य वेदोनि । पुन कथ भून ? निरंजन. पितु कथा, २२-२४ मगमक-स्थूलभद्र-कामदेव की कथाए. पौर प्रानन्द श्रावक की कथा । निर्गतमजन यस्मात् निरजन कलिमल र हित इनि। १॥ इन सब कथा कथानकी के चित्रण मे, जिनमें से इससे प्रकट है कि यह पद्य, जिनेन्द्र-गुणस्तुति को अधिकाश का योग विषय के माथ कोई सम्बन्ध भी नहीं लिये हा मूल ग्रन्थ के मगलाचरण प मे उल्लिखित हुमा है पोर न योगशास्त्र में जिनको प्रस्तुत ढग से उदाह है। इसके बाद "प्रथोत्पनिमाह" हम प्रस्तावना वाक्य के करके रखना उपयुश्त तथा प्रावश्यक मालम होता है, जिम माथ दूसरा पद्य टीका-सहिन इस प्रकार है ममय और शक्ति का व्यय हा है वे दोनो यथेष्ट मात्रा मे प्रादो तस्योत्पत्तिश्चाऽत्र कथ्यते सा सविस्तरा। पवशिष्ट नहीं रहे और इमलिए कुछ परस्थितियो के वश पश्चात्तस्य मया मभ्यग लक्षण परमात्मनः ।।२।। द्वितीय विभाग के पाठो प्रकागो को प्राय विना विवरण टाका-पादो प्रथम तस्य परमनिरजनस्य मदा के ही समाप्त कर देना पडा, ऐसा जान पड़ता है । अस्तु, चिदानन्दरूपस्य परमात्मन उपनिरुद्भव कथ्यन उच्यते Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त मा उत्पत्तिः सविस्तरा कथ्यते । पश्चात्तस्य परमात्मनो उसे योगशास्त्र-टीका का मादिम-मधिकार बतलाया है। मया सम्यक सम्यक्तया मासारिकत्वापेक्षया कथयित्वा इस अधिकार के परे ५८ पद्य योगशास्त्र के उक्त निरंजनेनोच्यते कथ्यते ॥२॥ स्वोपज्ञ विवरण में नहीं पाए जाते; तब यह प्रश्न पैदा इम पद्य मे मगलाचरण-गत परमात्मा की शरीर से होता है कि ये पद्य टीका में कहाँ से प्राए? जो टीकाकार उत्पत्ति को विस्तार के साथ कथन करने की प्रतिज्ञा की योगशास्त्र की टीका लिखने की प्रतिज्ञा करे और उस गई है और उसके बाद परमात्मा का सम्यक् लक्षण बतलाने प्रतिज्ञा के अनन्तर ही एक पूरा प्रकरण किसी दूसरे ग्रन्थ की बात कही गई है। तदन्तर "प्रथोत्पत्ति दर्शयन् गर्भ- मे उठाकर रखे तथा मन्धि-वाक्य मे भी उसे योगशास्त्र स्थानस्वरूपमाह" इस प्रतिज्ञावाक्य के माथ मूल का का अंश मूचित करे, यह बात कुछ जी को लगती मालूम तीसग पद्य दिया है, जो टोका-सहित निम्न प्रकार है:- नही होती-खासकर ऐसी हालत में जब कि टीकाकार स्त्रियो नाभेरषोऽधश्च हूँ शिरे नालवत्ततः। मूलकार के प्रति बहुमान का भाव रखता है। टीकाकार कोशवद्योनिराम्रस्य मंजरीवास्ति पेशिका ॥३॥ ने हेमचन्द्राचार्य को एक जगह (प० ३) 'विद्वद्विशिष्ट' टीका-स्त्रियो नार्याः नाभेरध द्वे शिरे स्त शिरा द्वय- (विद्वानो में श्रेष्ठ) लिखा है और दूसरी जगह द्वितीय मस्ति पद्मकोशवत् पद्मनाल इव । ततस्तस्मादधः कोशव अधिकार में पचम प्रकाश के 'पृथ्वीबीजसंपूर्ण' इत्यादि ४३वें द्योनिरस्ति । कोश इव योनिगं त्वत्त्याशयः वर्तते। (५८) पद्य की टीका मे-'हेमचन्द्राचार्य के पृथ्वीबीज ततोऽप्यध. अाम्रस्य चूतवृक्षस्य मजरीव पेशिका मास- 'क्ष' का समर्थन करते हुए, उन्हे 'परमयोगीश्वर' बतलाया ग्रन्धिरस्ति इति ॥३॥ है, जैसा कि टीका के निम्न अंश से प्रकट है:इसमे गर्भोत्पनि स्थान की शिरायो तथा प्राकारादिक "पृथ्वीबीजं क्षंकारं तेन बीजेन संपूर्ण सम्यक पूर्णीकृतं । का उल्लेख करते हुए उत्पत्तिकम के कयन को प्रारम्भ केचनाचार्या लंकारं वदन्तीति । षडावयत्सांभभोरामार्गता किया गया है और फिर "तम्मान कि जायते" इत्यादि प्राराधकेन लामावि क्षात्यामक्षरमूर्त्या विलसन्ति इति प्रस्तावनावापों के माथ मूल के अगले चतुर्थादि पद्यो को वचनात तेन हेतुना परमयोगीश्वरेण हेमचन्द्राचार्येण देकर उनकी टीका दी गई है, जिन सबमें शरीर से पर. कारं बीज इष्टं।" मात्मा की उत्पनि का कथन है। अन्त में उपमहारात्मक ऐसी स्थिति मे बहुत सभव है कि योगशास्त्र की जो ५८वा पद्य दिया है, जो इस प्रकार है: पहली प्रति लिखकर तैयार हुई हो उसके प्रथम प्रकाश मे शरीरमित्थं कथितं ममासतः योगस्य समाधनहेतवे च यत। उक्त प्रकरण हो, उस प्रति पर से होने वाली कुछ प्रतियाँ तदूह्या(?)मवं पवनस्य वश्यतां विधाय सद्योगिवरा स्वसिद्धये। बाहर चली गई हों और उन्ही में से कोई प्रति टीकाकार इस पद्य पर टीका नहीं। इसका प्रागय इतना ही को प्राप्त हुई हो। बाद को विवरण लिखने प्रादि के समय जान पडता है कि जो शरीर योग के ससाधन का हेतु है हेमचन्द्राचार्य ने स्वेच्छा से अथवा किसी की प्रेरणा पाकर उमे सक्षेप में इस प्रकार बतलाया गया है, इस प्रकार के उक्त प्रकरण को योगशास्त्र जैसे ग्रन्थ के लिए अनुपयुक्त शरीर को लेकर पवन को स्वाधीन करने का विधान कर समझते हुए निकाल दिया हो। कुछ भी हो, यह विषय सद् योगिवर अपनी सिद्धि के लिये प्रवृत्त होते हैं। विद्वानो के लिए अनुमधान के योग्य है और इसकी मच्छी इस पद्य के अनन्तर अधिकार को समाप्त करते हुए खोज होनी चाहिए, जिससे वस्तुस्थिति का ठीक पता जो सन्धिवाक्य दिया है वह इस प्रकार है: चल सके। ___ "भट्टारक श्री इन्द्र नन्दिविरचितायां योगशास्त्र- इस प्रकरण के प्रारम्भिक २-३ पद्यो को अन्तिम पद्य टीकायां गर्भोत्पत्याविनामाविमोधिकारः ॥१॥" सहित प० सुबोधचन्द्र जी के पास बम्बई भेजकर मैने यह इसमें अधिकार का नाम 'गभोत्पत्त्यादि' दिया है, जो मालूम करना चाहा था कि क्या हेमचन्द्राचार्य के किसी परमात्मा की गर्भ से उत्पत्ति मादि का सूचक है मोर ग्रन्थ मे ये पद्य पाये जाते है। उत्तर मे उन्होने लिखा था Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र पर एक प्राचीन दिगम्बर टोका कि 'गर्भोत्पत्त्यादिविषयक उल्लिखित श्लोक कही नहीं मिले परन्तु आगम मे जो पाठ है उसे लिखकर साथ मे भेजा है यदि इस पाठ की आवश्यकता हो तो लिखे। तो पूरा लिखकर भिजवाऊंगा । श्रागम का जो पाठ उन्होंने लिख कर भेजा वह दो गाथाम्रो के रूप में टीका सहित इस प्रकार है - थाहाराधिकारे किञ्चिद् गर्भादिस्वरूपमाहइत्योए नाभिहिट्ठा सिरादुर्ग पुप्फनालियागार । तरस य हिट्ठा जोणी घहोमूहा सठिया कोसा ॥६॥ हे श्रायुष्मन् ! हे गौतम स्त्रिया नाय नाभेधोभागे पुष्पालिकाकारं सुमनोवृन्तसदृश शिराद्विक धर्मनियुग्म वर्तते, च पुनस्तस्य गिराद्विकस्याधो योनि स्मरकूपि - का संस्थिताऽस्ति । किंभूना ? अधोमुखा । पुन किभूता ? (कोस ति) कोना लहानकाकारेत्यर्थ ॥६॥ तस्स य हिट्ठा चूयस्स मंजरी तारिसाउ मंसस्स । तंरिकाले कुडिया सोविया विमोयन्ति ॥ ॥ ( तस्स य ) तस्याश्च योनेरधोऽधोभागे चूतस्या म्रस्य यादृश्यों मर्यो बल्लयों भवन्ति तादृश्यों मासस्य पतनस्य मञ्जर्यो भवन्ति, ता मञ्जर्यो मासान्ते स्त्रीणा यदजस्रम दिन स्रवति तद्कालीन तस्मिन स्फुटिता प्रफुल्ला मत्य. शोणितलवकान् रुधिर बिन्दून् विमुञ्चन्ति स्रवन्ति । 'सप्ताहं विन्द्यान् ततः सप्ताहमदम् । दाज्जायते पेसी पेसीतोऽवि घनं भवेत् ॥ १॥ उक्त दोनो गाथाएं (६-१०) कौन से प्रागम ग्रन्थ की है, यह कुछ मालूम नहीं हो सका; परन्तु वे जिस श्वे ० श्रागम ग्रन्थ की भी है उसके श्राहाराविकार से सम्बन्ध रखती है प्रोर उनमे जिस विषय का उल्लेख है वह योगशास्त्र की टीका के प्रथम अधिकार मे दिये हुए उक्त पद्य न० ३ के विषय में बिल्कुल मिलता जुलता है और इमलिए मैंने प्रागम के उस मारे कथन को टीका सहित उद्धृत करके क्षेत्र देने को लिख दिया था, परन्तु पं० वाचन्द जी अपनी कुछ परिस्थितियों के वश प्रभी तक उसे भेज नहीं पाए इसे धागे का तुलना कार्य नहीं हो सका हो सकता है उक्त प्रागम की गाथाम्रों के विषय को लेकर प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा 'गर्भोत्पत्यादि' नाम के उस प्रकरण को मकलित किया गया हो जो योगशास्त्र की टीका में प्रथम अधिकार रूप से पाया जाता है, यह भी मनुसन्धान तथा खोज का विषय है । १११ अब मैं द्वितीय विभाग के चारों प्रकाशों को लेता है, जो टीका में क्रमशः द्वितीयादि अधिकारों के अन्तर्गत है। और मोटे रूप से यह दिखलाना चाहता है कि उनमें परस्पर पद्यों की क्या कुछ कमी-बेशी पाई जाती है । (१) टीका के तृतीय अधिकार में योगशास्त्र के छ प्रकाश के छह पद्य है, जबकि विवरण मे उसकी सख्या आठ दी है। निम्न दो पद्य टीका में ग्रहीत नही है - जित्वापि पवनं नानाकरण: क्लेशकारः । नाइ प्रचारमायत्त विषायापि वपुर्गतम् ॥२॥ पूरणे कुम्भने पंय रेचने च परिभ्रमः । सिक्लेशकरणा मुक्तः प्रत्कारणम् ॥५॥ हो सकता है कि ये दोनों पद्य विवरण के समय ग्रन्थ मे नये प्रवृष्ट किये गए हो अथवा अपने अपने पूर्ववर्ती पद्य के साथ 'प्रान्तर' श्लोक के रूप मे हो और इन पर गलती से नम्बर पड गये हों। इन पर तथा इनके पूर्ववर्ती पद्यों पर भी कोई विवरण नहीं है। चौथे पद्य को देखते हुए विवरण में यह प्रस्तावना-वाक्य दिया है- "प्राणाया मस्त कश्चिदाश्रितो ध्यान-सिद्धये इति यदुक्तं तत् श्लोकद्वयेन् प्रतिक्षिपति ।" श्रौर इसके बाद चौया पद्य निम्न प्रकार से किया है सम्माप्नोति मनः स्वास्थ्यं प्राणायामः करचितम् प्राणास्यायमने पीडा तस्यां स्याश्चिसविप्लवः ॥ ॥ इस पद्य के स्थान पर जो पद्य टीका में पाया जाता है का रूप इस प्रकार है प्राणायामस्ततो [तः] कंचिदति मोमि नाप्नोति मनः स्वास्थ्यं प्राणायामः कदर्पितम् ॥ ॥ - 1 (२) टीका के चौथे अधिकार में योगशास्त्र का मा तव प्रकाश पूरे २८ पद्यो को लिए हुए है। विवरण में उन पद्यो का प्रायः कोई अर्थ नही दिया, जब कि टीका में अच्छा प्रथं यत्र-मंत्रादि के साथ दिया हुआ है। (३) टीका के अधिकार में योगशास्त्र का पाठव प्रकाश है, जिसके विवरण में पद्य सरूपा ८१ दी है, जो ८० जान पड़ती है; क्योंकि निम्न 'उक्त च' श्लोक पर मी Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त गलती मे नम्बर ७६ पड़ गया है। जब कि वह नही पड़ना (६) टीका के माठवें अधिकार में योगशास्त्र का, चाहिए था ११वा प्रकाश है, जिसकी पद्य सख्या ६० है, विवरण में वीतरागो भवेद्योगी यत्किचदपि चिन्तयेत् । यह ६१ दी है। कुछ पद्यो में यवाह' प्रादि श्लोकों की तदेव ध्यानमाम्नातमतोऽन्यद ग्रन्थविस्तरा ॥७॥ दृष्टि से कुछ अन्तर भी है; जैसे पत्ते न खलु स्वास्थ्य' टीका में इस प्रकाश के पद्यो की सख्या ८६ दी है, नाम के तीसरे पद्य के नीचे 'स्पष्टम' पद के बाद जो 'यदाह' इस वृद्धि के साथ दोनों में परस्पर कुछ पद्यों की न्यूना- कहकर 'छिन्ने भिन्ने हते दग्धे' प्रादि दो पद्य दिये हैं उन्हें धिकता भी पाई जाती है, जैसे कि विवरण के निम्न तीन टीका में मनरूप से ग्रहण किया है। पद्य टीका में नही है - (७) टीका के हवे अधिकार मे योगशास्त्र का १२वा तदेव च क्रमात्सूक्ष्मं ध्यायेद बालाग्रसन्निभम, (२६) प्रकाश है, जिसकी पद्य संख्या विवरण मे ५५ दी है, टीका प्रच्यावमानसहनक्ष्यादलक्ष्य दधतः स्थिरम् ( ७) मे वह ४७ हो रही है, जिसका कारण कुछ पद्यो पर दोएव च मत्रविद्यानां वर्णेष च पदेषु च (८० बारा पूर्व के नम्बर पड़ जाना है । विवरण का निम्न पद्य ___ इममे टीका मे अन्य १२ पद्यों की वृद्धि समझनी टीका में नहीं पाया जाना जो 'गुरुमेव स्तोति' वाक्य के चाहिए, जिन्हें तुलना करके मालूम करने की जरूरत है। साथ दिया है.कुछ महत्व के पाठमेद भी है जैसे पापभक्षिणी विद्या के यद्वत्सहस्त्रकिरणः प्रकाशको निचिततिमिरमग्नस्य । मत्र मे 'क्ष' के प्रागे तथा 'क्षी' के पूर्व क्षे अक्षर की वृद्धि य(त)द्वद्गुरुरत्र भवेदज्ञानध्वान्त-पतितस्य ॥१६॥ है और 'ज्ञानवद्भिः ममाम्नातं वज्र वाम्यादिभिः स्फुटम्' वाक्य में प्रयुक्त 'वज्रस्वाम्यादिभिः' पद के स्थान पर हो सकता है कि यह पद्य विवरण के समय बढाया 'वनस्वाहादिभिः' पद टीका म दिया है और उसका अर्थभी गया हो अथवा टीका मे छूट गया हो। 'वनरेग्यास्वाहादिः येषां तेः ते तैः स्फुटं प्रकटक ज्ञानवर्वादः (८) शेष रहा टीका का दूसरा अधिकार, यह योगसमाम्नातः समाराध्यः' ऐसा दिया है। इस अधिकार में शास्त्र के पांचवे प्रकाश को प्रात्मसात् किए हुए है, जो यत्र भी दिये है, जो विवरण मे नही है और कुछ मत्र भी पद्य संख्या की दृष्टि से ग्रन्थ का सबसे बड़ा प्रकाश है । अधिक दिये है। पूरी तरह तुलना करने की जरूरत है, विवरण मे इसके पद्यों की संख्या २७३ दी है जब कि टीका जिसके लिए अवकाश नहीं मिल सका। में वह ३२४ के लगभग पाई जाती है । दोनों में मूल पद्यों का जो परस्पर अन्तर पाया जाता है उसका स्थूल रूप से (४) टीका के छठे अधिकार मे नवमा प्रकाश है, सक्षिप्त सार इस प्रकार है:जिसके १५ पद्य है; जब कि विवरण मे पद्य संख्या १६ टीका में निम्न पद्य को पचम प्रकाश का प्रथम पद्य दो है, जिसका कारण निम्न 'उक्त च' पद्य पर १४वाँ निर्दिष्ट किया हैनम्बर पड़ जाना है - येन येन हि भावेन युज्यते यंत्रवाहकः । प्रथात्मसिद्धिमानेतुं मनो वशे विधीयते । तेन तन्मयतां याति विश्वरूपो मणियथा ॥१४॥ तन्मनः पवनाधीनमभ्यस्ता मारुतं ततः ॥१॥ विवरणो मे मूल पद्यों का कोई अर्थ नहीं; जबकि इसमें प्रात्मसिद्धि के लिये मन को वश में करने आदि टीका मे वह पाया जाता है। की जो बात कही गई है उसका सम्बन्ध प्रथम अधिकार (५) टीका के सातवे अधिकार में योगशास्त्र का के अन्तिम (५८वे) पद्य मे प्रयुक्त 'पवनस्य वश्यता १०वा प्रकाश है। विवरण में इस प्रकाश के २४ मूल पद्य विषाय सद्योगिवरा: स्वसिद्धये वाक्य के साथ जुड़ता है। दिये है, जबकि टीका में उनकी संख्या ६१ दी है । विवरण यह पद्य जिसके प्रारम्भ में 'प्रथ' शब्द मंगल का भी मे नवमादि पद्यों के अनन्तर जिन्हे 'पान्तर श्लोक' लिखा वाचक है । विवरण मे नही है । विवरण में इस प्रकाश है वे टीका मे प्राय. मूल पद्यो के रूप मे पाये जाते है। का पहला पद्य है: Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ प्राणायामस्तत: कश्चिदाधितो ध्यानसिद्धये। नाऽनिले जित्वा, न ज्ञात्वा च विशेष हि, प्राणायामेन युक्तंन, शक्यो नेतरथा कर्तु मनःपत्रननिर्जयः ॥१॥ हिक्का श्वासश्च काशश्च, यषा सिंहो गजो व्याघ्रः, पुस्तं इस पद्य को देते हुए, विवरण मे प्राणायाम को दूसरों युक्तं चिवेद्वायुं, नामके छह पद्य अपनी अपनी टीका के साथ द्वारा योग के पाठ अंगों में निर्दिष्ट किया है ऐसा दिखला- दिये है। इनके बाद विवरण के ५ से ७ नम्बर वाले तीन कर लिखा है: पद्य है जिनके नम्बर टीका में १५ से १७ दिये हैं, एक ___ "न च प्राणायामो मुक्तिसाधने घ्याने उपयोगी, नम्बर की कमी चली जाती है । विवरण के समाकृष्य प्रसौमनस्यकारित्वात् तथापि कायारोग्य कालज्ञानादौ स यदापानात्' नामक पद्य न० ७ के मनन्तर टीका में जो उपयोगोत्यस्माभिरपोहोपदयते।" एक अतिरिक्त पद्य न० १८ पर दिया है वह इस प्रकार अर्थात्-यद्यपि प्राणायाम मुक्ति के साधन रूप ध्यान है.मे प्रसौमनस्यकारी होने से उपयोगी नही है तथापि शरीर प्रपानेन च लिगेन बहितिं तु मातम् । के प्रारोग्य और कालज्ञानादि में उपयोगी है, इसलिए पूरित्वोवरमारुध्य मुक्तस्तेनापि रेचकः ॥१॥ वह हमारे द्वारा यहा प्रदर्शित किया जाता है। इसके बाद टीका में १६ से ७६ नम्बर तक प्राय: वे ___ यह पद्य टीका में दूसरे नम्बर पर है और इसके बाद सब पद्य है जो विवरण में न०८ से ६४ तक पाये जाते टीका में निम्न दो पद्य 'युग्म' रूप में और दिये है, जो है। विवरणस्थित १२से पद्य के बाद टीका में २४वा जो विवरण में नही है - अतिरिक्त पद्य दिया है उसका रूप हैक्षाराम्लाहारवर्जेन क्षीरभोजनमेव च । "अहो नास्तीवृशं लोके प्राणायामाच्च केवलात् । मिष्टाहार मिताहारं कृत्वा ब्रहन च स (द ) व्रतम् ।।३।। __ प्राणवायुर्जयेत्कृत्स्नान गेगान्न देहसंभवान् ॥" कोधादिचतुष्क्स्य जय त्यक्तपरिग्रहम । तदन्तर युद्धादि प्रश्नो को लेकर टीका में पद्य न. सुखासमं स्थितो योगी प्राणायामं करोति च ॥४॥युग्मं । ८० मे १२५ तक जो ४६ पद्य टीका सहित दिये है वे इनकी टीका के अनन्तर 'किमर्थ करोत्याशक्याह' विवरण मे ६४वे पद्य के अनन्तर नहीं पाये जाते । विवरण इम वाक्य के साथ पाचवा पद्य (टीका सहित) निम्न मे 'वामा शस्तोदय पक्षे' (६५) से लेकर 'रोहिणी प्रकार दिया है: शशिभूल्लक्ष्म' (१३६) तक जो पद्य है वे टीका में प्राय प्राणायाम विना ध्यान न सिद्धयति कदाचन । १२६ से १६२ नम्बर तक पाये जाते है-कहीं कही कुछ मनःपवनमाजेतुं न शक्यते नरैरपि ॥५॥ अन्तर भी है । नम्बर १६२ के बाद टीका मे दो पद्य ये तीनो पद्य विवरण मे नही है। विवरण में जो मूलरूप में निम्न प्रकार दिये है, जो विववण में 'लौकिका 'मनो यत्र महत्तत्र' ग्रादि तीन पद्य नं०२ से ४ दिये प्रप्याहूः' इस वाक्य के साथ उधन हैहै वे टीका में न०६ मे ८ तक है-६ नबर दो पद्यो पर अरुन्धती ध्र व चव विष्णोस्त्रीणि पदानि च । पड जाने से याटि से न० ७ तक है। उनके बाद टीका क्षीणायको न पश्यन्ति चतुर्थ मातृमण्डलम् ॥१८॥ में 'स त्रिधा कथ कार्य इत्याशक्य दर्शयितुमाहायंया' इस अरु धती भवेजिह्वा ध्र व मासाप्रमुच्यते । वाक्य के साथ निम्न पद्य आर्या छन्द में दिया है, जो तीन वारा विष्णुपद प्रोक्त भ्र वो स्यात्मातमण्डलम् ॥१६४।। प्रकार का प्राणायाम कैसे किया जाय । इसे अक्षर-मस्या इनकी टीका न देकर 'एतद्वय सुगम' लिख दिया है। से निर्दिष्ट करता है: विवरण में 'स्वप्ने स्व भक्ष्यमाणं' (१३७) से लेकर स्वरः पूर्यो वायः प्रथममीडया कंभकमिति । 'पृच्छायाः समय लग्ना'-(२०२) तक जो मूल पद्य है चतुःषष्ठया, रेच्यास्तवन रवान पिगला ॥८(९) वे टीका में प्रायः पदय नं० १६५ से २७३ के अन्तर्गत है। इमकी टीका के अनन्तर 'एव सामान्यः प्राणायामो- कहीं कही कुछ पद्य छटे है; जैसे 'वक्षाप्रे कुत्रचित्पश्येत्' ऽतो विशेषप्राणायाममाह" इस वाक्य के माथ सामान्य- (१३६) प्रष्टोतरसहस्त्रस्य जायात् (१७५) मनातुरहते Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ अनेकान्त ह्येतत् (१८२) ये पद्य टीका में नहीं है । टीका में विवरण मालुम नही) चौलुक्य नृपति (कुमारपाल) की प्रार्थना से के 'प्रथवा शकुना द्विधात' नामक पद्य न० १७७ से पहले प्रेरित होकर लिया गया है, यह बात स्वोपज्ञवत्ति (विव'यदुक्तं' रूप मे ६ पद्य दिये है, पश्चात् 'अथ यत्रमाह' रण) के निम्न पदय से जानी जाती हैवाक्य के साथ बहुत से पद्य यंत्र-मत्रादि के साथ दिये है, श्री चौलुक्यक्षितिपतिकृतप्रार्थनाप्रेरितोऽहं, तदनन्तर उक्त पद्य न० १७७ को लिया है । इसी तरह तत्त्वज्ञानामृतजलनिधोगशास्त्रस्य वृत्तिम् । विवरण में स्थित 'लग्नस्थश्चोच्छशीसौरि'-(२०३) से स्वोपज्ञस्य व्यरचयमिमां तावदेषा च नन्द्याद्, 'एबमाध्यात्मिक काल' (२२४) नाम के पद्य भी टीका यावज्जनप्रवचनवती भवःस्वस्त्रयीयम् ।। में ग्रहोत नही है। इसके बाद 'को ज्येष्यति द्वर्योयुद्ध द्वितीय अधिकार की समाप्ति पर जो निम्न सन्धि(२२५) से लेकर 'क्रमेणवं परपुर: प्रवेशाभ्यासशक्तितः' वाक्य टीका में दिया है उममे स्पष्ट घोषणा की गई है कि (२७३) तक के पद्य टीका में पद्म न. २७४ से ३२४ यह अधिकार योगशास्त्र की टीका में उसके पांचवे प्रकाश के अन्तर्गत है-कुछ पद्य नहीं भी है, जैसे 'अग्रे वाम. की अमरकीति भट्टारक के शिष्य इन्द्र नन्दि भट्रारक विरविभाग' (२५३), 'लाभाऽलामो सुख दुःख' (२५४) चिन टीका के रूप में है:नाम के पद्य टीका मे नही है । इति योगशास्त्रस्य पचम प्रकाशस्य श्रीमदमरकोतिइस तरह पचम प्रकाश के विवरण और टीका दोनो भट्टारकाणां शिष्य श्री भट्रारकइन्द्रनन्दिविरशितायां मे परस्पर योगशास्त्र के मूलपद्यों की कमी-वेशी प्रादि योगशास्त्रस्य टीकायां द्वितीयोधिकारः ॥ के रूप में कितना ही अन्तर पाया जाता है । यह सब पदयो के उक्त अन्तर के अतिरिक्त प्राठो प्रकाशो मे अन्तर कब कैसे तथा किसके द्वारा घटित हुमा, एक अनु- विवरण गत तथा टीकागन मूल इलोको मे परस्पर पाठासधान का विषय है, जिसका पता उन प्रति प्राचीन प्रतियों न्तर भी बहत पाये जाते है, जिनमें कुछ साधारण और तथा उनपर से होनेवाली दूसरी प्रतियो से चलाया जा कुछ विशेष महत्व के है, उन सब की सूची बनाना समयमकता है जो स्वोपज्ञवृत्ति रूप विवरण के लिखे जाने से साध्य है और इसलिये उसको यहाँ छोडा जाता है; फिर पूर्व प्रचार मे आई हों । विवरण मूल ग्रन्थ के साथ साथ भी नमूने के तौर पर कुछ पाठान्तर यहाँ पंचम प्रकाश के नहीं लिखा गया, बल्कि बाद को (कितने वर्ष बाद यह और दिग्बलाये जाते है - विवरणगत पाठ पद्य नं० सहित टीकागत पाठ पद्य नबर सहित २१ प्राणापानसमोदानध्यानेष्वेषु वायषु । ६ प्राणापान...... रौ लौ बीजानिध्यातव्यानि यथाश्रमम् ॥ ऐंद्रोबंरों ला बीजानि धातव्यानि यथाक्रमम २८ पाणों गुल्फे च जघायां ४३ पाणी गुल्फे जघयोश्चा ६८ उदेति पवनः पूर्व शशिन्येष यह ततः १२६ उवेति पक्षे विनारम्भे यत्नेन शशिनस्तथा ८६ प्रथेदानी प्रवक्ष्यामि १४५ अधुना प्रविवक्ष्यामि ११८ प्राध्यात्मिविपर्यासः, संभवेद १७३ प्राध्यात्मिकविपर्यासः, सभवेद व्याधितोपितन्निश्चयाय, कालस्य लक्षणम् त्याहितोपि, तत्त्वैश्वर्याय, कालस्य निर्णयम् १२७ षडाविषोडशविनान्यान्तराण्यपि शोषयेत् १८३ षडादिषोडशान्तानामग्निधोष शृणोति न । १८१ अनुपूर्णहशोगावो २५२ अशुभघूर्णदृशो गावो Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब मै ऐमे मून पद्यो की टीका के कुछ नमूने और नमस्कारादि प्रोमित्य (त्येका) क्षरा मंत्र प्रहमिति दयदिखला देना चाहता है जिनपर विवरण नहीं है जिन्हे क्षगे मंत्र इत्यादि परिशदक्षरो नमस्कारादीनां स्मृति विवरण में 'स्पष्ट' कहकर छोड़ दिया है अथवा नाम कराताति पदस्थ । प्रातमादिकावयवध्यान करोतीति पदस्थ । प्रतिमादिकावयवध्यान करोतीति मात्र का साधारण विवरण है - रूपस्पं । रूपातीतं निरजनमिति । उपतापमसंप्राप्तः शीतवातातपादिभिः। पाविवो स्यावाग्नेयी मारुती वाणी तथा। पिपासुरमरीकारि योगामृतरसायनम:। तत्र (स्व) भूः पंचमी चेति पिणस्ये पाधारणाः। ॥ टीका-शीतवातातपादिभि. शीतश्च बातश्च पात टीका--पथिव्या भवा धारणा पारिवी । प्रथानन्तरपश्च शीतवातातपा ते पादौ येषा ते गीतवातातपादयः माग्नेमो प्रग्नो भवाग्नेयी। वायोर्भवा वायवी वरुणे भवा पादिशब्दात् दशमशक-तषारोगादयस्तरुपताप कष्ट वारुणी । तत्वभू तत्त्वे भवतीति तत्वभूरिति कपभूता सप्त. प्रसज्ञाप्नाऽवेदिता पिपासु पीतु मत्म पीनाभिलाषी प्रमग धानुहित निष्कलंक निर्मल चन्द्रबिम्बसदश उज्वलकाति इत्यादि अमरं करोतीत्यमराकानि । एवविध योगामत सर्वज्ञमदशमात्मान स्मरेदिति । बहुलतेजः पुजैश्च दलितरसायन योग एवामृतं योगामृत तदेव रसायन योगामृत- तमोभरं मिहामनाहट देवदानव गणधरगंधर्वसिदवारणरसायन अनन्तकालजीवितकर योगामन मापन पीतमूसक मनिप्रभृतिभि मेक्तिनरण अनेकातिशय शोभायमान इति भावः ॥३॥ विदलितकर्म महिम्ना निधान । रागादिभिरनाक्रान्त क्रोधादिभिरक्षिम । पानि शरीरे पुरुषाकारमात्मान स्मरेदित्येषा तत्त्वभूः प्रात्मारामं मनः कुर्वन्निर्लेपः सबंबस्नुष ॥७-४॥ पचमी धारणा झंया ॥६॥ विरत (क्तः) कामभोगेभ्य स्वशरीरेऽपि नि:म्पहः। टीका के इन नमुनो से विज्ञ पाठक टीका की प्रकृतिसवेगहवनिर्मग्नः (सवेबवनिमग्नः) सर्वत्र समता अपन् । स्थिति उमके महत्व एव उपयोग को भली प्रकार अनुभव में ला सकते है। इस प्रकार योगशास्त्र द्वितीय विभाग के टोका-योगी समता स्वर्ण-तण-भित्र-रत्न-दृषत्स्व. पाठो प्रकाशों के मैकडों पयो की ठीका को यह 'योगिरमा' पगदिष्वेकभावः समता श्रयेदाभजेत् । कथंभूत मन् रागा- टीका अपने मे प्राविर्भूत किये हुए है। और इसलिए इसकी दिभी राग-द्वप-मत्सरादिभिरनाक्रान्तो नाक्रान्तो न व्याप्त उपयोगिता कुछ कम मालूम नहीं होती। यह प्राचीन टीका इति । किविशिष्ट सर्वकर्ममुनिलेप मर्वव्यापारादिपु शीघ्र प्रकाश मे पाने के योग्य है। इससे योगशास्त्र के कर्मम् व्यतिरिक्त । कथभूतः ? कामभोगेभ्यः विरक्तो पाठान्तरो का भी कितना ही पता चलेगा और उससे विवक्त सन् स्वशरीरेऽपि नि:स्पृह. । अपि तु प्रात्मदेहेऽपि अनुसधान का विषय प्रशस्त बनेगा। स्पहाजितः। मवेदहनिमग्नः वेदै सह-सवेद तच्चहृन् इस टीका को कोई दुसरी प्रति अभी तक नहीं मिली। तस्मिन्नेव निमग्नः सवेदहृनिमग्न वेदा पंवेदादय वेद- हाल में जनसिद्धान्तभवन मारा, ऐल्लक पन्नालाल व्याप्तहदयेऽनिमग्न. । क्रोधादिभि. क्रोध-मान-माया-लोभा सरस्वती भवन व्यावर और महावीर भवन जयपुर आदि प्रादिशब्दात् प्रमादा अपि प्राह्मास्तरदूषित तेषां दोप- को खाम तौर से लिखकर तलाश कराई गई: परन्तु सब रहितमिति । एवंभूतं मनश्चित्त । पुन. कथभूत ? प्रान्मा- जगह से उनर नकारात्मक ही प्राप्त हुआ। दिगम्बर और राम मात्मन्यारमतीत्यात्माराम स्वरूपचिन्तनपर कुर्वन् । श्वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदायो के शास्त्र भण्डारों में इसकी सर्वत्र समभावमश्नीयादिति भाव ॥४,५॥ पौर प्रयत्न पूर्वक खोज होनी चाहिए। मुनि श्री पुण्यपिण्डस्थं च पदस्थ च रूपस्य रूपवजितम् । विजय जी को श्वेताम्बर शास्त्र भण्डारों का बहुत पता है, पातुर्षा ध्येयमाम्नातं ध्यानस्यालम्भनं वर्षः॥॥ उन्हे कृपया प्रकट करना चाहिए कि क्या उनके परिचय के (विवरण) पिण्ड शरीर तत्र तिष्ठतीति पिण्डस्थं प्यये। किसी भण्डार में यह टीका उपलब्ध है । जो सजन अपने ____टोका-पिण्डे शरीरे पार्थवप्रभतिकधारण करो- अनुसंधान के फल स्वरूप इस टीका की किसी दूसरी प्रति तीति । शरीरे यो (यद्) ध्यायेत् तपिंडस्पमिति ध्यान। का परिचय देगे वे मामार के पात्र होंगे। * Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृत पर इतर श्रावकाचारों का प्रभाव बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री ग्रन्थ-परिचय वन तथा मरण ममय मे सल्लेखना; इसे पं० पाशाधर ने पण्डितप्रवर श्री माशाधर विरचित सागारधर्मामत परिपूर्ण मागारधर्म बतलाया है (१-१२) । उन्होने श्रावकाचार सम्बन्धी एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसकी थावक के पाक्षिक, नैष्ठिक और माधक ये तीन भेद रचना उनके समय में वर्तमान ममस्त श्रावकाचार निर्दिष्ट किये है और तदनुसार ही उन्होने यहा मागे सम्बन्धी साहित्य के परिशीलनपूर्वक की गई है। प्रस्तुत थावकाचार का वर्णन भी किया है। अन्य पं. माशाधर विरचित 'धर्मामत' ग्रन्थ का उत्तगर्ध द्वितीय अध्याय में पाक्षिक श्रावक के प्राचार की है। इसके ऊपर स्वयं उन्हीं के द्वारा रची गई एक भव्य- प्रकपणा करते हुए सर्वप्रथम श्रावकधर्म के प्राधारभूत कुमुदचन्द्रिका नाम की उपयोगी टीका भी है, जो मा. ८ मूलगुणो का निर्देश किया है३ । तत्पश्चात् वर्णभेद को प्रन्थमाला द्वारा मूलग्रन्थ के साथ प्रकाशित हो चकी है। लक्ष्य मे रखकर यथायोग्य पूजाविधान, दानविधि व उसका इसके अतिरिक्त ज्ञानदीपिका नामकी एक पजिकार भी फल, यतिपरम्परा के स्थिर रखने की प्रेरणा, विशेष उनके द्वारा रची गई है। व्रतविधि और कीति-मर्जन; इत्यादि विषयो का विवेचन प्रस्तुत ग्रन्थ ८ अध्यायो मे विभक्त है। प्रथम अध्याय किया गया है। पाक्षिक श्रावक देशचारित्र को पक्ष-. भूमिका स्वरूप है। उसमे प्रथमतः गृहस्थों की अवस्था प्रतिज्ञा का विषय बना कर यथासम्भव उसके परिपालन का चित्रण करके सम्यक्त्व व मिथ्यात्व के प्रभाव को का प्रयत्न करता है। प्रगट करते हुए सम्यग्दृष्टियो के विरल होने से भद्र तृतीय अध्याय में नैष्ठिक-उक्त देशव्रत का निष्ठा मिथ्या धर्म में स्थित होकर भी समीचीन धर्म से द्वेष न पूर्वक परिपालन करने वाले-श्रावक के भेदभूत दर्शनिक करने वाले-पुरुषों को भी उपदेश के योग्य बतलाया है। आदि ग्यारह श्रावको में से प्रथम दर्शनिक की कतव्यनिर्मल सम्यक्त्व; निरतिचार अणुव्रत, गुणव्रत व शिक्षा विधिका विचार किया गया है। उसमे न्यायोचित माजीविका, अभक्ष्य भक्षण का त्याग, सात व्यसनों की १. यथा-प्रा. कुन्दकुन्द का चारित्रप्राभूत, उमास्वामी विरति और पत्नी को धर्माधिष्ठित करना; इत्यादि की का तत्वार्थसुत्र (म०७), स्वामी समन्तभद्र का चर्चा की गई है। उक्त दर्शनिक श्रावक के लक्षण में रत्नकरण्डक, प्रा. जिनसेन का महापुराण (पर्व ४०), . हरिभद्र सूरि की थावकप्रशप्ति, हेमचन्द्र सूरि का ३. इन मूलगुणो का निर्देश करते हुए प० पाशाधर ने योगशास्त्र, सोमदेव सूरि का उपासकाध्ययन, प्रा. मोमदेव सूरि का अनुसरण कर स्वमत से मद्य, मास, अमितगति का अमितगति-श्रावकाचार, अमृतचन्द्र मूरि मध और पाच उदुम्बर फलों के त्यागरूप पाठ का पुरुषार्थसिद्ध्युपाय मोर वमुनन्दी का वसुनन्दि- मूलगुणो को अपनाया है। साथ ही स्वामी समन्नश्रावकाचार मादि। भद्र सम्मत पाच अणुव्रतों के साथ मद्य-मास-मधु के २. इसका उल्लेख उन्होंने भव्य-कुमुदचन्द्रिका टीका को त्याग को और जिनसेन स्वामी के मतानुसार उक्त प्रारम्भ करते हुए निम्न श्लोक में किया है पाच उदुम्बर फलों के परित्याग के साथ मद्य, मांस समर्थनादि यन्नात्र व्यासभयात् क्वचित् । और द्यूतक्रीडा के परित्याग को पाठ मूलगुण कहा तज्ज्ञानदीपिकास्यतत्पञ्जिकायां विलोक्यताम् ॥ गया है। (देखिये श्लोक, २, २-३ व १८) Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारमममृत पर इतर बायकाचारों का प्रभाव उपयुक्त 'परमेष्ठिपर्दकधी विशेषण का स्पष्टीकरण करते हुए स्वोपज्ञ टीका में कहा गया है कि दर्शनिक श्रावक धापत्ति में घिर कर भी उनसे छुटकारा पाने के विचार से शामनदेवतादि की कभी भी आराधना नही करता है१ । चतुर्थ अध्याय में व्रतिक (द्वितीय) श्रावक की प्ररूपणा को प्रारम्भ करते हुए उसके लक्षण में कहा गया है कि जो सम्यग्दर्शन के साथ निर्मल माठ मूलगुणो और बारह उत्तरगुणो का परिपालन करता है उसे प्रतिकक कहा जाता है। यहा ग्रहिसाणुव्रत के वर्णन मे उसके प्रतिचारों का निर्देश करते हुए हिसा हसा का विस्तार पूर्वक विचार किया गया है ( ४,१५- ३८ ) । तत्पश्चात् सत्यव्रतचर्यात स्वदारसन्तोष और परिग्रहपरिमाण प्रणुव्रत की प्ररूपणा की गई है । - पाचवें अध्याय मे ७ शीलों-३ गुणव्रत र ४ शिक्षा तो का दर्शन किया गया है। यहा भोगोपभोगमा व्रत के प्रसग मे मद्य, माम व मधु तथा त्रसघात, बहुघात एव प्रमाद के विषयभूत पदार्थों के परित्याग के साथ ही प्रति जवृद्धि जनों के घाव से रकमों के भी प्राश्रय खरकर्मो के भी परित्याग का उपदेश दिया गया है। छठे अध्याय में उपर्युक्त व्रतिक श्रावक की दिनचर्या के वर्णन मे प्रथमतः प्रात कालीन अनुष्ठेय विधि का विवेचन करते हुए शय्या को त्याग कर श्रावक को क्या करना चाहिये, जिनमन्दिर में किस प्रकार जाना चाहिये तथा वहा क्या करना चाहिये और क्या न करना चाहिये, इत्यादि की चर्चा की गई है। तत्पश्चात् अर्थार्जन की विधि, हानि-लाभ में समभाव का विधान, भोजनविधि मौर श्रागमरहस्य को जानकारी आदि का कथन करते हुए सान्ध्य कृत्य का वर्णन किया गया है । अन्त में निद्रा के नष्ट होने पर क्या विचार करना चाहिये, इसका निरूपण करते हुए अध्याय को समाप्त किया गया है । १५ १५ इस प्रकार तीसरे प्रध्याय में दर्शन प्रतिमा तथा चौथे. पाचवे और छठे इन तीन मध्यायों मे व्रतप्रतिमा का वर्णन १. प्रापदाकुलितोऽपि दर्शनिकस्तन्निवृत्त्यर्थं शासन देवतादीनू कदाचिदपि न भजते पाक्षिकस्तु भवत्यपीत्येवमर्थमेकग्रहणम् (सा. प. स्वो टीका ३३) I ११७ करके आने के सातवें अध्याय में सामायिक आदि शेष नी प्रतिमाओं की प्ररूपणा की गई है। अन्तिम आठवे अध्याय में श्रावक के तीसरे भेद रूप साधक का वर्णन करते हुए अन्त मे मनुष्ठेय सहलेखना का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है । यह प्रस्तुत ग्रन्थ का मक्षिप्त विषयपरिचय है । १ तत्त्वार्थसूत्र व उसकी टोका स्वार्थ के माये घयाय में सुभाभव की प्ररूपणा सूत्र करते हुए सक्षेप में श्रावकाचार की प्ररूपणा की गई है । उसके और उस पर रची गई सर्वार्थसिद्धि, तस्यार्थवातिक एवं दलोकवार्तिक प्रादि टीकाओ के भी रहते हुए उपत सामान्धर्मामृत की रचना में उनका विशेष प्राथय नही लिया गया है। उसकी रचना रत्नकरण्डक, उपासकाध्ययन, योगशास्त्र और वसुनन्दिश्रावकाचार से अधिक प्रभावित दिखती है। यथा २. रत्नकरण्डक और सागारधर्मामृत प्राचार्य समन्तभद्रविरचित रत्नकरण्डक मे मक्षिप्त होने पर भी श्रावकाचार की सर्वाङ्गपूर्ण प्ररूपणा की गई है । यद्यपि इममें प्रमुखता से श्रावकाचार का वर्णन देखा जाना है, पर ग्रन्थरचना का उद्देश धर्म की देशना रही है३ । धर्म मे अभिप्राय मम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान श्रीर २. यत्र वचित्वार्थमूत्र का भी उपयोग किया गया है । यथा -- तत्त्वार्थ सूत्रके ७वं प्रध्याय में विधि द्रव्यदान्पावशेषात् तद्विशेष. यह मंत्र (३१) उपलब्ध होता है। इसका प्रभाव सा. ध. के निम्न श्लोक पर पूर्णतया देखा जाता हैग्रतमतिथिमविभाग. पात्रविशेषाय विधिविशेषण | द्रव्यविशेषवितरण दातृविशेयस्य फलविशेषाय ॥ ४१ इसके प्रतिरिवत मा. घ. मे उसके नाम का उल्लेख भी स्वयं पं० प्राशाधर ने किया है । यथा त्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनलक्षणमतिचारद्रय तत्वार्थशास्त्रोपदिष्टमपि सङ्गृहीत भवति 1 मा० प० स्वो० टीका ४-५८ २. प्रत्य के प्रारम्भ मे सूचना भी बेमी की गई हैदेशयामि समीचीनं धर्म कर्म निवर्हणम् । ससाग्दु खत. सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुने ।। र. क. २ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय का रहा है। इसीलिए इसका में जहा तहा कहीं स्वामी समन्तभद्र ५, कही केवल स्वामी, रत्नकरण्डक-रनो की पेटी-यह सार्थक नाम भी और कही रत्नकरण्डक७ नाम का भी निर्देश स्वयं किया प्रसिद्ध हुमा है२ । उक्त धर्म की प्ररूपणा करते हुए वहा है । इसके अतिरिक्त यत्र क्वचित् बिना किसी प्रकार के यथाक्रम ने प्रथमत. ४१ श्लोकों मे सम्यग्दर्शन का वर्णन नामोल्लेख के भी रत्नकरण्डक के मत का निर्देश किया किया गया है। पश्चात् ४२-४६ श्लोको मे सम्यग्ज्ञान के गया है। मा० समन्तभद्र की विषयवर्णनपद्धति को स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हुए उसके विषयभूत प्रथमानु- उन्होंने कही तो अपना लिया है और कही मतान्तर के योग प्रादि चार अनुयोगों का कथन किया गया है। तदनन्तर रूप में उसका उल्लेख कर दिया है । यथा४७-१२१ श्लोको में सम्यक्चारित्र का विवेचन करते हुए वचन करते हुए १. प्रा. समन्तभद्र ने विकलचारित्र की प्ररूपणा करते उसके सकल और विकल इन दो भेदो का निर्देश करके हुए प्रथमत. पांच अणुव्रतों के स्वरूप का निर्देश किया है। उनमे सकल चारित्र के निर्देशपूर्वक विकलचारित्रभूत थाव तत्पश्चात् पाठ मूलगुणो का उल्लेख उन्होंने इस प्रकार काचार का कुछ विस्तार से निरूपण किया गया है। किया हैतत्पश्चात् १२२-३५ श्लोको मे सल्लेखना का विचार मच-मांस-मघत्याग सहाणुव्रतपञ्चकम् । करके प्रागे १३६-४७ श्लोको मे श्रावकपदो के- प्रष्टो मलगणानाहगंहिणां श्रमणोत्तमाः ॥६६॥ ११ प्रतिमानो के-स्वरूप मात्र का निर्देश किया गया है। अर्थात् मद्य, मांस और मधु के परित्यागपूर्वक पाच अन्त मे (१४६) उपसहार करते हुए उद्देश के अनुमार अणुव्रतों का पालन करना; ये पाठ मूलगुण है जो श्रमयह कहा गया है कि पाप-रत्नत्रय स्वरूप धर्म के प्रति णोत्तम-गणधरादि-के द्वारा निर्दिष्ट है। पक्षभूत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ये समन्तभद्र को अभीप्ट इन पाठ मूलगुणो का निर्देश जीव के शत्रु है३, क्योकि वे भवपद्धति स्वरूप है-ससार परिभ्रमण के कारण है४, और रत्नत्रयस्वरूप धर्म उस ५. [क] स्वामिसमन्तभद्रमते पुन सूरिः स्मरेत् (२-३)। जीव का बन्धु-हितपी मित्र है। ऐमा निश्चय करके यदि [ख] एतेन यदुक्त स्वामिसमन्तभद्रदेव. 'दर्शनिकस्तमुमुक्ष भव्य जीव समय को-परमागम अथवा प्रात्मा स्वपथगृह्म' इति दर्शनप्रतिमालक्षणं तदपि सगहीतम्। को-जान लेता है तो वह निश्चित ही श्रेष्ठ ज्ञाता हो (३-२५) जाता है। ६. [क] स्वाम्युक्ताष्टमूलगुणपक्षे (२-३)। पण्डितप्रवर पाशाधर ने अपने सागारधर्मागत की [ख] यत्तु "सम्यग्दर्शनशुद्ध ...॥" इति स्वामिमतेन रचना में इस रत्नकरण्डक का पर्याप्त उपयोग किया है। दर्शनिको भवेत् ....... (४-५२) । उन्होने अपनी भव्य-कुमुदचन्द्रिका नामकी स्वोपज्ञ टीका [ग] स्वामिमतेन विमे-अतिवाहनातिसग्रह (४-६४) १ सदष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदु । [घ] अत्राह स्वामी यथा-विषय-विपतोऽनुपेक्षा। यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धति ॥ र. क. ३ (५-२०) २. येन स्वय वीतकलविद्या-दृष्टि-क्रियारत्नकरण्डभावम् । [3] स्वामी पुन गोपभोगपरिमाणशीलातिचागननीतस्तमायाति पतीच्छयेव सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषु विष्टपेषु ।। न्यथा पठित्वा (७-११)। र. क. १४६ [च] यदाह स्वामी "अन्नं पान खाद्य...(०-१५) ३ पापमगतिधर्मो बन्धुर्जीवस्य चेति निश्चिन्वन् । ७. अन्यत्र पुना रत्नकरण्डकादिशास्त्रे रात्रिभक्त शब्दो समयं यदि जानीते श्रेयोज्ञाता ध्रव भवति ॥ निरुच्यते"(७-१५)। र. क. १४८ । ८. ततो न 'श्रावकपदानि देवरेकादश देशितानि (र.क. ४. देखिये टिप्पण । १३६)' इत्यनेन बिरोधः (३-८)। [चा Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागारधर्मामृत पर इतर श्रावकाचारों का प्रभाव सा. घ. में किया गया है। दिखलाते हुए जो प्रभिप्राय व्यक्त किया गया है लगभग २. रानकरण्डक में मत्याणवत के स्वरूप को दिम्व. दही अभिप्राय १०माणाधर ने भी अपने सा.ध. में बसे लाते हुए यह कहा गया है कि स्थल झूठ का त्यागी- ही कुछ शब्दो द्वारा व्यक्त किया है। रत्नकरण्डक में मत्याणुवती-ऐसे सत्य वचन को भी न स्वयं बोलता है जंगे परस्त्री का परित्याग 'पापभीतेः' अर्थात केवल पाप पौर न दूसरे को बुलवाता है जो विपत्ति का कारण हो२। के भय से ही कराया गया है, न कि गजदण्डादिक भय इसको स्पष्ट करते हुए उसकी टीका में प्रभाचन्द्राचार्य ने मे, वैसे ही मा. ध में भी उगका परित्याग 'मंहसो कहा है कि जो सत्य भी बचन दूमरे को प्रापत्तिजनक हो भीत्या' अर्थात् पाप के हो भय से कराया गया है, गजउसे भी मत्याणुव्रती नही बोलता है। दण्डादि के भय नहीं कगया गया। विशेषता यह रही है इम कथन को ५० प्राशाधर ने सोमदेव मूरि के कि 'परदागन्' पद के द्वाग जहाँ मा. समन्तभद्र को अनुसार४ कुछ और विकसित करते हुए 'सत्यमपि स्वा. स्वस्त्री मे भिन्न अन्य मभी स्त्रिया प्रभित है वहा सा. न्यापदे त्यजन्' कहकर यह सूचना की है कि जो सत्य भी ध. में 'अन्यस्त्री' मे अन्य मे सम्बद्ध पत्नी व पुत्री पादि वचन स्व व परको विपत्तिकर हो उसका भी परित्याग उसे मात्र विवक्षित दिखती है, अन्यथा वहां उसके साथ 'प्रकटकरना चाहिए५ । विशेषता यह रही है कि रत्नकरण्डक स्त्री' के ग्रहण की कुछ प्रावश्यकता नहीं रहती८ । दूसरी मे जहा 'विपदे' इनना मात्र सामान्य से कहा गया है और विशेषता यह है कि रत्नकरण्डक मे उक्त प्रत का उल्लेख जिमे उस पर टीका करते हुए प्रभाचन्द्राचार्य ने मात्र पर परदारनिवृनि और स्वदारसन्तोष इन दो नामों से को विपत्तिकर माना है, वहां प० प्राशाधर ने उसे पर के किया गया है, परन्नु मा. घ. मे मात्र स्वदारमन्तोषी के माथ स्व (निज) को भी विपत्तिजनक स्वीकार किया है। नाम मे ही उसका उल्लेख किया गया है। ३. रत्नकरण्डक मे ब्रह्मचर्याणवत के स्वरूप को ४. रत्नकरण्डक (६३) मे निर्गतचार पाच प्रण व्रतों के पालन का फल स्वर्गलोक की प्राप्ति बतलाया १. म्वामिममन्तभद्रमते पुनः मूरिः स्मरेत् । कि तत् ? गया है। इसी प्रकार उनके परिपालन का फल मा. ध. म्थुलवधादि स्थूलहिसान्तस्तेय-मथुन-ग्रन्थपञ्चकम् । (४-६६) मे भी स्वर्गीय श्री का उपभोग ही निर्दिष्ट क्व ? फलस्थाने पञ्चोदुम्बरफलप्रसगे तन्निवृत्तो वा। किया गया है। मद्य-मास-मधुविरतित्रय पञ्चाणुव्रतानि चाष्टौ मूल- . गुणान् स्मरेदित्यर्थ । (सा. घ. स्वो. टीका २-:) ६ न त परदागन गन्छनि न परान गमयति चे पाप२. स्थूलमलीक न वदति न परान् वादयति सत्यमपि भीतयन् । मा पग्दानिवृत्ति स्वदारसन्तोपनामापि।। विपदे । यत्तद् वदन्ति मन्तः स्थूलमपावादव .क. ५.९ रमणम् ॥५५॥ गोऽस्ति स्वदारमन्नोपी योऽन्यस्त्री-प्रकटस्त्रियो। ३ न केवलमलीकम्, किन्तु मत्यमपि चौरोऽयमित्यादि- न गच्छन्यहमो भीत्या नान्यर्गमर्यात विधा ।। रूप न स्वय वदनि न परान् वादयति । किविशिष्टम् ? मा० ५०४-५२ यदुक्त मत्यं परस्य विपदेपकाराय भवति । ७ यत् परदारान पग्गृिहीतान् अपरिगृहीताश्च । प्रभा० टीका ३-६ प्रभा० टीका ३-१३ ४ तत् मत्यमपि नो वाच्य यन् स्यात् परविपत्तये । - अन्यस्त्री पग्दागः परिगृहीता अपरिगहीताश्च । तत्र जायन्ते येन वा स्वस्य व्यापदश्च दुरास्पदाः ।। परिगृहीताः सस्वामिकाः अपरिगहीना म्बंरिणी उपासका० ३७७ प्रोपितमत का कुलाङ्गना वा अनाथा। कन्या नु ५ कन्या-गो-क्ष्मालीक-कूटसाक्ष्य-न्यामापलापवत् । भाविमन कत्वात् पित्रादिपरतन्त्रत्वाद्वा मनायन्यन्यस्यात् सत्याणुव्रती सत्यमपि स्वान्यापदे त्यजन् ।। स्त्रीतो न विशिष्यते । प्रकटस्त्री वेश्या । सा० घ०४-३६ मा० ५० स्वो टीका ४-५२ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ५. रत्नकरण्डक में कहा गया है कि दिग्ब्रत धारक नियम-परिमित काल-और यम-यावज्जीवन-के रूप श्रावक के अणुव्रत महाव्रत रूपता को प्राप्त हो जाते है। मे किया गया है उसी प्रकार सा.ध. (५-१४) में भी कारण यह कि दिग्धत मे स्वीकृत मर्यादा के बाहिर उनके प्रमाण का विधान किया गया है। गमनागमन का प्रभाव हो जाने से उसके स्थूल पापों के ७. सामायिक के प्रकरण मे उसके काल को लक्ष्य में समान सूक्ष्म पापों की भी निवृत्ति हो जाती है। इसके रखकर रत्नकरण्डक मे कहा गया है (१८) कि जब तक अतिरिक्त उसके द्रव्य प्रत्याख्यानावरण-संयमघातक- केशों का बन्धन, मुट्ठी का बन्धन, वस्त्र का बन्धन (गाठ) सामान का मन्दादय हा जान स भावरूप चारित्रमाह के और पर्यक भासन का बन्धन शिथिलता को प्राप्त नही परिणाम भी अतिशय मन्दता को प्राप्त हो जाते हैं, अतः होता है तब तक सामायिक बैठकर या खड़े रहकर करना उनका रहना न रहने के बराबर है। चाहिये। यही बात सा. ध. मे भी लगभग वैसे ही शब्दों मे रत्नकरण्डक के उक्त कथन का अनुसरण कर सा. ध. कही गई है। उभय ग्रन्थगत वे श्लोक निम्न प्रकार है१ में भी कहा गया है कि प्रारमध्यानी केशबन्धन प्रादि के प्रवघर्ष हिरणुपापप्रतिविरतेदिग्वतानि धारयताम् । छुटने तक२ साधु के समान जो समस्त हिंसादि पापों का पचमहावतपरिणतिमणुव्रतानि प्रपद्यन्ते ॥ परित्याग करता है, इसका नाम सामायिक है (५-२८) । प्रत्याख्यानतनुत्वा-मन्वतराश्चरणमोहपरिणामा । .. इसी प्रकरण मे सामायिक के समय श्रावक को सत्त्वेन दुरवधारा महावताय प्रकल्प्यन्ते ॥ क्या विचार करना चाहिए, इसकी सूचना रत्नकरण्डक मे -र. के ७०-७१। इस प्रकार की गई हैदिग्विरत्या बहिः सौम्नः सर्वपापनिवर्तनात् । प्रशरणमशभमनित्यं दुख मनात्मानमावसामि भवम । तप्तायोगोलकल्पोऽपि जायते यतिवद् गही। मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायन्तु सामयिके ॥१०॥ दिखतोद्रिक्तवत्तघ्नकषायोदयमान्यतः । इमका मिलान सा.ध. के निम्न श्लोक (५-३०) महावतायतेऽक्ष्यमोहे गहिन्यणुव्रतम् ॥ के साथ कीजिये -सा ध.५,३-४। ६. रत्नकराउक में भोगोपभोगपरिमाणधत के २ कियत्कालम ? केशबन्धादिमोक्षं यावत्-केशबन्ध प्रगप मे भोगोपभोग वस्तुयो का प्रमाण कर लेने के अनि ग्रादियषा मुष्टिबन्ध-वस्त्रग्रन्थ्यादीना गहीतनियमकालावरिक्त मधु, माम, मध, अल्पफल व बहुविधान रूप प्रादक च्छे दहेतूनां ते केशबन्धादय , तपा मोक्षो मोचन तमवधी कृत्य (अदरख) आदि तथा अनिष्ट और अनुपमेव्य पटाची स्थितम्येत्यर्थ. । सामायिक हि चिकीर्पविदय केशबन्यो के परित्याग की प्रेरणा की गई है। (८२,८४-८६) वस्त्रग्रन्थ्यादिर्या मया न मोध्यते तावत् साम्यान्न प्रचलि. ठीक उसी प्रकार से सागारधर्मामृत मे भी उक्त ज्यामीति प्रतिज्ञा करोति । (सा ध. स्को टीका ५-२८) भोगोपभोग वस्तुग्रो का प्रमाण कर लेने (५-१३) के यद्यपि इग टीका में 'मया न मोच्यते' कहकर यह साथ माग के समान सघातजनक, मधु के समान बहु समान बहु अभिप्राय प्रगट किया गया है कि जब तक मैं उपयुक्त विघातजनक. मद्य के समान प्रमादोत्पादक, अनिष्ट पार न प्रादि को नही छोड देता है तब तक म मामाअनुपसेव्य पदार्थों के भी परित्याग की प्रेरणा की गई है यिक से विचलित नही होऊगा, ऐसी प्रतिज्ञा सामायिक व्रती करता है, पर प्रा. समन्तभद्र का अभिप्राय भी ऐसा ही इसके अतिरिक्त उक्त भोगोपभोग वस्तुप्रो के परि रहा हो, यह सम्भावना बहुत कम की जा सकती है। माण का विधान जिस प्रकार रत्नकरण्डक (८७) में उक्त कथन से तो यही अभिप्रेत दिखता है कि बालों १ उभय ग्रन्थगत इन इलोको का टीका भाग भी प्रादि में लगाई गई शिथिलतापूर्ण गांठ प्रादि जब तक ६ष्टव्य है। नहीं छूट जाती है तब तक सामायिक में स्थित रहूँगा। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष प्रात्मा सुख नित्यः शुभः शरणमन्यथा । भवोऽस्मिन् वसतो मेन्यत् कि स्यादित्यापदि स्मरेत् ।। १. टमी और चतुर्दशीको चापदिनों मे चारों प्रकार के माहार का परित्याग करना, इसका नाम प्रोषधोपवास है । प्रोषधोपवास का यह लक्षण रत्नकरण्डक ( १०६) और सागारधर्मामृत ( ५-३४) दोनो ग्रन्थो मे प्राय समान ही देखा जाता है । पर साध मे उसके उत्तम - चार भुक्तिक्रियाओ का परित्याग १, मध्यन - जल को न छोड़कर शेष चार प्रकारके बाहार का परित्याग और जघन्य प्राचाम्ल व निविकृति यादि को रखकर शेष प्रहार का त्याग इस प्रकार प्रोषधोप वासव्रती को शक्ति के अनुसार तीन भेद कर दिये गये है । इस प्रकार की विशेषता समन्तभद्र को अभीष्ट नही रही दिल्ती | 1 सागारधर्मात पर इतर आवकाचारों का प्रभाव - इसके अतिरिक्त समन्तभद्र ने उपवास के दिन विशेष रूप से जो पांच पावकर (दार) आदि का परित्याग कराया है३ उसके ऊपर ग्रन्थ के विस्तृत होने पर भी पं० श्रशाधर ने बल नही दिया । १०. रत्नकरण्डक मे सल्लेखना का स्वरूप इस प्रकार कहा गया हैउपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे । पर्माय तनुविमोचनमा सल्लेखनामार्याः ।। १२२ ।। इसी को लक्ष्य में रखकर सा. ध. मे भी लगभग इसी प्रकार से उसका स्वरूप कहा गया है . १. चतुर्भुवनं चतणा मुक्तीना भोज्यानामशनचतुर्भुक्त्युज्झनं स्त्राद्य-खाद्य-पेयद्रव्याणा भुक्तित्रियाणा च स्यामः एका हि भूक्तिविया धारकदिने हे उपनायटिने चतुर्थी च पारकदिने प्रत्याख्यायते । (मा. घ. स्वो टीका ५-३४) २. तथाचाम्लम् कृतमोवी रविनभोजनम्। निवि कृति - विजिये जिह्वा-मनसी येनेति विकृतियोंरसेरस वित्रियेते फलरम-धान्य रसभेदाच्चतुर्धा । तत्र गोरसः क्षीर-घृतादि, इक्षुरम खण्ड- गुडादिः, फलरसो द्राक्षा म्रादिनिष्यन्दः, धान्य रसस्तैल- मण्डादि । अथवा यद्येन सह भुज्यमान स्वदते विकृतिरित्युच्यते तेन भोजनं निविकृतिः (सा. प. वो टीका ५-३५) ३. र. क. १०७. १२१ धर्माय व्याषि- दुर्भिक्ष-जरावो निष्प्रितिक्रिये । वक्तुं वपुः स्वपाकेन तच्च्युतो वाशनं स्वजेत् ॥८-२० ११. आगे इसी प्रकरण में सल्लेखनाविधि का वर्णन करते हुए रत्नकरण्डक में कहा गया है कि सल्लेखना के समय शोक व भय आदि को छोड़कर प्रात्मबल के साथ उत्साह को प्राप्त होता हुआ श्रागमवाक्यों के प्राय से मन को प्रसन्न करे और तब ग्राहार- कवलाहार - का परित्याग करके स्निग्ध पान-पीने योग्य दूध आदिको वृद्धिगत करे। फिर क्रम से उस दूध प्रादि को भी छोड़कर खरपान - शुद्ध गरम जल को रक्खे प्रौर अन्त में उसे भी छोड़कर उपवास को स्वीकार करता हुआ पंच-नमस्कार मंत्र मे दत्तचित्त होकर शरीर को छोड़ दे४। रत्नकरण्डकोक्त इसी त्यागक्रम को प्राय: सा. घ. में भी अपनाया गया है५ । विशेष इतना है कि रत्नकरण्डक मे जहा केवल सात श्लोकों में (१२२-२८) ही उक्त सल्लेखना का वर्णन किया गया है वहां सा. ध. में ४. र. क. १२६-२८ ५. सा. ध. प्राहारादि का त्यागक्रम ८, ५५-५६ व ६३-६४ पचनमस्कार मंत्र के स्मरण के साथ शरीरत्याग ८-११०. उक्त दोनों ग्रन्थों की टीकामों मे जो मूल ग्रन्थगत कुछ पदों का स्पष्टीकरण किया गया है उसमें भी समानता देखी जाती है । यथा - र. क. टीका बाहारं कबलाहाररूपम् \ स्तिग्म दुग्धादिरूपं पानं विवर्धयेत् परिपूर्ण दापयेत्खान कजिकादि शुद्धपानीयरूपं वा । (परि. ५, श्लोक ६ ) -- सा. ध. स्वो टीका — कि तत् ? प्रशनं कवलाहारम् । स्निग्धपानं दुग्धादि ( ८-५५) । किं तत् ? खरपान प्रथम काञ्जिकादिरूपं पश्याच्च शुद्धपानीरूपम् (८.५६)। यह विशेष स्मरणीय है कि शाधर ने रनकरण्डक के पं प्रशाधर टीकाकार प्रभाचन्द्र का बड़े आदर के साथ स्मरण किया है । यथा यथास्तत्र भगवन्त श्रीमत्प्रभेदेवपादा रत्नकरण्डकटीकाया चतुरावर्तत्रितय इत्यादिसूत्रे (अन. ध. ८-९३) । ' सूत्रे' कहने से यह भी ज्ञात हो जाना है कि पं० श्राशावर प्रस्तुत रत्नकरण्डक को सूत्रग्रन्थ जैसा हो समझते थे। ...... Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त पूरे एक अध्याय (८वे) के द्वारा उसका विस्तार के साथ मूढतापो से रहित होना चाहिए । इन मूढतानों मे एक वर्णन किया गया है । यहां सल्लेखना मे अधिप्ठित श्रावक देवमूढता भी है। उसका स्वरूप बतलाते हुए कहा गया को उस में दृढ़ करने के लिए विविध प्रकार से उपदेश द्वारा है कि राग-द्वेष से मलिनता को प्राप्त हुए देवो की अभीष्ट उत्माहित किया गया है। फल की प्राप्ति की अभिलापा से जो प्राराधना की जाती १२. रत्नकरण्डक में दर्शनिक श्रावक का स्वरूप इस है, यह देवमूढता है३ । तात्पर्य यह कि सम्यग्दृष्टि प्राणी प्रकार कहा गया है ऐसे देवो की उपासना-पूजा-भक्ति प्रादि-किसी भी सम्यग्दर्शनशुद्धः ससार-शरीर-भोगनिविष्णः । अवस्था में नही करता। पञ्चगुरुचरणशरणो वर्शनिकस्तत्त्वपथगहाः१ ॥१३७॥ इस बात को ५० प्राशाधर भी स्वीकार करते है। इसमें उपयुक्त सभी विशेषण प्राय सा. ध. मे निर्दिष्ट उन्होने अपने अनगारधर्मामृत मे कहा भी है कि मुनि दर्शनिक श्रावक के लक्षण मे (३,७-८) उपलब्ध होते है। की तो बात ही क्या है, किन्तु श्रावक को भी सयम से यथा-पाक्षिकाचारसंस्कारदृढ़ीकृतविशुद्धदृक्, भवाङ्ग-भोग- हीन माता-पिता, गुरु, राजा व मत्री ग्रादि, वेषधारी साधु, निविण्ण., परमेष्ठिपदैकधीः । कुदेव-रुद्र आदि तथा शासनदेवता प्रादि-और वैसा श्रावक १३. प्राचार्य समन्तभद्र ने 'स्वगुणः पूर्वगुणः सह भी; इनमे से किसी की भी वन्दना नही करना चाहिये। सतिष्ठन्ते क्रमविवृद्धाः'२ कहकर यह अभिप्राय व्यक्त किया पर इस कथन में श्रावक से अभिप्राय उनका नैष्ठिकहै कि मागे को प्रतिमानों का परिपालन यदि पूर्व प्रति- प्रतिमाधारी-श्रावक का रहा है, पाक्षिक श्रावक का मामी की पूर्णता के साथ होता है तो उनकी प्रतिष्ठा नही-पाक्षिक श्रावक वैसा कर सकता है५ । किन्तु प्रा. ममझना चाहिए-अन्यथा उनकी स्थिति सम्भव नहीं है। समन्तभद्र तो असयतसम्यग्दृष्टि के लिए भी उसका इस प्राशय को पं० पाशाधर ने सा. ध. में भी सर्वथा निषेध करते है६ । श्लोक ३-५ के द्वारा व्यक्त कर दिया है । रत्नकरण्डक से विशेषता ३. वरोपलिप्सयाशावान् राग-द्वेषमलीमसा. । उपर्युक्त जो थोड़े-से उदाहरण दिये गये है उनसे देवता यदुपासीत देवतामूढमुच्यते ॥र.क. २३ . यद्यपि इसकी टीका मे प्रा. प्रभाचन्द्र ने यह स्पष्टीनिश्चित है कि पं० पाशाधर ने प्रा. समन्तभद्र विरचित करण किया है कि यदि सम्यग्दृष्टि शासमदेवता के प्रस्तुत रत्नकरण्डक को एक महत्त्वपूर्ण श्रावकाचार ग्रन्थ नाते उनकी पूजा-भक्ति आदि करता है तो इससे माना है और तद्गत बहुत-से विधि-विधानो को अपने उसके सम्यग्दर्शन की विराधना नही होती-उसकी सागारधर्मामत मे यथोचित स्थान दिया है। पर वे तद्गत विराधना तो स्वार्थवश वैसा करने पर ही होती है; सब विधानों से सहमत नहीं हो सके। इसका कारण देश पर प्रा. समन्तभद्र का भी वैसा अभिप्राय रहा है, काल की परिस्थिति ही समझना चाहिये । इसीसे उन्होने कहा नहीं जा सकता; क्योकि, उन्होने सर्वथा ही कहीं तो रत्नकरण्डक से कुछ भिन्न मत प्रगट किया है उसका निषेध किया है। और कहीं तद्गत विधान को कुछ विकसित किया है। जैसे ४. श्रावकेणापि पितरौ गुरू गजाप्यसंयता । १. रत्नकरण्डकोक्त सम्यग्दर्शन के लक्षण मे 'त्रिमूढा कुलिगिनः कुदेवाश्च न वन्द्याः सोऽपि सयतैः । पोढ' एक विशेषण दिया गया है (श्लोक ४)। तदनुसार (मन. ध. ८-५२) सम्यग्दर्शन में प्राप्त, प्रागम और पदार्थों का श्रद्धान तीन तान ५. प्रापदाकुलितोऽपि दर्शनिकस्तन्निवृत्त्यर्थ शासनदेवता१. तत्त्वपथगृह्यः-तत्त्वानां प्रतानां पंथा मार्गा. मद्यादि- दीन कदाचिदपि न भजते, पाक्षिकस्तु भजत्यपीत्येवनिवृत्तिलक्षणा अष्टमूलगुणाः ते गह्याः पक्षा यस्य । मर्थमेक ग्रहणम् । (सा. घ. स्वो. टीका ३-७) (प्रभा. टीका ५-१६) ६. भयाशा-स्नेह-लोभाच्च कुदेवागम-लिङ्गिनाम् । २. र. क. १३६ प्रणाम विनय चैव न कुयु: शुद्धदृष्टयः ।।र. क. ३०. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारममृत पर इतर आबकाचारों का प्रभाव २. प्रा. समन्तभद्र को जहाँ मद्य, मांस और मधु के परित्याग के साथ पांच अणुव्रत; ये श्रावक के आठ मूलगुण अभिप्रेत है वहां पं० प्रशाधर मद्य, मास व मधु के त्याग के साथ पांच उदुम्बर फलों के परित्याग रूप प्राठ मूलगुणों को स्वीकार करते है १ । ३. प्रा. समन्तभद्र सत्याणुव्रत में ऐसे सत्य वचन को भी हैव ही मानते है जो विपत्तिजनक पर के लिये - पीडाप्रद हो परन्तु पं. भाशाघर ऐसे सत्य वचन को हेय मानते हैं जो स्व-पर के लिये कष्टप्रद हो२ । ४. प्रा. समन्तभद्र को ब्रह्मचर्याणुव्रत के परदारनिवृत्ति और स्वदारसन्तोष ये दोनों ही नाम प्रभीष्ट है । उनका अभिप्राय है कि ब्रह्मचर्याणुव्रती अपनी पत्नी को छोड़ शेष सभी स्त्रियों का परित्यागी होना चाहिए परन्तु प० माशापर उक्त ब्रह्मचर्या को दो भेदों मे भ करते है— स्वदारसन्तोष धौर परदारवर्जन इनमें प्रथम का परिपालक देशसंयम में प्रभ्यस्त नैष्ठिक श्रावक और द्वितीय का परिपालक उस देशसंयम के अभ्यास में संलग्न व्यक्ति होता है३ । ५. भोगोपभोगपरिमाणव्रत के जो पांच प्रतिचार मा. समन्तभद्र को अभीष्ट है, पं० श्राशाधर तत्त्वार्थ सूत्र का अनुसरण कर उनसे भिन्न ही उन प्रतिचारों का उल्लेख करते है४ | ६. प्रा. समन्तभद्र नियत समय तक पाचो पापो के पूर्णतया त्याग को सामायिक बतलाते हैं । पर पं० श्राशाधर लगभग इसी प्रकार के लक्षण का निर्देश करके५ भी उम सामायिक की सिद्धि के लिए तदाकार जिनप्रतिमा के विषय मे अभिषेक, पूजा, स्तुति और जप के १. र. क. ६६, सा. ध. २, २-३ . २. र. क. ५५; सा. ध. ४-३६. ३. र. क. ५६; सा. ध. ४-५२ (द्विविधं हि तद् वतं स्वदारयन्तोषः परदारवर्जनं चेति एतच्च धन्य स्त्री-प्रकटस्त्रियाविति स्त्रीद्वय सेवाप्रतिषेधोपदेशास्तम्यते । तत्राद्यमभ्यस्तदेवासंयमस्य नैष्ठिकस्येध्यते, द्वितीयं तु तदभ्यासोन्मुखस्य स्वो टीका । ) ४. र. क. ६०; सा. ध. ५-२०. ५. र. क. ६७; सा. घ. ५-२८. १२३ प्रयोग का तथा अतदाकार जिनप्रतिमा के विषय में अभिषेक के बिना शेष तीन के प्रयोग का उपदेश करते है६ | पं० प्राशावर के इस कथन का श्राधार सोमदेव सूरिका उपासकाध्ययन रहा है, जहां प्राप्त सेवा के उपदेश को समय कहकर उसमे नियुक्त कर्म को -स्नान व पूजनादि रूप विविध जिवाकाण्डों को सामा कि कहा गया है और इसी से उन सब की वहां विस्तारपूर्वक उस सामायिक के प्रकरण में प्ररूपणा भी की गई है। ७. प्रा. समन्तभद्र के समान प्रोषधोपवास के लक्षण का निर्देश करके भी प० प्रशाधर ने पात्र की शक्ति को लक्ष्य मे रखकर उसे उत्तम, मध्यम और जघन्य इस प्रकार तीन भेदो मे विभक्त कर दिया हैं१० । किन्तु प्रा. समन्तभद्र को उक्त प्रोषधोपवास मे चारों प्रकार के ही माहार का सर्वथा त्याग अभीष्ट रहा प्रतीत होता है । ८. समन्तभद्र ने वैयावृत्य के प्रसंग में जिनेन्द्रदेव की परिचय पूजाका सामान्य से निर्देश किया है११। उसका कुछ विकसित रूप महापुराण ११, उपासकाध्ययन १३ ६. स्नपनाच स्तुति- जपान् साम्यार्थ प्रतिमापिते । युज्याद्ययाम्नायमाद्यादृते संकल्पितेऽहंति ।।५-३१ ७. प्राप्तसेवोपदेशः स्यात् समयः समयार्थिनाम् । नियुक्तं तत्र यत् कर्म तत् सामायिकमूचिरे ॥४६० (पं०] भागापर ने उक्त श्लोक (४-३१) की स्पो. टीका में इस उपासकाध्ययन के नाम का निर्देश स्वयं भी कर दिया है। यथा-कथम् ? यथाम्नायम् उपासकाध्ययनाथागमानतिक्रमेरा) - ८. देखिये पृ. २१२ ८७ । ६. र. क, १०६; सा. ध ५-३४ | १०. सा. प. २-३५ (देखिये पीछे • १२१) ११. र. क. १११-२०, १२. पर्व ३८, श्लोक २६-३२ ( इस प्रकरण मे सागार धर्मामृत के ये श्लोक महापुराण के निम्न श्लोको के आश्रय से रचे गये है-सा. २२५-म. ३८, २७-२८, सा. २६- म. ३२; सा. घ. २७-म. ३०; सा. २८ --- म. ३१; सा. २९ - म. ३३) १३. उपासका. पृ. २३३-८७ । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ अनेकान्त दमण वय मामाइय पोसह सचित्त रायभत्ते य । बभारंभ परिगह प्रणमण उद्दिदु देसविरदो य ॥ यहा छठी प्रतिमा का उल्लेख रायभत -रात्रिभक्तके नाम से हुआ है । मुक्ति और भक्त दोनों शब्द पर्यायबाकी है, उनका जैसे भोजन होता है ने ही सेवन भी होता है । प्रकृत मे रात्रिभतव्रत से रात्रि में स्त्रीसेवन का व्रत रखना - दिन में उसका परित्याग करना, यह अभिप्राय निकालना कुछ क्लिष्ट कल्पना के प्राश्रित और वसुनन्दिश्रावकाचार१ प्रादि के आधार से सागारधर्मामृत में उपलब्ध होता है२ । C. प्रा. समन्तभद्र ने सामान्य से श्रावक के दर्शनिक आदिग्रहों का ही निर्देश किया है। परन्तु पं० श्राशाधर ने प्रथमतः उसके पाक्षिक, नैष्ठिक और माघक इन तीन भेदों का उल्लेख किया है४ और तत्पश्चात् उनके द्वारा उक्त दर्शनिक प्रादि ग्यारह भेद उनमे से नैष्ठिक धावक के निर्दिष्ट किये गये है। सम्भवतः पाक्षिक आदि उक्त तीन भेद समन्तभद्र के समय तक नहीं रहे है। १०. रत्नकरण्डक में छठे श्रावक का उल्लेख रात्रिभक्तिविरत के नाम से करके उसके स्वरूप मे कहा गया है कि जो रात्रि में अन्न, पान, खाद्य भोर लेह्य चारो प्रकार के भोजन को नहीं करता है वह रात्रिभुक्तिविरत कहलाता है । पर सागारधर्मामृत में उसका रात्रि मक्तव्रत के नाम से उल्लेख करके यह कहा गया है कि जो निष्ठापूर्वक पूर्व पाच प्रतिमाओं का परिपालन करता हुआ मन, वचन काय और कृत, कारित, अनुमोदना से दिन मे श्री का उपभोग नही करता है वह रात्रिभक्तव्रत श्रावक होता है७ । मा. कुन्दकुन्द विरचित चारिप्रभूतमे सजे मे मागार संयमचरण- देशवारिश का वर्णन किया गया है। वहां देशचारित्र से सम्बन्धित निम्न गाथा उपलब्ध होती है १. वसु० भा० ३८०-४५८ । २. सा० ६०२, २३-३४ । ३. २० क० १३६ । ४. मा० ० १-२० । ५. सा० ध० ३-१ । ६ २० क० १४२ । ७ सा० ० ७ १२ । ( आगे श्लोक ७ १५ मे रत्नकरuse के उक्त श्रभिमत की भी सूचना इस प्रकार कर दी है— निरुच्यतेऽन्यत्र रात्रौ चतुराहारवर्जनात् । ) ८. समवायाग सूत्र में ग्यारह प्रतिमानों के नाम इस - प्रकार निविष्ट किये गये हैं एक्कारस उवासगप डिमाम्रो प० ( पण्णत्ताओ) है । इसमें स्त्री का अध्याहार करना पड़ता है । पर उससे रात्रि मे भोजन का व्रत रखने रूप अर्थ का बोध सरलता मे हो जाता है । ग्यारहवीं प्रतिमा के धारक श्रावक के विषय मे रत्नकरण्डक में इतना मात्र कहा गया है कि जो गृहवास को छोड़कर मुनि प्राथम में चला जाता है और वहा गुरु के समीप मे व्रतों को ग्रहण करके तपश्चरण करता हुआ भिक्षावृत्ति से भोजन करता है तथा वस्त्रखण्डलगोटी मात्र को धारण करता है वह उत्कृष्ट श्रावक होता है१०१ उधर सा. ध. में कहा गया है कि जो पूर्व व्रतो के श्राश्रय से मोह को मन्द करता हुम्रा उद्दिष्ट भोजन को छोड देना है वह अन्तिम उत्कृष्ट श्रावक होता है११ | आगे चलकर उसके दो भेदो का निर्देश करके उनमें यह भेद बतलाया गया है कि प्रथम उत्कृष्ट धात्रक तो बालों को तo ( त जहा ) – मरणसावर १ कयव्वयक मे २ सामात्यकडे ३ पीसहोववासनिरए ४ दिया बयाने रति परिमाणकडे ५ दिनावि राम्रो वि बभयारी अमिलाई डिमोई मोलिकडे सचितपरिणाए ७ धारभरिए पेमपरिणाए उभित ८ ६ परिणाम १० समणभूए ११ श्रावि भवइ समणाउमो । समवा० ११ पृ० १८-१६ । १. कस्मात् ? रात्री निधि स्त्रीसेवाया वर्तनात् रात्री भक्त स्त्रीभजन व्रतयति रात्रिभक्तच्यत इति तच्छब्दस्य व्पादनात् । (सा. ध. स्त्रो. टीका ७-१५ ) १०. २० क० १४७ ( मा० ६० का ७ ४७वा श्लोक इससे पूर्णतया प्रभावित है ) । ११. सा० घ० ७-३७ । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृत पर इतर श्रावकाचारों का प्रभाव १२५ कैची अथवा उस्तरे से बनवा लेता है पर द्वितीय उत्कृष्ट होता है कि यदि प्रधरतन पदो मे-दमी-नौवी मादि श्रावक उन बालो का लोच ही करता है, प्रथम मफेद नीचे को प्रतिमानो मे-कूछ शिथिलता रहती है तो वह लगोट के साथ उत्तरीय वस्त्र को भी धारण करता है पर उन प्रतिमानो वी पूर्णता मे बाधक नहीं हो सकती है। द्वितीय मात्र दो लगोटों को ही धारण करता है, प्रथम जहा स्थानादि का समार्जन किसी कोमल वस्त्र प्रादि से ३. उपासकाध्ययन पोर सागारधर्मामृत करना है वहा द्वितीय उनका समार्जन मुनिवत् पिच्छो से मोमदेव मूरि विरचित यशस्तिलकचम्पू एक सुप्रसिद्ध करता है, तथा प्रथम यदि पात्र में भोजन करता है तो कागग्रन्थ है । वह पाठ पाश्वासो में विभक्त है। उनमें द्वितीय गहस्थ के द्वारा दिये गये भोजन को हाथ में म प्रथम प्रास्वागों मे यशोधर गजा का जीवन वत्स लेकर शोधनपूर्वक खाता है । इसके अतिरिक्त दूसरे का वणन है और अन्तिम ३ (६.८) ग्राश्वामो मे थावकाचार नाम 'पाय' होता है।। (प्रथम का नाम क्या होता चचिन है । ये तीनो पाश्वाम पामकाध्ययन के नाम से है, इसका उल्लेख नहीं किया गया)। प्रसिद्ध हे६ । उपामक यह श्रावक का सार्थक नाम है, प्रथम उत्कृष्ट थावक के भी वहा दो भेद मूचित क्याकि, वह जिनदेवादि की उपासना-प्राराधना-किया किये गये है२-एक तो वह जो पात्रो को लेकर प्रति के करता है। श्रावक भी उसे इसलिए कहा जाता है कि वह योग्य भोजन को कितने ही घरों से लाता हुआ एक स्थान मुनि जन - मुनि जनो से धर्मविधि को श्रवण किया करता है। मे, जहा प्रासुक जल उपलब्ध होता है, बैठकर हाथ मे (क्रमश) अथवा वर्तन में खाता है। बीच मे यदि कोई भोजन के ६ यह धी प० कैलाशचन्द जी शास्त्री के द्वारा सम्पालिये प्रार्थना करता है तो उसके पूर्व में भिक्षाप्राप्त टिन होकर भारतीय ज्ञानपीठ के द्वारा पृथक भोजन को खाकर तत्पश्चात् प्रावश्यकतानुसार वहा भोजन मे भी प्रकाशित हो चुका है। उसका विशेष परिचय कर लेता है३ । दूसरा वह जिमका नियम एक ही गृह वहा देग्दा जा सकता है। मम्बन्धी भिक्षा का होता है। प्रा. प्रभाचन्द्र विरचित रत्नकरण्डक की टीका मे यहा प्रथम उत्कृष्ट के विषय में जो यह कहा गया प्रत्येक परिच्छेद के अन्त मे जो समाप्ति सूचक वाक्य है कि चार पर्यों में चारों प्रकार के प्राहार के परित्याग ( ममन्तभद्रस्वामिविरचितोपासकाध्ययनटीकायां ) स्वरूप उपवाम उसे करना ही चाहिये५, उमसे प्रतीत उपलब्ध होता है उसमे ऐमा प्रतीत होता है कि रत्न करण्डक का नाम भी उपासकाध्ययन रहा है । १. मा०प०७,३८-३९ व ४५-४६। २. एतेन प्रथमोत्कृष्टो द्वधा स्यादनेकभिक्षानियम. एक- ७ मपत्तदसणाई पइदियह जइजणा मुणेई य । भिक्षानियमश्चेत्युक्तं प्रतिपत्तव्यम् । मामायारि परमं जो खनु तं सावग विन्ति ॥ सा. घ. स्वो. टीका ७-४६ । (धा० प्राप्ति २) ३. मा. घ. ७,४०-४३ । श्रृणोति गुर्वादिम्यो धर्ममिति श्रावकः । (सा.प. ४. सा घ. ७-४६ । स्वो० टीका १-१५)। शृणोति तत्व गुरुभ्य इति ५. कुर्यादेव चतुष्पामुपवासं चतुर्विधम् सा. घ. ".३६। श्रावकः (सा. घ. ५.५५)। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादामी के चालुक्य नरेश और जैनधर्म श्री दुर्गाप्रसाद दीक्षित एम० ए० सातवाहन साम्राज्य के ध्वंसावशेष पर दक्षिण में अनेकों राजवंशों का उदय और प्रस्त हुआ । प्रायः सभी राजवंश अपने प्रतिद्वन्दियों को हराकर एक साम्राज्य निर्माण की कामना रखते थे। जिस समय उत्तर भारत गुप्त साम्राज्य के स्वर्ण युग से गुजर रहा था उसी समय विदर्भ तथा उसके आसपास के प्रदेशों पर वाकाटको का राज्य था । परन्तु दक्षिण भारत मे छोटी २ राज शक्तिया आपस में लड़ रहीं थीं। तभी दक्षिण में एक नवीन राजवंश का उदय हुआ जिसने करीब २५० वर्ष तक दक्षिण की इन विश्रंखलित शक्तियो को एक सूत्र मे बाधने का प्रयत्न किया। उनकी यह सफलता, उस समय उन्नति की चरम सीमा पर थी, जब उत्तर भारत मे सम्राट् हर्षवर्धन का शासन था। यह शक्ति सम्पन्न राज्य बादामी के चालुक्य नरेशों का था । इस अटल सत्य से मुख मोड़ा नहीं जा सकता है, कि इस राजवंश के शासन काल में दक्षिण में जो सास्कृतिक विकास उसकी हुपा किसी भी राजवंश के शासन तुलना युग के सांस्कृतिक विकास से की जा सकती है दक्षिण के कलात्मक वैभवों की प्राधार शिला इस युग में ही रखी गयी थी। जन्ता एलोरा और एलीफन्टा की गुफाओं में प्रदर्शित भारतीय कला का बहुत बडा भाग इसी युग की देन है । संस्कृत और कन्नड़ भाषाश्रो का जो मुखरित स्वरूप हमे पश्चिमी चालुक्यों के अभिलेखों में मिलता है, वह निसन्देहात्मक रूप से इस तथ्य की घोषणा करता है कि इस राजवंश ने न केवल इन भाषाओं के विद्वानों को प्राय ही दिया बल्कि प्रगति के लिए समुचित वातावरण प्रदान किया था। इन परिस्थितियों मे रविकीर्ति का यह स्वाभिमान नितान्त स्वाभाविक ही है कि वह कवि कुल गुरु शिरोमणि कालिदास तथा भारवि से अपनी तुलना १ मिराशी; वा०वि०, वाकाटक नृपति और उनका काल करे २ | धर्म के भी क्षेत्र में यह राजवंश किसी से पीछे नहीं या चालुक्यों की छत्र छाया में सभी धर्मों को समान रूप से पल्लवित पुष्पित तथा फलित होने का अवसर मिला। बादामी चालुक्य नरेशों के अनेक अभिलेखों मे अनेकों मन्दिरों, शिवालयों, तथा गुफा गृहों के निर्माण का उल्लेख है । जिसके लिए उन्होंने अनेकों दान दिये थे । यह प्रायः सत्य ही है कि उनका व्यक्तिगत धर्म व प्रथवा वैष्णव था, परन्तु उन्होंने स्वधर्म को किसी पर लादा नहीं था। अनेकों राज परिवार के सदस्यों द्वारा जिनालयो जैन संस्थानों और अन्य धार्मिक सम्प्रदायों को दान देना, तथा जैन विश्वासु धौर बद्धालुओं का उच्च राजकीय पद पर होना ३, उनकी धर्म निरपेक्षता का जीता जागता और जलता हुधा नमूना है। शायद ही भारत का ऐसा कोई क्षेत्र हो जहां जैन धर्म के परिश्रमी प्रचारक न पहुँचे हो। आधुनिक महाराष्ट्र, मैसूर, धाध्र प्रदेश तथा गुजरात के जिन अंशों पर छठी सातवी शताब्दी में बादामी के चालुक्य नरेशों का प्राधि पत्य था, वहाँ मात्र भी इतनी शताब्दियों के बावजूद जैनधर्म बड़ी श्रद्धा और बादर को दृष्टि से देखा जाता है। यह तथ्य हो इस तर्क को उद्घोषणा करता है कि चालुक्यों की छत्र छाया में जैन प्रसारकों को अनुकूल वातावरण और सरक्षण प्राप्त हुप्रा था । उस युग के कलात्मक निर्माण मे जैन भिक्षुषों का पर्याप्त है। २ ऐहोल प्रशस्ति एपिग्रेफिया इण्डिका जिल्द ६, पृ० ७. "येनायोजि नवेश्मास्थिरम विधी विवेकिता जिनवेदयम स विजयतां रविकीर्ति X कविताश्रित कालिदास भारवि कीर्तिः ॥३७॥" ३ एहोल प्रशस्ति का लेखक रविकीर्ति एवं चालुक्यो के शासन पत्रों के लेखक, जो महासन्धि विग्रहीक भी थे, जैनधर्मावलम्बी प्रतीत होते हैं। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादामी के चालुक्य नरेश और जैनधर्म १२७ संस्कृति और शिक्षा के तत्कालीन कुछ केन्द्र यद्यपि पाज कलापो का बडा ही सुन्दर एवम् साहित्यिक वर्णन है। छोटे नगर है। पर उनके अवशेष, मन्दिरो तथा जिनालयों इसमे रविकीति के द्वारा एक जिनेन्द्र भवन के निर्माण में बची हुई कलाकृतियाँ तथा वास्तु के नमूने उनकी का उल्लेख है। यद्यपि अभिलेख में यह नहीं बताया गया भव्यता, गौरव, प्रसिद्धि तथा उच्चता के प्रतीक है। है कि जिनालय का निर्माण कहाँ हुमा था, परन्तु अभिलेख बादामी के चालुक्य नरेशों के इतिहास जानने के का एहोल में उपलब्ध होना यह मूचित करता है कि प्रमुख माधन, उनके अभिलेख, तत्कालीन कलाकृतियाँ इसका निर्माण कही एहोल नगर में ही हुआ था। प्रशस्ति नथा द्वेनसांग के विवरण हे। इस वश के लगभग एक मे ऐमा प्रतीत होता है कि रविकोति पुलिकेशन द्वितीय दर्जन अभिलेखों का उद्देश्य जैनधर्म से सम्बन्धित है। का कोई अधिकारी था। उसके द्वारा पुलिकेशन द्वितीय कालक्रमानुसार प्रथम चालुक्य वशीय जैन अभिलेख प्रल्तेम के शासन काल का बड़ा ही मूक्ष्म विवरण इस विचार का मे प्राप्त हुआ था। इस अभिलेख को अधिकतर समर्थन करता है । दूसरा अभिलेख लक्ष्मेश्वर (धारवाड़ विद्वानों ने जाली माना है। लेकिन प्राय सभी विद्वान जिला) में प्राप्त हुप्रा है। इस अभिलेख की सत्यता इस विचार से सहमत है कि जाली अभिलेखों के सभी पर कुछ विद्वानो ने शंका व्यक्त की है १० । लक्ष्मेश्वर अभिसन्दर्भ जाली ही हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता है । इस लेख मे सेन्द्रक राजा दुर्गशक्ति द्वारा, पुलिगेरे नगर में अभिलेख में चालुक्य सम्राट् सत्याश्रय (पुलि के गिन् प्रथम) एक क्षेत्र दान देने का उल्लेख है। इस दान का उद्देश्य का उल्लेख है। तदुपरान्त कुहण्डि विषय के शासक शंख जिनेन्द्र के चैत्य में पूजा की शाश्वत व्यवस्था थी११॥ रुद्रनीक सैन्द्रक वंशीय सामियार राजा का वर्णन है। सेन्द्रक राजा चालुक्यो के सामन्त थे । सामियार ने अलक्तक नगर में एक जैन मन्दिर बनवाया चालुक्य विक्रमादित्य प्रथम के शासनकाल के एक था, तथा इसी मन्दिर के लाभार्थ उसने सम्राट् सत्याश्रय अभिलेख मे१२ राजा के द्वारा कुरुतकुण्टे ग्राम के दान का की प्राज्ञा से शक ४११ में कुछ गाँवों का दान दिया था। उल्लेख है। दान ग्रहणकर्ता रवि शर्मा बमरि मघ का था। इम ताम्रपत्र की त्रुटिपूर्ण तिथि तथा अन्य अनेक प्राधारों सम्भवतः इस बमरि सघ का सम्बन्ध जनो मे है। इसकी पर फ्लीट तथा अन्य विद्वानों ने इसे जाली माना है। त्रुटि पूर्ण तिथि तथा अन्य अनेक प्राधागे पर विद्वानो ने कीर्तिवर्मन प्रयम एवं उसके अनुज मङ्गलेश के राज्यकाल इसे जाली माना है .३ । चालुक्य विनयादिन्य के शासनका हमें कोई भी जन अभिलेख नहीं मिलता है। लेकिन काल के केवल एक अभिलेख का सम्बन्ध जैनधर्म से है। इससे यह अनुमान निकालना प्रसगत ही होगा कि उपयुक्त इममे विनयादित्य द्वारा पाक ६०८ मे मूलसघ परम्परा की मम्राटो के समय मे जैन सम्प्रदाय और धर्म के प्रचार मे देवगण शाखा के किसी जैन प्राचार्य को दान देने का गज्य की तरफ से कोई रुकावट थी । उल्लेख है१४ । फ्लीट महोदय ने लक्ष्मेश्वर से उपलब्ध पुलकेशिन् द्वितीय के शासन काल के दो अभिलेखों इस मभिलेख को भी जाली करार दिया है१५ । परन्तु का सम्बन्ध जैनधर्म से है। प्रथम अभिलेख एहोल प्रशस्ति का लेखक रविकीति एक जिन उपासक था। इस ६ इ० ए० जिल्द ७, पृ० १०६ । १० इ० ए० जिल्द ३०, पृ० २१८, न० ३७ प्रशस्ति मे पुलकेशिन द्वितीय की विजयों तथा अन्य कार्य ११ इण्डियन एण्टि क्वेरी जिल्द ७. पृ० ११६ और मागे। ४ पुलिकेरि, प्राडूर, परलूर तथा अण्णिगेरि प्रादि । १२ इण्डियन एण्टिक्वेरी जिल्द ७, पृ० २१६ ५ इण्डियन एण्टिक्वेरी, जिल्द ७, पृ० २०६ १३ इण्डियन एण्टिक्वेरी जिल्द ७, पृ० २१६ तथा जिल्द ३० ६ इ० ए०, जिल्द ७, पृ० २०९-२१४ पृ० २१७ नं. ३० ७ इ. ए., जिल्द ७, पृ० २०९-२१४ एवं जिल्द ३०, १४ इण्डियन एण्टिक्वेरी जिल्द ७, पृ० ११२ और आगे। पृ० २१८, न० ३५ १५ इण्डियन एण्टिक्वेरी जिल्द ७, पृ० ११२ तथा प्रागे ८ एहोल प्रशस्ति, ए० इ०, जिल्द ६, पृ. ७ पौर जिल्द ३०, पृ० २१८, नं० ३८ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ अनेकान्त यह विचार सर्वमान्य नहीं है। विभिन्न कसौटियो पर यह है। दानग्रहणकर्ता श्री विजय देव पण्डित मूलसंघ परम्परा लेख खरा उतरता है। की देवगण शाखा से सम्बन्धित थे। वह जयदेव पण्डित चालुक्य नरेश विजयादित्य के शासन काल के तीन के शिष्य रामदेवाचार्य के शिष्य थे । दान एक व्यापारी अभिलेखों का सम्बन्ध जैन सम्प्रदाय से है। शिवगाँत्र के अनुरोध पर, जिन पूजा के विकासार्थ दिया गया था२०॥ (धारवाड़ जिला) से उपलब्ध ताम्रपत्र में शक ६३० मे, कीर्तिवर्मन द्वितीय के शासन काल के तीन अभिलेखो में मलूप (मलूक) सामन्त चित्र वाहन के अनुरोन पर जैनों का उल्लेख है। इनमें से दो अभिलेख तो पाडूर जिला विजयादित्य द्वारा जैन विहार को दान देने का विवरण धारवाड से मिले हैं २१, तथा एक अण्णिगेरि में मिला है २२॥ है १६ । इम जैन विहार का निर्माण विजयादित्य को बहिन आइर से प्राप्त दोनों अभिलेख तिथि विहीन हैं। प्रथम कुकम देवी द्वारा पुलिगेरे नगर में किया गया था। कुकम ग्राडर अभिलेख का प्रारम्भ वर्धमान की प्रार्थना के साथ देवी द्वारा जैन सस्थान का निर्माण चालुक्य नरेशों द्वारा होता है। किसी राजा या सामन्त द्वारा २५ निवत्तन जैनों को श्रद्धा की दृष्टि से देखने का मकाट्य प्रमाण भूमिदान का उल्लेख है। दान धर्मगामुण्ड द्वारा निर्मित है । इसी गज्यकाल के दो अभिलेख लक्ष्मेश्वर में मिले जिनालय और भिक्ष गह को दिया गया था। प्राडर से हैं। प्रथम की तिथि शक ६४५ तथा द्वितीय की तिथि सो प्रभिलेख में कीतिवर्मन विसीय और उसके ६५१ शक है१७ । शक ६४५ का लक्ष्मेश्वर अभिलेख सामन्त माधववत्ति प्ररस का उल्लेख है। इसमे माधववत्ति नष्टप्राय है और उसके विवरणों के विषय मे नि मन्दे- जिनेन मन्दिर के पजार्थ तथा अन्य धार्मिक हात्मक रूप से कुछ भी कहना कठिन है। शक ६५१ क्रियानों के लिये परलर के चेडिय (चैत्य) को भूमिदान वाले अभिलेख में विजयादित्य द्वारा पुलिकर नगर के देने का विवरण है जैन गुरु व प्रभाचन्द्र का भा दाना दक्षिण में स्थित कदम नामक ग्राम को उदयदेव पडित आडर प्रभिलेखो में उल्लेख है। अण्णिगेरि (जिला बारउपाख्य निर्वाध पण्डित को दान दिये जाने का विवरण वाड) से प्राप्त अभिलेख मे जेवफगेरि के प्रमुख कलिहै। परम्पग की देवगण शाखा से सम्बधित थे। दान यम्म द्वारा चेडिय (जैन मन्दिर) के उल्लेख है । लेख पुलिकर नगर के शव जिनेन्द्र के मन्दिर के लाभार्थ दिया के सम्पादक श्री यन. लक्ष्मी नारायण राव के अनुमार गया था। उदय देव पण्डित को सम्रट् विजयादित्य के कलियम्म कोत्तिवर्मन द्वितीय के प्राधीन कोई अधिकारी पिता का पुरोहित बनाया गया है१८ । अतएव यह स्पष्ट पारा ही है, कि विनयादित्य को भी जैनो मे प्रास्था और श्रद्धा पक्त संक्षिप्त विवरण से यह स्पष्ट है कि प्राय' थी। उसके शासन काल मे उन्हे पूर्ण सम्मान एवम् सर- सभी चालक्य नरेशो ने इस धर्म के प्रति अपनी क्षण प्राप्त था। की है । चालुक्य नरेश विजयादित्य के पुरोहित का जैन विक्रमादित्य द्वितीय के शासन काल का शक ६५६ होना. राजवंश मे जैनों के प्रभाव मोर मादर का स्पष्ट का लक्ष्मेश्वर अभिन्ने ख १६, उसके शासन काल मे जैनो प्रमाण देता है। प्राय. सभी अभिलेखो में जैन मन्दिगे के को स्थिति पर प्रकाश डालता है। इसमे विक्रमादित्य निर्माण या जीर्णोद्धार का उल्लेख है जो यह बताता है कि द्वितीय द्वारा पुलिकर नगर मे शस तीर्थ वसति नामक उस युग में इस प्रदेश मे जिन पूजा पर्याप्त उन्नतिशील मन्दिर को सुशोभित करके, श्वेत जिनालय के जीर्णोद्धार अवस्था में थी। प्राधे से अधिक जैनों से सम्बन्धित के उपरान्त नगर के उत्तर में भूमिदान देने का विवरण २० इण्डियन एण्टिक्वेरी जिल्द ७, पृ० ११६ और पागे १६ ए० इ०, जिल्द ३२. पृ० ३१७ और प्रागे २१ इण्डियन एण्टिक्वेरी, जिल्द ११, पृ० ६६, कर्नाटक । १७ इण्डियन एण्टिक्वेरी जिल्द ७, पृ० ११२ अभिलेख (पंचसुखी द्वारा सम्पादित) जिल्द १ पृ०४ १८ इण्डियन एण्टिक्वेरी जिल्द ७, पृ० ११२ २२ एपिग्रेफिया इण्डिका, जिल्द २१, पृ० २०६ १९ इण्डियर एण्टिक्वेरी जिल्द ७, पृ० १०६ २३ एपिनेफिया इन्डिका जिल्द २१, पृ० २०६ और मागे Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गावामी के चालुक्य नरेश और जैनधर्म १२९ चालुक्य अभिलेख लक्ष्मेश्वर मे मिले है । यह इस तथ्य तथा शिगांव में उपलब्ध ताम्रपट, इस तथ्य को उद्घोकी ओर संकेत करता है कि प्राधुनिक लक्ष्मेश्वर प्राचीन षणा करते है कि चालुक्य नरेशो के राज्य काल में जैन काल मे, जैनधर्म के प्रसार और प्रचलन का एक प्रमुख धर्म को फलने, फलने और फैलने का पूर्ण अवसर पौर केन्द्र था। अधिकतर चालुक्य-जैन अभिलेख आधुनिक वातावरण मिला था। राज्य की ओर से उन्हें संरक्षण, धारवाड जिले में मिले है। फलत: यह स्पष्ट हो है कि सहायता और निर्बाध स्त्र सिद्धान्तो, प्रादर्शों तथा नियमो प्राधुनिक धारवाड जिला और उसके प्रासपास के क्षेत्र को पालन करने की स्वतत्रता थी। सरक्षण का तात्पर्य मे, उस युग मे इस धर्म ने पर्याप्त प्रभाव और प्रसिद्धि यह नहीं है कि इस धर्म को राजकीय मरक्षण प्राप्त था । प्रजित की थी। राजवश के अनेको मदस्यो का विभिन्न मतावलम्बियो विडम्बना का विषय है, कि प्राधे से अधिक और को प्राश्रय तथा सहायता देना, चालुायों की धर्म निरपेक्षता लक्ष्मेवर से प्राप्त सभी जैन-अभिलेखों को पनीट जैसे को प्रमाणित करता है। विद्वान ने जाली करार दिया है२४ । लेकिन बाद में अन्त में हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि चालुक्य उपलब्ध साक्ष्यो ने फ्लीट के इस मत को, सभी अभिनेखो नरेशो के शासन काल में दक्षिण-पश्चिम भारत मे जैन के प्रनि तो नही, परन्तु कुछ के प्रति अमगत सिद्ध कर धर्म का पर्याप्त प्रमार हुमा । स्वयम् चालुक्य सम्राटो दिया है। कुछ भी हो, ऐसे अभिलेख जिनको मत्यता पर तथा उनके परिवार के सदस्यो ने इस पुनीत कर्म की शंका नही की जा सकती है २५, यद्यपि थोडे है, परन्तु ओर अपनी सहायता प्रौर महानुभूति व्यक्त कर धार्मिक अपने में वह उम सामग्री को संजोये हुए है, जो चालुक्य प्रौदार्य का एक अमिट उदाहरण प्रस्तुत किया है। जैन नरेशो के इस धर्म के प्रति दृष्टिकोणो को स्पष्ट करत मूलमघ परम्पग की देवगण शाया को इस क्षेत्र में पर्याप्त है। एहोल प्रशस्ति, प्राडूर अभिलेख, अणिगेरि अभिलेख सहायता मिली थी। अनेको नगर जैन संस्कृति और धम २४ इण्डियन एण्टिक्वेरी, जिल्द ३०, पृ० २१७-२१८ प्रचार के केन्द्र बन गये थे। इस धर्म के प्रचार और प्रमार २५ एहोल प्रशस्ति, पाइर अभिनेख, अणिगेरि अभिलेख ने कन्नड और संस्कृत भाषा को भी विकसित होने का एवम शिगांव ताम्रपत्र । सुअवसर प्रदान किया था। अनेकान्त की पुरानी फाइलें अनेकान्त की कुछ पुरानी फाइले अवशिष्ट है जिनमे इतिहास, पुरातत्व, दर्शन और साहित्य के मम्बन्ध मे खोजपूर्ण महत्व के लेख लिखे गए है जो पठनीय तथा सग्रहणीय है। फाइल अनेकान्त के लागत मूल्य ) २० मे दी जावेगी, पोस्टेज खर्च अलग होगा। फाइले वर्ष ४, ५, ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १९ वर्षों की है। अगर मापन अभी तक नही मंगाई है तो शीघ्र मगवा लीजिए, क्योकि फाइले थोड़ी ही प्रवशिष्ट है। मैनेजर 'अनेकान्त' बोरसेवामन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तर्क में हेत्वनुमान डा. प्रद्युम्नकुमार जैन एम. ए. पो-एच. डो. तर्कशास्त्र (Logic) चाहे भारतीय रहा हो अथवा भारतीय तर्कशास्त्र के विवेचन मे प्रमा ज्ञान अथवा पश्चिमी, हेत्वनुमान (Sytlogism) सर्वत्र ही न्याय की विशुद्ध ज्ञानोपलब्धि के कारण रूप में प्रमाण का सम्यक् धूरी रूप में स्वीकार किया गया है। उसकी यथार्थ स्थिति विवेचन सभी तर्क शास्त्रियों को मान्य रहा है। यद्यपि और रूप का निर्णय तर्कशास्त्र का मुख्य विषय है । यहा प्रमाण की संख्या के बारे में मतभेद मिलता है, परन्तु लेखक को केवल जैन तर्काश्रित हेत्वनुमान का एक सरल प्रामाणिक चितन के लिए प्रमाणशास्त्र के अध्ययन पर अध्ययन पश्चिमी तर्कशास्त्र के दृष्टिकोण से प्रस्तुत करना सभी एकमत है। जैन परम्परा के अनुसार प्रमाण के अभीप्सित है। केवल दो भेद है-प्रत्यक्ष और परोक्ष३ । परोक्ष प्रमाण हंत्वनुमान (Syllogism) क्या है ? के भी स्मृति प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान, और पागम भेद हेत्वनुमान का तकनीकी प्रयोग पश्चिमी तर्कशास्त्र मम्मत है। इन भेदों में न्याय की दृष्टि से केवल तर्क की प्रमुख देन है। अनुमान की प्राकारी (Formal) और अनुमान का ही महत्व है। तर्क व्याप्ति-निर्माण की प्रशाखा में अव्यवहित (Immediate) और व्यवहित एक प्रक्रिया है, जिसे पश्चिमी तर्कशास्त्र मे अागमन पद्धति (Mediate) प्रकारों मे से व्यवहित का प्रकाशन हेत्वन- के रूप में अध्ययन किया जाता है। अनुमान साधन से मान के रूप में ही होता है। अतः पश्चिमी तर्कशास्त्र के माध्य-ज्ञान की उपलब्धि में निहित है५ । यही साधन से जनक 'परस्तू' ने हेत्वनुमान की परिभाषा इस प्रकार की, साध्य-विज्ञान की शाब्दिक अभिव्यक्ति भारतीय तर्कशास्त्र "हेत्वनुमान एक वह रीति है जिसमे कुछ कथित चीजो से मे परार्थानुमान रूप मे अभिप्रेत है, जो पश्चिमी तकशास्त्र तद्भिन्न कुछ अन्य चीजे अनिवार्य रूपेण निगमित होती के हेत्वनुमान के समकक्ष है। अतः परार्थानुमान और है।" इसी परिभाषा को परिष्कृत रूप में 'ब्रडले'ने हेत्वनुमान प्रयोजन की दृष्टया लगभग एक ही है। प्रकट किया, कि "हेत्वनुमान वस्तुत: एक तर्क है, जिसमे जैन हेत्वनुमान का प्रारूप उद्देश्य और विधेय के रूप मे, दो पदो का एक ही नीसरे जन नैयायिकों का हेत्वनुमान के सम्बध मे अपना पद के साथ दिए हुए संबन्ध में अनिवार्य रूपेण स्वय उन्ही एक विशिष्ट दृष्टिकोण है जो हिन्दू और पारस्तवीय नयादोनो पदो के मध्य, उद्देश्य विधय रूप मे, सम्बध निगमित यिकों के दृष्टिकोणो से अशत: साम्य रखते हुए सम्पूर्णत किया जाता है।" इससे स्पष्ट है, कि हेत्वनुमान अनुमान उनसे भिन्न है। जैन हेत्वनुमान का आकार अपेक्षाकृत का एक विशिष्ट तकनीक है, जिसके द्वारा प्रकृत अनुमान संक्षिात है। उसमे केवल दो अवयव अभिप्रेत है, जब कि को सुव्यवस्थित ढंग से दूसरो तक पहुँचाया जा सकता है, न्यायदर्शन मे पाँच और पारस्तवीय लॉजिक में तीन माने मौर निष्कर्ष की वैधता पूर्वस्वीकृत सिद्धान्तों के प्राधार जाते है । यथापर सिद्ध की जा सकती हैं। इसमें तीन पद होते है, जिनमें पर्वत पर अग्नि है, एक मध्यम पद के द्वारा शेष दो पदों में सम्बध प्रस्थापित क्योंकि वहां धूम्र है। किया जाता है। ३. परीक्षामुखम्-२-१ १. Anal Priora, 24 b, 18 से । ४. वही-३-२ २. Principles of Logic, Bk. Il pt. I CIV, P.10 ५. वही-३-१४, प्रमाण मीमांसा १-२-७ - - ---- Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तर्क में हेत्वनमान इसमें पहला अवयव पक्ष और दूसरा हेतु है। इसी है। यहाँ तक कि जैन नयायिक की दृष्टि में उदाहरण न को हिन्दू न्याय मत मे निम्न प्रकारेण पाच अवयवों में केवल निरर्थक ही है, बल्कि साध्य-ज्ञान की उपलब्धि मे व्यक्त किया जाता है२ : बाधक है, क्योकि हमे सिद्ध करना है कि प्राग पर्वत पर है, पर्वत पर अग्नि है; (प्रतिज्ञा) जब कि उदाहरण में प्राग पर्वत के बिना भी सम्भव क्योंकि वहां धूम्र है; (हेतु) दिखाई गई है। प्रत. प्रस्तुत पक्ष के मुकाबिले दूसरे पक्ष जहाँ-जहाँ धूम्र, वहाँ-वहाँ अग्नि, को प्रकट कर संदेह का बीजारोपण होता है, जो साध्य जैसे- (उदाहरण) ज्ञान की सिद्धि मे सहायक नहीं कहा जा सकता । ऐसा ही यहाँ है; (उपनय) उदाहरण के अतिरिक्त पंचावयव हेत्वनुमान में अंतिम प्रतः पर्वत पर अग्नि है। (निगमन) दो अवयव, यथा-उपनय पौर निगमन, भी जनो के अनु पारस्तवीय हेत्वनुमान मे उपर्युक्त पाँच अवयवो मे से सार पिष्टपेषण मात्र है। जैन नैयायिक माणिक्यनन्दि पहले तीन को विलोम रीति से रखा जाता है३, यथा- पूछते है . 'कुतोऽन्यथोपनय निगमने' (अर्थात्-पन्यथा जहाँ धूम्र है वहाँ अग्नि है; (Major premise) किसलिए उपनय और निगमन हों ?), उपनय और पर्वत पर धूम्र है, (Minor premise) निगमन में जो यह कहा गया, कि ऐसा यह पर्वत धूम्रमय प्रतः पर्वत पर अग्नि है। (Conclusion) है 'अतः पर्वत पर अग्नि है', तो क्या उपयुक्त अवयवो मे जैन नैयायिक पंचावयव हेत्वनुमान में उदाहरण वणित और उदाहरण मे प्रमाणित पर्वत पर धूम्र से प्रभृति तीन अवयवों को तर्क की विद्वद् गोष्ठी के लिए अग्नि के ज्ञान में कोई संदेह रह गया था? अन्यथा उपव्यर्थ मानते है। उनका तर्क है कि हेत्वनुमान मे उदाहरण नय और निगमन की क्या प्रावश्यकता पड गई? अतः नामक अवयव का कोई कार्य नहीं है। उदाहरण से न तो जैन नैयायिक के अनुसार उपनय पौर निगमन भी अनुसाध्यज्ञान उपलब्ध होता है, क्योंकि साहा के लिए तो मान के अंग नहीं है, क्योंकि पक्ष मे साध्य और हेतू के हेतु ही है और न व्याप्ति का ही उदय होता है, क्योकि निश्चय हो जाने पर कोई संशय शेष नही रहता। व्याप्ति अथवा अविनाभाव के निश्चय के लिए विपक्ष का हेत्वनुमान मे उदाहरण पंग के प्रति जनों की उपेक्षा प्रतियोग सिद्ध होना प्रावश्यक है। मात्र रसोई के उदा. वस्तुतः एक विशेष माने रखती है। हिन्दू नैयायिक व्याप्ति हरण से व्याप्ति का निश्चय नहीं होता। साथ ही निर्माण की क्रिया को वस्तुतः अनुमान से पृथक 'नही उदाहरण केवल विशिष्ट दृष्टात का निदर्शन करता है मानता, बल्कि उसी का एक अंग मानता है। परन्तु जैन जबकि व्याप्ति सामान्य सत्य का। एक विशेष सामान्य नैयायिक व्याप्ति प्रथवा भविनाभाव सम्बन्ध के निश्चयीकी सिद्धि के लिए अपर्याप्त है। यदि उस एक विशेष पर करण की क्रिया को तर्क प्रयवा ऊहा का नाम देता है, संदेह करे, तो दूसरा विशेष, दूसरे पर सदेह की अवस्था जिसे अनुमान की ही तरह अनुमान से अलग स्वतन्त्र मे फिर प्रौर, प्रौर ऐसे ही अवस्था दोष सुनिश्चित है५। प्रमाण स्वीकार करता है। यही पर जैन और पारस्तवीय अब कोई कहे, कि उदाहरण से व्याप्ति-स्मरण हो जाता तर्कशास्त्र एकमत हो जाते हैं । अरस्तू ने सामान्य है, तो वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि व्याप्ति-स्मरण के साध्यवाक्य (Major premise) अथवा व्याप्ति-वाक्य लिए हेतु ही पर्याप्त है, और उदाहरण सर्वथा निरर्थक की उपलब्धि प्रागमन प्रक्रिया के द्वारा मान्य की है, जिसे १. परीक्षामुग्क्म् ३-३७, प्रमाणनय तत्वालोकाल कार ३.२८ वह ताकिक अनुमान की प्रक्रिया से पृथक स्थान देता है। २. तर्कसंग्रह ४५; न्यायसूत्र, १-१-३२ ६. प्रमेय रत्नमाला ३-४१ प्रमाण नय तत्वा० ३-३७ ३. वेल्टन कृत इन्टरमीडिएट लॉजिक, पृ. २०० ७. परीक्षामुखम् ३-४२ ४. परीक्षामुखम् , ३-३८, ३६ ८. वही, ३-४३ ५. वही, ३-४. प्रमाणनय तत्वालोकालंकार ३-३६ ६. वही ३-४ प्रमाण नय तत्वा० ३-४. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त यह प्रागमन प्रक्रिया का विज्ञान ही जैनों का 'तकं अथवा existence and Law of Succession कहते है५ । इस कहा है, जो व्याप्तिरूपी सामान्य ज्ञान की खोज और प्रकार अनिवार्य मबध मे हेतु के सभी दृष्टान्त साध्यमय मिद्धि करता है और अनुमान-क्रिया का प्राधार निर्मित होते है अथवा हेतु का कोई दष्टान्त साध्य के बिना सम्भव करता है। अतः पश्चिम के प्राकारी तकंशास्त्री ठीक नही है । यदि साध्य नही है, तो हेतु भी नही हो सकता; जैनो की भांति हेन्वनमान मे न तो उदाहरण, न उपनय उमी के माथ-साथ यदि हेतु उपलब्ध है तो इसका अर्थ है और न निगमन ही स्वीकार करते है, बल्कि मध्यम पद कि वहा माध्य अवश्य है। इस प्रकार न्याय की पदावली अथवा हेतु (Middle term) के द्वारा पक्ष अथवा धर्मी मे हेतु व्याप्य और साध्य व्यापक कहा जाता है, क्योकि (Minor term) के साथ साध्य अथवा धर्म (Major माध्य ही हेन के दृष्टान्तो में व्यापक होता है। इस से term) का सम्बन्ध-स्थापन होना मानते है।। स्पष्ट हुआ कि हेतु और साध्य का सम्बन्ध व्याप्य-व्यापक हेतु-मीमांसा सम्बन्ध होताहै, जो सहभाव मोर क्रमभाव दोनो रूपों मे अब हम हेत्वनुमान के समस्त पहलुमों के विस्तार में व्यक्त हो मकता है। न जाकर केवल हेतुपद पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं, जैन नैयायिक जब हेवनुमान का कथन करता है, तो क्योंकि हेतु ही सम्पूर्ण हेत्वनुमान की धुरी है। हेतु के उसके दोनो अवयवों में त्रिकोणीय सम्बन्ध को व्यक्त माध्यम से ही अप्रत्यक्ष साध्य का ज्ञान होता है। अतः करता है। यथा--- माध्य की सम्यक ज्ञानोपलब्धि के लिए हेतु का मम्यक पर्वत पर अग्नि है, ज्ञान प्रावश्यक है। क्योकि वहाँ धूम्र है। हेतु की परिभाषा मे जैन नैयायिक माणिक्यनन्दि का इममे त्रिकोणीय मम्बन्ध इस प्रकार है :कथन है, कि 'जिस पद का साध्य के माथ अविनाभाव अग्नि (साध्य) सम्बन्ध हो वही हेतु या लिङ्ग है२।' अविनाभाव का तात्पर्य है, कि जिसके होने पर ही हो और न होने पर न हो। माना क हेतु है और ख माध्य । क और ख के प्रविनाभाव का तात्पर्य है कि ख के होने पर ही कहो, न होने पर न हो, तो ऐसा सम्बध अविनाभाव होता है। पश्चिमी तक. पर्वत शास्त्र में इसे पनिवार्य (Necessary) सम्बन्ध कहते है३ । (पक्ष) ऐमा अनिवार्य सम्बन्ध सहभाव मोर क्रमभाव दो रूपो में एक पोर, पर्वत और अग्नि का गुह्य सम्बन्ध, दूसरी ध्यक्त होता है। । पश्चिम में इसे क्रमश Law of Co- मोर, पर्वत और धूम्र का प्रकट सम्बन्ध तथा तीसरी ओर १. देखिए-Bradley-Principles of Logue Bk. l] Principlesoflawle pt. धूम्र प्रार धूम्र और अग्नि का ऊहाधित अविनाभाव सम्बन्ध है। Pt. I Ch. IV P. 10. इसमे अविनाभाव को प्राधार बनाकर धूम्र और अग्नि Joseph--An Introduction to logic, P. 253 को क्रमशः प्रकट और गुह्य मान कर अनुमान के निम्नSecond Ed. Revised. लिम्वित चार रूप मम्भव हो जाते है :परीक्षामुखम् ३-१४ (१) क-पर्वत पर अग्नि है; प्रमाण मीमांसा १-२-७ क्योंकि वहा धूम्र है। २. परीक्षामुखम् ३-१५ ख-पर्वत पर शीत स्पर्श नहीं है। ३. देखिए-एल. एस. स्टेविग कृत A modern Intro क्योकि वहाँ धूम्र है। duction to Logic, पृ. २७१ (२) क-पर्वत पर धूम्र नहीं है। ४. परीक्षामुखम् ३-१६; प्रमाण मीमांसा १-२-१. ५. जे. एस. मिल कृत Logic Bk. III Ch.xXII पृ. ४ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन तक में हेत्वनुमान गीत स्पर्ग आदि को सम्भावना मिड करके) करता है। इस प्रकार उपलब्धि और अनुपलब्धि हेतु मे विधि पौर निषेध के मिश्रण मे हेतु मुम्यतः चार रूपो में प्रकट होता है, यथा १. उपलब्धि प्रविरुद्ध (उदाहरण स० १-क) २. उपलब्धि विरुन (उदा० सं० १-ख) ३. अनुपलब्धि अविरुद्ध (उदा०म०२-क) ४. अनुपलब्धि विरुद्ध (उदा० स०२-ख) अब हेनु के इन प्रकारों में से सामान्य नियमों का निगमन करने से पूर्व इन्हे तनिक चित्रात्मक ढग से समझ लेना और उपयुक्त होगा। 1१ (ख) साधा हेत ( N पीत) क्योकि अग्नि नहीं है। ख-पर्वत पर शीत स्पर्श है; क्योकि अग्नि नहीं है। इन चारं विकल्पों की सम्भावना का प्राधार अविनाभाव का निहित अर्थ है । निहित अर्थ है : धूम्र और अग्नि का व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध, जिसमे १. जहा धूम्र (व्याप्य) वहाँ अग्नि (व्यापक); फिर २. जहा धूम्र (व्याप्य) वहा अन्याभाव नही अथवा शीत स्पर्श नही (व्यापक) [क्योकि अन्याभाव = शीत स्पर्श]; और ३. जहाँ अग्नि नहीं (व्याप्य) वहाँ धूम्र नही (व्यापक); उसी प्रकार ४. जहाँ अग्न्याभाव (व्याप्य) वहां अग्नि विरोधी शोतस्पर्ग है। इन चार विकल्पो की सम्भावना का प्राधार अविनाभाव का निहित अर्थ है। निहित अर्थ में अविनाभावी पदो का व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध ही दृष्टव्य है, कि १. जहाँ च्याप्य, वहाँ व्यापक, २. जहाँ व्यापक नही वहाँ च्याप्य नही। यहाँ पहले विकल्प में व्याप्य हेतु है और दूसरे में वह व्यापक। पहले मे हेतु पक्ष मे उपलब्ध है (देखिए उपर्युक्त उदाहरण सस्या १ (क) व (ख)। अत जैन हेतु की उपस्थिति और अनुपस्थिति को प्राधार बना कर ही उमे दो भेदों में रखते है १, यथा १. उपलब्धि हेतु २. अनुपलब्धि हेतु फिर उमी सम्बन्ध मे हेतु का साध्य के साथ दुहरा मम्बन्ध होता है । जब हेतु साध्य को सिद्ध करता है तो वह एक तरफ तो माध्य का विधान करता है और दूसरी ओर साध्याभाव का निषेध भी जब धूम्र रूपी उपलब्धिहेतु एक अोर अग्नि का विधान करता, तो दूसरी ओर वह अग्न्याभाव की सभी अवस्थामो यथा, शीतस्पर्श प्रादि का निषेध भी करता है। ऐसा ही अनुपलब्धि हेतु मे जब एक ओर अग्नि का प्रभाव धूम्रभाव का विधान करता है, तो दूसरी ओर वही भग्न्याभाव धूम्राभाव के विरुद्धभाव (धूम्र) का निषेध (घूमाभाव की अनेक अवस्थाएं, यथा१. परीक्षामुखम् ३-५७ |२(क) २(रस) 4 . (तकन मकेत-जिन पदो के वृत्तों की परिधि एक दूसरे में गामिल हैं उसका नात्पर्य है कि उनमे विधानात्मक सम्बन्ध है; और जो वृत्त परस्पर असम्बद्ध हैं उनमें निषेधात्मक सम्बन्ध समझना चाहिए। उदाहरणार्थ १ (क) में पक्ष हेतु और साध्य तीनो में भावात्मक मम्बन्ध ही है। १ (ख) में पक्ष और हेतु के मध्य भावात्मक तथा साध्य मे दोनों का निषेधात्मक सम्बन्ध है २ (क) मे हेतु पौर साध्य के मध्य भावात्मक और दोनों का पक्ष के साथ १. परीक्षामुखम् ३-५८, और भी देखिए चम्पतरायकृत Science of Thought, १० १२१-१२२॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त निषेधात्मक सम्बन्ध है। २ (ख) मे पक्ष और साध्य के तर्कशास्त्र (Formal Logic) की कसौटी पर कसे, तो मध्य भावात्मक और दोनों का हेतु के साथ निषेधात्पक हम पाएगे कि वे वस्तुतः एक ही प्रकार के तर्क हैं, और सम्बन्ध है। उनकी तात्विकता में कोई भेद नही है। हम उन्हें प्राकारी इससे अब ये नियम निकलते है, कि तर्क की भाषा में निम्न प्रकार व्यक्त कर सकते है :१. उपलब्धि हेतु का पक्ष के साथ धनात्मक (भावात्मक) १ (क) सभी धम्रावस्थाए अग्नि की अवस्था है. Map सम्बन्ध होता है। पर्वत पर धूम्रावस्था है; SaP २. अनुपलब्धि हेतु का पक्ष के साथ ऋणात्मक (निषेधा .:. पर्वत पर अग्न्यावस्था है। :: SaP (Barbara) स्मक) सम्बन्ध होता है। १ (ख) कोई धूम्रावस्था शीतावस्था नहीं है; MaP ३. अविरुद्ध हेतु का साध्य के साथ धनात्मक (संगतिपूर्ण) सम्बन्ध होता है। पर्वत पर धूम्रावस्था है; SaM . ४. विरुद्ध हेतु का साध्य के साथ ऋणात्मक (प्रसंगति पर्वत पर शीतावस्था नहीं है। .:. SeP (PEशत पूर्ण) सम्बन्ध होता है। को अग्न्याभाव मानते हुए) इस प्रकार हेत्वनुमान के त्रिकोणीय संबंध में उपर्युक्त (Celarent) प्रकार से दो भजामों का निर्णय पूरा हो गया। यथा- २(क) कोई अन्याभाव धुम्रावस्था नहीं है, PaM हेतु पोर पक्ष, तथा हेतु और साध्य के बारे में। अब शेष पर्वत पर प्रग्न्याभाव है। SaP भुजा रहती है पक्ष प्रौर साध्य की, जो उपर्युक्त दो .. पर्वत पर धूम्रावस्था नहीं है। .:. SaM भुजामों की स्थिति से निश्चित होती है, अथवा जिसके (Celarent) नियम उपयुक्त नियमों से निगमित होते है। यह निगमन गणित के मीधे और सरल नियमों के प्राधार पर बड़ी २ (ख) सब अग्न्याभाव शीतावस्थाए है; PaM पर्वत पर अन्याभाव है। SaP मासानी में किया जा सकता है। गणित मे धन-धन के :. पर्वत पर शीतावस्था है। .:. SaM (ME शीत समुच्चय का परिणाम धन, धन-ऋण के समुच्चय का को धूम्राभाव मानते हुए) परिणाम ऋण तथा ऋण ऋण के समुच्चय का परिणाम (Barbara) धन होता है। हमने हेतु संबंध के उपर्युक्त चार नियमो में उपलब्धि को "+", अनुपलब्धि को "-", अविरुद्ध को उपयुक्त उदाहरणों को देखने से बिल्कुल स्पष्ट है कि "+" और विरुद्ध को "--" मान्य किया है। प्रत. चारों हेत्वनुमानों के साध्यवाक्य (Mayor premise) गणित के सर्वमान्य नियम के अनुसार : बिल्कुल एक ही है। १ (क) के साध्यवाक्य का प्रति१. उपलब्धि (+) अविरुद्ध (+) हेतु से निष्कर्ष धना- वर्तित वाक्य (Obverse proporition)। १ (ख) का __स्मक होगा; [यथा-पर्वत पर अग्नि है-१(क)] साध्य वाक्य है। १ (ख) के साध्य वाक्य का परिवर्तित २. उपलब्धि (+) अविरुद्ध (-) हेतु से निष्कर्ष (Converse Proposition) और १ (क) का परिप्रति ऋणात्मक होगा; [यथा-पर्वत पर शीत नहीं है-१(ख)] वर्तित वाक्य (Contrapositive) २ (क) का साध्य ३. अनुपलब्धि (-)मविरुद्ध (+) हेतु से निष्कर्ष ऋणा- वाक्य है, तथा २ (क) के साध्यवाक्य का पूर्ण परिप्रति त्मक होगा; (यथा पर्वत पर अग्नि नहीं है-२(क)] वर्तित (Complete contrapositive) वाक्य २ (ख) ४. अनुपलब्धि (-) विरुद्ध (-) हेतु से निष्कर्ष धना- माध्यवाक्य है । यथात्मक होगा; यथा-पर्वत पर शीत. है-२(ख)] MaPE MEP (Obvdrse) १-(ख) हेत्वनुमान का प्राकारी निर्वचन " : " (Incomplete contrapositive)२.क अब हम यदि उपयुक्त चारों हेत्वनमानों को माकारी MaPa PaM (Complete contrapositive) २-ख Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तर्क में हनुमान [ख] कार्य इस प्रकार चारों साध्य वाक्य मूल मे एक है। वारो का पक्ष तो पूर्णतः अपरिवर्तित ही है। हेतु पद उपलब्धि और अनुपलब्धि प्रकारों में भिन्न हो गया है, [ग] कारणजो साध्य वाक्य की जरूरत के लिहाज से हुआ है, क्योकि प्रत्येक हेत्वनुमान को प्रथम प्रकृति में ही रहना था । इसीलिए सभी हेत्वनुमान प्रथम प्राकृति के बारबारा श्रीर केलेरीन संयोगो में हो सिमट कर रह गये है त प्रकार की दृष्टि से वे सब एक हो प्रकार के अनुमान है। [घ] पूर्वचर [5] उत्तरचर - [4] सहचर ऊपर के पैराग्राफ में जन हेत्वनुमान की पश्चिमी तर्कशास्त्र सम्मत प्राकार के सदर्भ मे जाँच की गई। अब इसके साथ हम यह भी बताना चाहेंगे, कि जैन हेत्वनुमान का विषय-विस्तार आरस्तवीय हेत्वनुमान के सीमित विस्तार से ही बंधा नहीं है। वस्तुतः जैन हेत्वनुमान की सबसे बडी उपलब्धि यह है कि वह आकारी दृष्टिकोण से रामिड होते हुए भी प्राकारी तर्कशास्त्र की समायो से भी मुक्त है। पश्चिम के प्राकारी तर्कशास्त्रियों ने भी आकारी तर्कशास्त्र की पोर घालोचना की, क्योकि इस आकारी हेत्वनुमान (Formal syllogism ) की परिधि बहुत सकी है। इसमे प्रत्येक प्रकार की तर्क-प्रक्रिया श्राकार गत नहीं की जा सकी, जैसे कि कारण से कार्य कार्य से कारण, अनुक्रम और महवर्ती घटनाओं संबंधी अनुमान आदि । अतः वस्तुगत दृष्टि (Material viewpoint) से प्राकारी हेत्वनुमान कोई अधिक मूल्य नही रखा उसमें केवल उद्देश्य और वियरूप में पाने योग्य वर्ग-सम्बोधना (Class concepts) सबंधी धनुमान ही विषय किए जा सकते हैं। परन्तु जैन हेत्वनुमान मे वर्ग सम्बोधना के साथ अन्य अनुमानों का भी स्थान है। और उसी दृष्टिकोण से हेतु के उपर्युक्त चार भेदो के अनेक उपभेद किये गये है, जो निम्न प्रकार है। इन उपभेदो का विस्तारपूर्वक अध्ययन सम्प्रति स्थानाभाव के कारण सम्भव नही है । उपमंद १ उपलब्धि श्रविरुद्ध हेतु [क] व्याप्य उदाहरण शब्द परिणामी है; क्योंकि शब्द बनता है । १. परीक्षामुखम् ३६५ से इस पशु में बुद्धि है; क्योंकि इसमें व्यवहार है। १३५ यहाँ छाया है; क्योंकि छाता है । रोहिणी का उदय होगा; क्योकि कृत्तिका उदय हो चुका है। भरिणी का उदय हो चुका है; क्योंकि रोहिणी का उदय है । फल मे रूप है; क्योकि रस है । २. उपलब्धि विरुद्ध हेतु [क] व्याप्य - [ख] कार्य [ग] कारण -- [घ] पूवचर- [3] उत्तरचर- मुहत्तं पूर्व भरिणी उदित न होगा, क्योंकि पुष्य का उदय है । यह भित्ति पर भाग विहीन नहीं है। क्योकि उसका अतर्भाग मोजूद है । [च] सहचर - यहाँ शीतम्पर्श नहीं है; क्योंकि उष्णता नही है । यहां शीतस्पर्श नहीं है, नयोकि है। इस शरीर में सुख नहीं है; क्योकि हृदय शल्य है । मुहमति रोहिणी उदित न होगा; क्योकि रेवती का उदय है । २. अनुपलब्धि प्रविरुद्ध हत [क] स्वभाव [ख] व्यापक - [ग] कार्य [घ] कारण [ङ] पूर्णचर भूतल पर पट नहीं है। क्योंकि घट स्वभाव नही है । यहाँ शिशिपा (वृक्ष) नही है; क्योंकि यहाँ कोई वृक्ष नहीं है। यहाँ अप्रतिबद्ध समर्थन मग्नि नहीं है; क्योंकि नहीं है । यहाँ धूम्र नहीं है; क्योंकि यहाँ पनि नहीं है। मुहूतं बाद रोहिणी उदित न होगा; क्योंकि कृतिकोदय नहीं है। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [च] उत्तरचर- मुहतेपूर्व भरिणी उदित नहीं हुमा है. इसमे अरस्तू की हेत्वनुमान संबंधी सभी उपलब्धियां तथा क्योकि अभी कृतिका ऊपर नही है। सीमानो से अधिकांशतः मुक्ति मौजूद है। [a] सहचर- समतुला का एक छोर उन्नाम नहीं है। (ज्ञानपुर-वाराणसी) क्योकि दूसरा छोर नाम नहीं है। सहायक ग्रन्थ सूची (Bibliography) ४. अनुपलब्धि विरुद्ध हेतु 1. Aristotle--Anal Priora [क] कार्य- इस प्राणि मे व्याधि विशेष है, 2. F.H. Bradley-Principles of Logic क्योकि निगमय चेष्टाएँ नहीं है। 3. Welton-Intermediate Logic [ख] कारण- इसमे दुःख है, 4 Joseph -An Introduction to Logic क्योकि इष्ट संयोग नही है। 5. LS. Stabling-A modern Introduction to [ग] स्वभाव- सभी वस्तुएं अनेकान्त धर्मी है, Logo क्योकि उनमे एकान्त स्वभाव नहीं है। 6 JS mill-Logic 7. C.R. Jain-Science of Thought इस प्रकार सक्षेप में, उपलब्धि के दोनों प्रकागे में ७-७ उपप्रकार और अनुपलब्धि में अविरुद्ध के ८ तथा । 8. P.K. Jain-Jaina and Hindu (Nyay.) Logic-a cumparative study विरुद्ध के ३ उपप्रकार किए गए है। 9. माणिक्यनन्दि-परीक्षामुपम उपसंहार 10. हेमचन्द्र-प्रमाण मोमासा उपयूकस विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता || अन्नमभद्र-तकं सग्रह है, कि जैन तक के क्षेत्र में किसी वर्ग ये नगास्त्रियों में 12 गौतम-न्यायमूत्र पीछे नही है। देवनमान की विद चर्चा और उसका 13. प्रमाणनय तत्वालोकालका उहापोह महिन विवेवन जैनदन की महान् उपलब्धि है। 14 अननबार्य-प्रमेय रत्नमाला स्व-पर सम्बोधक पद मानत क्यों नहि रे, हे नर । मीत्र सयानी । भयो प्रचेत मोहमद पोक, अपनी सुधि विसरानी टंक दुखी अनादि कुबोध अव्रत ते, फिर तिनमों रति ठानी। ज्ञानसुधा निज भाव न चास्यो, पर परनति मति मानी ॥१॥ भव प्रमारता लखै न क्यों जह, नृप ह कृमि विट थानी । सधन निषन नृप दास स्वजन रिपु, दुखिया हरि से प्रानी । २। देह येह गद गेह नेह इम, है बहु विपति निसानी।। जड मलीन छिन छीन करमकृत, बषन शिव-मुख-हानी ॥३॥ चाह-ज्वलत ईधन-विधिवन-धन, प्राकुलता कुलखानी । शान-सुधारस-शोषन रवि ये, विषय अमित मृतुवानी ॥४।। पों लसि भक्तन-भोग विरचि करि, निजहित सुन जिनवानी । तजस राग बौल प्रब, अवसर, यह जिनचन्द्र बसानी ॥५॥ विवर दौलतराम Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान सन्त भट्टारक विजयकीर्ति डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल एम. ए. पो-एच. डी. १५वीं शताब्दी में भट्टारक सकलकीति ने गुजरात कारी स्वीकृत किया. और अपने ही समक्ष इन्हे भट्टारक पद एवं राजस्थान में अपने त्यागमय एवं विद्वत्तापूर्ण जीवन से देकर स्वय साहित्य सेवा में लग गये। भट्टारक संस्था के प्रति जनता की गहरी प्रास्था प्राप्त विजयकीति के प्रारम्भिक जीवन के सम्बन्ध में अभी करने में महान सफलता प्राप्त की थी। उनके पश्चात् कोई निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी है लेकिन इनके दो सूयोग्य शिप्य प्रशिप्यों ने भ० भुवनकीति एवं भ. शुभचन्द के विभिन्न गीतों के प्राधार पर ये शरीर भ. ज्ञानभूषण ने उसकी नींव को और भी दृढ करने में से कामदेव के समान सुन्दर थे। इनके पिता का नाम अपना योग दिया। जनता ने उन साधनों का हार्दिक साह गगा तथा माता का नाम कुपरि था। स्वागत किया और उन्हे अपने मार्गदर्शक एवं धर्म गुरू के साहा गंगा तनये करउ विनये शुद्ध गुरू। रूप में स्वीकार किया। समाज में होने वाले प्रत्येक शुभ वसह जाते कुप्ररि मातं परमपरं । धार्मिक एवं सांस्कृतिक तथा साहित्यिक समारोहो मे साक्षादि सुबद्धं जोकोह शुद्ध दलित समं । इनका परामर्श लिया जाने लगा तथा यात्रा सघो एव सुरसेवत पायं मारीत मायं मथित तमं ॥१०॥ बिम्बप्रतिष्ठानों में इनका नेतृत्व स्वत. ही अनिवार्य मान -शुभचन्द्र कृत गुरू छन्द गीतिका । लिया गया। इन भट्टारको के विहार के अवसर पर बाल्यकाल मे ये अधिक मध्ययन नहीं कर सके थे धार्मिक जनता द्वारा इनका अपूर्व स्वागत किया जाता लेकिन भ० ज्ञानभूषण के संपर्क में प्राते ही इन्होंने और उन्हे अधिक से अधिक सहयोग देकर उनके महत्व सिद्धान्त ग्रन्थों का गहरा अध्ययन किया। गोमट्टसार को जनसाधारण के सामने रखा जाता। ये भट्टारक भी लब्धिसार, त्रिलोकसार प्रादि सैद्धान्तिक ग्रन्थों के प्रतिजनता के अधिक से अधिक प्रिय बनने का प्रयास करते रिक्त न्याय, काव्य व्याकरण प्रादि के प्रथों का भी गहरा थे। ये अपने सम्पूर्ण जीवन को समाज एवं संस्कृति की अध्ययन किया और समाज मे अपनी विद्वत्ता की अद्भुत सेवा में लगाते और अध्ययन, अध्यापन एवं प्रवचनो द्वारा छाप जमा दी। देश में एक नया उत्साहप्रद वातावरण पैदा करते । लब्धि सुगमट्टसार सार त्रैलोक्य मनोहर। विजयकीति ऐसे ही भट्रारक थे जिनके बारे में अभी कर्कश तर्क वितर्क काव्य कमलाकर दिणकर । बहुत कम लिखा गया है। ये भट्रारक ज्ञानभूषण के शिष्य श्रीमलसंधि विख्यात नर विजयकीति वाहित करण। थे और उनके पश्चात भट्टारक सकलकीति द्वारा प्रतिष्ठा जा चांवसूर ता लगि तयो जयह सूरि शुभचंद्र सरण। पित भट्टारक गादी पर बैठे थे। इनके समकालीन एव इन्होंने जब साधु जीवन में प्रवेश किया तो ये अपनी बाद में होने वाले कितने ही विद्वानो ने अपनी ग्रंथ युवावस्था के उत्कर्ष पर थे। सुन्दर तो पहले से ही ये प्रशस्तियो मे इनका पादरभाव से स्मरण किया है। किन्तु यौवन ने उसे और भी निखार दिया। इन्होंने साधु इनके प्रमुख शिष्य भट्टारक शुभचन्द ने तो इनकी प्रत्य- बनते ही अपने जीवन को पूर्णतः संयमित कर लिया। धिक प्रशंसा की है और इनके संबंध में कुछ स्वतन्त्र गीत कामनाओं एवं षटरस व्यंजनो से दूर हट कर ये साधु भी लिखे है। विजयकीति अपने समय के समर्थ मट्रारक जीवन की कठोर साधना में लग गये। और ये अपनी थे। उनकी प्रसिद्धि एवं लोकप्रियता काफी अच्छी थी, साधना में इतने तल्लीन हो गये कि देश भर में इनके बही बात है कि ज्ञानभूषण ने उन्हें अपना पदाधि- चरित्र की प्रशंसा होने लगी। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त भ. शुभचन्द्र ने इनकी मुन्दरता एव मयम का एक कामदेव की सेना प्रापस में मिल गई। बाजे बजने रूपक गीतमें बहुत ही सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया है। रूपक लगे। कितने ही मनुष्य नाचने लगे। धनुष-बाण चलने गोत का सक्षिप्त निम्न प्रकार है। लगे और भीषण नाद होने लगा। विषम नाद किये गये। मिथ्यात्व तो देखते ही डर गया और कहने लगा कि इस कामनानो पर विजय का पता चला तो वह ईर्ष्या से जल मन्न ने नो मिथ्यात्व रूपी महान विकार को पहिले ही भन गया और क्रोधित होकर मन्त के मयम को डिगाने धो डाला है। इसके पश्चात कमति की बारी प्राया का निश्चय किया। लेकिन उसे थी कार्य मे सफलता नहीं मिली। मोह की नाद एक वैरि वरिंग रंगि कोई नावीयो। मेना भी शीघ्र ही भाग गई अन्त मे स्वय कामदेव ने उस मल सधि पट्ट बंध विविह भावि भावीयो। पर आक्रमण किया। इसका वर्णन पढ़िएतसह भेरी ढोल नाद वाद तेह उपानो। महा मयण महीयर चडीयो जयवर कम्मह परिकर साथि कियो भणि मार तेह नारि कवण प्राज नोपन्नो। मत्सर मद माया व्यसन निकाया पाखंड राया साथि लियो। कामदेव ने तत्काल देवांगनानो को बुलाया और उधर विजयकोति ध्यान मे तल्लीन थे। उन्होने शम, विजयकीति के मंयम को नष्ट करने की प्राज्ञा दी लेकिन दम एव यम के द्वारा एक भी नहीं चलने दो जिससे जब देवागनामों ने विजयकोनि के बारे में मुना तो उन्हे मदन राज को उसी क्षण वहा से भागना पड़ा। अत्यधिक दुख हुमा और मन्त के पाम जाने मे कष्ट अनु- झंटा झंट करीय तिहां लग्गा, मयणराय तिहां ततक्षण भग्गा भव करने लगी। इस पर कामदेव ने उन्हे निम्न शब्दों से प्रागति घो मयणाधिय नासइ, उन्माहित किया। ज्ञान खडग मुनि प्रतिहि प्रकास ॥२७ वयण सुनि नव कामिणी दुख धारिइ महत । इस प्रकार हम गीत में शुभचन्द्र ने विजयकीति के कही विमासण मझहवी नवि वारयो रहि कंत ॥१॥ चरित्र की निर्मलता ध्यान की गहनता एव ज्ञान की महत्ता रे रे कामणि म करि तु दुखह । पर अच्छा प्रकाश डाला है। इस गीत से उनके महान इंद्र नरेन्द्र मगाच्या भिखह । व्यक्तित्व की झलक मिलती है। हरि हर बभमि कीया रंकह। विजयकीति के महान् व्यक्तित्व को सभी परवर्ती लोय सव्व मम वसीहुँ निसंकह ॥१४॥ कवियो एव भट्टारको ने प्रशसा की है। ब्र० कामराज ने इसके पश्चात् क्रोध मान मद एव मिथ्यान्व की मेना उन्हे सुप्रचारक के रूप मे स्मरण किया है१ । भ० सकलखडी की गई। चारो ओर वसन्त ऋतु करदी गई जिसमे भूषण ने यशस्वी, महामना, मोक्षसुखाभिलाषी, आदि कोयल वह-कुह करने लगी और भ्रमर गुजाने लगे। भेरी विशेषतायो से उनकी कोति का बखान किया है। शुभबजने लगी। इन मब ने मन्न विजयकीति के चारो ओर चन्द्र तो उनके प्रधान शिष्य तो थे ही इसलिए उन्होने जो माया जाल बिछाया उमका वणन कवि के शब्दो मे अपनी प्रायः सभी कृतियो में उनका उल्लेख किया है। पढिए-- श्रेणिक चरित्र में यतिराज, पुण्यमूति प्रादि विशेषणों से बोलत खेलंत चालत धावत धूणत । अपनी श्रद्धाजलि अर्पित की है।। धूजत हाक्कत पूरत मोडत । जयति विजयकोति पुण्यमूर्तिः सुकीर्तिः तुदंत भंजंत खंजत मुक्कत मारत रगेण । ____जयतु च यतिराजो झूमिपः स्पृष्टपादः । फाउंत जाणंत घालंत फेडत खग्गेण । जाणीय मार गमणं रमणं य तीसो। १. विजयकीतियोऽभवत् भट्टारकपदेशिनः ।।७।। -जयकुमार पुराण बोल्याबइ निज वलं सकलं सुषोसो। २. भद्रारक श्रीविजयादिकीतिस्तदीयपटे वरलब्धकीत्तिः । सन्नाह बाहुबहु टोर तुषार बंती। महामना मोक्षसुखाभिलाषी बभूव जनावनियाच्यंपादः।। रायं गणंयता गयो बहु युद्ध कंती ॥१८॥ -उपदेश रत्नमाला Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान सन्त भट्टारक विजयकोति य-नलिन हिमांशानभूषस्य पट्टे, मिल गया था। उस समय भट्टारक ज्ञानभूषण जीवित थे विविध पर विवादि माषरे वनपातः ॥२२॥ क्योकि उन्होने मंवत् १५६० मे तत्त्वज्ञान तरगिणी को -श्रेणिक चरित्र । रचना समाप्त की थी विजयकीति ने सभवतः स्वय ने भ. देवेन्द्रकीति एव लक्ष्मीचन्द चादवाड ने भी कोई कृति नही लिखी। वे केवल अपने विहार एवं अपनी कृतियों में विजयकीति का निम्न शब्दों में उल्लेख प्रवचन में ही मार्ग दर्शन देते रहे। प्रचारक की दृष्टि से किया है। उनका काफी ऊंचा स्थान बन गया था और बहुत से विजयकीर्ति तस पटधारी, पगल्या पूरण मुखकार रे। राजामो द्वारा भी सम्मानित होते थे। वे शास्त्रार्थ एवं -प्रद्युम्न प्रबन्ध । वाद विवाद भी करते थे और अपने अकाट्य तको से तिन पट विजयकीर्ति जैवंत, गुरू प्रन्यमती परवत समान। प्रपने विरोधियो मे अच्छी टक्कर लेते थे। जब वे बहस --श्रणिक चरित्र करने तो श्रोतागण मत्र मुग्ध हो जाते और उनकी तको सांस्कृतिक सेवा को सुनकर उनके ज्ञान की प्रशंसा किया करते। भ० शुभविजयकीति का समाज पर जबरदस्त प्रभाव होने के चन्द्र ने अपने एक गीत में इनके शास्त्रार्थ का निम्न प्रकार कारण समाज को गतिविधियों में उनका प्रमुख हाथ वर्णन किया। रहता था। इनके भट्टारक काल में कितनी ही प्रतिष्ठाएं वादीय वाद विटंब वादि मिगाल मद गंजन । हुई। मन्दिरो का निर्माण एवं जीर्णोद्धार किये गये। वादीय कुंद कुदाल वादि श्रावय मन रजन। इनके अतिरिक्त सांस्कृतिक कार्यक्रमों के सम्पादन मे भी वादि तिमिर हर मूरि, वादि नीर सह सुधाकर । इनका विशेष उल्लेखनीय योगदान रहा । मर्वप्रथम इन्होंने वादि विट बन वीर वादि निगाण गुण सागर । सवत् १५५७-१५६० और उसके पश्चात् मवत् १५६१, वादोन विवध सरसति गछि मूलसंधि दिगंबर रह । १५६४, १५६८,१५७० प्रादि सवतो मे सम्पन्न होने कहि ज्ञानभषण सो पदिश्रीविजयकीति जागी यतिवरह ॥५ वाली प्रतिष्ठानों में भाग लिया और जनता को मार्गदशन इनके चरित्र ज्ञान एव सयम के सम्बन्ध मे इनके शिष्य दिया । इन सवतो में प्रतिष्ठित मूर्तियां डूंगरपुर, उदयपुर शुभचन्द्र ने कितने ही पद्य लिखे है उनमें से कुछ का रसाप्रादि नगरों के मन्दिरों में मिलती है। सवत् १५६१ मे स्वादन कीजिए--- इन्होंने सम्यग्दर्शन सम्यज्ञान एवं सम्यकचारित्र की। सुरनर खग वर चारूच चित चरणद्वय । महत्ता को प्रतिष्ठापित करने के लिए रत्नत्रय की मूर्ति समयसार का सार हंस भर चितित चिन्मय । को प्रतिष्ठापित किया। वक्ष पक्ष शुभ मुक्ष लक्ष्य लक्षण पतिनायक । स्वर्णकाल : विजयकीति के जीवन का स्वर्ण काल ज्ञान दान जिनगान प्रय चातक जलदायक । मबत् १५५२ से १५० तक का माना जा सकता है। कमनीय मति सुन्दर सुकर धर्म शर्म कल्याण कर । इन १८ वर्षों में इन्होंने देश को एक नयी सास्कृतिक जय विजयकोर्ति सूरीश वर श्री श्री बद्धन सौख्य वर ॥७ चेतना दी तथा अपने त्याग एवं तपस्वी जीवन से देश को विशद विसंबद वादि वरन कुंड गद भेषज । आगे बढाया । सवत् १५५७ मे इन्हे भट्टारक पद अवश्य दुर्नय बनद समीर वीर वंदित पद पंकज । १. भट्टारक सम्प्रदाय ०१४४ पुन्य पयोषि सुचंद्र चा चामोकर सुन्दर।। २. यः पूज्यो नृपमल्लिभैरवमहादेवेन्द्र मुख्य पः। स्फति कोर्ति विख्यात सुमूर्ति सोभित सुभ संकर । षटतांगमशास्त्रकोविदमतिर्जाग्रतयशश्चंद्रमाः ।। समार सर्प बह बप्प हर नागरमनि चारित्र पर । भव्यांभोरुहभास्कर: शुभकर: संसारविच्छेदकः । श्री विजयकोर्सि सूरीय जयवर श्रीवर्धन पंकहर ॥८॥ सोव्याच्छी विजयादिकीति मुनिपो भट्टारकाधीश्वरः। इस प्रकार विजयकीति अपने समय के महान् सन्त थे वही पृ० १४४ जिनके विषय मे प्रभी पर्याप्त खोज होना बाकी है। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि समयसुदर और उनका दानशील तप भावना संवाद सत्यनारायण स्वामी एम. ए. राजस्थान में एक कहावत है-समयसुदर रागोतड़ा, रचना है। उनके अपरिमित फुटकर गीत भी बड़े महत्त्वकुंभ राई रा भीतड़ा' अर्थात् जिस प्रकार महाराणा कुभा पूर्ण है । महाकवि के संबंध में विस्तृत जानकारी एवं द्वारा बनवाये हुए सपूर्ण मकानों, मदिरों, स्तंभों और उनको लघु रचनाओं के रसास्वादन के लिए श्री अगरशिलालेखों आदि का पार पाना कठिन है उसी प्रकार चद नाहटा और भंवरलाल नाहटा संपादित 'समयसुदर समयसदर जी विरचित समस्त गीतों का पता लगा पाना कृति-कुसुमाजली' दृष्टव्य है । यहा प्रस्तुत है उनकी अनेक भी दुष्कर कृत्य है। उनके गीत अपरिमित है। लघुकृति 'दान शील तप भावना सवाद' का संक्षिप्त कवि-परिचय अध्ययन । __ महाकवि समयमदर १७हवी शताब्दी के लब्धप्रतिष्ठ कृति-परिचय राजस्थानी जैन कवि हुए हैं। उनका जन्म पोरवाल प्रस्तुत कृति की रचना म० १६६२ में राजस्थान के जातीय पिता श्री रूपसिह और माता लीलादेवी के यहां भूतपूर्व प्रामेर (जयपुर) राज्य के सागानेर नगर मे हुई१। अनुमानतः सवत् १६१० वि० मे माचोर (सत्यपुर) में इसके दो अपर नाम श्री अगर चद भंवरलाल नाहटा के हमा । बाल्यावस्था में ही उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर क्रमश । अनुसार 'दान शील तप भावना सवाद शतक' और श्री महोपाध्याय पद प्राप्त किया। मधुर स्वभावी महाकवि विनयसागर के अनुसार दानादि चौढालिया' है यद्यपि अपनी अप्रतिम विद्वत्ता से अपने जीवन काल में ही प्रशसिन स्वय महाकवि ने इसका नाम 'दान शील तर भाबना हो चुके थे। उनने भारत के अनेक प्रदेशों का भ्रमण सवाद' ही रखा है दान सोल तप भावना रे रास रच्यउ सगदो रे। करके अपनी नानाविध रचनायो पोर मदुपदेशो द्वारा तत्रस्य जनसमुदाय को कल्याणपथ की ओर अग्रसर किया। भणतां गुणता भावसुंरे, रिद्धि समृद्धि सुप्रसादो रे ।। मौभाग्यवश महाकवि ने दीर्घायु प्राप्त की थी। मं० ॥ ढाल ५ छद १०॥ १७०३ में उन्होंने चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन अहमदा पाच दालो में प्राबद्ध कुल एक सौ एक छदों की इस सापक नश्वर देह को त्याग कर स्वग की सोने में बासठ सम रे. सांगानेर मझार । ओर प्रस्थान किया। अपनी इस दीर्घायु में महाकवि ने पद्म प्रभू सुपसाउ ल रे, एह थुण्यो अधिकारो रे ॥ सस्कृत और राजस्थानी को अनेक रचनाएं की। "इनकी -स. कृ. कु. मे विनयसागरजी का निबंध, पृ० ५६ योग्यता एव बहुमुखी प्रतिभा के सबंध में विशेष न कह [नाहटा-बंधुनों द्वारा प्रकाशित रास मे इसका कर यह कहें तो कोई प्रत्युक्ति न होगी कि कलिकाल रचना-संवत् 'सोलइ सइ छासठि' छपा है जो सभवतः सर्वज्ञ हेमचद्राचार्य के पश्चात् प्रत्येक विषय मे मौलिक प्रूफ रीडिंग की भूल रही है, अन्यथा अपने 'सीतासजनकार एवं टीकाकार के रूप मे विपुल साहित्य का राम-चौपाई' की भूमिका मे (पृ. ४०) उन्होंने इसनिर्माता अन्य कोई शायद ही हुमा हो।" 'सीताराम का रचना सं० १६६२ ही लिखा है। श्री देसाई चौपाई' नामक वृहत्काय जैन-रामायण कवि की प्रतिनिधि (मोहनलाल दलीचद) ने भी अपने निबंध 'कविवर १. गहोपाध्याय विनयसागरः 'समयसुंदर कृति-कुसुमांजलि' समयसुंदर' (आनंदकाम्य महोदधि मौ०७, पृ. ३५) गत निबंध 'महोपाध्याय समयसुंदर', पृ० १. मे इसी संवत् का उल्लेख किया है।] Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि समयसुंदर और उनका 'दान शीलतप भावना सवार लघु कृति मे रूपकात्मक ढंग से दान, शील, तप और गया। श्रेणिक राजा ने गज के भव मे शशक को प्राणभावना-धर्म के इन चारो तत्त्वों का परस्पर विवाद दान दिया जिसके फलस्वम्प उमे मेघकुमार-से पुत्र की प्रदर्शित किया गया है। प्राप्ति हुई५ । इस प्रकार उसने चदनबाला सती का भी प्रारंभ उल्लेख किया। कृति के प्रारभ में मगलाचरण के रूप में महाकवि इमी बीच शील ने उसे टोक दिया–पर, क्यो व्यर्थ ने प्रथम जिनेश्वर ऋपभदेव भगवान का वदन तथा गुरु का अहकार कर रहा है । याचक के साथ तुम्हारा पाठों प्रमाद का स्मरण किया है प्रहर पाडबर का व्यवहार रहता है। तुम्हारा पागे बढना प्रथम जिणसर पय नमी, पामो सुगुरु प्रसाद । क्या अर्थ रखता है ? मब कुछ तो मेरे पीछे है । भला दान सील तप भावना, बोलिसि बहु सवाद ॥ दोहा १॥ सवारी के आगे चलने वाला दास भी कभी राजा हो मकता है६ । कोई जिनेन्द्र का नया ही स्वर्ण मंदिर बनरास का सार वाये और करोड़ों का मोना दान दे तब भी वह मेरी गस का मार इस प्रकार है समता नही कर सकता। शील से समस्त सकट टल एक बार भगवान महावीर राजगृह के उद्यान में जाते है, यश और सौभाग्य की प्राप्ति होती है तथा देव. ममोसरे (पधारे) । जब वे बारह परिषदों को उपदेश तानो का सान्निध्य प्राप्त होता है। यही क्यो, शील-व्रतदेने वाले थे कि दान ने उनसे कहा-प्रभो ! मै बडा हूँ चारी को न तो माप छ सकता है, न अग्नि जला सकती एतदथं व्याख्यान में पहले मेरा माहात्म्य बतलाये १। और है तथा न अन्य भीषण वन्य प्राणी ही भयभीत कर उसने बड़े दर्प के साथ अपने साथियों से कहा-सब सुन मकते है। लो, है कोई मेरे समान महान ? दीक्षा-प्रसग पर भगवान तत्पश्चान् शील भी दान की तरह डीग हाकते हुए भी पहले दान देते है। दाता का प्रातःकाल उठते ही नाम उन समस्त नर-नारियो का जिक्र करता है जिनका उसके स्मरण किया जाता है और उसकी मनोकामना तो सिद्ध द्वारा उद्धार हुआ है । वह कहता है-जगद्विख्यात कलह होती है। समस्त संसार को वश मे करना मेरे लिए कराने वाला और भ्रमणशील नारद को मैंने सिद्धि दी। जरा-सी बात है । मुझ जैसा ऋद्धि-समृद्धि का दाता भी रावण के घर से आई सीता को अग्नि-परीक्षा में पावक मंसार मे कोई नही३। को पानी बनाकर मैंने ही मफलता दिलाई थी। पांडवों तत्पश्चात् वह उन महान प्रात्मानो का नामोल्लेख ४. प्रथम जिणेसर पारणइ, श्री श्रेयांसकुमार । करता है जिसका कि निस्तार दान के द्वारा हुप्रा था सेलडि रस विहराविय उ, पाम्यउ भवनउ पार ॥११७ मुमुख नामक गाथापति, चक्रवर्ती भरत, शालिभद्र को ५. गज भव ससिलउ राम्बियउ, करुणा कीधी सार । मेरे ही प्रसाद मे ही सुख मिला। मूलदेव उडद के बालको श्रेणिक नइ घरि मवतयंउ, अगज मेघकुमार ॥१॥१० के दान द्वारा राजा बन गया। भगवान ऋषभदेव को इक्षु ६. गर्व मकर रे दान तूं, मुझ पूठह सह कोय । रम का पारणा कराने से श्रेयासकुमार भवसागर से तर चाकर चालइ प्रालि, नउ स्यु राजा होइ ॥११३ १. बइठी बारह परषदा, सुणिवा जिणवर वाणि। ७. जिन मदिर सोना तणउ, नवउ नीपावइ कोय । दान कहइ प्रभु हूँ बडउ, मुझ नइ प्रथम बखाणि ॥ सोवन कोडिको दान द्याइ, सील समउ नहि कोय ।।१।४ प्र. दो०३ ८. सीलइ सर्प न प्रामडइ, सीलइ सीतल मागि। २ प्रथम पहरि दातार न, ल्याइ सह कोई नाम । सीलइ परि करि केसरी, भय जायइ मब भागि ॥११६ दोधां री देवल चडइ, सीझर वंछित काम ॥११५ ९. कलिकारक जगि जाणियइ, ३. दान कहा जणि है बडउ, मुझ सरिखउ नही कोय। बलि विरति नही पणि काइ रे। रिद्धि समृद्धि सुख संपदा, दानह दउलति होय ॥२२ ते नारद महमीभव्य उ, मुझ जोवनए अधिकाइ रे ।।२ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ अनेकान्त द्वारा हरी गई द्रोपदी को लज्जा एक सौ पाठ बार वस्त्र निस्तार किया है। प्रदान कर मैंने ही बचाई थी। इनके अतिरिक्त वह इन तीनों का विवाद प्रभी समाप्त ही नहीं हुआ कि सती कलावती,सुभद्रा, सुदर्शन सेठ, सनाह मत्रीश्वर ; सती- भाव बीच में ही कूद पडा-अरे तुम तीनों क्यो भूठा ग्राही, चन्दनबाला, चेटानरेश की सातो पुत्रियो, राजि. अभिमान करते हो। महान लोग कहते पाये है कि धर्म मती और कुती इत्यादि की भी इस संबंध मे चर्चा करता मे भाव ही प्रमुख होता है बाकी सब गौण५। इस बात का साक्षी तो व्याकरणवेत्ता ही दे देगे कि तुम लोग नपुसक शील की बात काटकर तप उससे कड़क कर बोला- हो अतः मेरे प्रभाव में प्राप से कुछ भी कार्य संपन्न नही तू बढ-वड कर क्यो बोल रहा है, मेरे सामने तुम्हारी क्या हो सकता। रस के बिना कनक की उत्पत्ति, जल के औकात है ? तुने स्वादिष्ट भोजन, मधुर तान और बिना वृक्षों में वृद्धि और लवण के बिना जैसे भोजन में शरीर-मज्जा का तो परित्याग कर रखा है। प्रानंद नाम स्वाद नही पा पाता उसी प्रकार मेरे बिना किसी को की तो तुम्हारे पास चीज ही क्या है ? नारी से डरने सिद्धि भी नहीं मिल सकती। मंत्र, तत्र, मणि, औषधि वाला तथा भूठ-कपट द्वारा ज्यो-न्यो करके प्राण बचाने तथा देवता, धर्म और गुरू की सेवा मे यदि भावना का वाला तू कायर क्यो बाते बघार रहा है ? तुम्हारा समावेश नही हा तो ये कदापि फलदायी नहीं होते७ । सम्मान तो विरला ही करता है क्योकि तू यदि नष्ट होता तुम लोगो ने अभी जो अपने वृत्तांत कहे उनमे यदि भाव है तो चारों को भी साथ ले बैठता है। और इधर मैं ! नहीं होता तो सिद्धि मिलती ही नहीं। और मैंने, मैने मेरा स्पर्श पाकर तो कुष्ट आदि रोग भी हवा हो जाते अकेले ही बहुत से नर-नारियों को मुक्ति दिलाई है, जरा है। उनम तप से अट्ठाईस लब्धियां उत्पन्न होती है। सावधान होकर उनके नाम भी मुन लो। और वह नाम मैंने जिन्हे तारा है उन्हें जानकर तू पाश्चर्यचकित रह सुनाने लगता है जो इस प्रकार है-प्रसन्नचंद्र ऋषि, इला जायगा । ले सुन पुत्र करगडू अणगार, कपिल, प्रतगड केवली, खदकसूरि के सात मनुष्यो को सदैव मौत के घाट उतारने वाले शिष्य. चडरुद्र, मगावती, मरुदेवी. दुगता, भरत, प्राषाढअर्जनमाली के घोर पापो का पलायन करके मैन ही " भूति, गजसकमालय, पृथ्वीचद ग्रादि । जति उसके कठोर कर्मो को काटा है४ । इसी तरह ___ इसा तरह भगवान महावीर अब तक इन चारो का विवाद सुन नंदिषण, हरिकेशी चडाल, विष्णुकुमार, धन्ना प्रणगार, रहे थे। उन्हे धर्म-कर्म के संबंध मे झगडते रहना भला ढंढरण ऋषि और बलभद्र प्रादि अनेक तपस्वियो का मैने तीनों को टीवनदा में विरत होने १. पहिरण चीर प्रगट कीया, मइ पदोत्तर-मदवारो रे। का उपदेश देने लगे-निदक जैसा पापी कोई नहीं होता। पाडव हारी द्रपदी, मइ राखी माम उदागेरे॥२५ चंडाल की तरह होता है वह । उसका मुंह तक कोई नहीं २. सरसा भोजन तइ तज्या, न गमइ मीठी नाद। देखना चाहता । इसलिए पाप परानदा पार पा देह तणी सोभा तजी, तुझ नइ किस्यउ सवाद ॥२/२ परित्याग कीजिए। अपने-अपने स्थान पर रहने से ही नारि थकी डरतउ रहइ, कायरि किस्बउ बखाण। ५. दान सील तप साभलउ, म करउ भूट गुमान । कड कपट बहु केलवी, जिम तिम राखइ प्राण ॥३ लोक सह बड़े साखि ये, धरमई भाव प्रधान ।।३/४ को विरलउ तुझे पादरइ, छाडइ सहु संसार । इ सहु संसार । ६. आप नपुसक सहु त्रिण्हे, द्यइ व्याकरणी सावि । एक पाप तु भाजतउ, बीजा भाजइ च्यार ॥४ काम सरइ नही को तुम्हे, भाव भरगइ भो पाखि ॥३/५ ३. मुझ कर फरसइ उपसमइ, कुष्टादिक ना रोग। ७. मत्र, तंत्र, मणि औषधि, देव धरम गुरु सेव । लबधि अट्ठावीस ऊपज.इ, उत्तम तप सयोग ॥२/ भाव बिना ते सवि वृथा, भाव फलइ नितमेव ॥३/७ ४. सात माणस नित मारतउ, करतउ पाप प्रघोर हो। ८. दीक्षा दिन काउसगि राउ, गयसुकमाल मसाणि । परजनमाली.मई ऊपरयो, छेद्या करम कठोर हो ।३/३ सोमिल सीस प्रजालीउ रे, सिद्धि गयउ सुहभाणि ।४/१७ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि समयसुंदर और उनका दान शील तप भावना संवाद मारा संसार भला लगता है५ । तत्पश्चात् भगवान महा- ममान बतलाया है १ । किन्तु महाकवि फिर भी निष्कर्ष वीर अपना चातुर्तन्वममन्विन धर्मोपदेश प्रारभ करते है६। म्प मे भाव को ही श्रेष्ठ बतलाते हैं, क्योंकि वह अकेला ही सर्वथा समर्थ है, यद्यपि बुरा वे तीनों को भी नहीं काव्यत्व बतलाते२। भाव-पक्ष की दृष्टि से तो रचना में धर्मोपदेश ही को कला-पक्ष भी कृति का समद्ध है। सरल और मुहाप्रमुग्खता है। भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट धर्म के चारों वरेदार चुटीली भाषा मे धर्म-तत्त्वो का सवाद बड़ा ही तत्त्वों पर प्राचरण करने की प्रेरणा तो प्रस्तुत कृति से गेचक है। दोहा और पाच देशी ढालों-१. मधुकर, मिलती ही है, सहृदयो को शात रम से सराबोर होने का २ पास जिणंद जहारीयइ, ३ नणदल (दल), ४. कपूर भी मुअवसर मिलता है। हुयइ अति ऊजल रे तथा ५. चेति चेतन करी-मे कृति पाबद्ध है। उपमा, उदाहरण, अनुप्रास प्रादि अलंकारों भगवान महावीर ने तो यद्यपि विवाद मिटाने के लिए का प्रयोग विशेषत. हुया है। मध्यम मार्ग निकाल कर दान शील तप और भाव को - १. भगवन हठ भाजण भणी, च्यारे सरिखा गणति । च्यार करी मुख प्रापणा, चतुर्विध धरम भणति ।।४/८ ५. को केहनी म करउ तुम्हे, निदा नइ प्रहकार । ० नउ पणि अधिक भाव छइ, एकाकी समरस्थ । आप प्रापणी ढामइ र य उ, सहु को भलउ मसार ।।४/५ दान मोल तप त्रिण भला, पणि भाव बिना अकयाथ ।४/६ ६. धरम हीयइ धरउ, धरम ना च्यार प्रकागे रे । अजन प्राख पाजता, प्रधिकी प्राणि रेख । भवियण सांभल उ, धरम मुगति मुग्वकागे रे।।५२ ग्ज माहे तज काढता, अधिक उ भाव विदोष ॥७ साहित्य-समीक्षा १. प्राकृत भाषा-लेखक डा. प्रबोध वेचरदास विकाम भारतीय प्रायं प्रदेश में होता है और अश्वघोष पडित, प्रकाशक पाश्र्वनाथ विद्याश्रम हिन्दू यूनिवमिटी के समय में प्राकृत माहित्यिक स्वरूप प्राप्त कर लेती है। वाराणसी। पृ० मख्या ५७ मूल्य हंढ रुपया। बोलियो के भेद से ही प्राकृत के विभिन्न रूप दृष्टिगोचर प्रस्तुत पुस्तक प्राकृत भाषा पर सन् १९५३ मे दिये होते है । नाटकों की प्राकतो पर भी विचार किया गया गये प्रबोध पडित के तीन भाषाप्रो का सकलन है। जिसे है। प्रस्तुत पुस्तक प्राकृत के छात्रों के लिए विशेष उपउन्होने सितम्बर के महीने में बनारस यूनिवर्सिटी के योगी है। भारती महाविद्यालय में दिये थे। उनमे पहला भाषण २. बौद्ध और जैनागमों में नारी जीवन-लखक डा. प्राकृत भाषा की ऐतिहासिक भूमिका, दूसरा प्राकृत के कोमलचन्द जैन, प्रकाशक मोहनलाल जैन धर्म प्रचारक प्राचीन बोली विभाग। इस भाषण में प्राकृत सम्बन्धि समिति अमृतसर । पृ० सध्या २७० मूल्य १५ रुपया। भनेक बोलियों पर विचार करते हुए व्याकरण की दृष्टि प्रस्तुत शोधप्रबन्ध मे, जिम पर हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राकृत भाषा के कुछ रूपों पर विचार किया गया है। बनारस से लेखक को पी-एच. डी को डिग्री मिली है। तीसरा है प्राकृत का उत्तर कालीन विकास । इस निबन्ध ग्रन्थ के ७ अध्यायों में बौद्ध और जैनागमो में विहित मे महावीर और बुद्ध के समय प्रतिष्ठित प्राकृतों का नारी के जीवन पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त दूसरे अधिकारों में विवाहो का कथन करते हुए ३. जीवन-दर्शन-लेखक गोपीचन्द धाड़ीवाल। स्वयवर विवाह पर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला है। और संपादक डा. मोहनलाल मेहता, प्रकाशक पार्श्वनाथ विद्या. नायधम्मकहा के अनुसार उसके स्वरूप और विशेषतायो श्रम शोध संस्था वाराणसी-५ । पृ० सख्या ६८ मूल्य पर विचार किया गया है, पोर लिखा है कि बौद्धागमो में तीन रुपया। स्वयंवर विवाह का कोई उल्लेख नहीं है जब कि श्वेताम्बर प्रस्तुत पुस्तक मे श्रमण में प्रकाशित लेखो का चयन नायधम्मकहा में उस पर विस्तृत विचार किया गया है। किया गया है जो लेखक द्वारा समय-समय पर लिखे गये स्वयंवर विवाह के सबन्ध मे दिगम्बर ग्रन्थों का कोई है। उन्हें पात्मविज्ञान, प्रध्यात्मवाद, कर्मविज्ञान, हिंसा उल्लेख नहीं किया गया जबकि दि. कथा-ग्रन्थो मे राजा पोर अहिंसा-साधना रूप पांच प्रकरणो मे विभक्त किया प्रकपन की पुत्री सुलोचना के स्वयंवर का उल्लेख है जिस 1 गया है। सभी प्रकरण सम्बद्ध और जनसाधारण के हित पर में भरत चक्रवर्ती के पुत्र प्रकीति, जयकुमार (भरत की दृष्टि को लक्ष्य मे रखकर लिखे गये है। लेखक की सेनापति) और अन्य अनेक राजकुमार पधारे थे। स्वयबर विचारधारा सन्तुलित और प्रेरणाप्रद है । पुस्तक उपयोगा मे सुलोचना ने वरमाला जयकुमार के गले में डाली थी। है। इसके लिए लेखक और प्रकाशक दोनों ही धन्यवाद इसमें कुछ विरोध हा पोर युद्ध में जयकुमार विजयी के पात्र है। हुप्रा । ऐतिहासिक दृष्टि से यह स्वयवर का उल्लेख बहुत ४ मेरा धर्म केन्द्र और परिधि-लेखक प्राचार्य प्राचीन और महत्वपूर्ण है। दूसरे सीता और दोपदो के तुलसी, प्रकाशक कमलेश चतुर्वेदी प्रबन्धक प्रादर्श साहित्य स्वयवर की घटनाएं भी उल्लिखित मिलती है। सघ चुरू (राजस्थान) पृ० सरूपा १२८ मूल्य सजिल्द प्रति तीसरे प्रकरण मे वाहिक जीवन पर प्रका प्रकार का दो रुपया पच्चीस पंसा। डाला गया है, उमसे ज्ञात होता है कि वैदिक काल में प्रस्तुत पुस्तक में २५ निबन्ध विविध विषयो पर दिये पत्नी को प्रादर की दृष्टि से देखा जाता था। बौदागमो हए है, जिनमे वस्तुस्व का का विवेचन सरल भाषा में में पत्नी के भेद बाह्य परिस्थिति पोर स्वभाव को लक्ष्य किया गया है। इनमे से कतिपय निबन्ध अाधुनिक दृष्टि रखकर किये गये है। उन पर से उस काल को पत्नी के से विवेचित है, जैसे लोकतंत्र और चुनाव, विश्वशान्ति प्रकारों का सामान्यबोध हो जाता है। इस तरह यह शोध और प्रणशास्त्र, वृद्ध और सन्तुलन, सर्व धर्म समभाव और प्रबन्ध अपने विषय का स्पष्ट विवेचक है। इसके लिए स्याद्वाद एशिया में जनता का भविष्य । प्राचार्य तुलसी लेखक और प्रकाशक सस्था दोनो ही धन्यवाद के पात्र है। ने जनमानम को वस्तुतत्त्व का बोध कराने के लिए यह मूल्य कुछ अधिक जान पहता है। उपक्रम किया है। प्रकाशन सुन्दर है। परमानन्दजैन शास्त्री अपनी संभाल अन्तरङ्ग के परिणामो पर दृष्टिपात करने से प्रात्मा को विभाव परिणति का पता चलता है । मात्मा पर पदार्थों की लिप्सा से निरन्तर दुखी हो रहा है, माना जाना कुछ भी नहीं। केवल कल्पनामों के जाल में फमा हुमा अपनी मुध मे वेसुध हो रहा है । जाल भी अपना ही पोष है । एक मागम ही शरणा है यही मागम पच परमेष्ठी का स्मरण कराके विभाव से प्रात्मा की रक्षा करने वाला है। -वर्णी वाणी से Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धाञ्जलि ईमगे के मन्त पूज्य वर्णी गणेश प्रसाद जी की १४वी जन्म जयन्ती आदिवन चतुर्थी २२ सितम्बर को मनाई गई। पूज्य वर्णी जी मानव ममाज के प्राध्यात्मिक मन्त थे। उन जैमा महृदय व्यक्ति अन्य देखने में नही पाता। जैन धर्म की जिननी दृढ श्रद्वा और समयमारादि अध्यान्म ग्रन्थों का जितना गम्भीर मनन उमण, अन्य को शायद ही हो। उनका हृदय मबके प्रति निर्मल भावनाप्रो मे ओन-पोन था। नब का मगन चाहने वाले, और ग्यासकर विद्वानो केशुभाँचन्तक महामना वर्णी जी अब यहा नही है, किन्न उनकी अमर प्रामा परलोक में मुख-शान्ति का अनुभव कर रही होगी। दिल्ली के चातुर्माम मे जो लोग होरजन मन्दिर प्रवेश के कारण उनके विरोधी थे, उनके प्रति भी उनका वमा ही चामिक भाव बना हुग्रा था, उमम रचमात्र भी पग्विनन नहीं हुप्रा और न कभी उनके प्रति प्रप्रिय शब्द का व्यवहार ही किया। इससे उनकी निर्मल परिणति का महज ही प्राभाम हो जाता है। उनकी दम सम परिणनि के + रण उनके विरोधी भी परोक्ष में प्रशमा करते थे । उम महान आत्मा के प्रति बीरगंवा मदिर परिवार अपनी श्रद्धाजलि अपण करता है। माथ ही ममाज में निवेदा करना है कि उनका मारक उनकी पवित्र भावनायो और अभिलापानी के अनम्र होना चाहिये । -वीर सेवा मन्दिर परिवार वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के पहायक १०००) श्री मिश्रीलाल जो धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता । १५०) श्री जगमोहन जी मरावगा, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्र कुमार जैन, ट्रस्ट १५०) ,, कस्तूरचन्द जो प्रानन्दीलाल जी कलकत्ता श्री माहु शीतलप्रसाद जी, कलकत्ता १५०) , कन्हयालाल जी मीनागम, कलकत्ता ५००) श्री रामजीवन मरावगी एण्ड सस, कलकत्ता १५०) , ५० बाब नाल जी जन, कलकत्ता ५० ।। श्री गजराज जी मगवगी, क नकत्ता १५०) , मालीगम जी मगवगी, कनकता ५००) श्री नथमल जी मेठी, कलकत्ता १५०) ,, प्रतापमल जो मदन लान पाठ्या, कलकता ५००) श्रा वजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता १५०) , भागरन्द जी पाटनी, कलकत्ता 1००) श्री रतनलाल जी झाझरी, कलकत्ता १५०) , शिखरचन्द जी मगवगी, कलकत्ता •५१) श्री ग० बा० रखचन्द जी जैन, राची ५५०) , मुरेन्द्रनाथ जो नरेन्द्रनाथ जा कलकता २५१) श्री अमरचन्द जी जैन (पहाउचा), कलकत्ता १०१) , मारवारी दि. जन ममाज, ध्यावर २५१) श्री म० मि० धन्यकुमार जी जन, कटनी १०१) ,, दिगम्बर जन ममाग, केकडी २५.१) श्री सेठ मोहनलाल जी जैन, १०१) । मेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई न०२ मैमर्स मुन्नालाल द्वारकादाम, कलकत्ता १०१) , लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागज बिल्ली २५१) श्री लाला जयप्रकाश जी जन १०), सेठ भवरीलाल जो बाकलीवाल, इम्फाल स्वस्तिक मैटल वर्म, जगाधरी १०१) , शान्तिप्रमाद जी जैन, जेन बुक एजन्मी, २५०) श्री मोतीलाल हीराचन्द गाधी, उस्मानाबाद नई दिल्ली २५०) श्री बन्शीवर जो जुगलकिशोर जी, कलकत्ता १०१) , मेठ जगन्नाथगी पाण्रया झमरीतलंया ६५०) श्री जगमन्दिरदाम जो जन, कलकत्ता १०१) , मेठ भगवानदास शोभाराम जी मागर २५०) श्री सिघई कुन्दनलाल जी, कटनी (म०प्र०) २१.०) श्री महावीरप्रमाद जी अग्रवाल, कलकत्ता १०१) , बाबू नृपेन्द्रकुमार जी जैन, कलकत्ता २५०) श्री बी. पार० सी० जैन, कलकत्ता १००), बद्रीप्रसाद जी प्रात्माराम जी, पटना २५०) श्री रामस्वरूप जी नैमिचन्द्र जी, कलकता १००) , रूपचन्दजी जैन, कनकना १५०) श्री बजरगलाल जी चन्द्रकुमार जी, कलकत्ता । १००) जैन रत्न सेठ गुलाबचन्द जी टोग्या ५५०) श्री चम्पालाल जो सरावगी, कलकत्ता इन्दौर Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन R.N. 10591/62 सभी ग्रन्थ पौने मूल्य में (१) पृगतन-जनवाक्य-मृची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिनके साथ ४८ टीकादिग्रन्थो मे उद्धृत दूसरे पद्यो की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। मब मिलाकर २५३५३ पद्य -वाक्यों की सूची । मपादक मृन्नार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ट की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम ए डी लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट् की भूमिका (Introduction) मे भूपित है, गोध-खोज के विद्वानों के लिए अतीव उपयोगी, बडा साइज, मजिल्द १५.०० (२) प्राप्त परीक्षा--श्री विद्यानन्दाचार्य की म्वोपज मटीक अपूर्व कृति प्राप्तो की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक मुन्दर, विवेचन को लिए हुण, न्यायाचार्य पं दग्बागेलालजी के हिन्दी अनुवाद मे युक्त, मजिल्द । ८.०० (३) स्वयम्भूम्नोत्र -समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुना श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेपणापूर्ण प्रस्तावना मे सुशोभित ।। ... २-०० (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, मटीक, मानुवाद और श्री जुगल किगोर मुख्नार की महत्व की प्रस्तावनादि मे अलकृत मुन्दर जिल्द-महित ।। (५) अध्यात्मकमलमानण्ड --पचाध्यायीकार कवि गजमल की सुन्दर प्राध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-महित १५० (६) युक्त्यनुशामन -तत्वज्ञान से परिपूर्ण ममन्तभद्र की अगाधारण कृति, जिमका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हया था। मुख्नार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि मे अलकृत, मजिन्द। ... ७५ (७) श्रीपुरपाश्र्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ७५ (८) शामनचस्त्रियिका-(नीर्थपरिचय) मुनि मदनकोनि की १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद मरिन ७५ (९) ममीनीन धर्मशाम्य ---स्वामी गमन्तभद्र का गहरया चार-विषपक अत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य पोर गोयगात्मक प्रस्तावना मे युक, जिल्द । ... (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति मग्रह भा०१ मस्कृत योग प्रावन के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रगम्नियों का मगलाचरण महित अपूर्व मग्रह उपयोगी ११ परिमिटी की ओर १० परमानन्द शास्त्री को इतिहास-विषयक माहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना में अलकृत, जिल्द । (११) ममाधितन्त्र और दृष्टोपदेश-अध्यात्म कृति परमानन्द शास्त्री को हिन्दी टीका माहित (१२) अनिन्यभावना--प्रा० पद्मनन्दीकी महत्वका रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ महित '२५ (१३) तन्वार्थमुत्र--(प्रभाचन्द्रीय)--मुख्तार धी के हिन्दी अनुवाद तथा व्यापा मे पुक्का २५ (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जनतीर्थ । (१५) महावीर का मर्वोदय तीर्थ १६ पैमे, (2) ममन्तभद्र विचार-दीपिका १६ मे, (६) महावीर पूजा २५ (१६) वाहुबली पूजा-जुगलकिशोर मुख्तार वृन (१७) अध्यात्म रहस्य- प. प्राशाधर की मुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुव ६ महिन। (१८) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति मग्रह भा २ अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोको प्रशस्तियो का महत्वपूर्ण सग्रह । ५५ ग्रन्थकारो के ऐतिहासिक ग्रथ-परिचय और परिशिष्टो सहित । सं. प० परमान्द शास्त्री । सजिल्द १२.०० (१६) जैन माहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पष्ठ मख्या ७४० सजिल्द (वीरामन-मघ प्रकाशन ५.०० (२०) कमायपाहुड सुत्त--मूल ग्रन्थ की रचना प्राज मे दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह मौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चणिसूत्र लिखे। मम्पादक प हीगलालजी मिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दा अनुनाद के माथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पप्ठो में। पुष्ट कागज और कपड़े को पक्की जिल्द । ... २०.०० (२१) Reality मा. पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अग्रेजी में अनुवाद बढे पाकार के ३०० पृ. परकी जिल्द ६.०० प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित। ४.०० Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दे मासिक अक्टूबर १९६७ 3ণকান। *****************KKKKK**** , . HTTEN भगवान ऋषभदेव ग:-- (सवाई माधोपुर) में भूगर्भ से प्राप्त स० १३५० को मूर्ति ***************Xxxxxxxxxx समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुखपत्र Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पृष्ठ १७२ विषय-सूची श्री अमृतचन्द्र सूरिकृत एक अपूर्व ग्रंथ क्रमांक डा० ए. एन. उपाध्ये १. शान्तिनाथ स्तोत्रम्-मुनि श्री पद्मनन्दि १४५ - ___मुनि श्री पुण्यविजय की ज्ञानाराधना से विद्वत्समाज 3 २. मन्वसोर में जैनधर्म-40 गोपीलाल 'प्रमर' पूर्ण परिचित है । कितने ही प्राचीन ग्रन्थों का जीर्णोद्धार, एम० ए० स शोधन और प्रकाशन उनके शुभ हस्त से हुपा है। ३. तृष्णा को विचित्रता-श्रीमद्राजचन्द्र प्रभी ज्ञानपचमी के शुभ दिन उनका कृपा पत्र मुझे १५० मिला है। उसमे वे कहते है४ सागारधर्मामृत पर इतर श्रावकाचारों 'मैं कुछ कार्य के लिए डे ला का ज्ञानभण्डार को देखने का प्रभाव-२० बालचन्द्र सि० शास्त्री १५१ गया था। वहाँ पर ताडपत्र में लिखा हा प्राचार्य श्री ५. प्रात्मविद्या क्षत्रियों की देन- मुनिश्री अमृतचन्द्र मूरिकृत अपूर्व ग्रन्थ देवा। श्री अमृतचन्द्राचार्य नथमल १६२ की इस कृति का उल्लेख पापको प्रस्तावना मे नहीं मिला। ६. श्री अंतरिक्ष पाश्वनाथ बस्ती मन्दिर अत. प्रतीत हुया कि श्री अमृतचन्द्राचार्य की यह कृति तथा मूल नायक मूनि शिरपुर | अज्ञात ही है। अन्य का नाम हैप० नेमचन्द धन्नूमा जैन न्यायतीथं शक्तिमरिणतकोश अपर नाम लघुतत्त्वस्फोट ७. कवि देवीदास का परमानन्द विलास ___ इमम पच्ची-पच्चीस पद्यात्मक पच्चीस पच्चीसियाँ डा० भागचन्द जैन एम० ए० पी० है । अर्थात पञ्चविशनि पञ्चविशिकाये है । इसकी रचना एच० डी० पालंकारिक एव प्रामादिक है । थोडे ही समय में इसकी ८. अग्रवालों का जैन सस्कृति में योगदान-- प्रेसकापी-पाण्डुलिपि हो जायगी। बाद मे विद्यामन्दिर की परमानन्द जैन शास्त्री ओर ने प्रकाशिन किया जायगा।' थावक और धाविकानो मे श्री अमतचन्द्र का खाम ६. भगवान महावीर गोर बुद्ध का परि स्वाध्यायी बहुत है। इस वार्ता में उनका समाधान होगा निर्वाण-मुनि श्री नगराज १८७ -ग्रथ यथाशीघ्र प्रकाशित किया जायगा । और कई जगह १०. श्री अमृतचन्द्र सूरिकृत एक अपूर्व ग्रन्थ इस ग्रथकी प्रति किमी को परिचित हो तो सूचना दीजिये । श्री डा० ए० एन० उपाध्ये टाइटिल पेज २ मुनिश्री पुण्यविजय जी की उमर ७३ वर्ष है, और अभी उनके मोतियाबिदुका ऑपरेशन होने वाला है । उनसे अभी पत्र व्यवहार करके उन्हे कष्ट देना ठीक नही-यही विनती है। अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपय। अनेकान्त को सहायता एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पै० __ बाबू नानालाल जी के. मेहता, एडवोकेट मनेकान्त के बड़े प्रेमी है। शुरू में अनेकान्त के सदस्य है । आपने इस वर्ष पर्युषण पर्व मे अनेकान्त के लिये दश १०) रुपया सम्पादक-मण्डल भेजे है। इसके लिये वे धन्यवाद के पात्र है। प्राशा है अन्य डा० प्रा० ने० उपाध्ये विद्वान भी इसका अनुकरण करेंगे । व्यवस्थापक 'अनेकान्त' डा. प्रेमसागर जैन श्री यशपाल जैन अनेकान्त मे प्रकाशित विचारो के लिए सम्पाव मण्डल उत्तरदायी नहीं है। -यवस्थापक अनेकान्स * Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माम पहम अनेकान्ता परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । मकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष २० किरण ४ । ॥ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६३, वि० ग० २०२४ 5 अक्तूबर । सन् १९६७ शान्तिनाथ-स्तोत्रम् त्रलाक्याधिपतित्वसूचनपरं लोकेश्वररुद्धतं, यस्योपर्यु परीन्दुमण्डल नभं छत्रत्रयं राजते । प्रश्रान्तोदगतकेवलोज्ज्वलरुचा निर्भत्सितार्कप्रभं. सोऽस्मान् पातु निरजनो जिनपतिः श्रोशान्तिनाथः सदा ॥१॥ देवः सर्वविदेष एव परमो नान्यस्त्रिलोकोपतिः, सन्त्यस्यैव समस्ततत्त्वविषया वाचः सतां संमताः । एतद्धोषयतीव यस्य विबुधरास्फालितो दुन्दुभिः, सोऽस्मान् पात निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिना: सदा ॥२॥ -मुनि श्री पचनन्दि अर्थ-जिस शान्तिनाथ भगवान के एक-एक के ऊपर इन्द्रो के द्वारा धारण किए गए चन्द्रमण्डल के समान तीन छत्र तीनों लोकों की प्रभुता को सूचित करते हुए निरन्तर उदित रहने वाले केवल ज्ञान रूप निर्मल ज्योति के द्वारा सूर्य की प्रभा को तिरस्कृत करके सुशोभित होते हैं. वह पापरूप कालिमा से रहित श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगों की सदा रक्षा करे ॥१॥ जिसकी भेरी देवों द्वारा ताड़ित होकर मानो यही घोषणा करती है कि तीनो लोकों का स्वामी पौर सर्वज्ञ यह शान्तिनाथ जिनेन्द्र ही उत्कृष्ट देव हैं और दूसरा नहीं है। तथा समस्त तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करने वाले इसी के वचन सज्जनो को अभीष्ट है-दूसरे किसी के भी वचन उन्हे प्रभीष्ट नही है। वह पापम्प कालिमा से रहित श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगों की सदा रक्षा करे ॥२॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बशपुर मन्दसोर : प्राचीनकाल में मन्दमोर को दशपुर एक देश का नाम बार, उसकी मन्दसोर में जैनधर्म गोपीलाल 'अमर' एम. ए. पुर२ बहते ये । जपानी भी १. मध्यप्रदेश के पश्चिम में इसी नाम के मुख्यालय । २. इस नाम की सार्थकता सिद्ध करने वाली एक मनोरजक घटना का उल्लेख श्रावश्यक सूत्र की चूणि निर्मुक्ति और वृत्ति यादि में इस प्रकार मिलता है। महाराज उदयन (छठी शती ई० पू० ) चण्डप्रद्योत को बन्दी बना कर अपनी राजधानीको ले जा रहा था कि वर्षाकाल प्रारम्भ हो जाने से वह अपने अधीनस्थ राजाओं के साथ मार्ग में ही ठहर गया। उन राजाश्रों एक जिले का ने सुरक्षा के लिए दस दस किले बना लिए। चार माह में वहाँ ग्रामवासियों का यातायात और श्रावास भी प्रारम्भ हो गया । वर्षाकाल के पश्चात् उदयन और वे राजा तो वहा मे चले गए पर जो लोग वहाँ रहने लगे थे वे वही रहते रहे और वहा एक नगर ही बस गया जिस दस पुरो ( किलों) के कारण 'दशपुर' ही कहा जाने लगा। ३. कुमारगुप्त के ददापुर अभिलेख (श्लोक ३०) मे इसे मपुर' भी कहा गया है क्योकि गुप्तकाल मे यह पश्चिम भारत का सर्वश्रेष्ठ नगर माना जाता था । ४. मलीदार देशे पुरगोनदयोरपि विश्वलोधनकोश ( बम्बई, १९१२ ) रान्तवर्ग, श्लोक २७३, पृ. ३२२ ५. प्राचीन जनपदों की परम्परागत सूचियों मे दशपुर का नाम नही मिलता, उसे प्रवन्ति या मालवा मे मन्नर्गमित किया गया है। ६. काशी देश की राजधानी वाराणसी भी कालान्तर मे 'काशी' ही कही जाने लगी थी। दशपुर कहलाती थी७ । 'मदमोर' शब्द 'मद उर' का तद्भव रूप प्रतीत होता है जिसका अपभ्रंश 'मढ दसउर' होगा । 'दसउर' का पाणिनीय व्याकरण द्वारा संस्कृतीकृत रूप 'दसोर' होगा। 'मढ' शब्द का मुखमुख के लिए गढा हुआ रूप 'मण' और फिर 'मन होगा । 'मन दसोर १०' ही 'मन्दसोर' या 'मदमोर' बना होगा। संक्षिप्त इतिहास : रामायणकालीन चन्द्र वशी राजा रन्तिदेव की राजधानी दशपुर मे थी १२ । छठी शती ई० पू० के प्रवन्ति ७ बृहत्सहिता (२४, २० ) और कुमार गुप्त तथा अन्वर्धन के पावाचस्तम्भ तेल मे इसे एक नगर के रूप मे ही उल्लिखित किया गया है। ८. मढ़ नाम का एक स्थान मन्दसोर के पास श्राज भी विद्यमान है । ६. 'दस + उर', 'प्रदेङ् गुण. (अष्टाध्यायी, ११११२ ) सूत्र से गुण संज्ञा और 'श्राद् गुण ( वही ६।१४६७) ' मूत्र से गुण स्वर सन्धि होने पर 'दसोर' होगा । १०. मन्दसोर के लिए दसोर दाद भी प्रयुक्त होता है। देखिए, ग्वालियर स्टेट गजेटियर, प्रथम भाग पृ० २६५ श्रर भागे इस क्षेत्र में कुछ समय पूर्व तक पाये जाने वाले दसोरा ब्राह्मण भी यही सिद्ध करते है। ११. कुछ विद्वान् इसे 'मन्दसौर' मान कर कहते है कि यहा चूकि सौर (सुरस्य इदं सौरम् ) अर्थात् सूर्य का तेज मन्द होता है (मन्द सोरं यस्मिन् तत् मन्दसौरं नाम नगरम् ) प्रत यह मन्दसौर वहा जाता है । १२. मेघदूत ( पूर्व मेघ ), श्लोक ४५ पर मल्लिनाथ का टीका । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्दसौर में जनय १४७ नरेश चण्डप्रद्योत का अधिकार भी दशपुर पर रहा१३ । भो उसकी वन्दना की जाती है१६ । छठी शती ई.पू. मौर्य सम्राट अशोक जब प्रवन्ति महाजनपद का क्षत्रप मे सिन्धु सौवीर देश२० के वीतभय पतनपुर२१ के राजा था तब उसके पश्चिम प्रान्तीय शासन मे दशपुर भी उदायन२२ के पास महावीर स्वामी को एक पन्दन की सम्मिलित रहा होना चाहिए। उसके पश्चात् यहाँ शुङ्ग प्रतिमा थी जिसे जीवन्त स्वामी कहा जाता था। इसकी और शक राजामों का अधिकार रहा । प्रारम्भिक सात पूजा उदायन और उसकी रानी प्रभावती किया करती वाहनों ने नासिक, शुपरिक, भृगुकच्छ और प्रभास के थी। प्रभावती की मृत्यु के पश्चात् उसकी दासी देवदत्ता साथ दशपुर को नष्ट-भ्रष्ट किया था१४ । क्षहरात क्षत्रप उस मूर्ति की पूजा किया करती थी। उसका उज्जयिनी नहपान के शासनकाल में उसके दामाद उपवास (ऋषभ- के राजा चण्डप्रद्योत से प्रेम हो गया जिसके साथ वह दत्त) ने जन साधारण के उपयोग की बहुत सी चीजे दश- उज्जयिनी भाग गयो । भागते समय वह अपने साथ जीपर लाकर अशोक की कीति से प्रतिस्पर्धा की थो१५ । वान्त स्वामी की मूर्ति भी लेती गयी लेकिन उसके स्थान चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी दिग्विजय यात्रा में वर्मन् राज- पर एक वैसी ही दूसरी मूति छोड़ गयी। यह सब ज्ञात वश को अपने अधीन करके उन्हें दशपुर का राज्यपाल होते ही उदायन ने चण्डप्रद्योत का पीछा किया और उसे नियुक्त किया था। विश्ववर्मन् १६ इन राज्यपालो मे से कैद कर लिया। लौटते समय, अतिवृष्टि के कारण उदायन एक था, जो कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में भी चार माह के लिए शिवना के तट पर रुक गया। एक दिन विद्यमान था। इसके पश्चात् यहा वधन, मोरेवरी, मंत्रक पयंपण पर्व में उसका उपवास था। रसोइए से यह जान पौर कलचुरी प्रादि शासकी ने शासन किया१७ । कर चण्डप्रद्योत ने भी अपना उपवास घोषित कर दिया। जैन धर्म: यह सुनकर उदायन समझा कि चण्डप्रद्योत जैनधर्मावलम्बी दशपुर में जैनधर्म का प्रचार प्राचीनकाल से ही रहा है प्रत. उसने उसे ससम्मान मुक्त कर दिया२३ । फिर है। उसकी गणना जैन तीर्थों में की गयी है१८ पोर प्राज उसने उस प्रतिमा को लेकर वहां से प्रस्थान करना चाहा १३. प्रावश्यक सूत्र की वृत्ति प्रादि । १६. उपयुक्त स्तोत्र के रूप में जिसका पाठ प्राज भा १४. ला, विमलचरण . हिस्टोरिकल जाग्रफी प्रॉफ ऐंश्येंट प्रतिदिन विशेषत. श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज म इण्डिया, पृ० २८१ । किया जाता है। १५. वही। २०. व्यासप्रज्ञप्ति (१३, ६; १० ६२०) म इसे सिन्धु १६. इसके दो अभिलेख मिले है, देखिए : एपि. इंडिका, नदी के प्रासपास का प्रदेश कहा गया है। जि. १२, पृ. ३१५, ३२१: वही, जिल्द १४, पृ० २१. यह सिन्धु सौवीर की राजधानी थी और इसका ३७१, जे. बी. मो. मार. एस. जिल्द २६, पृ १२७ दूसरा नाम कुम्मारप्रक्षेप (कुमार पक्खेव) था। १७ विस्तार के लिए देखिए : विद्यालङ्कार, जयचन्द्र देखिए प्रावश्यकणि, २ पृ० ३७ । इसके ममीकरण इतिहास प्रवेश, पृ० २५१ और पागे। के लिए देखिए जैन जगदीशचन्द्र . जंन प्रागन १८. चम्पायां चन्द्रमुख्यां गजपुर मथुरा साहित्य में भारतीय समाज पृ० ५८२ । पत्तने चोज्जयिन्यां, २२ इसका उल्लेख महावीर स्वामी द्वारा दीक्षित पाठ कोशाम्ब्या कोशन्यायां कनकपुरवरे गजाग्रो के माथ हुप्रा है। देखिए स्थानाङ्ग ६, ६२१, देवगिर्यां च काश्याम् । व्याख्याप्राप्ति, १३, ६ । नामिक्ये राजगेहे दशपुरनगरे २३ उत्तराध्ययन टीका, १८, पृ० २५३ प्रादि । प्रावभहिले ताम्रलिप्त्या, श्रीमतीर्थकराणां प्रतिदिवममहं श्यकणि, पृ० ४०० प्रादि । गय चौधरी, एच. गी नत्र चैत्यानिवन्दे । पालिटिकल हिस्ट्री माफ ऐश्यंट इणिया, (कलकता -जैनतीर्थमालास्तोत्र । १९३२), पृ० १७, १३२. १६५ । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ प्रनकान्त पर वह प्रतिमा वहाँ से हटायो न जा सकी। देववाणी से सूत्र, पावश्यकणि, उत्तराध्ययन सूत्र, नन्दीसूत्र और ज्ञात हा कि उसकी राजधानी शीघ्र ही भूमिसात् हो जाने विविधतीर्थकल्प आदि में इनके पाख्यान पाते है२८ । वाली है अतः यह प्रतिमा यहीं रहना चाहिए। अतएव प्रार्यरक्षित सूरि सोमदेव और रुद्रसोमा के पुत्र थे। जो उदायन ने वहीं एक मन्दिर का निर्माण कराया और उसमें दशों दिशामों के सारभूत दशपुर में रहते थे२६ । फल्गुवह प्रतिमा स्थापित कर दी२४ । अपने देश को लौटकर रक्षित इनका अनुज था। उच्चशिक्षा प्राप्त करके जब ये चण्डप्रद्योत ने जीवन्त स्वामी२५ की पूजा की और उस पाटलिपुत्र से दशपुर लौटे तब स्वय राजा ने इनकी मन्दिर को १२०० ग्रामों का दान किया। अगवानी को थो३० । माता के कहने पर ये दृष्टिवाद का प्रथम शती ई० १० मे रचित नन्दीसूत्र में प्रार्यरक्षित अध्ययन करने को प्राचार्य तोसलीपुत्र के पास गये मरि की वन्दना की गयी है। इन्होने न केवल चारित्ररूपी जिन्होंने इन्हे दीक्षित करके दष्टिवाद की शिक्षा दी। सर्वस्वकी रक्षाकी थी बल्कि रत्नोकी पेटी के सदृश अनुयाग फिर ये उज्जयिनी मे बज्रगुप्त सूरि के पास पाये और की भी रक्षा की थी२६ । दशपुर इनके जन्म से ही नहीं, वहा मे यथामभव ज्ञानार्जन करके वजस्वामी से अध्ययन महत्वपर्ण योगदान से भी मबद्ध रहा है२७ । दशवकालिक करने लगे। एक an फल्गाशित को माता ने ले लेने के लिए भेजा। पार्यरक्षित ने उसे भी दीक्षित कर विद्या२४. प्रद्योतोपि वीतभय प्रतिमाय विशुद्धधी । ध्ययन कराया ३१ । एक दिन उन्होंने गुरु से पूछा कि शासनेन दशपुर दस्वान्ति पुरीमगात् ॥ मने दशम पूर्व की यविकार्य तो पढ़ ली, अब कितना अन्येधुविदिशा गत्वा भायलस्वामिनामकम् । देवकीयं पुर चक्रे नान्यधा धरणोदितम् ।। अध्ययन और शेष है ? गुरु ने उत्तर दिया कि अभी तो विद्युन्मालीकृताय तु प्रतिमाय महीपति । तुम मेरु के सरसो और समुद्र की बूद के बराबर ही पढ़ प्रददौ द्वादशग्रामसहस्र शासनेन स.॥ सके हो३२ । कुछ समय तक और अध्ययन करके वे दश. --हेमचन्द्राचार्य, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, 'पुर ग्राये और वहां उन्होंने अपने सभी स्वजनो को दीक्षित १०१२।६०४-६ । २५. यह वास्तव में महावीर स्वामी की प्रतिमा थी जिसे २८ देखिए, श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ म श्री महावीर स्वामी के जीवन काल में ही निमित कगये मदनलाल जोशी का लेख, पृ० ४५२ और प्रागे । जाने के कारण जीवन्तस्वामी की प्रतिमा कहा जाता २६. प्रास्तेपूर दशपुर मार दशदिशामिव । है। था। परन्तु इस नाम की प्रतिमा की परम्परा लग मोमदेवो द्विजस्ता रुद्रसोमा च तत्प्रिया ।। भग एक हजार वर्ष तक चलती रही। देखिए, शाह -प्रावश्यककथा श्लोक १। उमाकान्त प्रेमानन्द का लेख, जरनल प्राफ दी प्रोरिएण्टल इस्टीट्यूट, जिल्द १, अक १, 70 ७२ २०. चतुर्दशापि तत्रासौ विद्यास्थानान्यधीतवान् । पौर भागे तथा जिल्य १, अंक ४, १० ३५८ पौर अथागच्छद् दशपुर राजागात् तस्य सम्मुखम् ॥ मागे । -वही श्लोक ७७। २६. बंदामि प्रज्जरक्खिय-खवणे, रक्खियचारित्त सवस्त। ३१ सोम्यवाद् भ्रातरागच्छ व्रतार्थी तेजनोखिल । रयण-करडग-भूप्रो, अणुयोगो रक्खिनो जेहि ।। __ स ऊंचे सत्यमेतच्चेत् तत्त्वमादो परिव्रज ।। -नन्दीसूत्र (लुधियाना, १६६६), गाथा ३२ । -वही इलोक ११३। २७. विस्तृत विवरण के लिए दखिए, अभिधान राजेन्द्र ३२. यविकोणतो प्राक्षीत्, शेषमस्य कियत् प्रभो। कोष में प्रज्जरक्विय' शब्द (पागे के उद्धरण वही स्वाम्यच मर्पर मेगेबिन्दुमब्धस्त्वमग्रही । में लिए गये है)। --वही, ग्लोक ११४ । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्दसोर में जनधर्म किया३३ । इसके पश्चात् मथुरा ग्रादि का भ्रमण करके ३४ कायक्रम३६ मे, सभव है ये पुनः दशपुर प्राये हों। दशपुर य एक बार पुन. दशपुर पाये ३५ और शेष जीवन भी में जैनधर्म का प्रचार मध्यकाल में भी अवश्य रहा होगा उन्होने कदाचित् वहीं व्यतीत किया। इस प्रकार दशपुर, पर उसके कोई उल्लेखनीय चित्र नहीं मिलते। '१५वी प्राचार्य प्रार्यरक्षित मूरि की जन्मभूमि ही नही बल्कि शताब्दि के माडवगढ के मन्त्री सम्राम सोनी के द्वारा यहा कर्मभूमि भी रही ३६ । जैन मन्दिर बनाने का उल्लेख प्राप्त है। "जैनतीर्थ सर्वद्वितीय शती ई० मे, जैन दर्शन और प्राचार के संग्रह" ग्रन्थ के अनुसार यहा के खलचीपुर के पार्श्वनाथ महान व्याख्याता आचार्य समन्तभद्र ने अपने विहार द्वारा मन्दिर की दीवार में लगी हुई द्वारपालो की प्रतिमा भी दशपुर को पवित्र किया था३७ । उन्होने स्वय लिखा गुप्तकालीन है और खानपुरा सदर बाजार के पाश्वनाथ है : 'काञ्ची में मैं नग्न (दिगम्बर साधु के रूप में) के घर देरासर (गृह मन्दिर) मे पपावती देवी की प्रतिमा विहार करता था और मेरा शरीर मल से मलिन रहा भी प्राचीन है। अत इस नगर में और उसके मातपास करता था। (बाद में भस्मक रोग को शान्त करने की जो भी श्वेताम्बर और दिगम्बर जैन मन्दिर है उन मन्दिरी इच्छा में) लाम्बुश पाकर मेने शरीर में भस्म रमा ली और मूतियो तथा खण्डहगे की खोज की जाना प्रत्यन्त (और शैव साधु का वेश धारण कर लिया)। पुण्डोण्ट प्रावश्यक है। मम्भव है उनमे कोई एमा लेख भी मिल मे मे बौद्ध भिक्षु के रूप में पहुँचा। दशपुर नगर में मै जाय जिसमें इस नगर के प्राचीन जैन इतिहास पर कुछ परिव्राजक बन बैठा और (वहा के भागवन मठ में) प्रकाश पड़ सके४० । ग० १६१८ (१५६१ ई.) मे, मिष्टान्न खाने लगा। वाराणसी पहुंच कर मैन चन्द्र. इसी नगर में साण्डे र गच्छ के ईश्वर सूरि ने 'ललिता किरणो के समान उज्ज्वल भस्म रमायी और (शैव) चरित' नामक रासो काव्य की रचना की थी४१। इसका माधु का कप धारण कर लिया। इतने पर भी मैं दिगम्बर वाराणस्यामभूव शशधरधवल. पाण्डुरा गस्तपस्वी जैनधर्म की वकालत करता हूं, हे गजन् (शिवकोटि)' गजन यस्यास्ति शक्ति म बदतु पुरतो जननिग्रंन्यवाद।। जिमकी हिम्मत हो वह मेरे सामने आये और शास्त्राथ कर ले३८ ।' अपने मालव और विदिशा के विहार के -परम्पराप्राप्त श्लोक ३६ पूव पाटलिपुत्रमध्यनगर भरी मया ताडिता ३३ इतश्च रक्षिताचायगंतर्दशपुर तत । पश्चान्मालव सिन्धुठक्कविषये काञ्चीपुरे वैदिशे । प्रव्राज्य स्वजनान् सर्वान् सौजन्य प्रकटीकृतम् ॥ प्राप्तोह करहाटक बहुभट विद्योत्कट सकट -वही, श्लोक १३६ । वादार्थी विचराम्यह नरपते शार्दलविक्रीडितम् ।। ३४. प्रथाय रक्षिताचार्या मथुरा नगरी गताः । -श्रवणबेल्गोल-शिलालेख, सख्या ५४ । -वही, श्लोक १७५ । ३५. अथान्यदा दशपर यान्तिस्म गुरव क्रमात् ।। ४०. नाहटा, अगर चन्द जैन साहित्य में वशपुर . दशपुर जनपद सस्कृति (सम्पादक . मांगीलाल मेहता, -वही, श्लोक १८६। ३६. अपन शिष्य विन्ध्य की प्रार्थना पर इनके द्वारा प्रकाशक प्राचार्य, बुनियादी प्रशिक्षण महाविद्यालय, किया गया अनुयोगों का विभाजन जन साहित्य के मन्दसोर), पृ० १२०-२१ । इतिहाम में तीसरी ग्रागमवाचना के रूप में प्रसिद्ध ४१ 'महि महति मालवदेस, हप्रा। धण कणय लच्छि निवेम। ३७. विस्तृत परिचय के लिए देखिए, मुख्तार ग्रा. धीजुगल तह नयर मण्डव दुग्ग, किगार । --स्वामी समन्तभद्र अहिनवउ जाण हि मग ॥ ३८. काच्या नग्नाट कोह मलमलिनतनुलाम्बुग पाण्डुपिण्ट तिहं अतुलबल गुणवन्त, पुण्डोण्ट्र शाक्यभिक्षुदंगपुरनगरे मिष्टभोजी परिवाट। श्रीग्यास मुत जयवन्त ।। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त महत्व साहित्यिक दृष्टि से ही नहीं अपितु ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी बहुत है। इस प्रकार, दशपुर अर्थात् मन्दसोर में जैनधर्म का प्रचार-प्रसार भगवान् महावीर के समय से रहा सिद्ध होता है। वहा प्राज भी जैन समाज का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सिरिमाल वश वयश, मानिनी मानस हंस । सोनराप जीवन पुत्त, बहु पुत्त परिवार जुत्त ॥ सिरिमालिक माफरपट्टि, हय गय सुहड बहु चट्टि । बसपुरह नयर मझारि, सिरिसंघ तराई अधारि । सिरि शान्तिसूरि सुपमाई, दुइ दुरिय दूरि पलाई । ज किमवि अलियम सार, गुरु लहिय वर्ण विचार ।। कवि कविउ ईश्वरसूरि, तं खमउ बहुगुण भूरि । शशि रसु विक्रम काल, ए चरिय रचिउ रसाल ॥ ज ध्र व रवि ससि मेर, तं जयउ गच्छ संडेर ।' -प्रशस्ति । समरथ सहस धीर, श्री पातसाह निसीर । तसु रज्जि सकल प्रधान, गुरु रूक रयण निधान । हिन्दुमा राय बजीर, श्रीपुंज मयणह धीर । तृष्णा की विचित्रता जिस समय दीनताई थी उस समय जमीमारी पाने की इच्छा हुई, जब ज़मीदारी मिली तो सेठाई प्राप्त करने को इच्छा हुई । जब सेठाई प्राप्त हो गई तब मंत्री होने की इच्छा हुई, जब मंत्री हुमा तो राजा बनने की इच्छा हुई। जब राज्य मिला, तब देव बनने की इच्छा हुई, देव हुआ तब महादेव होने की इच्छा हुई। अहो रायचन्द्र वह यदि महादेव भी हो जाय तो भी तृष्णा तो बढती ही जाती है मरती नहीं, ऐसा मानो। मह पर झुरिया पड गई , गाल पिचक गए, काली केश की पट्टियां सफेद पड़ गई , संघने, सुनने और देखने की शक्तियां जाती रही और दातो की पक्तिया खिर गई अथवा घिस गई, कमर टेढ़ी हो गई, हाड-मास सूख गए, शरीर का रंग उड़ गया, उठने-बैठने की शक्ति जाती रही, और चलने में हाथ में लकड़ी का सहारा लेना पड़ गया। परे ! रायचन्द्र, इस तरह युवावस्था से हाथ धो बैठे, परन्तु फिर भी मन से यह रांड ममता नही मरी। करोड़ों के कर्ज का सिर पर डंका बज रहा है, शरीर सूख कर रोग रुध गया है। राजा भी पीड़ा देने के लिए मौका तक रहा है और पेट भी पूरी तरह से नहीं भरा जाता। उम पर पाता पिता और स्त्री अनेक प्रकार की उपाधि मचा रहे हैं। दु.खदायी पुत्र और पुत्री खाऊ खाऊं कर रहे है। अरे रायचन्द्र ! तो भी यह जीव उधेड बुन किया ही करता है और इससे तृष्णा को छोड़कर जंजाल नही छोड़ा जाता। नाड़ी क्षीण पड़ गई, अवाचक की तरह पर रहा, और जीवन-दीपक निस्तेज पड गया। एक भाई ने इसे अन्तिम अवस्था में पड़ा देखकर यह कहा, कि अब इस विचारे की मिट्टी ठंडी हो जाय तो ठीक है। इतने पर उस दुइ ने खीजकर हाथ को हिलाकर इशारे से कहा, कि हे मूर्ख चुप रह, तेरी चतुराई पर प्राग लगे। प्ररे रायचन्द्र ! देखो, देखो, यह प्राशा का पाश कैसा है ! मरते-मरते भी बुढ्ढे को ममता नही मरी। (श्री मद्राजचन्द्र से साभार) Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गत किरण ३ १ १.५ से प्राग-- सागारधर्मामृत पर इतर श्रावकाचारों का प्रभाव बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री इम उपासकाध्ययन में चचिन श्रावकाचार का प्रभाव उपामकाध्ययन प० प्रागाधर के ममक्ष रहा है व उन्हान प्रस्तुत सागारधर्मामन पर बहुत अधिक दिखता है । यह मागारधर्मामत की रचना में उसका बहुत कुछ उपयोग १. पं. प्राशाधर ने सोमदेव मूरि और उनके इम उपा- . भी किया है। उदाहरण के रूप में उक्त दोनों ग्रन्थों के मकाध्ययनका उल्लेख भी जहातिहा स्वयं किया है- कुछ मे स्थलो को यहाँ प्रस्तुत किया जाता है जिनमे क-'मन्त्रभेद, परीवाद.. .. ' (उपाम० ६८१) बहन कुछ ममानता दर इति यशस्तिलके अतिचागतरवचन तबरे प्याद्यास्त १ उपासकाध्ययन के अन्तर्गत भव्य मेन मुनि के परीक्षादात्यया इत्यनेन मगहीन प्रतिपनयम । (माघ प्रकरण (पृ०६२-६६) मे मौन मे मम्बद्ध एक श्लोक स्वो. टीका ४-४५) (१८०) पाया है, जो ग्रन्थान्तर का प्रतीत होता है। वह ख-मामदेवपण्टिनस्तु मानन्यनाधिकवे दावनी- हग प्रकार है-- चारी मन्यमान इदमाह--मानवन्यनताधिक्य म्तनकम अभिमानस्य रक्षार्थ प्रतीक्षार्थ अनस्य च । नतो ग्रह । विग्रह गग्रहोऽर्थम्याम्तेयस्यने निवर्तका ।। वनन्ति मुनयो मोनमदनाविषु कर्मसु । (उपाम. ३७०-उपा में मानवन्य' के स्थान पर मका मिलान मा ध. के निम्न श्लोक (४-५) में 'पोतवन्य' और मा ध. में 'म्तेनकम' के स्थान पर 'तेन का कीजिये- कर्म' व 'विग्रह' के स्थान पर "विन हो' पाठ है। मा अभिमानावने गतिरोषाद वर्षयते तपः२ । ध. स्वो टीका ४-५०।। मौन तनोति श्रेयश्च श्रुतप्रश्रयतायनात ।। ग-तदाह सोमदेवपण्डित.-वधू-वित्तस्त्रियो मानवा उपासकाध्ययन अग ही विवक्षित है, न कि मुक्त्वा ॥ (उपा. ४०५) सा. ध. स्वो. टीका ४-५२ प्रस्तुत उपामकाध्ययन । दूमरे, वह प्रकरण प्रस्तुत घ-सोमदेवपण्डितस्त्विदमाह-कृतप्रमाणो लोभेन उपामकाध्ययन में उपलब्ध भी नहीं होता। धनाद्यषिकसंग्रहः । पञ्चमाणुव्रतज्यानी करोति २ मौन से चंकि गतिका निरोध होता है-लोलुपता गृहमेधिमाम् ॥ (उपा. ४४४-मुद्रित उपासका. को छोड़ना पडता है, मन उस मौन से इच्छानिरोध ध्ययन में 'कृतप्रमाणाल्लो' और 'धमादधिक' पाट प तप की वृद्धि होती है। इसके अतिरिक्त उके मुद्रित हुए है, इनकी अपेक्षा सा. ध. की टीका म प्राश्रय से मनःसिद्धि-मन के ऊपर नियन्त्रणजो पाठ उपलब्ध है उनकी मम्भावना अधिक है)। और वचनकी सिद्धि-सरस्वती की प्रसन्नता (श्लोक मा. ध. स्वो. टीका ४-६४ ३६)-भी होती है। यह कथन भी यहां उपासकादु-तद्वच्पेमेऽपि श्रीसोमदेवबुधाभिमता:-दुप्प- ध्ययनगत निम्न श्लोको के आधार से किया गया हैक्वस्य निषिद्धस्य" ..|| (उपा. १६३) सा. घ. म्वो. लौल्यत्यागात् तपोवृद्धिरभिमानस्य रक्षणम् । टीका ५-२० नतश्च समवाप्नोति मनःसिद्धि जगत्त्रये ॥ श्लोक ७-१६ और २० की स्वो. टीका में 'उपास- श्रुतस्य प्रश्रयाच्छय समृद्ध. स्यात् समाश्रय. । काध्ययन' का नामोल्लेख हुआ है। पर उससे जैसा ततो मनुजलोकस्य प्रमीदति सरस्वती ॥ कि मूल में (सप्तमे प्रक्ष-७.२०) निर्दिष्ट है, उपा. ८३५-३६ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ अनेकान्त उपयुक्न उपासकाध्ययन के मोक में मोन के लिए ४. उपासकाध्ययन के इमो प्रकरण में मद्यदोषो का दो कारण-अभिमानरक्षा पोर श्रुतप्रतीक्षा (श्रुतविनय)- उम्लग्न करते हुए सोमदेव मूरि ने कहा है (२७५) कि निहित है। वे दोनो कारण गा. ध के इम इनोक में भी यदि मद्य की एक बंद में सम्भव समस्त जीवराशि फल गभित है। 'अभिमानस्य रक्षार्थ' और 'अभिमानावने' म जाय तो वह समस्त लोक को व्याप्त कर सकती है। यही शाब्दिक समानता भी है। कि मा. ध. मे यहा प्रकरण बात १० आशाधर के द्वारा मा. ध. (२-४) मे भी वही ही मौन का रहा है, अत: उसका वर्णन वहा कुछ विशेष गई है। रूप में-३४-३८ श्लोको मे-उपलब्ध है। ५. उपामकाध्ययन में (पृ. १३०-३३) मद्यपायी २. उपासकाध्ययन में सम्यक्त्व के प्रादुर्भाव की एकपात परिव्राजक और उमका व्रत रखने वाले धूतिल मामग्री का निर्देश करते हए 'उक्त च' कहकर ग्रन्थान्नर चोर की कथा पृथक-पृथक कही गई है। इन्ही नामो का से यह श्लोक उद्धृत किया गया है निर्देश मा. ध में उदाहरण के रूप में किया गया है४ । मासम्मभव्यता-कमहानि-संज्ञित्व-शुद्धपरिणामाः । ६ उपामकाध्ययन में कहा गया है कि जो भोजसम्यक्त्वहेतुरन्त ह्योऽप्युपदेशकाविश्च ॥२२४ नादि के समय-पक्तिभोजनादि मे-प्रवतियो-मद्य इससे मिलता जुलता सा. घ. में निम्न श्लोक पाया मासादि का सेवन करने वालो-के माथ समर्ग करना है जाता है वह इम लोक में निन्दा को प्राप्त करना है तथा परलोक मासन्नभग्यता-कर्महानि-सशित्व-शुद्धिभाक् । उसका निष्फल जाता है। साथ ही वहा चर्मपात्र में ये देशनाचस्तमिथ्यात्वो जीवः सम्यक्त्वमानुते ॥१-६ हए पानी व तेल प्रादि के परित्याग के माथ व्रत में इसका पूर्वार्ध तो प्राय: उपर्युक्त श्लोक का ही है। विमुख-मद्यादिका सेवन करने वाली-स्त्रियो के परिउत्तरार्ध में भी पूर्व श्लोक मे जैसे सम्यक्त्वोत्पत्ति के बाह्य त्याग की भी प्रेरणा की गई है ५ । हेतुभूत उपदेश का उल्लेख किया गया है वैसे ही सा ध. पिछले श्लोक में प्रयुक्त 'एतान्' पद को स्पष्ट मे भी उक्त श्लोक के उत्तरार्ध में उमका (उपदेश-देशना करते हुए उसकी स्वोपज्ञ टोका मे प्रस्तुत उपासकाका) निर्देश किया गया है। ध्ययन का नामोल्लेख भी इस प्रकार किया गया है३. उपासकाध्ययन मे मद्य, मांस और मधु के त्याग किविशिष्टान् ? एतान्-उपासकाध्ययनादिशास्त्राके साथ पाच उदुम्बर फलों के त्याग स्वरूप आठ मूलगुण नृमारिभिः पूर्वमनूष्ठेयतयोपदिष्टान् । निर्दिष्ट किये गये है। सा. ध. स्वो, टीका २,२-३ प. प्राशाधर ने इन्हो को मान्यता देकर अपने सा. ४ मा.ध. मे इसी प्रकार से अन्यत्र भी जो जहा-तहा ध. मे उन्हें प्रथम स्थान देते हुए तत्पश्चात् प्रा. समन्तभद्र उदाहरण के रूप में कितने ही नामों का उल्ले ग्व और जिनसेन के तद्विषयक अभिमत को सूचित किया है। किया गया है उनमे से अधिकाश की कथाये प्रस्तुत १ प्रनगारधर्मामृत की स्वोपज्ञ टीका (१-१) मे इसे उपासकाध्ययन मे यथास्थान पायी जाती है । यथा मांसभोजी सौरसेन (उपा. पृ. १४०-४१; सा. ध. स्वय प० प्राशाधर ने उद्धृत भी किया है। २ मद्य-मांस-मधुत्यागः सहोदुम्बरपञ्चकै. । २-६) और उसका व्रत रखने वाला चण्ड नामक अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणाः श्रुते ॥२७० चाण्डाल (उपा. पृ. १४२-४३; सा. ध. २-६) इत्यादि। ३ तत्रादौ श्रद्दधज्जनीमाज्ञां हिंसामपासितुम् । कुर्वन्नतिभि: मार्च संसर्ग भोजनादिषु । मद्य-मांस-मधून्युज्भेत् पञ्च क्षीरफलानि च ।। प्राप्नोति वाच्यतामत्र परत्र च न सत्फलम् ॥ प्रष्टतान् गृहिणा मूलगुणान् स्थूलवधादि वा । दृतिप्रायेषु पानीय स्नेह च कुतुपादिषु । फलस्थाने स्मरेत् धून मधुस्थान इहैव वा ।। व्रतस्थो वर्जयेन्नित्य योषितश्चावतोचिता. ॥ सा. . २,२-३ उपा २६८-६९ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृत पर इतर भावकाचारों का प्रभाव १५३ इसी का अनुसरण करके प० प्राशाधर ने सा. ध. मे ११. सागारधर्मामृत मे सत्याणवत के प्रसंग मे वचन यह कहा है के जो सत्यसत्य प्रादि चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं वे भजन मद्याविभाज स्त्रीस्तादृशः सह ससृजन् । उपासकाध्ययन मे वणित उन वचनभेदों से पूर्णतया प्रभाभक्त्यावौ चंति साकीति मद्यादि वितिक्षतिम् ॥३-१० वित है। उक्त भेदो मे चौथा भेद प्रसत्यासत्य है। चर्मस्थमम्भः स्नेहश्च हिंग्वसंहृतचर्म च ।। व्यवहार का विरोधी होने से उसे दोनों ही प्रन्थो मे सर्व च भोज्यं व्यापन्नं दोषः स्यादामिषव्रते ॥३-१२ समान रूप से हेय बतलाया गया है । ७. अन्तरायो के टालने की प्रेरणा जैसे उपासका- १२. उपासकाध्ययन मे बाह्य भौर अभ्यन्तर वस्तुयो ध्ययन में की गई है वैसे ही सा. ध. मे भी की गई है। मे 'ममेद' इस प्रकारका जो सकल्प हुमा करता है उसे दोनों का अर्थसाम्य व शब्दसाम्य दर्शनीय है परिग्रह कहा गया है। । इसी प्रकार सागारधर्मामृत मे प्रतिप्रसगहानाय तपसः परिवहये। भी चेतन, प्रचेतन और मिश्र (चेतन-अचेतन) वस्तुमो मे अन्तरायाः स्मृताः सवित-बीजविनिक्रियाः ।। जो 'ममेद' इस प्रकारका संकल्प होता है उसे ही परिग्रह उपा. ३२४ कहा गया है। प्रतिप्रसंगमसितुं परिवर्धयितुं तपः । १३ सोमदेव सूरि के समय में मुनियो में प्राचारव्रत-बीजवतीभक्तेरन्तरायान् गृही श्रयेत् ।। विषयक शिथिलता देखने में माने लगी थी, जिससे उन्हे सा. ध. ४-३० उनकी मान्यता में कमी का अनुभव होने लगा था। इसी८. रात्रिभोजन के परित्याग के सम्बन्ध में भी से उन्हे उपासकाध्ययन में यह कहना पड़ाउक्त दोनों ग्रन्थों के श्लोक देखिये यया पूज्यं जिनेन्द्राणां रूपं लेपादिनिमितम् । अहिसावतरक्षार्थ मूलवतविशद्धये । तथा पूर्वमनिच्छायाः पूज्याः सप्रति संयताः ।।७७ निशायां वर्जयेद भक्तिमिहामुत्र च टूखदाम् ।। इसी प्रभिप्राय को ५० प्राशाधर ने सागारधर्मामल उपा. ३२५ (२-६४) मे इन शब्दों में व्यक्त किया हैअहिंसावतरक्षार्थ मलव्रतविशद्धये। नक्तं भुक्ति चतुर्षापि सदा धीरस्त्रिया त्यजेत् ॥ प्रारम्भेऽपि सदा हिसां सुधी. सांकल्पिकी त्यजेत् । ६. उपासकाध्ययन मे श्रावक के उत्तरगुणो का घ्नतोऽपि कर्षकादुच्चः पापोऽनन्नपि धीवरः ॥ निर्देश इस प्रकार किया गया है सा. २-८२ अणुवतानि पञ्चैव विप्रकारं गणवतम् । २ देखिए उपाम. पृ. १७५-७६ का गद्यभाग और सा. शिक्षावतानि चत्वारि गुणाः स्यदिशोत्तरे ॥ १४ ध. श्लोक ४, ४१-४३ (उन वचनभेदो के नाम भी दोनों ग्रन्थों में शब्दश: समान हैं)। सा. ध मे ये ही १२ उत्तर गुण निर्दिष्ट किये गये है । वहा उनगे सम्बद्ध श्लोक का चतुर्थ चरण उपयुक्त सुरीय वर्जये नित्य लोकयात्रा त्रये स्थिता । उ. ३८४ लोकयात्रानुरोधिन्वात् सन्यसत्यादिवाक्त्रयम् । उपासकाध्ययन के उक्त श्लोक का ही है-गुणा. स्युदि. शोत्तरे (४-४) । ब्रू यादसत्यासत्य तु तद्विरोधान्न जातुचित् ।। यत् स्वस्य नास्ति तत् कल्ये दास्यामीत्यादिसविदा । १०. उपासकाध्ययन में जो साकल्पिक हिंसा के व्यवहारं विरुन्धान नासत्यासत्यमालपेत् ।। लिए धीवर का और प्रारम्भज हिंसा के लिए कर्षक सा. घ. ४-४० व ४-४३ (किसान) का उदाहरण दिया गया है वही उदाहरण सा. ४ ममेदमिति सकल्पो बाह्याभ्यन्तरवस्तुषु । घ. में दिया गया है । परिग्रहो मत: xxx| उपा. ४३२ १ अध्नन्नपि भवेत् पापी निघ्नन्नपि न पापभाक् । ५ ममेदमिति संकल्पश्चिदचिन्मिश्रवस्तुष । अमिध्यानविशेषेण यथा धीवर-कर्षको ॥ उ. ३४१ ग्रन्थ: xxx ॥सा. घ. ४-५६ । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त विन्यस्यवंयुगीनेषु प्रतिमासु जिनानिव । उपयुक्त ग्यारह पद सम्यक्त्व से विरहित जीव के सम्भव भक्त्या पूर्वमुनीनचेत् कुतः मेयोऽतिचिनाम् ॥ नहीं हैं, प्रतः सर्वप्रथम वहा पाठ प्रगों सहित सम्यक्त्व और १४ सोमदेव सूरि ने पुण्योदय से प्राप्त धन का उसके विषयभूत जीवादि तत्त्वों का विवेचन किया गया उपयोग जैनधर्मानुयायी के लिए करने की इस प्रकार से है। तत्पश्चात् यह निर्देश करते हुए कि दर्शनश्रावक वह प्रेरणा की है होता है जो सम्यक्त्व से विभूषित होकर पांच उदुम्बर वाल्लषं धनं धन्यवप्तव्यं समयाश्रिते। फलों के साथ सातों व्यसनों को छोड़ देता है। इन एको मुनिर्भवेल्वभ्यो न लभ्यो वा यथागमम् ।।२१ जूतादि सात व्यसनो की यहां विस्तार से प्ररूपणा की यही प्रेरणा सा. घ. (२-६३) में इस प्रकार से की गई है। प. प्राशाघर ने सागारधर्मामत के अन्तर्गत कितने वाम्लम्ब बनं प्राणः सहावश्यं विनाशिक ही विषयों के वर्णन में उक्त वसुनन्दि-श्रावकाचार का बहमा विनियुजानः सुधीः समयिकान् क्षिपेत् ॥ प्राश्रय लिया है। उनमे उदाहरण स्वरूप कुछ इस १५ उपासकाध्ययन मे लक्षणनिदंशपूर्वक दान के प्रागे यथाक्रम से इस गाथा मे निर्दिष्ट विनयादि तीन भेद कहे गये हैं-राजस, तामस भोर सात्विक । का वर्णन किया गया है। उसमे भी प्रमुखता से इनमें सात्त्विक दान को उत्तम, राजस को मध्यम पोर पूजनविधान का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है। तामस को सर्वजघन्य दान बतलाया है। ५ पचुबरसहियाइ सत्त वि विसणाइ जो विवज्जेइ । पं. पाशाधर ने अतिथिसंविभाग के प्रकरण मे श्लोक सम्मत्तविसुद्धमई सो दसणसावप्रो भणियो ॥५॥ ५-४७ में दाता का स्वरूप बतलाते हुए उसकी स्वोपज्ञ गा० ६०-१३३ । टीका में कहा है कि चूंकि वासा सस्वादि गुणो से युक्त , ७ स्वयं पं० प्राशाघर ने सा. घ. की स्वो. टीका मे होता है, अतः उसके द्वारा दिया जाने वाला दान भी प्रा. वसुनन्दी के नामोल्लेखपूर्वक वसु.धा. की सात्त्विक मादि के भेव से तीन प्रकार का है। गाथाम्रो को भी उद्धृत किया है। यथा४. बसुनमि-श्रावकाचार और सागारधर्मामृत क-'प्रथ-पंचुंबरसहियाइ सत्त वि वसणाई जो विवज्जेइ। वसुनन्वि-श्रावकाचार के रचयिता मा. वसुनन्दी हैं। सम्मत्तविसुद्धमई सो दंसणसावनो भणिमो ॥व. ५७ उन्ही के नाम पर यह ग्रन्थ 'वसुनन्दि-श्रावकाचार' नाम से इति वसुनन्दिसैद्धान्तिमते'। सा. घ. स्वो. टीका ३-१६ प्रसिरहमा है। इसमें दर्शन-व्रत प्रादि ग्यारह स्थानो ख-यस्तु 'पचुंबरसहियाई..॥५७' इति वसुनन्दिसंवान्ति(प्रतिमामों) के माधय से बावकधर्म का वर्णन किया मतेन दर्शनप्रतिमायां प्रतिपन्नस्तस्येद तन्मतेनैव व्रतगया है। साथ ही वहां धावकों के द्वारा पौर भी जो प्रतिमा बिभ्रतो ब्रह्माण व्रत स्यात् । तद्यथायथायोग्य विनय, वयावृत्त्य, कायक्लेश व पूजन-विधान "पम्वेसु इत्थिसेवा...."॥" (व. श्रा. २१२) सा. अनुष्ठेय है उनका भी कथन किया गया है।। चूकि घ. स्वो. टीका ४-५२ १ उपा. ८२८-३१ । ग-इनके अतिरिक्त मनगारधर्मामृत की स्वो. टीका २. किं -सत्वादिगुणदातक दानमपि सात्विकादि- (८.८८)में भी जो 'एतच्च भगवसुनन्दिसैद्धान्त [न्ति]. भेदात् त्रिविमिष्यते । तदुक्तम्-इतना कह देवपादैराचारटोकाया "दुप्रोणद जहाजाद" इत्यादिसूत्रे कर भागे उपासकाध्ययन के उपयुक्त चार श्लोकों (मूला.७-१०४) व्याख्यात द्रष्टव्यम् । (मूला. वृत्ति के को उदत भी कर दिया है। सा. घ. ५-४७ कर्ता के रूप मे यहा भी जिस ढंग से उनके नाम का ३ यह वर्णन प्रारम्भ की ३१३ गाथामो में पूर्ण हुमा है। उल्लेख किया गया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि ४ विणमो विग्जाविच्च कायकिलेसो य पुग्मणविहाणं । वसुनन्दि-श्रावकाचार के कर्ता वसुनन्दी पौर उक्त सत्तीए जहजोम्ग कायब्वं देसविरएहि ॥३१६ माचारवृत्ति के कर्ता बसुनन्दी दोनों एक ही है।) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृत पर इतरभावकाचारों का प्रभाव उत्तम-मम्झ-बहन् तिहिं पोसहविहानमुडिं। १. पा. में सात व्यसनों का वर्णन करते हुए सगसत्तीए मासम्मि परसु पम्बेसुबाप ॥२८० प्रकरण के अन्त में १-१ गापा द्वारा उक्त व्यसनों का इस प्रकरण सम्बन्धी उभय प्रन्यगत कुछ पद-वाक्यों सेवन करके जो दुर्गति को प्राप्त हुए है उनका उदाहरण की समानता देखिएदिया गया है१ । तदनुसार सा. ध. मे भी उक्त व्यसनों व. श्रा.-सत्तमि-तेरसिदिवसम्मि प्रतिहिजणभोयका सेवन करने वालों में उन्ही का नामोल्लेख किया है णावसाणम्मि भुंजणिज्जं भोत्तण-२८१ (सा. प.जो व. श्रा. में उदाहृत हैं२ । पर्वपूर्वदिनस्या प्रतिथ्य शितोत्तरं भुक्त्वा-५-३६); २ व. श्रा. में प्रथमत: मेधावी-तीव्रबुद्धि जीवो को व. श्रा.-वायण-कहाणुपेहण - सिक्खावण-चिंतणोव. लक्ष्य करके दान के फल की प्ररूपणा की गई है। प्रोगेहि दिवससेसं णेऊण, प्रवराण्हियवंदणं किच्चा-२८४ तत्पश्चात् मन्दबुद्धि जनों को लक्ष्य करके जो दानफल की (सा.प.-धर्मध्यानपरो दिनं नीत्वा, पापराहिकं कृत्वा वहां प्ररूपणा की गई है। उसका अनुसरण कर पं० माशा. -५-३७); घर ने सा. ध. मे उक्त दानफल का वर्णन किया है। व. श्रा.-रयणिसमयम्हि काउसग्गेण ठिसचाxx ३ प्रोषधोपवास के प्रसग मे ५० प्राशाधर ने सा. ४ संथारं दाऊण Xxx जिणालये णियघरे वा, अहवा घ. मे प्रोषधविधान के उत्तम, मध्यम और जघन्य ये तीन सयलं रत्ति काउस्सग्गेण णेऊण-२८५-८६ (सा.-पतिभेद बतलाये है। उनमें पर्वदिनों मे १६ पहर के लिए- वद्विविक्तवसति श्रितः-४-३६, स्वाध्यायरत' प्रासुकसंस्तरे सप्तमी व त्रयोदशीके दोपहर से नौवी व प्रमावस्या (या पूर्ण- त्रियामा नयेत्-४.३७); मासी) के दोपहर तक–पूर्ण रूप से चारो प्रकार के माहार व.श्रा.-पच्चूसे उद्विता वंदणविहिणा जिणं णमंसित्ता का परित्याग कर धर्मध्यानपूर्वक एकान्त स्थान में समय -२८७ (मा.-ततः प्राभातिकं कुर्यात्-५-३८); विताने को उत्तम, जल के अतिरिक्त अन्य चारों प्रकार के व. श्रा.-जि-सुय-सारण दव्य-भावपुज्जं काऊणपाहार के त्याग को मध्यम और प्राचाम्ल-निविकृति प्रादि २८७ (सा.-पूज्यान भावमय्येव प्रासुकद्रव्यमय्या वा को रखकर शेष भोजन के परित्याग को जघन्य प्रोषध- पूजया पूजयेत् -५-३६) विधान कहा है। मायंबिल-णिम्वियमी एयट्ठाणं च एयभत्तं वा। इसका प्राधार वसुनन्दि-श्रावकाचार का तद्विषयक ___ जंकीरह त णेयं जहष्ण पोसहविहाणं ।। व. २९२ वर्णन रहा है। वहां उसके इसी प्रकार से तीन भेद व तत्राचाम्लमसंस्कृतसौवीरमिश्रीदनमोजनम्, सिविउनके लक्षण निर्दिष्ट किये गये है। यथा कृति - विक्रियेते जिह्वा-मनसी येनेति विकृतिःxx विकृतनिष्क्रान्त भोजन निविकृति । प्रादिशब्देनकस्थानक१ वसु. श्रा. १२५-३१ भक्त-रसन्यागादि । सा. घ. स्वो. टीका ५-३५ २ सा. ध. ३-१७ ४ सा. ध. में उद्दिष्टविरत-प्रन्तिम श्रावक-की ३ व. श्रा. २४०-४३ जो प्ररूपणा की गई है वह इम व. श्रा. की प्रकृत प्ररूपणा ४ व. श्रा. २४४-४८ के ही प्राधार से की गई है। वहां उत्कृष्ट श्रावक के जैसे ५ सा. घ. २-६७ दो भेद किये गये हैं वैसे ही सा. घ. में उसके दो भेद एवमुत्तमं प्रोषधविधानमुक्त्ता (५-३४) मध्यमं निर्दिष्ट किये गये हैं। यथाजघन्यं च तदुपदेष्टुमाह एयारसम्मि ठाणे उक्किट्ठो सावनो हवे बुषिहो। उपवासाक्षमः कार्योऽनुप वासस्तदक्षमैः । बत्येकघरो पहमो कोवीणपरिगहो विविधो ॥व. ०१ पाचाम्ल-निर्विकृत्यादि शक्त्या हि श्रेयसे तप ॥ पम्मिल्लागं चयणं को कत्तरिणवा पदमो। सा. ५-३५ ठाणासु पडिलेहा उपयरमेण पक्रया॥३०२ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त स द्वघा प्रथमः श्मश्रुमूर्धजानपनाययत् । - यदि इस प्रकार से मार्ग में कोई नही रोकता है तो सितकोपीन संव्यात. कर्तर्या वा क्षुरेण वा ॥ सा. ७-३८ क्या करे, इसके लिए दोनों ग्रन्थो मे कहा गया है- . स्थानाविषु प्रतिलिखेत मृदूपकरणेन सः । ३६ पू. ग्रहण भणइ तो भिक्खं भमेज्ज. णियपोटपुरणपमाण ! सद द्वितीयः किन्त्वार्यसंज्ञो लुञ्चत्यसो कचान् । पच्या एम्मि गिहे जाएज्ज पासुगं सलिल ।। कौपीनमात्रयग धत्ते यतिवत् प्रतिलेखनम् १ ।।७-४८ ज कि पि पडियभिक्खं भुजिज्जो सोहिऊण जत्तेण । दोनो ही ग्रन्थो मे उत्कृष्ट श्रावक के लिए उपवास । पखालिऊण पत्तं गच्छिज्जो गुरसयासम्मि ॥ की अनिवार्यता समान रूप में बतलायी गई है व. था. ३०७-८ उपवास पुण णियमा चउविहं कुणइ पव्वेसु ॥ व. ३०३ ।। प्रार्थयेतान्यया भिक्षा यावत् स्वोबरपूरणीम् । कुर्यादेव चतुष्पांमपवासं चतुविधम् ॥ सा. ७-३६ लभेत् प्रासु यत्राम्भस्तत्र संशोध्य तां चरेत् ।। इसी प्रकार दोनो ग्रन्यो में उक्त श्रावक के लिए। प्राकांक्षन संयम भिक्षापात्रप्रक्षालनादिषु । बैठकर हाथो मे अथवा वर्तन में भोजन करने का निर्देश स्वयं यतेत चादपंः परथाऽसयमो महान् ॥ किया गया है __मा. ध.७, ४३-४४ भंजेइ पाणिपत्तम्मि भायणे वा सई समवइट्ठो। व. ३०२ तत्पश्चात् दोनो ग्रन्थो मे समान रूप से यह कहा स्वय समुपविष्टोऽद्यात् पाणिपात्रेऽथ भाजने। सा.७-४० गया है कि पश्चात् गुरु के पास जाकर विधिपूर्वक चार भिक्षा याचना की विधि दोनो ग्रन्थो में निम्न प्रकार के प्रत्याख्यान को ग्रहण करते हुए सबको पालोप्रकार कही गई है चना करे । यथापक्वालिऊण पत्तं पविसइ चरियाय पंगणे ठिच्चा। गतूण गुरुसमीवं पच्चक्खाणं चउग्विह विहिणा। भणिऊण धम्मलाहं जाय भिक्ख सयं चेव ॥ गहिऊण तनो सव्वं पालोचेज्जा पयत्तण ।। व. ३१० सिघं लाहालाहे प्रदीणवयणो णियत्तिऊण तम्रो। ततो गत्वा गुरूपान्तं प्रत्याख्यानं चतुविषम् । अण्णम्मि गिहे वच्चा बरिसइ मोणेण कायं वा॥ गलीयाद् विधिवत् सर्व गरोश्चालोचयत् पुरः ।। व. श्रा. ३०४-५ सा. ७-४५ स धावकगहं गत्वा पात्रपाणिस्तबङ्गणे ॥ माथ ही दोनों ग्रन्थो मे यह भी कहा गया है कि जिसको स्थित्वा भिक्षां धर्मलाभं भणित्वा प्रार्थयत वा। यह भिक्षाभोजनविधि रुचिकर नहीं है व जिसके एकमानेन वयित्वांग लाभालाभे समोऽचिरात् । भिक्षा का ही नियम है वह मुनि के प्राहार ग्रहण कर निर्गत्यान्य गृह गच्छेद् ....... ॥ सा. ७, ४०-४२ लेने पर किमी श्रावक के घर जाकर भोजन करे। पर भिक्षा के लिए जाते हुए यदि कोई अधबीच मे भोजन यदि विधिपूर्वक वहा भोजन नहीं प्राप्त होता है तो फिर करने के लिए प्रार्थना करता है तो क्या करे, इसके लिए उसे उपबाम ही करना चाहिए । यथादोनो ही ग्रन्थों में यह कहा गया है जह एव ण रएज्जो काउरिस (?) गिहम्मि चरियाए । जह प्रखबहे कोइ वि भणह पत्थेइ भोयण कुणह । पविसत्ति (?) एपभिक्ख पवित्तिणियमणं ता कुज्जा । भोतण जिययभिक्खं तस्सण्णं भुंजए सेसं ॥ व. .०६ व. श्रा. ३०६ । यस्त्वेकभिक्षानियमो गत्वाऽद्यादनुमन्यसौ। ................. भिक्षोद्युक्तस्तु केनचित्। भुक्त्यभावे पुनः कुर्यादुपवासमवश्यकम् ॥७.४६ भोजनायाथितोऽचात्तद् भुक्त्वा यद् भिषितं मनाक ॥ ५. वमुनन्दि-श्रावकाचार में इसी प्रसा में यह कहा सा. ७,४१-४२ गया है कि देशव्रती श्रावक को दिनप्रतिमा, रिचया, १ एमेव होइ विमो पवरि विसेसो कुणिज्ज गियमेण । त्रिकाल योग और सिद्धान्त रहस्यों के पढने का अधिकार लोचं धरिज्ज पिच्छं भुजिज्जो पागिपतम्मि ॥ व. ३११ नहीं है । यधा Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृत पर इतर श्रावकाचारों का प्रभाव विणपडिम-बीरचरिया-तियाल जोगेषु णत्यि अहियारो। प्राचार्य हेमचन्द्र भी इसके पूर्व १८-४५ श्लोकों में सिद्धतरहस्साण वि प्रज्झयणे देसविरदाणं ॥ व ३१२ मुनिधर्म का निरूपण कर चुकने पर यहा यह कहते है कि यही बात सागारधर्मामृत मे भी इसी प्रकार से कही सर्व मावद्य के त्यागरूप यह मुनियो का धर्म कहा जा चुका है। इस मुनिधमं मे अनुरक्त गृहस्थों का वह श्रावको वीरचर्याऽहःप्रतिमातापनादिषु । चारित्र गर्वात्मना-सर्वविरतिरूप-न होकर देशत.स्थानाधिकारी सिद्धान्त रहस्याध्ययनेऽपि च ॥७-५० ५. योगशास्त्र व मागारधर्मामृत एकदेगविरतिरूप-ही होता है। यहा सागारधर्मामत के उक्त श्लोकगत 'तद्धर्मरागिणा' प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा विरचित योगशास्त्र में प्रमु और 'मागाराणा' तथा योगशास्त्र के इस लोक में प्रयुक्त खता से योग (ध्यान) का वर्णन है। पर प्रमगवश वहा 'यतिधर्मानुरक्ताना' और 'अगारिणा' पद विशेष ध्यान चारित्र के वर्णन मे श्रावकाचार की भी प्ररूपणा की गई है। प्रस्तुत सागारधर्मामत की रचना मे प० माशाधर ने देने योग्य है। इस योगशास्त्र का भी बहुत कुछ उपयोग किया है। २ सागारधर्मामृत के प्रथम अध्याय मे श्लोक ११ के ... र द्वारा कैसा गृहस्थ गृहस्थधर्म के प्राचरण के योग्य होता अन्य भी श्वेताम्बर ग्रन्थो का सहारा लिया है। इस है, यह बतलाने के लिए वहा 'न्यायोपात्तधनः' मादि १४ योगशास्त्र का सागारधर्मामृत पर कितना प्रभाव है, यह विशेषरण दिये गये है। गृहस्थ की इस विशेषता का वर्णन देखने के लिए यहा इन दोनो ग्रन्थो के कुछ इलोको का । योगशास्त्र में प्रथम प्रकाश के अन्तर्गत इलोक ४७.५६ मे मिलान किया जाता है। विस्तार से उपलब्ध होता है । वहा गृहस्थ की इस विशे पता को व्यक्त करने के लिए जो ३५ विशेषण दिये गये यहां यह स्मरणीय है कि उक्त सागारधर्मामृत धर्मामृत है उनमे सा ध के वे १४ विशेषण समाविष्ट है। यथाग्रन्थ का उत्तर भाग है, पूर्व भाग उसका अनगारधर्मामृत १ न्यायोपात्तधन ३ ( न्यायमम्पन्नविभव.--यागहै। इन दोनो ही भागो पर प० प्राशाधर विरचित स्वोपज शा. १-४७), २ गुणगुरून यजन्४ (मातापित्रोश्च पूजक - टीका भी है। इसी प्रकार हेमचन्द्र विरचित योगशास्त्र पर भी विस्तृत स्वोपज्ञ विवरण उपलब्ध है। १ दोनो ग्रन्थो की स्वोपज्ञ टीका मे 'न्यायोपात्तपन: १ सागारधर्मामृत का प्रथम श्लोक इस प्रकार है- (न्यायसम्पन्नविभव:)' का स्पष्टीकरण इस प्रकार प्रथ नत्वाऽहतोऽक्षणचरणान् श्रमणानपि । किया गया हैतद्धर्मरागिणां धर्मः सागाराणां प्रणेष्यते ।। मा.ध -स्वामिद्रोह-मित्रद्रोह विश्वमितवञ्चन-चौर्याप० माशाधर अनगारधर्मामृत मे मुनिधर्म का निरूपण दिगवार्थोपार्जनपरिहारेणार्थोपार्जनोपायभूत: स्व-स्व. कर चुकने के पश्चात् यहा गृहस्थधर्म का वर्णन प्रारम्भ वर्णानुरूपः मदाचागे न्यायः, तनोपात्तमुपाजितमात्मकरते हुए सर्वप्रथम यह प्रतिज्ञा करते है कि अब आगे उस सात्कृत धन विभवो येन म तथोक्त । (यो शा. पृ. १४५ मुनियम में अनुराग रखने वाले गृहस्थो के धर्म का -स्वामिद्रोह-मित्रद्रोह-विश्वसितवञ्चन-चौर्यादिगानिरूपण किया जाता है। थोपार्जनपरिहारेणार्थोपार्जनोपायभूत: स्व-स्ववर्णानइसका मिलान योगशास्त्र के इस श्लोक से कीजिए प: मदाचारी न्यायस्तेन सम्पन्न उत्पन्नो विभवः सर्वात्मना यतीन्द्राणामेतच्चारित्रमोरितम् । मम्पद्यस्य स तथा ।) यतिधर्मानुरक्ताना देशतः स्यादगारिणाम् ॥ तथा गुरवो माता-पितरावाचायंश्च, नानपि पूजयन्___ योगशास्त्र १-४६ त्रिमध्यप्रणामकरणादिनोपचरन्, तथा गुणनि१ इसका ग्रन्थपरिचय अनेकान्त वर्ष २०, किरण १ मयमादिभिर्गुरवो महान्तो गुणगुरवस्तानपि यजन् (अप्रेल १६६७) पृ० १९-२१ पर देखिये । -मेवाजल्यासनाभ्युत्थानादिकर णगणेन मानयन् । यथा-ग्रावश्यकचूणि और थावकप्रज्ञप्ति प्रादि। (सा. ध. म्वो. टोका) Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० अनेकान्त ५०, व्रतस्थज्ञानवृद्धानां पूजकाः-५४) ३. सद्गी:१ (प्रवर्ण यह समाधान योगशास्त्र में श्लोक ३-३३ की स्वो. वादी न क्वापि-४८), ४ अन्योन्यगुणं त्रिवर्ग भजन् पज्ञ वृत्ति में निम्न श्लोक के द्वारा किया गया है(अन्योन्याप्रतिबन्धेन त्रिवर्गमपि साधयन-५२), ५ तद• यस्तु प्राण्यङ्गमात्रत्वात् प्राह मांसोदने समे । हंगृहिणी-स्थानालयः (कुल-शीलसमैः सार्ध कृतोद्वाहोऽन्य- स्त्रीत्वमात्रान्मात-पत्न्योः स कि साम्यं न कल्पयेत् ॥ गोत्र:-४७, मनतिव्यक्त-गुप्ते च स्थाने सुप्रातिवेश्मिके। पृ. ४७६-१२ ४ उक्त दोनों प्रन्थों में पांच उदुम्बर फलों के नाम अनेकनिगमद्वारविजितनिकेतनः।।४६, उपप्लुनस्थानं त्यजन् इस प्रकार निर्दिष्ट किये गये है-५०), ६ ह्रीमयः (सलज्जः-५५), ७ युक्ताहार-विहार: पिप्पल, उदुम्बर, प्लक्ष, वट और फल्गु (फल्गुरत्र (मजीणे भोजनत्यागी काले भोक्ता च सात्म्यत २-५२, काकोदुम्बरिका-स्वो. टीका) । सा. ध. २-१३ प्रदेश-कालयोश्चर्या त्यजन्-५४), ८ पार्यसमितिः (कृतसंगः सदाचारः-५०), प्राज्ञः (बलाबल जानन्-५४), यो. उदुम्बर, वट, प्लक्ष, काकोदुम्बरिका और पिप्पल । यो. शा. ३-४२॥ दीर्घदर्शी विशेषज्ञः-५५), १० कृतज्ञ: (कृतज्ञः-५५), ५ रात्रिभोजन प्रकरण में पं० पाशाधर ने जिस ११ वशी (वशीकृतेन्द्रियग्राम.-५६), १२ धर्मविवि वनमाला का उदाहरण दिया है (४-२६) वह योगशास्त्र शृण्वन् (शृण्वानो धर्ममन्वहम्-५१), १३ दयालु के निम्न श्लोक में इस प्रकार उपलब्ध होता है(सदय --५५), १४ अघभी. (पापभीरुः-४८)। श्रूयते ह्यन्यशपथाननादृत्येव लक्ष्मणः । ३ पागे (२-१०) प्राणी का अंग होने से मूग-उड़द निशाभोजनशपयं कारितो वनमालया ॥३-६८ भादि अन्न के समान मांस का भी भक्षण करना अनुचित यहां सा. ध. में योगशास्त्र के 'प्रन्यशपथान' पौर नहीं है, इस प्राशंका के परिहार मे प० प्राशाधर ने पत्नी कारितो' पद जैसे के तैसे लिए गये है। पौर माता का उदाहरण देकर मास भक्षण के अनौचित्य ६ इसी प्रकरण मे प० प्राशाधर ने रात्रिभोजन को को सिद्ध किया है। जलोदरादि रोगों का उत्पादक और प्रेतादि के द्वारा .........तस्थाश्च ते ज्ञानवृद्धाश्च, तेषां पूजकः। उच्छिष्ट बतलाया है (४-२५)। इस श्लोक की स्वो. पूजा च सेवाजल्यासनाभ्युत्थानादिलक्षणा। (यो. टीका में वे उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार करते हैंशा. स्वो. टीका पृ. १५७) । तत्र यूका भोजनेन सह भुक्ता जलोदरं करोति, १ सद्गी-मती प्रशस्ता परावर्णवाद-पारुष्यादिदोष- कोलिका कुष्ठम्, मक्षिका दिम्, मदिगका मेदा [मेधा] रहिता गीर्वाग यस्यासौ सदगी. । (सा.ध. स्वो. टीका) हानिम्, व्यजनान्त पतितो वृश्चिकस्तालुव्यथाम, २ योगशास्त्र में इस इलोक (१-५२) के स्वो. विवरण मे कण्टका: काष्ठखण्डं वा गलव्यथाम्, बालश्च गले लग्नः 'पानाहारादयो.....' इत्यादि श्लोक द्वारा 'सात्म्य' स्वरभङ्गम् । इत्यादयो दृष्टदोषा सर्वेषां प्रतीतिकरा.। का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है। वह श्लोक पं० इस स्पष्टीकरण के प्राधारभूत योगशास्त्र के निम्न श्लोक रहे हैमाशाधर के द्वारा भी सा. ध. के छठे अध्यायगत मेषां पिपीलिका हन्ति यूका कुर्याज्जलोदरम् । २४वें श्लोक को स्वो. टीका में उद्धृत किया गया है। कुरुते मक्षिका वान्ति कुष्ठरोगं च कोलिकः ।। इसके अतिरिक्त सा. ध. मे इस श्लोक की स्वोपज्ञ कण्टको दाहखण्डं च वितनोति गलम्यपाम् । टीका के नीचे जो सर्वत्र शुचयो', 'लोकापवादभी जनान्तणिपतितस्तालु विष्यति वृश्चिकः॥ रुत्वं': 'यस्य त्रिवर्गशून्यानि'; 'पादमायानिधि विलानश्च गले वालः स्वरभङ्गाय जायते । कुर्यात्'; पायाधं च नियुजीत' और 'यदि सत्सग इत्यादयो दृष्टदोषाः सर्वेषां निशि भोजने ॥ निरतो' इत्यादि श्लोक दिये गये हैं वे योगशास्त्र के यो. शा. ३,५०-१२ स्वो. विवरण में कमसे पृ. १४६, १४६, १५४, १५१, उक्त रात्रिभोजन को प्रेतादि से उच्छिष्ट निम्न १५१ और १५० पर उपलब्ध होते हैं। श्लोक में कहा है Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृत पर इतर धावकाचारों का प्रभाव १५९ अन्नं प्रेत-पिशाचाद्यः संचरद्भिनिरंकुशः। है, जो यथाक्रम से इन इलोकों में देखा जा सकता हैउच्छिष्ट क्रियते यत्र तत्र नाचादिनात्यये । यो.शा. ३.४८ २, ४-५ व ३-११, २, ६-१० व ३-१२; २-१२, २-११ ७ पं० माशाधर ने दिनके प्रारम्भ के दो और मम्त के व ३-१३, २-१३ व ३-१४, ५-१७; ३-१४; २, दो अन्तर्मुहूतों को छोड़कर दिन में भोजन का विधान १४-१५ तथा ४, २४-२६, व ३-१५; ५-१८ व ३.११। किया है (४-२९) । इसी प्रकार हेमचन्द्राचार्य ने दिन के योगशास्त्र में व्रतातिचारो के वर्णन के प्रसंग में प्रारम्भ की दो और पन्त की दो घटिकामो को छोड़कर श्लोक ३-६८ के द्वारा भोजन के प्राषय से भोगोपभोगदिन में भोजन का विधान किया है (३-६३) । दोनों ही परिमाणवत के पांच प्रतिचारों२ का निवेश करके ग्रन्थों में उक्त प्रकार से रात्रिभोजन का परित्याग करने तत्पश्चात श्लोक ३, १००-१०१ के द्वारा उक्त भोगोपवाले गृहस्थ की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि वह भोगपरिमाणव्रत के कर्माश्रित १५ प्रतिचारों का-खरइस प्रकार से अपने जीवन के अर्ध भाग को तो उपवास कर्मों का नामोल्लेख किया गया है। इससे पूर्व के के साथ विता देता है। वे श्लोक इस प्रकार हैं श्लोक ३-६६ के स्वोपज्ञ विवरण में भोगोपभोगपरिमाण योऽत्ति त्यजन् दिनाचतमुहूर्तो रात्रिवत् सदा । का लक्षणान्तर इस प्रकार किया गया हैस वयेतोपवासेन स्वजन्मार्ध नयन कियत् ॥ सा.ध. ४.२९ भोगोपभोगमानस्य च व्याख्यानान्तरम-भोगोपभोगकरोति विरति पन्यो यः सदा निशि भोजनात् । साधन यद् द्रव्यं तदुपार्जनाय यत कर्म व्यापारस्तदपि सोऽधं पुरुषायुषष्य स्याबवश्यमुपोषित: ।। यो.शा. ३.६६ भोगोपभोगशब्देनोच्यते, कारणे कार्योपचारात् । ततश्च सा.प. में भोगोपभोगपरिमाणवत के प्रसंग मे कर्मतः कर्माश्रित्य, खर कठोर प्राणिवाधक यत् कर्म कोटभोग और उपभोग वस्तुपों के प्रमाण के प्रतिरिक्त मांस, पालन गुप्तिपालन बीतपालनादिरूपं तत् त्याज्यम्, तस्मिन खरकर्मत्यागलक्षणे भोगोपभोगवते पञ्चदशा मलानतिमद्य, मधु, सघातवनक, बहुधातजनक, प्रमादजनक, अनिष्ट पोर अनुपसेव्य वस्तुमो का भी त्याग कराया गया चारान् संत्ये जेत् । (पृ. ५६६) है। इस वर्णन के माधारभूत यद्यपि प्रमुखता से रत्न- .. सागारधर्मामृत मे प्राचार्य हेमचन्द्र के उपयुक्त कथन करण्डगत ८५-८६ श्लोक रहे हैं, फिर भी तद्विषयक १ इनमें द्विदल से सम्बद्ध उभय प्रन्यगत श्लोकों में विशेष वर्णन में योगशास्त्र का भी सहारा लिया गया है। बहुत कुछ शब्दसाम्य भी है। यथाइस प्रसंग में वहां प्रथमतः निम्न दो (३, ६-७) श्लोक प्रामगोरससपृक्त द्विदल पुष्पितोदनम् । उपलब्ध होते हैं दध्यहतियातीत कुथितान्न ब वर्जयेत् ॥ यो. ३-७ मच मांसं नवनीतं मधुम्बरपञ्चकम् । पामगोरससपृक्त द्विदलं प्रायशोऽनवम् । अनन्तकायमझातफलं रात्री च भोजनम् ॥ वर्षास्वदलित चात्र पत्रशाक च नाहरेत् ॥ सा. ५-१८ पामगोरससंपृक्तं विवलं पुष्पितीवमम् । पुष्पितौदन पौर दिनदयातीत दही का परित्याग सा. बध्यहतियातीत कुथितान्न च वर्जयेत् ॥ घ. (३-११) में निम्न श्लोक द्वारा कराया गया हैइन श्लोकों में निर्दिष्ट कम से वहां प्रागे मद्य का सन्धानकं त्यजेत् सर्व दधि-तक यहोषितम् । वर्णन ८-१७, मांस का वर्णन १५-३३, नवनीत का काजिकं पुप्पितमपि मद्यव्रतमलोऽन्यथा । ३४-३५, मधु का ३६-४१, उदुम्बर फलों का ४२-४३, २ उभय ग्रन्थगत वे पतिचारविषयक श्लोक भी बहत अनन्तकायका ४-४६, प्रज्ञात फल का ४७, रात्रिभोजन कुछ समानता रखते हैं। यथाका ४८-७० तथा भामगोरससंपृक्त द्विदल, पुष्पित प्रोदन सचित्तस्तेन सम्बद्धः सन्मियोऽभिषवस्तथा । व दो दिन बाद के दही का वर्णन ७१-७२ श्लोकों मे दुष्पक्वाहार इत्येते भोगोपभोगमानगाः ॥ यो. ३-६८ किया गया है। सचित्तं तेन सम्बद्धं सम्मिश्र तेन भोजनम् । इन सबका वर्णन सा. घ. में भी यत्र तत्र किया गया दुष्पक्वमप्यभिषव भुजानोऽत्येति तद्वतम् ॥सा. ५-२० Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त का सीधा उल्लेख न करके पं० पाशाधर ने श्लोक ५-२० ब्राह्म मुहूर्त उत्तिष्ठत् परमेष्ठिस्तुति पठन् । को स्वोपज्ञ टीका मे सिताम्बराचार्य की शका के रूप में किंघमः किंकुलश्चास्मि किंवतोऽस्मीति च स्मरन् । प्राय. उन्ही के शब्दो मे उसे उपस्थित करते हुए प्रचार यो. शा. ३-१२२ बतलाया है। यथा उधर सा. घ. में भी इस प्रकरण के प्रारम्भ मे इसी अत्राह सिताम्बराचार्य-भोगोपभोगसाधन यद् द्रव्यं प्राशय का प्रथम श्लोक इस प्रकार प्राप्त होता हैतपार्जनाय यत कर्म व्यापारस्तदपि भोगोपभोगशब्देनोच्यते, बाघ मर्त उत्थाय वक्षपञ्चनमस्कतिः। कारणे कार्योपचारात् । ततः कोटपालादिख रकर्मापि त्या- कोऽहं को मम धर्म: कि व्रत चेति परामृशेत् ।। सा.ध. ६.१ ज्यम् । तत्र खरकर्मत्यागलक्षणे भोगोपभोगवते अङ्गार १२ तदनन्तर योगशास्त्र (३.१२३) में कहा गया जीविकादीन् पञ्चदशातिचारांस्त्यजेत् । तदचारु। है कि पश्चात् स्नानादि से पवित्र होता हृमा घर पर इस प्रकार उक्त खरकर्मों के परित्याग को प्रचार पुष्प, नैवेद्य और स्तुति के द्वारा जिन देव की पूजा करके बतलाकर भी प० माशाधर ने प्रतिजडबुद्धि जनो के प्रति शक्ति के अनुसार प्रत्याख्यान ग्रहण करे और तत्पश्चात् उनके परित्याग को भी स्वीकार कर लिया है। देवालय को जाय। १. योगशास्त्र में श्रावक के १२ व्रतों का वर्णन यही बात सा. घ. में भी (६, ३-५) कही गई है। करके तत्पश्चात् यह कहा गया है कि इस प्रकार उन इस प्रकरण में सा. ध. के निम्न श्लोक योगशास्त्र व्रतों में स्थित होकर जो पुरुष भक्तिपूर्वक सात क्षेत्रो मे के इन इलोकों से काफी प्रभावित हैंधन का परित्याग करता है तथा दीन जनों के लिए भी पाय तितिा नवनि प्रदक्षिणज्जिनम । दयार्द्र होकर दान देता है वह महाश्रावक कहलाता है२।। पुष्पादिभिस्तमभ्ययं स्तवनसत्तमः स्तुयात् ॥ यो. ३-१२४ इसी प्रकार सा. ध. मे भी कहा गया है कि जो मालिताडिघ्रस्तवान्तः प्रविश्यानन्दनिर्भरः। गहस्थ उक्त व्रतों का परिपालन करता हुमा गुणवानो की त्रिः प्रदक्षिणयन्नत्वा जिनं पुण्याः स्तुतीः पठन् ।। सा. ६.६ वैयावृत्ति करता है, दीन जनों का उद्धार करता है, और + इस (मागे छठे अध्याय में वणित) दिनचर्या का प्राच. ततो गुरूणामभ्यर्ण प्रतिपत्तिपुरःसरम् ।। रण करता है; वह महाश्रावक होता है । विवधीत विशुद्धात्मा प्रत्याख्यानप्रकाशनम् ॥ यो ३-१२५ ११ तत्पश्चात् दोनों ही ग्रन्थों मे जो श्रावक की प्रर्यापथसशुद्धि कृत्वाभ्यय जिनेश्वरम् । दिनचर्या का वर्णन किया गया है वह बहत कछ समानता श्रुतं सूरि च तस्याप्रे प्रत्याख्यान प्रकाशयेत् ॥ सा ६.११ + + + रखता है। इस प्रसंग में योगशास्त्र में सर्वप्रथम यह श्लोक विलास-हास निष्ठयूत-निद्रा-कलह-दुष्कया। उपलब्ध होता है जिने द्रभवनस्यान्तराहारं च चतुविषम् ॥ यो. ३.८१ १ इसी से उन्होंने श्लोक ५, २१-२२ में उक्त १५ खर- मध्ये जिनगृह हास विलासं दुःकथा कलिम् । कर्मो को नामनिर्देशपूर्वक सग्रहीत कर लिया है। निद्रां निष्ठयतनाहारं चतुर्विधमपि त्यजेत् ॥ सा. ६-१४ योगशास्त्र में इन खरकर्मों का पृथक-पृथक् निरूपण + नामनिर्देशपूर्वक श्लोक १००.११४ में किया गया है। ततः प्रतिनिवृतः सन् स्थान गत्वा यथोचितम् । २ एव व्रतस्थितो भक्त्या सप्तक्षेच्या धन वपन् । सुषीधर्माविरोधेन विदधीतार्थचिन्तनम ॥ यो. ३-१२८ दयया चातिदीनेषु महाधावक उच्यते ।। यो. ३-१२० ततो यथोचितस्थान गत्वाऽऽधिकृतान सुधीः । एवं पालयितु व्रतानि विदधच्छीलानि सप्तामला- प्रषितिष्ठेद् व्यवस्येद्वा स्वय धर्माविराषतः॥ सा. ६-१५ न्यागर्णः समितिष्वनारतमनोदीप्राप्तवाग्दीपकः । + + + वैयावत्यपरायणो गुणवता दीनानतीवोदर- ततो माध्याह्निकी पूजां कुर्यात् कृत्वा च भोजनम् । श्चर्या देवसिकीमिमां चरति य. स स्यान्महाश्रावक.॥ तद्विद्भिः सह शास्त्रार्थरहस्यानि विचारयेत् ।। यो. ३-१२६ __ सा. घ. ५-५५ विक्षम्य गुरुसब्रह्मचारियोऽथिभिः सह । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामत पर इतर भावकाचारों का प्रभाव + जिनाममरहस्यानि विनयेन विचारयेत् ॥ सा. ६-२६ । प्रचुर ग्रन्थों का परिशीलन किया था। उनके द्वारा जैसे पनेक मौलिक ग्रन्थो की रचना हुई है वैसे ही अनेक ततश्च संध्यासमय कृस्था देवानं पुनः । ग्रन्थों पर टीका भी की गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ सागारकृतावश्यककर्मा च कुर्यात् स्वाध्यायमुत्तमम् ।। धर्मामृत-जो धर्मामृत ग्रन्थ का पूर्व भाग है-इसी न्याय्य काले ततो देव-गुरुस्मृतिपवित्रितः। कारण से एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ बन सका है। श्रावक के निद्रामल्पामुपासीत प्रायेणाब्रह्मवर्जकः ।। दरा अनुष्ठंय प्रायः सभी क्रियाप्रो का इसके मूल भाग मे निद्राच्छवे योषिवङ्गसतत्त्व परिचिन्तयेत् । या उसकी स्वोपज्ञ भव्य कुमुद-चन्द्रिका टीका मे समावेश स्थूलभद्राबिसाधनां तन्नित्ति परामृशन्॥यो.शा.३,१३०-३२ हुमा है। कुछ विषयविवेचन या किसी विषय का विस्तार सायमावश्यकं कृत्वा कृतदेव-गुरुस्मृतिः । यहां ऐसा भी उपलब्ध होता है जो प्रायः प्रप्रामाणिक या न्याय्यकालेऽल्पशः स्वप्याच्छक्त्या चाबह्म वर्जयेत् ।। माम्नायविरुद्ध माना जाता है। पर उसका भी वर्णन निद्राच्छेदे पुनश्चित्तं निर्वे देनंव भावयेत् । पं० प्राशाधर ने अपनी स्वतन्त्र बुद्धि से नही किया है, सम्यग्भावितनिर्वेदः सद्योनिर्वाति चेतनः ।। सा.ध. ६,२७-२८ किन्तु जैसा कि आप ऊपर देख चुके है पूर्व ग्रन्थो कात्यक्तसंगो जोर्णवासा मलक्लिन्नकलेवरः। चाहे वे दिगम्बर रहे हो या श्वेताम्बर-माश्रय लेकर भजन माधुकरी वृत्ति मुनिचा कदा श्रये ।। यो. ३-१४२ उन्होने उनका वर्णन किया है। बिना प्रन्थाधार के उन्होने कदा माधुकरी वृतिः सा मे स्यादिति भावयन् । स्वतन्त्रता से कुछ भी नही लिखा, ऐसा मुझे अब तक के यथालाभेन सन्तुष्टः उत्तिष्ठत् तनुस्थिती ।। सा. ६-१७ अध्ययन से प्रतीत होता है। कुछ भी हो, श्रावकाचार + + विषयक यह विस्तृत ग्रन्थ विवेकी पाठको के लिए उपशत्री मित्र तणे स्त्रंणे स्वर्णेऽश्मनि मणो मृदि। योगी ही सिद्ध हुमा है। मोक्ष भवे भविष्यामि निर्विशेषमतिः कदा ॥ यो. ३.१४६ पुरेऽरण्य मणौ रेणो मित्र शत्रौ सुखेऽसुखे । २ क-जैसे भाड़ा देकर कुछ काल के लिए वेश्या को जीविते मरणे मोक्ष भवे स्यां समषीः कदा ! सा. ६.४१ स्वस्त्री मान उसके सेवन मे ब्रह्मचर्याणुव्रत को भग इनके अतिरिक्त और भी कितने ही श्लोक है जो न मानकर प्रतिचार मानना (४-५८ की स्वोपज्ञ अर्थ और शब्दों से भी समानता रखते है। . टीका) । इसके लिए प्राधारभूत हेमचन्द्र सूरि के उपसहार योगशास्त्र का स्वोपज्ञ विवरण रहा है (३.६४) । पण्डितप्रवर प्राशाधर मस्कृत मोर प्राकृत उभय प्रायः उसी के शब्दों में प० माशाधर ने उक्त प्रतिभाषामों के असाधारण विद्वान् होते हुए सिद्धान्त, न्याय, चार का विशदीकरण किया है। उसका इस प्रकार व्याकरण, काव्य और प्रायुर्वेद प्रादि अनेक विषयो मे पारं. का स्पष्टीकरण प्रावश्यकचूणि भोर श्रावकप्रज्ञप्ति गत थे। उन्होने अपने समय में उपलब्ध इन विषयो के ग्रादि अन्य भी श्वे. ग्रन्यो में उपलब्ध होता है। १ उन्होंने कितने ही शिष्यों को व्याकरण, न्याय और ब-नीराजनाविधि मे गोमय प्रादि के विधान काव्य प्रादि विषयों को पढ़ाकर गणनीय विद्वान् का उल्लेख (६-२२)। इसका प्राधार उपासकाध्ययन का निम्न श्लोक रहा हैबनाया था। यथायो द्वारख्याकरणाधिपारमनयच्छ श्रूषमाणान् न कान देहेऽस्मिन् विहिताचंने निनदति प्रारब्धगीतध्वनापटुतर्कीपरमास्त्रमाप्य न यत. प्रत्यथिनः केऽक्षिपन् । वातोटी: स्तुतिपाठमङ्गलरवैश्चानन्दिनि प्राङ्गणे । चरः केऽस्खलित न येन जिनवाग-दीप पथि ग्राहिताः मृत्स्ना-गोमय-भूति-पिण्ड-हरितादर्भ-प्रसूनाक्षतपीत्वा काव्य-सुधां यतश्च रसिकेवापुः प्रतिष्ठान के। रम्भोभिश्च सचन्दनैजिनपतेर्नीराजानां प्रस्तुवे ।। मन.प. प्रशस्ति उपा. ५३६, पृ०२३६ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-विद्या क्षत्रियों की देन मुनि श्री नथमल प्रात्म-विद्या की परम्परा थे। उनके प्रथम जिन होने की बात इतनी विश्रुत हुई ब्रह्म विद्या या प्रारम-विद्या भवैदिक शब्द है। मुण्ड- कि प्रागे चलकर प्रथम जिन उनका एक नाम बन गया। कोपनिषद के अनुसार सम्पूर्ण देवतामों में पहले ब्रह्मा श्रीमद् भागवत से भी इसी मत की पुष्टि होती है। वहा उत्पन्न हपा। वह विश्व का कत्ती पोर भुवन का पालक बताया गया है कि वासूदेव ने प्राठवां अवतार नाभि पौर था। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को समस्त विद्यानों मरुदेवी के वहां धारण किया। वे ऋषभ रूप में अवतरित की प्राधारभूत ब्रह्म-विद्या का उपदेश दिया। अथर्वा ने हुए और उन्होने सब पाश्रमों द्वारा नमस्कृत मार्ग दिखअंगिर को, अंगिर ने भारद्वाज-सत्यवह को, भारद्वाज सत्य- लाया । इसलिए ऋषभ को मोक्ष-धर्म की विवक्षा से वह ने अपने से कनिष्ठ ऋषि को उसका उपदेश दिया। वासुदेवांश कहा गया७ । इस प्रकार गुरु-शिष्य के कम से वह विद्या मंगिरा ऋषि ऋषभ के सौ पुत्र थे। वे सबके सब ब्रह्म-विद्या के को प्राप्त हुई। पारगामी 2८ । उनके नौ पुत्रों को प्रात्म-विद्या-विशारद वरदारण्यक में दो बार ब्रह्म-विद्या की वंश-परम्परा भी कहा गया है। उनका ज्येष्ठ पुत्र भरत महायोगी बताई गई है। उसके अनुसार पौतिभाष्य ने गौपवन से ..- .. ब्रह्म-विद्या प्राप्त की। गुरु-शिष्य का क्रम चलते-चलते ४. श्री जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, वक्षस्कार २, सू०३० अन्त में बताया गया है कि परमेष्ठी ने वह विद्या ब्रह्मा उसहे णामं परहा कोसलिए पढमराया पढमजिणे से प्राप्त की । ब्रह्मा स्वयंभू हैं। शंकराचार्य ने ब्रह्मा का पढमकेवली पढमतित्थकरे पढमधम्मवरचक्कवटी मर्थ हिरण्यगर्भ किया है। उससे मागे प्राचार्य-परम्परा समुप्पज्जित्थे। नहीं है, क्योंकि वह स्वयंभू हैं३ । ५. कल्पसूत्र १६४ मुण्डक और बृहदारण्यक का क्रम एक नहीं है। उसभेणं कोसलिए कासवगुत्ते णं तस्स ण पच नाममुण्डक के अनुसार ब्रह्म-विद्या की प्राप्ति ब्रह्मा से अथर्वा धिज्जा एवमाहिज्जंति, तंजहा-उसमे इ वा पढमको होती है भोर बृहदारण्यक के अनुसार वह ब्रह्मा से राया इ वा पढमभिक्खाचरे इ वा पढमजिणे इ वा परमेष्ठी को होती है। ब्रह्मा स्वयंभू है इस विषय मे ६. श्रीमद्भागवत, स्कन्ध १, अध्याय ३, श्लोक १३ दोनों एक मत हैं। प्रष्टमे मेरुदेव्यां तु, नाभेर्जात उरुक्रमः। जैन दर्शन के अनुसार मात्म-विद्या के प्रथम प्रवर्तक दर्शयन् वमंधीराणां सर्वाश्रम नमस्कृतम् ।। भगवान् ऋषभ हैं। वे प्रथम राजा, प्रथम जिन (महत्), ७. श्रीमद्भागवत, स्कन्ध ११, अध्याय २, श्लोक १६ प्रथम केवली, प्रथम तीर्थकर, मोर प्रथम धर्म-चक्रवर्ती तमाहुर्वासुदेवाश, मोक्षधर्मविवक्षया । १. मुण्डकोपनिषन् १।११०२ ८. श्रीमदभागवत, स्कन्ध ११, म. २, श्लोक १६ २. बृहदारण्यकोपनिषद् २।६।१४।६।१-३ प्रवतीर्ण सुतशतं, तस्यासीद्, ब्रह्मपारगम् ॥ ३. बृहदारण्यकोपनिषद् भाष्य, २।३।६, पृ० ६१८ ६. श्रीमद्भागवत, स्कन्ध ११, म० २, श्लोक २० परमेष्ठी विराट् ब्रह्मणो हिरण्यगर्भात् ततः परं नवाभवन् महाभागाः, मुनयो पर्थशंसिनः । प्राचार्य परम्परा नास्ति । श्रमणा वातरशनाः, प्रात्म-विद्या विशारदाः ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्म-विवाभियों की देन पार। हिरण्यगर्भ के मूल स्वरूप की जानकारी के प्रभाव में जम्बूढीप प्राप्ति, कल्पसूत्र पौर श्रीमद् भागवत के क प्रचलित था। भाष्यकार सायण के अनुसार हिरण्यगर्भ बल संदर्भ में हम पात्म-विद्या का प्रथम पुरुष भगवान ऋषभ । देहधारी है। प्रात्म-विद्या, सन्यास मादि के प्रथम को पाते हैं। कोई पाश्चर्य नहीं कि उपनिषद्कारों ने ऋषभ प्रवर्तक होने के कारण इस प्रकरण में हिरण्यगर्भ का प्रय को ही ब्रह्मा कहा हो। ऋषभ ही होना चाहिए। हिरण्यगर्भ उनका एक नाम भी ब्रह्मा का दूसरा नाम हिरण्यगर्भ है। महाभारत के रहा है। ऋषभ जब गर्भ मे ये तब कुबेर ने हिरण्य की अनुसार हिरण्यगर्भ ही योग का पुरातन विद्वान है, कोई वष्टि की थी. इसलिए उन्हें हिरण्यग भी कहा गया दूसरा नहीं२ । श्रीमदभागवत् में ऋषभ को योगेश्वर कहा कर्म-विद्या और प्रात्म-विद्या है३ । उन्होंने नाना योग-चर्यामों का चरण किया था। । कम-विद्या और प्रात्म-विद्या-ये दो धाराएं प्रारम्भ हठयोग प्रदीपिका में भगवान ऋषभ को हठयोग-विद्या के । से ही विभक्त रही हैं। मरीचि, अगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, उपदेष्टा के रूप में नमस्कार किया गया है। जैन पुलह, ऋतु और वशिष्ठ-ये सात ऋषि ब्रह्मा के मानस प्राचार्य भी उन्हें योग-विद्या के प्रणेता मानते है। इस पुत्र है। ये प्रधान वेदवेत्ता पोर प्रवृत्ति-धर्मावलम्बी है। दृष्टि से भगवान् ऋषभ पादिनाथ, हिरण्यगर्भ और ब्रह्मा इन्हें ब्रह्मा द्वारा प्रजापति के पद पर प्रतिष्ठित किया इन नामों से अभिहित हुए हैं। गया। यह कर्म-परायण पुरुषों के लिए शाश्वत मार्ग ऋग्वेद के अनुसार हिरण्यगर्भ भूत जगन् का एक प्रकट हुप्रा११। मात्र पति है । किन्तु उससे यह स्पष्ट नहीं होता कि वह सन, सनत्, सुजात, सनक, सनंदन, सनस्कुमार, परमात्मा है या देहधारी ? शंकराचार्य ने बृहदारण्यकोप कपिल और सनातन-ये सात ऋषि भी ब्रह्मा के मानस निषद् मे ऐसी ही विप्रतिपत्ति उपस्थित की है-किन्ही पुत्र है। इन्हें स्वयं विज्ञान प्राप्त है और ये निवृत्ति धर्माविद्वानों का कहना है कि परमात्मा ही हिरण्यगर्भ है और वलम्बी है। ये प्रमुख योग-वेत्ता, साख्य-ज्ञान-विशारद, धर्मकई विद्वान् कहते है कि वह ससारी है। यह सन्देह शास्त्रों के प्राचार्य और मोक्षधर्म के प्रवर्तक हैं१२ । १. श्रीमद्भागवत, स्कन्ध ५, ०४६ __ येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठ., श्रेष्ठ गुणः प्रासीत्। ६. तैत्तिरीयारण्यक, प्रपाठक १०, अनुवाक ६२ सा. भाष्य । २. महाभारत, शान्तिपर्व, प्र० ३४६६५ १०. महापुराण, पर्व १२, श्लोक ६५ संपा हिरण्मयी वृष्टिः धनेशेन निपातिता । हिरण्यगर्भो योगस्य, वेत्ता नान्यः पुरातनः । विभोहिरण्यगर्भत्व मिव बोधयितु जगत् ।। ३. स्कन्ध ५, ५०४३ भगवान् ऋषभ देवो योगेश्वर । ११. महामारत, शान्तिपर्व, प्र० ३४०।६६-७१ । ४. श्रीमद्भागवत, स्कन्ध ५, प्र० ५।३५ मरीचिरङ्गिराश्चात्रि: पुलस्त्यः पुलहः ऋतूः । नानायोगचर्याचरणो भगवान् कैवल्यपति ऋषभः । वसिष्ठ इति सप्तत मानसा निमिता हि ते । ५. हठयोग प्रदीपिका एते वेदविदो मुख्या वेदाचार्याश्च कल्पिताः । श्रीग्रादिनाथाय नमोस्तु तस्मै, येनोपदिष्टा हठयोग विद्या? प्रवृत्तिमिणचव प्राजापत्ये प्रतिष्ठिताः ।। ६. ज्ञानार्णव ११२ प्रय क्रियावता पन्थथ व्यक्तीभूतः सनातन. । योगिकल्पतरु नैमि, देव-देवं वृषध्वजम् । अनिरुद्ध इति प्रोक्तो लोकसर्गकरः प्रभुः ।। ७. ऋग्वेद सहिता, मण्डल १०,५०१०, सूत्र १२१, मत्र १ १२. महाभारत, शान्तिपर्व, प्र० ३४०१७२-७४ हिरण्यगर्भः समवतंताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक प्रासीत् । सनः सनत्सुजातश्च सनक: ससनन्दनः । स दाधार पृथिवी द्यामुतेमा कस्मं देवाय हविषा विधम् ।। सनत्कुमारः कपिल. सप्तमश्च सनातन । ८. बृहदारण्यकोपनिषद्, भाष्य ११४१६, पृ० १८५ सप्तते मानसा प्रोक्ता ऋषयो ब्रह्मण. सुताः । पत्र विप्रतिपद्यन्ते पर एव हिरण्यगर्भ इत्ये के। संसारीत्यपरे। स्वयमागतविज्ञाना निवृत्ति धर्ममास्थित. ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त सप्तति शतस्थान में बतलाया गया है कि जैन, शैव वेदोत्तर युग में प्रात्म-विद्या और उसके परिपार्श्व में और सांख्य-ये तीन धर्म-दर्शन भगवान् ऋषभ के तीर्थ विकसित होने वाले अहिंसा, मोक्ष प्रादि तत्त्व दोनो में प्रवृत्त हुए थे। इससे महाभारत के उक्त तत्थ्यांश का धाराओं के संगम स्थल हो गए। समर्थन होता है। वैदिक साहित्य मे श्रमण-सस्कृति के प्रऔर श्रमणश्रीमद्भागवत मे लिखा है-भगवान ऋषभ के साहित्य मे वैदिक-सस्कृति के अनेक संगम-स्थल हैं। यहां कुशावर्त प्रादि नौ पुत्र नौ अधिपति बने, कवि आदि नौ हम मुख्यत: प्रात्म-विद्या और उसके परिपाश्च में हिसा पुत्र प्रात्म-विद्या-विशारद श्रमण बने और भरत को छोड़ की चर्चा करेंगे। कर शेष ८१ पुत्र महाश्रोत्रिय, यज्ञशील पोर कर्म-शुद्ध प्रात्म-विद्या और वेद । ब्राह्मण बने । उन्होंने कर्म-तंत्र का प्रणयन किया। महाभारत का एक प्रसंग है-महर्षि बृहस्पति ने भगवान ऋषभ ने प्रात्म-तंत्र का प्रवर्तन किया और प्रजापति मनु से पूछा-भगवन् ! जो इस जगत का उनके ८१ पुत्र कर्म-तंत्र के प्रवर्तक हुए। ये दोनों धाराएं कारण है, जिसके लिए वैदिक कर्मों का अनुष्ठान किया लगभग एक साथ ही प्रवृत्त हई। यज्ञ का अर्थ यदि जाता है, ब्राह्मण लोग जिसे ज्ञान का प्रन्तिम फल बतप्रात्म-यज्ञ किया जाए तो थोड़ी भेद रेखामों के साथ उक्त लाते है तथा वेद के मत्र-वाक्यों द्वारा जिसका तत्त्व पूर्ण विवरण का सवादक प्रमाण जैन-साहित्य में भी मिलता रूप से प्रकाश मे नही माता, उस नित्य वस्तु का प्राप २३ और यदि यज्ञ का अर्थ वेद-विहित यश किया जाए मेरे लिए यथार्थ वर्णन करें। तो यह कहना होगा कि भागवतकार ने ऋषभ के पुत्रों को यज्ञशील बता यज्ञ को जन-परम्परा से सम्बन्धित करने श्रमण परम्परा और क्षत्रिय श्रमण परम्परा में क्षत्रियों की प्रमुखता रही है और का प्रयत्न किया है। प्रात्म-विद्या भगवान् ऋषभ द्वारा परिवर्तित हुई। वैदिक परम्परा में ब्राह्मणों को। भगवान् महावीर का देवानन्द की कोख से त्रिसला क्षत्रियाणी की कोख में संक्र उनके पुत्रों-बातरशन श्रमणों-द्वारा वह परम्परा के रूप में प्रचलित रही । श्रमण और वैदिक धारा का सगम मण किया गया, यह तथ्य श्रमण परम्परा सम्मत क्षत्रिय हमा तब प्रवृत्तिवादी वैदिक मार्य उससे प्रभावित नहीं जाति की श्रेष्ठता का सूचक है। महात्मा बुद्ध ने कहा हुए । किन्तु श्रमण परम्परा के अनुयायो असुरों की पति था-वाशिष्ठ ! ब्रह्मा सनत्कुमार ने भी गाथा कही हैमात्म-लीनता और प्रशोकभाव को देखा मोर भौतिक गोत्र लेकर चलने वाले जनों मे क्षत्रिय श्रेष्ठ हैं । समृद्धि की तुलना में पात्मिक समृद्धिको अधिक उन्नत जो विद्या और माचरण से युक्त है, वह देव मनुष्यों देखा तो वे उससे सहसा प्रभावित हुए बिना नहीं रह में श्रेष्ठ है । वाशिष्ठ ! यह गाथा ब्रह्मा सनत्कुमार ने सके। ठीक ही कही है, बेठीक नहीं कही। सार्थक कही, मनर्थक एते योगविदो मुख्या: सांख्यज्ञानविशारदाः। नहीं । इसका मैं भी अनुमोदन करता हूँ। प्राचार्या धर्मशास्त्रेणु मोक्षधर्मप्रवर्तकाः ।। क्षत्रिय की उत्कृष्टता का उल्लेख बृहदारण्यकोपनिषद् सप्तति शतस्थान ३४०, ३४१ में भी मिलता है। वह इतिहास की उस भूमिका पर जहणं सहवं संखं, वेमंतिय नाहिमाण बुद्धाणं । प्रकित हुमा जान पड़ता है, जब क्षत्रिय और ब्राह्मण एक वइसे सियाण वि मयं, इमाइं सग दरिसणाई कम ॥ दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी हो रहे थे। वहा लिखा है-भारम्भ तिन्नि उसहस्स तित्थे, जायाई सीयलस्स ते दुन्नि । मे यह एक ब्रह्म ही था। अकेले होने के कारण वह दरिसण मेगं पासस्स, सत्तमं वीरतित्थंमि ।। विभूति-युक्त कर्म करने में समर्थ नहीं हुमा । उसने २. श्रीमद्भागवत्, स्कन्ध ५, म० ४१६-१३ अतिशयता से क्षत्र इस प्रशस्त रूप की रचना की प्रर्थात ३. आवश्यक नियुक्ति, पृ० २३५,२३६ ४. महाभारत, शान्तिपर्व, २०१४ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्म-विद्या मंत्रियों को देन १६५ देवतामों में जो क्षत्रिय, इन्द्र. वरुण, सोम, रुद्र, मेघ, यम, मोर उससे बोला-श्रीमान् ने मुझे शिक्षा दिये बिना ही मृत्यु और ईशान् मादि हैं, उन्हें उत्पन्न किया। अत: कह दिया था कि मैंने तुझे शिक्षा दे दी है। क्षत्रिय से उत्कृष्ट कोई नही है। इसी से राजसूय यज्ञ मे उस क्षत्रिय बन्धु ने मुझसे पांच प्रश्न पूछे थे, किन्तु ब्राह्मण नीचे बैठ कर क्षत्रिय की उपासना करता है, वह मैं उनमें से एक का भी विवेचन नहीं कर सका। उसने क्षत्रिय मे ही अपने यश को स्थापित करता है। कहा-तुमने उस समय (पाते ही) जैसे ये प्रश्न मुझे मुनाए है, उनमे से मैं एक को भी नही जानता। यदि मैं प्रात्म-विद्या के लिए ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रियों को उन्हे जानता तो तुम्हे क्यों नहीं बतलाता? उपासना तब वह गौतम राजा के स्थान पर पाया और उसने क्षत्रियों की श्रेष्ठता उनकी रचनात्मक शक्ति के अपनी जिज्ञासाएं राजा के सामने प्रस्तुत की। कारण नहीं, किन्तु प्रात्म-विद्या की उपलब्धि के कारण राजा ने उसे चिरकाल तक अपने पास रहने का थी । यह पाश्चर्य पूर्ण नहीं, किन्तु बहुत यथार्थ बात है अनुरोध किया और कहा-गौतम ! जिस प्रकार तुमने कि ब्राह्मणों को प्रात्म-विद्या क्षत्रियों से प्राप्त हुई है। मुझसे कहा है, पूर्वकाल मे तुमसे पहले यह विद्या ब्राह्मणों के पास नहीं गई। इसीसे सम्पूर्ण लोको मे क्षत्रियों का प्रारुणि का पुत्र श्वेतकेतु पंचालदेशीय लोगो की। ही (शिष्यों के प्रति) मनुशासन होता रहा है।। सभा मे पाया। प्रवाहण ने कहा--कुमार! क्या पिता ने तुझे शिक्षा दी है। बृहदारण्यक उपनिषद् में भी राजा प्रवाहरण प्रारुणि श्वेतकेतु-हां भगवन् ! से कहता है-इससे पूर्व यह विद्या (मध्यात्म विद्या) प्रवाहण-क्या तुझे मालूम है कि इस लोक से (जाने पर) किसी ब्राह्मणों के पास नही रही। वह मैं तुम्हें बता. प्रजा कहां जाती है ? ऊगा२। श्वेतकेतु-भगवन् ! नहीं। उपमन्यु का पुत्र प्राचीनकाल, पुलुष का पुत्र सत्ययज्ञ, प्रवाहण-क्या तू जानता है कि वह फिर इस लोक मे मल्लविके का पुत्र इन्द्रद्युम्न, शर्करक्षा का पुत्र ज कैसे पाती है ? अश्वतराश्व का पुत्र वुडिल-ये महा गृहस्थ और परम श्वेतकेतु-नहीं। भगवन् । श्रोत्रिय एकत्रित होकर परस्पर विचार करने लगे कि प्रवाहण-देवयान और पितयाण-इन दोनों मागों का हमारा प्रात्मा कोन है और हम क्या हैं ? एक दूसरे से विलग होने का स्थान तुझे मालूम है ? उसने निश्चय किया कि अरुण का पुत्र उद्दालक इस श्वेतकेतु-नहीं भगवन् ! समय इस वैश्वानर प्रात्मा को जानता है। प्रतः हम प्रवाहण-तुझे मालूम है, यह पितृलोक भरता क्यों नही उसके पास चलें। ऐसा निश्चय कर वे उसके पास पाए। उसने निश्चय किया कि ये परम श्रोत्रिय महागृहस्थ श्वेतकेतु-भगवन् ! नहीं। मुझमे प्रश्न करेगे, किन्तु मैं इन्हें पूरी तरह से बतला नहीं प्रवाहण-क्या तू जानता है कि पाचवीं पाहुति के हवन सकूगा । प्रतः मैं इन्हें दूसरा उपदेष्टा बतला दू। कर दिये जाने पर प्राप (सोमघृतादि रम) पुरुष उसने उनसे कहा-इस समय केकयकुमार पश्वपति सज्ञा को कैसे प्राप्त होते हैं ? इस वैश्वानर संज्ञक मात्मा को अच्छी तरह जानता है । श्वेतकेतु-भगवन् ! नहीं। 'तो फिर तु अपने को' मुझे शिक्षा दी गई है, ऐमा १. छान्दोग्योपनिषद् २३१-७,१०४७२-४७९ क्यों बोलता था? जो इन बातों को नहीं जानता २. बृहदारण्यकोपनिषद् ६१८वह अपने को शिक्षित कैसे कह सकता है? यथेय विदयेतः पूर्व न कस्मिश्चन ब्राह्मण उवास तां तब वह त्रस्त होकर अपने पिता के स्थान पर पाया त्वह तुभ्यं वक्ष्यामि। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त माइए हम उसी के पास चलें। ऐसा कहकर वे उसके पास साहित्यिक गतिविधि की निदर्शक एक कथा, राजा प्रतर्दन चले गये। के सम्बन्ध मे पाती है कि किस प्रकार वह मानी ब्राह्मणों उन्होने केकयकुमार प्रश्वपति से कहा-इस समय से यज विद्या के विषय में जूझता है। शतपथ की ११वीं पाप वैश्वानर प्रात्मा को अच्छी तरह से जानते हैं, इस- कण्डिका मे राजा जनक सभी पुरोहितों का मुंह बन्द कर लिए उसका ज्ञान हमें दें। देते है और तो और ब्राह्मणों को जनक के प्रश्न समझ में दूसरे दिन केकयपति प्रश्वकुमार ने उन्हें प्रात्म-विद्या ही नही पाए ? एक और प्रसग मे श्वेतकेतु-सोमशुष्य भोर का उपदेश दिया १ । ब्राह्मणों के ब्रह्मगत्व पर तीखा व्यग याज्ञवल्क्य सरीखे माने हुए ब्राह्मणों से प्रश्न करते हैं कि कराते हुए पलातशत्रु ने गार्य से कहा था-ब्राह्मण अग्निहोत्र करने का सच्चा तरीका क्या है और किसी से क्षत्रियों की शरण इस प्राशा से पाए कि यह मुझे इस इसका सन्तोषजनक उत्तर नहीं बन पाता। यज्ञ की ब्रह्म का उपदेश करेगा, यह तो विपरीत है, तो भी मैं दक्षिणा अर्थात् सौ गाए, याज्ञवल्क्य के हाथ लगती है, तुम्हें उसका ज्ञान कराऊंगा ही२।। किन्तु जनक साफ-साफ कहे जाता है कि अग्निहोत्र की प्रायः सभी मैथिल नरेश प्रात्म-विद्या को प्राश्रय भावना प्रभी स्वयं याज्ञवल्क्य को भी स्पष्ट नहीं हुई देते थे । और सत्र के अनन्तर जब महाराज अन्दर चले जाते है तो ___एम-विटरनित्स ने इस विषय पर बहुत विशद विवे. ब्राह्मणो मे कानाफूसी चल पडती है कि यह क्षत्रिय होकर चना की है। उन्होंने लिखा है-भारत के इन प्रथम हमारी ऐसी की तैसी कर गया खैर हम भी तो इसे सबक दार्शनिकों को उस युग के पुरोहितों मे खोजना उचित न दे सकते हैं-ब्रह्मोद्य (के विवाद) मे इसे नीचा दिखा होगा, क्योंकि पुरोहित तो यज्ञ को एक शास्त्रीय ढांचा सकते है ? तब याज्ञवल्क्य उन्हे मना करता है-देखो, देने मे दिलोजान से लगे हुए थे जबकि इन दार्शनिको का हम ब्राह्मण है और वह सिर्फ एक क्षत्रिय है. हम उसे ध्येय वेद के अनेकेश्वरवाद को उन्मूलित करना ही था। जीत भी ले तो हमारा उससे कुछ बढ़ नहीं जाता और जा ब्राह्मण यज्ञा के प्राडम्बर द्वारा हा अपना राटा कमाते अगर उसने हमे हरा दिया तो लोग हमारी मखौल उड़ाहैं. उन्हीं के घर में ही कोई ऐसा व्यक्ति जन्म ले ले जो एंगे। देखो? एक छोटे से क्षत्रिय ने ही इनका अभिमान इन्द्र तक की सत्ता में विश्वास न करे, देवताम्रो के नाम चर्ण कर डाला । और उनमे (अपने साथियों से) छुट्टी से पाहुतियां देना जिसे व्यर्थ नजर प्राए, बुद्धि नही पाकर याज्ञवल्क्य स्वय जनक के चरणो में हाजिर होता मानती । सो अधिक संभव नही प्रतीत होता है कि यह भगवन ! म भी बहा.विक्षा सम्बन्धी अपने स्वानभव दार्शनिक चिन्तन उन्ही लोगों का क्षेत्र था, जिन्होंने वेदो था, जिन्हान वदा का कुछ प्रसाद दीजिए १ और भी ऐसे अनेक प्रसग मिलते मे पुरोहितो का शत्रु अर्थात् परि, कजूस, 'ब्राह्मणो का है. जिनसे प्रात्म विद्या पर क्षत्रियो का प्रभुत्व प्रमाणित दक्षिणा देने से जी चुराने वाला' कहा गया है। होता है। उपनिषदों में तो, और कभी-कभी ब्राह्मणों मे भी प्रात्म-विद्या के पुरस्कर्ता ऐसे कितने ही स्थल पाते है जहा दर्शन-अनूचिन्तन के उस एम० विन्टरनिटज ने लिखा है-जहां ब्राह्मण यज्ञयुग प्रवाह में क्षत्रियों की भारतीय संस्कृति को देन स्वतः याग आदि की नीरस प्रक्रिया से लिपटे हुए थे, अध्यात्मसिद्ध हो जाती है। विद्या के चरम प्रश्नों पर और लोग स्वतंत्र चिन्तन कर कौशीतकी ब्राह्मण (२६।५) में प्राचीन भारत की रहे थे। इन्ही ब्राह्मणेतर मण्डलों से ऐसे वानप्रस्थों तथा १. छान्दोग्योपनिषद ५।११।१-७, पृ० ५३६-५४३ रमते परिव्राजकों का सम्प्रदाय उठा-जिन्होंने न केवल २. बृहदारण्यकोपनिषद २०१२१५, पृ० ४२२ ससार मौर सासारिक सुख वैभव से अपितु यज्ञादि की ३. श्रीविष्णु पुराण ४१५१३४, पृ० ३१० १. प्राचीन भारतीय साहित्य, प्रथम भाग, प्रथम खण्ड, प्रायेणते प्रात्म-विद्यायिणो भूपाला भवन्ति । पृ. १८३। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रात्म-विद्यात्रियों की देन नीरसता से भी अपना सब नाता तोड़ लिया था। आगे ब्राह्मणों को उदारता चलकर बौद्ध, जन मादि विभिन्न ब्राह्मण-विरोधी मत- ब्राह्मणों ने भगवान ऋषभ और उनकी मध्यात्ममतान्तरों का जन्म इन्हीं स्वतन्त्र चिन्तकों तथाकथित विद्या को जिस प्रकार अपनाया, वह उनकी अपूर्व उदारता नास्तिकों की बदौलत ही सम्भव हो सका, यह भी एक का ज्वलन्त उदाहरण है । एम. विन्टरनिट्ज के शब्दों में ऐतिहासिक तथ्य है, प्राचीन यज्ञादि सिद्धान्तों के भस्मशेष हम यह भी न भूल जाए कि (भारत के इतिहास में) से इन स्वतत्र विचारों की परम्परा वही-यह भी एक ब्राह्मणों में ही प्रतिभा पाई जाती है कि वे अपनी घिसी(और ऐतिहासिक तथ्य है। याज्ञिको मे "जिद' कुछ धर पिटी उपेक्षित विद्या में भी नये विरोधी भी क्यों न होकर जाती और न यह नई दृष्टि कुछ सभव हो सकती। विचारो की संगति बिठा सकते हैं, पाश्रम-व्यवस्था को, इसी विशिष्टता के साथ, चुपचाप उन्होंने अपने (बाह्मण) इन सबका यह मतलब न समझा जाए कि ब्राह्मणों का उपनिषदों के दार्शनिक चिन्तन में कोई भाग था ही धम का अग बना लिया-वानप्रस्थ मोर संन्यासी लोग नहीं, क्योंकि प्राचीन गुरुकुलों में एक ही प्राचार्य की छत्र भी उन्हीं की प्राचीन व्यवस्था में समा गए३ । छाया में ब्राह्मण-पुत्रों, क्षत्रिय-पुत्रों की शिक्षा-दीक्षा का पारण्यकों और उपनिषदों में विकसित होने वाली तब प्रबन्ध था और यह सब स्वभाविक ही प्रतीत होता अध्यात्म विद्या को विचार सगम की सजा देकर हम है कि विभिन्न समस्याओं पर समय-समय पर उन दिनों अतीत के प्रति अन्याय नहीं करते। डा. भगवत शरण विचार विनिमय भी बिना किसी भेदभाव के हमा करते उपाध्याय का मत है कि ऋग्वैदिककाल के बाद, जब हो। उपनिषदों का समय पाया तब तक क्षत्रिय ब्राह्मण संघर्ष "बौद्ध, जैन प्रादि विभिन्न ब्राह्मण विरोधी मत मता उत्पन्न हो गया था और क्षत्रिय ब्राह्मणों से वह पद छीन लेने को उद्यत हो गए थे जिसका उपभोग ब्राह्मण वैदिकन्तरों का जन्म इन्हीं स्वतंत्र चिन्तकों-तथाकथित नास्तिको काल से किए पा रहे थे। पाजिटर का प्रभिमत इससे की बदौलत ही सम्भव हो सका।" इस वाक्य की अपेक्षा भिन्न है। उन्होने लिखा है-राजाम्रो व ऋषियो की यह वाक्य अधिक उपयुक्त हो सकता है कि बौद्ध, जैन परम्पराए भिन्न-भिन्न रही। सुदूर प्रतीत मे दो भिन्न मादि विभिन्न ब्राह्मण विरोधी मत-मतान्तरो का विकास परम्पराएँ थीं-क्षत्रिय परम्रा मोर ब्राह्मण परम्परा । प्रात्म-वेत्ता क्षत्रियों की बदौलत ही सम्भव हो सका। यह मानना विचारपूर्ण नहीं कि विशुद्ध क्षत्रिय-परम्परा क्योंकि प्रध्यात्म-विद्या की परंपरा बहुत प्राचीन रही है, पूर्णतः विलीन हो गई थी या प्रत्यधिक भ्रष्ट हो गई या सम्भवतः वेद-रचना से पहले भी रही है। उसके पुरस्कर्ता जो वर्तमान में है, वह मौलिक नहीं। ब्राह्मण अपने धार्मिक क्षत्रिय थे । ब्राह्मण पुराण भी इस बात का समर्थन करते व्याख्यानों को सुरक्षित रख सके व उनका पालन कर हैं कि भगवान ऋषभ क्षत्रियों के पूर्वज हैं। उन्होने सके हैं तो क्षत्रियों के सम्बन्ध में इससे विपरीत मानना सुदूर अतीत में अध्यात्म-विद्या का उपदेश दिया था। प्रविचार पूर्ण है। क्षत्रिय परम्परा मे भी ऐसे व्यक्ति थे, १ प्राचीन भारतीय साहित्य, प्रथम खण्ड, प्रथम भाग, जिनका मुख्य कार्य ही परम्परा को सुरक्षित रखना था। पृ० १८६ ..'क्षत्रिय व ब्राह्मण परम्परा का अन्तर महत्वपूर्ण है २. (क) वायुपुराण पूर्वार्द्ध प्र० ३३, श्लोक ५० और स्वभाविक भी। यदि क्षत्रिय परम्परा का अस्तित्व नाभिस्त्व जमयत्पुत्रं मरुदेव्यां महाद्युतिः । नहीं होता तो वह पाश्चर्यजनक स्थिति होती..... ऋषभं पार्थिव श्रेष्ठ सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् ।। ब्राम्हण व क्षत्रिय परम्परा को भिन्नता प्राचीनतम काल से (ख) ब्रह्माण्ड पुराण, पूर्वाद्ध अनुषगपाद म०१४॥६. ३. प्राचीन भारतीय साहित्य, प्रथम भाग, प्रथम खण्ड, ऋषभ पार्थिव श्रेष्ठ सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् । पृ० १८६. ऋषभाद् भरतोजजे, वीर: पुत्रशताग्रजः ॥ ४. सस्कृति के चार प्रध्याय, पृ० ११० Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त पुराणों से संकलन व पौराणिक ब्राम्हणों का उन पर दिया। प्रतिक्रिया केवल ब्राम्हण धर्म (यज्ञ) ही नहीं, अधिकार होने तक रही। ग्राम्हणों के गढ कुरु पंचाल के खिलाफ भी जगी भोर वस्तुतः क्षत्रिय परम्परा ऋग्वेदकाल से पूर्ववर्ती है। वैदिक सभ्यता के बाद वह समय पा गया। जब इज्जत उपनिषद् काल में क्षत्रिय ब्राम्हणो का पद छीन लेने को कुरुपपाल र कुरु-पचाल की नहीं, बल्कि मगध और विदेह की होने उद्यत नही थे प्रत्युत ब्राम्हणों को प्रात्म-विद्या का लगी। कपिलवस्तु में जन्म लेने के ठीक पूर्व, जब तथागत ज्ञान दे रहे थे। जैसा कि डा० उपाध्याय ने लिखा है स्वर्ग मे देवयोनि मे विराज रहे थे, तब की कथा है कि देवतानों ने उनसे कहा कि अब प्रापका अवतार होना ब्राम्हणों के यज्ञानुष्ठान आदि के विरुद्ध क्रान्तिकर क्षत्रियों ने उपनिषद् विद्या की प्रतिष्ठा की और ब्राम्हणों चाहिए । प्रतएव प्राप सोच लीजिए कि किस देश और ने अपने दर्शनों की नींव डाली। इस संघर्ष का काल. किस कुल मे जन्म ग्रहण कीजिएगा। तथागत ने सोच प्रसार काफी लम्बा रहा जो पन्ततः द्वितीय शती ई. पूर्व समझकर बताया कि महाबुद्ध के अवतार के योग्य तो में ब्राम्हणों के राजनीतिक उत्कर्ष का कारण हुप्रा । इसमें मगध देश और क्षत्रिय वश ही हो सकता है। इसी प्रकार महावीर, वर्धमान भी पहले एक ग्राम्हणी के गर्भ मे पाए एक मोर तो वशिष्ठ, परशुराम, तुरकावर्षय, कात्या थे। लेकिन इन्द्र ने सोचा कि इतने बड़े महापुरुष का यन, राक्षस, पतंजलि और पुष्यमित्र, देवापि, जनमेजय, प्रश्वपति, कैकेय, प्रवाहण, जैबलि-प्रजातशत्रु, कौशेय, जन्म ग्राम्हण वंश मे कैसे हो सकता है ? प्रतएव उसने जनक, विदेह, पाश्र्व, महावीर, बुद्ध और बृहद्रथ की२। ब्राम्हगी का गर्भ चराकर उसे एक क्षत्राणी की कुक्षी में डाल दिया। इन कहानियों से यह निष्कर्ष निकलता है प्रात्म-विद्या और अहिंसा कि उन दिनों यह अनुभव किया जाता था कि अहिंसा धर्म महिंसा का प्राधार प्रात्म-विद्या है। उसके बिना का महाप्रचारक ब्राम्हण नही हो सकता, इसीलिए बुद्ध और महावीर के क्षत्रिय वंश मे उत्पन्न होने की कल्पना पहिंसा कोरी नैतिक बन जाती है, उसका प्राध्यात्मिक लोगों को बहुत अच्छी लगने लगी। मूल्य नहीं रहता। उक्त प्रवतरणो व अभिमतो से ये निष्कर्ष हमें सहज अहिंसा और हिंसा कभी आम्हण और क्षत्रिय परंपग उपलब्ध होते हैंकी विभाजन रेखा थी। अहिंसा-प्रिय होने के कारण १ अात्म-विद्या के आदि स्रोत तीथंकर ऋषभ थे। क्षत्रिय जाति बहुत जन-प्रिय हो गई थी। जैसा कि दिन 1. वे क्षत्रिय थे। करजी ने लिखा है-प्रवतारों में वामन और परशुगम, ३. उनकी परपरा क्षत्रियों में बराबर समादत रही। ये दो ही है, जिनका जन्म ब्राह्मण कुल मे हृपा था । ४. अहिमा का विकास भी प्रात्म-विद्या के प्राधार बाकी सभी अवतार क्षत्रियो के वश मे हुए है। यह परहना। प्राकस्मिक घटना हो सकती है, किन्तु इससे यह अनुमान ५. यज्ञ संस्था के समर्थक ब्राम्हणों ने वैविककाल में, प्रासानी से निकल भाता है कि यज्ञों पर चलने के कारण प्रागम-काल मे, प्रात्म-विद्या को प्रमुखता नही दी। ग्राम्हण इतने हिसाप्रिय हो गए थे कि समाज उनमे घृणा ६. पारण्यक उपनिषद्काल मे वे प्रात्म-विद्या करने लगा और बाम्हणों का पद उसने क्षत्रियों को दे रही ।द की ग्रोर प्राकृष्ट हुए। १. Ancient India Historical tradition byFF ७. क्षत्रियों के द्वारा उन्हे वह (मात्म-विद्या) प्राप्त Pargiter Page 5-6. २. संस्कृति के चार अध्याय, पृ० ११० ३. वही, पृ० १०६, ११० Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ वस्ती मंदिर तथा मूलनायक मूर्ति-शिरपुर पं० नेमचंद पन्नूसा जैन न्यायतीर्थ शिरपुर के अन्तरीक्ष पार्श्वनाथ का मन्दिर ऐतिहासिक किया।" मादिर दृष्टि से महत्वपूर्ण है यह भली भाति स्पष्ट है। अनेकान्त इस रिपोर्ट की घटनामो का समय माज में करीबन वर्ष २० किरण २ मे शिरपुर के पवली मन्दिर के सम्बन्ध १५० साल पहले का यानी ई. स. १८२० से २६ तक मे प्रकाश डाला गया है। प्रस्तुत लेख मे बहा के वस्ती का है। इस रिपोर्ट से हम इस बात मे निशक हो गये मन्दिर पौर मूल नायक मूर्ति के सम्बन्ध में कुछ ज्ञातव्य कि, यद्यपि हेमाडपंथी पवली दिगंबर जैन मन्दिर श्री इतिवृत्त दिया जा रहा है। प्राशा है पाठकगण उम पर अंतरिक्ष पाश्र्वनाथ की प्रतिमा के लिये बनाया गया था, विचार करेंगे। तथापि उम मन्दिर मे यह प्रतिमा अाज तक विराजमान "ऐमा बताया जाता है कि, यहां का पुराना मन्दिर नहीं हुई। भी ४० साल पहले बनवाया गया था। अब वह खाली प्रब रही बात इस रिपोर्ट के प्रारम्भ मे जो उल्लेख है। यहा के पुजारी लाड या जैन है।" पाया है-पूराना मन्दिर भी ४० साल पहले बनवाया ई.सं. १८६८ में अकोला जिले के एक सरकारी गया, इसका अर्थ इमी लेख में विस्तार के साथ भागे प्रादमी ने शिरपुर के श्री अतरिक्ष पार्श्वनाथ दिगंबर पायेगा ही। जैन मन्दिर को भेट दी थी। पर वहां के वद्ध लोगो से तथा इस नये वस्ती मन्दिर के कर्तत्व के बारे में मिलकर क्षेत्र के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त की थी। स्पष्ट उल्लेख है कि खामगाव जि. बुलढाणा के श्रावगी वह उमकी रिपोर्ट में ऊपर के मजकूर के साथ और भी कलोत्पन्न दिगबर जैन श्रावकों ने यह मन्दिर तथा धर्मलिखता है शाला का निर्माण किया । इससे भी यही स्पष्ट हुमा कि "इम नये मन्दिर का भी निर्माण प्रदाजा चालीस यह मन्दिर-मन्दिर की मूर्ति तथा सबधित धर्मशालाए साल पहले ही हया है। उसके बाद उस पुराने मन्दिर से दिगवर जैन समाज की ही देन है। पवली मन्दिर का इस नये मन्दिर मे मूति का स्थानांतर किया गया। वह वास्त. शिल्प और कला देखकर यह ही निर्णय हुमा है। प्रमंग यहा के वृद्धो को अच्छी तरह याद है। इसकी चर्चा २-३ प्रको मे की गई है। उस पर से भी "उम महामगल उत्सव के मुखिया ये खामगाव इम मन्दिर के साथ मूलनायक की मूर्ति का स्वरूप दिगबर निवामी सेठ पोकारदासजी श्रावगी तथा उनके पिताजी। ही सिद्ध होता है। उन्होंने ही यहा की बडी न. १ की धर्मशाला बनवायी तथापि इस मन्दिर की अधिक जानकारी के लिये है। तथा उनके द्वारा यहा के महाद्वार का काम प्रभी म प्रभा यहा की रचना का तथा रचनाकारो का इतिहास प्रापके अधूरा ही था। [जिसे उनके पुत्र मेठ दुलीचद जी ने पूरा सामने रखता है। किया है। यह है वह महाद्वार, जिसका काम पूरा होते ही सेठ "यहां का पानाथी (हेमाडपथी) मन्दिर बहुत दुलीचद जी प्रोकारदास जी थावगी ने ई.स. १८८५ पुराना है। वह प्राज तक कभी भी पूरा नहीं हुपा । दो ' में चार कुड की पूजा की थी। इस समय तक यहा हर दफे चूना, विटो मे मरम्मत की गई। लेकिन माज भी वह अधूरा ही है। यहा के पुजारी कहते है कि इस मन्दिर मे १ अधिक स्पष्टी करण के रिए प्रकोला के इनाम बुक अंतरिक्ष पार्श्वनाथ की मूर्ति ने मान तक प्रवेश ही नही के इनाम साटिफिकेट देखिये । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० अनेकान्त यात्री पर दर डोई चार पाना कर लेकर सरकार देवी नजर पाती है। वह निराभरण स्वरूप, दिगबर मुद्रा, की भोर से नंदादीप के लिए घी मिलता था । अतः इसके वीतराग छवी तथा नासाग्रदृष्टि रूप प्रसन्न मुख देखते संबंधित अधिकारी फेरी कमल साहेब को इस महोत्सव ही सहज ही भक्तिभाव से दोनों हाथ जुड़ जाते है। हर में बुलाया गया तथा हर यात्री को कर मुक्त करने की यात्री यहां नत मस्तक होकर भगवान के सामने साष्टाग अर्जी उनके सामने रखी गई। तब विचार विमर्ष होने प्रणिपात करता है। पर उन्होंने घी बन्द कर यात्री कर उठाने की घोषणा की दिगबर जैन धाकड़ समाज ने यह मन्दिर भट्टारक थी। किन्तु दिगंबर जैन समाज ने उस समय उनका श्री जिनसेन के स्मृति निमित्त निर्माण किया था। अतः यथोचित सत्कार किया था, उससे प्रेरित होकर इस इस मन्दिर मे बायी ओर उनका गुरूपीठ है। उस पर मन्दिर के उत्पन्न (प्राय) के लिये मेरे यह गाव (याने यहां अभी १०८ श्री कुदकुदाचार्य जी का तथा वीरसेन भट्टाके उत्पन्न) इनाम देने की इच्छा प्रगट की थी। किन्तु रकजी (जिनसेन के परपरागत अन्तिम शिष्य २ का फोटो समाज ने उनका केवल प्राभार मानकर ही उसे स्वीकार विराजमान है। नहीं किया था। यहा से नीचे भोयरे में उतरने के लिए सीधे हाथ से इस महाद्वार से अन्दर जाते ही प्रावार के मध्य में एक अरु द मार्ग है । प्राइये अब नीचे चलेगे । मन्दिर की बड़ी इमारत दिखती है। इसका ऊपर का भोयरे मेंईटो से और नीचे का काम पत्थरों से किया गया है। यहां जो बीच मे ३॥ फुट ऊँची, कृष्ण वर्ण तथा ऊपर एक छोटा सा गुमटाकार शिखर है। सामने, एक सर्पफ.णालत मति दिखती है वह है श्री अतरिक्ष पायसमय एक ही पादमी प्रवेश कर सके, ऐसा छोटा दरवाजा नाथ भगवान । इसकी प्राप्ति होने पर श्रीपाल ईल गजा दिखता है, बस यह ही श्री अ. पा० दिगबर जैन बस्ती इमे एलिचपर ले जाना चाहता था, मगर यह यहा ही मन्दिर है । इसीके एक भोयरे मे देवाधिदेव, त्रिलोकीनाथ प्राकाश में स्थिर हो गई ३ । कहा जाता है कि उस समय श्री प्रतरिक्ष प्रभु विराजमान है। यह प्रतिमा ७ से ८ फीट ऊंचाई पर स्थित थी। इसके इस छोटे दरवाजे से अन्दर प्रवेश करने पर चौक नीचे मे पनिहारी स्त्री मिर पर घडा रखकर सहज जा मिलता है। उसके चारों ओर चार फीट ऊचा चबतरा सकती ४ थी। यह भी कहा ज ता५ है कि इस प्रतिमा जी है। उसके ऊपर तीन बाजू में दिगंबरी पेढ़ी का सामान ही के नीचे से एक घोड़े का सवार भी निकल सकता था। बैठक, पेटी, कपाटे प्रादि है तथा पश्चिम बाजू मे भट्टारक किसी किसी का यह भी कहना है ६ यह मूर्ति इसी भोयरे श्री जिनसेन के स्मृति रूप सेनगन का मन्दिर है। प्रायो मे वि० सं० ५५५ में भी विराजमान थी। यह मूर्ति यहा यहा जल से हाथ पांव धोकर चन्दन लगाएं पोर अन्दर कब से विराजमान है। इस विवाद के विषय को छोड चलें। भी दिया तो भी दसवी सदी में इस मूति की, ऊपर जैसी सुनिये ये सामने की घड़ी१ क्या कहती है-"टन् स्थिति थी यह सुनिश्चित है। किन्तु आज यह मूर्ति सिर्फ टन् टन् । ई० स० १८७७ फाल्गुन वदी ७मी से यहां एक अगुल भर ही अधर है। मूर्ति का एक भाग जमीन है। मैं हर यात्रे करू से गर्ज कर कहती हूँ कि मेरा का सहारा ले रहा है। चौदहवी सदी मे मूर्ति इतनी ही मालिक था दिगंबर जैन, निरमल (यह गाव हैद्राबाद के अधर थी इसके अनेक उल्लेख मिलते है। पास है) का रहने वाला नाम है उसका-व्यकोबा काशीबा कोठारी बोगार । टन्, टन, टन् ।" २. देखो येनगण भट्टारक परपरा यह हमारा लेख, अने। मन्दिर जी मे प्रवेश करते ही सामने एक वेदी पर ३. भट्टारक श्री महिचद्रकृत अ पा. विनंति देखो। ४. सोमधर्मगणी रचित इतिहास देखो। २०-२५ दिगंबर जैन मूर्ति तथा पीतल की एक पद्मावती ५. महिचद्र तथा लावण्य समय । १. घण्टा के ऊपर के लेख के आधार से । ६. अकोला डि. गजेटियर ई. स. १९११ । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भो अंतरिक्ष पाश्र्वनाथ बस्ती मदिर तथा मूलनायक भूति-शिरपुर मूर्ति अधर कैसी है-इस चमत्कार का चक्षुर्वे इस तरह प्रभु के गुण गौरव करने के भाव सहज ही सत्यम् अनुभव के लिए (१) वहा का पुजारी मूर्ति के निर्माण होते हैं। बाद मे दाहिनी भोर के श्री १००८ नीचे से एक वस्त्र डालकर पीछे से निकालकर बताता है। महावीर भगवान के वेधो पर स्थित सभी दिगंबर मूर्ति (२) तथा भोयरे का विद्युतप्रकाश बन्द कर दो निरांजनी के सामने भक्ति से यात्री कहता है।-हे महावीर प्रभो, (दीप) मूर्ति के पीछे रखकर मूर्ति की स्थिति स्वयं प्रज- अनेक गुणों से तथा विभूति से विभूषित पात्मिक गुणों से माने को कहता है, देखो मूर्ति के नीचे से पीछे का प्रकाश परिपूर्ण, कीर्ति सपन्न ऐसे भाप समवशरण मे जब थे, दिखता है। तब चद्रमा के समान आकाश मे (अधर ही) विहार करते या स्थिर थे । प्रत. प्रापके धवल रूप को शत शत चमत्कार-मूर्ति का जमीन से अन्तर देखने के लिए। प्रणाम । बोलिये श्री महावीर भगवान की जय । यात्री स्वयं नत मस्तक हो जाता है। क्या यह कम चमत्कार है ? सिर्फ मूर्ति का चमत्कार देखने के लिए बाई ओर यह श्री १००८ मादि प्रभु की दिगंबरी यहा पाने वाले और अपना शिर न झुकाने वाले का शिर वेदी है। इसमे प्रादि प्रभु की मूर्ति की स्थापना भट्टारक खुद ही झुक जाना, इसमे ही प्रभु का प्रभुत्व है। श्रीसोमसेन ने श्रीपुर मे ही शके १६६१ (ई० स० कैसा प्रभुत्व है १६३६) मे की थी। इस वेदी पर स्थित सभी दिगबर प्रात्म गुण मण्डिते, पाश्र्वनाथ वदना ।। मूर्ति, यत्र, पादुका प्रादि की भक्ति वंदना कर मागे अलंकार छडिक, क्षातिसखी सेवना। भगवान पार्श्वनाथ को शासन देवता पद्मावती माता का प्रात्मरूप ध्यान है, वीतराग कारणे । विनय करने का भाव सहज ही पैदा होता है। इसके द्वय निर्ग्रन्थ पद, प्रात्मधर्म साधने ॥१॥ शिला पर उत्कीर्ण अन्य दिगंबर मूर्ति की भक्ति करते हम सम तव नाही, राग ब्राह्म दियो । समय याद आती है कि, इस मातृछत्र की स्थापना अन्य विषमय रूप मान, प्रेम बाबासनो में । एक पार्श्व प्रभु की मूर्ति के साथ वि. स. १६३० कार्तिक सहजहि तव वे थे, प्राप्त दिव्यान्न वस्त्र । सुदी १३ (ई. म. १८७४) के दिन हुई थी। जिसके अंबर तव विशा ही, अन्य माने तूं प्रस्म ॥२॥ संस्थापक 'बालसा' दि. जैन कासार है। देखिये, जहां पेड का एक पत्ता प्राकाश मे बिना इसके नजदीक ही बालात्कारगण के भट्रारकों का प्राधार क्षण भर भी स्थिर नही रह सकता वहा करीब गुरुपीठ है। उस पर श्री १०८ कुदकुदाचार्य का तथा एक सहस्र वर्षों से ३।। फीट ऊँची, मजबूत पत्थरो की भ. श्री देवेन्द्रकीति जी का फोटो है। बीच में एको चांदी अनेक (गृण रत्नो से) परिपूर्ण प्रतिमा यहा अतरिक्ष की कवली (शास्त्री जी रखने का प्रासन) है। उस पर स्थित है। यह यहा शिरपुर में पाकर देखने पर किसके दि. जैन शास्त्र रहते है। मन को चकित न करेगी? हरेक के मन को हरने वाले इसी तरह प्रागे के दालान में चार दिगंबरी वेदिया श्री देवाधिदेव पाश्र्वप्रभु के दिगबर जैन शासन का दुनिया है। प्रतिम भाग मे रखी हई ३ फीट ऊँची पत्थर की में जय जय कार हो । बोलिये-श्री अंतरिक्ष पाश्वनाथ प्राचीन प्रतिमा पर दृष्टि केन्द्रित होती है। हा, यह भगवान की जय। गुडघों के पास खडिन होने पर भी प्रखण्ड है। यह प्रतिमा एक ऐतिहासिक घटना को सूचित करती है। ८. पत्र यत्र विहायसि प्रविपुले स्थातु क्षण न क्षम । (क्रमश) तत्रास्ते गुणरत्न गहणगिरियो देवदेवो महान ।। चित्र मात्र करोति कस्य मनसो दृष्ट. पुरे श्रीपुरे। कीा भुवि भासितया वीर, त्व गुण समुत्यया भासितया। म श्रीपाश्र्वजिनेश्वरो विजयते दिग्वाससां शासनम् ।।३ भासोड्सभासितया, सोम इव व्योम्नि कुदशोभासितया। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि देवीदास का परमानन्द विलास डा० भागचन्द जैन एम. ए. पी-एच. डो. श्री दि० जैन परिवार मन्दिर, इतवारा, नागपुर के रह कर ही शायद वर्तमान चौबीसी विधान पूजा ग्रन्थ हस्तलिखित ग्रन्थों का अवलोकन करते समय कवि देवी- रचा गया है । इसका रचना काल सं० १८२१ है । शायद दास द्वारा रचित कुछ ग्रन्थों के देखने का अवसर मिला। यह प्रतिम रचना हो। कवि की एक रचना प्रवचनसार उनमें परमानन्द विलास, पदपकत और वर्तमान चौबीसी का पद्यानुवाद भी है कवि का वश गोलालारे और गोत्र विधान पूजा मुख्य है। प्रथम दो ग्रन्थ एक साथ लिखे कासिल्ल (कोशिल) था। इनके पुत्र का नाम गोपाल गये है और अन्तिम ग्रन्थ पृथक है जिसकी अनेक प्रतियां था। वह भी कवित्त कला का धनी कहा गया है। उपलब्ध है। परमानन्द विलास की प्रति ७४१५ इञ्च कवि ने. लगता है, किमी स्कल में शिक्षा नहीं प्राप्त है। पत्र मस्या ४८ है | इञ्च का चारो तरफ हासिया की। यह बात उन्होने परमानन्द विलास में अनेक बार छूटा हुआ है। लिपिकार ने उसका उपयोग जहा कही ग जहा कहा दुहगयो है । शायद लघुता प्रदर्शन के निमित्त उक्त पद्य गयी प्रशद्धि होने पर पाठ को शुद्ध करने के लिए किया है। में कमलापति का नाम अवश्य दिया है-कमलापति सीख प्रत्येक पत्र के पृष्ठ पर ११ पक्तिया है और प्रत्येक पक्ति मिखावन वारं । राभव है वे ग्रन्थ समाज में प्रेरक बने में प्राय: ४५ अक्षर है। सर्वत्र काली स्याही का उपयोग हो। प्रागे भी उन्होंने गरु के रूप मे किगीका नामाकिया गया है। परन्तु शीर्षक, छन्द नाम और पद्य मख्या लेख नही किया है-- लिखते समय लिपिकार ने लाल स्याही का भी उपयोग भाषा विमतिमा भाषा कवि मतिमन्द अति होत महा असमर्थ । किया है । अक्षर सुपाच्य है। कागज भी अच्छा है। बुद्धिवत धरि लीजियो जहं अनर्थ करि अर्थ ।। स्थितिकाल और जीवनदर्शन। गुरु मुख ग्रन्थ सुन्यौ नही मन्यौ जथावत जास । कवि ने परमानन्द विलास मे कोई ऐसी प्रशस्ति नही निरविकलप समझाइनो निज पर देवीदास ॥ दी है जिसके माधार पर उनका स्थितिकाल और अवसान देवीदास ने अनेक छन्दों मे जैनधर्म के प्रति अत्यधिक काल निश्चित रूप से जाना जा सके । अन्य के मध्य मे अनुराग, वात्सल्य और दृढ़ता प्रदर्शित की है। परमार्थ बुद्धि-बावनी के अन्त्य पद्य में यह अवश्य निर्देश मिलता पथ को जान लेने के बाद ही प्रस्तुन ग्रन्थ की रचना की है कि प्रस्तुत ग्रन्थ स. १८१२ मे चैत्र वदी परमा (एवम्) गई हैगुरुवार को समाप्त हुआ। कवि दुगोडा ग्राम के निवासी प्रादि जिनेश्वर प्रादि अन्त महावीर बखानी। थे जो औरछा स्टेट मे था। के मूल निवासी रहे है- जिनको जग चरनारविंद नित प्रति उर प्रानौ ॥ संवत् साल अठारह से पुन द्वादस और घरो अधिकारे। परगट समदरसन सुपंथ निजकर सुखकारन । चंत्रवदी परमा गुरुवार कवित्त सर्व इकठ करि धारे॥ ज्ञानावरणादिक सुग्र दुरबन्ध निवारन । गंगह रूप गपाल कहै कमलापति सीख सिखावन वारे। तसु पढ़त सुनत प्रहलाद प्रदि परमारथ पथ को विक्ति । कैलगा पुनि प्राम दुगोडह के सब ही बस वासन हारे॥ समझे सुसंत गुनवंत अति भाषा करि बनो कवित्त ।। वर्तमान चौबीसी विधानपूजा में दी गई प्रशस्ति के कवि ने भले ही स्कूली शिक्षा प्राप्त न की हो, परन्तु अनुसार भी ये दुगोड़ह-कलगा के ही मूल निवासी रहे वह निश्चित रूप से एक विद्वान कवि रहा है। और है। बाद में ये कलगुवा मे पाकर बसे । ललितपुर में उसने जैन शास्त्रों का अभ्यास निःसन्देह गभीरतापूर्वक Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि देवीदास का परमानन्द विलास किया है। कवि ने प्रस्तुत ग्रन्थ में चौपाई, छप्पय, सोरठा, नही पढया मोहिम सुमति सो निज पोरी। गीतिका, तेईसा, अडिल्ल, कवित्त, सवैया, तोटक, कुण्ड- भाषा करि इतनी पुजी सुकम-क्रम करि जोरी॥ लिया, चर्चगे, मरहठा, पद्धरी, नराच, गगोदक आदि ताप भयो न मै निवान करि मति माहित । उन्दो का उपयोग किया है। साथ ही चित्रबन्ध, चक्रबन्ध, मति विसेष वारी इहा न कोई पुनि पंडित ॥ ॥ कमलबन्ध, धनकबन्ध, कडारबन्ध प्रादि का भी प्रयोग हिये मझार सुमति नही वैरी को वस वास। किया है। भाषा अलंकारिक और मिष्ट है। यह कवि माफिक अपनी सवित कवि वरन देवीदास ॥ की विनम्रता है कि वह अपने को मतिमन्द और छन्दअर्थ ज्ञानहीन बतलाता है परमानन्दविलास का विषय ग्रन्थ उक्त देखी प्रगट कहि भाषी जिहि ठौर । परमानन्द विलास के कवि ने ग्रन्थ में लगभग २८ कान मात पद प्ररथ घट घर लोजो बुष और ॥ विषयों पर कवित्त लिग्वे हैं । मर्व प्रथम परमानन्द स्तोत्र ग्रन्थ प्ररथ छवि हन्द को मरति कला न पास । लिखा है। और उमके बाद है जीव चतुर्भेदादि वत्तीसी, संली दिन मंली भई गति मति देवियदास ॥ जिनातगउली, धर्म पंचविशती काय, पचपदपच्चीसी, तीन मूढ़ अडतीमी-३८ दमधा सम्यक्त्व त्रयोदमी, पुकारपच्चीमी, वीतरागपच्चीसी, दरसनछत्तीसी, बुद्धिबाउनी, नीन मूढ भारतीसी, देवशास्त्र परमानन्द विलास के अन्त में भी कवि ने यहा गरुपजा.सीलाग चनदमी, सप्तविमन, विवेक वनीसी, विनम्रता अभिव्यक्त की है। यथार्थ वस्तु जानने की अभि.. म्वायोग गछगे मालोचभावांतरावनी, पचवग्न के लापा से ही इस ग्रन्थ की उन्होने रचना की है। गुरु की कविन, योग पनीमी, तुवकमरी व्यवहार कथन उपदेश, बिना सहायता से जो कुछ भी ज्ञान क्रम-ऋम से प्राप्त द्वादम बावनी, उपदेश पच्चीगी, जिन स्तुति द्वार हर किया जा सका, कवि ने ग्रन्थो के रूप में जन समक्ष दौर की. हित उपदेशकी जवगे, मीतलाष्टक, सरधानप्रस्तुत किया है। साथ ही अपने पापको अल्पज्ञ कहकर पच्चीसी, कषायावलोकन चोबीमी, पचमकाल की विपरीत ग्रन्थ के अन्त मे कविने विधिहीन कथन को मुधार कर गैति । इन सभी पर पृथक-पृथक विवेचन इस अल्पकाय पढ़ने के लिए भी निवेदन किया है। निबन्ध में सम्भव नही। इसलिए कुछ मुख्य विषयो की पोथी जिन तनको विषं लिखी तारता सोई। और हम चले। भाषा छन्द मझार वा घरी वनिका कोई ।। परमानन्द स्तोत्रघरी वचनका कोई करी जाकी हम भाषा। इममे कवि ने प्रात्मा-परमात्मा के विषय में बई ही मोहि जथारय वस्तु जानवे को अभिलाषा ।। मुलझे, न ग से अपने विचार प्रस्तुत किये है। प्रात्मा का गाथा पर असलोक समझिवे को मति थोथी। निश्चय नय और व्यवहार नय दोनों नयो के आधार पर भाषा की भाषा बनाइ इह लिखी मुहम पोयो॥॥ विवेचन किया है। प्रान्मा के विविध कंपों का वर्णन मानंदकारी बात है भाषा ग्रन्थ मझार । करने के बाद कह दिया है अर्थ कर सुन चाहिए समझे सब संसार । भिन्न भिन्न को कहि मकं ब्रह्म रूप गन भाम । समझ सब ससार लिखो देखी हम तंसी। अल्प बुद्धि कर अल्प गन वरन देवीदास ॥॥ विन गुर मुख सर वही कही भाषा करि जमी।। देह और प्रात्मा के बीच जो सम्बन्ध है उसे उन्होने गैर विधि जहं होइ सोधि लीजो बुधवारी। मुन्दर उदाहरण देते हुए समझाया है। दूध अथवा दही परमानन्द विसास यह सु प्रति प्रानंदकारी ॥२॥ मे धो और काष्ठ में अग्नि रहती है उमी प्रकार शरीर में पंडित विना सु कौन पे पढे पढया होहि । प्रात्मा रहता है। ये दोनों उमी प्रकार परस्पर भिन्न-भिन्न मिलो यहाँ अवलोक हू नहीं पढ़या मोहि ।। भी हो जाते हैं जैसे तिली के मध्य रहने वाला तेल, तिल Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ अनेकान्त से पृथक हो जाता है दिन दिन पुनि विपरीत कुभिंग, जती वतीकरिव कुलिंग।' पाहन मै जैसे कनिक वही दूध में घीऊ। पहरे वसन भोगविधि चहै, तिन सो मुगद मुनीस्वर कहे ॥२६ काठ माहि जिमि प्रगिनि है त्यो सरीर में जीऊ ॥२५॥ धर्म पंचविशतितेल तिलो के मध्य है पर गट नहीं दिखाय । जतन जगत से भिन्नता खरो तेल हो जाय ॥२६ सांसारिक दशा का वर्णन करते हुए श्रावक के लिए समस्त भ्रमजाल छोड़कर धर्म धारण करने की सलाह दी गई जीवचत दादि वतीसो है-तजहु सकल भ्रम जाल रे भाई, तू इह धर्म विचार । जीव के चार भेद है-सत्ता, भूत, प्राण और जीव। उसे जैन रसायन पीने को कहा गया है। अनेक उदाहरण सत्ता के चार भेद है-पृथ्वी, जल, पावक और पवन । देकर धर्म की उपयोगिता बताईवनस्पति के जीव को भूत की श्रेणि मे गिनाया है। ज्यों निस ससि विनऊ नहै जी। नारि पुरुष विन ते न विकलत्रों को प्रानवान् कहा है तथा पचेन्द्रियवान् को जैसे गज दन्त बिना जी ।। धर्म विना नर जे मरे भाई॥११ जाव की सजा दी है। जैसे फूल विवासु को जी जल विन सरवर जेह। इसके बाद किस जीव का घात करने से कितना जैसे ग्रह संपति विना जी धर्म विना नर देह रे भाई ॥१३ पाप लगता है यह बताया है। प्रसंख्यात सत्ता का घात करने पर एक भूत के वध के बराबर, असंख्यात वृक्षों का का पंचपद पच्चीसी पच विनाश करने पर दो इन्द्रिय जीव के वध के बराबर, कवि ने पच परमेष्ठी की भक्ति वशात् २५ कवित्त एक लाख दो इन्द्रिय जीवो का वध करने पर तीन इन्द्रिय लिखे है जो भाव और भाषा दोनों की दृष्टि से सुन्दर जार के वध बराबर, हजार तीन इन्द्रिय जीव के घात बन पड़े हैंकरन पर एक चतुरिन्द्रिय जीव के वध बराबर, सौ चतु- उदधि जान गंभीर मोह मद विषय विहंडित । रिन्द्रिय जीवो का वध करने पर एक पचेन्द्रिय जीव के हारक सम गन विमल सुद्ध जिय प्रखय मखडित ॥ वध बराबर और एक पचेन्द्रिय जीव के वध की समानता । केवल पर परगास भयो भववीर विभंजन। सुदर्शन मेरु से दी है सकल तत्व वक्तव्य देव धुव परम निरंजन ।। हेम सुदर्शन मेर समान घर पुन कोट रतन परधान । मति हि वोष परगट प्रवध हरन तिमिर जन मन मरन। ऐसी दर्व करें जो पुन्न एक जीव घातत् सब सुन्न । चाहत सुख जिनदेव युति बहु प्रकार मंगल करन ॥५॥ इसके बाद पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु कायिक दसधा सम्यक्त्व त्रयोदशीजोवी की तथा विकलत्रयो की स्थिति और प्रायु का इसमे सम्यक्त्व का दस प्रकार से भिन्न-भिन्न छन्दों मांगोपाग विवेचन दिया है । तदनन्तर स्वयम्भूरमण मच्छ, में वर्णन किया गया है। छन्दो में प्रमुख हैं-छप्पय, लिग, नारकी, निगोद आदि जीवो का ध्याख्यान किया सोरठा, गीतिका, तेईसा, अडिल्ल, कवित्त प्रादि सम्यक्त्व है। अन्त में यह कह दिया है-"जीव दरव की कथा के दस प्रकार ये हैंपनन्न । जाको कहत न मावे अन्त" ॥३१॥ प्राज्ञा प्रथम सुभाव द्वितीय मारग सुख वायक । जिनातराउली ततीय नाम उपदेस सूत्र चौथो बुध लायक ॥ __ इसमें चौबीस तीर्थकरों के बीच हुए अन्तराल का वीर्यमा पंचमौ षष्ठ सक्षेप भनिज्जह । वर्णन किया गया है। उसके बाद हुई मुनि परम्परा और सप्तम विधि विस्तार अर्थ अष्टम गुन लिज्जा। पचम तथा षष्ठम काल के विषय में भी व्याख्यान है। परमावगाढ नवमौ कथन पर प्रवगाढ विचारचित । मुनियों में उत्पन्न हुई प्राचार शिथिलता के विषय में इह भिन्न-भिन्न दस भांति कहि कहा है समकित निज हित सुनहु मित ॥२॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि देवीदास का परमानन्द विलास १७५ पुकार पच्चोसो भव देख्यो पद संसार महि बिन बरसन जेनर रहे। भक्तिरस से प्रोत-प्रोत पुकार पच्चीसी में "वेर ही सो संत पुरुष इह जानकं चल सबउ तिनि सो कहै ।। वेर पुकारत ही जनकी विनती सुनिये जिन राई' पद बद्धि बावनीप्रत्येक पद के अन्त में पाया है। कवि अपने इष्ट देव से इसमें तेईसा' गुरू उत्तर मवैया, गतागत प्रादि के माध्यम प्रार्थना कर रहा है से कवि ने सामारिक दशाका वर्णन करते हुए पच परमेष्ठी देरि करौ मति श्रीकहनानिधि ज पति राखन हार निकाई। की स्तुति की है। पचपरमेष्टीकी स्तुति करते समय इष्ट देव जोग जुरे क्रमसौं प्रभ न यह न्याय हजर भई तुम पाई ॥ को करुणासागर और स्व पर प्रकापाक-ज्ञानवान् कहा हैमानि रह्यौ सरनागति हों तुमरी सनि के तिहु लोक बड़ाई।। नाके घट वस जिनवानी सो पुनीत प्रानी। वेर हो वेर पुकारत हो जन की विनती सुनिये जिनराई ॥२२ जाकं उभै मातको दया समस्त हिय है। वीतराग पच्चीसो जाकी मति पैनी भेद स्व-पर प्रकाशिवे को। द्रव्य के विविध रूपों का वर्णन प्राचार्य कुन्दकुन्द के भिन्न भिन्न कर छनी को स्वभाव लीय है। प्रवचनसार के आधार पर बड़े ही सरस और मन नुभा परमो ममत्व डारक सघर निज भाव । वने पद्यों मे किया है परमउ छाउ सुध सरपान कोय है। जैसे और धातु को मिलाय वन हीन हेम जाके भ्रम नाही पग्यौ निज ग्यान महिी मो। कसत कसौटी सौ सुदीस पराधीनता। जो पीठो पत्रक रचे दोजे प्रांच नाना भाति तो गन को प्रथाही सत्य हो सो चित दिय है ॥१३॥ विगर सलोनी जाकी घटं न मलीनता ।। धर्म अनेक प्रकार का है परन्तु स्यादाद दृष्टि बिना जैसे क्रिया कोटि कर प्रानी जो विवेक बिना वह निराधार है। सुधर्म स्वामी को कवि ने धर्म रक्षक घरै व्रत मौन रहे देह कर क्षीया। मान कर प्रणाम किया है और बाद मे "धर्म विना जन्म जान जो प्रमान भली भाति प्रगम के जीव निम्फल" ऐमा विचार अभिव्यक्त किया हैंनिरजीव प्रादि नवतत्त्व-दरसी ।। ज्यों जवतिय बिन कंत रन विन चद जोत भर । भरम विदारी धीरधरम जनपचारी ज्यौ सरिताइन होइ वर्षविन ऊन सून पर। विगत विभाव सार संजमी समरसी। ज्यों गजराज प्रवीन हीन दंतन नहि मोहत । मकताफल विन पान ताहि गनवत नगोहत ।। सुख दुख एक ही प्रमान जान जगते राग दोष मोह दसा डारी है विसरसी ॥ ज्यों सेना नरपति हीन कहि परम लता बिन पह पहले। ऐसौ सद्ध परम विवेकी मुनिराज ज्यों पा नरभव निरफल कही जिन जिनक नहि धर्मधुव ॥२८ जा सुद्ध उपयोग धन घटा घट वरसी ॥८॥ इसी प्रकार बुद्धिवाउनी मे ५२ छन्द हैं। सभी एक दरसन छत्तीसी में एक बढकर है । अन कागे का उनमे स्वाभाविक प्रयोग दर्शन पाहुड के आधार पर कवि ने मम्यग्दर्शन, है। भाण में भक्ति रस का प्रवाह है। सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र का विभिन्न छन्दों मे, मगम इसके बाद तीन मूढतानो का वर्णन ३८ कवित्तो में भाषा मे वर्णन किया है। सम्यवदर्शन हीन व्यक्ति को किया गया है। तीनो मूढतापो के सात सात भेद किये मोक्ष नहीं मिल सकता। है। तदनन्तर प्रसिद्ध कवि द्यानतरायकृत देवशास्त्र गुरु दरसन करि के हीन न सोहै जगमाहीं। पूजा उद्धत है। यह या तो प्रक्षिप्ताषा है अथवा कवि की दरसन करके हीन ताहि अव्यय पद नाही। अत्यन्त प्रिय पूजन रही है । द्यानतराय चि स. १८वी शती जो चरित्र करि हीन होइ जो बरसन धारी। के कवि हैं। कवि देवीदास से वे किसी प्रकार से सम्बन्धित कम कम सेती तो न पुरुष पावं सिव नारी ॥ रहे होगे। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ अनेकान्त शीलांग चतुर्दशी में शील के १५०० भेद गिनाये हैं। उर माहि राखे सो को तरवार ढाल की। गीत ४ मन, वचन, काय==१२४३ कृत कारित, राई मेर के समान फेर की सुवात यहै, अनुमोदन ३६४५ इन्द्रिय=२८० संस्कार, शृङ्गार, ग्रन्थ विर्ष नाहि में विलोको कहि हाल की। राग, क्रीडाहास, ससर्ग, सकल्प, तननिरीक्षण, तनमड, तिनं गर मान जैन मती जे कहावै सर्व, भोग, मन चिता=१०x१०=१००४१८०-१८०० । देखो विपरीत ऐसी पच सुकाल को ।। यहा काम की दश अवस्थाम्रो का भी वर्णन है। बाद मे ज न साधनों की पालकी प्रादि विषयक प्रालो. पापियो की मानसिक अवस्था का सुन्दर विवेचन है। चना की है वहां उनके धन विषयक प्रेम की भी भर्त्सना म विवेक बत्तीसी मे भेदविज्ञान का प्राख्यान है। की है। इम विपरीत रीति को देखकर कवि को इतना भाषा, भाव और अलंकार की दृष्टि से विवेक वत्तीसी दुख हुप्रा कि उमने विपरीत पाचरण करने वाले मुनि अधिक सुन्दर बन पड़ी है। अनुप्रास की छटा देखिये- वेषधारियो को शठ (मूब) कह दिया हैसरस दरस सारस पुरस धीर समर सनिवास । भेष धरैन मुनीस्वर को सुविशेष न रंव हिये महिमान। परस दरस पारस सरस पौरस सुजस विलास ॥ जोरत दाम कहावत नान जती विपरीत महा अति ठाने ।। पचवरन के कवित्त मे देवीदास की काव्य-शक्ति और अंबर छोड़ि दिगबर होत समवर फेर गहै तजि पाने । भी निखरी-सी दिखाई देती है जे सठि पाप कर सठ प्रौरन जे सठ लोग तिने गुर मान ॥ सिंहासन सेत पर समह सेत वारज है, ___ अन्त मे कवि इस विपरीत आचार-विचार को देखकर जाप सेत बर को प्रभा उतंग चली है। दुःखित होता है और कहता है कि जो निग्रन्थो को छोड़ जाप सेत छत्र पर हीरा नग सेत जरे, कर ऐसे यात्रियो को अपना गुरु स्वीकार करते है वे मनो सेत भान पर निकरी रक्ष पाली है ।। वस्तुत. कल्पवृक्ष काटकर धतूरे का वृक्ष लगाते हैसेत जग मग जोत सेत फूप विष्ट होत, सेवत जे सर अप गर निरग्रंथन को छोड़ि । सेत ध्यान धरै सेत सेत घर मुक्ति गली है। कल्पवृक्ष ज्यों काटि के ठयत धतूरो गोड़ि ॥ सेत संख लछन विराजे जे जिनेस जाप, मिथ्याती दुरजन जिन उपदेसत जे कूर । मनो सेत पंकज कर कलोल मली है ।। जैसे स्वान कु भक्षनी के मुख देत कपूर ।। ग्रन्थ के अन्त मे पञ्चम काल की विपरीत रीति के इस प्रकार समूचा ग्रन्थ कवि की काव्य-शक्ति का विषय मे कहते हा कवि ने साधुपो के आचार-विचार की द्योतक है। उन्होने अपना अध्यन और विचार सरल कटु पालोचना की है भाषा और छन्दों के माध्यम से उपस्थित किया है। जाके परमान सौ परिग्रहा स जती नाही, भाषा मे जहा मरलता है वहां उसमें अर्थगांभीर्य और जती हो समस्त संग राखं प्रादि पालको। माधुर्य भी है। प्रवाह की मरमता मनोहारिणी है इसलिए सिष्य साखा तिनके स घोरे चई पागे चलं, ग्रन्थ प्रकाशन के योग्य है। ★ विवेक की महत्ता अविवेकी मानो जीव अपनी रक्षा और प्रतिष्ठा के लिए दूसरे जीवो की निन्दा करता है उसे नीचा दिखाने का प्रयत्न करता रहता है। उसका प्राकार करने का भी यत्न करता है। पर विवेकी जीव अपनी निर्मल परिणति से जगत का यह राग रग देखता हुमा भी उस ओर प्रवृत्त नहीं होता, वह तो प्रात्म-निरीक्षण द्वारा अपने दोषो को दूर करने और मान को निर्मूल करने मे ही अपनी शक्ति का व्यय करता है । और विवेक से अहकार को जीतता है । यही उसकी महत्ता है। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों का जैन संस्कृति में योगदान परमानन्द जैन शास्त्री जगजीवन ने सं० १७०१ में बनारसी विलास का प्रापने पिता और कुटुम्बियो द्वारा मनुपालित धर्म का ही संकलन किया था। प्रापके अनेक पद उपलब्ध होते हैं। प्राचरण करते थे। मापने हीरानन्द जी के साथ एकीभाव स्तोत्र मादि का देवयोग से आपके पिता का सं० १७४२ में प्रापकी पद्यानुवाद किया था। आपके पद बड़े सुन्दर और भाव लघुवय मे अचानक देवलोक हो गया। उस समय मापकी पूर्ण हैं। यहां उनका एक पद पाठकों के ज्ञापनार्थ दिया अवस्था नौ वर्ष की थी, पिता के प्राकस्मिक वियोग का जाता है जिसमें जगत मौर जीवन की अनित्यता का प्रापके जीवन पर विशेष प्रभाव पड़ा। और गृहस्थी का वर्णन है। सब कार्य-भारस्वरूप प्रतीत होने लगा। परन्तु फिर भी जगत सब दीसत घन की छाया। प्रात्मीय जनों और दूसरे धर्मात्मा सज्जनों के सहयोग पुत्रकला मित्र तन संपति, उदय पुदगल जुरि पाया। से कुछ अपना कार्य करते हुए भी शिक्षा की पोर अग्रसर भव-परिनति वरषागम सोहै, प्रास्त्रव-पवन बहाया ॥१॥ होते रहे । स० १७४६ मे पं० विहारीदास और मानसिंह इन्द्रिय विषय लहरि तड़िता है, देखत जाय दिलाया। के उपवेश से कवि का झुकाव जैनधर्म की पोर हपा पौर राग दोष वगु पकति वीखति, मोह गहल घर राया । उनकी प्रास्था जैनधर्म पर जम गई । निजसंपति रत्न प्रय गहिकर, मुनिजन नर मन भाया। सहज अनंत चतुष्टय मंदिर, जगजीवन सुख पाया ।। ___ सवत् १७४८ में १५ वर्ष की अवस्था में धानतराय जी का विवाह हो गया। पौर गृहस्थ जीवन की सुदृढ जगजीवन द्वारा हीरकवि के साथ एकीभाव स्तोत्र तथा सांकलों से वे प्राबद्ध हो गये । कवि के सात पुत्र पौर 'चतुर्विशतिका' का पद्यानुवाद भी मिलकर बनाया हुमा तीन पुत्री थी। १६ वर्ष की अवस्था तक कवि का उपलब्ध है । यदि घागरा और आस-पास के शास्त्र-भडारो झुकाव विषय-भोगों की भोर रहा, किन्तु सत्समागम का का अन्वेषण किया जाय तो सभव है प्रापके सम्बन्ध में परित्याग नहीं किया, परिणाम स्वरूप कवि जैन सिद्धान्त अनेक ज्ञातव्य प्राप्त हो सकेगे । के मर्मज्ञ विद्वान बन गये। वे जैनधर्म के सिद्धान्तों को जीवन-परिचय सरल एव सुबोध भाषामें समझाते थे । कवि ने सं. १७५२ बारहवे कवि द्यानतराय है। यह प्रागरा के निवासी मे १७८३ तक लगभग एक सौ रचनाएं रची हैं । और थे । अापके पूर्वज लायलपुर से प्राकर आगरा मे बस गये ३२३ भक्तिपूर्ण, उपदेशक, प्राध्यात्मिक गीतों (पदो) थे। प्रापका कुल अग्रवाल और गोत्र गोयल था। कवि की रचना की है। कवि ने लिखा है कि संवत् १७७५ में के पितामह (दादा) का नाम वीरदास था और पिता मेरी माता ने शील बुद्धि ठीक की। और सं० १७७७ मे का नाम श्यामदास । कवि का जन्म संवत् १७३३ मे वे सम्मेद शिखर की यात्रार्थ गई और वहीं पर हा था। प्रापका पालन-पोषण बड़े यत्न से किया गया परलोकवासिनी हुई। कवि ने सं० १७८३ के कार्तिक और प्रारंभिक शिक्षा भी मिली। उस समय जैनधर्म को महीने की शुक्ला चतुर्दशी को देवलोक प्राप्त किया। जानते हुएभी प्रापको उस ओर रुचि नहीं थी। इस कारण : २ सत्रह सय तेतीस जन्म व्याले पिता मनं । १. विशेष परिचय के लिये देखें भने. वर्ष ११ कि.४.५ अटताले व्याह सात सुत सुता तीन जी। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० अनेकान्त कवि ने जैनधर्म के सिद्धान्तों का मनन कर और परिताप से उसका मानस विकृत हो जाता है परेशानी में प्रात्म-सौन्दर्य के अनुभव को ससार के सामने इस ढंग से जीवन विताना पड़ता है-उसे कोई नही पूछता। और रखा है, जिससे प्रान्तरिक वैभव का परिज्ञान सहज ही उसे धर्म-कर्म भी नही रुचता। कवि कहता है कि वह रुजहो जाता है। कवि की कृतियां मानव हृदय को स्वार्थ गार एक धर्म करने से पूरा हो जाता है :मम्बन्धों की संकीर्ण ना से ऊपर उठाकर लोक कल्याण की रोजगार विना यार यारसा न कर प्यार, भावभूमि पर ले जाती हैं, उससे मनोविकारों का परि. रोजगार बिना नार नाहर ज्यों घर है। कार हो जाता है-चित्त शुद्धि हो जाती है । इन्द्रिय रोजगार बिना सब गण तो विलाय जायं, विषय-विकारों का विश्लेषण कवि की प्रतिभा का द्योतक रोजगार म नौं च । है। मानव हृदय के रहस्यों में प्रवेश करने की उनमे रोजगार बिना कछ बात बनि प्राव नाहि, अतल क्षमता विद्यमान थी। कवि ने उपदेशशतक में बिना वाम प्राठौँ जाम बैठो घाम झर है। मिथ्यात्व-मम्यक्त्व की महिमा, गृहवास का दुख, इन्द्रियों रोजगार बने नाहि रोज रोज गारी खांहि, को दासता नरक-निगोद के दुख, पुण्य-पाप की महत्ता, ऐसौ रोजगार एक धर्म किये पूरै है ॥६४ धर्म का महत्व, ज्ञानी-अज्ञानी का चिन्तन और प्रात्मानुभूति की विशेषता प्रादि विषयों का सरस विवेचन ___ जब तक जीव अपनी भ्रम दशा का परित्याग नहीं किया है। करता, तब तक उसकी ममता पर पदार्थ से नही हटतीमाशा की नूतन राशिया अज्ञानी के मानस क्षितिज उसमें ही चिपकी रहती है । तब स्व-पर के भेद विज्ञान में पर उदित हो रही हैं। उससे उसका संतुलन बिगड़ गया उसका मन नही लगता, वह राग-द्वेष के भ्रमजाल में ही है, वह चिता से सतप्त हुअा कि कर्तव्य विमूढ़ हो रहा है। उलझा रहता है। भवकूप से निकलने की सामर्थ्य भी कवि उसे सान्त्वना देता हुमा सोच एवं चिन्ता छोड़ने का उसमे व्यक्त नहीं हो पाती। कवि कहता है कि मिथ्याउपदेश दे रहा है। तिमिर का अवसान होने पर ही बोध-भानु प्रकट होता काहे की सोच कर मन मूरख, सोच करै कछु हाथ न ऐहै, है तभी मोह की दौड धूप से जीव को छुटकारा मिल पूरव कर्म सुभासुभ संचित, सो निह अपनो रस हैं। सकता है। और तब आपको पाप और पर को पर ताहि निवारन को बलवंत , तिहें जगमाहि न कोउ लसहै, मानता है और प्रात्मरस में विभोर हो शिवभूप से स्नेह ताताह सोच तजो समतागहि, ज्यों सखोड जिनं को करता है, और शाश्वत सुख का पात्र बनता है। यह ठीक है कि जीव अपनी प्राजीविका या रुजगार स्व-पर न भेद पायो पर हो सौ मन लायो, के लिए निरन्तर चिन्तावान रहता है, उसके प्रभाव में मन न लगायौ निज प्रातम सरूप सौ। राग-दोषमांहि सूता विभ्रम अनेक गता, छयाले मिले सुगुरु बिहारीदास मानसिंघ । तिनों जैन मारग का सरधानी कीन जी। भयौ नाहि व्रता जो निकसों भवकूप सौ॥ पचत्तर माता मेरी सील बुद्धि ठीक करी। अब मिथ्यातम सान प्रगटौ प्रबोष-भान, सतत्तरि सिखर समेद देह खीन जी। महासुख दान प्रान मोह दौर धूप सौं। कछु प्रागरे में कछु दिल्ली माहि जोर करी। प्राप प्रापरूप जान्यौ पर हो को पर मान्यौ, अस्सी माहि पोथी कोनी परवीन जी ॥३८ परस सान्यौ ठान्यौ नेह शिव भूप सौं॥७७ कवि ने अपनी रचनाप्रो मे अनेक सुभाषित भी दिये सवत विक्रम नृपत के, गुण वसु शंल सितश । है : उनका नमूना इस प्रकार है :कतिक सुकल चतुरदशी, द्यानत सुर गंतूश ॥ “मैं मधु जोरपी नहि वियौ, हाथ कल पछिताय । -धर्मविलास प्रशस्ति धन भति संची वान वो माखी कहै सुनाय।। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों का जन संस्कृति में योगदान १७६ चिता चिता दुह विष, विदी अधिक सदीव । चरितार्थ होती है। ४५वी रचना पद संग्रह है, जिसमे चिन्ता चेतनिकों दहे, विता बहै निरजीव ॥ ३२३ भक्तिपूर्ण, भौपदेशिक और प्राध्यात्मिक सरस एब पूरन घट बोल नहीं, प्ररष भए छलकंत । सरल गीतो मे वस्तु तत्त्व का विवेचन है। गुनी गुमान करें महीं, निरगन मान करत॥" मागम विलास में भी अनेक रचनात्रों का संकलन है रचनाओं के नाम जिनमें से मुख्य ये है .-१. मागम शतक मे १५२ सर्वया १. उपदेश शतक (सं० १८५८) १२१ पद्य, हैं। अन्य कूटकर रचनाएं। २. प्रतिमा बहत्तरी दिल्ली में २. छहढाला (सं० १७५८), ३. सुखबोध पंचासिका ५२ रची गई ४६ १०, (स. १८८१), ३ विद्युत चोरकथा प०,४. धर्मपच्चीसी २७ प०, ५. तत्त्वसार भाषा ७६ ४० प०, ४. सनत्कुमार चक्रवर्ती की कथा ४७ ५०, प०, ६. दर्शन दशक ११ प०, ७. ज्ञानदेशक ११ प०, ५ दोहा ५०, ६ प्रकारादिक ५२ १०,७ वर्णद्वादशांग ८. द्रव्यादि चौबोल पच्चीसी २५५०, १. व्यसनत्याग ८. ज्ञान पच्चीसी, ६. जिनपूजाष्टक, १०. गणधर मारती पोडस १६ ५०, १०. सरधा चालीसी ४० ५०, ११. सुख ११. कालाष्टक, १२,४६, गुणजयमाला, १३. सघपच्चीसी, बत्तीसी ३२ १०, १२. विवेकवीसी २०५०, १३. भक्ति १४ सहज सिद्ध अष्टक, १५. देवशास्त्र गुरु की प्रारती, दशक सबैया ३१ सा. १०२५०, १४. धर्मरहस्यबावनी और अन्य स्फुट रचनाएं। (तेइसा सवैया) ५२ ५०, १५. चारसौ जीव समाम ३२ दशलक्षण पूजा, सोलहकारण पूजा, नन्दीश्वर पूजा, प०, १६. दशस्थान चौबीसी ३० प०, १७ व्योहार पंचमेरु, देव शास्त्र-गुरुपूजा, सिद्धपूजा, वीम विरहमान पच्चीसी २६ प०, १८. पारती दशक, १६. दशबोल पूजा और रत्नत्रय पूजा अादि । पूजाएं प्राय: प्रकाशित पच्चीसी २५ प०, २०. जिनगुण माल सप्तमी ३१ सा, हो चुकी है। किन्तु पागम विलास की अन्य सभी रच. २१. समाधिमरण १०प०, २२. पालोचना पाठ ६५०, नाएं अभी अप्रकाशित है। इस ग्रथतालिका पर से सहज २३. एकीभावोस्त्र भापा २६. १०, २४. स्वयभूस्तोत्र भाषा ही जाना जा सकता है कि कविवर द्यानतराय ने हिन्दी २५ १०, २५. पाश्र्वनाथ स्तवन १० १०, २६. तिथि भापा की कितनी अधिक सेवा की है। रचनायो को दो पोडशी १८ प०, २७. स्तुति वारसी १२ १०, २८ यति भागों में विभाजित किया जा सकता है। भक्तिपूर्ण प्रोपभवनाष्टक ६०, २६. सज्जनगुणदशक ११-३१ सा., देशिक प्राध्यात्मिक और कथा जीवन चरितात्मक । गीतो ३०. वर्तमानवीसीदशक १०प०, ३१. अध्यात्म पचा. या पदो को तीनो विभागो में रखा जा सकता है। सिका ५० ५०, ३२. अक्षरवावनी १५ ५०, ३३. नेमिनाथ तेरहवें कवि दरिगहमल्ल है। जो वत्स देशान्तर्गत बहत्तरी ७२ ५०, ३४. वजदन्तकथा ११ प०, ३५. पाठ सहजादपुर के निवासी थे, जो गंगा के तट पर वसा हुमा गण छन्द ११ १०, ६६. धर्मचाहगीत ८५०, ३७. प्रादि- था१, इनकी जाति अग्रवाल और गोत्र 'गर्ग' था। यह नाथ स्तुति ३६ प०, शिक्षा पचासिका ५० ५०, काष्ठासघ माथुरगच्छ पुष्करगण के भट्टारक कुमारसेन ३८. जुगल प्रारती २० प०, ३६. वैराग्य छत्तीसी की प्राम्नाय के विद्वान थे, और मेठ सुदर्शन के समान ३६ प०, ४०. वाणी सख्या ११२ पद्य, ४१. पल्ल- दृढ व्रती थे। इनके पुत्र का नाम विनोदीलाल था । कवि पच्चीसी २५ १०, ४२. पटगुणी हानि वृद्धिवीसी दरिगह मल के बनाये हुए अनेक पद और जबड़ी प्रादि २. प०,४३. पुरण पचासिका ५५ १०. सब रचनाए हैं, जो स्व-पर-सम्बोधक हैं। जकडी में अपने को सम्बोधित 'धर्मविलास' में प्रकाशित हो चुकी है। ४४. चर्चाशतक १ प्रस्तुत सहजादपुर प्रयाग या इलाहाबाद के पास गगा हिन्दी की महत्वपूर्ण कृति है जिसमे सैद्धान्तिक चर्चापो नदी के तट पर बसा हमा था। वहा अग्रवाल को पद्यों मे अंकित किया हुआ है। जो कण्ठ करने योग्य श्रावकों के अनेक घर थे, जिन मन्दिर था। १७वी है। इससे गूढ विषयो का भी सक्षेप मे परिचय मिल शताब्दी के कवि भगवतीदास अग्रवाल ने वहा ठहर जाता है। इसमे गागर मे सागर भर देने की नीति कर अनेक रचना रचीएं थी। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० अनेकान्त करता हुआ कवि कहता है कि-हे जियरा ! तू सुन, राज्यकाल मे सं० १७०६ मे पूर्ण को थो१ । परमात्मसुन, तू तो तीन लोक का राजा है तू घर बार को छोड़ प्रकाश की भाषाटीका म० १७१७ में पांडे रूपचन्द जी कर अपने सहज स्वभाव का विचार कर, तू पर में क्यों के प्रसाद से बनाई थी। कर्म प्रकृति की टीका भी सं० राग कर रहा है, तूने प्रनादि काल से प्रात्मा को पर १७१७ मे बनाई थी। पाडे हेमराज अध्यात्म साहित्य के ममझा है और पर को प्रात्मा। इसी कारण दु ख का अच्छे विद्वान थे। आप की कविता बड़ी भावपूर्ण है। पात्र बन रहा है। अब तू एक उपाय कर, अब सुगुणों कवि ने अध्यात्मी कुंवरपाल की प्रेरणा से 'सितपट का प्रावलम्बन कर, जिससे कर्म छीज जाय-विनष्ट चौरासी बोल' की रचना भी रचना की थी, जिसका हो जाय । तू दर्शन ज्ञान चारित्रमय है, और त्रिभुवन का आदि मगल पद्य इस प्रकार है :राव है, जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है :- सुनयपोष हतदोष, मोषसुख शिवपद दायक । सुन सुन जियरा रे, तू त्रिभुवन का राव रे गुनमनिकोष सुपोष, रोषहर तोष विधायक । तू तजि पर भाव रे चेतसि सहज सुभाव रे। एक अनंत स्वरूप संत वंदित अभिनदित । चेतसि सहन सुभाव रे जियरा, परसों मिलि क्या राच रहे, निज स्वभाव परभाव भावि भासेइ अमक्ति । अप्पा परजान्या पर प्रप्पाणा, चउगइ दुःख प्रणा सहे। प्रविदित चारित्र विलसित अमित, अब सो गुन कोजे कर्महि छोज, सणह न एक उपाव रे। सर्व मिलित अविलिप्त तन । वंसण णाण चरण मय रे जिय,तू त्रिभुवन का राव रे ॥१॥ अविचलित कलित निजरस ललित, जय जिन दलित सुकलिल धन । इससे पता चलता है कि कवि दरगहमल की कविता भक्तामर स्तोत्र के पद्यानुवाद का जैन समाज में धार्मिक होते हुए भी सरस भाव पूर्ण और स्व-पर-सम्बोधक है। अन्य एक जकडी के पद्य मे कहा है कि हे मूढ तू पर्याप्त प्रचार है । कवि की अन्य क्या कृतिया है ? उनका मानव जनम को व्यथ न गमा, इसी से तू शाश्वत सुख अन्वेपण होना चाहिए। कवि के जीवन का अन्त कब को नही ढूढ़ पा रहा है। हुप्रा यह भी विचारणीय है। पन्द्रहवे कवि बिहारीदास है, जो आगरा के निवासी तू यह मणुयतन, काहे मढ गमाव; थे और वहा की अध्यात्म शैली मे प्रमुख थे। कवि सासय सुखदायक, सो तू ढूंढि न पावै । द्यानत राय ने इन्हे अपना गुरु माना है। द्यानतराय मानढूंढन पावं पासि तुम ही, पाप प्राप समावए । गुन रतन मूठोमाहिं तेरी, काई दहरिसि धावए । १ नगर प्रागरेमे हितकारी, कंवरपाल ज्ञाता अविकारी। तिन विचार जियमे यह कीनी, जो भाषा यह होइ नवीनी। वह राज अविचल करहिं शिवपुर, फिर संसार न प्रावए। यो कहै बरिगह यह मणुयतण, काहे मूढ़ गमावए ॥२ अल्प बुद्धिभी प्ररथ बखान, अगम अगोचर पद पहिचान । यह विचार मन मे तिन राग्वी, पाडे हेमराज सो भाखो। कवि का समय १८वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। xx चौदहवे कवि हेमराज है, जो अग्रवाल और गर्गगोत्री अवनीपति वदहि चरण, सुवरण कमल विहसत । थे। और आगरा के रहने वाले थे। आप अपने समय के साहजिहा दिनकर-उदै, परिगण-तिमिर-नसत ।। अच्छे विद्वान टीकाकार और कवि थे। कवि ने अपनी पुत्री 'जैनुलदे' को, जो रूपवान, गुणशीलवान थी खूब हेमराज हिय प्रानि, भविक जीव के हित भणी। विद्या पढ़ाई थी। हेमराज ने उसका विवाह नन्दलाल के जिनवर-प्राण-प्रमानि, भाषा प्रवचन की कही। साथ कर दिया था। नन्दलाल भी उस समय प्रागरा में सत्रह से नव उतर, माघ मास सित पाख । ही रहते ये । मापने कुवरपाल ज्ञाता की प्रेरणा से कुन्द- पंचमि प्रादित वार को, पूरन कीनी भाख । कुन्दाचार्य के प्रवचनसार की बालबोध टीका शाहजहां के -प्रवचनसार प्रशस्ति Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रवालों का जन सस्कृति में योगदान १८१ नही है। सिह और बिहारीदास के सत्समागम से ही जैनधर्म के प्राकृप्ट हुए थे। मौर तभी ग्रन्थ रचना की और भी रहस्य को पाकर विद्वान बने थे। बिहारीदास के नाम से चित्त लगाया था। मापकी निम्न रचनाएं प्रवलोकन में अनेक पद उपलब्ध होते है । संभवत: वे इन्ही के हो। यह माई है उनके नामादि निम्न प्रकार है :थानतराय के समकालीन है। १. भक्तामर कथा स. १७३९, २. सम्यक्त्व कौमुदी सोलहवें कवि मानसिंह है। संभवतः यह प्रागरा मे स. १७४६, ३. श्रीपाल विनोद (सिद्धषक कथा) स. जोहरी थे। बड़े ही सरल हृदय, विद्वान और अध्यात्म १७५० पौरगजेब के राज्यकाल मे बनाकर समाप्त किया चर्चा में रस लेते थे। इन्होंने भी द्यानतराय को जैन है । यद्यपि यह संस्कृत रचना का पद्यानुवाद मात्र है, फिर सिद्धान्त का परिज्ञान कराया था। और भगवतीदास भी मरस है । और दोहा, चौपाई, सोरठा, परिल्ल पादि पोसवाल के साथ-साथ द्रव्य संग्रह का भी पद्यानुवाद अनेक छन्दो के १३५४ पद्यो में रचा गया है, कवि ने किया था। जैसा कि उसके निम्न वाक्य से प्रकट है। उसकी प्रशस्ति में अपना निम्न परिचय दिया है :इहि विधि ग्रंथ रच्यो सुविकाम, मानसिंह व भगोतीदाम यह पद्यानुवाद माघ मुदो दशमी को किया गया है१ । "नाम कथा श्रीपाल विनोब, पढत सनत मन होय प्रमोब। कवि मानसिंह का यह प्राध्यात्मिक पद (गीत) कितना जाति वानिया अग्गरवार, गोत्र अठारह मे सिरबार। सरम और भावपूर्ण है इसे बतलाने की अावश्यकता गर्ग गोत्र जदुवश प्रधान, अनखचून मुझ अल्लि महान । परदादे को मडन नाम, कुलमान हो सो पाम । जगत गुरु कब निज प्रातम ध्याऊं ॥ दावो पारस तासु समान, यथा नाम जैसे गुणजान । नग्न दिगम्बर मुद्रा धरिक, कब निज प्रातम ध्याऊ । दरिगहमल्ल तात मुझ तनों शील ममेव सवर्शन मनो। ऐसी लब्धि होइ कब मोकों, हो वा छिन को पाक ॥१ ताको अनुज विनोदीलाल, मै यह रचना रची विशाल । कब घर त्याग होऊ बनवासी, परम पुरुष लौ लाऊ ।। रहो अडोल जोड़ पदमासन करम कलंक खपाऊ ॥२ सवत मत्रह से पचाम, द्वंज उजारी अगहन मास । केवलज्ञान प्रगट कर अपनो, लोकालोक लखाऊ । रवि वामर पाई शभघरी, ता दिन कथा सपूरन भई।" जन्म-जरा-दुख देय जलांजलि, हों कब सिद्ध कहाऊं ॥ ४. चौथी रचना राजुल पच्चीमी है, जिसमे नेमिनाथ सुख अनंत विलसौं तिह पानक, काल अनंत गमाऊ। और गजमति का वर्णन है। पाचवी रचना नेमिनाथ 'मानसिंह महिमा निज प्रगटे, बहुरि न भव में पाऊं ॥४ घाहला-यह कवि की छोटी मी मरस रचना है, इसमें मानसिह रत्नपरीक्षक जोहरी थे, और अध्यात्म चर्चा मिनाथ की पारातका चित्रण किया गया है। पशु पक्षियों में विशेप रस लेते थे। वे अच्छे कवि भी थे । कवि की को बाडे मे बन्द देखकर मोर उनकी करुण पुकार सुनकर अन्य रचनामी का अन्वेषण करना चाहिए। हिमा मे भयभीत हो वैराग्य ग्रहण किया, और भौतिक सबर्वे कवि विनोदीलाल है। इनके परदादा का मुखों का परित्याग कर मानव कल्याण के लिए उनका नाम 'मंडन' और दादा का नाम 'पारम' था। और पिना तपस्या के लिए चला जाना मच्चा पूरुपार्य है। कवि ने का नाम 'दरिगह मल्ल' था। विनोदीलाल जैन सिद्धान्न वर की वेप-भूपा का वर्णन निम्न पद्य में किया है :के अच्छे विद्वान और कवि थे। कवि ने अपने विषय में मोर धरो सिर दूलह के कर ककण बांध बई कस होरी। लिखा है कि-" पन प्रायु वृथा मुझ गई, तीजे पन कछु कुंडल कानन में झलके प्रति भाल में लाल विराजति रोरी। शुभ मति भई।" इससे स्पष्ट है कि आयु के दो भाग मोतिन की लड़शोभित है छवि देखिल वनिता सब गोरी। बीत जाने पर कवि जैनधर्म की पोर विशेष रूप से लाल विनोदी साहिब के सुख देखनको दुनियाँ उठ बोरी॥ १ संवत सत्रह से इकतीस, माघ सुदी दशमी शुभदीस। नेमिनाथ की विरक्ति का चित्रण निम्न पद्य में मंगल करण परम सुखधाम, द्रव्य संग्रह प्रति करहुप्रणाम ।७ किया है Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ अनेकान्त नेम उदास भये जबसे कर जोडके सिद्ध का नाम लियो है। हो सकता है कि कवि ने उनके लिए रची हो। किन्तु अम्बर भूषण डार दिये शिर मौर ऊतार के डार दिया है। ग्रन्थ की पुष्पकामों मे-"इति श्री मन्महाराज श्रीजगतरूप धरो मनिका जबही तबहीं चढ़ि के गिरिनारि गयो है। राय जी विरचतायां सम्यक्त्व कौमुदी कथाया अष्टं कथा'लाल विनोदी' के साहिब ने तहां पंच महावत योगलयो है। नक संपूर्ण ॥ यह संभव है कि जगतराय को उस समय छठवीं रचना फूलमाला पच्चीसी और ७वी नेमिनाथ अवकाश न हो, और कवि कासीदास से उसे बनवाया हो। बारहमासा है। अनेक पद भी प्रापके बनाये हुये है। पर कासीदास का अन्य कोई ग्रन्थ या परिचय नही मिला । सभी रचनाये सम्बोधक और सुरुचिपूर्ण है। कवि की अस्तु अन्य का रचनाकाल सं० १७२२ सुनिश्चित है, मध्य रचनाए अन्वेषणीय है। किन्तु राजस्थान की सूचीवाला संवत चिन्तनीय है ।१ अठरहवें कवि 'जगतराय' हैं, जो पानीपत के पास सम्यक्त्व कौमुदीकी रचनाभी सं०१७२२ में हुई है। गोहाना नगर के निवासी थे। और वहा से प्रागरा में। कविने छन्दरत्नावली हिम्मतखां के अनुरोध से स० १७३० रहने लगे थे। इनकी जाति अग्रवाल और गोत्र सिंगल था मे बनाकर समाप्त की थी। ग्रन्थ मे कवि ने हिम्मत्खान माईदास श्रावक के दो पुत्र थे, रामचन्द्र और नन्दलाल । के यश और वीरत्व की प्रशंसा भी की है। जैसा कि उस उनमें जगतराय रामचन्द्र के पुत्र थे। और जगनराय के निम्न पद्यों से प्रकट है .के पुत्र टेकचन्द थे। जगतराय प्रागरा के ताजगज मे राय से बाग में जगतराय सौ यह कह्यो, हिम्मतखान बुलाइ । रहते थे। उच्च कोटि के कवि और विद्वान थे। आप वहा पिंगल प्राकृत कठिन है, भाषा ताहि बनाइ ।। की अध्यात्म शैली के उन्नायक थे। आपकी इस समय वान मान गुनवनान सुजान, दिन-दिन वाढो हिम्मतखान। तीन कृतिया प्रवलोकन में पाई है। पद्मनन्दि पच्चीसी, जगतराय कवि यह जस गायो, पढत सनत सबही मन भायो।। सम्यक्त्व कौमुदी और छन्द रत्नावली। इनके मिवाय । हिम्मतखां सो अरि कपत, भाजत ले ले जीय । संवत् १७८४ में इन्होंने कविवर द्यानतराय की फटकर अरि रि हमें हूँ सग ले, बोलत तिनकी तीय । कवितानों का संकलन कर मैनपुरी मे उमे पागम विलास + + + नाम दिया था२। पद्मनन्दि पच्चीमी कवि ने सवत संवत सहस सात सतीस, कातिक मास शुकल पख दोस। १७२२ के फाल्गुण शुक्ला दशमी मगलवार को समाप्त भयो ग्रथ पूरन शुभ थान, नगर प्रागरो महा प्रधान ॥ की थी। जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है - यहा यह बात खास तौर से उल्लेखनीय है कि अनेक "संवत सतरास बावीस, फागुण मासि सुदि पक्ष जगीस। विद्वान जगत राय, जगतराम, जगगम को एक ही व्यक्ति तिथि दशमी पुष्प मगलवार, ग्रन्थ समाप्तभयो जयकार ॥" मानकर उल्लेख करते है। पर विचार करने पर जगतगय यहां यह बात विचारणीय है कि डा० ज्योतिप्रसाद और जगतगम भिन्न-भिन्न व्यक्ति ज्ञात होते है । उनकी जी ने सम्यक्त्व कौमुदी का रचयिता कामीप्रसाद नाम के किसी कवि को बतलाया है, जो जगतराय के प्राश्रित थे। १ विक्रम सवत ते जान, सत्रह से बाईस बखान । माधवमास उजियारो सही, तिथि तेरस भूसुतसी लही। १ पानीपथ सुभदेश सहर गुहानो जानिये। -प्रने० वर्ष १०, कि० १० पृ. ३७४ कबही न दुख को लेश, सुखवर ते जहा सर्वदा ।। राजस्थान प्रन्थ भण्डार की सूची न० ४ पृ.२५२ रामचन्द्र मुत जगत अनूप, जगत गय ज्ञायक गुणभूप । पर सम्यक्त्व कोमुदी कथा भाषा जगतराय पत्र स० तिन यह कथा ज्ञान के काज, वर्णी पाठो समकित साज। १५.१ र० काल १७७२ फाल्गुण सुदी १३, बेठन न० -सम्यक्त्व कौमुदी ७५३ दिया है । अतः ग्रथ का रचनाकाल विवादस्थ २ सवत सतरह से चौरासी माघ सुदी चतुरदशी भापी। हो जाता है। प्रतः उसकी जाच हो जाना चाहिए तब यह लिखत समारत कीनी, मैनपुरी के माहि नवीनी ।। कि दोनो मे रचनाकाल कौनसा सही है। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों का जैन संस्कृति में योगदान १८३ जाति भी भिन्न-भिन्न है। जगतराम खडेलवाल जातिके थे नव मतसं नव बोई प्रषिक सवत तुम जाणी। पौर उनका गोत्र था 'गोदिका'। यह गोत्र खडेलवालो मे ही माघ मास विम पंचमि तम नर रिषि सुणि माणों। होता है अग्रवालों में नही। राजस्थान के प्रथभण्डारो की गरग गोत है अग्रवाल, धावक व्रत पाले। सूची भाग ४ के पृष्ठ ५८१ मे 'प्रातभयो सुमरि देव पुण्य- वेश मलकह भोजराज सुत है पृथिवी पाल । काल जात रे' पद का कर्ता जगतराम गोदिका बतलाया नगर तेजपुर सुत के सो पायो पाणीपथ । है। जगतराम के अनेक पद मिलते है उनमें से कुछ पदो श्रुतपंचमी को रास कियो, पडित तुलसी कथ। मे 'जगराम' नाम भी पाया जाता है। प्रतएव जगतराम नर नारि जे रास सहि, मन वच रुचि गावहिं। और जगराम दोनों एक ही व्यक्ति जान पड़ते है । किन्तु सुख सपति मानव लहै वांछित फल पावहि ॥ कार जिन जगतराय कवि का परिचय दिया गया है वे बीमवे कवि भाऊ है । जो तहनगढ़ या त्रिभुवनगिरि अग्रवाल हैं । वे जगतराम से भिन्न है। कवि जगतराम के निवासी थे। इनकी जाति अग्रवाल और गोत्र 'गर्ग' ने सं०१८४६ में 'बृहत् निर्वाण विधान' नाम का ग्रन्थ था। भाऊ के पिता का नाम मनुसाह और माता का नाम बनाया है, उसमे यत्र-तत्र त्रिलोकसार की गाथाय उद्धृत करिया कमारी था।इनकी इस समय तक चार रचनामों है । वे वही हैं या दूसरे, यह विचारणीय है। का पता चला है-१. प्रादित्यवार कथा, २. नेमिनाथरास, डा. प्रेमसागर जी ने हिन्दी जैन भक्ति काम्य और ३ पार्श्वनाथ कथा, जो जयपुर के तेरापंथी मन्दिर के कवि के पृष्ठ २५५ मे जगतराय को जगतगम बतला कर गुच्छक नम्बर १३ मे दर्ज है लिपि सं० १७०४ है। जगतराम की रचना को जगतराय की रचना बतलाई है। ग्रय सूची भा० २ पृ. ३५५ । ४थी रचना पुष्पदन्त पूजा डा. कस्तूरचन्द जी कासलीवाल भी दोनो को एक मान है। कवि ने अपनी रचनायो में रचनाकाल नहीं दिया। रहे है । किन्तु ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है कि जगतराय इस कारण उनका ममय निश्चित बनालाना संभव नहीं है। और जगतराम दोनो ही विद्वान जुदे जुदे है। एक नही फिर भी इनका ममय वि की १६वी शताब्दी जान पडता है। डा. कस्तूरचन्द जी कासलीवाल को मादित्यवार जगराज और जगरूप नाम के दो विद्वानों का और कथा की प्रति स. १६२६ की लिखी हुई मिली है। इससे भी उल्लेख मिलता है, जो संभवत. भिन्न भिन्न है। भी कवि का ममय १६ तथा सत्रहवीं शताब्दी का जगराज ने सकलकीति की सुनापितावनी का पद्यानवाद प्रथम चरण हो सकता है। मं० १७०६ मे बनाकर समाप्त किया है। और जगरूप इक्कीसवें कवि वू नचन्द या बुलाकीदास है । इनका ने श्वेताम्बर चौरासी बोल की रचना मं० १८११ में जन्म घागरा मे हुमा था। यह गोयल गोत्रीय अग्रवाल बनाकर समाप्त की थी, यह रचना दिल्ली के नया मन्दिर अग्रवाल यह कियो बखान, धर्मपुरा के शास्त्र भण्डार मे सुरक्षित है। कंपरि जननि तिहुवण गिरि थान । उन्नीसवें कवि पृथ्वी पाल है, जो अग्रवाल गर्ग गोत्रीय गरगाह गोत मनू को पूत, धावक थे, और तेजपुर के रहने वाले थे। वे पानीपत भयो कविजन भगति सजूत । (परिणपद) पाये मोर वहां उन्होने भ० सहस्रकीति के कारण कथा करण मति भई, चरण कमलो को नमस्कार कर स. १६६२ के माघ महीने त्यो यह धर्म कबा अरठई। की कृष्णा पंचमीके दिन 'थुत पचमी रास' बनाकर ममाप्त मन धरि भाव सुने जो कोई, किया था। जैसा कि उसके निम्न अन्तिम प्रशस्ति पद्यो सो नर सुरग देवता होई । से प्रकट है : भाऊ भणे सुकर जोडि, सहस कीति गुरुवरण कमल नमि रास कियोबुद्धि। जिन पडित मोहि लावहु खोडि। पंडित जम मतिहास करो, बोड़ी मेरी बुद्धि। -मादित्यव्रत कथा Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ अनेकान्त श्रावक थे। इनके पूर्वज वयाना (श्रीपथ-भरतपुर) में थे४ । माप का जन्म शाहाबाद जिले के वारा नामक गांव रहते थे। इनके पितामह श्रवणदास कारणवश वयाना में गंगा नदी के किनारे संवत १८४८ में माघ शुक्ला १४ छोड़कर प्रागरे मे वस गये थे। श्रवणदास के पुत्र नन्द- सोमवार को पुष्य नक्षत्र, कन्यालग्न भानु अंश २७ के लाल को सुयोग्य जानकर पडित हेमराज ने अपनी विदुषी शुभ मुहूर्त में हुपा था। प्रापके वंशधर वारा छोड़कर पुत्री जैनुलदे का विवाह कर दिया था। बलाकीदास काशी मे आकर रहने लगे थे। कवि के पिता का नाम इन्हीं के पुत्र थे । माता का अपने पुत्र पर विशेष अनुराग धमत्र पर विशेष धर्मचन्द्र था। धर्मचन्द्र बड़े धर्मात्मा और गण्यमानपुरुष था। कवि ने भी माता की विशेष प्रशंसा की है। कवि थे। वे शरीर से हृष्ट-पुष्ट और निर्मम थे। और छोटे के गुरु अरुणमणि थे। जो भ० श्रुतकीति के प्रशिष्य भाई का नाम था महावीरप्रसाद । संवत १८६७ में १२ पौर बुधराघव के शिष्य तथा कान्हरसिंह के पुत्र थे। वर्ष की वय मे वृन्दावन अपने पिता के साथ काशी पाये इन्होंने अपना अजितपुराण सं. १७१३ में जहानावादजय- थे और काशी मे बाबर शहीद की गली में रहते थे५ । सिंहपुरा (नई दिल्ली) के पार्श्वनाथमन्दिरमें बनाया था। प्रापके वंशधर पहले काशी में रहते थे। पश्चात् वे वारा मरुणमणि ने कवि को प्रेम से विद्या पढाई थी, कवि ने चले गये थे और फिर वारा से काशी में रहने लगे थे। अपनी माता की प्रेरणा से प्रश्नोत्तर श्रावकाचार स० वन्दावन अपने पिता के समान पद्मावती देवी के भक्त थे १७४७ मे समाप्त किया था, इस थावकाचार के तीन और मत्र-तत्रादि में भी इनका विश्वास था। हिस्से जहानाबाद मे और चौथा पानीपत में समाप्त हुआ कवि की माता का नाम सिताबी और पत्नी का नाम था३। और पाण्डवपुगण स. १७५४ में बनाया था। रुक्मणी था। इनकी पत्नी बडी धर्मात्मा और पतिव्रता कवि की अन्य क्या कृतिया है यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका। थी । आपके दो पुत्र थे, अजितदास और शिखर चन्द्र । बाईसवे कवि वृन्दावन हैं। जो अग्रवाल गोयल गोत्री ४ अगरवाल कुल गोल गोत्र वृन्दावन धरमी । मरुन-रतन पंडित महा, शास्त्र कला परवीन । धरमचन्द जसु पिता, शिताबो माता मरमी ।। -प्रवचनसार प्रशस्ति बुलचन्द तिनपं पतयो, ग्यान अंश तहा लीन ॥१६ ५ वाराणसी पारा ताके वीच वस वारा, बहुत हेतकरि अरुन नै, दयो ज्ञान को भेद । तब सुबुद्धि घट मे जगी, करि कुदुद्धि तम छेद ।।२० सुरमरि के किनारा तहा जनम हमारा है। ऐसे सुत + अधिक ही, करै जु माता प्रीति । ठारं पडताल माघ मेत चौदै सोम पुष्प, सब चिन्ता सुत की हर, यहै माय की रीति ॥२१ कन्या लग्न भानु प्रश सत्ताईस धारा है । -प्रश्नोत्तर श्रावकाचार साठ माहि काशी प्राये तहा सत्संग पाये, २ रस-वृष-यति-चन्द्र ख्यात सवत्सरे (१७१३) स्मिन् । जैनधर्म मर्म लहि भर्म सब डारा है। नियमित सित वारे वैजयती-दशम्या । सली सुखदाई भाई काशीनाथ आदि जहा, रचितममलवाग्मि, रक्त, रत्नेन तेन ।।४।। अध्यातम वानी की अखड वहै धारा है । -प्रवचनसार प्रश० पृ. ११० । मुद्गले भूभुनां श्रेष्ठे राज्येऽवरगसाहि के । कवि ने छन्द शतक मे अपनी गुणवती पत्नी का जहानाबाद नगरे पार्श्वनाथ जिनालये ॥४१॥ प्रादर्श सामने रखकर मजुभाषिणी छन्द का उदाहरण -अजितपुराण प्रशस्ति बनाया जान पड़ता है:३ "सत्रह से सैताल में, दूज सुदी वैशाख । 'प्रमदा प्रवीन व्रतलीन पावनी, बुद्धवार भै रोहिनी, भयो समापत भाख । दिढ शील पालि कुलरीति राखिनी । तीन हिस्से या ग्रंथ के, भये जहानावाद । जल अन्न शोषि मुनि दान दायिनी, चौथाई जलपथ विष, वीतराग परसाद ।। वह धन्य नारि मृदुमजु भाषिनी ॥ -प्रश्नोत्तर श्रावकाचार प्रशस्ति -छन्द शतक, वृन्दा. पृ.८५ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों का जन संस्कृति में योगदान १८५ इनमें अजितदास भी अपने पिता के ही समान कवि हैं, उनसे उनकी अन्तर्व्यथा की स्पष्ट झलक मिलती है। थे। इन्होंने अपने पिता की मात्रा से हिन्दी में जैन रामा- कवि वन्दावन माशु कवि थे, उनमें काव्य रचने की यण की रचना ७१ सर्ग तक कर पाई थी, कि असमय मे स्वाभाविक प्रतिभा थी । कविता में स्वाभाविकता और देवलोक हो गया। मापकी यह रामायण बाबू हरिदासजी सरलता है। पारा वालों के पास थी। कवि की ससुराल काशी में प्रापकी निम्न छह रचनाएं है-१ प्रवचनसार ठठेरी बाजार में थी। इनके ससुर बड़े धनिक व्यक्ति थे। २ चतुर्विशति जिनपूजा, तीस चौबीसी पाठ, छन्द शतक, उनके यहां उस समय टकसाल का काम होता था। एक महत्पाशा केवली और वृन्दावन विलास । बह कवि की दिन किरानी अंग्रेज इनके ससुर की टकसाल देखने के अनेक फुटकर रचनामो का संग्रह है। कवि की ये सभी लिए माया, तब उसने कहा कि हम तुम्हारा कारखाना कृतियां महत्वपूर्ण है। पूजा-पाठ प्रति सुन्दर बन पड़े हैं। देखना चाहते हैं कि उसमें सिक्के कैसे तैयार होते हैं। उनमें यमकालंकार मादि का चित्रण है, कविता सुन्दर वृन्दावन ने उसे टकसाल नहीं दिखाई, इससे वह नाराज और मनमोहक है। इनमें छन्द शतक महत्व का पंथ है, होकर चला गया। दैवयोग से वही अंग्रेज कुछ दिनों बाद इसमें हिन्दी के सौ छन्दोके बनाने की विधि सोदाहरण दी काशी का कलेक्टर होकर पाया। उस समय वृन्दावन हुई है। उनके उदाहरण उसी छन्द में प्रकित है। छन्दसरकारी खजांची के पद पर प्रासीन थे। साहब बहादुर शतक कवि ने स. १८१८ मे अठारह दिन में अपने ज्येष्ठ ने प्रथम साक्षात्कार के समय ही इन्हे पहिचान लिया, पुत्र अजितरास के पढने के लिए बनाई है, जैसा कि उसके और बदला लेने का विचार किया। यद्यपि कविवर निम्न प्रशस्ति पद्यो से प्रकट है :अपना सब कार्य बड़ी ईमानदारी से करते थे, पर जब जितवास निज सुमन के पठन हेत अभिनंद। अफसर ही विरोधी हो, तब वह कितने दिन बच सकता श्रीजिनिब सुखवन्द को रच्यो छद यह वृन्द ।।११५ है। पाखिर साहब ने एक जाल बना कर कवि को तीन पौषकृष्ण चौदस सुदिन, ताविन कियो प्ररभ । वर्ष की जेल की सजा दे दी। कवि ने उसके अत्याचारों प्रदारह दिन में भयो, पूरन शम्नबंभ ॥११६ को शान्ति से सहा, कुछ दिन के बाद कवि-"हो दीन + + + बंधु श्रीपति करुणा निधान जी। अब मेरी व्यथा क्यो न निधान जी। अब मेरा व्यथा क्यान महारह सौ ठान, संवत विक्रम भूप । हरो वार क्या लगी।" प्रादि स्तुति बना कर गा रहे थे। दोज माघ कलिको भयो, पूरन छंद अनूप ।।११८ । उस समय उस अंग्रेज ने उनकी तन्मय दशा को देखा, प्रवचनमार कवि की सुन्दर और भावपूर्ण कृति है, और पूछा कि तुम क्या गा रहा था। तब उन्होने कहा उसे कवि ने तीसरी बार मे स. १६०५ मे उदयराज के कि मैं परमात्मा की स्तुति कर रहा था। और उन्हें बाद उपकार से बनाकर समाप्त किया है। चतुर्विशति जिन मे उसने रिहा कर दिया। तब से वह स्तवन 'सकटमोचन पूजा का समय प्रेमी जी ने वृन्दावन की प्रति पर से स. स्तोत्र' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। १८७५ कार्तिक कृष्ण प्रमावस्या गुरु बतलाया है१ । तीस उक्त घटना के संसूचक अनेक उल्लेख मिलते हैं, चौबीमी पूजापाठ स. १८७६ माघ शुक्ला पचमीको पूर्ण पाठकों की जानकारी के लिए एक दो का उदाहरण निम्न प्रा है :-दरय तत्व गुण केवल सु, सवत विक्रमवान । प्रकार है : माघ धवल पांच नवल, पूरण परम निधान ।। १अब मोपर क्यों न कृपा करते, यह क्या अंधेर जमाना है। प्रत्यासाकेवली का रचनाकाल सं. १८६१ होता है इन्साफ करो मत देर करो सुखवन्द भरो भगवाना है। जैसा कि निम्न दोहे से प्रकट है : वृ. वि..२ संवत्सर विक्रम विगत, चन्द्र रध्र दिनचन्द । २ वश्चन्द, नन्दवन्द को, उपसर्ग निवारो। वृ.वि.प. २० माघ कृष्ण प्राठे गुरू, पूरन जयति जिनन्द ।। जान पड़ता है कवि ने जेल में अनेक स्तवन बनाये १ देखो, वृन्दावन विलास की प्रस्तावना । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ अनेकान्त इसमें रन्ध्र' शब्द से लिए गये हैं। क्योकि मल को तत्वार्थ-विषय के जानने की विशेष रुचि को देखकर द्वार छिद्र होते हैं। जैसा 'नव द्वार वह घिनकारी' स्व-पर-हित के लिए गृध्र पिच्छाचार्य के तत्त्वार्थ सूत्र वाक्य से प्रकट है। की 'अर्थ प्रकाशिका' नाम की टीका पांच हजार श्लोकों कवि का अन्तिम जीवन कैसा बीता, और देहोत्सर्ग के परिमाण में बना कर पं० सदासुख जी के पास जयपुर कब हुप्रा यह कुछ ज्ञात नहीं हुमा। भेजी थी। तब सदासुख जी ने उसे ग्यारह हजार श्लोक तेवीसवें कवि जोगीदास है । यह सलेमगढ़ के निवासी प्रमाण बनाकर वापिस उन्हीं के पास मारा भेज दी थी। जैसा कि उसके प्रशस्ति पद्यों से प्रकट है। थे। इनको जाति अग्रवाल थी। इनकी एकमात्र कृति 'अष्टमी कथा' पंचायती मन्दिर खजूर मस्जिद दिल्ली में पूरब में गगातट धाम, अति सुन्दर पारा तिस नाम । मौजूद है, जिसका मन्त निम्न प्रकार है : तामैं जिन त्यालय लस, अग्रवाल जैनी बहु बसें ॥१३ "सब साहन प्रति गड़मलसाह, तातन सागर कियो भवलाह। बहु ज्ञाता तिनमै जु रहाय, नाम तासु परमेष्ठि सहाय । पोहकरणदास ता तनों, नन्दो जब लग ससि-सूरज तनौं। जन प्रन्यमें रुचि बह कर, मिथ्या धरम न चित में परं ॥१४ गुरु उपदेश करी यह कथा, जीवो चिर........ 'सदा । सो तत्त्वारथ सूत्र की, रची वचनिका सार । अग्रवाल रहे गढ़ सलेम, जिनवाणी यह है नित नेम । नाम जु अर्थ प्रकाशिका, गिणतो पांच हजार ॥१५ सुणि कहा मुणि पुष्वह मास, कथा कही पंडित जोगीदास ॥" सो भेजी जयपुर विष, नाम सदासुख जास । चाबासव विद्वान निहालचन्द अग्रवाल हैं। इन्होंने सो पूरण ग्यारह सहस, करि भेजी तिन पास ||१६ सं. १८६७ में 'नयचक्र' की भाव प्रकाशिनी बनाई थी। अग्रवाल कुल कीरतिचंद, जु पारे मांहि सुवास । पच्चीसवें विद्वान पं० परमेष्ठी सहाय हैं, जो पारा परमेष्ठीसहाय तिनके सूत, पिता निकटकरि शास्त्राभ्यास ।१७ के निवासी और श्रावक कीरतचन्द्र के पुत्र थे। इन्होने कियो ग्रन्थ अधिगम सु सदासुख रास नहुँ दिश अर्थ प्रकाश । अपने पिता के पास जैन सिद्धान्त का अच्छा ज्ञान प्राप्त -अर्थ प्रकाशिका प्रस्तावना किया था। उस समय ये पारा मे अच्छे विद्वान समझे छब्बीसवे गद्य भाषा के टीकाकार नन्दराम अग्रवाल जाते थे । सं० १८१४ में परमेष्ठी सहाय पारा से काशी हैं, जो गोयलगोत्री थे। इन्होने प्रागरा मे स. १६०४ में पाये थे, उस समय वहाँ जैनधर्म के ज्ञातानों को अच्छी शैली थी। पारा में प्रापको धार्मिक चर्चा बाबू सीमधर योगसार की टीका बनाई थी। टीकाकार ने प्रागरा के दास जी से हुआ करती थी। इसका उल्लेख कवि वृन्दा ताजगंज के पाश्वनाथ मन्दिर में स्थित भगवान पार्श्वनाथ वनजी ने किया है। इन्होंने साधर्मी भाई जगमोहनदास की श्यामवर्ण की प्रतिमा की अपूर्व महिमा का भी उल्लेख किया है। और वहां के अच्छे शास्त्र मण्डार का १ देखो, बाबा दुलीचन्द का प्रन्थ भण्डार ग्रंथसूची भी उल्लेख किया है। नन्दराम जी ने टीका को उम्मेवी भा०४ पृ. १३४ । लाल के सहयोग से पूर्ण किया था । २ संवत चौरानूमें सुप्राय, मारे ते परमेष्ठी सहाय। संवत उन्निस शतक ऊपर, अंक घरो तुम चार सुधार। मध्यातमरंग पगे प्रवीन, कवितामें मन निशिदिवस लीन। फागुन सेत पुनीत नवीमी चन्द्रवार तीसरा पहार (?) सज्जनता गुन गरुवे गंभीर । कुल अग्रवाल सुविशालधोर। शुभ नक्षत्र विर्ष पूरणकर राजा प्रजा सर्व सुखकार । ते मम उपगारी प्रयमवर्म, सांचे सरधानी विगत भर्म । १७५ चन्द्रसूर जबलों तबलों इह ग्रंथ रह्यो वषको दातार | -प्रवचनसार प्रशस्ति (क्रमश:) Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर और बुद्ध का परिनिर्वाण - अणुव्रत परामर्शक मुनिश्री नगराज महावीर का परिनिर्वाण पावा में और बुद्ध का परि- व देवता शोकातुर होते है । इतना अन्तर अवश्य है कि निर्वाण कुसिनारा में हमा। दोनों क्षेत्रों को दूरी के विषय महावीर की अन्त्येष्टि में देवता ही प्रमुख होते है, मनुष्य में दीघ-निकाय-प्रदकथा (सुमंगलविलासिनी) बताती गौण । बुद्ध को अन्त्येष्टि में दीखते रूप में सब कुछ मनुष्य है-"पावानगरतो तीणि गावुतानि कुसिनारानगरं" ही करते है, देवता अदृष्ट रहकर योगभूत होते हैं; देवता मर्थात् पावानगर से तीन गव्यूत (तीन कोस) कुसिनारा क्या चाहते है। यह महंत भिक्षु मल्लों को बताते रहते हैं। था। बुद्ध पावा के माध्याह्न मे विहार कर सायंकाल देवतामों के सम्बन्ध मे बौदों की उक्ति परिष्कारक कुसिनारा पहुँचते हैं। वे रुग्ण थे, असक्त थे, विश्राम लगती है। ले-लेकर वहाँ पहुँचे । इससे भी प्रतीत होता है कि पावा से अन्तिम वर्ष का विहार दोनों का ही राजगृह से कुसिनारा बलुत ही निकट था। कपिलवस्तु (लुम्बिनी) , होता है। महावीर पावा वर्षावास करते है मौर कार्तिक और वैशाली (क्षत्रियकुण्डपुर) के बीच २५० मील की प्रमावस्या की शेष गत मे वहीं निर्वाण प्राप्त करते है। दूरी मानी जाती है१ । जन्म की २५० मील की क्षेत्रीय दूरी निर्वाण मे केवल ६ मील की ही दूरी रह गई । पावा और राजगृह के बीच का कोई घटनात्मक विवरण नही मिलना और न कोई महावीर की रुग्णता का भी कहना चाहिए, साधना से जो निकट थे, वे क्षेत्र से भी उल्लेख मिलता है । बुद्ध का राजगृह से कुसिनारी तक का निकट हो गये। विवरण विस्तृत रूप से मिलता है। उनका शरीरान्त भी ___ दोनो की ही अन्त्येष्टि मल्ल-क्षत्रियो द्वारा सम्पन्न सुकर-मद्दव से उद्भुत व्याधि से होता है। उनकी निर्वाणहोती है। महावीर के निर्वाण-प्रसंग पर नव मल्लकी, नव तिथि वैशाखी पूणिमा मुख्यतः मानी गई है, पर लिच्छवी, अठारह काशी-कौशल के गणराजा पौषधव्रत सर्वास्तिवाद-परम्परा के अनुसार तो उनकी निर्वाण-तिथि मे होते है और प्रातः काल अन्त्येष्टिक्रिया मे लग जाते कार्तिक पूर्णिमा है१ । है । बुद्ध के निर्वाण-प्रसग पर मानन्द कुसिनारा मे जाकर ___ निर्वाण से पूर्व दोनो ही विशेष प्रवचन करते है। सस्थागार मे एकत्रित मल्लो को निर्वाण को सूचना देते महावीर का प्रवचन दीर्घकालिक होता है और बुद्ध का हैं। मानन्द ने बुद्ध के निर्वाण के लिए कुसिनारा को स्वल्पकालिक । प्रश्नोत्तर चर्चा दोनों की विस्तृत होती उपयुक्त भी नही समझा था; इससे प्रतीत होता है कि है। अनेक प्रश्न शिष्यों द्वारा पूछे जाते हैं और दोनों द्वारा मल्ल बुद्ध की अपेक्षा महावीर से अधिक निकट रहे हो। यथोचित उत्तर दिये जाते हैं। दोनों ही परम्परामों के इन्द्र व देव-गण दोनों ही प्रसंगों पर प्रमुखता से भाग कुछ प्रश्न ऐसे लगते हैं कि वे मौलिक न होकर पीछे से लेते हैं। महावीर की चिता को अग्निकुमार देवता जड हुए हैं। लगता है, जिन बातो को मान्यता देनी थी, प्रज्वलित करते हैं और मेधकुमार देवता उमे शान्त करते वे बातें महावीर और बुद्ध के मुह से कहलाई गई । मन्तिम हैं; बुद्ध की चिता को भी मेघकुमार देवता शान्त करते रात मे दोनो ही क्रमशः राजा हस्तिपाल और मुभद्र हैं। दोनों के ही दाढ़ा प्रादि अवशेष ऊर्वलोक और परिव्राजक को दीक्षा प्रदान करते है । पाताललोक के इन्द्र ले जाते है । दोनों ही प्रसंगों पर इन्द्र निर्वाण-गमन जानकर महावीर के अन्तेवासी गणधर १. राहुल सांकृत्यायन, सूत्रकृतांग सूत्र की भूमिका पृ० १ १. EJ. Thomas, Life of Buddha, P. 158. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ अनेकान्त गौतम मोहगत होते है, रुदन करते है ; बुद्ध के उपस्थाक घटनाएं केवल यह कह कर बता दी गई है-"उस रात प्रानन्द मोहगत होते हैं और रुदन करते है। गौतम इस को ऐसा हमा।" बुद्ध का निर्वाण-प्रसंग अपेक्षाकृत अधिक मोह-प्रसंग के अनन्तर ही केवली हो जाते हैं। प्रानन्द कुछ सयोजित लगतार विस्त भी। काल पश्चात् प्रहंत हो जाते हैं। प्रस्तुत प्रकरण मे महावीर और बुद्ध; दोनों के निर्वाणआयुष्य-बल के विषय मे महावीर और बुद्ध; सर्वथा प्रसंग क्रमशः दिये जाते हैं। मूल प्रकरणों को सक्षिप्त तो दोनों पृथक् बात कहते है । महावीर कहते हैं-"प्रायुष्य मुझे करना ही पड़ा है । साथ-साथ यह भी ध्यान रखा बल बढ़ाया जा सके, न कभी ऐसा हमा है और न कभी गया है कि प्रकरण अधिक से अधिक मूलानुरूपी रहे । ऐसा हो सकेगा।" बुद्ध कहते हैं-"तथागत चाहें तो कल्प महावीर के निर्वाण-प्रसंग में कल्पसूत्र के अतिरिक्त भर जो सकते है।" महावीर का निर्वाण-प्रसंग मूलत: कल्पसूत्र मे उपलब्ध भगवतीसूत्र, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र, सौभाग्यपञ्चम्यादि पर्व होता है । कल्पसूत्र से ही वह टीका, चूणि, व चरित्र-ग्रन्थों कथा संग्रह, महावीर चरियं प्रादि ग्रन्थों का भी प्राधार में पल्लवित होता रहा है । कल्पसूत्र महावीर के सप्तम लेना पड़ा है । बुद्ध के निर्वाण-प्रसंग में महापरिनिव्वान पट्टधर प्राचार्य भद्रबाहु द्वारा सकलित माना जाता है। सुत ही मूलभूत प्राधार रहा है । महत्त्वपूर्ण उक्तियों के वैसे कल्पसूत्र मे देवद्धि क्षमाश्रमण तक कुछ सयोजन होता मूल पाठ भा नवी मूल पाठ भी दोनों प्रसगों के टिप्पण मे दे दिये गये है । रहा है, ऐसा प्रतीत होता है । देवद्धि क्षमाश्रमण का समय महावीर ईस्वी सन् ४५३ माना गया है; पर इसमे तनिक भी अन्तिम वर्षावास सन्देह नही कि महावीर का निर्वाण-प्रसग उस सूत्र का राजगृह से विहार कर महावीर अपापा (पावापुरी)१ मूलभूत अग ही है । भद्रबाहु का समय ईसा पूर्व ३७१ पाये । समवशरण लगा। भगवान् ने अपनी देशना मे ३५७ का माना गया है। बताया-"तीर्थकरो की वर्तमानता मे यह भारतवर्ष धनबुद्ध की निर्वाण-चर्चा दीघनिकाय के महापरिनिवान- धान्य से परिपूर्ण, गावो और नगरों से व्याप्त स्वर्ग-सदृश मुत्त में मिलती है। इससे ऐसा लगता है कि यह भी होता है। उस समय गाव नगर जैसे, नगर देवलोक जैसे, संगहीत प्रकरण है । दीघनिकाय मूल त्रिपिटक-साहित्य का कोटम्बिक राजा जैसे प्रौर राजा कुवेर जैसे समृद्ध होते अग है, पर महापरिनिध्वानसुत्त के विषय मे राईस डेविड्स१ सर है। उस समय प्राचार्य इन्द्र समान, माता-पिता देव ई० जे० थोमसर विंटरनित्ज ३ का भी अभिमत है कि १ समान, सास माता समान और श्वसुर पिता समान होते वह कुछ काल पश्चात् सयोजित हमा है। इसका अर्थ यह हैं। जनता धर्माधर्म के विवेक से युक्त, विनीत, सत्यभी नहीं कि महापरिनिव्वान सुत्त बहुत अर्वाचीन है। सम्पन्न, देव और गुरु के प्रति समर्पित, सदाचार-युक्त दोनो प्रकरणो की भाव, भाषा और शैली से भी उनकी होती है। विज्ञजनो का प्रादर होता है। कुल, शील तथा काल-विषयक निकटता व्यक्त होती है। प्रालंकारिकता विद्या का अंकन होता है। ईति, उपद्रव प्रादि नही होते । प्रौर अतिशयोक्तिवाद भी दोनो मे बहुत कुछ समान है। राजा जिन-धर्मी होते है। महावीर का निर्वाण-प्रसंग बहुत संक्षिप्त व कहीं-कही "अब जब तीर्थकर, चक्रवर्ती, वासुदेव प्रादि अतीत अक्रमिक-सा प्रतीत होता है। कुछ घटनाएं काल-क्रम की हो जायेगे, कैवल्य और मन: पर्ययज्ञान का भी विलोप शृखला में जूडी ई-सी प्रतीत नहीं होती। बहुत सारी हो जायेगा । तब भारतवर्ष की स्थिति क्रमशः प्रतिकूल ही १. Phys Davids, Dialogues of Buddha, Vol.II, होती जायेगी। मनुष्य में क्रोध प्रादि बढेगे; विवेक हा P.72. घटेगा। मर्यादाएं छिन्न-भिन्न होंगी; स्वैराचार बढेगा, धर्म घटेगा, अधर्म बढ़ेगा। गाव इमान जैसे, नगर प्रेत२. EJ. Thomas, Life of Buddha, P. 156. 3. Indian Literature, Vol. 11, Pp. 37-42. १. यह कौन-सी पावा थो, कहां थी, प्रादि वर्णन देखे." Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगरान् महावीर और बुद्ध का परिनिर्वाण लोक जैसे, सज्जन दास जैसे व दुर्जन राजा जैमे होने लगेंगे । मत्स्य न्याय से सबल दुर्बल को सताता रहेगा । भारतवर्ष बिना पतवार की नाव के समान डावाडोल स्थिति में होगा। चोर अधिक चोरी करेंगे, राजा अधिक कर लेगा व न्यायाधीश अधिक रिश्वत लेगे । मनुष्य धनधान्य मे अधिक भाशक्त होगा । "गुरुकुलवास की मर्यादा मिट जायेगी। गुरु शिष्य को शास्त्रज्ञान नहीं देंगे। शिष्य गुरुजनो की सवा नही करेंगे । पृथ्वी पर क्षुद्र जीव-जन्तुम्रों का विस्तार होगा । देवता पृथ्वी से अगोचर होते जायेगे । पुत्र माता-पिता की सेवा नही करेंगे, कुल-बधुएं आचार-हीन होगी । दान, जीन तप र भावनाकी हानि होगी । भिक्षु भिक्षुणियो मे पारम्परिक कलह होते झूठे तोल-मापका प्रचलन होगा। मंत्र, तंत्र, औषधि, मरिण, पुष्प, फल, रस, रूप, प्रायुष्य, ऋद्धि प्राकृति, ऊचाई; इन सब उत्तम बातोमे हास होगा । "आगे चलकर दुपम-सुपमा नामक छठे प्रारे मे तो इन सबका अत्यन्त हानि होगी। पंचम दुम पारे के अन्स में दुःप्रसव नामक प्राचार्य होगे, फल्गुश्री साध्वी होगी, मागिल धावक होगा, सत्यश्री याविका होगी। इन चार मनुष्यों का ही चतुविध संघ होगा । उस समय मनुष्य का शरीर दो हाथ परिमाण धीर धायुष्य बीस वर्ष का होगा । उस पंचम प्रारे के अन्तिम दिन प्रातः काल चारि धर्म, मध्याह्न राजधर्म और अपराह्न मे प्रग्नि का विच्छेद होगा। १८९ करेंगे। मास और मछलियो के आधार पर वे अपना जीवन-निर्वाह करेंगे। 'इस छठे मारे के पश्चात् उत्सपि काल-बचा का प्रथम द्वारा प्रायेगा। यह ठीक वैसा ही होगा, जैसा अवसर्पिणी काल चक्राधं का छठा द्वारा था। इसका दूसरा द्वारा उसके पचम प्रारे के समान होगा। इसमें शुभ का धारम्भ होगा। इसके प्रारम्भ में दुष्कर संवर्तक मेथ वरसेगा, जिससे भूमि की उष्मा दूर होगी। फिर क्षीर-मेघ बरसेगा, जिससे धान्य का उद्भव होगा। तीसरा पूरा-मेघ बरसेगा जो पदार्थों मे स्निग्धता पैदा करेगा। चौथा प्रमृत मेघ बरसेगा, इससे नानागुणोपेत श्रौषधिया उत्पन्न होगी। पांचवा रस-मेघ बरसेगा, जिससे पृथ्वी मे सरसता बढेगी। ये पांचो ही मेघ सात-सात दिन तक निरन्तर वरसने वाले होगे३ । " वातावरण फिर अनुकूल बनेगा। मनुष्य उन तट विवरो से निकल कर मैदान में बसने लगेगे । क्रमशः उनमे रूप, बुद्धि, आयुष्य आदि की वृद्धि होगी। दुषमसुपमा नामक तृतीय श्रारे मे ग्राम, नगर आदि की रचना होगी। एक-एक कर तीर्थकर होने लगेगे । इस उत्पपिणी काल के चौथे आरे में यौगलिक धर्म का उदय हो जायेगा । मनुष्य युगल रूप मे वंदा होगे, युगल रूप मे गये। उनके बडे-बडे शरीर और बड़े-बड़े प्रायुष्य होंगे। कल्पवृन उनकी आमापूर्ति करेंगे प्राप्य धौर भवगाहना से बढ़ता हुआ पाचवा और छठा द्वारा भायेगा | इस प्रकार यह उत्सर्पिणी काल समाप्त होगा । एक अवसर्पिणी श्रीर एक उमापणी काल का एक काल चक्र होगा । ऐसे कालचक्र प्रतीत मे होते रहे है पौर मनागत में होते रहेंगे जो मनुष्य धर्म की वास्तविक धारावना करते हैं, वे इस काल चक्र को तोड़कर मोक्ष प्राप्त करेंगे, भ्रात्म-स्वरूप में लीन होहु४ ।" "२१०० वर्ष के पंचम दुपम आरे के व्यतीत होने पर इतने ही वर्षों का छठा दु.पम-दुपमा धारा प्रायेगा । धर्म, समाज, राज व्यवस्था आदि समाप्त हो जायेगं । पिता-पुत्र के व्यवहार भी लुप्तप्रायः होगे। इस काल के भारम्भ मे प्रचण्ड बायु चलेगी तथा प्रलयकारी मेयर बरमेगे। इससे मानव और पशु बीज मात्र ही शेष रह जायेंगे। वे गंगा और सिन्धुर के तट-विवशे मे निवास १. भगवती सूत्र, शतक ७, उद्ददेशक ६ मे इन मेघों को ३. क्रमश: दो मेघों के बाद मात दिनो का 'उघाड़' होगा। इस प्रकार तीसरे पर पौधे मेघ के पश्चात् फिर मात दिनो का 'उपाय' होगा। कुल मिला कर पाचों मेघों का यह ४६ दिनो का क्रम होगा । अरसमेध, विरसमेध, क्षारमेघ, खट्टमेघ, अग्निमेघ, विज्जुमेघ, विषमेष, प्रसनिमेष श्रादि नामो से बनाया है। २. उस समय गंगा और सिधु का प्रवाह रथ-मागं जितना ही विस्तृत रह जायेगा। -भग०सूत्र शतक ७, उद्देशक ६ ४. नेमिचन्द्रसूरि कृत महावीर चरिय के आधार से । - जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति सूत्र, वक्ष २, काल अधिकार Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० अनेकान्त महवीर ने यह अपना मन्तिम वर्षावास भी पावा- मुक्त अवस्था को प्राप्त हुए । पूरी में ही किया वहा हस्तिपाल नामक राजा था। उसकी वह वर्षावास का चतुर्थ मास था, कृष्ण पक्ष था, रज्जुक सभा (लेख-शाला १) में वे स्थिरवास से रहे। पन्द्रहवां दिवस था, पक्ष की चरम रात्रि प्रमावस्या थी। कार्तिक अमावस्या का दिन निकट पाया। अन्तिम देशना एक युग के पाच संवत्सर होते हैं, 'चन्द्र' नामक वह दूसरा के लिए पन्तिम समवशरण की रचना हुई। शक्र ने खड़े । संवत्सर था । एक वर्ष के बारह मास होते हैं, उनमें वह होकर भगवान् की स्तुति की । तदनन्तर राजा हस्तिपाल 'प्रीतिवर्द्धन' नाम का चौथा मास था। एक मास में दो ने खड़े होकर स्तुति की। पक्ष होते है, वह 'नन्दीवद्धन' नाम का पक्ष था। एक पक्ष अन्तिम देशना व निर्धारण में पन्द्रह दिन होते हैं, उनमें 'मग्निवेश्य' नामक वह भगवान् ने अपनी अन्तिम देशना प्रारम्भ की। उस पन्द्रहवां दिन था, जो 'उपशम' नाम से भी कहा जाता देशना में ५५ अध्ययन पूण्य-फल विपाक के और ५५ है। पक्ष में पन्द्रह रातें होती है, वह 'देवानन्दा' नामक मध्ययन पाप-फल विपाक के कहे२; वर्तमान मे जो सुख पन्द्रहवी रात थी, जो 'निरति' नाम से भी कही जाती विपाक और दुख विपाक नाम से भागमरूप है। ३६ है। उस समय अर्च नाम का लव था, मुहूर्त नाम का अध्ययन प्रष्ठ व्याकरण के कहे ३, जो वर्तमान में उत्तरा- प्राण या मित्र नामा : ध्ययन-पागम कहा प्रधान नामक मरुदेवी माता का अध्य- था७ । एक अहोरात्र में तीस मुहर्त होते है, वह सर्वार्द्ध एन कहते-कहते भगवान् पर्यकासन४ (पद्मासन) मे स्थिर नजमावान नारायण मिशन ५. तेण कालेणं तेणं समयेणं......"वाबत्तखिसाइ सव्वारह, बादर मनोयोग और वचनयोग को रोका। सूक्ष्म उय पाल इत्ता, खीणे वेयणिज्जाउयनामगुत्ते, इमीसे काययोग में स्थित रह बादर काय योग को रोका; वाणी प्रोसप्पिणीए दूसमसुसमाए समाए बहुविइकंताए, और मन के सूक्ष्म योग को रोका। इस प्रकार शुक्ल तिहिं वासेहि अद्धनवमेहि व मासेहि सेसे हिं, पाद ए ध्यान का "सूक्ष्पक्रियाऽप्रतिपाति" नामक तृतीय चरण मज्झिमाए हत्थिवालस्स रण्णो रज्जुमसभाए, एगे प्राप्त किया। तदनन्तर मूक्ष्म काययोग को रोककर मबीए, छ?ण भत्तण अपाणएणं, साइणा नक्खत्तेणं "समुच्छिन्नक्रियाऽनिवृत्ति" नामक शक्न-ध्यान का चतुर्थ जोगमुवागएणं पच्चूसकाल समयसि, सपलियकनिसणे, चरण प्राप्त किया। फिर अ, इ, उ, ऋ,ल के उच्चारण पणपन्न प्रज्झयरणाइ कल्लाणफलविवागाइ पणपन्न काल जितनी शैलेशी-अवस्था को पारकर और चतुर्विध प्रज्झयणाइ पावफलविवागाई छत्तीमं च अयुट्ठप्रघाती कर्म-दल का क्षयकर भगवान् महावीर सिद्ध बुद्ध, वागरणाइ वागरित्ता, पहाणं नाम प्रज्झयण विभावे माणे कालगए विइक्कते समुज्जाए छिन्न-जाइ-जरा१. इसका शुक्ल शाला भी अर्थ किया जाता है । मरण-बंधणे सिद्धे, बद्ध मृत्ते अतगडे परिनिव्वुडे २. समवायाग सूत्र, सम० ५५, कलासूत्र, सू० १४७ सव्वदुक्खप्पहीणे । कल्पसूत्र, सू० १४७, उत्तराध्ययन चूणि, पत्र २८३; -कल्पसूत्र, सू० १४७ उत्तराध्ययन सूत्र के अन्तिम अध्ययन की अन्तिम ६. ७ प्राण-१ स्तोक गाथा भी इस बात को स्पष्ट करती है ७ स्तोक-१ लव इह पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिव्वुए। छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धि य सम्मए । ७७ लव=१ मुहूर्त यह विशेष उल्लेखनीय है कि यहाँ महावीर को 'बुद्ध' -भगवती सूत्र, शतक ६, उद्देशक ७ भी कहा गया है। ७. शकुन्यादि करण चतुष्के तृतीयमिदम् । अमावास्यो. ४. संपलियंकनिसण्णे-सम्यक पद्मासनेनोपविष्ट तराद्धेऽवश्यं भवत्येतद् । -कल्पसूत्र, कल्पार्थबोधिनी, पत्र १२३ -कल्पार्थबोधिनी, पत्र ११२ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर और बुद्ध का परिनिर्वाण १६१ सिद्धि नामक उनतीसा मुहूर्त१ था। उस समय स्वाति करेगा।" नक्षत्र के साथ चन्द्र का योग था। शक्र द्वारा प्रायु-वृद्धि को प्रार्थना प्रश्न चर्चाएं जब महावीर के परिनिर्वाण का अन्तिम समय निकट भगवान महावीर की यह मन्तिम देशना सोलह प्रहर प्राया, इन्द्र का प्रासन प्रकम्पित हमा। देवो के परिवार को थी२ । भगवान् छट्ठ-भक्त से उपोसित थे३ । देशना से वह वहा पाया। उसने प्रथपूरित नेत्रो से महावीर को के अन्तर्गत अनेक प्रश्न-चर्चाएं हुई। राजा पुण्यपाल ने निवेदन किया-"भगवन् ! अापके गर्भ, जन्म, दीक्षा अपने ८ स्वप्नों का फल पूछा। उत्तर सुनकर संसार से और कैवल्यज्ञान में हस्तोत्तरा नज्ञत्र था। इस समय उसमें विरक्त हा और दीक्षित हुमा४। हस्तिपाल राजा भी भस्म-ग्रह सक्रान्त होने वाला है। प्रापके जन्म-नक्षत्र में प्रतिबोध पाकर दीक्षित हुआ। पाकर वह ग्रह दो सहस्र वर्षों तक भापके संघीय प्रभाव इन्द्रभूति गौतम ने पूछा-"भगवन् ! आपके परि- के उत्तरोत्तर विकास मे बहुत बाधक होगा दो सहस्र वर्षों निर्वाण के पश्चात् पांचवा आरा कब लगेगा ?" भगवान् के पश्चात् जब वह अापके जन्म-नक्षत्र से पृथक होगा, ने उत्तर दिया-"तीन वर्ष साढ़े पाठ मास बीतने पर।" तब श्रमणों का, निर्ग्रन्थो का उत्तरोत्तर पूजा-सत्कार गौतम के प्रश्न पर पागामी उत्सपिणी काल मे होने वाले बढेगा । अत: जब तक वह आपके जन्म-नक्षत्र में संक्रमण तीर्थकर, वासुदेव, बलदेव, कुलकर आदि का भी नाम- कर रहा है, तब तक आप अपने प्रायुष्य बल को स्थित ग्राह भगवान् ने परिचय दिया। रखे । अापके साक्षात् प्रभाव से वह सर्वथा निष्फल हो गणधर सुधर्मा ने पूछा-"भगवन् ! कैवल्य-रूप सूर्य जायेगा।" इस अनुरोध पर भगवान् ने कहा-'शक! कब तक अस्तंगत होगा?" भगवान् ने कहा-"मेरे से आयुष्य कभी बढाया नहीं जा सकता। ऐसा न कभी बारह वर्ष पश्चात् गौतम सिद्ध-गति को प्राप्त होगा, मेरे हमा है, न कभी होगा। दुपमा काल के प्रभाव से मेरे से बीस वर्ष पश्चात् तुम सिद्ध-गति प्राप्त करोगे, मेरे से शासन मे बाधा तो होगी ।" चौसठ वर्ष पश्चात् दूसरा शिष्य जम्बू अनगार सिद्ध-गति औ को प्राप्त करेगा। वही अन्तिम केवली होगा। जम्बू के उसी दिन भगवान महावीर ने अपने प्रथम गणधर पश्चात् क्रमशः प्रभव, शय्यम्भव, यशाभद्र, सभूति विजय, इन्द्रभूति गौतम को देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध देने के भद्रबाहु, स्थूलभद्र चतुर्दश पूर्वधर होंगे । इनमे से शय्यम्भव लिए अन्यत्र भेज दिया। अपने अन्तेवासी शिष्य को दूर पूर्व-ज्ञान के माधार पर दशवकालिक प्रागम की रचना भेजने का कारण यह था कि मृत्यु के समय वह अधिक १. संवत्सर, मास, पक्ष, दिन, रात्रि, महत्तं : इनके सह-विह्वन न हो। इन्द्रभूति ने देवशर्मा को प्रतिबोष समग्र नामों के लिए देखें; कल्पसूत्र, कल्पार्थबोधिनी, ५. सौभाग्यपञ्चम्यादि पर्व कथा संग्रह, पत्र १०६; इस पत्र ११३। टीकाकार ने इन समन नामो को 'जन ग्रन्थ के रचयिता ने महावीर की इस भविष्यवाणी शैली' कहकर अभिहित किया है। को क्रमश. हेमचन्द्राचार्य तक पहुँचा दिया है। २. षोडश प्रहरान् यावद् देशनां दत्तवान् ६. "जिनेश ! तव जन्मर्श गन्ता भस्मकदुग्रहः । -सौभाग्यपञ्चम्यादि पर्व कथा सग्रह, पत्र १००%, बाधिष्यते स वर्षाणा, सहस्रं तु शासनम् ॥ ख. सोलस प्रहराइ देसणं करेइ तस्य सङ्क्रामणं पावदिवलम्बस्व तत: प्रभो। -विविधतीर्थकल्प, पृ० ३६ भवत्प्रभाप्रभावेण, स यथा विफलो भवेत् ।। ३. कल्पसूत्र; १४७; नेमिचन्द्रकृत महावीर चरित्र, स्वाम्यूचे शक ! केनाऽपि नायु सन्धीयते क्वचित् ।। पत्र, दुषमाभावतो बाधा, भाविनी मम शासने ।। ४. सौभाग्यपञ्चम्यादि पर्व कथा संग्रह, पत्र १००.१०२ -कल्पसूत्र, कल्पार्थबोधिनी, पत्र १२१ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ अनकान्त दिया । उन्हें भगवान् के परिनिर्वाण का सम्वाद मिला । इन्द्रभूति के श्रद्धा-विभोर हृदय पर वज्राघात-सा लगा । अपने आप बोलने लगे "भगवन् ! यह क्या किया ? इस अवसर पर मुझे दूर किया। क्या मैं बालक की तरह मापका अंचल पकडकर ग्रापको मोक्ष जाने से रोकता ? क्या मेरे स्नेह को अपने कृत्रिम माना? मैं साथ हो जाता, तो क्या सिद्ध शिला पर संकीर्णता हो जाती ? क्या मैं आपके लिए भार हो जाता ? मैं अब किसके चरणों में प्रणाम करूँगा ? किससे अपने जगत् और मोक्ष विषयक प्रश्न करूंगा ? किसे मैं "दहूँगा? मुझे अब कौन गौतम ! गौतम !" कहेगा ?" इस भाव-विहुलता में बहते बहते इन्द्रभूति ने अपने आपको सम्हाला सोचने लगा-"अरे यह मेरा कैसा मोह ? वीतरागों के स्नेह कैसा ? यह सब मेरा एक पाक्षिक मोह मात्र है। बस ! अब मैं इसे छोड़ता हूँ । मैं तो स्वयं एक हूँ । न मैं किसी का हूँ । न मेरा यहाँ कुछ भी है । राग और द्वेप विकार मात्र है । समता है । समता ही श्रात्मा का चालम्बन है ।" इस प्रकार आत्मरमण करते हुए इन्द्रभूति मे तत्काल केवल्य प्राप्त किया। जिस रात को भगवान् महावीर का परिनिर्वाण हुआ, उस रात को नव मल्लकी नव लिखवी पठारह काशी - कौशल के गणराजा पौषध व्रत मे थे२ । निर्धारण कल्याणक भगवान की अन्त्येष्टि के लिए सुरो के, असुरो के सभी इन्द्र अपने-अपने परिवार से वहाँ पहुँचे । सत्र की घाँखों में झांसू थे । उनको लगता था - हम श्रनथ हो गये है । शक्र प्रादेश से देवता नन्दन-वन प्रादि से गोशीपं चंदन लाये । क्षीर सागर से जल लाये । इन्द्र ने भगवान् १. कल्पसूत्र, कल्पार्थबोधिनी, पत्र १९४ , २. जं रर्याणि च ण समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सम्यक्प्पहीणे व रवि नव मनई नव सेन्छई काशी-कोसलगा बट्टारस-वि गणरायानो धमावासाए पाराभोय पोहोचवासं पविमु - कल्पसूत्र, सू० १३२ के शरीर को क्षीरोदक से स्नान कराया विलेपन आदि किये, दिव्य वस्त्र प्रोढ़ाये । तदनन्तर भगवान् के शरीर को दिव्य शिविका में रखा । ' इन्द्रों ने वह शिविका उठाई देवों ने जय जय नि के साथ पुष्प वृष्टि की। मार्ग में कुछ देवांगनाएं औौर देव नृत्य करते चलते थे, कुछ देवमणि रत्न मावि से भगवान् की कर रहे थे। धावक-धाविकाएं भी शोक-बिल होकर साथ-साथ चल रहे थे । यथास्थान पहुच कर शिविका नीचे रखी गई। भगवान् के शरीर को गोशीषं चन्दन की चिता पर रखा गया। धग्निकुमार देवों ने धरित प्रकट की । वायुकुमार देवों ने वायु प्रचालित की । अन्य देवों ने घृत और मधु के घट चिता पर ठंडेने जब प्रभु का शरीर भस्मसात हो गया तो मेघकुमार देवों ने क्षीरसागर के जल से चिता शान्त की । शकेन्द्र तथा ईशानेन्द्र ने ऊपर की दायी और बांयी दादों का संग्रह किया। चमरेन्द्र और बलीन्द्र ने नीचे की दाढ़ी का सग्रह किया अन्य देवो ने अन्य दात और अस्थि-खण्डों का संग्रह किया मनुष्यो ने भस्म लेकर सन्तोष माना। अन्त में चिता-स्थान पर देवताओं ने रत्नमय स्तूप की सघटना की ३ । दोपमालोत्सव । C जिस दिन भगवान् का परिनिर्वाण हुम्रा, देव धौर देवियो के गमगागमन से भू-मण्डल बालोकित हुआ४ । मनुष्यों ने भी दीप सोये इस प्रकार दीपमालाप का का प्रचलन हुआ५ जिस रात को भगवान् का परिनिर्वाण हुआ, उस रात को सूक्ष्म कुंधु जाति का उद्भव हुआ। यह इस बात का संकेत था कि भविष्य में सूक्ष्म जीव-जन्तु बढ़ते जायेंगे और संयम दुराराध्य होता जायेगा । अनेक भिक्षु भिक्षुणियों ने इस स्थिति को समझकर उस समय ग्रामरण अनशन किया६ | ३. ( अगले अंक मे समाप्त) परि पर्व १० सर्ग ३ के आधार से ४ कल्पसूत्र सूत्र १३०-३१ ५ सौभाग्यपञ्चम्यादि पर्व कथा संग्रर पत्र १००-११० ६. कल्पानसून सून १२६-३७ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री बा. नानालाल के. मेहता एडवोकेट का महत्वपूर्ण पत्र श्रीमान्, समय की गति बदल रही है, बम्बई भारत का विशाल नगर है, यहाँ पर मैं देखता हूँ', हर शख्स सुख प्राप्ति के लिये शुभ समग्री प्राप्त करने को दौड़ता है, परन्तु इतने पर भी वह सुख प्राप्त नहीं कर सकता, क्योकि मुख कहा है, कैसा है, व कैसे प्राप्त हो सकता है यह वह समझता ही नही है क्योकि उमे विद्वानो द्वारा ऐसा उत्तम साहित्य और उपदेश प्राप्त नहीं होता है, अभी दीपावली के शुभ अवसर पर मैंने एक क्रश्चियन को उसके धर्म का साहित्य मुफ्त पाम बाजार में बाटते हुए देखा और उसने मुझे भी दिया, परन्तु जो जैन समाज गौरव के साथ दीवाली भगवान श्री महावीर के निर्वाण का पवित्र त्योहार मनाती है, वह भगवान के सदेश का जो कि जन समाज के सुख का कारण बन सकता है, जन समाज के नजदीक पहुँचाना ही नहीं चाहती, इस युग में अपने व आम लोगों के हित के लिये जैन साहित्य का प्रचार होना बहुत ही प्रावश्यक है प्रतः आप से निवेदन है कि आप इस विषय मे-अपने "अनेकान्त" पत्र में कुछ सामग्री प्रकाशित करने की कृपा करेगे। अनेकान्त" पूरे जैन समाज का एक बहुत ही उच्च कोटि का पत्र है जो हमारे सामने बड़ी मेहनत और परिश्रम के साथ साहित्य सामग्री प्रस्तुत करता है ऐसे श्रेष्ठ व उत्तम पत्र को हर शख्सने मगाकर इसे उन्नति पर पहुँचाना चाहिए। मैं इस नये वीर सवत् २४६४ के उपलक्ष मे प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि वह हम सबको सद्बुद्धि प्रदान करते हुए हमारे "अनेकान्त" पत्र के प्रचार की खूब खूब वृद्धि करे । वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक १०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता । १५०) श्री जगमोहन जी सरावगी, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्र कुमार जैन, ट्रस्ट, १५०) , कस्तूरचन्द जो प्रानन्दीलाल जी कलकत्ता श्री साहु शीतलप्रसाद जी, कलकत्ता १५०) , कन्हैयालाल जी सीताराम, कलकत्ता ५००) श्री रामजीवन सरावगी एण्ड सस, कलकत्ता १५०) , ५० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता ५०. ) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता १५०), मालीराम जी सगवगी, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता १५०), प्रतापमल जी मदन लाल पांड्या, कलकत्ता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता १५०), भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जी झांझरी, कलकत्ता १५०) , शिखरचन्द जी मरावगी, कलकत्ता २५१) श्री रा० बा० हरखचन्द जो जैन, राची १५०) , सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ जी कलकत्ता २५१) श्री अमरचन्द जी जैन (पहाड्या), कलकत्ता १०) , मारवाड़ी दि. जैन समाज, व्यावर २५१) श्री स० सि० धन्यकुमार जी जैन, कटनी १०१) ,, दिगम्बर जैन समाज, केकड़ी २५१) श्री सेठ सोहनलाल जी जैन, १०१) , सेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई नं०२ मैसर्स मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता १०१) , लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागंज दिल्ली २५१) श्री लाला जयप्रकाश जी जैन १०१) ,, सेठ भंवरीलात जी बाकलीवाल, इम्फाल स्वस्तिक मेटल वर्क्स, जगाधरी १०१) , शान्तिप्रसाद जी जैन, जैन बुक एजेन्सी, २५०) श्री मोतीलाल हीराचन्द गांधी, उस्मानाबाद नई दिल्ली २५०) श्री बन्शीवर जो जुगलकिशोर जी, कलकत्ता १०१) , सेठ जगन्नाथजी पाण्डया अमरीतलैया २५०) श्री जुगमन्दिरदास जी जैन, कलकत्ता १०१) , सेठ भगवानदास शोभाराम जी सागर २५०) श्री सिंघई कुन्दनलाल जी, कटनी (म.प्र.) २५०) श्री महाबीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता १०१) , बाबू नृपेन्द्रकुमार जी जैन, कलकत्ता २५०) श्री बी. पार० सो० जैन, कलकत्ता १००), बद्रीप्रसाद जी प्रात्माराम जी, पटना २५०) श्री रामस्वरूप जो नेमिचन्द्र जी, कलकत्ता १००), रूपचन्द जी जैन, कलकत्ता १५०) श्री वजरंगलाल जो चन्द्र कुमार जी, कलकत्ता | १००) , जैन रत्न सेठ गुलाबचन्द जी टोंग्या १५०) श्री चम्पालाल जी सरावगी, कलकत्ता इन्दोर Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-५० ट, ७५ माज"द। ... वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन R. N. 10591/62 (१) पुरातन-जैनवाक्य-मूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थो की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थो मे उद्धृत दूसरे पद्यो की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। मब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। सपादक मुख्तार थी जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए.डी. लिट के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट् की भूमिका (Introduction) मे भूपित है, शोध-खोज के विद्वानोके लिए अतीव उपयोगी, बडा साइज, सजिल्द १५.०० (२) प्राण परीक्षा--श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तो की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर, विवेचन को लिए हए, न्यायाचार्य पदग्बारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८.०० (३) स्वयम्भूस्तोत्र-ममन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना मे सुशोभित । २.०० (४) स्तुतिविद्या--स्वामी ममन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, मटीक, सानुवाद और श्री जुगल किमोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि मे अलकृत सुन्दर जिल्द-महित । (५) अध्यात्मकमलमातंण्ड-पचाध्यायीकार कवि गजमल की मुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १.५० (६) युक्त्यनुशामन-तत्वज्ञान से परिपूर्ण ममन्तभद्र की अमाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हुना था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, मजिल्द । (७) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्त्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ७५ (८) शासनचतुस्थिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकोति की १३वी शताब्दी को रचना, हिन्दी-अनुवाद महित ७५ (६) समीचीन धर्मशास्त्र ---- स्वामी गमन्तभद्र का गृहम्या चार-विषयक अत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगल किशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाप्य और गमगात्मक प्रस्तावना मे यु ल, सजिल्द । .. ३.०० (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति मग्रह भा० १ मस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रगस्तियो का मगलाचरण महित अपूर्व मग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टो की और प० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक माहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना में अलकृन, गजिन्द । (११) समाधितन्त्र और दृष्टोपदेश-अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका गहित ४.०० (१२) अनित्यभावना-ग्रा० पद्मनन्दाकी महत्वका रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद यौर भावार्थ सहित २५ (१३) तत्वार्थमूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या मे युक्त । (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जनतीर्थ । १.२५ (१५) महावीर का मर्वोदय तीर्थ १६ पंगे, (५) ममन्तभद्र विनार-दीपिका १६ पैसे, (६) महावीर पूजा २५ (१६) बाहुबली पूजा-जुगलकिशोर मुख्तार वृत्त (समाप्त) ___ २५ (१७) अध्यात्म रहस्य-प० पागाधर की मुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद महित । (१८) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति मग्रह भा २ अपभ्रंश के १२० अप्रकाशित ग्रन्थोको प्रशस्तियो का महत्वपूर्ण सग्रह । ५५ ग्रन्थकारो के ऐतिहासिक ग्रथ-परिचय और परिशिष्टो महित । स.१० परमान्द शास्त्री । सजिल्द १२.०० (१६) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पष्ठ नख्या ७४० सजिल्द (वीर-शासन-गघ प्रकाशन ५.०० (२०) कसायपाहुड सुत--मूलग्रन्थ की रचना अाज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर थी यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे। सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दो अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठो में । पुष्ट कागज और कपडे की पक्की जिल्द ।। ... ... २०.०० (२१) Reality प्रा० पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अग्रेजी में प्रनृवाद बडे प्राकार के ३०० प. पक्की जिल्द ६.०० प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **********Kkkkkkkkkkkkkkkk***** दिसम्बर १९६७ Jীকান intist कुण्डलपुर में सम्मति सागर के किनारे पर जैन मन्दिर ******KKKKAKKKKKKKKKKKKKKK***KKK* समन्तभद्राश्रम (वोर-सेवा-मन्दिर) का मुख पत्र ० Masala SHREEN वैमासिक XXXX************************* Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक गनवाण विषय-सूची अनेकान्त को सहायता विषय ५) ला० विगनचन्द जी गोटे वाले लग्खनऊ की १ पद्मप्रभ-जिन-स्तुनि--ममन्तभद्राचार्य १९३] मुपुत्री मी० किरण के विवाहोपल में निकाले हुए दान में २. श्रीधर स्वामी को निर्वाण भूमि कुण्डलपुर-- में डा. ज्योति प्रमाद जी लखनऊ की मार्फत ५) रुपया प. जगमाहनला र मास्त्री १६८ मधन्यवाद प्राप्त हा। ३ जैन ग्रन्थ मग्रहालयो का महत्त्व व्यवस्थापक 'अनेकान्त' डा. कम्तुरचन्द कामलीवाल १९६ ४ भारतीय वास्तुशास्त्र मे जैन प्रतिमा सम्बन्धी विलम्ब का कारण ज्ञातव्य... अगरचन्द नाहटा ५ भगवान महावीर और बुद्ध का पगिनर्वाण अनेकान्त की यह किरण प्रेम में नये टाइपो को --मुनि श्री नगगज व्यवस्था के कारण विलम्ब गे प्रकाशित हो रही है। इसके ६. यशपाल जैन का अध्यक्षीय भाषण | लिए हम खेद है। ग्रागे की किरण यथा सम्भव शीत्र ७. शिरपुर का जैन मन्दिर दिगम्बर जैनियों प्रकागिन करने का प्रयत्न किया जायगा। का ही है। २२७ व्यवस्थापक केशि-गौतम-मवाद-१० बालचन्द 'अनेकान्त' सिद्धान्त शास्त्री ६. आत्म-निरीक्षण-परमानन्द शास्त्री २३२ अनेकान्त के ग्राहकों से १० अग्रवालो का जैन मरकृति में योगदान-- परमानन्द शास्त्री ०३३ अनेकान्त के जिन ग्राहक महानुभावो ने अपना वापिक ११ स्वर्गीय नरेन्द्रमिह मिधी का मक्षिप्त परिचय २३७ शल्क नही भेजा है, उन्हें अपना वार्षिक शल्क ) रुपया १० साहित्य-ममीक्षा-डा. प्रेममागर तथा मनी आईर में शीघ्र भेज देना चाहिए । कारण कि परमानन्द शास्त्री २०वा वर्ष ममाप्त हो रहा है। प्रागा ही नही विश्वाम है कि ग्राहक महानुभाव २०वे वर्ष का अपना वापिक मन्य शीघ्र भेजकर अनगृहीत करेंगे। सम्पावक-मण्डल व्यवस्थापक डा० प्रा० ने० उपाध्ये अनेकान्त' डा० प्रेमसागर जैन वीरसेवा मन्दिर २१ दरियागज, दिल्ली श्री यशपाल जैन हा हा .28 अनेकान्त का वाषिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ १० भनेकान्त मे प्रकाशित विचारो के लिए सम्पादक माल उत्तरदायी नहीं हैं। -यवस्थापक अनेकान्त भोकान में प्रकाशित विचारों के लिए सम्मा एक किरण का Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् प्रहम् अनकान्त परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्पनेकान्तम् ॥ वर्ष २० ) वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, विल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६३, वि० सं० २०२४ दिसम्बर सन् १९६७ किरण ५ । पद्मप्रभ-जिन-स्तुतिः ( अर्बभ्रमः ) अपापापवमेयश्रीपादप प्रभोऽर्दय। पापमप्रतिमाभो मे पद्मप्रभ मतिप्रदः ॥२७॥ -समंतभद्राचार्य प्रयं-हे प्रभो! आपके चरणकमल पूर्वसंचित पापकर्म से रहित हैं, भापत्तियों से शून्य है, और अपरिमित लक्ष्मी के शोभा के-आधार है। तथा पाप स्वयं भी अनुषम प्राभा से-तेज से सहित है। हे सम्यग्जान देने वाले पपप्रभ जिनेन्द्र ! मेरे भी पापकर्म नष्ट कीजिये। भावार्य-भगवन् ! आपके निष्पाप-पवित्र चरणकमलों के प्राश्रय से मनुष्य को वह सम्यग्ज्ञान प्राप्त होता है, जिसके द्वारा वह अपने समस्त पापकर्म तथा उनके फल स्वरूप प्राप्त हुई प्रापत्तियों को नष्ट कर अनन्त चतुष्टयरूप लक्ष्मी से सहित हो जाता है और तब उसकी प्रात्मा अनन्त तेज से प्रभासित हो उठती है ॥२७॥ --:: Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीधर स्वामी की निर्वाण भूमि, कुण्डलपुर धोजगन्मोहनलाल जी शास्त्री [मध्यप्रदेश का प्रसिद्ध क्षेत्र कुण्डलपुर अपनी प्राकृतिक सुषमा के लिये तो विख्यात है ही, वहाँ स्थापित बड़े बाबा की अद्वितीय विशाल और अतिशय सौम्य प्रतिमा के लिए भी यह क्षेत्र उल्लेखनीय है। प्रतिम केवली श्रीधर स्वामी की निर्वाण भूमि होने के कारण यही कुण्डलपुर क्षेत्र "सिद्ध क्षेत्र" भी है ऐसी स्थापना इस लेख के विद्वान लेखक श्रीमान् पडित जगन्मोहनलालजी शास्त्री ने इस लेख में की है। लेखक द्वाग प्रस्तुत शास्त्रीय प्रमाण और उनका विवेचन तथा लेखक की नवीन शोधजन्य धारणाएं विचारणीय है। -सम्पादक] अतिम केवली श्रीधर स्वामी को निर्वाण भूमि का श्रीधर केवली कब हुए? अन्तिम केबली तो जम्बू स्वामी नामोल्लेख तिलोयपण्णत्ति, निर्वाण काण्ड, आदि मे आया कहे गये है, फिर ये चरम केवली कैसे हुए ? कुण्डलगिरि है। इन्ही के आधार पर उक्त निर्वाण भूमि का निर्णय कौन सा स्थान है ? इत्यादि । अथ के आलोकन से यह करने का प्रयास कुछ विद्वानो द्वारा पिछले बीस-बाइस जाना जाता है कि केवली तो अनेक के प्रकार होते है पर वर्षों में किया गया है। इस सबध के प्राय सभी शास्त्रीय प्रत्येक तीर्थकर के समय दो तरह के कंबली मुख्यतया कहे उल्लेखों को दृष्टि मे रखकर तत्सबधी उपलब्ध लेखो का गये है। १. अनुसंधान या अनुबद्ध केबली, और २. अननुमनन करके तथा कुछ नवीन उद्घाटित प्रमाणो पर विचार बध या अननुबद्ध केवली। करते हुए इस लेख में भगवान श्रीधर स्वामी के निर्वाण अनुबद्ध केवली वे है जो भगवान तीर्थंकर के समवस्थल पर विचार करते हुए मध्यप्रदेश के दमोह जिले मे शरण मे स्थित अनेक शिष्यों में भगवान के पश्चात् मुख्य स्थित प्रसिद्ध और मनोरम क्षेत्र कुण्डलपुर को उनकी उपदेष्टा परम्परा में केवल ज्ञानी होकर हुए। इस तरह सिद्धभूमि मानने के कारण और साक्ष्य प्रस्तुत करने का जो परिपाटी क्रम से हुए वे अनुबद्ध केवली है। मे प्रयास कर रहा हूँ। इस लेख का प्रारम्भ शास्त्रोक्त तथा जो परिपाटी क्रम मे नही हुए किन्तु केवली प्रमाणों से करते हुए सर्वप्रथम हम तिलोयपण्णत्ति की हुए वे अनुबद्ध केवली कहलाते है। इनकी संख्या प्रत्येक सदभित गाथा पर विचार करेगे। तीर्थकर के समय अलग-अलग बताई गई है । जैसेश्रीतिलोयपण्णति प्रथ यतिवृषभाचार्य द्वारा रचित है भगवान ऋषभदेव के समवशरण मे केवली संख्या जा श्रीजीवराज प्रथमाला द्वारा वि. सं. २००० मे प्रका २०००० पर अनुबद्ध केवली केवल ८४ । श्री अजितनाथ शित हुआ है। यह त्रिलोक सबधी वर्णन करने वाला के समवशरण मे सम्पूर्ण केवलज्ञानियों की संख्या २०००० प्राचीन ग्रंथ प्राकृत भाषा में है। प्रथ के स्वाध्याय काल पर अनुबद्ध केवली केवल ८४ । इसी प्रकार प्रत्येक तीर्थम गाथ। सख्या १४७६ पढ़ने में इस प्रकार आई कर के अनुबद्ध और अननुबद्ध केवली की सख्याए भिन्न है। श्रीमहावीर तीर्थकर के समवशरण मे केवलज्ञानी कुण्डल गिरिम्मि चरिमो केवलणाणीसु सिरिधरो सिद्धो। ७०० ये और अनुबद्ध केवली केवल ३ थे। अर्थात् चरम केवली श्रीधर कुण्डलगिरि से सिद्ध हुए। इसका यह अर्थ है कि भगवान महावीरके पट्टशिष्य श्री इस गाथा के पढ़ने के बाद अनेक प्रश्न खडे हुए। ये गौतम गणधर थे यद्यपि गणधर ११ थे पर मुख्य गणधर श्री Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीधर स्वामी की निर्वाण भूमि, कुगलपुर १६५ गौतम थे । भगवान महावीरके पश्चात् कार्तिक कृष्ण १५ को श्री महावीर स्वामी हैं। ऐसा कहा जाता पा रहा है। ही श्री गौतम केवली हुए उनके पट्ट पर रहने वाले सुधर्मा- सं० १७५७ माह सुदी १५ सोमवार का एक शिलालेख चार्य थे जो गणधर तो भगवान महावीर के थे पर उनको श्री मन्दिर जी मे है। उसमें भी इन्हें महावीर स्वामी पट्र श्री गौतम स्वामी के बाद प्राप्त हुआ। और सुधर्मा- लिखा है। पर मूर्ति के अधोभाग में जहाँ सिंहासन के सिह चार्य भी केवली हुए इनके बाद इनके पट्ट पर श्री जम्बू- बने है उनके मध्य जो रिन्ह बनाने का स्थान है वहाँ कोई स्वामी हए जो केवली हुए। जम्बूस्वामी के पट्ट पर श्री चिन्ह नहीं है । जो चिन्ह है वे सिंहामन के रूप में है और विष्णनन्दि तथा विष्णुनन्दि के पट्ट पर श्री नन्दिमित्र, ऐसे चिन्ह कुण्डलपुर के उसी मन्दिर मे संस्थापित श्री नन्दिमित्र के पट पर अपराजित फिर गोवर्धन और उनक नेमिनाथ, संभवनाथ आदि सभी तीर्थकर मूर्तियो मे बने पट पर श्रीभद्रबाह (प्रथम) हये पर ये सब श्रुतकेवली हुये है। पर वे मात्र सिहासन के प्रतीक है तीर्थकर का चिन्ह केवली नही हए। इनसे शिष्य प्रशिष्य परम्परा पागे चली तो दो सिहों के मध्य में है। इस मूल प्रतिमा में चिन्ह के जो भूतबली प्राचार्य तक ६८३ वर्ष प्रमाण चली। स्थान पर कोई चिन्ह नहीं है। यद्यपि प्राचार्य परम्परा आगे भी चली परन्तु यहाँ प्रतिमा के आसन के पाषाण मे दोनों चरणों के पास तक अंगशान रहा इसके बाद अंगधारी नही हुये। आज दो कमल बने है। ये चिन्ह नही है, यदि चिन्ह होते तो एक के महान ग्रंथ खट्खण्डागम श्रीपुष्पदन्त और भूतबलि बनाया जाता, और वह भी मध्य में न कि दोनो चरणों के आचार्य द्वारा रचित हैं। नीचे एक-एक । इसके सिवाय मस्तक के आसपास दोनो इस प्रकार पट्रघर शिष्यो की परम्परा में ३ केवली' तरफ देवो की उडती हुई मुद्रा में बनाया जाना प्रादि हए जिनका उल्लेख कर आये है वे भगवान महावीर के लक्षणो से मुझे ऐसा अनुमान हुआ कि क्या यह सामान्य अनुबद्ध केवली थे। इनके सिवाय जो ७०० केवली समव- केवली की मूर्ति है ? और "चरण कमल तल कमल है" शरण मे थे वे अननुबद्ध केवली थे उनमे सभी केवली "नभ ते जय जय वानि" की उक्ति के अनुसार तो इनके अपनी-अपनी आयु के अन्त मे सिद्धपद को प्राप्त हुए होगे। चरणों के पास कमल दोनों ओर बनाए गये और जयकार यद्यपि इनका समयोल्लेख नही है तथापि पचम काल को बोलते हुए आकाश में देवता दिखाए गये है। आयु १२० वर्ष कही है तब इनकी प्रायु भी अधिक से इस कल्पना के आने पर मैने कुछ ऐसा ही निर्णय अधिक इतनी अथवा चतुर्थकाल में इनका जन्म होने से कर एक लेख ७८ वर्ष पूर्व जैन सदेश में प्रकाशित किया कुछ वर्ष अधिक भी रही हो तो भी भगवान के मुक्तिगमन था। इस लेख के खडन में २ लेख आये थे। प्रथम लेख काल के बाद प्रथम शताब्दी मे ही इनका मुक्तिगमन श्री 'नीरज' सतना का था कि मूर्ति के आसन के दोनों सिद्ध है। मोर गोमुख यक्ष और चक्रेश्वरी की मूनि है साथ ही इन ७०० केवली भगवानों मे अन्तिम केवली श्री जटाओं के चिन्ह मूर्ति पर है। अत. मूर्ति श्री आदि श्रीवर स्वामी थे जिनका तिलोयपण्णत्ति मे कुण्डलगिरि तीर्थकर की होनी चाहिए भले ही चिन्ह के स्थान पर से मुक्तिगमन बताया गया है। चिन्ह न हो अत: श्रीधर केवली की मूर्ति उसे मानना ग्रंथ में उक्त उल्लेख पढ़ने पर मेरा ध्यान सर्वप्रथम प्रमाणित नहीं होता। दमोह (म.प्र.) के निकट स्थित कुण्डलपुर पर गया यह मैंने स्थान का पूनः निरीक्षण किया और मुझे नीरज पर्वत कुण्डलाकार (गोल) है अतः कुण्डलगिरि हो सकता होकार जी का कथन' सर्वथा उपयुक्त जचा और यह निश्चित है । अन्यत्र ऐसा पर्वत नहीं है और न ऐसे ग्राम को ही किया कि मुख्य मूर्ति भगवान आदिनाथ की है। १७५७ प्रसिद्धि है। में ब्र. नेमिसागर ने मूल मे चिन्ह न देखकर केवल सिहासन कुण्डलपुर के पर्वत पर मुख्य मन्दिर में जो वृहत् पद्मासन १२ फुट उत्तुग मूर्ति विराजमान है वे बड़े बाबा १. अनेकान्त अप्रेल १६६४ पृ० ४३. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ अनेकान्त के सिंहों के प्राधार पर उन्हे भगवान महावीर घोषित द्रोणीमति प्रबल कुण्डल मेढ़के च किया। वैभार पर्वत तले वर सिद्धकूटे चूकि कुण्डलपुर भगवान महावीर का जन्मस्थान ऋष्याद्रिके च विपुलाद्रि बलाह के च प्रसिद्ध है । और यह स्थान कुण्डलपुर कहलाता है फलतः विध्ये च पोवनपुरे वृषदीपके च ॥६॥ इस साम्य के कारण भी उनका ध्यान भगवान श्री महा -संस्कृत निर्वाण भक्ति वीर की ओर गया हो और इन्हे भगवान महावीर मान निर्वाण भक्ति में इसके पूर्व के श्लोको मे तीर्थकरों की लिया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। निर्वाण भूमियो के नाम देकर ८वे श्लोक के पूर्व उत्थानिका दूसरा लेख श्री पं० दरबारीलाल जी कोठिया न्याया भी है जो इस प्रकार हैचार्य का था। उन्होंने अपने लेख मे प्रतिपादित किया इदानी तीर्थकरेग्योऽन्येषां निर्वाणभूमिम् स्तोतु माहथा कि कुण्डलगिरि स्थान यह नहीं है जो दमोह (म०प्र०) अर्थात् तीर्थंकरों के बाद अन्य केवलियों की निर्वाणभूमि के पास है। बल्कि राजगह की पंचपहाडियो मे किसी की स्तुति करते है। आठवें श्लोक मे शत्रुजय-तुगीगिरिपहाडी का नाम कपडलगिया। और वही सिट स्थान का नामोल्लेख है। तदनन्तर इस श्लोक का अर्थ होता है। श्री श्रीधर केवली का हो सकता है। प्रमाण स्वरूप उन्होने द्रोणीमिति (द्रोणगिरि) प्रबलकुण्डल, प्रबलमेढ़क ये पूज्यपाद स्वामी, जो पांचवी या छठवी शताब्दी के विद्वान दोनों, वैभार पर्वत का तलभाग, सिद्धकूट, ऋष्याद्रिक, प्राचार्य हैं, उनकी दशभक्ति का दिया था। उसमे निर्वाण विपुलाद्रि, बलाहक, विध्य, पोदनपुर वृषदीपक । भक्ति में पंचपहाडियों के साथ कुण्डल शब्द पड़ा है । इसके बाद दसवे इलोक में---सह्याचल, हिमवत्, कोठिया जी के निर्णय से हम सहमत नही हो सके और लम्बायमान गजपथ प्रादि पवित्र पृथिवियो मे जो साधुजन आज भी सहमत नहीं है इसके कारण निम्न प्रकार है। कर्म नाश कर मुक्ति पधारे वे स्थान जगत् में प्रसिद्ध हुए। आगे के श्लोको मे इन स्थानो की पवित्रता का वर्णन कर (१) दशभक्ति मे जो निर्वाण भक्ति का प्रकरण है स्तुति की है। उसमें निर्वाण क्षेत्रो के नामो की गणना है। उसमे केवल प्रस्तुत प्रसंग में कुण्डल शब्द पर विचार है । टीका पच पहाड़ियो के नाम है बल्कि ऋप्याद्रि-मेढ़ क-कुण्डल मे कुण्डल और मेढ़क को "प्रबल कुण्डले प्रवल मेढ़के च" द्रोणीमति-विध्य-पोदनपुर आदि अनेक निर्वाण भूमियो के ऐसा लिखा गया है जिसका अर्थ स्वतन्त्रता से श्रेष्ठ कुण्डलनाम है । इनमे पच पहाड़ियो मे सभी के नाम नही है। गिरि और श्रेष्ठ मेढगिरि होता है। पांच पहाडियो मे केवल उनके नाम है जो सिद्धि स्थान है। वे है वैभार केवल ३ नाम आए हैं। ऋष्याद्रिक इसे टीकाकार ने विपुलाचल-ऋष्याद्रिक । कुण्डल शब्द के साथ मेढ़क शब्द श्रमणगिरि लिखा है। यह कोई सही तर्क न होगा कि ४ उसके पूर्व पड़ा है और उसके बाद भी पचपहाड़ियो मे पहाड़ियो के नाम उसमें है तो एक नाम शेष मे से हम . उसका नाम है। इससे सिद्ध है कि जिस प्रकार मेढ़क । मक पाचवी पहाडी को मान ले । पाच पहाड़ियो के नाममेढगिरि के लिए अलग से आया है इसी प्रकार कुण्डल (१) रत्नागिरि (ऋषिगिरि (२) वैभारगिरि (३) विपुशब्द कुण्डलगिरि के लिए अलग से आया है फलत: मेढ़गिरि की तरह कुण्डलगिरि स्वतन्त्र निर्वाणभूमि है। लाचल (४) बलाहक (५) पाण्डु ये पाच है। बौद्ध प्रथो में पांच पहाडियो के नाम इस प्रकार है-(१) वेपुल्स अन्यथा निर्वाण भूमि मे उसका उल्लेख न पाया जाता । निर्वाण भूमियो में उसका नाम पाना उस स्थान को सिद्ध (२) वेभार (छिन्न) (श्रमणगिरि) (३) पाण्डव (४) भूमि मानने के लिए पर्याप्त प्रमाण है । इसगिलि (उदयगिरि) (ऋषिगिरि) और (५) गिज्झश्लोक निम्न प्रकार है कूट । घवला टीका मे इनके नाम है (१) ऋषिगिरि (२) वैभार (३) विपुलगिरि (४) छिन्न (बलाहक) १. अनेकान्त वर्ष ८ पृ० ११५ (५) पाण्डु । उक्त तीनों नामावली से सिद्ध है कि Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीधर स्वामी की निर्वाण भूमि, कुण्डलपुर पांचों पहाड़ियों में कुण्डलगिरि किसी का भी नाम नही मेरा वर्षों से मत चला पा रहा है जबकि अन्य स्थान था और न प्राज भी है। तब पच पहाड़ियो में उसकी सिद्ध नहीं होते। कल्पना का कोई आधार नहीं रह जाता फलतः कुण्डल- यह कहा जाता है कि यह अतिशय क्षेत्र है कारण गिरि स्वतंत्र निर्वाण भूमि है यह सिद्ध होता है नीचे प्रसिद्ध अत्याचारी शासक मोरंगजेब ने मूर्तिखडन करने लिखा प्राकृत निर्वाण भक्ति का उल्लेख भी इसे सिद्ध का यहाँ प्रयास किया था पर उसके सेवकों पर तत्काल करता है। मधुमक्खियो का ऐसा आक्रमण हुआ कि वे सब भाग खडे अग्गल देवं वंदमि वरणयरे निवण कुण्डली वंदे। हुए। इस अतिशय के कारण यह अतिशय क्षेत्र माना पासं सिरपुरि वंदमि लोहागिरि संख दीवम्मि। जाता है । निर्वाणभूमि अभी तक नही माना जाता। वरनगर मे अर्गलदेव (आदिनाथ) की तथा निर्वाणकुण्डली यहाँ एक प्रश्न है कि मोरंगजेब के काल में यह पतिक्षेत्र को श्रीपुर में श्री पार्श्वनाय को तथा लोहागिरि शय हुमा और तब से यह अतिशय क्षेत्र माना जाय पर शखद्वीप मे श्री पार्श्वनाथ को मे वंदना करता हूँ। क्षेत्र तो मोरंगजेब से बहुत पूर्व का है। छठवी शताब्दी की __इस निर्वाण भक्ति मे कुण्डली के साथ निर्वाण शब्द कला का अनुमान है । जैनेतर मदिर भी जिन्हे ब्रह्म मदिर भी लगा है। इससे भी यह निर्वाण क्षेत्र सिद्ध है। पंच- कहते है छठी शताब्दी से वहाँ है ऐसा कहा जाता है। पहाड़ियों के नाम इस श्लोक मे नही है ताकि उसे उनमे तब छठी शताब्दी से औरगजेब काल तक १००० वर्ष तक से एक पहाडी मान लिया जाय।। यह कौन सा क्षेत्र था। प्रस्तुत प्रमाणों से "कुण्डलगिरि कोई निर्वाण क्षेत्र है" कुण्डलाकार यह पर्वत ऐसा स्थान नही है जहाँ किसी यह सिद्ध हो गया। प्रश्न अब यह है कि वह स्थान कहां राजा का किला या गढी है। जिससे यह माना जाय कि है कुण्डलपुर (बिहार) कुण्डल (ोध रियासत) तथा उसने मन्दिर और मूर्ति बनवाई होगी। कोई प्राचीन कुण्डलपुर (दमोह) म०प्र० ये तीन स्थान कुण्डल नाम से विशाल नगर भी वहाँ नहीं है कि किन्हीं सेठों ने या है। ये तीनो भारत में स्थित है। चौथा कुण्डलगिरि समाज ने मंदिर निर्माण कराया हो। तब ऐसी कौन सी जिसका उल्लेख मगलाष्टक मे पाता है वह मनुष्य लोक बात है जिसके कारण यहाँ इतना विशाल मदिर और के बाहिर कुण्डलगिरि द्वीप में, वह तो निर्वाण भूमि नही मूर्ति बनाई गई । तर्क से यह सिद्ध है कि यह सिद्ध भूमि हो सकता । अतः तीन का ही विकल्प शेष रहता है । इन ही थी जिसके कारण इस निर्जन जंगल में किसी ने यह पर पागे विचार किया जाता है। मंदिर बनाया तथा अन्य ५८ जिनालय भी समय-समय पर (१) बिहार प्रदेश का कुडलपुर भगवान महावीर यहाँ बनाये गये जो आज भी सुशोभित हैं। ये जिनालय का जन्म स्थान माना गया है न कि निर्वाण भूमि । आज वि० सं० ११०० से १६०० तक के पाए जाते है । सन् कल तो यह भी नही माना जाता बल्कि वैशाली कुडपुर मवत लेख रहित भी बीमो जित मिस उनकी जन्मभूमि सिद्ध हो चुका है। है। वहाँ १७५७ का जो शिलालेख है वह मदिर के (२) प्रोध रियासत में कुण्डल रेलवे स्टेशन से २ निर्माण का नही बल्कि जीर्णोद्धार का है। लेख सस्कृत मील है जहाँ दो मन्दिर है पर वे भगवान पार्श्वनाथ के भाषा में है कि है। किन्तु यह निर्वाणभूमि नही माना जाता। श्री कुन्द कुन्दाचार्य के मन्वय में यश: कीर्ति नामा (३) कुण्डलपुर (म० प्र०) यह दमोह से २० मील मुनीश्वर हुए उनके शिष्य श्री ललितकीर्ति तदनंतर धर्महै। कुण्डलाकार (गोलाकार) पर्वत है और मूल मन्दिर कीर्ति पश्चात् पपकीर्ति पश्चात् सुरेन्द्रकीर्ति हुए। उनके में (प्रख्यात नाम) श्री महावीर तीर्थकर की तथा यथार्थ शिष्य सुचन्द्रगण हुए जिन्होंने इस स्थान को जीर्ण-शीर्ण आदिनाथ भगवान की मूर्ति है।। देखकर भिक्षावृत्ति से एकत्रित धन से इसका जीर्णोद्धार यह स्थान निर्वाणभूमि श्री श्रीधर स्वामी की है ऐसा कराया अचानक उनका देहावसान हो गया तब उनके Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१९ अनेकान्त शिष्य ब० नेमिसागर ने वि. सं. १७५७ माघ सुदी १५ कर उसे पढा तो उन चरणों के पाषाण के सामने की पट्टी सोमवार को सब छतों का काम पूरा किया। पर लिखा हैऐसी किंवदन्ती भी पा रही है कि चन्द्रकीति (सुचउ "कुण्डलगिरौ श्री श्रीधर स्वामी" गण) नामक कोई भट्टारक भ्रमण करते-करते यहाँ पाए इस लेख को पढ अपनी बरषों की धारणा सफल उनको दर्शन करके ही भोजन का नियम था । किन्तु कोई प्रमाणित हो गई और इस प्रमाण की समुपलब्धि में कोई मंदिर पास न होने से वे निराहार रहे तब मनुष्य के छद्म संदेह नहीं रह गया। यह सूर्य की तरह सप्रमाण सिद्ध है वेश में किसी देवता ने उन्हें कुण्डलगिरि पर ले जाकर कि-ये चरण श्री श्रीधर स्वामी के है और यह क्षेत्र श्री स्थान का निर्देश किया। वे वहाँ पर गए और इस विशाल कुण्डलगिरि है। काय प्रतिमा का दर्शन किया । तथा इन्होंने ही इस मदिर का जीर्णोद्धार कराया। किंवदन्ती शिलालेख के लेख से कुण्डलगिरि के नाम के कारण नीचे बसे छोटे से ग्राम मेल खाती है अतः सत्य है। यह जीर्णोद्धार प्रसिद्ध बन्देल- का नाम कुण्डलपुर पड़ा हो इसके पूर्व इस ग्राम को खण्ड केसरी महाराजा छत्रसाल के राज्यकाल मेहमा। "मंदिरटीला" नाम से कहते थे शिलालेख मे इसे इसी कहते हैं अपने आपत्तिकाल मे महाराजा छत्रसाल इस नाम से उल्लिखित किया गया है। संभवतः ब. नेमिसागर स्थान में कुछ दिन प्रच्छन्न रहे हैं और पुन: राज्य भार जी का ध्यान भी चरणो के उस छोटे से लेख पर नही प्राप्त करने पर उनके तरफ से ही तालाब सीढियाँ आदि गया जैसे कि पचासों बरसों से उनके दर्शन करने वाले का निर्माण भक्तिवश कराया गया है। हजारो व्यक्तियों का नही गया । यह लेख इसके बाद क्षेत्र के अध्ययन श्री राजारामजी बजाज सिं. बाबलाल जी इन सब प्रमाणों के होते हुए भी लोग संदेह करते थे कटनी तथा वहाँ के एक मंदिर निर्माणकर्ता ऊँचा के कि वस्तुतः यही स्थान श्रीधर केवली की निर्वाणभूमि है सिंघई तथा अन्य कई लोगों ने पढ़ा है। इसका कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नही है। अभी इसी वर्ष मैं कुण्डलगिरि गया था, वीर निर्वाण महोत्सव पर । क्षेत्र कमेटी के प्रबंधकों से मैने प्रत्यक्ष मे भी निवेदन वहाँ बड़े मंदिर के चौक में एक प्राचीन छतरी बनी है किया है तथा इस लेख द्वारा भी निवेदन करता हूँ कि और उसके मध्य ६ इच लम्बे चरणयुगल हैं । अनेकों बार । उस स्थान को सुरक्षित करावें ताकि उपलब्ध ऐतिहासिक दर्शन किए इन चरणो के । ये भट्टारकों के चरणचिह्न होंगे . मानते रहे। कारण चरणचिह्न तो सिद्धभूमि में चौक मे छतरी प्रारम्भ से तो है नवीन नही है। स्थापित होने का नियम है यह तो अतिशय क्षेत्र है। सिद्ध उससे चौक में स्थान की कमी आ जाती है पर प्राचीन भूमि नहीं है। अतः यहाँ चरणों का पाया जाना यह होने से अभी तक सुरक्षित चली पाई है। यह भी इस बताता है कि किन्हीं 'भट्टारकों' ने अपने या अपने गुरू के बात का प्रमाण है कि यह श्रीधर केवली का मुक्ति स्थान चरण स्थापित किये होंगे। ही है कारण छतरी बिना प्रयोजन नही बनाई जाती। । पर इस बार हमारे पाश्चर्य का ठिकाना न रहा जब १५०१ के संवत् की एक जीर्ण प्रतिमा में उस स्थान का पुजारी ने हमें बताया कि चरणो के नीचे की पट्टी पर नाम निषधिका (नसियाँ) भी लिखा है। कुछ लेख है हमने तत्काल उसे ले जाकर जमीन में सिर उक्त प्रमाणों के प्रकाश मे यह बिलकुल स्पष्ट है कि रखकर उसे बारीकी से पढ़ा तो घिसे अक्षरों में कुछ स्पष्ट "कुण्डलगिरि" (दमोह म. प्र.) ही श्री श्रीधर केवली की पढने में नही पाया तब जल से स्वच्छ कर कपड़े से प्रक्षाल निर्वाण भूमि है। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान के इतिहास निर्माण में जैन ग्रन्थ संग्रहालयों का महत्त्व डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल भारतीय इतिहास में राजस्थान का महत्वपूर्ण स्थान करें तो हमे मालूम होगा कि राजस्थान मे जैन ग्रंथ समहै । इतिहास के सैकडो पृष्ठ इस प्रदेश के निवासियों की हालय सबसे अधिक संख्या में मिलते है । ये अथ संग्रहालय वीरता एवं पराक्रम की कहानियो से भरे पडे है । वास्तव छोटे-छोटे गाँवों से लेकर बडं २ नगरो तक मे स्थापित में यहाँ के शासको एवं शासितो ने देश के इतिहास को किये हुए है। इन संग्रहालयों की निश्चित संख्या एवं कितनी ही बार मोड दिया था। यहाँ के रणथम्भौर, उनमे सग्रहीत पाण्डुलिपियो की संख्या बतलाना तो कठिन चित्तौर, भरतपुर, जोधपुर, जैसलमेर जैसे दुर्ग वीरता है लेकिन अब तक की खोज के प्राधार पर इतना प्रवश्य शोध एवं शक्ति के प्राधर स्तम्भ रहे थे किन्तु वीरता के कहा जा सकता है कि इन हस्तलिखित ग्रंथों की संख्या साथ साथ यहाँ भारतीय साहित्य एव सस्कृति के गौरव- १ लाख से कम नही होगो। जयपुर, बीकानेर, अजमेर, स्थल भी पर्याप्त संख्या में मिलते है। यदि राजस्थानी जैसलमेर, बूदी जैसे नगरी में एक से अधिक पथ संग्रहालय वीर योद्धाओ ने जननी जन्मभूमि की रक्षार्थ हँसते-हंसते है। अकेले जयपुर नगर में ऐसे २५ अथ भडार है जिनमें प्राणों को न्योछावर किया तो यहाँ होने वाले प्राचार्यों, सभी मे हस्तलिखित पाण्डुलिपियो का अच्छा संग्रह है। मुनियों, सन्तों एव विद्वानो ने भी अपनी कृतियो द्वारा इनमे संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश, हिन्दी, राजस्थानी भाषा जनता में देश भक्ति नैतिकता एव सास्कृतिक जागरुकता के हजारो ग्रथों की पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित है । ताडपत्र पर का प्रचार किया। उन्होने नागौर, बीकानेर, अजमेर, सबसे प्राचीन पाण्डुलिपि सन् १०६० की है जो जैसलमेर जैसलमेर, जयपुर आदि कितने ही नगरों में प्रथ भडारो के वृहद ज्ञान भडार में संग्रहीत है इसी तरह कागज पर के रूप मे साहित्यिक दुर्ग स्थापित किये जहाँ भारतीय संवत् १३२६ - सन् १२७२ : पाण्डुलिपि जयपुर के श्री साहित्य एवं संस्कृति की सुरक्षा एवं उसके विकास के दिगम्बर जैन मन्दिर तेरहपथियों के शास्त्र भंडार के संग्रह उपाय सोचे गये तथा सारे प्रदेश में ग्रथों की प्रतिलिपियां में है। कागज वाली पाण्डुलिपि मे देहली का नाम योगिकरवाने, उनके पठन पाठन का प्रचार करने का अर्थ नीपुर एवं तत्कालीन सम्राट् का नाम गयासुद्दीन तुगलक व्यवस्थित रूप से किया गया और राजनैतिक उथल-पुथल के नाम का उल्लेख है। इन भंडारों मे तेरहवी, १४वी एवं सामाजिक झगड़ो से इन शास्त्र भंडारों को दूर रखा शताब्दी से लेकर १९वी शताब्दी तक लिखे गये ग्रंथों का गया। वास्तव में साहित्य की सुरक्षा एवं उसकी श्रीवद्धि विशाल संग्रह है जिनमे भारतीय विद्या एवं संस्कृति के में सबसे अधिक जन सहयोग जैन ग्रंथ संग्रहालयो का रहा अमूल्य तत्त्व छिपे पड़े है। यहाँ किसी एक विषय पर यही कारण है कि जैन अथ संग्रहालय राजस्थान के छोटे- अथवा एक ही भाषा में ये पाण्डुलिपियों संग्रहीत नही है छोटे गांवों तक में मिलते है। इन शास्त्र भडारों ने किन्तु धर्म, दर्शन, पुराण, कथा, काव्य एव चरित के राजस्थान के इतिहास के कितने ही महत्वपूर्ण तथ्यों को अतिरिक्त इतिहास, ज्योतिष, गणित, आयुर्वेद सगीत जैसे संजोया मोर उसे सदा ही नष्ट होने से बचाया। यदि हम लौकिक विषयों पर अच्छी से अच्छी कृतियों की पाण्डुइन ग्रंथ भंडारों के संबंध मे कुछ गम्भीरता से विचार लिपियाँ उपलब्ध होती हैं। यहाँ मैं यह बतलाना चाहूंगा * जोधपूर मे प्रायोजित राजस्थान इतिहास काग्रेस के प्रथम अधिवेशन पर दिया गया एक भाषण Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० अनेकान्त केन्द्र है। कि जैनाचार्यों एवं विद्वानों ने भाषा विशेष से कभी मोह उनके सम्बन्ध में जानकारी प्रस्तुत करने का कभी नही रखा किन्तु जनता की मांग के अनुसार इन्होंने अपनी व्यवस्थित कार्य नहीं किया जा सका। कृतियों का निर्माण एवं उनका सग्रह किया। इसीलिए राजस्थान के इन भण्डारों को छानबीन के लिये प्राज इन भंडारों में प्राकृत एवं संस्कृत की कृतियो के प्रेरणा देने का मनसे प्रेरणा देने का सबसे अधिक श्रेय पं. चैनसुखदास जी अतिरिक्त अपभ्रश हिन्दी एवं राजस्थानी कृतिया भी न्यायतीर्य जयपुर को है। इस दिशा मे श्री दिगम्बर जैन पर्याप्त संख्या मे मिलती है। इसलिए ये प्राचीन साहित्य, अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी का साहित्य शोध विभाग इतिहास एवं संस्कृति के अध्ययन करने के लिये प्रामाणिक की सेवाएँ उल्लेखनीय है इसका मुख्य उद्देश्य राजस्थान के जैन शास्त्र भडारों की ग्रंथ सूचियाँ तैयार करने एवं लेकिन राजस्थान के इन जैन ग्रंथ संग्रहालयों की उनमें अप्रकाशित साहित्य को प्रकाश में लाने का है। महत्ता की अोर विद्वानो का सर्वप्रथम ध्यान आकृष्ट करने क्षेत्र के साहित्य शोध विभाग की अोर से इन भंडारों की का श्रेय पाश्चात्य विद्वान कर्नल जेम्स टाड को है जिन्होने ग्रंथ सूचियो के चार भाग छप चुके है जिनमे करीब अपनी पुस्तक (Travels in Westero India) मे २०,००० ग्रंथों की सूचियाँ है। मैंने अपना शोध प्रबन्ध जैसलमेर के जैन ग्रन्थ सग्रहालयो का बहुत ही सुन्दर एव भी 'जैन अथ भडार इन राजस्थान' पर ही लिखा है। रोचक वर्णन किया । टाड के ४५ वर्ष पश्चात् डा. व्हलर जिसमें राजस्थान के १०० ग्रंथ भडारों पर ऐतिहासिक एव डा. जैकोबी जैसे विद्वानों ने जैसलमेर के ग्रथ भंडारों दृष्टि से प्रथम बार लिखने का अवसर मिला। मेने अपने का निरीक्षण किया और यहाँ की साहित्य समृद्धि की पोर शोध निबन्ध में उनकी साहित्यिक समृद्धि एव विशाल विद्वानो को स्मरण कराया। इन तीन पाश्चात्य विद्वानों सग्रह के सम्बन्ध में व्यवस्थित रूप से प्रकाश डालने का के महत्वपूर्ण एव खोजपूर्ण लेखों के कारण भारतीय प्रयास किया है। विद्वानों का भी उनकी ओर ध्यान आकृष्ट हुमा । सन् राजस्थान के इन ग्रथ भण्डारों में ताडपत्र की १९०४ मे भारतीय विद्वानो में सर्वप्रथम श्रीधर भण्डारकर पाण्डुलिपियो को दृष्टि से जैसलमेर का वृहद ज्ञान भण्डार जैसलमेर गये और अपनी इस यात्रा का वर्णन सन् १६०६ अत्यधिक महत्वपूर्ण है किन्तु कागज पर लिखित पाण्डुकी खोज रिपोर्ट में प्रकाशित कराया इसके पश्चात् कितने लिपियो की दृष्टि से नागौर, बीकानेर, जयपुर एवं अजमेर ही विद्वान यहाँ के भण्डारो को देखने के लिए जाते रहे के शास्त्र भण्डार उल्लेखनीय है। अकेले नागौर के जिनमें प. हीरालाल, हसराज, सी. डी. दलाल, मुनि भट्टारकीय शास्त्र भण्डार मे १२००० हस्तलिखित ग्रंथ पुन्यविजय जी एवं मुनि जिनविजय जी के नाम उल्लेख- एव २००० गुटको का संग्रह है। गुटकों में संग्रहीत ग्रंथों नीय हैं। की सख्या की जावे तो वह भी १००० से कम नही होगी। जैसलमेर के ग्रथ भडारों के अतिरिक्त राजस्थान के इसी तरह जयपुर मे २५ से भी अधिक ग्रथ संग्रहालय हैं मन्य शास्त्र भंडारों की ओर विद्वानों का विशेष ध्यान जिनमे पामेर शास्त्र भण्डार, बडा दिगम्बर जैन मन्दिर होते हुए भी कुछ वर्ष पूर्व तक किसी भी भारतीय तेरहपंथियों का शास्त्र भंडार, पाटोदियो के मन्दिर का विद्वानों ने उन्हें व्यवस्थित रूप से नहीं देखा और शास्त्र भडार आदि का नाम उल्लेखनीय है। इन भंडारों साहित्य की प्रमूल्य निधिया उनमे ऐसे ही बन्द पड़ी में अपभ्रंश एवं हिन्दी ग्रंथों की पाण्डुलिपियों का अच्छा रही। बीकानेर, चूरू सरदार शहर आदि कुछ नगरों में संग्रह है। इन शास्त्र भंडारों में जैन विद्वानों द्वारा लिखित स्थित प्रथ भंडारो की सूचियां तो अवश्य बनायी गई तथा ग्रंथों के अतिरिक्त जैनेतर विद्वानों द्वारा निबद्ध ग्रंथों की भी श्री अगरचंद जी नाहटा जुगलकिशेर जी मुख्तार एवं पं. प्राचीनतम एवं महत्वपूर्ण पाण्डुलिपियों का संग्रह मिलता परमानंद जी शास्त्री ने अपने लेखों में किसी किसी है। इनमें महापण्डित मम्मट विरचित काव्य प्रकाश, राजभडार पर प्रकाश भी डाला। लेकिन विद्वानों के समक्ष शेखर कृत काव्यमीमांसा, कुत्तककवि कृत वक्रोक्तिजीवित, Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन अन्य संग्रहालयों का महत्त्व २०१ आचार्य धर्मकीर्ति कृत न्यायविन्दु, श्रीधर भट्टकृत न्याय- नेर प्रादि है। इसलिए इनके शासकों एवं राजस्थान के कदली प्रादि की पाण्डुलिपियों का अच्छा संग्रह है। नाटक नगरी एवं कस्बों के नाम खूब मिलते हैं जिनके प्राधार पर साहित्य में विशाखदत का मुद्राराक्षस नाटक, भट्ट नारायण यहाँ के ग्राम और नगरों का इतिहास पर भी अच्छा प्रकाया कृत वेणीसहार, मुरारी कृत अनघराघव नाटक एवं डाला जा सकता है।। कृष्णमिश्र का प्रबोध चन्द्रोदय नाटक, मुबन्धु कृत वासव- लेखक प्रशस्यिों के समान ही जो ग्रय प्रशस्तियों होती दत्ता नाटक एव अन्य सैकडों कृतियां भी इन भंडारो में है वे और भी महत्त्वपूर्ण होती है उनमे लेखक, अथवा सब मिलती है। हिन्दी राजस्थानी ग्रंथों की भी इन ग्रंथकार अपने इतिहास के साथ-साथ अपने ग्राम नगर का भंडारों में भारी संख्या मे पाण्डुलिपिया मिलती है। अभी भी अच्छा वर्णन करता है। अपभ्रश, हिन्दी, राजस्थानी हाल मे हिन्दी की एक प्राचीनतम कृति जिणदत चारत प्रथो मे हम तरह के वर्णन मिलते है। १७वी शताब्दी मे की एक पाण्डुलिपि उपलब्ध थी। इस काव्य का रचना होने वाले एक कवि ने अपनी यशोधर चौपाई में बदी एव काल संवत् १३५४ है। हिन्दी भाषा को सवतोल्लेख उसके शासक का निम्न शब्दो मे वर्णन किया है। बाली कृति प्रथम बार प्राप्त हुई है। जो डा० माताप्रसाद बूंदो इन्द्रपुरी जखिपुरी कि कुबेरपुरी, जी गुप्त एवं मेरे द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित भो रिद्धि सिसि भरी द्वारिका सी घटी घर में। हो चुकी है। इसी तरह १४वी एव १५वी शताब्दियों में धोलहर धाम घर घर में विचित्र वाम, रचित ग्रथ भी यहाँ कितनी ही सख्या में मिलते है । इन्ही नर कामदेव जैसे सेवे सुखसर में। भडारों में पृथ्वीराज रासो, कृष्णरुक्मिणी वेलि, मधुमालतो वागी वाग वारूण बाजार वीयो विद्या वेर, कथा सिंहासनबत्तीसी, रसिफप्रिया एव विहारी सतसई की विबुध विनोद वानी बोले सुखि नर में। भी प्राचीनतम प्रतियां भी उपलब्ध हुई है। तहां करे राज राव भावस्थंध महाराज, हिन्दु धर्म लाज पातिसाहि वाज कर में। अब मैं इतिहास को दृष्टि से इन शास्त्र भडारों के महत्व पर प्रकाश डालना चाहेगा। इन भडारों में इसी तरह १८वी शताब्दी में होने वाले कवि दिलाराम ने ऐतिहासिक कृतियो के अतिरिक्त जो अन्य पाण्डुलिपियाँ अपने 'दिलाराम विलास मे बूदी नगर का वर्णन किया है है उनमे जो प्रशस्तियां होती है वे इतिहास की दृष्टि से जो उक्त वर्णन के ही समान है। सन १७६८ मे कवि अत्यधिक महत्वपूर्ण है। ये प्रशस्ति ११वी शताब्दी से लेकर श्रुतसागर ने भरतपुर नगर एव उसके संस्थापक महाराजा १६वीं शताब्दी तक की है। वैसे प्रशस्तियों दो प्रकार मूरजमल का निम्न प्रकार वर्णन किया है। की है एक स्वयं लेखक द्वारा लिखी हुई तथा दूसरी लिपि देस काठहड़ विरजि में, वदनस्पंघ राजान, कारों द्वारा लिखी हुई होती हैं। ये दोनो ही प्रामाणिक ताके पुत्र हैं भलौ, सरिजमल गुणधाम । होती हैं और जिनकी प्रामाणिकता मे कभी शका नहीं की तेजपुंज रवि है मनो न्यायनीति गुगवान जा सकती। ऐसा मालूम पड़तो है कि इन ग्रंथकारो एवं ताको सुजस है जगत में नयो दूसरो भान लिपिकारों ने इतिहास के महत्त्व को बहुत पहिले ही तिनहु ज नगर बसाइयो नाम भरतपुर तास समझ लिया था और इसीलिए ग्रंथ लिखवाने वाले थावकों ता राजा समविष्टि है पर विचार उपवास । का, उनकी गुरूपरम्परा तथा तत्कालीन सम्राट् अथवा १७वी शताब्दी में कविवर बनारसीदास हिन्दी के अच्छे शासक के नामोल्लेख के साथ-साथ उनके नगर का भी कवि थे वे प्राध्यात्मिक कवि तो थे ही किन्तु वे पहिले उल्लेख किया जाता था। राजस्थान के इन जैन भडारो मे कवि है जिन्होंने अपना स्वयं का प्रात्मचरित लिखा था संग्रहीत प्रतियों के मुख्य केन्द्र देहली, अजमेर, जैसलमेर, और जिसका नाम अर्द्धकथानक है। कवि ने देहली पर नागौर तक्षकगढ़ : टोडारायसिंह : चम्पावती : चाकसू : लीन बादशाहो का शासन काल देखा था। बादशाह डूगरपुर, सागवाड़ा, चित्तौड़, उदयपुर, पामेर, बूदी, बीका- अकबर की मृत्यु के समाचार जब कवि को मिले तो Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ अनेकान्त उन्होंने उसका इस प्रकार वर्णन किया है परणी त्याओ । लड़ाई सावता कही। पणी रावा जैचंद संवत् सोलहस वासठा पायी कातिक पावस नठा । पूंगलो पूज्यो नही । सजोगता सरूप हुई । तहि के बसी छत्रपति प्रकबर साहि जलाल नगर आगरे कोनो काल ।२४६ राजा हुो । सौ म्हैला हौ न रहो । महीना पंदरा वारा ने पाई खबर जोनपुर माह प्रजा अनाथ भई विन नाह। नीसरयो नहीं। पुरजन लोग भए भयभीत हिरदै व्याकुलता मुख पीत ।२४७ 3 इसी तरह इन शास्त्र भन्डारों में बीकानेर, जोधपुर, ही जयपुर नगर की १५वी, १९वी शताब्दी मे रचित काव्यों कोटा, अलवर करौली चेदिराजवंशी का जहां तहां अच्छा मे अच्छा वर्णन मिलता है। इनमे दो काव्य विशेष रूप वर्णन मिलता है। और जिसके समुचित अध्ययन की से उल्लेखनीय है। एक बुद्धि विलास जिसमे जयपुर नगर आवश्यकता है। उदयपुर, डुगरपुर, सागवाड़ा के ग्रथ की स्थापना का जो चित्र उपस्थित किया गया है वह भडारो मे उदयपुर के शासको का जो उल्लेख मिलता है अत्यधिक सुन्दर एवं प्रामाणिक है। बुद्धिविलास एक जैन उनसे कितनी ही इतिहास की विस्तृत कड़ियों को जोडा विद्वान वस्तराम की कृति है जिसे उसने सवत् १८२७ मे जा सकता है। समाप्त किया था जिसका प्रकाशन कुछ वर्षों पूर्व राज जैसलमेर के शास्त्र भंडार मे जो सन् ११५६ में स्थान पुरातत्त्व मन्दिर जोधपुर से हो चुका है। इसमे जयपुर नगर की स्थापना के अतिरिक्त वहाँ के राजवश लिखित उपदेश पद प्रकरण की जो पाण्डुलिपि मिली है उसकी प्रशस्ति मे अजमेर नगर एवं उसके शासक का का भी अच्छा वर्णन किया गया है। इतिहास प्रेमी विद्वानो निम्न प्रकार उल्लेख मिलता है। को इस प्रथ को अवश्य पढना चाहिये । ___ इसी तरह जयपुर के ही एक शास्त्र भण्डार मे संवत् १२१२ चैत्र सुदि १३ गुरौ प्रद्येह श्री अजयसग्रहीत एक पट्टावाली में जयपुर राजवश का बिस्तृत मेरू दुर्गे समस्तराजावलि विराजित परम भट्टारक महावर्णन मिलता है। राजस्थान के शासको के अतिरिक्त राजाधिराज श्री विग्रहदेव विजयराजे उपदेश टीका देहली के शासकों के सम्बन्ध मे भी कितनी ही पट्टा- लेखीति । बलियां मिलती है जिनमे बादशाहो के राज्यकाल का घड़ी राजस्थान के शासकों के अतिरिक्त यहां के नगरों एवं पल तक का समय लिखा हुआ है । जयपुर के ही का इतिहास, व्यापार का उतार चढाव, विभिन्न जातियों दिगम्बर जैन तेरहपथी मंदिर के शास्त्र भन्डार में एक की उत्पत्ति, यहां की सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन एव सस्कृत की "राजवंश वर्णन" कृति है जिसमे पाण्डवों से विभिन्न मान्यतायो के संबंध मे भी यहा प्रभूत साहित्य लेकर बादशाह औरंगजेब तक होने वाले शासको का मिलता है। वास्तव में ये ज्ञान की विभिन्न धारामो के पूरा समय लिखा हुआ है। हिन्दी मे लिखित "पातिसाहि तिसाह भंडार है । ये भडार ज्ञान के समुद्र है जिसके मन्थन से का व्यौरा” नामक कृति मे पृथ्वीराज के सबध मे जो विभिन्न रत्न प्राप्त हो सकते हैं । इसलिए मुझे पूर्ण विश्वास वर्णन किया गया है उसका भी एक प्रश निम्न प्रकार है। कि राजस्थान का इतिहास विशारद राजस्थान के इन तब राजा पृथ्वीराज संजोगता परणी । जहि राजा ज्ञान भंडारों का उपयोग करेंगे और उनमे से राजस्थान कैसा कुल सौला १६ सूरी का १०० हुआ । ल्याके भरोसे के विस्तृत इतिहास के कण कण एकत्रित कर सकेगे । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ वस्ती मंदिर तथा मूलनायक मूर्ति श्री पं० नेमचन्द धन्नूसा जैन (गतांक अक्टूबर १९६७ से आगे) [यह पंच परमेष्ठी की प्रचीन प्रतिमा खंडित होने ने उसे पूछा, "क्यों क्या हपा ? " पर भी अखंड है । यह प्रतिमा एक ऐतिहासिक घटना को तब सरदार ने जवाब दिया, "नंगे से खदा डरे।" सूचित करने वाली है। तात्पर्य यह मूर्ति नगी याने नग्न दिगवर है यह सुस्पष्ट इस प्राचीन मूर्ति का ऐतिहासिक महत्त्व: है। ऊपर की ऐतिहासिक घटना स्मृति देने वाली और मूल कहते है कि जब बादशाह औरगजेब सवारी के लिए नायक मूर्ति को बचाने के लिये उसके प्राघात का स्वयं दक्षिण में आया था, तब उसका सरदार श्री देवाधिदेव स्वीकार करने वाली दिगबर जैन यह प्रतिमा प्रष्ट अतरिक्षपार्श्वनाथ की कीति मुन कर उसे नष्ट भ्रष्ट प्रातिहार्य से युक्त है। करने आया। इस गंध वार्ता को सुन कर यहा के कर्म- यहां यह बात ध्यान में लाने योग्य है कि, यह मंदिर चारियों ने उस मूर्ति का भोयरा बद कर ऊपर यह पंच- । अगर प्रारम्भ से ही दिगबरों का न होता तो, उस समय परमेष्ठी की प्राचीन प्रतिमा रख दी। यह दिगबरी मूर्ति वहा पर कैसे रवी जाती? इस मूर्ति नियत समय पर सरदार वहां आया और उसने वह की नग्नता और वीतरागता मूल नायक मूर्ति के याने श्री खंडित कर दी। बडे संतोप से वह वापिस जा रहा था, अंतरिक्ष पार्श्वनाथ के मूर्ति के दिगंबर स्वरूप को ही सिद्ध तो फितुरो को इस बात का पता चला। उन्होने सच बात करती है। पाखे होने पर भी यह न देखने वालों के लिये सरदार को सुनाई। इससे यह सरदार द्वेप से बेभान बन- और क्या लिखा जा सकता है । तया यहा पाने वाले कर फिर मदिर मे पाया । उसको मालूम कर दिया गया था यात्रियों से भीग्व मागने वाले भिग्वारी भी जोर-जोर से कि मूतिके ऊपर नाग का बडा व काला फणाकार है। इस चिल्लाते है कि, “नगे बाबा के नाम पर कुछ दान करो लिये वह सोचने लगा कि मूर्तिके पहले मैं नाग को ही बाबा ।" यह दीन गरीवों की पुकार भी जो सुन नही नष्ट कर दूगा, बाद में मूर्तिको भ्रष्ट करूगा नही तो...। सकते, उनके लिये अधिक कहना कहां तक ठीक होगा? वस इस द्विविध विचार से उसका भान चला गया। नगी तो आईये, इस दालान के पांचों वेदियो तथा तलवार हाथ में थी। समवसरणस्थिति सब दिगंबरीप्रतिमाओं का दर्शन पूजन उसका वह रौद्र स्वरूप देख कर असली भोयरे का कर, आगे बहिये । इस हालत के अंत में यह दिगबर पेटी मार्गखोला वटा के अंधेरा के कारण मशालचीपरले को ऊपर जाने का रास्ता है। तथा सामने यह प्राचीन उतरा। बेभान रहने से या नागफणा को देखने से भोयरे भोयरे में उतरने के लिये व चौक में जाने के लिये स्वतत्र मे उतरते समय सरदार का चोला चला गया कोई कहते माग है। यह भोयरा तथा धर्मशाला नं० ३ गांव में के है किसी भुजंग ने उसी समय उस पर फुन्कार करने से प्राचीन मदिर का अवशेष भाग है। इसमें ही पहले श्री सरदार घबराया, और वह गिरने वाला था कि वहां के अतरिक्षपाश्वनाथ प्रभू की प्रसिद्ध मूर्ति विराजित थी। मशालची ने उसे सम्हाला और ऊपर लाया। नही तो दमवीं सदी में जहा मूर्ति स्थिर हो गयी थी, और उसकी तलवार का वह ही शिकार बन जाता। उसकी मूर्ति पर ही जहां श्रावक लोगों ने जो मंदिर बंधवाया था धामाघूम अवस्था घबड़ाया हुवा मुख देख कर साथी दारों वह यह ही स्थान है यह भोयरा जैसा आज दिखता है इससे Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ अनेकान्त भी बड़ा व ऊंचा था। किया वैसा मन्दिर के भी सुनहरी शिखर व कुछ भाग को श्वेतांबर लोग इसी अपूर्ण भोयरों को संपूर्ण प्राचीन नष्ट किया होगा। इसी कारण इस नये मन्दिर का मंदिर बताते है और उसमें स्थित क्षेत्रपाल की एक वेदी निर्माण हुआ । अब प्रश्न यह उठता है कि यह कार्य कब पर श्री अंतरिक्षपाश्र्व प्रभू पश्चिमाभिमुख विराजमान थे, बना ? ऐसा कहते है । यह उनका कथन झूठा और काल्पनिक है ऊपर के विवेचन से इतना तो स्पष्ट हुअा कि इस नये इसके तीन कारण है मन्दिर का पुनर्गठन औरंगजेब की सवारी के बाद ही हुआ (१) श्रीपाल एक राजा मूर्ति को एलिचपूर ले जा है। औरगजेब की मृत्यु ई० सन् १७०७ में हुई। अतः रहा था, याने इस मूर्ति का मुख पूरब के तरफ ही होगा। इसके पहले इस मन्दिर का निर्माण नही हो सकता। (२) मूर्ति जगह से नही हटी यानी मूर्ति पर ही मन्दिर श्वेताम्बर लोग वि. स. १७१५ यानी ई. सन् १६५८वाँधा गया। (३) तब मृति के नीचे से अश्व सवार जाता ५६ मे इस मन्दिर का निर्माण और प्रतिष्ठा बताते है। था इतनी वह ऊँची थी। यानी जमीन से ऊपर का छत ऊपर के विवेचन से यह काल निश्चित ही भ्रामक सिद्ध कम से कम (जमीन से मूति की ऊचाई ८+ मूर्ति की होता है। सच तो यह है कि उनके जिस साहित्य में ऊँचाई ३॥+ मूर्ति से छत की ऊँचाई ३॥१६') १६ इसका उल्लेख है वह साहित्य ही पूरा काल्पनिक है । और फिट ऊँचा होना ही चाहिए। आज इस भोयरे की ऊंचाई किसी आधुनिक अनभिज्ञ व्यक्ति ने बनाकर प्राचीन भावसिर्फ ७ फुट ही है। इतने बड़े और सातिशय प्रतिमा के विजय के नाम पर प्रकाशित किया है। लिए आज है इतना ही छोटा (भोयरा) मन्दिर निर्माण दूसरा कारण ऐसा है कि पवली मन्दिर के बाहरी करना उचित नही लगता। खुदाई मे शिलालेख-स्तम्भ प्राप्त हुआ है उससे यह स्पष्ट अतः यह स्थान अधिक ऊँचा तथा बडा ही होगा। हुया कि, विक्रम संवत् १८११ ई. स. १७५४-५५ में उस इसके पश्चिम दिशा में अधिक जगह होगी। वहा त्रिलोकी मन्दिर का जीणोद्धार हो गया था। इसके कुछ साल बाद नाथ के लिये निदान ८ फुट ऊंचाई पर पूर्वाभिमुख वेदी फिर इस पर आक्रमण हुआ, जिसमे यह शील स्तम्भ बनाई गयी होगी। अथवा प्रतिमा के दोनो बाजू ८ फुट जहाँ लगा हुआ था वह सामने का सभामडप यानी मन्दिर ऊचाई पर ऐसे स्थान बनाये होगे जहा खडे होकर भगवान का दशनी भाग नष्ट किया गया। शायद इस समय में ही का अभिषेक पूजन कर सके । वेदी की ऊंचाई ८ फुट । बस्ती मन्दिर पर भी कुछ आघात हुआ होगा। जिस बताने का कारण यह है कि १४वी सदी से ऐसे साहित्य कारण यह प्राचीन मन्दिर नष्ट किया गया उस पर चक्र मे उल्लेख मिलते है कि-'मूर्ति उस समय सिर्फ एक का भव नष्ट होने मे या राज्य में स्थिरता शाति आने मे अगुल ही अधर थी। इसका कारण कलियुग है।' तबसे ४०-५० साल और भी निकल सकते है। क्योकि ऐसे यह मूर्ति आज तक एक अगुल ही अधर है। और ८ फुट समय पर तो लोगो द्वारा मूर्ति कूप मे डालने का या जमीन ऊंची वेदी पर खडा होने के लिए छत निदान ७ फुट ऊँचा म रख दनक अनक उल्लेख मिलत ह । खुद यहा क पवला रखना पड़ता ही है। मन्दिर मे ई. सन् १७५५ की प्रतिष्ठित मूर्ति हाल ही में इसी कारण से आज है उतना ही पूरा मन्दिर पहले जमीन की खुदाई में प्राप्त हुई है। अतः ऐसे स्थान पर से होगा इस मत का समर्थन नहीं होता। निदाम ई० सम् १७५५ के पहले इस नये मन्दिर का निर्माण कदापि शक्य नहीं है। तब यह नया मंदिर कब और कैसा हमा? पुराने मन्दिर से नया मन्दिर क्यो बना इसके प्रायः १. ई० सन् १९६४ मे जब मन्दिर के चौक के नीचे का दो कारण जान पड़ते है-(१) मन्दिर पुराना यानी भाग अन्दर से खोदकर देखा गया तब वह जगह जीर्ण होना तथा (२) जब औरंगजेब का सरदार यहाँ पोकल जान पड़ी तथा इस जगह दिगम्बर जैन प्रतिमा पाया था तब उसने जैसा पच परमेष्टी के मूर्ति को भ्रष्ट के खंडित अवशेष प्राप्त हुए थे। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ बस्ती मंदिर तथा मूलनायक मूर्ति २०५ प्रतः ई. स. १८०० के बाद ही इस नये मन्दिर का में सेनगण की वेदी और गुरुपीठ भी निर्माण कराया है। निर्माण शक्य है। अकोला जिले के ईनाम सार्टिफिकेट इसमे लक्ष्मीसेन भट्टारक बहुत सक्रिय थे। बुक मे इस नये मन्दिर की बाबत जो उल्लेख है उसकी इस कार्य के समाप्त होते ही मन्दिर के दक्षिण बाजू जानकारी इस लेख मे प्रारम्भ मे ही दी गई है। उसके मे धरमशाला बँघाने का कार्य श्री पानंदि के शिष्य प्राधार से इतना तो निश्चित है कि इस नये मन्दिर का देवेद्रकीति ने किया। यह समबई. स. १८४०-४५ होगा। निर्माण ई सन् १८२५ के पहले ही हुआ है तब इसमे मूल- इस धरमशाला में चार कमरे बनाये गये थे, उसमे से २ नायक मूर्ति का स्थानातर किया गया था। ई. स. १८६८ मे बरतन तथा पूजा की भाडी आदि साहित्य रहता था । में शिरपुर में जो वृद्ध लोग थे उनको इतना स्पष्ट स्मरण और दो मे श्री पद्मावती माता के तथा इंद्रों के माभूषण था कि, मूर्ति का जूने मन्दिर से नये मन्दिर में स्थानातर । आदि रहते थे। इनको भडार के कमरे भी कहते थे । इन उनके ही पाखों के सामने हुआ था तथा जो पुराना मन्दिर भण्डार की जाच ई.स १८५७-५८ मे भट्टारक लक्ष्मीसेन खाली था उसका भी जीर्णोद्धार (ई. स. १८६८ से) कम ने स्वय की थी। उनके निजी बही खाते में उन सब चीजों से कम ४० साल पहले हया था। निश्चित तथा तिथि, की याद मौजूद है। प्रतिष्ठाकार या प्रतिष्ठापक इनका स्मरण न रहना स्पष्ट इसके बाद मन्दिर का कपाउड वॉल तथा गेट (महाकरता है कि ४० साल से भी ज्यादा यानी उनके बचपन द्वार) बनाने का कार्य चालू हुआ जो ई. स. १८६८ में के समय की वह घटना होगी। इससे यह सिद्ध होता है चल रहा था। वह पूर्ण होते ही फिर दक्षिण की धर्मकि ई स. १८०० के दरम्यान ही इस नये मन्दिर का शाला न. २ की गच्ची पर तथा मन्दिर के गर्भागार मे निर्माण हुआ है। चूने का गिलावा डलवाकर ई. स. १८८० मे भट्टारक इस समय मन्दिर के सरक्षण के लिये कुछ मराठा देवेद्रकीति जी ने ही मरम्मत करवाई थी। लोगो को (जिनको आज पोलकर कहते है) मन्दिर के इस नए मंदिर को रचना और शिल्प-कारंजा के आवास में ही रहने के लिए जगह दी तथा उनका भी यह बालात्कारगण जैन मन्दिर की रचना घोर इस मन्दिर को श्रद्धास्थान बने इस लिए मन्दिर के बाहर पश्चिम के कोने रचना में बहुत साम्य है। छोटा प्रवेश द्वार, भगवान से में शिवपिंड स्थापन कर दी गई। मतलब यह था कि कम ऊँचाई पर अलग जगह क्षेत्रपालों की रचना प्रादि मन्दिर का सरक्षण यानी शिवपिंड का सरक्षण ऐसा ये बात एक ही वैशिष्टय या एक ही शिल्पकार की देन मालूम लोग मानेंगे। पडती है । यहा के और वहां के शिल्प में भी खड़ी तया ___ इसके साथ मन्दिर के पश्चिम में बडी धर्मशाला भी बैठी नग्न प्रतिमाए उत्कीर्ण या प्रकित की गई है। निर्माण की गई। इस कार्य में भट्रारक पद्मनंदी का (ई. कारंजा के इस मन्दिर के भट्टारक और पंच ही इस मन्दिर स. १८२०) बहुत योगदान था। इनको पौलकर लोग २०) बहत योगदान योजना के मालिक या पंच रहे हैं। २ मालिक मानते थे । इनका गुरु पीठ भी इस मन्दिर मे है। स्मरण रहे कि जैसा इस मन्दिर में दिगम्बर जैन इस नये मन्दिर व धर्मशाला के निर्माण मे कारंजा के भट्टारको के गुरुपीठ है और प्राचीन दि० मूति तथा फोटो सेनगण परम्परा के भट्टारकों ने भी तन-मन-धन से पूरा है उसी तरह यहां एक भी श्वेताबरी गुरुपीठ नहीं हैं या सहयोग दिया। भट्टारक जिनसेन ने (इ. स. १६५५ से श्वेताम्बरी कोई स्वतंत्र वेदी नही है। १७५४) अपने जीवन के अंतिम ४०-५० साल यहाँ रह इस प्रकार यह मन्दिर की भूमि और इस गांव की कर यानी औरंगजेब की सवारी के बाद यहा रहकर घब- जनता चाहे वह जैन हो या प्रजन, बाल हो या वृद्धराये धावकों को दिलासा दिया था। उनकी, उनके शिष्य कहती है कि यह तीर्थ सम्पूर्णतया दि. जैनों का ही है। की भी समाधि यहां हुई है। इन सेनगण भट्टारको के फिर भी इस मन्दिर की बाबत या यहां के ऐतिहासिक स्मृति हेतु इस नये मन्दिर के ऊपर के (दर्शनी) मजिल धार्मिक जानकारी के लिए यहाँ प्रतिष्ठित मौर स्थापित Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ अनेकान्त दिगम्बर जैन मूर्ति-यंत्र प्रादि लेखसंग्रह देखिए। वह अने- अँड इस्टर्न आचिटेक्टर।' इस किताब में एलोरा के जैन कान्त के पिछले अंकों में प्रकाशित हैं। लेणी के बारे में लिखते हैं-'यहाँ के चैत्यालय और अन्य मूलनायक मूति बाबत लोकमत-देवाधिदेव १००८ भी एलिचपुर के राजा एड (एल) ने निर्माण की है। श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ प्रभु की मूर्ति श्रीपाल एल (ईल) उसने एलोरा यह गाँव देणगी खातिर निर्माण किया था। राजा को कहां से प्राप्त हुई इस बाबत दिगम्बर जैन क्योंकि यहां के एक झरे के जल से उसका रोग दूर हो साहित्य में पवली मन्दिर के नजदीक का कुवां ही बताया गया था। जाता है। तो भी श्वेताम्बर व अन्य साहित्य मे इस बाबत (३) श्री यादव माधव काले, 'वहाडचा इतिहास' भिन्न-भिन्न दो मत नजर आते हैं : इस मराठी किताब में लिखते है.-पृ० ४६० पर 'शिरपुर (१) पहला मत-१४वी सदी के श्वेताम्बर मुनि यहाँ जैनों के दो प्रसिद्ध प्राचीन मन्दिर हैं। मुक्तागिरि जिनप्रभसूरि अंतरिक्ष पार्श्वनाथ कल्प मे लिखते है कि जैसे ये भी जैनों के गतवैभव की साक्षी देते है। इस जगह 'राजा को यह रत्नमयी प्रतिमा जहां प्राप्त हुई वहां ही अंतरिक्ष पार्श्वनाथ की मूर्ति इस तरह बिठाई है कि आकाश उसने मन्दिर बनवा कर अपने नाम का उल्लेख करने मे ही है, जमीन का स्पर्श भी नही ऐसा मानने मे आता वाला नगर बसाया"। यानी मूर्ति प्राप्त होने का और है। इसलिए अंतरिक्ष कहते है। यह प्रतिमा राजा एल ने राजा के मन्दिर बनवाने का एक ही स्थान है। एलोरा से लाई और वह इसको एलिचपुर ले जा रहा था। (२) दूसरा मत यह है कि-मूलनायक मूर्ति एल मगर भगवान की आज्ञा के खिलाफ राजा ने पीछे देखा, राजा को एलोरा के एक झरे मे मिली, जहा उसका कुष्ट इसलिए रास्ते में शिरपुर की जगह वह रुक गई। राजा रोग गया । वहा राजा ने कुड वनवाया और यह प्रतिमा ने वहा ही मन्दिर बनवाया। एलिचपुर से जाने को उद्यत हुई। लेकिन शिरपुर के वही किताब पृ. ४६४ पर लिखा है-'प्रतरिक्ष स्थान पर राजा ने शकित भाव से पीछे देखा तो, प्रतिमा पार्श्वनाथ शिरपुर का मन्दिर जैनों के गत वैभव की साक्षी वहाँ ही रुक गई। देखो-(१) श्वेताम्बर मुनि जिनचंद्र देते है। राजा एल ने यह प्रतिमा एलोरा से लायी थी सूरि (वि. स. १८३६ ता० ३१ मार्च १७६६) सिद्धपुर और वह इसको एलिचपुर ले जा रहा था । आदि ।" पट्टण में जब थे तब उन्होंने एक काव्य रचा था। उसमे इस तरह अनेक उल्लेख दिये जा सकते है । मुक्तावे बताते हैं, "प्रतरिक्ष प्रभु मेरे हृदय मे वास करते है। गिरि यह स्थान दिगम्बर जैन सस्कृति का और इतिहास ये त्रिलोकीनाथ है। यह मूर्ति खरदूषण राजा की पूजा का जैसा स्थान है वैसा ही एलोरा यह दिगम्बर जैन के लिए बनायी गई थी। बाद में यह मूर्ति जल मे ११ सस्कृति का केन्द्र स्थान है। खुद श्वेताम्बर मुनि जयसिह लाख साल रहकर प्रगट हुई। मूरि (शके ९१५) लिखते है-'एलउर मे (एलोरा मे) जब एलिचपूर के एक राजा को कुष्ट रोग हुआ था दिगम्बर बसही है। तब जहाँ यह मूर्ति थी वहाँ के जल से स्नान करने से जिस ईल (एल) राजा ने अनंत द्रव्य खर्चा कर राजा.का रोग दूर हो गया था। राजा का शरीर सुवर्ण एलोरा में दिगंबर जैन संस्कृति सम्पन्न मन्दिर निर्माण समान कातिमान हुआ था। वह स्थान एलोरा है। राजा किया, उसी श्रीपाल एल राजा द्वारा यहाँ स्थापना की हुई यह मूर्ति एलोरा से प्राकाश में से एलिचपुर ले जा रहा यह प्रतिमा दिगबर ही है, यहां और कहने की आवश्यकता था। लेकिन मूर्ति रास्ते मे शिरपुर की जगह रुक गई। न यह भगवान पार्श्वनाथ सबके लिए आकर्षण है ।" आदि। सन् १९०८ मे श्वेताम्बरी लोगो ने इस मूर्ति को लेप (२) मि. फर्ग्युसन साहेब; 'दि हिस्ट्री ऑफ इण्डियन : १. इस मूर्ति के कारण एलोरा से एल राज्य का सम्बन्ध १. रन्ना पडिमा अदळूण अधिईए गते तत्थेव सिरीपुरं नहीं तो, वहां मूल लेण्या (गुफा) निर्माण करने से नाम नयर निभ्रनामो वलक्खिनं निवेशिभं । वहां का नाम एल उर पड़ा है। हिस्टी ऑफ इण्डियन १. इस मूति क का (गफा) निर्माण Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाय बस्ती मंदिर तथा मूलनायक मूर्ति करने की दिगंबरों से सम्मति ली, और लेप करते समय श्री मलधारी पचप्रभ देव को इस मूर्ति की प्रतिष्ठा में कारीगरों के हाथ से लेप में कटिसूत्र तथा लगोट के चिह्न एलिचपुर पधारने का प्रामंत्रण दिया होगा । एलिचपुर की बनाने की कोशिस की। यह नजर मे आते ही दिगंबरियो जगह इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा शिरपुर में ही हो गई। ने काम बन्द कराया। तो भी उन्होने चोरी से लेप का राजा के मन्दिर मे मूर्ति ने प्रवेश न करने से बाद में गुरू काम कर लिया। ४।१६१० के केस में उन्होंने मूर्ति का को बुलाया गया, यह बात बराबर नही लगती। स्वामूल स्वरूप कोर्ट के सामने नही पाने दिया । लेप मे बताये भाविक तो यह है कि ऐसे मंगल प्रसंग में चतुः संघ को चिह्न के अनुसार कोर्ट को 'कटिसूत्र तथा लंगोट' की पहले से ही निमंत्रित किया जाता है। इसी कारण मूर्ति मान्यता देनी पडी। लेकिन हाल ही १९५६ मे जब उन्होने यहाँ ही निकलकर दो फलांग के अन्तर पर रुकने मे मूर्ति पर का लेप उतार दिया था और इस स्वयभू प्रति- एलोरा से आकर यहां रुकने में तथा उसकी प्रतिष्ठा में प्ठित मूर्ति पर टांकी के घाव देकर कटिसूत्र निकालना चतु. संघ उपस्थित रहने में वाधा नहीं पाती। अत: यह प्रारम्भ किया। यह कृष्ण कृत्य प्रगट होने में देर नहीं पद्मप्रभदेवाचार्य यहां तब उपस्थित थे और उनके तत्त्वावलगी। स्थानीय अधिकारी तथा पुरातत्व विभाग को धान मे गाँव मे ही मन्दिर बनवा कर प्रतिष्ठित महोत्सव इसकी सूचना तुरन्त दी गयी। उस समय के पचनामा हा था। तथा स्पॉट इन्सपेक्शन से स्पष्ट घोषित हुआ कि मूर्ति मजबूत पाषाण की है तथा मूर्ति पर कटिसूत्र या ल गोटे आइये, जाते समय बाहर से इस मन्दिर को और एक के काइ चिह्न नहीं है। यानी मूर्ति मूलतः दिगबरी है। दफ देख लें । मन्दिर के ऊपर हवा में लहराने वाला भला सदेश दे रहा है :यह मूर्ति ऊपर के साहित्य में बताये मुताबिक मान भी लिया जाय कि, एलोरा से लाई है तो भी रास्ते में जो "मंडा यह केशरिया करे पुकार, देवगिरि स्थान पाता है, उस समय वहाँ होने वाले १०८ दिगंबर जैन धर्म का जय जयकार ।" भारतीय वास्तुशास्त्र में जैन प्रतिमा संबंधी ज्ञातव्य अगरचन्द नाहटा जैनधर्म मे स्तूप, अयागपट्ट, मूतियों, मन्दिरो के विषयों की जानकारी तो उनके पास होती है पर वे न निर्माण की प्राचीन एव उल्लेखनीय परम्परा रही है जैन तो स्वयं किसी ग्रन्थ को पढ़ते है और न अपनी जानकारी मन्दिरों एव मूर्तियो के सम्बन्ध मे मध्यकालीन वास्तु लिपिबद्ध ही करते है । थोडे से शिल्पी ऐसे जरूर हुये है शास्त्र सम्बन्धी अनेकों ग्रन्थो मे ज्ञातव्य विवरण मिलता है जिन्होने वास्तुशास्त्र संबधी ग्रन्थ बनाये है। यद्यपि उपलब्ध जैन मूर्तियो की विविधता का समावेश जैनधर्म में मूर्ति पूजा जितनी प्राचीन है इस संबंधि इन विवरणों मे पूर्ण रूप से नही हो पाता। शिल्पियों ने ग्रन्थ उतने प्राचीन नही मिलते । प्राचीन जैन भागमों के अपनी परम्परागत जानकारी को लिपिबद्ध नही करके अनुसार तो जैन मूर्तियों की पूजा अनादिकाल से देवलोक वश परम्परागत रखा । वैसे सभी शिल्पी शिक्षित भी नहीं प्रादि में परम्परागत चली पा रही है। नंदीवर द्वीपादि होते। अपनी वंश परम्परा से अपनी आजीविकागत के मन्दिर व जैन मूर्तियों को भी शाश्वत माना गया है । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० अनेकान्त उपलब्ध जैन मूर्ति तो मौर्यकाल से पहले की नहीं मिलती प्रकाशित हो चुके हैं । द्वितीय और पंचम को सन् १९५६ यद्यपि मोहनजोदड़ो, हडप्पा की खुदाई में जैन तीर्थकरों में प्रकाशार्थ लिखा गया प्रत सम्भव है अब प्रकाशित हो जैसी ध्यानावस्थित मूर्तियां प्राप्त हुई है। पर वे जैन गये हों। तदनतर तृतीय भाग के प्रकाशन की योजना थी तीर्थकरों की ही है, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा पता नही उसकी क्या स्थिति अग्रेजी मे Hindu Science सकता. सम्भावना अवश्य है । मथुरा का जैन स्तूप तो of Architecture के नाम ग्रन्थ तैयार होने और शीघ्र बहत ही प्राचीन है। विविध तीथं कल्प प्रादि ग्रन्थों के प्रकाशित होने की सूचना सन् १९५६ मे चतुर्थ भाग में दी अनसार वह सातवें तीथकर श्री सुपाश्र्वनाथ का स्तूप है गई थी। अर्थात् डा० द्विजेन्द्रनाथ शक्ल की वर्षों की जिन्हे जैन मान्यता के अनुसार तो करोडो वर्ष हो गये। साधना तथा विशाल और गम्भीर अध्ययन इस भारतीय पाश्चात्य विद्वानो ने उस देवनिर्मित स्तूप के सबध मे यह वास्तुशास्त्र नामक ग्रन्थ से भलीभांति स्पष्ट हो जाता है अनमान किया है कि जिस समय इसके सबध में उसके देव. डा० शक्ल लखनऊ विश्वविद्यालय के सस्कृत विभाग में है निर्मित होने की बात कही गई उस समय वह इतना पुराना एम. ए. पी-एच. डी. के साथ साहित्यरत्न और काव्यतीर्थ अवश्य था कि लोग उसके निर्माता के संबंध में कुछ भी जैसी उच्चत्तम उपाधिया उन्हें प्राप्त है। जानकारी नही रखते थे ! अर्थात् काफी पुराने समय में भारतीय वास्तुशास्त्र के चतर्थ भाग का नाम है वह बना था। प्रतिमा विज्ञान । इसमें ब्राह्मण बौद्ध और जैन प्रतिमा के भारतीय वास्तुशास्त्र के संबंध मे इतने अधिक ग्रन्थ लक्षण प्रादि की महत्वपूर्ण चर्चा है । प्रारम्भ मे पूजा लिखे गये कि उनकी विवरणात्मक सूची प्रकाशित की जाय परम्पग पर प्रकाश डालते हुये ग्रन्थ के पृष्ठ १३८ से तो भी एक बहुत बड़ा ग्रन्थ बन जायगा। कई वर्ष पूर्व १४० के बीच मे जैनधर्म-जिन पूजा सबधी विवरण नागरी प्रचारिणी पत्रिका में मैने एक वास्तुशास्त्र सबधि दिया है फिर स्थापत्यात्मक-मदिर नामक प्रकरण मे जैन ग्रन्थों की सूची प्रकाशित की थी। उसमे शताधिक ग्रन्थ थे मदिर के संबंध में सक्षेप मे लिखा गया है जिसमे प्राब, पर उसके बाद पूना से प्रकाशित शिल्प ससार नामक पालिताना, गिरनार, मैसूर, मथुरा, एलोरा, खजराहो. पत्रिका में शिल्प संबंधी ग्रन्थो की सूची देखने को मिली देवगड, का उल्लेख किया गया है । इस ग्रन्थ मे लिखा है जिसमे ७५० के करीब ग्रन्थो के नाम थे। वास्तुशास्त्र कि "गुहा मदिरों का निर्माण परम्परा इस देश में इतनी मंबंधी ग्रन्थों मे कई बहुत छोटे से है और कई बहुत बडे। वृद्धिगत हुई कि समस्त देश में १२०० गुहा मदिर बने में नहिं निर्माण या लक्षण संबंधी ही सक्षिप्त जिनमें ६०० बौद्ध, २०० जैन और १०० हिन्दु है।" विवरण है तो कइयो मे मन्दिर प्रादि संबधी विस्तृत ग्रन्थ के उत्तर पीठिका नामक भाग मे जैन प्रतिमा प्रकाश डाला गया है । अभी तक वास्तु शिल्प सबंधी बहुत लक्षण पृष्ठ ३१३ से ३१८ में दिया गया है। परिशिष्ट थोडे से ग्रन्थ प्रकाशित हुये है। प्राचीन ग्रन्थों के साथ में अपराजित पृच्छा से उद्धृत जैन प्रतिमा लक्षण सम्बन्धी साथ कई ऐसे ग्रन्थ भी निकले हैं जो अनेक ग्रन्थों के प्राधार संस्कृत श्लोक पृ० ३३३ से ३३६ में दिये गये हैं जिनकी से तैयार किये गये हैं । हिन्दी भाषा मे लिखे गये इस सख्या ५५ है। विषय के ग्रन्थों मे डा. द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल का भारतीय ब्राह्मण और बौद्ध की पूजा, परम्परा और प्रतिमा वास्तुशास्त्र नामक ग्रन्थ बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यह ग्रन्थ लक्षण के सबध में जितना अधिक प्रकाश डाला गया है पांच भागों में प्रकाशित करने की योजना हा० शुक्ल ने उसे देखते हये जैन सबंधी विवरण बहुत सक्षिप्त मालूम बनाई यथा देता है। पर इसका एक मुख्य कारण तो यही है कि इस (१) वास्तु विद्या एवं पुरनिवेश (२) भवन वास्तु सबंध में सामग्री भी बहुत कम मिलती है और वह इतनी (३) प्रासाद (४) प्रतिमा विज्ञान (५) चित्रकला, यंत्र सुलभ भी नहीं है कला और वास्तुकोष । इसमें से प्रथम भोर चतुर्थ भाग 'अनेकान्त' के अगस्त अंक में रायपुर म्युजियम के Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय वास्तुशास्त्र में बैन प्रतिमा संबंधी ज्ञातव्य २०६ क्यूरेटर श्री बालचन्द जैन का एक लेख 'जन प्रतिमा प १४८ श्लो० ५०,८०-में नेमिनाथ को जिनेश्वर कहा लक्षण' नामक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रकाशित हुआ है। गया है ज्योतिप्रसाद जी ने नेमिनाथ के सम्बन्ध में एक उसके बाद महाराणा कुभा के शिल्पी मडल रचित रूप बडा ही अद्भुत संकेत ऋग्वेद से भी निकाला है :मन्डन ग्रन्थ में इस सबधी जो ज्ञातव्य विवरण था वह मैने स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्वदेवाः। 'अनेकान्त' में प्रकाशनार्थ भेज दिया और अब उमी स्वस्ति नस्तायो परिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिबंधातु ।। सिलसिले में डा० द्विजेन्द्रनाथ शक्ल के 'प्रतिमा विज्ञान' । ऋ० १-१-१६, यजु० २५०१६, सा० ३०८ । ग्रन्थ मे जैन सबधी जो विवरण है उसे प्रकाशित किया अस्तु, जैन-धर्म की प्राचीनता के प्रबल अथवा निर्बल जा रहा है प्रमाणो की अवतारणा यहाँ अभिप्रेत नही है इस विषय की जैन वास्तुशास्त्र मबधी ग्रन्थ में ठक्कुर फेरू का विशद समीक्षा उपर्युक्त प्रबन्ध में द्रष्टव्य है हा इतना प्राकृत भाषा का वास्तुमार ग्रन्थ विशेष रूप से उल्लेखनीय हमारा भी प्राकून है कि इस धर्म का नाम 'जैन-धर्म' है जो गुजराती और हिन्दी अनुवाद और विवेचन के माथ वर्धमान महावीर से भी पहले प्रचलित था यह सन्दिग्ध है ५. भगवानदास जैन, जयपुर ने प्रकाशित किया है उन्होने इस धर्म की प्राचीनतम मजा मम्भवत 'श्रामण धर्म' थी हाल ही में मथल रचित 'प्रामादमडन' का सानुवाद और जो कर्मकाण्डमय ब्राह्मण धर्म का विरोधी था इस श्रामण सयन्त्र विशेष सस्करण प्रकाशित किया है दूसरे महत्वपूर्ण धर्म के प्रचारक 'अहंत थे जो सर्वज्ञ रागद्वेष के विजयी, वास्तुशास्त्र सबी ग्रन्थ मुनि कल्याण विजयजी रचित त्रैलोक्य-विजयी सिद्ध पुरूप थे प्रतएव इसकी दूमरी सजा 'कल्याण कनिका' दो भागो में जालोर में प्रकाशित हो 'अहत-धर्म' भी थी, दीघनिकाय में जन-धर्म के अन्तिम चका है। जैन शिल्प के मुनि कल्याण विजयजी एव तीर्थदर वर्धमान महावीर का उल्लेख तत्कालीन विख्यातभगवानदाम जैन विशेष अभ्यामी व जानकार है कतिपय नामा ६ तीर्थरो के साथ निगण्ठनातन के नाम से अन्य जैनाचार्य, मुनि और पडित भी इस विषय की अच्छी किया गया है निगण्ठ अर्थात 'निर्ग्रन्थ' यह उपाधि महावीर जानकारी रखते है पर अभी तक उसका कोई ग्रन्थ को उनकी भव-बधन की अथियो के ग्वल जाने के कारण प्रकाशित हुआ देखने में नही आया । दी गई थी गगद्वेष-स्पी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेन डा० द्विजेन्द्रनाथशक्ल के प्रतिमा विजान ग्रन्थ से जैन के कारण वर्धमान 'जिन' के नाम भी विख्यात हुए, अतएव सबधी विवरण नीचे दिया जा रहा है वर्धमान महावीर के द्वारा प्रचारित यह धर्म जैन-धर्म कह जन-धर्म-जिन-पूजा लाया। जैन धर्म में ईश्वर की कोई प्रास्था नही धर्म प्रचारक' जैन-धर्म को बौद्ध-धर्म का समकालिक अथवा उमसे तीर्थकर ही उनक पागध्य है 'तीर्थङ्कर' का अर्थ मार्गस्त्रकुछ ही प्रचीनतर मनना सगत नही नवीन गवेपणानो एव । प्टा' तथा संघ व्यापक भी है अनुसन्धान से (दे० ज्यौति-प्रसाद जैन Jainism the ___महावीर के पहले पार्श्वनाथ जी ने इस धर्म का विपुल oldest Living Religion) जैन-धर्म कालक्रम से बहुत प्राचीन है। भले ही श्रीयुक्त ज्योति प्रसाद जी के जैन प्रचार किया उनके मूल सिद्धात थे अहिंसा, सत्य, अस्तेय धर्म के प्रचीनता-विषयक अनेक प्राकृत न भी मान्य हो तथा अपरिग्रह जो ब्राह्मण-योगियो (दे० योग-सूत्र) को तब भी वह निविवाद है कि जनों के २४ तीर्थडगे मे ही सनातन दिव्य दृष्टि थी। पार्श्वनाथ ने इसको चार केवल महावीर ही ऐतिहासिक महापुरुष नही थे उनके महाव्रतो के नाम से पुकाग है। महावीर ने इन चारो पहले के भी कतिपय तीर्थङ्कर ऐतिहासिक है जो में पांचवा महावत ब्रह्मचर्य जोडा है पार्श्वनाथ जी वस्त्र म इम्बायपूर्व एक हजार वर्ष से भी प्राचीनतर है पार्श्वनाथ घारण के पक्षपाती थे' परन्तु महावीर ने अपरिग्रह-व्रत की (ई० पू०९वी शताब्दी के पूर्व के तीर्थडुरो मे भगवान् पूर्णता सम्प पूर्णता सम्पादनार्थ वस्त्र परिधान' को भी त्याज्य समझा नेमिनाथ एक ऐतिहासिक महापुरुष थे म. भा. अनु पर्व १-२. श्वेताम्बरी मान्यता है। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० अनेकान्त इस प्रकार जैनियों के श्वेताम्बर तथा दिगम्बर सम्प्रदायों महत्त्वपूर्ण स्थान का अधिकारी है। श्वेताम्बरों और का भेद अत्यन्त प्राचीनकाल से चला आ रहा है। दिगम्बरों की पूजा-प्रणाली मे भेद है-श्वेताम्बर पुष्पादि जैनियों का भी बड़ा ही पृथुल धार्मिक माहित्य है द्रव्यों का प्रयोग करते है, दिगम्बर उनके स्थान पर प्रक्षत बौद्धों ने पाली और जैनियों ने प्राकृत अपनाई। महावीर आदि ही चढाते है। दूसरे दिगम्बर प्रचुर जल का ने भी तत्कालीन-लोक भाषा अर्धमागधी या पार्ष-प्राकृत मे (मूतिया क स्नान म) प्रयोग करते है। परन्तु श्वेता अपना उपदेश दिया था । महाबीर के प्रधान गणधर बहुत थाड जल स काम निकालते है। तीसरे दिगम्बर (शिष्य) गौतम इन्द्रभूति ने उनके उपदेशों को गात्र में मूति-पूजा कर सकते है परन्तु श्वेताम्बर तो अपने १२ 'अंग' तथा १४ 'पूर्व' के रूप में निबद्ध किया इनको मन्दिरों मे दीपक भी नहीं जलाते---सम्भवतः हिंसा न हो जैनी लोग 'पागम' के नाम से पुकारते है । श्वेताम्बरों का जाय । सम्पूर्ण जैनागम ६ भागो में विभाजित है । अंग, उपाग, जिस प्रकार ब्राह्मणों के शाक-वर्म मे शक्ति-गूजा प्रकीर्णक, छेदमूत्र, सूत्र तथा मूलसूत्र-जिसके पृथक्-पृथक् (देवी-पूजा) का देव-पूजा मे प्रमुख स्थान है । बोडो ने भी अनेक ग्रन्थ है। दिगम्बरों के प्रागम षट्खण्डागम एव एक विलक्षण शक्ति-पूजा अपनाई उसी प्रकार जैनियो में कसाय-पाहुड विशेष उल्लेख्य है। जैनियो के पुराण है भी शक्ति-पूजा की मान्यता स्वीकार हुई। जैन-धर्म जिनमे २४ तीर्थकर १२ चक्रवर्ती, ६ बलदेव, ६ वासुदेव, तीर्थकर-वादी है, ईश्वरवादी नही है यह हम पहले ही प्रतिवासुदेव के वर्णन है । इन सब की सख्या ६३ है जो कह पाये है। जैनियो के मन्दिर एव तीर्थ-स्थानो में देवी'शलाका-पुरुष' के नाम से उल्लेखित किये गये है। स्थान प्रमुख स्थान रखता है। जैन-शामन की पूर्णता जैन-धर्म की भी अपनी दर्शन-ज्योति है परन्तु इस । शाक्त-शामन पर है। जैन-यति तान्त्रिक उपासना के पक्षधर्म की मौलिक भित्ति प्राचार है। प्राचार-प्रधान इम पाती थे । ककाली, काची ग्रादि तान्त्रिक देवियो का जैन धर्म में परम्परागत उन मभी आचागें (आचार. प्रयमो । ग्रन्थो में महत्वपूर्ण प्रतिष्ठा एवं सकीर्तन है । ददेताम्बरों धर्मः) का अनुगमन है जिससे जीवन मरल, सच्चा और ने महायान बौद्धो के सदृश तान्त्रिक-परम्परा पल्लवित साधु बन सके । की। जैन-शासन मे तीर्थकर-विषयक ध्यानयोग का विधान जैन-धर्म यतियो एवं श्रावको दोनो के लिए सामान्य है। दम योग के घi.ema एवं विशिष्ट प्रादेश देता है । अतएव भाव-पूजा विभाग है। धर्म-ध्यान केोग बाप के पन: चार एवं उपचार-पूजा दोनों का ही इस धर्म मे स्थान है। __ विभाग है। पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूप-वजित । प्रतीक-पूजा मानव-सभ्यता का एक अभिन्न अंग होने के इनमें मन्त्र-विद्या का सयोग स्वाभाविक था-हेमचन्द्र के कारण सभी धर्मों एव संस्कृतियों ने अपनाया, अतः जैनियो योग-शास्त्र में ऐसा प्रतिपादन किया है। इस मत्रमे भी यह परम्परा प्रचलित थी। विद्या के कालान्तर पाकर दो स्वरूप विकसित हुए-- उपचारात्मक पूजा-प्रणाली के लिए मन्दिर-निर्माण मलिन-विद्या और शद्ध-विद्या जैसा कि ब्राह्मण धर्म में एवं प्रतिमा-प्रतिष्ठा अनिवार्य है। अतएव जैनियों ने भी वामाचार और दक्षिणाचार की गाथा है। शद्ध-विद्या की श्रावको के लिए दैनिक मन्दिराभिगमन एवं देव-दर्शन अधिष्ठात देवी सरस्वती की पूजा जैनियो में विशेष मान्य अनिवार्य बताया । समस्त धार्मिक कृत्यो एव उपासनाओ है। सरस्वती-पूजा के अतिरिक्त जैन-धर्म में प्रत्येक के लिए मन्दिर ही जैनियो के केन्द्र है। देव-पूजा के तीर्थकर का एक-एक शासन देवता का भी यही रहस्य है। उपचारों में जल-पूजा, चन्दन-पूजा, अक्षत-पूजा, पारातिक श्वेताम्बरमतानुसार ये चौबीस देवता आगे जैन-प्रतिमा और सामायिक (पाठ) आदि विशेष विहित है । प्रतीक- लक्षण में चौबीस तीर्थकर के साथ-साथ सज्ञापित किये पूजा का सर्वप्रबल निदर्शन जैनियो की सिद्ध-चक्र-पूजा है जायेगे। सरस्वती के षोडश विद्या-व्यूहो का हम आगे ही जो तीर्थकरों की प्रतिमाओं के साथ-साथ मन्दिर मे उसी अवसर पर सकीर्तन करेगे। इस प्रकार जैनधर्म मे Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय वास्तुशास्त्र में जन प्रतिमा सम्बन्धी ज्ञातव्य २११ प्रसाद-देवता, कुल-देवता और सम्प्रदाय-देवता इन तीनो (जिनो के कल्याणमय कार्य एवं काल की गाथाओं) का देव-वर्गों का अभ्युदय हुआ। इन सभी में हिन्दुओ के देवो भी तो यही रहस्य है। तीर्थरो के अतिरिक्त जनों के और देवियो का ही विशेष प्रभाव है। बौद्धो की अपेक्षा जिन-जिन देवो की कल्पना परम्परित हई उसका सकेत जैन हिन्दू-धर्म के विशेष निकट है। जैन-देव वृन्द के इस पीछे भी कर चुके है (दे० जैनधर्म-जिनपूजा) तथा कुछ सकेत में यक्षो को नही भुलाया जा सकता। तीर्थकगे के चर्चा प्रागे भी होगी। प्रतिमा-लक्षण में देवी साहचर्य के साथ-साथ यक्ष-साहचर्य जैनियो की प्रतिमा-पूजा परम्पग की प्राचीनता पर भी एक अभिन्न अंग है। प्राचीन हिन्दू-साहित्य मे यक्षो हम सकेत कर चके है। इस परम्परा के पोषक साहित्यिक की परम्परा, उनका स्थान एक उनके गौरव और मर्यादा एव स्थापत्यात्मक प्रमाणो मे एक दो तथ्यो पर पाठकों के विपुल सकेत मिलते है । जैन-धर्म में यक्षो का तीर्थकर का ध्यान आकर्षित करना है। हाथी गुम्फा-अभिलेख से साहचर्य तथा जैन-गासन मे यक्षो और यक्षणियो का जैन प्रतिमा पूजा शिशुनाग और नन्द राजाप्रो के काल म अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान का क्या मर्म है ? यक्षाधिप कुबेर विद्यमान थी-मा प्रमाणित किया जाता है। श्रीयुत देवो के धनाधिप सकीर्तित है। यक्षो का भोग एव ऐश्वर्य बन्दावन भट्टाचार्य (See Jain Econography P. 33) सनातन से प्रसिद्ध है। जैन-धर्म का सरक्षण सम्पन्न थेष्ठि- ने कौटिल्य के अर्थशास्त्र में निर्दिष्ट जयन्त वैजयन्त, अपकुलो एव ऐश्वयंशाली वणिक-वृन्द में विशेष रूप से पाया राजित प्रादि जिन-देवो को जैन देवता माना है वह ठीक गया है। अतएव यक्ष और यक्षिणी प्राचीन समृद्ध जैन- नही। हाजन साहित्य को एक प्राचीन कृति-- 'अन्तगढ़धर्मानुयायी थावकगणों का प्रतिनिधित्व करते है, ऐसा दामो में 'हरिनेग मेशि' का जो सकेत, उन्होंने उल्लिखित भट्टाचार्य जी का (Scc Jain Econography) अकूत किया है, उससे जिन-पूजा परम्पग ईसा से लगभग ६०० है। हमारी समझ में यक्ष और यक्षिणी तात्रिक-विद्या वर्ष पूर्व तो प्रमाणित अवश्य होती है। मथुरा के पुगतन्त्र-मत्रसमन्विता रहस्यात्मिका शक्ति-उपासना का प्रति- तत्वान्वेषणा से भी यही निस्कर्ष दढ होता है। जेना के निधित्व करते है। हिन्दुओं के दिग्पाल और नवग्रह-देवो वे तीर्थकर की जिससे प्रतीकोपामना व प्रतिमा-पूजा को भी जैनियों ने अपनाया। क्षेत्रपाल, श्री (लक्ष्मी) दोनों की प्राचीनता सिद्ध होती है। शान्ति देवी और ६४ योगिनियों का विपुल वृन्द जैन-देव जन प्रतिमानों को विशेषताएंवृन्द मे सम्मलित है। अन्त मे जैन तीर्थो पर थोडा सकेत (अ) प्रतीक-लाग्छन-जन-प्रतिमाएँ ही क्या अखिल यावश्यक है। जैन-तीर्थकरो की जन्म-भूमि अथवा कार्य भारतीय प्रतिमाएं-प्रतीकवाद (Symbolism) से अनुकैवल्य भूमि जन-तीर्थ कहलाये । लिखा भी है - प्राणित है । भारतीय स्थापत्य की प्रमुख विशेषता प्रतीकत्व जन्म-निष्क्रमणस्थान-ज्ञान-निर्वाण भूमिषु । है। इस प्रतीकत्व के नाना कलेवर्ग में धर्म एवं दर्शन की अन्येषु पुण्यदेशेषु नदीकूले नगरेषु च ॥ ज्योति ने प्राण सचार किया है। तीर्थङ्कगे की प्रतिमोद्ग्रामादिसन्निवेशेषु समुद्रपुलिनेषु च।। भावना में वगहमिहिर की-वृहत्साहिता के निम्न प्रवचन अन्येषु वा मनोज्ञेष करायज्जिनमन्दिरम् ॥ मे जैन-प्रतिमानो की विशेषतामों का सुन्दर प्राभास! जैन प्रतिमा-लक्षण मिलता है :जैन प्रतिमानों का प्राविर्भाव-जैन प्रतिमाओं का प्राजानुलम्बाहुः श्रीवत्सांकः प्रशान्तमूर्तिश्च । प्राविर्भाव जैनो के तीर्थकगे से हुआ। तीर्थकगे की प्रति- दिग्बासास्तहणो रूपवाश्च कार्योऽहंता देवः ॥ मायों का प्रयोजन जिज्ञासु जैनो में न केवल तीर्थकरो के अर्थात् तीर्थङ्कर-विशेष की प्रतिमा प्रकल्पन में लम्बे पावन-जीवन, धर्म-प्रचार और कैवल्य-प्राप्ति की स्मृति ही लटकते हुए हाथ (आजानुलम्बाहु), श्रीवत्स-लाञ्छन दिलाना था, वरन् तीर्थकरों के द्वारा परिवर्तित पथ के प्रशान्त-मूर्ति, नग्न-शरीर, तरुणावस्था--ये पांच मामान्य पथिक बनने की प्रेरणा भी। जिनपूजा में कल्याण-पाठ विशेषताए हैं। इनके अतिरिक्त दक्षिण एवं वाम पार्श्व में / Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ अनेकान्त क्रमशः एक यक्ष और एक यक्षिणी का भी प्रदर्शन आव- रिक्त जैनियों का देव वृन्द ब्राह्मण देव वृन्द ही है। श्यक है। तीसरे अशोक (म्र वृक्ष जिसके नीचे बैठकर (स) तीर्थंकरजिन-विशेष ने ज्ञान प्राप्त किया) वृक्ष के साथ अष्ट- जैनधर्म में सभी तीर्थकरो की समान महिमा है। प्रातिहार्यों (दिव्यतरु, आसन, सिहासन तथा प्रातपत्र' बौद्ध गौतमबुद्ध की ही जिस प्रकार में सर्वतिशायी प्रतिचामर, भामण्डल, दिव्य-दुन्दुभि, सुरपुष्पवृष्टि एव दिव्य- ष्ठित करते हैं, वैमा जैनियों में नहीं। तीर्यकर प्रतिमा ध्वनि) में से किसी एक का प्रदर्शन भी विहित है। निदर्शनों में इस तथ्य का पोषण पाया जाता है। जैन तीर्थङ्कर-विशेष की प्रतिमा मे इन सभी प्रतीकों का प्रतिमानो की दूसरी विशेषता यह है कि जिनों के चित्रण प्रकल्पन अनिवार्य है। जिन प्रतिमा मे शासन-देवताओं- में तीर्थकरो का सर्वश्रेष्ठ पद प्रकल्पित होता है। ब्रह्मादि यक्षों एव यक्षणियों का प्रदर्शन गौडरूप से ही अभिप्रेत है देव भी गोड-पद के ही अधिकारी है। इसी दृष्टि से हाँ उनकी निजी प्रतिमाओं मे जिनमूर्ति गौड हो जाती है हेमचंद्र के 'अभिधान-चिन्तामणि' मे जैन देवो का 'देवादि और उसको आविर्भूत बौद्धदेव वृन्द मे प्राविर्भावक-देव की देव' और देव इन दो श्रेणियों में जो विभाजन है, वह प्रतिमा के सदृश, शीर्ष पर अथवा अन्य किमी ऊवं पद समझ मे या मकता। देवादिदेव तीर्थकर तथा देव अन्य पर प्रतिष्ठापित किया जाता है। महायक देव, थी वृन्दावन भट्टाचार्य ने ठीक ही लिखा है। (ब) जैन-देवों के विभिन्न वर्ग In inconography also this idea of the relative 'प्राचार दिनकर के अनुसार जैनो के देव एव देवियो superiority of the Jains has manipasted itself की ३ श्रेणियों है। १. प्रासाद देवियां, २. कूल देवियों In the earliest of Jainism, the Tirthankaras (तांत्रिक देवियाँ) तथा ६. साम्प्रदाय देवियाँ। यहाँ पर prominently occupy about the what realy of यह स्मरण रहे कि जैनों के दो प्रधान सम्प्रदायो दिगम्बर the stone एवं श्वेताम्बर-देवो एव देवियों की एक परम्परा नही है। जैन-मदिरो की मूर्ति-प्रतिष्ठा मे मूलनायक अर्थात् तात्रिक देवियाँ श्वेताम्बरों की विशेषता है। महायानी प्रमुख जिन प्रधान पद का अधिकारी होता है। और अन्य तथा वज्रयानी बौद्धो के सदृश श्वेताम्बरो ने भी नाना तीर्थकगे का अपेक्षाकृत गौड पद होता है। इस परम्पग देवो की परिकल्पना की। में स्थान विशेष का महत्व अन्तदित है। तीर्थकर-विशेष से जैनो के प्राचीन देववाद मे चार प्रधान वर्ग है सम्बन्धित स्थान के मन्दिर मे उसी की प्रधानता देखी गयी १ ज्योतिषी, २ विमानवासी, ३ भवन पति ४ व्यन्तर। है। उदाहरणार्थ मारनाथ के जैन-मन्दिर में जो तीर्थकर ज्योतिषी मे नवग्रहों का सकीर्तन है। विमानवासी दो मूलनालकके पद पर प्रतिष्ठिन है वह (पर्वा । थेवाशनाथ) उपसगों में विभाजित है। उत्तर कल्प तथा अनुत्तर कल्प। मारनाथ में उत्पन्न हुआ था ।-सा माना जाता है। प्रथम में सुधर्म, ईशान, सनत्कुमार, ब्रह्मा आदि १२ देव तीर्थकर राग द्वेष से रहित है। साथ तपस्विता के परिगणित है तथा दूसरे मे पाँच स्थानो के अधिष्ठातृकदेव अनुसार जिनो की मूर्तिया योगी रूप में चित्रित की जाती इन्द्र के पांच रूप-विजय, विजयन्त, जयन्त, अपराजित है। प्रतिमा निदर्शनो मे प्राप्त इस तथ्य का निदर्शन है । और सर्वार्थसिद्ध । भवन-पतियो मे असुर नाग, विद्युत् पद्मासन अथवा कायोत्सर्ग मुद्रा मे नग्न जिन मूर्तियां सपुर्ण प्रादि १० श्रेणियाँ है। व्यन्तरों मे पिशाच, राक्षस, सर्वत्र प्रसिद्ध है। तीर्थकरो की प्रतिमाये एव जिन मूर्तियो यक्ष, गधर्व आदि पाठ श्रेणियाँ हैं। इन चार देव वर्गों के में इतना अधिक सादृश्य है कि साधारण जनों के लिए अतिरिक्त षोडश श्रुत अथवा विद्या देवियाँ और अष्ट कभी-२ उनकी पारस्परिक अभिज्ञा दुष्कर हो जाती है। मातृकाएँ भी जैनियों में पूज्य है । जैनियों में वास्तु देवी कतिपय लाछनो-श्री वत्स आदि से दोनो का पारस्परिक की भी परिकल्पना है। इस संक्षिप्त समीक्षा से यह पार्थक्य प्रकट होता है । कुशान-काल की मूर्तियों मे प्रतीक निष्कर्ष निकलने में देर न लगेगी कि तीर्थंकरों के अति- संयोजना के अतिरिक्त यक्ष दक्षिणी अनुगामित्व नहीं प्राप्त Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय वास्तुशास्त्र में जन प्रतिमा सम्बन्धी ज्ञातव्य होता है। यह विशिष्टता गुप्त काल से प्रारम्भ होती है, २४ नोर्यकर शासन-देवियां (यक्षिणियां) जब से तीर्थकरों की प्रतिमाओं में यक्ष-यक्षिणियो का अनि- १ आदिनाथ (ऋषभ) वृषभ चक्रेश्वरी च. वार्य साहचर्य बन गया। २ अजितनाथ गज रोहिणी - अजितबला जैन-प्रतिमा की तीसरी विशेषता गन्धर्व माहचर्य है। ३ सम्भवनाथ अश्व प्रज्ञावती दुरितारि यद्यपि प्राचीनतम प्रतिमानो (मथुरा, गाधार) में यक्षा ४ अभिनन्दननाथ बानर । यनशंखना काली का निवेश नही; परन्तु गन्धर्वो के उन मे दर्शन अवश्य ५ मुमतिनाथ क्रोच नरदत्ता म.काली होते हैं । मथुरा की जैन मूर्तियो मे एक प्रमुग्ब विशिष्टता पद्मप्रभु पद्य मनोवेगा श्यामा उनकी नग्नता है । गुप्त कालीन जैन प्रतिमाये एक नवीन- मुपार्श्वनाथ स्वस्तिक कालिका शान्ता परम्परा की उन्नायिका है । यक्षो के अतिरिक्त शामन ८ चन्द्रप्रभु चन्द्र ज्वालामालिनी ज्याला देवतापो का भी उनमे समावेश किया गया, धर्म-त्र-द्रा ६ मुविधिनाथ मकर महाकाली सतारा का भी यही से श्री गणश हुआ १० गीतलनाथ श्रीवत्म मानवी अशोका जैन प्रतिमाओं के विकास में सर्वप्रथम प्रतीक परम्ग ११ श्रेयागनाथ गण्डक गौरी मानवी का मूलाधार है । प्रायाग पटो पर चित्रित जिन प्रतिमा १२ वासुपूज्य महीप गंधारी प्रचण्डा इसका प्रबल निदर्शन है । प्रायाग पट्ट एक प्रकार के प्रगस्ति। वगह विराट विदिता पत्र अथवा गुणानुकीर्तन पत्र (Tables of hamage) है। । १४ अनन्तनाथ १० श्यन अनन्तमती अकुश इनमें जिन प्रतिमाये लॉछन शन्य है। कुशान कालीन जैन १५ धमनाथ वन मानसी कदर्पा प्रतिमाय प्राचीनतम निदर्शन है। इनके तीन वर्ग है- १६ शातिनाथ मृग महामानसी निर्वाणी स्तूपादि मध्य प्रतिमा, पूज्य प्रतिमा, तथा आयाग पट्टीय १७ कथ छाग घया बला प्रतिमा । हिन्द्र त्रिमूर्ति के सदग । चौमुखी या सर्वतो भद्र १८ अग्नाथ नन्द्यावत विजया धारिणी प्रतिमा में चारों कोणो पर चार 'जिन' चित्रित किए जाते १६ मल्लिनाथ कलश अपराजिता वैराट्या है। प्रत्येक तीर्थकर का प्रथक-प्रथक चिन्ह है। जिसमे २० मुनिसुव्रत कूर्म बहुरूपा नरदत्ता नीर्थकर विशेष की अभिज्ञा (पहिचान) सम्पन्न होती २१ नामनाथ नीलोत्पल चामुण्डा गाधारी है। पापाततः जिन प्रतिमा भी बौद्ध प्रतिमा के सदश ही २२ नेमिनाथ शख अम्बिका अम्बिका प्रतीत होती है परन्तु जिन प्रतिमा की पहचान प्राभरण २३ पार्श्वनाथ मर्प पद्मावती पद्मावती लकरण के वैशिष्ट्य से बुद्ध प्रतिमा से पृथक की जा २८ महावीर सिंह सिद्धायिका सिद्धायिका मकती है। इन आभरण लकरणों के प्रतीको में स्वस्तिक शासन देव :स्तूप, दर्पण वेतशासन, दो मत्स्य, पुष्पमाला और पुस्तक १ दृषवक्त्र ११ यक्षेश विशेष उल्लेख्य हैं। सभी तीर्थकरो की समान मुद्रा नही । २ महायक्ष १२ कुमार ऋषभ, नेमिनाथ और महावीर-इन तीनों की प्रामन ३ त्रिमुख १३ षण्मुख मुद्रा में कैवल्य प्राप्ति की सूचक है अतः इन तीनो की ४ चतुरानन १४ पाताल प्रतिमा अभिज्ञ मे वह तथ्य सदैव म्मरणीय है । अन्य शेष ५ नुम्बुरू १५ किन्नर तीर्थकरो की प्रतिमा का कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रदर्शन ६ कुसुम १६ गरुड आवश्यक है क्योंकि उन्हें इसी मुद्रा में निर्वाण प्राप्त हुआ ७ मातग १७ गंधर्व] ८ विजय १८ यक्षेश अस्तु संक्षेप में निम्न तालिका तीर्थङ्करों के लछन एवं जय १९ कुबेर शासन-देव तथा शासन देवियों का क्रम प्रस्तुत करती है- १० ब्रह्मा २० वरुण था । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ अनेकान्त हस सिह सर्प २१ भृकुटि २३ पाव १६ शुक वराह १६ पक्षिराज पद्म २२ गोमेघ २४ मातग १७ , हंस १७ कृष्ण शूकर शिखि टि० १ 'अपराजिता-पृच्छा' के अनुमार, चद्रप्रभ, १८ खर शख १८ सिंह पद्म पुष्पदन्त (१) श्वेत-वर्ण पद्मप्रभ, धर्मनाथ रक्त वर्ण; १६ सिह गज १६ अप्टापद सुपार्श्व, पार्श्वनाथ हरिद्वर्ण और शेष सब काञ्चनवर्ण २० १ वृष २० सर्प भद्रासन चित्र्य है। २१ १ वृष २१ मर्कट टि०२ तीर्थङ्करों के अन्य लाञ्छनो के विवरण परि- २२ १ पुरुष २२ सिंह शिष्ट स मे उद्धत अपराजित पृच्छा के अवतरणों मे २३ १ कूर्म २३ कुक्कुट द्रष्टव्य है। २४ हम्ति गज २४ भद्रासन सिह प्रतिमा स्थापत्य मे २४ तीर्थङ्करो के अतिरिक्त २४ दश-दिग्पाल-दिग्पालो की संख्या आठ ही है परन्तु यक्षों एवं यक्षिणियोके रूप, १६ श्रुतदेवियो (विद्या-देवियो) जैनो ने दश दिग्पाल माने है१० दिग्पालों, ६ ग्रहो तथा क्षेत्रपाल, सरस्वति, गणेश, १. इन्द्र-तातकाञ्चनवर्ण, पीताम्बर, एरावण-वाहन, श्री (लक्ष्मी) तथा शान्ती देवी के भी रूप प्राप्त है । अत. वज्रहस्त. पर्वटिगधीठा । सक्षेप में इनके लक्षणो की अवतारणा की जाती है। २ अग्नि--कापलवर्ण, वागवाहन, नीलाम्बर, धनुर्वाणहस्त, यक्ष-यक्षणियां- तीर्थडुर-तालिका में इनकी संज्ञा एवं प्राग्नेय, दिग्धीश । संख्या सूचित है । अत. यहा पर इस तालिका में सख्यान- ३. यम-कृष्णवर्ण, चर्मावर्ण, महिषवाहन, दहस्त, रूप इनके विशेष लाछन दिए गए है। अाधार-वस्तुमार दक्षिण दिगधीश । तथा अपराजित पृच्छा; विशेष विवरण परिशिष्ट मे ४ निऋति--धूम्रवर्ण, व्याघ्रचर्मावत, मुद्गरहस्त, प्रेतउद्धत अपराजित के अवतरणों में द्रष्टव्य है। वाहन, नैऋत्यदिगधीश । २४ यक्षों के वाहन-लाञ्छन २४ यक्षणियो के वाहन लाञ्छन ५. वरुण--मेघवर्ण, पीताम्बर, पाशहस्त, मल्य वाहन, अपगजित वास्तुसार अपराजिता वस्तुमार पश्चिम दिगधीश । १ वृष गज १ गरुण गरुण ६ वायु---धसरवर्ण, रक्ताम्बर, हरिणवाहन, ध्वजप्रहरण, २ गज २ रथ लाहामन गोवाहन वायव्य दिगधीश । ३ मयूर मयूर ७. कुबेर-शक्र कोशाध्यक्ष, कनकवर्ण, श्वेताम्बर, नर४ हस गज ४ हस वाहन, रत्नहस्त, उत्तरादगधीश।। ५ गरुण गरुण ५ श्वेतहस्ति ८. ईशान-वेतवर्ण, गाजाजिनावृत, वृषभ वाहन, पिनाक ६ मृग मृग ६ अश्व नर शूलधर, ईशानादगधीश। ७ मेष गज ७ महिष गज । नागदेव-कृष्णवर्ण, पद्मवाहन, उरगहस्त, पाताला८ कपोत ८ वृष धीश्वर । ६ कूर्म ६ कूर्म वृप १० ब्रह्मदेव-कञ्चनवर्ण, चतुर्मख, श्वेताम्बर, हसवाहन, १० हस कमलासन १० शूकर पद्म कमलासन, पुस्तक कमलहस्त, उर्वलाकाधीश । ११ वृप वृषभ ११ कृष्ण हरिण सिंह नवग्रह---- १२ शिखि हस १२ नक्र अश्व १ सूर्य-- रक्तवस्त्र, कमलहस्त, सप्ताश्वरथवाहन । शिखि १३ विमान पद्म २ चन्द्र-श्वेत-वस्त्र, श्वेतदशवाजिवाहन, सुधाकुम्भहस्त । १४ १ मकर १४ हस ३ मगल-विद्रुमवर्ण, रक्ताम्बर, भूमिस्थिति, कुदालहस्त । १५ १ कूर्म १५ व्याघ्र मत्स्य ४. दुद्ध-हन्तिवस्त्र, कलहंसवाहन, पुस्तकहस्त । गज भव कूर्म व Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय वास्तुशास्त्र में जैन प्रतिमा सम्बन्धी ज्ञातव्य २१५ वहन । ५. बृहस्पति-काञ्चनवणं, पीताम्बर, पुस्तकहस्त, हसवाहन । स्थापत्य-निदर्शनो में-महेत (गोंडा) की ऋषभनाथ ६. शुक्र-स्फटिकोज्ज्वल, श्वेताम्बर, कुम्भहस्त, तुरग- मूर्ति ; देवगढ की अजितनाथ-मूर्ति और चद्र-प्रभा-प्रतिमा; फैजाबाद संग्रहालय की शान्तिनाथ-मूर्ति; ग्वालियर-राज्य ७ शनैश्चर-नीलदेह, नीला, पशुहस्त, कमठवाहन । की नेमिनाथ मूर्ति, जोगिन का मठ, (रोहतक) मे प्राप्त ८. राहु-कज्जलश्यामल, श्यामवस्त्र, परशुहस्त, सिहवाहन । पाश्वनाथीय मूर्ति---जिन-मूर्तियो मे उल्लेख है। महावीर । केतु-श्यामाङ्ग, श्वामवस्त्र, पन्नगवाहन, पन्नगहत। की मूनि भारतीय संग्रहालय में प्राय सर्वत्र दृष्टव्य है। ग्वालियर राज्य में प्राप्त कुबेर, चक्रेश्वरी और गोमुख की क्षेत्रपाल-एक प्रकार का भग्व है जो योगिनियो का प्रतिमाए दर्शनीय है । देवगढ की चक्रेश्वरी मूर्ति बडी अधिपति है। आचार दिनकर में क्षेत्रपाल का लक्षण है सुन्दर है । उसी राज्य (गंडवल) मे प्राप्त क्षेत्रपाल, देवकृष्णगौर काञ्चनपुंसर-कापलवणं, विगात भुजदड, गढ़ की महामानसी अम्बिका और श्रत-देवी: झांसी की वर्बर केश, जटाजूट-मण्डित, वासुकी कृतनिजोपवीत, लक्षक रोहिणी, लखनऊ सग्रहालय की सरस्वती, बीकानेर की कृतमेखल, शेषकृतहार, नानायुधहस्त, सिंहाचर्नावत, प्रेता- श्रत-देवी ग्रादि प्रतिमाएं भी उल्लेखनीय है । मन, कुक्कुर-वाहन, त्रिलोचन । जैन मन्दिरश्रुतदेवियां विद्यादेवियां आबू पर्वत पर जन-मन्दिर बने हे जिन्हे मन्दिर-नगर १. रोहिणी, २. प्रज्ञप्ति, ३ वज्रशृग्वला, ४. बज्रा के रूप में अकित किया जा सकता है। इन मन्दिरों के कुशी, ५ अप्रतिचक्रा, ६. पुरुषदता, ७. का नोदेवी, निर्माण में मगमरमर पत्थर का प्रयोग हुआ है। एक ८ महाकाली, ६. गौरी, १० गान्धारी, ११ महाज्याला, मन्दिर विमलशाह का बनवाया हया है और दूसरा तेज१२. मानवी, १३. बैरोटया, १४. अच्छुता, १५ मानमी, पाल तथा वस्तुपाल बन्धुम्रो का। इन मन्दिरो मे चित्रकारी १६. महामानमी। व स्थापत्य-भूषा-विन्यास बड़ा ही दर्शनीय है। टि. १ इनके लक्षण यक्षणियो मे मिलते-जुलते है। काठियावाड प्रान्त मे पालीताणा राज्य मे शत्रजय टि० २ श्री (लक्ष्मी), सरस्वती और गणेश का भी नामक पहाडी जैन मन्दिरों से भरी पड़ी है। जैनी लोगों जैनियों में प्रचार है। प्राचार-दिनकर मे इनके लक्षण का प्राव के समान यह भी परम पावन तीर्थ स्थान है। बादाण-प्रतिमा लक्षण से मिलते-जुलते है। शाति-देवी के काटियावाड के गिरनार पर्वत पर भी जैन-मन्दिर्गे की नाम से भी श्वेताम्बरों के ग्रथों में एक देवी है जो जैनियों भरमार है। जैनो के इन मन्दिर नगरों के अतिरिक्त की एक नवीन उद्भावना कही जा सकती है । अन्य बहुत मे मन्दिर भी लब्धप्रतिष्ठ हैं जिनमे प्रादिनाथ टि. ३ योगिनिया--जनो को ६४ योगिनिया में का चौमुग्व-मन्दिर (मारवाड) तथा मैमूर का जन-मन्दिर ब्राह्मणों से बलक्षण्य है । अहिसक एव परम वैष्णव जैनियो विशेष उल्लेखनीय है। अन्य जैन-मन्दिर पीठो में मथुरा, मे योगिनियो का आविर्भाव उन पर तान्त्रिक आचार एव काठियावाड (जूनागढ) में गिरनार, इलौरा के गहा-मन्दिरो तान्त्रिकी पूजा का प्रभाव है। जैनो की शाक्तर्चा पर हम में इन्द्र-सभा और जगन्नाथ,सभा, खजुराहो, देवगढ धादि पीछे सकेत कर चुके हैं। विशेप विश्रुत है। स्वावलम्बन-जिन्होंने अपनी इन्द्रियों तथा मन पर नियन्त्रण कर लिया है, वे मानव इस संसार में स्वतन्त्र हैं । जो इन्द्रियों के दास हैं, वे परतन्त्र हैं । स्वतन्त्रता मुक्ति है । परतन्त्रता बन्धन है । स्वतन्त्रता विकास का मार्ग है, परतन्त्रता हास का मार्ग है। अपने जीवन-निर्माण में वे ही सफल होते हैं, जो प्रत्येक क्रिया में स्वावलम्बी होते, परमुखापेक्षी नहीं होते। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर और बुद्ध का परिनिर्वाण अणुव्रत परामर्शक मुनि श्री नगराज मन्तिम वर्षावास बुद्ध राजगृह से वैशाली प्राये। वहाँ कुछ दिन रहे। वर्षावास के लिए समीपस्थ वेलुव-ग्राम (वेणु-ग्राम) में माये । अन्य भिक्षुमो को कहा-"तुम वैशाली के चागे ओर मित्र, परिचित आदि देखकर वर्षावास करो।" यह बुद्ध का अन्तिम वर्षावास था। वर्षावास में मरणान्तक रोग उत्पन्न हुआ। बुद्ध ने सोचा, मेरे लिए यह उचित नही कि मै उपस्थाको और भिक्षु-सघ को बिना जतलाये ही परिनिर्वाण प्राप्त करू । यह सोच उन्होंने जीवन-सस्कार को दृढतापूर्वक धारण किया । गेग शान्त हो गया। शास्ता का निरोग देखकर मानन्द ने प्रसन्नता व्यक्त की और कहा-"भन्न ! आपकी अस्वस्थता से मेरा शरीर शन्य हो गया था । म दिशाए भी नही दीख रही थी। मुझे धर्म का भी भान नहा होता था ।" बुद्ध ने कहा--"प्रानन्द ! मै जीर्ण. वृद्ध, महल्लक, अध्वगत, वय प्राप्त है। अस्सी वर्ष की मेरी अवस्था है। जैसे पुराने शकट को बांध -बध कर चलाना पड़ता है, वैसे ही मैं अपने आप को चला रहा है। मैं अब अधिक दिन कसे चलगा? इसलिए प्रानन्द प्रात्मदीप, प्रात्मशरण, अनन्यशरण, धर्मदीय, धर्मशरण अनन्यशरण होकर विहार करो।" मानन्द को भूल ___एक दिन भगवान चापाल-चैत्य में विश्राम कर रहे थे । प्रायुप्मान उनके पास बैठे थे। प्रानन्द से भगवान् ने कहा-.-"आनन्द । मेने चार ऋद्धिपाद साये है। यदि चाहूँ तो मै कल्प भर ठहर सकता हूं।" इतने स्थूल सकेत पर भी प्रानन्द न समझ सके। उन्होने प्रार्थना नही को१. अत्तदीया विहरथ, अत्तसरणा, अनब्रसरणा, धम्मदीपा, धम्मसरणा, प्रनञ्जसरणा। "भगवन् ! बहुत लोगो के हित के लिए, बहुत लोगो के सुख के लिए आप कल्प भर ठहरे।" दूसरी बार और तीसरी बार भी भगवान् ने ऐसा कहा, पर आनन्द नहीं समझे। मार ने उनके मन को प्रभावित कर रखा था। अन्त मे भगवान् ने बात को तोड़ते हुए कहा-"जाग्रो प्रानन्द ! जिसका तुम काल समझते हो।" मार द्वारा निवेदन आनन्द के पृथक् होते ही पापी मार भगवान के पास पाया और बोला---"भन्ते । आप यह बात कह चुके है-- 'मै तव तक परिनिर्वाण को प्राप्त नही करूँगा, जब तक मेरे भिक्ष-झिक्षणिया, उपासक-उपाशिकाएँ आदि सम्यक् प्रकार से धर्मारूढ, धर्मपथिक और आक्षेप-निवारक नही हो जाएगे तथा यह ब्रह्मचर्य (बुद्ध-फर्म) सम्यक प्रकार से ऋद्ध, स्फीत व बहु जन-गृहीत नही हो जायेगा ।' भन्ते । अब यह मब हो चुका है। आप शीघ्र निर्वाण को प्राप्त करे ।" भगवान् ने उत्तर दिया-"पापी। निश्चिन्त हो प्राज से तीन मास पश्चात् मै निर्वाण करूगा।" भूकम्प तब बुद्ध ने चापाल चैत्य में स्मृति-सप्रजन्य के साथ प्राय सरकार को छोड़ दिया। उस समय भयकर भुकम्प हुअा। देव दुन्दुभियाँ बजी। मानन्द भगवान के पास आये और बोले "आश्चर्य भन्ने ! अद्भुत भन्ते !! इस महान भूकम्प का क्या हेतु है ? क्या प्रत्यय है ? भगवान् ने कहा-भुकम्प के पाठ हेतु होते है। उनमे से एक हेतु तथागत के द्वारा जीवन-शक्ति का छोड़ा जाना है। उसी जीवन-शक्ति का विसर्जन मैने अभी-अभी चापाल-चैत्य मे किया है। यही कारण है, भूकम्प आया, देव-दुन्दुभिया बजी।" यह सब सुनते ही आनन्द को समझ आई, कहा"भन्ते । बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय आप कल्प-भर ठहरे ।" बुद्ध ने कहा-"अब मत तथागत से प्रार्थना Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर और बुद्ध का परिनिर्वाण २१७ करो। अब प्रार्थना करने का समय नही रहा।" मानन्द भगवान् पात्र-चीबर ले चुन्द कर्मार-पुत्र के घर आये और ने क्रमश: तीन बार अपनी प्रार्थना को दुहराया। बद्ध ने भाजन किया । भोजन करते भगवान् ने चुन्द को कहाकहा-"क्यों तथागत को विवश करते हो ? रहने दो "अन्य भिक्षुषों को मत दो यह सूकर-मव । ये इसे नही इस बात को। प्रानन्द मैं कल्प भर नही ठहरता, इसमे । पचा सकेंगे।" भोजन के उपरान्त भगवान् को असीम तुम्हारा ही दोप है। मैंने अनेक बार तथागत की क्षमता वेदना हई। विरेचन पर विरेचन होने लगा और वह भी का उल्लेख तुम्हारे सामने किया। पर तुम मुक ही बने रक्तमय । रहे।" इतना होने पर भी भगवान् पावा से कुसिनारा की ___ वहा से उठकर भगवान् महावन कूटागार शाला मे ओर चल पडे। बलान्त हो रास्ते में बैठे। भानन्द से आये। वहा पाकर मानन्द को आदेश दिया-"वैशाली कहा-"निकट की नदी से पानी लायो। मुझे बहुत के पास जितने भिक्षु विहार करते है, उन्हे उपस्थान-शाला प्यास लगी है।" प्रानन्द ने कहा- "भगवन् अभी-अभी में एकत्रित करो।" भिक्षु एकत्रित हुए। बुद्ध ने कहा १०० गाडे इस निकट की नदी से निकले है। यह छोटी "हन्त भिक्षपो ! तुम्हे कहता हूं, सस्कार (कृत-वस्तु) नदी है । सारा पानी मटमैला हो रहा है। कुछ ही आगे नाशमान है । प्रभाद-रहित हो, प्रादेय का सम्पादन करो। ककु था नदी है, वह स्वच्छ और रमणीय है। वहां पहुँच अचिरकाल में ही तथागत का परिनिर्वाण होगा, आज से कर भगवान पानी पीए।" भगवान् ने दूसरी बार मोर तीन मास पश्चात् ।" तीमरी बार वैसे ही कहा, तो आनन्द उठकर गये । देखा, अन्तिम यात्रा पानी अत्यन्त स्वच्छ और शान्त है। प्रानन्द भगवान के तब भगवान् वैशाली में सिनारा की पोर चले। इस ऋद्धि-बल से प्रानन्द-विभोर हुए। पात्र में पानी ला योगनगर के मानन्द चैत्य में बुद्ध ने कहा-"भिक्षुमो कोई भगवान का पिल भिक्ष यह कहे-'पावसो ! मैंने इमे भगवान के मुख से प्रालार-कालाम के शिष्य से भेंट मुना; यह धर्म है, यह विनय है, यह शास्ता का उपदेश भगवान के वहाँ बैठे प्रालार-कालाम का गिण्य है।' भिक्षुयो । उस कथन का पहले न अभिनन्दन करना पुर्वबुम मल्ल-पुत्र मार्ग चलते पाया। एक ओर बैठकर न निन्दा करना। उस कथन की मुत्र और विनय मे बोला--"भन्ते ! प्रवजित लोग शान्ततर विहार से विहरते गवेषणा करना । वहाँ वह न हो तो समझना यह इस है। एक बार बालार-कालाम मार्ग के समीपस्थ वृक्ष की भिक्षु का ही दुहीत है। सूत्र और विनय मे यह कथन छाया में विहार करते थे। ५०० गाड़ियां उनके पोछे से मिले, तो समझना, अवश्य यह तथागत का वचन है।" गई। कुछ देर पश्चात् उसी सार्थ का एक पादमी आया । भगवान् विहार करते क्रमश. पावा पहुँचे। चुन्द उमने आलार-कालाम से पूछाकर्मार-पुत्र के ग्राम्र वन में ठहरे। चुन्द कर्मार पुत्र ने 'भन्ते ! गाड़ियो को जाते देखा?" भिक्षु-सघ-सहित बुद्ध को अपने यहा भोजन के लिए 'नही आवुस !' प्रामत्रित किया पहली रात को भोजन की विशेप तैयारिया 'भन्ते ! शब्द सुना ?' की। बहुत सारा 'सूकर-मद्दव" तैयार किया। यथासमय 'नही आवुम !' १. बुद्धघोप ने (उदान-अट्ठकथा, ८.५) 'सूकर-महव' 'भन्ने ! सो गये थे ?' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है-"नातितरुणस्स 'नहीं प्रावुस !' नातिजिण्णस्स एक जे?कसूकरस्स पवत्तमंस" अर्थान् विरोधाभास नही लगता। अन्य किसी प्रसंग पर न अति तरुण, न अति वृद्ध एक (वर्ष) ज्येष्ठ मूअर उग्ग गृहपति के अनुरोध पर बुद्ध ने सूकर का मांस का मास' । 'सूकर-मद्दव' के अनन्य प्रमासपरक अर्थ ग्रहण किया, ऐसा प्रगुत्तरनिकाय (पञ्चक निपात) भी किये जाते है, पर मांसपरक में अर्थ भी कोई में उल्लेख है। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ अनेकान्त 'भन्ते ! आपकी संघाटी पर गर्द पड़ी है ?' वन में शाल-वृक्षों के बीच तथागत का परिनिर्वाण होगा।" 'हाँ प्रावुस !' ककुत्था नदी पर तब उस पुरुष को हुआ--'आश्चर्य है ! अद्भुत है ! भगवान् भिक्षु-सघ-सहित ककुत्या नदी पर आये। प्रवजित लोग आत्मस्थ होकर कितने शान्त विहार से स्नान किया। नदी को पार कर तटवर्ती आम्रवन मे विहरते है !' पहुँचे। विश्राम करते भगवान् ने कहा-"आनन्द ! चुन्द भगवान् ने कहा-"पुक्कुस ! एक बार मैं प्रातुमा कर्मार-पुत्र को कोई कहे-'पावुस चुन्द ! अलाभ है तुझे के भुसागार मे विहार करता था। उस समय जोगें से दुर्लभ है तुझे, तथागत तेरे पिण्डपात को खाकर परिनिर्वाण पानी बरसा। बिजली कडकी। उसके गिरने से दो किसान। को प्राप्त हुए'; तो तू चुन्द के इस अपवाद को दूर करना चार बैल मरे। उस समम एक आदमी मेरे पास आया उसे कहना-पावस चन्द ! लाभ है तुझे, सुलाभ है तुझा और बोला-'भन्ते ! मेघ बरसा, बिजली कड़की, किसान तथागत तेरे पिण्डपात को खाकर परिनिर्वाण को प्राप्त पौर बैल मरे । आपको मालूम पडा भन्ते ?' हुए हैं और उसे बताना-'दो पिण्डपात समान फल वाले 'नही प्रावुस !' होते है : जिस पिण्डपात को खाकर तथागत अनुत्तर 'आप कहाँ थे?' सम्यक् सम्बोधि प्राप्त करते है तथा जिस पिण्डपात को 'यही था।' खाकर तथागत निर्वाण-धर्म को प्राप्त करते है'।' 'बिजली कडकने का शब्द सुना, भन्ने ?' कृसिनारा में 'नहीं आवुम ।' ककुत्था के आम्रवन में विहार कर भगवान् कुसिनाग 'क्या प्राप सोये थे? की ओर चले । हिरण्यवती नदी को पार कर कुसिनारा मे 'आप सचेतन थे?" जहाँ मल्लो का "उपवत्तन" शालवन है, वहा पाये। 'हाँ प्रावस ।' जुडवे शाल-वृक्षो के बीच भगवान् मचक (चारपाई) पर पूक्कम ! तब उस प्रादमी को हुपा-'पाश्चर्य है, लेटे । उनका सिरहाना उत्तर की पोर था। अद्भुत है, यह शान्त विहार ।" उस समय आयुष्मान् उपवान भगवान् पर पखा पुक्कुस मल्ल-पुत्र यह बात सुनकर बहुत प्रभावित हिलाते भगवान् के सामने खडे थे। भगवान् ने अकस्मात् हमा और बोला-"भन्ते । यह बात तो पाँच सौ गाडियो कहा-"हट जाओ भिक्षु । मेरे सामने से हट जाओ।" हजार गाडियो और पांच हजार गाडियो के निकल जाने से आनन्द ने तत्काल पूछा---''ऐसा क्यो भगवन् ?" भगवान् भी बडी है। प्रालार-कालाम मे मेरी जो श्रद्धा थी, उसे ने कहा-"आनन्द । दशो लोको के देवता तथागत के आज मैं हवा में उड़ा देता हूँ, शीघ्र धारवाली नदी में दर्शन के लिए एकत्रित हए है। इस शालवन के चारो बहा देता है। आज से मुझे शरणागत उपासक धारण और बारह योजन तक बाल की नोक गडाने-भर के लिए करे।" तब पूक्कूस ने चाकचिक्यपूर्ण दो सुनहरे शाल भी स्थान ग्वाली नही है। देवता खिन्न हो रहे है कि यह भगवान को भेट किये, एक भगवान के लिए और एक पखा झलने वाले भिक्षु हमारे अन्तरायभूत हो रहा है। प्रानन्द के लिए। आनन्द ने कहा-“देवता आपको किस स्थिति मे दिखपुक्कुस मल्ल-पुत्र चला गया। प्रानन्द ने अपना शाल लाई दे रहे है ?" । भी भगवान् को प्रोढ़ा दिया। भगवान् के शरीर से ज्योति “आनन्द ! कुछ बाल खोलकर रो रहे है, कुछ हाथ उद्भूत हुई । शालों का चाकचिक्य मन्द हो गया। प्रानन्द पकड कर चिल्ला रहे है, कुछ कटे वृक्ष की भांति भूमि के पूछने पर भगवान ने कहा-"तथागत की ऐसी वर्ण- पर गिर रहे है। वे विलापात कर रहे है-'बहुत शीघ्र शद्धि बोधि-लाभ और निर्वाण ; इन दो अवसरो पर होती सुगत निर्वाण को प्राप्त हो रहे है, बहुत शीघ्र चक्षुष्मान् है। आज के अन्तिम प्रहर कूसिनारा के मल्लों के शाल- लोक से अन्तर्धान हो रहे हैं।" Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर और गुड का परिनिर्वाण २१९ प्रानन्द के प्रश्न "पत प्रानन्द ! शोक करो, मत मानन्द ! रोपो। मैने आनन्द ने पूछा-"भगवन् ! अब तक अनेक दिशाओं कल ही कहा था, सभी प्रियो का वियोग अवश्यम्भावी है। में वर्षावास कर भिक्षु प्रापके दर्शनार्थ पाते थे। उनका आनन्द । तूने चिरकाल तक तथागत की सेवा की है। सत्सग हमे मिलता था। भगवन् ! भविष्य में किसका त कृतपुण्य है। निर्वाण-साधन मे लग। शीघ्र मनायव सत्संग करेंगे, किसके दर्शन करेंगे ?" "प्रानन्द ! भविष्य में चार स्थान सवेजनीय (वैरा- कुसिनारा हो क्यों ? ग्यप्रद) होंगे अानन्द ने कहा-"भन्ते । मत इस क्षुद्र-नगरक में १. जहाँ तथागत उत्पन्न हुए (लुम्बिनी)। शाखा नगरक मे, जगली नगरक मे पाप परिनिर्वाण को २. जहाँ तथागत ने सम्बोधि-लाभ किया (बोधि-गया) प्राप्त हों । अनेक महानगर है- चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, ३. जहाँ तथागत ने धर्मचक्र का प्रवर्तन किया साकेत, कौशाम्बी, वाराणसी, वहाँ पाप परिनिर्वाण को (मारनाथ)। प्राप्त करे।" वहाँ बहुत से धनिक क्षत्रिय, धनिक ब्राह्मण ४. जहा तथागत ने निर्वाण प्राप्त किया (कुमिनाग) तथा अन्य बहुत से धनिक गृहपति भगवान् के भक्त हैं । "भन्ने ! स्त्रियो के साथ कैसा व्यवहार हो?" वे तथागत के शरीर की पूजा करेंगे। "प्रदर्शन ।" आनन्द । मत ऐसा कहो। कुसिनारा का इतिहास "दर्शन होने पर भगवन् !" बहुत बड़ा है । किसी समय यह नगर महासुदर्शन चक्रवर्ती "अनालाप।" की कुशावती नामक राजधानी था । प्रानन्द ! कुसिनारा "पालाप आवश्यक हो, वहाँ भन्ते ।" मे जाकर मल्लों को कह–'वाशिष्टो । प्राज रात के "स्मृति को संभाल कर अर्थात् सजग होकर पालाप अन्तिम प्रहर तथागत का परिनिर्वाण होगा । चलो करे।" वाशिष्टो । चलो वाशिष्टो । नहीं तो फिर अनुताप "भन्ने । तथागत के शरीरको अन्त्येष्टि कैसे होगी?" करोगे कि हम तथागत के बिना दर्शन के रह गये।" "जैसे चक्रवर्ती के शरीर की अन्त्येष्टि होती है।" आनन्द ने ऐसा ही किया। मल्ल वह सवाद पा "वह कैसे होती है भगवन् ।” चिन्तित व दुःखित हुए। सब के सब भगवान् के बन्दन के "पानन्द ! चक्रवर्ती के शरीर को नये वस्त्र से लपेटते । लिए प्राये । आनन्द ने समय की स्वल्पता को समझ कर है। फिर रूई में लपेटते है। फिर नये वस्त्र से लपेटते है। एक-एक परिवार को क्रमश: भगवान के दर्शन कराये । फिर तेल की लोह-द्रोणी में रखते है। फिर मुगन्धित इस प्रकार प्रथम याम मे मल्लो का अभिवादन सम्पन्न काष्ठ की चिता बना कर चक्रवर्ती के शरीर को प्रज्वलित हुआ। द्वितीय याम मे मुभद्रा की प्रव्रज्या' सम्पन्न हुई। करते है। तदनन्तर चौराहे पर चक्रवर्ती का स्तूप बनाते अन्तिम प्रादेश १. तब भगवान् ने कहा-"प्रानन्द ! सम्भव है, प्रानन्द का रुदन तुम्हे लगे कि शास्ता चले गये अब उनका उपदेश तब आयुष्मान प्रानन्द विहार में जाकर कपिशीर्ष शास्ता नही है । आन्द ! ऐसे समझना, "मैंने जो धर्म कहा (खूटी) को पकड कर रोने लगे-"हाय ! मैं शैक्ष्य है। है, मेरे बाद वही तुम्हारा शास्ता है। मैंने जो विनय कहा मेरे शास्ता का परिनिर्वाण हो रहा है।" भगवान् ने है मेरे बाद वही तुम्हारा शास्ता है। भिक्षुओं से पूछा-"प्रानन्द कहाँ है ?" २. “अानन्द ! अब तक भिक्षु एक-दूसरे को 'प्रावुस' भगवन् ! वे विहार के कक्ष में रो रहे है।" कहकर पुकारते रहे हैं। मेरे पश्चात् अनुदीक्षित को "उसे यहाँ लामो?" तब आयुष्मान् मानन्द वहाँ पाये । भगवान् ने कहा- १. पूरे विवरण के लिये देख, Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० अनेकान्त 'पावुस कहा जाये और पूर्व-दीक्षित को 'भन्ते' या निर्वाण के अनतर सहम्पति ब्रह्मा ने, देवेन्द्र शक्र ने, 'आयुष्मान्' कहा जाये। आयुष्मान् अनुरुद्ध ने तथा आयुष्मान् प्रानन्द ने स्तुति३. "पानन्द ! मेरे पश्चात् चाहे तो संघ छोटे और गाथाए कही। साधारण भिक्ष-नियमो को छोड़ दे । । उस समय अवीतराग भिक्षु क्रन्दन करने लगे, रोने ४. "प्रानन्द ! मेरे पश्चात् छन्न-भिक्ष को ब्रह्म-दण्ड लगे, कट वृक्ष की तरह भूमि पर गिरने लगे। अनुरुद्ध ने करना चाहिए।" उनका मोह-निवारण किया । तब भगवान् ने उपस्थित भिक्षुओ से कहा- "बुद्ध, तब आयुष्मान् प्रानन्द कुसिनारा मे गये, सस्थागार धर्म और सघ मे किमी को प्राशका हो, तो पूछ ले। नहीं में एकत्रित मल्लो को उन्होने कहा-"भगवान् परिनिर्वृत्ति तो फिर अनुताप होगा कि मैं पूछ न सका।" भगवान् के हो गये है. अब जिसका तुम काल समझो।" इस दु.खद एक बार, दो बार और तीन बार कहने पर भी सब। सवाद से साग कुसिनारा शोक-सतप्त हुआ। भिक्षु चुप रहे। तब कुसिनारा के मल्लो ने ६ दिन तक निर्वाणोत्सव ___ तब मानन्द ने कहा--"भगवन् ! इन पाँच सौ मनाया । अन्त्येष्टि की तैयारियाँ की। सातवे दिन आठ भिक्षुत्रो में कोई सन्देहशील नही है। सब बुद्ध, धर्म और मल्ल-प्रमुखो ने भगवान् के शरीर को उठाया । देवता सघ मे आश्वस्त है।" और मनुष्य नृत्य करते साथ चले। जहाँ मुकुट-बधन तब पाचन्द ने कहा-"हन्त ! भिक्षुओ। अब तुम्हे नामक मल्लो का चैत्य था, वहाँ सब आये। प्रानन्द के कहता हूं। सस्कार (कृत-वस्तु) व्ययधर्मा है । अप्रमाद से मार्ग-दर्शन पाकर चक्रवर्ती की तरह भगवान् का अन्त्येष्टि जीवन के लक्ष्य का संपादन करो। यह तथागत का प्रतिम कार्य सम्पन्न करने लगे। उसी कम से भगवान् के शरीर वचन है।" को चिता पर रखा। निर्धारण-गमन तब भगवान् प्रथम ध्यान को प्राप्त हुए । प्रथम ध्यान महाकाश्यप का प्रागमन से उठकर द्वितीय ध्यान को प्राप्त हुए। इसी प्रकार कमन उस समय मल्लो ने चिता को प्रज्वलित करना तृतीय व चतुर्थ ध्यान को। तब भगवान् आकाशान्त्या चाहा। पर वे वैसा न कर सके। आयुष्मान् अनुरुद्ध ने यतन को प्राप्त हुए, तदनन्तर विज्ञानानन्त्यायतन को, इसका कारण बताया-“वाशिप्टो । तुम्हारा अभिप्राय सज्ञावेदयित-निरोध को प्राप्त हुए । प्रायुप्मान् आनन्द ने कुछ और है और देवताओ का अभिप्राय कुछ और। आयुष्मान् अानन्द से कहा-"क्या भगवान् परिनिर्वृत देवता चाहते है, भगवान् की चिता तब जले, जब आयुहो गये?" अनुरुद्ध ने कहा - "नही आनन्द ! भगवान् प्मान् महाकाश्यप भगवान का चरण-म्पर्श कर ले।" सज्ञावेदयित-निरोध को प्राप्त हुए है।" तब भगवान् _ “कहाँ है भन्ते ! आयुष्मान् महाकाश्यप ?" सजावेदयित-निरोध-समापत्ति (चारो ध्यानो के ऊपर की अनुरुद्ध ने उत्तर दिया--"पाँचमौ भिक्षुप्रो के साथ ममाधि) से उठकर नवमजावामजायतन को प्राप्त हुए। . व पावा और कुसिनाग के बीच रास्ते में आ रहे है।" तब क्रमशः प्रतिलोम से पुन सब श्रेणियो को पार कर मल्लो ने कहा-“भन्ते । जैसा देवताओ का अभिप्राय प्रथम ध्यान को प्राप्त हुए। तदनन्तर क्रमश चतुर्थ हो वैसा ही हो।" ध्यान में आये और उसे पार कर भगवान् परिनिर्वाण प्रागुप्मान् महाकाश्यप मुकुट-बधन चैत्य मे पहुँचे। को प्राप्त हुए। उस समय भयकर भूचाल पाया, देव तब उन्होने चीवर को एक कधे पर कर, अजलि जोड, दुन्दुभियों बजी। तीन बार चिता की परिक्रमा की। वस्त्र हटा कर अपने १. "हद दानि, भिक्खवे. प्रामतयामि वो-वयधम्मा, शिर से चरण-स्पर्श किया। सार्धवर्ती पाचसौ भिक्षुप्रो ने सङ्कारा, अप्पमादेन सम्पादेथा" त्ति । भी वैसा किया। यह सब होते ही चिता स्वय जल उठी। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर और बडका परिनिर्वाण २२१ जैसे घी और तेल के जलने पर कुछ शेष नहीं रहता, वैसे द्रोण ब्राह्मण ने मल्लो मे कहा-"यह निर्णय ठीक भगवान् के शरीर में जो चर्म, मास आदि थे, उनकी न नही । भगवान् क्षमावादी थे. हमे भी क्षमा से काम लेना राख बनी, न कोयला बना । केवल अस्थिया ही शेष रही। चाहिए । अस्थियों के लिए झगडा हो, यह ठीक नही। भगवान् के शरीर के दग्ध हो जाने पर आकाश में मेध पाठ स्थानों पर भगवान् की अस्थियाँ होगी, तो पाठ प्रादुर्भूत हुआ और उसने चिता को शात किया। स्तूप होगे और अधिक लोग बुद्ध के प्रति प्रास्थाशील उस समय मल्लो ने भगवान् की अस्थिया अपने बनेगे।" सस्थागार मे स्थापित की । मुरक्षा के लिए शक्ति-पजर' मल्लो ने इस प्रस्ताव को पास किया । तदनन्तर द्रोण बनवाया । धनुष-प्राकार' वनवाया। अम्थियों के सम्मान ब्राह्मण ने अस्थियो के पाठ विभाग कर सबको एक-एक में नृत्य, गीत आदि प्रारम्भ किये । भाग दिया । जिस कुम्भ मे अस्थियां रखी थी, वह अपने धातु-विभाजन पास रखा । पिणलीवन के मोर्य प्राये । अस्थियों बट चुकी उस समय मगधराज अजातशत्रु ने दूत भेज कर थी, वे चिता से प्रगार (कोयला) ले गये। सभी ने अपनेमल्लो को कहलाया--"भगवान् क्षत्रिय थे, मे भी क्षत्रिय अपने प्राप्त अवशेषो पर स्तूप बनवाये। है। भगवान् की अस्थियो का एक भाग मुझे मिले । मै स्तूप भगवान की एक दाढ स्वर्गलोक में पूजित है पोर बनवाऊँगा और पूजा करूगा। इसी प्रकार वैशाली के एक गधारपुर मे । एक कलिग राजा के देश में और एक लिच्छवियो ने, कपिलवस्तु के शाक्यो ने. मल्लकाय के को नागगज पूजते है । चालीम केश, गेम आदि को एकबुलियो ने, गम-गाम के कोलियो ने, वेठ-द्वीप के ब्राह्मणो एक करके नाना चबवालो मे देवता ले गये। ने, तथा पावा के मल्लो ने भी अपने पृथक्-पृथक् अधिकार -- - -- बतलाकर अस्थियो की माग की। कुसिनारा के मल्लाने १ एका हि दाठा तिदिवेहि पूजिता. निर्णय किया--"भगवान् हमारे यहाँ परिनिवृत्त हा है, एका पन गधारपुरे महीयनि । अत हम किसी को अम्थियो का भाग नही देगे।" कालिङ्गरओ विजिते पुनक, एक पन नागराजा महेनि ॥......... १ हाथ मे भाला लिए पुम्पो का घेग । चसालीम समा दला, केसा लोमा च मन्चमो। २ हाथ में धनुप लिए पुरुषो का घेरा। दवा हरिम एकेक, चक्कवालपरम्पग ति॥ अनेकान्त के ग्राहक बनें 'अनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोष-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यापियों, लेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों विश्वविद्यालयों और जनश्रुत को प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वय बनें और दूसरों को बनावें । और इस तरह जैन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें। व्यवस्थापक 'अनेकान्त' Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अखिल भारतीय जैन शिक्षा-परिषद के सप्तम अधिवेशन में यशपाल जैन का अध्यक्षीय भाषण प्रिय बहनो और भाइयो, नगण्य है । शिक्षा-सस्थाए सम्भवत जैन इसलिए कही जाती अखिल भारतीय जैन शिक्षा परिषद के इस अधिवेशन है, क्योकि उनका प्रबन्ध जैन करते है। इन सस्थानो द्वारा के सभापति-पद पर आपने मुझे बिठाने का अनुग्रह किया, जैन-धर्म. सस्कृति अथवा तत्वज्ञान को कितना बल मिलता इसके लिए मैं पापका अत्यन्त आभारी हूं, लेकिन इस है, यह एक विचारणीय बात है । जहा तक मेरी जानकारी चनाव पर मैं आपको बधाई नही दे सकता । वस्तुत इस है, इन जैन शिक्षा-सस्थाओं में अध्यापक और छात्र स्थान पर आपको किसी शिक्षा-शास्त्री को प्रासीन करना अधिकतर जैनेतर है। फिर एक कठिनाई यह भी है कि चाहिए था, अथवा किसी ऐसे व्यक्ति को, जिसे शिक्षा के शिक्षा-सस्थानों पर संवैधानिक प्रतिबन्ध है । वर्तमान धर्मक्षेत्र का व्यावहारिक अनुभव होता । ऐसे महानुभावो की निरपेक्ष राज्य में आप किसी भी संस्था को धर्म की शिक्षा हमारे समाज में और देश में कमी नही थी । पर मै तो देने के लिए विवश नही कर सकते । यदि इन स्कूलो और अपने को इन योग्यताप्रो से शून्य पाता है। फिर भी आपने कालेजो में बहुसंख्या जैनो की हो, तो कुछ बाते विशेष रूप मुझे सम्मान प्रदान किया, इसे मैं आपका स्नेह तथा मौजन्य से चालू की जा सकती है, लेकिन मौजदा परिस्थितियो में मानता है और आप सबके प्रति बडे विनम्र भाव से अपनी कृतज्ञता अर्पित करता है। ____ मेरी निश्चित धारणा है कि धार्मिक शिक्षा को जब जिस संस्था के विशाल प्रागण में आज हम सब इकट्ठे तक अनिवार्य विषय के रूप में स्थान नही दिया जाता तब हुए है, वह मुझे पूज्य गणेशप्रशादजी वर्णी का स्मरण __ तक वह पूरी तरह फलदायक नही हो सकती । दिलाती है । वर्णीजी का समूचा जीवन त्याग-तपस्या का जीवन था। वह मानव-जाति के एक अमूल्य रत्न थे । मै बन्धुओ, जबसे हमारा देश स्वतन्त्र हुअा है, बहुतउनकी स्मृतिको अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता है। सी बड़ी-बड़ी योजनाए बनी है। उनमे से कछ कार्यान्वित मुझे इस बात का बहुत ही हर्ष है कि आप यहा भी हुई है, लेकिन सबसे अधिक उपेक्षा शिक्षा की हई है। विभिन्न जैन शिक्षा-सस्थाओं के गण्यमान्य प्रतिनिधि तथा विदेशी सत्ता ने शासनकाल में एक ऐसी शिक्षा-पद्धति चाल वो इतनी बड़ी संख्या में इकटठे हा है। मै अाशा की थी, जो देश की मौलिक प्रतिभा पर कुठाराघात करे करता हूं कि आप सब मिलकर शिक्षा-सम्न्धी वर्तमान और उसके शासन-तन्त्र में काम करने के लिए बाब लोगो समस्यानो पर विचार करेगे और ऐसा मार्ग निकालेगे, की जमात खडी कर दे । स्वराज्य के बाद बहुत-सी कमेटिया जिससे जैन-धर्म तथा जनदर्शन का अध्ययन अधिक-से- बैठी, कमीशन बने, लेकिन दुर्भाग्य से थोडे-बहुत परिवर्तन अधिक फलदायक हो और जैन शिक्षा संस्थाए पूरी उपयो- के साथ आज भी हम उसी पुरानी, देश-हित-विरोधी, शिक्षा गिता से काम कर सके। पद्धति से चिपके हुए है। ___ आज तो देखने में आता है कि जैन समाज द्वारा लाखो इसका दुष्परिणाम आज आप स्वय अपनी आखो मे । रुपये व्यय करके जिन संस्थानो का सचालन किया जा रहा देख रहे है । देश का नैतिक स्तर बराबर गिरता जा रहा है, उनमें से अधिकाश नाममात्र को जैन है । उनका पाठ्य- है और चरित्र एवं नैतिक आस्थाओं के अभाव में प्राज क्रम वही है, जो जैनेतर संस्थानो का है । कुछ मे जैन-धर्म सरस्वती के मन्दिर सत्तात्मक राजनीति के अखाड़े बन रहे तथा जैन-दर्शनकी शिक्षा की व्यवस्था है। पर उसकी सख्या हैं। छात्र-छात्राएं उनमें निष्ठापूर्वक अध्ययन न करके बात Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशपाल जन का अध्यक्षीय भाषण २२३ बात पर पान्दोलन करते है और उनके हिंसात्मक उपद्रवो अच्छा कल याद करके पाना । नही तो खैर नहीं है प्रगल को दबाने के लिए सरकार को गोली का सहारा लेना दिन युधिष्ठिर पाये तो गुरुके पूछने पर उन्होंने कहा कि पाठ पडता है। याद नही हपा । इस पर द्रोण ने बहुत खरी-खोटी सुनाई। शिक्षा-संस्थाओं की इस दुरवस्था के लिए शिक्षा-पद्धति कहा कि तुम्हारे मस्तिष्क मे भूसा भरा है और तुम अपने तो दोषी है ही, अध्यापको की अयोग्यता भी कम जिम्मेदार जीवन में कुछ नहीं कर सकते बुरा-भला कहने के बाद नही है। ठीक ही कहा जाता है कि जिन्हे और किसी क्षेत्र उन्हें एक दिन का अवसर और दिया तीसरे दिन पाठशाला में काम नही मिलता. वे अध्यापक बनते है। मेरे कहने का के प्रारम्भ होते ही गुरुजी ने युधिष्ठिर से पाठ की बात तात्पर्य यह नही है कि सब-के-सब अध्यापक प्रयोग्य है, पळी और जब यधिष्ठिर ने इन्कार किया तो द्रोण को ताव लेकिन मेरी पक्की धारणा है कि बहसख्यक वा अध्यापक से या गया। उन्होने यधिष्ठिर को पास बनाया और बड़े है, जिनका शिक्षा में न रस है, न गति । वे बेतन-भोगी के जोर से एक चाटा उसके गाल पर माग । चाटा लगते ही रूप मे काम करते है। युधिष्ठिर ने कहा, पाठ याद हो गया । द्रोण बोले, "मुझे तीसरी एक बात और भी है और वह यह कि आज मालूम नही था कि चाटा खाकर तुम्हे पाठ याद होगा, शिक्षा पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित रह गई है, आचरण से अन्यथा दो दिन का समय मै क्यो खराब करता," युधिष्ठिर उसका सम्बन्ध नही रहा । किसी महापुरुष ने कहा है कि ने कहा, "गुरुजी ऐसी बात नहीं है। पहले दिन जब अापने विचारों के अनुकूल अाचरण न हो तो वह गर्भपात के पूछा था कि पाठ याद हुआ तो मुझे अपने पर विश्वास नहीं समान है। कि मैंने क्रोध को जीत लिया है । सम्भव है, कोई बुरा-भला हमारे देश का अतीत गौरवशाली रहा तो इसीलिए. कहे तो मुझे गुस्सा आ जाय । दूसरे दिन जब आपने मुझ क्योकि ज्ञान के अनुरूप आचरण होता था और शिक्षा का से कठोर बाते कही तब भी मझे गुस्मा नही आया । फिर मुख्य ध्येय जीवन का सुन्दर, निर्दोष, निष्काम तथा निरु- भी मैने सोचा कि हो सकता है कि कोई मारे तो मुझे कोप पाधि बनाना था। जो विद्या इसमे सहायक होती थी वही आ जाय । लेकिन आज जब आपने मारा और मेरे मनमे सर्वोत्तम मानी जाती थी और इसे सिखानेवाला सद्गुरु जग भी गुस्मा नही पाया, तब मै समझा कि मुभे. पाठ अर्थात् प्राचार्यकी संज्ञा से विभूपित किया जाता था। प्राचार्य याद हो गया ।" का अर्थ ही है अाचारवान । स्वय आदर्श जीवन का बधुग्रो, यह दृष्टान्त मैंने यह बताने के लिए दिया है प्राचरण करत हए राष्ट्र से उसका प्राचरण करा लनेवाला कि सच्चा ज्ञान बही है जो जीवन में उतरे आज विज्ञान ही आचार्य कहलाता था। की प्रगति से ज्ञान का क्षेत्र तो बहुत व्यापक हो गया है __ शिक्षा और जीवन समन्वय के सम्बन्ध में यहा मुझे, लेकिन उसका सम्बन्ध जीवन से टूट गया है । इसलिए आज महाभारत का एक प्रसग याद आता है । पाण्डव अपने गुरु बार-बार कहा जा रहा है कि विज्ञान और अध्यात्म का दोणाचार्य से शिक्षा प्राप्त करते थे । एक दिन द्रोण ने उन्हें समन्वय होना चाहिए। प्राज यही ममन्वय हमे नही दिखाई पढाया, सत्य बोलो। पढ़ाकर उन्होंने बारी-बारी से पाचो दे रहा । भाइयो से पूछा कि पाठ याद हो गया। सबने उत्तर दिया पूज्य मुनि श्री विद्यानन्दजी ने अपने हाल ही के एक कि हा, हो गया अगले दिन उन्होंने पढाया, क्रोध को जीतो पत्र में मुझे लिखा है, "अाज धर्म और सस्कृति पर निष्ठा पढाकर उन्होंने सबसे बड़े भाई युधिष्ठिर से पूछा कि पाठ रखने की सर्वाधिक आवश्यकता है यह एक महान प्रयत्न है याद हा तो उन्होने कहा, नही। द्रोण ने और भाइयो जिसके लिए विशाल तथा उच्चकोटि का बहुमुखी प्रयत्न से पूछा तो सबने कह दिया कि हो गया । द्रोण का अपेक्षित है । सोमदेव सूरि ने कहा है-'लोकव्यवहारज्ञों युधिष्ठिर पर अझलाहट हुई। उन्होंने कहा कि तुम्हारी हि सर्वज्ञ. । अन्यस्तु प्राजोऽप्यवज्ञागत एव'- इसलिए बुद्धि कैसी है, जो यह मामूली सा पाठ तुम्हे याद नहीं हुआ लोक-व्यवहार को जानना अत्यावश्क है और उसमें अपनी Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ अनेकान्त मूल निधि को भुलाना नहीं चाहिए।' प्रतिष्ठिा हो तथा उनकी पवित्रता के गीत सभाषोषो में ____ मुनिश्री ने कुछ उपयोगी सुझाव भी दिये है, जो हम सुनाई दे, यही जैनो का लौकिक पुरुषार्थ होना चाहिए । सबके लिए शिक्षा-दर्शक हो सकते हैं। उनके सुझावो को अकाल-स्तुति मे (जपुजी १५० वाणी गुटका मे) लिखा यहा देने का लोभ मै सवरण नही कर सकता। वह है-'स्रावग सुद्ध समूह सिद्धान के देखि'-ऐसे नवीन लिखते हैं: ___गीतो की रचना जैनाचार पर निर्मित हो।" "युग के साथ चलना चाहिए, परन्तु क्षमतावान तो मुनिश्री की यह सत्प्रेरणा वर्तमान जैन-शिक्षा-सस्थानो वही है जो युग को अपने साथ ले चलने की योग्यता उपा- के विचार तथा दिशा-निश्चय के लिए बड़ी महत्वपूर्ण जित करे । अपने सांस्कृतिक मूल्यों का यदि हम स्वयं सामग्री प्रस्तुत करती है। अवमुल्यन नही करें तो दूसग कौन उन्हें गिरा सकता है ? मज्जनो, मै मानता ह कि जैन-समाज भारतीय जीवन समाज और देश के साथ समझौता करना उत्तम बात है, का अभिन्न अंग है। इसलिए आज जो सकट देश के सामने परन्तु अपनी आत्मिक और धार्मिक सम्पति का क्षय करके उपस्थित है। वह उसका भी है और उसे दूर करने में कोई समझौता नही किया जा सकता। प्राचार्य सोमदेव मूरि जन-समाज को अपना योगदान देना चाहिए। सकट से मेग ने कहा है-. "जैनो के लिए उन मब लौकिक विधियो का ग्रालय भौतिक वस्तुओ के मकट से नही है, हालाकि पालन करना सुगम है, जिनमें मम्यक्त्व की हानि न हो दैनिक जीवन में उसका भी अपना महत्व है । मेरा प्राशय तथा व्रतो मे दोष नही पाये।" मद्य, मधु, मास तथा अण्डा तो मूल्यों के मकट से है, उम अास्था के प्रभाव से, जिसके सर्वथा त्याज्य है--इस धार्मिक मत्य को जैन बालको को कारण अाज चार्ग और अनैतिकता का माम्राज्य फैला अच्छी प्रकार ममभा देना चाहिए । हा दिखाई देता है। सर्व एव हि नानां प्रमाणं लोषिको विधि । जैन धर्म में हिसा को परमधर्म माना है । उसके न यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र व्रत दूषणम् ॥ अनुयायियो का कर्तव्य है कि वे अहिमा की तेजस्विता को २ यह युग सहचाग्निा का है। भावात्मक एकता की विश्व के मामने प्रगट करे । प्राज सारा समार अणु-शक्ति गहरी अावश्यकता है। एक गाट्रीयता तथा मानवीय पक्ष के विकाश मे लगा है। उसके विनाशकारी प्रयोग को हम के लिए यथाशक्ति वान्मल्य निर्माण करते जाने मे आत्मबल हीगेगिमा तथा नागासाकी में देख चुके है। अन्य अनेको बनता है। प्रात्मीयों की अधिकता होती है। एसा न देशो मे आज देख रहे है। सच बात यह है कि आज बड़ेकरने से द्वेष-बुद्धि को प्रश्रय मिलता है। कबीर का दोहा । मे-बटे गष्ट्र भयभीत हो रहे है कि यदि दूसरे गष्ट्र के अाज भी इस दृष्टि से अनुपेक्षणीय है पास ग्राणविक शक्ति अधिक हो गई तो उसका अस्तित्व पड़ोसो सूं रूसणा तिल-तिल सुख की हानि। खतरे में पड़ जायगा दो महायुद्ध हम देख चुके है । नीमरे पंडित भये सगवगी पानी पी छानि ॥ महायुद्ध की घटाए जब-तब आकाश में घिर आती है जब ३ शिक्षा-सस्थाग पृथक् पाठ्य-क्रम बनाकर नही चल मसार इतना त्रस्त हो रहा है तो अहिसा के प्रचार के सकती, परन्तु ऐसा वातावरण अवश्य उत्पन्न कर मकती हे लिए इसमे बढकर और कौन-सा उपयुक्त समय हो सकता जिमसे छात्र-वर्ग सत्प्रेरणा ले सके। अपने सास्कृतिक है ? लेकिन किम अहिंसा का ? उम अहिसा का नही, यायोजन, श्रुति-प्रार्थना, नाटक-रूपक, उपदेश-वाक्य इत्यादि जिसे कायर अपनाता है, बल्कि उस अहिसा का, जो वीर द्वाग वहा अनुकूलता निर्माण की जा सकती है। प्रदर्शन का भूषण है और जिसको तेजस्विता के आगे शक्तिशाली न करते हुए प्रयोगात्मकता अपनाना श्रेयस्कर है । सस्थाओ पाशविक बल स्वत ही पराभूत हो जाता है । का अन्तरंग किसी प्रौढ, धार्मिक व्यक्तित्व से परिचालित अहिसा के पुजारी होने के नाते जैन समाज पर इस होना चाहिए। दिशा में भारी जिम्मेदारी पाती है। वर्तमान परिस्थितियों लोक में जैनों का प्रादर्श जीवन पुनः लोक साहित्य मे मे इस जिम्मेदारी का निर्वाह किस प्रकार किया जा सकता Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशपाल जन का अध्यक्षीय भाषण २२५ है इस पर गम्भीरता से विचार करना आवश्यक है। रखते हों और जिनका व्यक्तित्व प्रभावशाली हो। इन एक बन्धू ने सुझाव दिया है कि शिक्षा का स्थान छात्रावासो में प्राचार-विचार की शुद्धता पर सबसे अधिक कालेज टी दो सकते है। छोटी-छोटी बल दिया जाय । प्रार्थना, स्वाध्याय ग्राहक पाठशालाओं या गरुकलो का अब शिक्षा के क्षेत्र मे कोई जीवन के अनिवार्य प्रग हों। ऐसा प्रयत्न भी किया स्थान रहनेवाला नहीं है उसकी धारणा है कि अपने स्वतन्त्र जिससे छात्रों की दृष्टि व्यापक बने और उनमे मौलिक गुरुकूल अथवा पाठशाला चलाने की अपेक्षा शिक्षा केन्द्रों चिन्तन की प्रवृत्ति उत्पन्न हो। मे जैन-छात्रवासो की सुविधा कर देने से जो परिणाम २ देश की वर्तमान स्थिति में यह तो संभव नहीं है निकल सकते हैं, वे स्वतन्त्र सस्थाएं चलाकर नहीं। कि किसी धर्म विशेष की शिक्षा को पाठ्यक्रम में सम्मिलित मेरी मान्यता है कि धार्मिक संस्कार देना और धामिक कराया जा सके, लेकिन भारतीय धर्मों के सामान्य पाचारविषयों का ज्ञान देना, ये दो भिन्न बाते है । जहा तक विचार की शिक्षा की व्यवस्था तो हो ही सकती है और संस्कार का सम्बन्ध है, वे घरों मे और छोटी-छोटी पाठ उनके लिए प्रयत्न होने चाहिए। बिना पारिभाषिक शब्दाशालानों के द्वारा ही दिये जा सकते है। लेकिन जहां तक बला का प्रयोग किये, जन सामान्य की भाषा शैली में. ज्ञान का सम्बन्ध है, उसके लिए महाविद्यालय तथा विश्व- ऐसे पाठ तैयार करने चाहिए, जो जैन तथा जैनेता भी विद्यालय स्तर पर शिक्षा तथा अन्वेषण की व्यवस्था करनी छात्रा को नैतिक जीवन की शिक्षा दे सकें। होगी। ३ जन शिक्षा-सस्थानों में ऐसे केन्द्र बनने चाहिए, शिक्षा किसी भी राष्ट्र की रीढ़ होती है। बिना शिक्षा जिनमें जन-धर्म तथा दर्शक का अध्ययन एव शोध कोना के कोई भी देश आगे नहीं बढ़ सकता । ससार का इति- सके । मृयोग्य एव क्षमतावान छात्रो को छात्रवनिया हास साक्षी है कि जिन देशो मे देश-कालके अनुसार शिक्षा देकर उस दिशा में विशेष प्रेरणा देनी चाहिए। द्वारा देशवासियो का चरित्र ऊचा किया गया है, उन देशी ४. महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय में जहा सस्कृत ने कुछ समय में ही बड़ी भारी उन्नति की है । वे कही-के- पढाई जाती है, वहां विकल्प रूप में प्राकृत, अपभ्रश प्रादि कही पहुंच गये है। भाषामों के अध्ययन का भी प्रबन्ध होना चाहिए। प्राज लेकिन स्मरण रहे कि सही ढग की शिक्षा जितना भी बहुत-से विद्यानुरागी युवक है, जो प्राकृत, अपभ्रश लाभ पहुचाती है, गलत शिक्षा उससे कहीं अधिक हानि ग्रादि भाषामो के ग्रथो के अध्ययन में विशेष रुचि रखते पहचाती है । हमारे देश की जो हानि हुई है और हो रही हैं उन्हे इन भाषाओं के सीखने तथा अन्यों के अध्ययन की है वह इसलिए कि हमने अभी तक अपनी शिक्षा को पुरानी मुविधा मिलनी चाहिए। लकीर से हटाकर नये सांचे मे नहीं ढाला। ५. जैन शिक्षा-सस्थानो में जैन संस्कृति तथा दर्शन अखिल भारतीय जैन शिक्षा-परिषद का मुख्य उद्देश्य के सम्बन्ध में समय-समय पर विद्वानो के भाषणो का जैन शिक्षा तथा शिक्षा-संस्थानो को अधिकाधिक व्यापक प्रायोजन होना चाहिए । इन भाषाणो में यह दृष्टि रहनी एवं उपयोगी बनाना है। इस सबन्ध मे मै कुछ सुझाव आवश्यक है कि हम अपने धर्म तथा सस्कृति को तो जाने, आपके विचारार्थ प्रस्तुत करता हूँ। लेकिन हमारी वृत्ति सर्व-धर्म-समभाव की हो, यानी हमारे १. आज जन-समाज द्वारा जितनी शिक्षा-सस्थाओं का अन्दर सब धर्मों के लिए समान आदर-भाव जाग्रत हो। संचालन हो रहा है, उनके साथ एक-एक छात्रवास की ६. भारत की राजधानी में एक ऐमे संग्रहालय की व्यवस्था हो, विशेषकर बडे-बडे नगरों में तो शीघ्रातिशीघ्र स्थापना होनी चाहिए, जिनमे जन-धर्म के प्रमुख मुद्रित एवं हो जानी चाहिए, जहां युवको में चरित्र का ह्रास बड़ी हस्तलिखित ग्रन्थोंका संग्रह हो । ऐसे संग्रहालय कुछ स्थानो तेजी से हो रहा है। इन छात्रावासो के संचालन का पर है, लेकिन दिल्ली एशिया का महत्वपूर्ण केन्द्र है अत. दायित्व उन व्यक्तियों पर हो, जो धर्म में गहरी प्रास्था एक बड़ा सग्रहालय वहाँ होना चाहिए । संग्रहालय की Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ अनेकान्त शाखाएं विभिन्न स्थानों पर खोली जा सकती है। बहनों ने उनकी अहिंसक क्रान्ति को सफल बनाने के लिए ७. जैनधर्म के हस्तलिखित ग्रथ जगह-जगह जैन-भण्डारों अपना जीवन समर्पित कर दिया है। वे 'जीवनदानी' कहमें भरे पडे हैं । उनकी एक सूची सक्षिप्त परिचय के साथ लाते हैं । ऐसे ही कुछ सेवा-भावी व्यक्ति जैन-समाज में भी शीघ्र ही तैयार हो जानी चाहिए। पाने चाहिए। वे समाज-सेवा के लिए अपने जीवनको अर्पित ८. मुझे संसार के अनेक देशो मे घूमने का अवसर कर दें और अपने-अपने क्षेत्र में समाज-सेवा का कार्य करे । मिला है । यूरोप, दक्षिण-पूर्वी एशिया, अफ्रीका प्रशान्त वे अपना पूरा समय समाज-सेवा को दे और समाज का महासागर के देश, सब जगह मुझे ऐसे व्यक्ति मिले है, दायित्व हो कि वह उनकी जीविका की व्यवस्था करे। जिन्होंने जन-धर्म के प्रति बडी जिज्ञासा व्यक्त की है और १३. ऐसे पारितोपिको की भी सुविधा होनी चाहिए, ऐसे साहित्य की मांग की है, जो उन्हे सरल भाषा मे जैन- जो सदाचार, निर्भीकता, भ्रातृभाव प्रादि की दृष्टि से धर्म के बुनियादी सिद्धातोंकी जानकारी दे सके । विदेशियो उच्च कोटि के छात्रों को दिये जा सके । ऐसे पारितोपिको के लिए हमारे कुछ विद्वानों ने साहित्य तैयार किया था, से छात्र-छात्राओं में स्वास्थ प्रतिस्पर्धा उत्पन्न होगी। लेकिन तब से अब तो संसार बहुत आगे बढ गया है । ते १४. हमारी शिक्षा बहुत-कुछ एकागी है। वह पुस्तलोग धर्म का इसलिए अध्ययन करना चाहते है कि उन्हें कीय ज्ञान कराने का तो प्रयत्न करती है, लेकिन वह अपने दैनिक जीवन की समस्याग्री को सुलझाने में सहायता यवको मे स्वावलम्बन की भावना और आत्मविश्वास पैदा मिले । उनका धरातल बौद्धिक है और वे उसी साहित्य नहीं कर सकता है जवाक हसारी शिक्षा-सस्थानो मे उद्योग को अगीकार कर सकते सकते है, जो बुद्धि की कसौटी पर । के शिक्षण की भी व्यवस्था हो । गाधीजी ने बुनियादी कसा जा सके । शिक्षा का प्रचलन इसीलिए किया था । श्रम के बिना ज्ञान ६. इसके लिए ऐसे प्रकाशन-गृह की आवश्यकता है, अधूग है और बिना शिक्षा खरी मेहनत के धर्म भी अपंगु जो विद्वान लेखको स ग्रब तैयार कराकर उसका प्रकाशन है। इसलिए हमारी शिक्षा-सस्थायो मे उद्योग का शिक्षण करे। यह प्रकाशन-गृह उन हस्तलिखित ग्रथों का भी प्रका- अनिवार्य होना चाहिए। शन कर सकता है, जो अत्यन्त उपयोगी है और जो भण्डारी ऐसे और भी बहुत-से कार्य हो सकते है मैं उन सब मे बन्द पडे है। को यहा गिनाना नही चाहता । मैंने तो केवल सकेत किया १०. जैन साधु तथा साध्वियों देश में घूम-घूमकर धर्म- है। आप सब विज्ञ है । गम्भीरता से विचार करके व्यावप्रभावना प्रसारित करती है, लेकिन उनके दायरे सीमित हारिक योजनाए बनाये और उन्हे क्रियान्वित करे। है, अत. उनकी उपयोगिता भी सीमित है। जैन समाज के जैन धर्म की बडी व्यापकता है और जन-समाज की चुने हुए विद्वानो के, जा अच्छ वक्ता भी हो, छाट-छाट बड़ी उपयोगिता भी हो सकती है, लेकिन यह तभी संभव शिष्टमण्डल देश के विभिन्न भागो मे जा सके, ऐसी है, जबकि सारा समाज सगठित हो और उन आदर्शों को व्यवस्था होनी चाहिए। कुछ शिष्टमण्डल विदेशों में भी अपने पाचरण से ससार के सामने रक्खे, जो सबके लिए जाने आवश्यक है। वहां के निवासी हिसा से तग पाकर अहिंसा की ओर आकर्षित हो रहे है और वे मानते है कि जैन-दर्शन का सम्यक् ज्ञान वास्तव में अद्भुत है मन जैन-दान का मस उस दिशा में जन-धर्म की विशेष देन है। का ज्ञान सदा अह की एकागी अहता से निर्धारित तथा ११. दिल्ली तथा अन्य केन्द्रीय स्थानो पर समय-समय विकृत होता है । वह कभी सम्यक् भी नही होता । उसकी पर गोष्ठियो का आयोजन भी उपयोगी होगा । ये गोष्ठियाँ उपयोगिता सामाजिक व्यवहार की है । उसमे यथार्थता जनेतर व्यक्तियों को जन-धर्म की ओर आकर्षित करने में नहीं होती और तभी 'शिव' और 'सुन्दर' के साथ एकत्व सहायक हो सकती है, ऐसा मेरा विश्वास है। भी उसमे नही होता। हमारा वर्तमान ज्ञान एकागी, आशिक १२. प्राचार्य विनोवा के आह्वान पर बहुत-से भाई- है। उसमे 'शिव' और 'सुन्दर' का समन्वय नही है। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिरपुर का जैन मन्दिर दिगम्बर जैनियों का ही है २२७ जैनधर्म में सम्यक ज्ञान की कितनी महिमा है, यह जो संस्थाएं इस दिशा में प्रयत्नशील हैं, उन्हें मैं बधाई बताने की आवश्यकता नही । यह ज्ञान तटस्थ प्रात्मा का देता हैं। पर वे मेरी इस बात से सहमत होगी कि अब समग्रभाव युक्त ज्ञान है। वही ज्ञान हमारे ज्ञान और समय तेजी से प्रागे बढ़ने को आ गया है । अब जबकि कर्म को एकत्व भाव प्रदान करता है। आज इसी की चन्द्रलोक मे जाने और वहां बसने की चेष्टाए हो रही है, आवश्यकता है और हमारी शिक्षा-सस्थाओ को अब आगे हमे अपने वर्तमान प्रयत्नों से संतुष्ट नहीं रहना चाहिए । इसी दिशा में निष्ठापूर्वक प्रयास करना चाहिए । 'चरैवेति' के मूलमत्र को सामने रखकर गतिपूर्वक मागे बढ़ना चाहिए। प्राचार्य विनोबा के शब्दो में, "अग्नि की दो शक्तियां बहनो और भाइयो, मैंने आपका बहुत समय ले लिया मानी गई है । एक 'स्वाहा', दूसरी 'स्वधा'। ये दोनों क्षमा करे। मैं नही जानता कि ये विचार मापके लिए शक्तिया जहा है, वहां अग्नि है । 'स्वाहा' के मायने है । कितने उपयोगी होगे । मै मानता हूँ कि अब समय कहने आत्माहुति देने की, आत्म-त्याग की शक्ति और 'स्वधा से अधिक करने का है । मैं एक बार पुनः प्रापका पाभार के मायने है 'प्रात्मधारण करने की शक्ति ।" ये दोनो मानता है और आपने मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनी, उसके शक्तिया हमारे शिक्षण मे जाग्रत होनी चाहिए। लिए आपको धन्यबाद देता हूँ। शिरपुरका जैनमन्दिर दिगम्बर जैनियों का ही है सुप्रसिद्ध इतिहासकार डा० देशपांडे का अभिमत नागपुर बुधवार । “उपलब्ध सभी ऐतिहासिक प्रमाणों केवल दिगम्बर जैन ही थे । उस समय श्वेताबरी पथ से गिरपुर का प्रतरिक्ष पार्श्वनाथ जी का मन्दिर और अत- अस्तित्व मे नही था, गत २०० माल से श्वेतांबरियों ने रिक्ष पार्श्वनाथ जी की प्रतिमा, ये दोनों पूर्ण निर्ग्रन्थ व व्यापार के बहाने विदर्भ मे प्रवेश किया। दिगम्बर जैनों के है । इसमे किचित् मात्र भी शका नहीं" करीब २०० साल पहले तक विदर्भ मे एक भी श्वेताऐसा वक्तव्य भारत के मान्यवर ८६ वर्षीय इतिहासकार बरी मन्दिर अथवा प्रतिमाये नही थीं, तदुपरात श्वेताबरिडा. य. खु. देशपाडे ने दिया है। यों ने योजनायें बनाकर दिगम्बर जैन मन्दिगे और मूर्तियों डा. देशपाडे ने इतवारी स्थित श्री दि. जैन सेनगण पर पूजा का हक स्थापित करने का प्रयास किया। इस प्रयास द्वारा ही उन्होंने श्री अतरिक्ष पार्श्वनाथ जी मन्दिर मन्दिर के प्रांगण में, नागपुर दि. जैन बघेरवाल मडल के तत्वावधान में आयोजित परिचय समारोह की जाहिर सभा पर कुछ अंशों मे हक स्थापित किया । डा. देशपाईने अपील में भाषण देते हुए उक्त रहस्योद्घाटन किया। अध्यक्षता को कि दोनों सम्प्रदायो के लोगों को धर्म का प्रचार कर हिंसा को तिलाजली देना चाहिये । मन्दिर और प्रतिमाये नागपुर दि. जैन बघेरवाल मडल के अध्यक्ष श्री व. क. किसकी है, यह निश्चित करने का कार्य ऐतिहासिक प्रमाणों गरीबे ने की। पर छोड देना चाहिए । डा. देशपाडे ने कहा की सभी ऐतिहासिक प्रमाणों से प्रारभ में प्रो. मधुकर जी बाबगांवकर ने डा० देशपांडे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि करीब २००० साल पहले का परिचय कराया। इस अवसर पर प्रो. ब्रम्हानंद जी भारत में केवल दिगम्बर जैन धर्म और उसके मन्दिर देशपाडे, नेमचद डोणघावकर, मनोहर आग्रेकर के समयो(प्रतिमायें ) अस्तित्व में थे, और भगवान महावीर के चित भाषण हुए। प्रत में सचिव अरविंद जोहरापुरकर ने महानिर्वाण के बाद ५००-६०० साल तक भारतवर्ष में प्राभार प्रदर्शन किया। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशि-गौतम-संवाद श्री पं० बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री श्वेताम्बर सम्प्रदाय मे एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ उत्तरा- समन्वयात्मक दृष्टिकोण से विचार किया गया है वह ध्ययन प्रसिद्ध है । उसकी गणना मूल-सूत्र आगमो मे प्रथम बहुत ही आकर्षक है। मूलसूत्र के रूप में की जाती है। इसमे विनय व परीषह इस अध्ययन में ८६ मूत्र है जो अनुष्टुप् वृत्त में है। प्रादि ३६ अध्ययन है । उनमें तेईसवा अध्ययन 'केशि-गोत- प्रथम सूत्र द्वारा भगवान पार्श्व जिनेन्द्र का स्मरण करते मीय' है जो विशेष महत्त्वपूर्ण है। इसमें भगवान् पार्श्व हुए उन्हें अहंत, लोकपूजित, सम्बुद्धात्मा, सर्वज्ञ और जिनके एक शिष्य केशिकुमार श्रमण और वर्धमान स्वामी धर्म-तीर्थकर कहा गया है। के प्रमुख गणधर का मधुर मिलन होने पर जो दोनो के इस प्रसग को लेकर प्रस्तुत ग्रन्थ के एक वृत्तिकार मध्य में प्रश्नोत्तर हए उनका रोचक वर्णन है, जो बहुत श्री मिचन्द्र ने अपनी सखबोधा वत्ति में इस प्रथम सूत्र उपयोगी है । अपने को स्याद्वादी ख्यापित करने वाले बीपीका मे भ. पाश्र्व जिन के चरित्र का चित्रण किया है जैन महानुभाव यदि इस अध्ययन को पढ़े, मनन करे, २५-६५) जो किसी अन्य ग्रन्थ से जैसे का तर और जीवन में उतारं तो वर्तमान कलुषित वातावरण लिया गया प्रतीत होता है। सर्वथा समाप्त हो जाय। इसमे पारस्परिक द्वैविध्य के मागे (सू २-४) कहा गया है कि भ पार्श्व जिनेन्द्र के विषय मे जो एक दूसरे को सम्मान देते हुए' सौजन्यपूर्ण एक महायशस्वी शिष्य केशिकुमार श्रमण---जो ज्ञान और १ पारस्परिक सम्मान का पता इससे सहज मे लगता है चारित्र के पारगामो होते हुए अवधिज्ञान और श्रुतज्ञान कि गौतम प्रमुख गणघर होकर भी ज्येष्ठ कुल का से बुद्ध (तत्त्ववेत्ता) थे--प्रामानुग्राम विहार करते हुए विचार करके केशिकुमार श्रमण से मिलने के लिए अपने शिष्यसमुदाय के साथ श्रावस्ती पुरी में पाये और स्वय उनके स्थान पर जाते है। यथा नगरी के समीप तिन्दुक उद्यान मे प्रासुक शय्या-सस्तारक गोतमे पडिरूवण्णू सीससघसमाउले । (वसतिगत शिलापट्ट आदि) पर ठहर गये । जेट्ठ कुलमवेक्खतो तेदुय वणमागयो ।।१५।। इसी समय लोकविश्रुत भगवान् वर्षमान धर्म-तीर्थकर उधर उनको पाता हुआ देखकर कैशिकूमार भी के महायशस्वी शिष्य गौतम भी-जो ज्ञान व चारित्र के शीघ्रतापूर्वक स्वागत करते हुए उन्हे समुचित प्रासन पारगामी, बारह अगों के वेत्ता व बुद्ध थे-ग्रामानुग्राम आदि देते है। यथा विहार करते हुए अपने शिष्यवर्ग से वेष्टित होकर उपकेसीकुमारसमणो गोयम दिस्समागय । युक्त पुरी मे माये और नगर के समीप कोष्ठक उद्यान में पडिरूव पडित्ति सम्म सपडिवज्जती ॥१६॥ साह गोयम पन्ना ते छिन्नो मे ससमो इमो। पलाल फासुय तत्थ पचम कुसतणाणि य । अन्नोऽवि संसमो मज्झत मे कहसु गोयमा ।। गोयमस्स णिसिज्जाए खिप्प सपणामए ॥१७॥ (२८ व ३४ प्रादि) इसी प्रकार केशिकुमार के द्वारा पूछे गये प्रत्येक १ प्रकृत ग्रन्थ के कितने ही सस्करण विविध टीकाप्रश्न का गौतम के द्वारा समाधान करने पर बार टिप्पणो के साथ निकल चुके है। किन्तु हमारे सामने बार केशिकुमार के श्रीमुख से गौतम की बुद्धिचातुर्य वह श्री नेमिचन्द्र की इस सक्षिप्त सुखबोधा वृत्ति की प्रशसा मे निम्न सूत्र कहलाया जाता है सहित है। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशि-गौतम-संवाद २२२ प्रासुक शय्या-सस्तारक पर स्थित हो गये । (५-८) गृहस्थ पाये । इनके अतिरिक्त वहां देव, दानव, गन्धर्व, इस प्रकार जब वे दोनों महर्षि अपने-अपने शिष्य- यक्ष, राक्षस और किन्नर ये दृश्य तथा अदृश्य भूत व्यन्तर सघ के साथ पाकर एक ही पुरी में प्रतिष्ठित हुए तब भी पाये । (१९-२०) दोनों के शिष्यसमुदाय मे यह चिन्ता प्रादुर्भूत हुई-यह हमारा धर्म कैसा और गौतम गणधर के शिष्यो का धर्म तत्पश्चात् केशिकुमार गौतम से बोले कि हे महाकसा है ? भ. पार्व जिन ने जहा चातुर्याम-ब्रह्मचर्य- भाग ! मैं पाप से कुछ पूछना चाहता है। इस पर गौतम विहीन चार ही महाव्रत रूप---धर्म का उपदेश दिया बोले कि भते । जो कुछ भी पूछना हो, अवश्य पूछिये । वहां वर्धमान तीर्थकर ने पचशिक्षित-हिसादि पाच तब अनुज्ञा पाकर के शिकुमार बोले । (२१-२२) महाव्रत स्वरूप-उसी धर्म का उपदेश दिया। इसी प्रकार केशि-चातर्याम जो धर्म है उसका उपदेश तो आचारधर्मप्रणिधि-लिगादिरूप बाह्य क्रियाकलाप के पार्श्व जिनने दिया, और जो पशिक्षित धर्म है उसका विषय में जहा वर्धमान तीर्थकर ने अचेलक (दिगम्बरत्व - उपदेश वर्धमान जिनने दिया है। एक ही कार्य (मुक्ति) वस्त्रबिहीनता) धर्म का उपदेश दिया वहा पार्श्व जिन में प्रवृत्त उक्त दोनो तीर्थ डुरो के इस दो प्रकार धर्म की ने सान्तरोत्तर-प्रमाण आदि में सविशेष व महामूल्यवान् प्ररूपणा का क्या कारण है तथा इसमें आपको सन्देह क्यो होने से प्रधान से वस्त्र से युक्त- उस धर्म का उपदेश नही होता ? दिया। जब उक्त दोनो ही तीर्थकर मुक्तिरूप एक ही गौतम-तत्त्वनिश्चय से संयुक्त इस धर्मतत्त्व का कार्य मे सलग्न रहे है तब उनके द्वारा उपदिष्ट इस धर्म रहस्य बुद्धि के बल से जाना जाता है। वाक्य के श्रवण भेद का क्या कारण है ? (६-१३) मात्र से कभी वाक्यार्थ का निर्णय नही होता-वह तो शिष्यस घो की इस चिन्ता को जानकर दोनो महषियो बुद्धि के बल पर ही हुआ करता है। प्रथम तीर्थकर के ने आपस में मिलने का विचार किया। तदनुसार यथा समय में माघु जन ऋजु-जड-सग्ल होते हुए भी दु प्रतियोग्य विनय के वैत्ता गौतम गणधर ज्येष्ठ कुलका विचार पाद्य थे, अन्तिम तीर्थकर के समय के साधु वक्र-जइ-- करते हुए तिन्दुक वन मे केशिकुमार श्रमण के पास आये । कुटिल होकर जड थे, और मध्य के बाईम तीर्थकरो के उन्हे प्राता हुआ देखकर केशिकुमार ने समुचित प्रातिथ्य समय के साधु ऋजुप्रज्ञ-सरल होते हुए बुद्धिमान थे, मे प्रवृत्त होते हुए उनके बैठने के लिए शीघ्रता से प्रानुक उनको समझाना कठिन न था। इससे धर्म की प्रमपणा पलाल मे पचम' कुश तृणो को-डाभ के अासन को दो प्रकार से की गई है। प्रथम तीर्थकर के समय के दिया। (१४-१७) साधुग्रो को कल्प-साधु के प्राचारका समझाना इस प्रकार एक साथ बैठे हुए वे दोनो महर्षि चन्द्र कठिन था तो अन्तिम तीर्थकर के साधुनों को उसका सूर्य के समान सुशोभित हुए । (१८) पालन करना कठिन था। किन्तु मध्य के बाईस तीर्थकरी उनके इस मधुर मिलन के समय कौतुकवश मृगो के के समय के साधु उस कल्प को मुखपूर्वक समझ भी सकते समान बहुत-से पाखण्डी-इतर व्रती जन-और हजारो ' थे और पालन भी कर सकते थे। (२३-२७) १ तणपणगं पुण भणिय जिणेहि कम्मट्ठ-गठिमहणेहिं । २ केशि-भगवान् वर्धमान ने तो अचेलक धर्मका साली वीही कोद्दव रालग रन्ने तणाइ च ।। ___ शालि, श्रीहि, कोद्रव, रालक और अरण्यतृण, १ पुरिमा उज्जु-जडा उ वक-जड्डा य पच्छिमा। ये पाच पलाल के भेद है। इनमे पाचवा चूकि अरण्य- मज्झिमा उज्जु-पन्ना उ तेण धम्मो दुहा कए ॥२६ तृण (कुश) है, अत. उसका उल्लेख 'पचम' के रूप पुरिमाण दुविसोझो उ चरिमाण दुरणुपालभो । किया गया है। कप्पो मज्झिमगाणं तु सुविमुज्झो सुपाल यो ॥२७ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० अनेकान्त उपदेश दिया, पर पार्श्व जिनेन्द्र ने सान्तरोत्तर'-सान्तर मिलकर दस हो जाते है। इनको जीतकर मै न्याय्य मार्ग अर्थात् वर्धमान स्वामी के समयकी अपेक्षा प्रमाण में विशेष से बिहार कर रहा हूँ-यथायोग्य संयम के साधने में और उत्तर अर्थात् महामूल्यवान् होने से प्रधान वस्त्रयुक्त- उद्यत हूँ। (३४-३८) धर्म का उपदेश दिया । मुक्तिरूप एक कार्य में संलग्न दोनों ४ केशि-लोक मे बहुत-से प्राणी पाशबद्ध देखे जाते तीर्थकरो के मध्य में इस बाह्य आचार विषयक उपदेश है । फिर हे मुने ! तुम उस पाश से मुक्त होकर लघुभूत की विशेषता का कारण क्या है ? । होते हुए कैसे बिहार करते हो? गौतम-उक्त दोनो तीर्थकरों ने विज्ञान से-विशिष्ट गौतम-उन सब पाशो को छेदकर व फिर से वह ज्ञान स्वरूप केवलज्ञान से-जानकर धर्मसाधन को अभीष्ट बन्धन प्राप्त न हो, इस प्रकार के सद्भूत भावना के माना है। फिर भी लोगो को संयत होने का बोध करामे अभ्यासरूप उपाय से उन्हें नष्ट करके लघुभूत होता हुआ के लिए उस धर्मसाधनविषयक अनेक प्रकार का विकल्प मै हे मुने ! विहार कर रहा हूँ-साधना में प्रवृत्त हूँ। किया गया है। लिंग का प्रयोजन यात्रा-सयम का केशि-वे पाश कौन-से है। निर्वाह-और ग्रहण (ज्ञान) रहा है । वस्तुतः मोक्ष के गौतम-राग-द्वेष प्रादि तीव्र व स्नेहपाश-स्त्रीसद्भुत (यथार्थ) साधन तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र है; पाटिम पुत्रादि सम्बन्ध-भयंकर है। उनको छेदकर मै यथान्याय यह दोनो ही तीर्थकगे की प्रतिज्ञा रही है-इस विषय मे -सूत्रोक्त विधि के अनुसार-क्रमपूर्वक विहार कर रहा दोनों के मध्य में कुछ भी मतभेद नही रहा । (२८-३३) हैं। (३६-४३) ३ केशि--हे गौतम | तुम उन कई हजार शत्रुओ के ५ केशि-हे गौतम | हृदय के भीतर प्रादुर्भूत होकर मध्य में स्थित हो जो तुम्हे प्राप्त करना चाहते है। उन वह लता स्थित है जो विषफलो को उत्पन्न करती है । सबको तुमने कैसे जीता है ? तुमने उमे कैसे उग्वाहा? गौतम--एक शत्र के जीत लेने से पाँच, पाँच के जीत गौतम ----मैंने उस पूरी लता को काटकर समूललेने से दस, और दसके जीत लेने से सभी शत्रु विजित, गग-द्वेषरूप जड के साथ नष्ट कर दिया है। इसलिए होते है। इस प्रकार से मैंने उन सबको जीत लिया है। मै विषभक्षण से-विष जैसे दुखद दुष्ट कर्म से-मुक्त केशि-वे शत्रु कौन-से कहे गये है ? होकर न्यायानुसार विहार कर रहा हूँ। गौतम-एक पात्मा- प्रात्मा से अभिन्न प्रतीत होने कैशि-वह लता कौन-मी कही गई है.? वाला मन----अजित (दुर्जेय) शत्रु है, क्योकि, समस्त अनर्थों गौतम--वह लता भवतृष्णा-लोभ-कहा गया है। का कारण वही है। फिर कषाय (४) अजित शत्रु है, ये वह स्वभावत भयानक होकर भयकर फलो को-क्लिप्ट उस प्रात्मा के साथ पांच (४+१) हो जाते है । फिर कर्मों को-उत्पन्न करने वाली है। उसको उखाड़ कर इन्द्रिया अजित शत्रु है, पूर्वोक्त पाँच के साथ इन्द्रियाँ (५) मै यथान्याय विहार कर रह हूँ। (४४-४८) १ यश्चायं सान्तराणि-वर्द्धमानस्वामियत्यपेक्षया मान- ६ केशि-भीषण ज्वालाओं वाली वे भयानक विशेषतः मविशेषाणि उत्तराणि-मदासल्यतया अग्निया स्थित है जो प्राणियों को जलाती है। तुमने उन्हें प्रधानानि प्रक्रमाद् वस्त्राणि यस्मिन्नसौ सान्तरोत्तरो कैसे बुझाया है ? धर्मः पावन देशित इतीहापेक्ष्यते। गौतम-जिनेन्द्ररूप महामेघ से प्रादुर्भूत आगमान्तर्गत (नेमिचन्द्र वृत्ति २३, ६-१३) सब प्रकार के जल मे श्रेष्ठ सदुपदेशरूप जल को लेकर समीक्षात्मक विचार के लिए देखिये श्री पं० मैं उससे उन्हे निरन्तर सीचा करता हूँ। इस प्रकार से कैलाशचन्द्र जी शास्त्री का 'जैन साहित्य का इतिहास सिक्त होकर-शान्त होती हुई-बे अग्नियां मुझे नहीं -पूर्व पीठिका' पृ. ३६४-६६ । जलाती है। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशि-गौतम-संवाद केशि-वे अग्नियां कौन-सी कही गई है ? गौतम-जरा और मरण ही वह जल का वेग है। गौतम-- कषाये अग्नि कही गई है और श्रुत-तद्गत उससे डूबने वाले प्राणियों को धर्म ही द्वीप है, जो स्थिर सदुपदेश, शील (महाव्रत) एव तप-को जल कहा गया है। प्रवस्थान का कारण होता हुमा उस वेग को रोककर इस प्रकार श्रुतधारा से अभिहत होकर विनाश को प्राप्त प्राणियो की रक्षा करता है। वही द्वीप उत्तम है। होती हुई वे अग्नियां मुझे नही जलाती है । (४६-५३) (६४-६८)। ७ केशि-सहसा प्रवर्तमान यह भयानक दुष्ट घोडा १० केशि-विशाल जलप्रवाह से परिपूर्ण समुद्र तुम्हारे अभिमुख दौड रहा है। उसके ऊपर सवार होकर मे नाव, जिस पर तुम प्रारूढ हो, वेग से भाग रही है। तुम उसके द्वारा कैसे अपहृत नही किये जाते हो? उससे भला तुम कैसे पार पहुँचोगे ? गौतम-उस दौडते हए दुप्ट घोडे का मै श्रुतरूप गौतम-जो नाव प्रास्रवयुक्त है-जल का संग्रह रश्मि (लगाम) को लगाकर निग्रह करता हूँ। इसमे वह करने वाली है-वह पार जाने वाली नही है, परन्तु जो उन्मार्ग में न जाकर समीचीन मार्ग को प्राप्त होता है। उस प्रास्रव से रहित है वह तो पार जाने वाली है। केशि-वह घोडा कौन-सा कहा गया है ? केशि-वह नाव कौन-सी कहो गई है ? गौतम–सहसा प्रवृत्त होने वाला वह दुष्ट भयानक गौतम-शरीर नाव और जीव नाविक-उस नाव घोडा मन है जो मेरे अभिमुग्व दोड़ता है--- राग-द्वेप में पर प्रारूढ- कहा जाता है; तथा ससार समुद्र है, जिसे प्रवृत्त करना चाहता है। म जात्य अश्व के समान उस मपि जन पार किया करते है। घोडे का धर्मशिक्षा के द्वारा निग्रह किया करता हूँ। अभिप्राय यह कि जो शरीर कर्मास्रव से मयुक्त होता (५४-५८)। है वह मुक्ति का साधक नही हो सकता है; मुक्ति का ८ केशि-लोक मे कुमार्ग बहुत-से है, जिनके आश्रय साधक तो वही शरीर होता है जो उस कर्मास्रव से रहिन से प्राणी नष्ट होते है। हे गौतम । ऐसे मार्ग मे स्थित हो जाता है। (६६-७३) रहकर भी तुम क्यो नही विनष्ट होते हा ' । ११ केशि-बहुत-से प्राणी अन्धा कर देने वाले भया__गौतम-जो मार्ग से जाते है, और जो कुमार्ग के नक अन्धकार में स्थित है। उन प्राणियो को समस्त लोक पथिक (यात्री) है वे सब मुझे ज्ञात है; इसी से हे मुने । में कौन प्रकाश करेगा? में नष्ट नही होता हूँ। गौतम-जो निर्मल सूर्य उदित होकर सब लोक को ___ केशि-मार्ग कौन-से कहे गये है और कुमार्ग कौन-से प्रकाशयुक्त करने वाला है वह समस्त लोक में प्राणियों को कहे गये है ? प्रकाश करेगा। गौतम-कुप्रवचन और पाखण्डी ये सब कुमार्ग मे स्थित है और जो जिनोपदिष्ट सन्मार्ग है वही उत्तम मार्ग केशि-वह भानु (सूर्य) कौन कहा गया है ? है। (५६-६३) गौतम--समस्त पदार्थों का ज्ञाता (सर्वज्ञ) जो जिन ६ केशि-हे गौतम ! जल के प्रबल वेग से डबते देवरूप सूर्य उदित होकर ससार का विनाश करने वाला हुए प्राणियों की रक्षा करने वाला व उसकी गति को है वह सभी लोक मे प्राणियो को प्रकाश करेगा-उन्हे गेकने वाला द्वीप तुम किसे समझते हो ? अपने सदुपदेश के द्वारा सन्मार्ग दिखलावेगा, जिसके प्राश्रय गौतम-जल के मध्य में विशाल भवनो से वेष्टित से वे मसार का विनाश कर सकेंगे। (७४--७८) एक द्वीप है जहां उस प्रबल जल के वेग की गति (प्रवेश) १२ केशि-हे मुने ! शारीरिक और मानसिक नही है। दुखों के द्वारा बांधे जाने वाले-उनसे पीड़ित--प्राणियों केशि-वह द्वीप कौन-सा कहा गया है ? के लिए तुम क्षेम- व्याधिविहीन, शिव-समस्त उपद्रवों से Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ अनेकान्त रहित होनेके कारण कल्याणरूप-और अनाबाध-निर्वाध इस प्रकार संशय के विलीन हो जाने पर केशिकुमार -स्थान कौन-सा मानते हो? ने महायशस्वी गौतम को शिर झुकाकर नमस्कार किया गौतम-लोक के अग्र भाग में दुरारोह-कठिनता और पूर्व तीर्थंकर को अभीष्ट व अन्तिम तीर्थकर प्ररूपित से प्राप्त होने वाला-एक शाश्वत स्थान (मोक्ष) है शुभावह-शुभोत्पादक-अथवा सुखावह-सुखप्रद-मार्ग जहा न जरा है, न मृत्यु है, न व्याधियां है, और न वेदना मे भावत: पांच महाव्रत रूप धर्म को स्वीकार भी है। किया। केशि-वह स्थान कौन-सा कहा गया है ? ___ केशिकुमार और गौतम के इस संमिलन में श्रुत व गौतम--- वह स्थान निर्वाण, अबाघ, सिद्धि, लोकाग्र, शील का-ज्ञान-चारित्र का-उत्कर्ष और अतिशय क्षेम, शिव और श्रनाबाध है; जिसे महर्षि जन प्राप्त करते प्रयोजनीभूत पदार्थों का निर्णय हुआ। समस्त परिषदहैं । वह शाश्वत निवासभूत स्थान लोकशिखर पर दुरारोह श्रोतृवर्ग- सन्तुष्ट होकर सन्मार्ग पर चलने के लिए उद्यत है, जिसे पाकर हे मुने । ससार को विनष्ट करने वाले हा-मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हुआ । अन्त मे ग्रन्थकार कहते सिद्ध परमात्मा कभी शोकाकुल नहीं होते। (७९-८४) है कि इस प्रकार से संस्तुत- वणित-वे भगवान् केशि इस प्रकार गौतम के द्वारा किये गये अपने प्रश्नों के कुमार श्रमण और गौतम गणधर प्रसन्नता को प्राप्त हो। समाधान से सन्तुष्ट हो अन्त मे केशिकुमार उनकी प्रशसा (८८-८९) मे कहते है कि हे गौतम । तुम्हारी बुद्धि उत्कृष्ट है, हे सशयातीत व सर्वमूत्र-महोदधे ! तुम्हारे लिए नमस्कार है। २ एव तु ससाए छिन्ने केसी घोरपरक्कमे । अभिवदित्ता सिरसा गोयम तु महायस ॥८६ १ साह गोयम पन्ना ते छिन्नो मे ससपो इमो। पचमहव्वय धम्म पडिवज्जति भावप्रो । नमो ते संसयाईय सव्वसुत्त-महोयही ।।८५ पुरिमिम्स पच्छिमम्मी मग्गे नत्थ सुहावहे ।।८७ आत्म-निरीक्षण मुमुक्ष को प्रात्म-निरीक्षण करना अत्यन्त आवश्यक है, जैसे व्यापारी को हिसाब द्वारा लाभ अलाभ का जानना प्रावश्यक होता है। उसी तरह प्रात्म-निरीक्षण के बिना आत्मगोधन मे सफलता नहीं मिल सकती। जब ज्ञानी अपने जीवन मे प्रात्म-निरीक्षण का सकल्प कर लेता है, तब वह जीवन को समुन्नत बनाने में असाधारण सहायक बनता है। प्रात्म-निरीक्षण प्रात्मोन्नयन का अमोघ उपाय है । सम्यग्दृष्टि अपना आत्म-निरीक्षण करता है, और गर्दा निन्दा द्वारा आत्म परिणति को निर्मल बनाने का उपक्रम करता रहता है। तभी वह प्रात्म-शोधन मे सफलता प्राप्त करता है। क्योकि स्वय का दोप ध्यान में आये बिना उमका परिमार्जन करना अशक्य है। आत्मनिरीक्षण से अपगध सामने आ जाता है । और तब ज्ञानी आसानी से उसका शमन या परिमार्जन कर लेता है। जब तक व्यक्ति प्रात्मनिरीक्षक नही बनता, तब तक दोषो का परिमार्जन नही कर पाता और इसी लिए वह साध्य की सफलता के लिए सदिग्धावस्था मे ही झूलता रहता है। ऊँचे नही उठ पाता। जिस प्रकार उत्साही कृषक प्रतेक श्रेष्ठ, श्रेष्ठतम बीजो को उपलब्ध करके सफलता नहीं प्राप्त कर सकता, उसी प्रकार जीवात्मा प्रात्म-भूमि मे आत्मान्वेषण और परिमार्जन के बिना समता एव आनन्द का पादप पल्लवित पुष्पित और फलित नही कर सकता। उसकी अपरिमित अभिलाषाएँ स्वप्निल मात्र रह जाती है। दूसरों का दोष देखना सुगम है, पर अपने दोष पर दृष्टिपात करना दुःसाध्य है। जो मानव ठोकरें खाकर संभल जाता है और प्रात्मान्वेषण में निष्णात या परिपक्व हो जाता है वह साध्य की सफलता प्राप्त करने में सक्षम हो जाता है । आत्मनिरीक्षण से योग्यता, अयोग्ता, पात्रता, अपात्रता, पवित्रता और अपवित्रता का सहज ही आभास हो जाता है। अतएव मुमुक्षु को चाहिए कि वह प्रात्मनिरीक्षण द्वारा अपने को निर्दोष साधक बनाता हा स्वरस में मग्न होने का प्रयत्न करे। -परमानन्द शास्त्री Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों का जैन संस्कृति में योगदान परमानन्द जैन शास्त्री छन्वीसवें कवि वासीलाल है। यह दिल्ली निवासी सत्ताईसवे कवि सतलाल है, जो तहसील नकुड़ जिला थे, इनके माता-पिता के सम्बन्ध मे कुछ ज्ञात नही हो सका सहारनपुरके निवासी थे। इनका जन्म सन् १८३४ में अग्रसेठ सुगुनचन्द के पुत्र पं० गिरधारीलाल ने, जो प्राकृत वाल कुल में हुआ था। इनके पिता का माम शीलचन्द था संस्कृत के अच्छे विद्वान थे, और धर्मपुरा के नये मन्दिर मे सतलाल अग्रेजी के अच्छे विद्वान थे, उसकी शिक्षा रुडकी शास्त्र प्रवचन किया करते थे। कालेज मे हुई थी, और बी. ए की डिगरी प्राप्त की थी वैराग्यशतक १०१ पद्योका प्राकृत ग्रथ है जिसमें ससार प्रापकी बुद्धि तीक्ष्ण थी, और तर्क-वितर्क में प्राप दक्ष थे। की दशा का चित्रण करते हए वैगग्य का स्वरूप और जैन दर्शन का परीक्षामुख और प्रमाण परीक्षा प्रादि दार्शउसकी महत्ता का वर्णन किया गया है। उक्त प० गिरधारी निक ग्रन्थो का अध्ययन किया था। धार्मिक रुचि मे दृढ़ता लालजी ने प्राकृत वैराग्यशतक का हिन्दी मे अर्थ बतलाया होने के कारण आपने नौकरी नही की आर्य समाजियों से और कवि वासीलाल ने जीवसुखराय के पढ़ने के लिये भी आपका शास्त्रार्थ हुआ था परन्तु वे पाप की युक्तिपूर्ण उन्ही की प्रेरणा से स० १७८४ मे पौष शुक्ला द्वितिया के बातों का उत्तर नहीं दे सके । आप समाज और कुरीतियों दिन पद्यानुवाद बनाकर समाप्त किया था। पद्यानुवाद के निवारण मे अग्रसर थे । आपके बनाये हुए अनेक पद दोहों में किया गया है। पाठको की जानकारी के लिये और पूजन मौजूद है आपकी कविता सरल और भावपूर्ण है दो तीन दोहे नीचे दिये जाते है। : यापकी सूझ-बूझ निराली थी। आप ५० ऋषभदास जी सुख नाहीं संसार में, कैसा है संसार । चिलकाना के नजदीकी रिश्तेदार थे। आपके सहयोग से सार रहित बाषा सहित, और वेदना लार॥ ऋपभदासजी को दार्शनिक ग्रन्थों के अभ्यास करने का शौक प्राज काल परसू करू, और अतरसों जेय। हना था । कवि मतलाल जी ने मिद्ध चक्र का पाठ बनाने ऐसे पुरुष विचार है, सो भटके जग तेय ॥ के बाद अपनी शक्ति धर्मध्यान की ओर लगाई थी। प्ररथ सम्पदा चितवै, प्राऊ ख्यौं नहि जोय । आपके स्वभाव मे सरलता थी। आपने सन् १८८६ के अंजलि में जल क्षीण है, तसें देह समोय ॥ जन महीने मे ५२ वर्ष की वय मे इस नश्वर शरीर का रे जिय जो कल की कर, सो ही प्राज करेय । परित्याग किया था । ढील न करि यामें कछु, निश्चै उर धर लय ॥१० कवि ने सिद्ध चक्र पाठ की रचना ४० वर्ष की अवस्था के बाद की है। इसमें दोहा, चौपाई, पद्धडिया, १ मूल ग्रन्थ को मर्म खोलिक, पत्ता, सोरठा, अडिल्ल, छप्पय, माला, गीता, चकोर, अर्थ कियो गिरधारीलाल । मोदक, गेला और लावनी आदि छन्द दिये गए हैं। ता अनुसार करी सुभ भाषा, कविता भावपूर्ण और सरस है । एक पूजा का पद देखिये, लखि मन पुनि कवि वासीलाल । कितना सरल है। है परिणाम प्रभिन्न परिणामी, सो तुम साषु भए शिवगामी। पौष सुकल दोयज थिति संवत विक्रम जान । साधु भए शिव साधन हारे, सो सब साषुहरो अध म्हारे॥ ठारास चौरासिया, वारगुरु शुभमान ॥१४७ सिद्ध ० ० १०६ पढने कारण प्रेरणा करी जीयसुखराय । पडड़ी छन्द में लिखी जयमाला, स्तुति पढिए कितनी यातै यह भाषा करी, मनवचकाय लगाय ॥१४१ सुन्दर है: Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त जय मवन-कदन-मन करणनाश, गंभीर थी।। ऋषभदासजी प्रकृतितः भद्रपरिणामी और जय शांतिरूप निजसुख विलास परीक्षा प्रधानी थे । जब वे किसी वस्तु का विवेचन करते जय कपट सुभट पट करन चूर, थे, तब उसे तर्क की कसौटी पर कसकर परखते थे ।पाप जय लोभ क्षोभमद-दम्भसूर । का लिखा हुआ मिथ्यात्वनाशक नाटक उर्दू भाषा मे पर परिणतिसों प्रत्यन्त भिन्न, लिखा गया था 'जो मनो रंजक ज्ञान बर्धक मूल्यवान कृति निजपरिणति है प्रति ही अभिन्न । है । उससे कवि के क्षयोपशम और प्रतिभा का पता अत्यन्त विमल सब ही विशेष, चलता है उसके एक दो भाग ही छपे है । परन्तु खेद है मल्लेश शोष राखो न लेश ॥" कि वह नाटक पूरा नही छप सका । उसकी एक मात्र प्रति अट्ठाईसवे कवि पडित ऋषभदासजी है। जो चिल कर्ता के हाथ की लिखी हुई है। इनकी दूसरी कृति काना जिला सहारनपुर के निवासी थे। चिलकाना सहारन पच 'बालयति पूजापाठ' है जिसे कवि ने विबुध सतलाल पुर से ६ मील की दूरी पर वसा हुआ है। यह भी अग्रवाल के अनुरोध से वि० स० १९४३ मे माघशुक्ला अष्टमी के जैन थे । इनके पिता का नाम कवि मगलसनजी और वावा दिन समाप्त किया था। "पूजा राग समाज, तातै जैनिन का नाम सुखदेवजी था। पिता सम्पन्न थे जमीदारी और योग किम्" प्रश्नो के समाधान को लिये हुए है। यह साहूकारी का कार्य करते थे। ऋषभदासजी ने चिलकाना बीसवी सदी के एक प्रतिभासम्पन्न कवि थे। पापका २६ मे किसी मुसलमान मियां से ३-४ वर्ष तक उर्दू का अभ्यास वर्ष की लघुवय मे ही स्वर्गवास हो गया था। यदि वे किया था। हिन्दीका लिखना पढ़ना उन्होने अपने पिताजी अधिक दिन जीवित रहते तो किसी अनमोल साहित्य की से सीखा था । और उन्हीं के साथ स्वाध्याय द्वारा जैन सौरभ से समाज को सुबासित करते । सिद्धान्त का ज्ञानप्राप्त किया था। ऋषभदासजी सतलाल उनतीसवे कवि मेहरचन्द है। जो 'श्वनिपद' वर्तमान जी नकुड़ के नजदीकी रिश्तेदार थे । इनकी बुद्धि अत्यन्त सोनिपत नगर के निवासी थे और प० मथुगदास के लघु तीक्ष्ण थी और वह स्वभावत. तर्क की ओर अग्रसर होती भ्राता थे। यह मस्कृत और फारसी के अच्छे विद्वान थे। थी । उनके सहयोग से जैन दार्शनिक ग्रथा के अध्ययन आपने शेख सादी के सुप्रसिद्ध काव्यद्वय 'गुलिस्ता और करने की जिज्ञासा हुई और परिणाम स्वरूप, परीक्षामुख, वोस्ता' का हिन्दी में अनुवाद किया था, जो छप चुका है। प्रमाण परीक्षा। और प्राप्तपरीक्षादि ग्रथो का अध्ययन कवि ने आचार्य मिल्लिषेण के 'सज्जिनचित्तवल्लभ' का किया। जिसमे बुद्धि के विकास में और भी विशदता हिन्दी अनुवाद और पद्यानुवाद किया था, यह पद्यानुवाद आई । छप चुका है। पाठकों की जानकारी के लिए दो पद्य नीचे __ मंगलसैनजी ने अपने दोनो बेटो को अलग-अलग साह- दिये जाते है । पद्यानुवाद भावपूर्ण और सुन्दर है :कारी की दुकान करादी थी। ऋषभदासजी उर्दू फारसी "औरन का मरना प्रविचारत, तू अपना अमरत्व विचार । और हिन्दी संस्कृत के अच्छे विद्वान थे और हिन्दी में अच्छी इंद्रिय रूप महागज के, वशिभूत भया भव-भ्रांति निवार । कविता भी करते थे। उनके अन्तर्मानस में ज्ञानकी पिपासा प्राजहि प्रावत वाकल के बिन, काल न त यह रंच विचार ।। और धार्मिक लगन थी, और हृदय मे जैन ग्रन्थो के अभ्यास तौगह धर्म जिनेश्वरभाषित, जो भवसंतति वेग निवार ॥१४ की उमग थी। वे अच्छे सभाचतुर थे और प्रवचन करने चाहत है सुख क्या पिछले भव, दान दिया ग्रह संयम लीना । मे दक्ष थे । ऋषभदासजी ने ५० भीमसेनजी आर्य समाजी नातर या भव मैं सुख प्रापति हो न, भई सो पुराकृत कीना। के नवीन प्रश्नो का ऐसा तकं सगत उत्तर दिया था जिसे जो नहि डारत बीज मही पर, ध्यान लहै न कृषी मतिहीना। बाबू सूरजभानजी ने अन्य विद्वानो को दिखलाया तब वे कीटक भक्षित ईख समान, शरीर वर्ष तज मोह प्रवीना ।१५ चकित रह गये और आर्य समाजी सदा के लिये चुप हो गए । उनकी बुद्धि विलक्षण थी और लेखनी सरस एवं १ देखो, अनेकान्त वर्ष १३, किरण ६ प्र. १६५ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों का जन संस्कृति में योगरान २३५ कविने अन्त में अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है- भारत वर्ष मंझार, देश पंजाब सुविस्तृत । ता मध दिल्ली जिला, सकल जनको प्रानंदकृत ।। ताके उत्तर मध्य नगर सुनपत भयभंजन । ता मष चार जिनेश भवन भविजन मन रंजन ॥ तिस नगर वास मम वास है मिहरचंद मम नाम वर हूं पंडित मथुरादास को, लघुभ्राता लघु ज्ञान पर। इससे कवि मेहरचन्द की काव्य-कला का सहज ही पता चला जाता है। तीसवें विद्वान कवि ह. गुलाल जी है। जो खतौली जिला मुजफ्फरनगर के निवासी थे। आपके पिता का नाम प्रीतमदास था। उस समय खतौली मे ब्राह्मण विद्वान बालमुकन्द जी थे, जो सस्कृत के अच्छे विद्वान ममझे जाने थे। इनमे ही हरगुलाल जी ने शिक्षा पाई थी। और फारसी का अध्ययन करने के लिए खतौली से मसूरपुर प्रति दिन जाया करते थे। गर्मी, जाडा और वर्षात की उन्होने कभी परवाह नहीं की। वहाँ अरवी फारमी के पाला विद्वान एक शय्यद साहब थे, जो विद्वान सहृदय और सम्पन्न थे। वे हरगुलाल की ज्ञानागवन लगन को देखकर बहुत खुश होते थे। एक दिन उन्होने वर्षा से सराबोर भीगते हुए हरगुलाल को प्राते हुए देखा, तब उन्होने उनसे कह दिया कि अब आप यहाँ न पाया करे, आपको बहुत तकलीफ होती है, मै स्वय खतौली पाकर पापको अध्ययन कराया करूंगा। चुनाचे वे खतौली पाकर उन्हें पढाते थे। कुछ समय बाद वे उस भाषा के निष्णात विद्वान बन गये। जैन शास्त्रो के अध्ययन मे उन्होने विशेष परिश्रम किया था, और अच्छी जानकारी हामिल कर ली थी। इस तरह से पं० हग्गुलाल अरवी, फारसी और संस्कृत के अच्छे विद्वान हो गए थे । आपकी प्रवचन करने की अच्छी शक्ति थी, साथ में सभा-चतुर भी थे। आप खतौली से सहारनपुर चले गए। उस समय सहारनपुर में राजा हरसुखराय दिल्ली की शैली चलती थी। और वहाँ नन्दलाल, जमुनादास, संतलाल, जो वहाँ के वैश्यो मे प्रधान और प्रतिष्ठित थे, इनके भाई वारुमल जी थे । वहाँ के मन्दिरों में आपका प्रवचन होता था और श्रोताजन मन्त्रमुग्ध हो सुनते थे । एक दिन हरगुलाल जी ने वहाँ की सभा में ईश्वरसृष्टिकर्ता पर पूर्वपक्ष के रूप मे ऐसा सम्बद्ध भाषण दिया कि जनसमूह आपकी निर्भीक वक्तृत्व कला और युक्तिबल को सुन कर अत्यन्त प्रभावित हुआ। अन्त में आपने कहा कि कल इस भाषण का उत्तरपक्ष होगा। तब जनता में चर्चा होने लगी कि इस विद्वान ने ईश्वर सृष्टिकर्ता पर इतना महत्त्वपूर्ण भाषण दिया, अब इसके उत्तर पक्ष में कहा ही क्या जा सकता है। इससे हरगुलाल जी के पाडित्य का पता चलता है । आपके बनाए हुए अनेक भावपूर्ण पद है। उनमें से एक पद पाठको की जानकारी के लिए नीचे दिया जाता है जिसमे शैली की महत्ता का दिग्दर्शन कराया गया हैसैली के परसाद हमारे जिनमत की प्रतीति उर पाई॥ करणलब्धि बलगह समरसता ले अनंतानंत वहीं छिटकाई। मिथ्याभाव विभाव नश्यो प्रगट्यो मम शान्त भाव सुखदाई।। " हेय ज्ञेय अरु उपादेय लखि, चखि निज रस भ्रम-भूलि मिटाई। पानमीक अनुभूति विभूति, मिल तत्त्वारथ की रुचि लाई॥२ वीतराग विज्ञान भाव मम, निज परिणति प्रवही मलकाई। भ्रमत अनादि कबहू न तिरियो, तैसे निजनिधि सहज प्रगटाई ॥३ सैली से हितकर बहुते नर, सम्यक्ज्ञान कला उपजाई । पर परिणति हर प्राप प्राप में, पाय लई अपनी ठकुराई ॥४ यास हित न कियो बहुते नर, जनम अमोलक रतन गुमाई । भ्रम हरणी सुख को धरणी, यह 'हर गुलाल' घट मांहि समाई ॥५ आपके सभी पद प्रकाशन के योग्य है। कवि ने मल्लिषेणाचार्य के सज्जनचित्त वल्लभ ग्रन्थ की एक टीका स०१९०३ मे बनाई है, जो ज्ञानभण्डारी में उपलब्ध होती है। आपका अवसान कब और कहां हुमा, यह अभी ज्ञात नही हुआ। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ अनेकान्त इकतीसवें कवि हीरालाल हैं, जो बड़ौत जिला मेरठ के तो भी कविता भावपूर्ण है, और कहीं कहीं पर कोई कोई निवासी थे । अापकी जाति अग्रवाल और गोत्र गोयल पद चुभता हुआ सा है। चूंकि कवि का ४० वर्ष की लघु था। इस वंश मैं जिनदास और मुहकमसिंह या महोकम वय मे ही स० १६५३ में स्वर्गवास हो गया । ग्रथ सूरत सिंह हुए। उनके चार पुत्र हुए। जयकुमार, धनसिह, से प्रकाशित हो गया है। ग्रंथ के प्रत में कवि ने अपना रामसहाय और रामजस । इनमें पंडित हीरालाल धनसिह परिचय निम्न प्रकार से दिया है -- के पुत्र थे। इनके गुरु पं० ठंडीराम थे, जो प्राकृत और प्रथम लाला ग्यानचन्द सुधी सु मोहि पढ़ाइयो, संस्कृत के अच्छे बिद्वान थे। और गोम्मटसारादि सिद्धान्त मम पिता बांकेराय गुण निधि तिन मुझे सिखलाइयो। ग्रन्थों का पठन-पाठन करते थे। उनसे कवि ने अक्षरा- लखि अग्रवाल जु वंश मेरो गोत गोयल जानियों, भ्यास किया था और स्वाध्याय द्वारा जैनधर्म का परि- रिषभेष गुण वर्णनि कियो अभिमान चित नहि ठानियो ।१४० ज्ञान किया था। कवि ने जैनियों के पाठवे तीर्थकर गिन वेद इन्द्री अंक प्रातम, यही संवत् सुन्दरी। चन्द्रप्रभ का पुराण पद्य मे बनाकर वि० स० १६१३ मे कातिक सुकृष्ण दूज भौम सुवार को पूरन करी, समाप्त किया था। कविता साधारण है। प्रथमे विविध छन्दो नक्षत्र अश्वनि ज्ञानचन्द्र सुमेषको मन पावनौ। का उपयोग किया है । ग्रथ सूरत से प्रकाशित हो चुका है। ता दिन विर्ष पूरण कियो यह शास्त्र जो अति पावनौ ।१४१ बत्तीसवे कवि प० तुलसीराम है, जो दिल्ली-निवासी -आदिपुराण प्रशस्ति थे। पापका जन्म सबत् १९१६ मे अग्रवाल वश और तेतीसवे और चोतीसवे कवि बख्तावर मल और रतन गोयल गोत्र मे हुआ था । आपके पिता का नाम बाँकेलाल लाल है। दोनो अग्रवाल वश मे उत्पन्न हुए थे। ये था। आपके दो छोटे भाई और थे जिनका नाम छोटेलाल काप्ठासपी लोहाचार्य की अम्नाय के विद्वान थे। इनमे और शीतलदास था, वे भी यथाशक्ति धर्मसाधन करते थे। बखतावरमल मित्तलगोत्री और रतनलाल का गोत्र सिहल बाल्य काल से ही आपकी रुचि जैन ग्रन्थो के पढने-सुनने (सिंगल) था। इन दोनो का निवास दिल्ली के कूचा की थी। आपको प० ज्ञानचन्द जी का सम्पर्क मिला, सुखानन्द में था। दोनो मित्र परस्पर 'तत्त्वचर्चा' किया उन्ही के पास आपने व्याकरण और जैन सिद्धान्त के प्रथो करते थे। और दोनो ने ही स्वाध्याय द्वारा अच्छा ज्ञान का अध्ययन किया और थोडे ही समय म सारस्वत व्या- प्राप्त किया था। इन दोनो की मित्रता अन्त समय तक करण, श्रुतबोध रत्नकरण्डश्रावकाचार, गोम्मटसार, अटूट बनी रही, उसमे कभी कोई विकृति नही पाई । सर्वार्थसिद्धि, चर्चाशतक और सागारधर्मामृत प्रादि ग्रन्थो दोनो की धार्मिक लगन और उत्साह देखते ही बनता था। का अध्ययन किया। पश्चात् शास्त्र, सभा एव सत्सगति रतनलाल ने अपने लघु भ्राता रामप्रसाद से अक्षर विद्या से अपने ज्ञान को बढ़ाने का प्रयत्न किया। आपका व्यव- और छन्दो का ज्ञान प्राप्त किया था। इन्होने आराधना साय सर्राफ का था। आपकी फर्म तुलसीराम सागरचन्द कथाकोष की प्रशस्ति में अपना परिचय निम्न प्रकार के नाम से पहले चादनी चौक में चलती थी। बाद में दिया है :दरीबा कला में थी। अग्रवाल बर अंश है काष्ठासंघी जान। आपने भ० सकलकीति के आदिपुराण का पद्यानुवाद श्री लोहाचारज तनी ग्राम्नाय परमान ॥४६ किया है। जिसे कवि ने स० १९३४ मे कार्तिक कृष्णा पुस्तक गण गछ शारदा मित्तल सिंहल गोत । दोयज के दिन मेरु मन्दिर मे पूरा किया है। ग्रन्थ मे मित्र जुगल मिलके कियो प्रन्थ यही जगपोत ॥४७ दोहा, चौपाई, पद्धडिया, भजगप्रतात, मोतियदाम, नाराच, प्रथम नाम बखताबरमल जानिये, गीता, सर्बया २३ सा, सोरठा, जोगीरासा, त्रोटक छद, रतनलाल दूजे का परमानिये । अडिल्ल गाहा, इन्द्रवज्या, त्रिभगी, सुदरी मरहटी मवैया भ्राता रामप्रसाद तनौ लघु है सही, ३१ सा गाहा, आदि छन्द निहित है। रचना साधारण है तुच्छ बुद्धि ते करी अन्य रचना यहो ।४८ (क्रमशः) Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय नरेन्द्रसिंह सिंघी का संक्षिप्त परिचय स्वर्गीय नरेन्द्र सिंह सिघी पात्मज स्वर्गीय बहादूर करके अकाल पीडितों की सहायता की। आपने लागत से सिह सिघी का जन्म ४ जुलाई सन १९१० मे हुआ था। कम मूल्य पर दिल खोल कर चावल का वितरण किया। ने अपने जीवन काल में जन संस्कृति एव साहित्य इन लोकहितकर प्रवृत्तियो के अलावा राजनैतिक, की जो निष्काम सेवा की उसे भूलना कठिन है। वे सामाजिक, धार्मिक एव शिक्षा सम्बन्धी कार्यों में भी प्राप ईा-द्वेष से रहित अत्यन्त सौम्य एव धर्मनिष्ठ व्यक्ति भाग लत थे। अपनी उदार दृष्टि के कारण सन् १९४५ थे। पिता ने अपने दूरदर्शी एव अनुभवी पुत्र को परखा में आप वगाल लेजिस्लेटिव एसेम्बली के सदस्य चुने गए। था और अपना समस्त कार्यभार उन्हे ही सौप गए थे। आप अखिल भारतीय प्रोसवाल महासम्मेलन के मत्री, जिसे उन्होने जीवन भर सुयोग्यता से निभाया । प्रगति सुप्रसिद्ध सिंघी पार्क मेला के कोपाध्यक्ष तथा जियागंज एव एकता के प्रबल समर्थक थे। उन्होने दूसरो को उपदेश सिविल इवाक्युएशन रिलीफ कमेटी के मत्री रहे। नही दिया वग्न स्वय प्रगति के पथपर चलकर दिखाया। या। श्री सिघी जी जैन समाज के एक अग्रणी नेता थे । वे सरस्वती के वग्द पुत्र तो थे ही लक्ष्मी की भी उन पर न शन" कलकत्ता को १० हजार रुपये असीम अनुकम्पा थी । लक्ष्मी एव सरस्वती का ऐसा । की सहायता दी थी। पाप उसके स्थायी ट्रस्टी थे । अनेक सुयोग विरल ही देखने को मिलता है। वो तक मत्री तथा कोषाध्यक्ष के पद पर भी रहे। पाप सिंघी जी एक होनहार विद्यार्थी थे। प्रेसीडेन्सी कुछ दिनो तक इसके सभापति भी रहे। सम्मेलन शिखर कालेज कलकत्ता से बी० एस० सी० तथा एम० एस० सी० तीर्थधाम के मन्दिरो के जीर्णोद्धार का कार्य एवं प्रतिष्ठा की परीक्षामो मै सर्वप्रथम रहे और स्वर्णपदक भी प्राप्त महोत्सव की सुव्यवस्था आपके अत्यन्त प्रशसनीय कार्य है । किया। सन १९३४ ई० में उन्होंने वकालत की डिग्री आपकी इस सेवा के लिए समस्त जैन समाज पापका भी प्राप्त की। आभारी है। जीर्णोद्धार समिति को मापने ११००१ रुपये नरेन्द्र सिंह जी सन् १९३६ से १६४५ तक जियागज की धनराशि भेट की थी। आप भारत के जैन महामडल एडवर्ड कारोणेशन (जिसका नाम आजकल राजा विजय के उपाध्यक्ष भी थे। सिह विद्यामन्दिर है) अवैतनिक मन्त्री रहे । सन् १९४६ स्व. बाबू बहादुरसिहजी मिची ने जिस सिधी प्रथमाला से १९५५ तक श्रीपति सिह कालेज मुर्शिदाबाद के भी की स्थापना "भारतीय विद्या भवन" बम्बई मे की थी अवैतनिक सचिव रहे तथा लालबाग में उन्होने अबतनिक उस कार्य को भी नरेन्द्रसिह जी सिघी ने आगे बढ़ाया। मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य किया । सन् १९४६ में वे बनारस इसका व्यय अपने ज्येष्ठ म्राता के सहयोग से पूरा किया। हिन्दू विश्वविद्यालय के कोर्ट के सदस्य रहे। सिधी हाई वाब बहादुरसिह जी की मृत्यु के बाद भी ग्रंथमाला का स्कूल लालबाग, केशरकुमारी बालिका विद्यालय अजीम- कार्य (प्रकाशन) आगे की ही भांति हो रहा है । इस गज तथा अन्य शिक्षा संस्थानो, जिनमे भारतीय विद्या प्रथमाला के तत्वावधान में अब तक ४५ ग्रथ प्रकाशित भवन भी शामिल है आपने पूर्ण रूप से आर्थिक सहायता हो चुके है जिनमे कई सामायक, दार्शनिक, साहित्यिक, की। आपने लन्दन मिशनरी अस्पताल में एक वार्ड भी ऐतिहासिक, वैज्ञानिक एवं कथात्मक इत्यादि विषयों से बनवाया। सबधित है। प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों का नूतम संशोधसिंघी जी अपने प्रेम के कारण सर्वविदित थे। सन् नात्मक साहित्यिक प्रकाशन भी हुआ है। १९४२ के बंगाल दुर्भिक्ष में आपने लाखो रुपये व्यय मापने इसके अतिरिक्त अनेक लोकहितकारी धार्मिक Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ अनेकान्त एव शिक्षा संबंधी संस्थानों को उदारतापूर्वक दान दिया हैं। अन्यत्र अप्राप्य पशियन, मुगल, राजपूत, कांगडा तथा है। अपने निवास स्थान "सिधी पार्क" में श्री बहादुर- पहाड़ी प्रादि शैली के प्राचीन चित्रों का संग्रह भी इस सिंह जी सिंघी भारतीय स्थापत्य शिल्प-निकेतन की' संग्रहालय में है। प्राचीन चित्रित ग्रंथो में कई पशियन स्थापना की है। पूर्वी बगाल से आए हुए उद्वासितो के ग्रथ ऐसे है जिनमे शाहजहाँ, औरंगजेब आदि बादशाहो के लिए अन्न, वस्त्र तथा जल के लिए भी आपने खर्च हस्ताक्षर तथा मुहर है। बादशाह औरगजेब जिस कुरान किया। को पढने थे वह भी इस संग्रह में है। जैन चित्रित ग्रथों में सन् १९६० मे लुधियाना में सम्पन्न अखिल भारतीय एक श्री शालिग्राम चरित्र है जिसमे सम्राट अकबर व श्वे. जैन सम्मेलन के आप सभापति थे । इसके अतिरिक्त जहाँगीर की सभा के प्रसिद्ध चित्रकार शालिवान द्वारा अनेक जैन मस्थाओं से, अध्यक्ष, कोषाध्यक्ष तथा सदस्य अंकित ३२ चित्र हैं। इस ग्रथ का लेखन व चित्रण विक्रमी होने के नाते प्रापका घनिष्ट सम्बन्ध रहा । पाप मुर्शिदा- मं० १६८१ द्वितीया चैत्र सुदि शुक्रवार तदनुसार अप्रैल बाद सघ के प्रथम सभापति थे। १ सन १६२६ ई० को सम्राट जहाँगीर के राज्य में समाप्त नरेन्द्रसिह जी एक प्रमुख उद्योगपति थे। पाप किया था। संग्रह मे कई ताम्रपत्र भी है।। फाबडाखण्ड कोलरीज प्रा. लि., मेसर्स मिदनापुर मिन- यह संग्रह विश्व के नामी सग्रहो में से एक है। दूर रल प्रा. लि. के डाइरेक्टर तथा दालचन्द बहादुरमिह देशान्तर विद्वान तथा सुप्रसिद्ध लोग इस संग्रह का अवके मालिक और न्यू इण्डिया टूल्स लि. के बोर्ड आफ लोकन करने आते है और सभी इसकी हादिक प्रशसा डाइरेक्टर्स के चेयरमैन थे। करने है। श्री सिघी जी की तरफ से भी बिद्वानो एव सन् १९५६ मे पाप "इण्डिया माइनिंग फेडरेशन" के विदेशियों को इस सग्रह की वस्तुओं का अध्ययन करने के चेयरमैन, सन १९६२ मे "जियोलाजिकल माइनिग एड लिए पूर्ण सहयोग एवं सुविधाए दी जाती थी। मैटिलजिकल सोसाइटी आफ इण्डिया" के सभापति तथा अपने स्व. पिता के निकट मित्र प्रसिद्ध जैन विद्वानों कोल कौन्सिल आफ इण्डिया के सदस्य थे । स्व० सिंघी जी को अपनी विद्वत्ता एव विद्याप्रेम से श्री नरेन्द्रसिह जी ने "मैनेजमेण्ट कमेटी आफ इण्डियन चैम्बर ग्राफ कामर्म प्राकृाट किया। पिता जी के बहुमूल्य सिक्के, चित्र, मूत्ति कलकत्ता के और मध्यप्रदेश गवर्नमेण्ट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड तथा हस्तलिखित ग्रथ आदि का सारा गंग्रह आपको मिला के भी सदस्य थे। था। उस संग्रह को आपने बढाया। इस संग्रह को प्रकाश सिंघी जी कलकत्ता ही नही भारत भर मे अपनी में लाने तथा इन विषयो को बिद्वानो को उसे अध्ययन कला विद्वत्ता एव सुरुचिपूर्ण कला संग्रह के लिए विख्यात करने के लिए अवसर देने का भी प्रबन्ध किया। थे। इण्डियन म्यूजियम कलकत्ता के बोर्ड आफ ट्रस्टीज के विज्ञान के विद्यार्थी होने पर भी श्री सिघी जी की तो वे अपने जीवन काल तक आनरेरी सचिव थे। कला मे अपार रुचि थी। जल मन्दिर के श्रेष्ठ शिल्प, आपका निवासस्थान "सिघी पार्क" पुरातन हस्त- सौन्दर्य से परिपूर्ण तोरण, चारो ओर बाहरी दिवाल बर्ज, लिखित पुस्तकों, विरल चित्रों, उत्कृष्ट मूर्तियो, हाथीदांत काटन स्ट्रीट कलकत्ता का संगमरमर निर्मित अनुभाग की बनी हुई वस्तुओं, भारतीय टिकटो (खासतौर से और श्री सम्मेद शिखर जी तथा अजीमगज के मन्दिरों के भारतीय सिक्कों जो कि भारत के व्यक्तिगत सग्रहो में पुननिर्माण प्रापके मूक्ष्म सौन्दर्य बोध के कतिपय उदासर्वोत्तम माने जाते है) के ही कारण नही वरन शानदार हरण है। बगीचों, मुगलकालीन रीति से निर्मित भव्य फव्वारो के कला तथा स्थापत्य शिल्प सबधी ज्ञान के क्षेत्र में कारण भी भारतीय तथा विदेशी पर्यटकों के लिए आकर्षक आप अपने स्व० पिता से अनुप्रेरित हुए थे। श्री पावापूरी केन्द्र बना रहा है। जल मन्दिर की चाहारदिवारी एव श्री सम्मेद शिखर जी अनमोल हाथीदात की पुरानी मूत्तियाँ भी इस संग्रहमे के मन्दिरों का जीर्णोद्धार और पुननिर्माण प्रापके इस तीव Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीक्षा २३६ कलात्मक ज्ञान का परिचायक है। काटन स्ट्रीट कलकत्ता सबके आदर के पात्र थे। के जैन मन्दिर का मकराने एवं कारीगरी के कार्य से मध्यप्रदेश स्थित सरगुजा नामक स्थान पर अपनी सुन्दर रूप देने का भार आपको ही सौपा गया था। कोलरीज से लौटते समय खडगपुर के निकट २३ दिसम्बर ___ नरेन्द्र सिह जी सिघी अपनी सौजन्यता, सहृदयता, १६७ को ट्रेन में उनका स्वर्गवास हो गया । काल के कोमल स्वभाव, आकर्षक व्यक्तित्व के कारण सबके प्रिय निर्मम हाथो ने अचानक ही जैन समाज से ही नही, भारत थे। समाज सेवा मे अदम्य उत्साह तथा लगन के कारण माता से भी उनका एक लाल रत्न छीन लिया। साहित्य-समीक्षा १. पुरदेव भक्ति गंगा-सम्पादक-मुनि श्रीविद्यानन्दजी, ने प्रत्येक युग में जन भाषा को अपनाया है। मुनिश्री का प्रकाशक-धूमीमल विशालचन्द, चावड़ी बाजार, दिल्ली-६, यह प्रयास उसी परम्परा की एक कडी है। दूसरी बात, पृष्ठ सस्या-८६, डिमाई आकार, मूल्य-अमूल्य । मध्ययुगीन जैन हिन्दी काव्य का जब तक ग्राज की भाषा उस दिन मेरठ में मुनिश्री ने 'पूरदेव भक्तिगगा' में गद्यात्मक अनुवाद न होगा वह तयुगीन अन्य काव्य पढ़ने के लिए दे दी, इसे में उनका अशीर्वाद मानता ह। के समान न ऑका जा सकेगा। विश्वविद्यालयों और न-जाने क्यों, भक्त न होते हए भी भक्ति माहित्य में मन दूरभाषीयत्रो पर भी अग्राह्य ही होगा, यदि उसका मता है, फिर वह चाहे जैन परक हो या किसी अन्य तदनुरूप सम्पादन और प्रकाशन न हुया। इस दष्टि से सम्प्रदाय का । कालिज मे आज वर्षो से बी. ए. और मुनिश्री का यह प्रयास समादर-योग्य है । काम वे सस्थाए एम० ए० कक्षामो को भक्ति काव्य पढाते रहने से एक निष्पक्षता से इसको नापे और परखे । दृष्टि बन गई है, जिसे तुलनात्मक भी कहा जा सकता सकलन का आकर्षक भाग है--'भगवान पुरदेव हूँ। मैं सोच पाता हूँ कि भक्ति ही एक ऐसा तीर्थ है जहाँ ऋषभदेव', मुनिश्री का लिखा हुआ 'प्राक्कथन' । इस छोटेसब घागएं समान रूप से आसमाती है। जैन साधु का से निबन्ध का एक-एक वाक्य शोध की शिलामो पर घिस. सर्वसमत्त्वकारी मन भी 'पुरदेव-भक्तिगगा' मे लग सका तो घिस कर रचा गया है। मुनिश्री को मैने सदैव जैन शोध में आश्चर्य नही है। निमग्न देखा । यह उसी का परिणाम है । भगवान ऋषभयह लधुकाय सकलन ठोस और सक्षिप्त है। इसमे देव ही पुरदेव थे, यह तथ्य ऋग्वेद आदि प्राचीन ग्रथो "कविवर दौलतराम, भूधरदास, जिनहर्ष, भट्टारक रलकीति, और भारतीय पुरतत्त्व के आधार पर प्रमाणित किया गय। यानन्दघन, द्यानत राय,बुधजन, बनारसी दास, भागचन्द, उद्धरण प्रामाणिक और अकाटय है । अनुसन्धान में लगे कुज तथा एक-दो गुर्जर कवियो की रचनाओ को सगृहित साधकों के लिए मुनिश्री ने एक समग्री प्रस्तुत की है, मेरी किया गया है।" रचनाएँ भाव-भीनी है, भक्ति रस की तो दृष्टि मे वह प्रामाणिक है, निप्पक्ष है। निदर्शन ही है। किसी सूर और तुलसी से कम नहीं। प्रकाशन ऐमा मनोमुग्धकारी है कि देखते ही बनता कला पक्ष भी सहज स्वाभाविक है, न कम, न बढ़ । सधा- है। यदि किसी भौतिक अनुपूर्ति का लेशमात्र भी भाव नपा-तुला-सा। कुल मिलाकर सकलन किसी साधक की सन्निहित नही है तो प्रकाशक की यह श्रद्धा अनुशसा-योग्य साधना-सा सतुलित है। है। अन्य जैन प्रकाशन भी इसी स्तर को अपनाये ऐसा मैं विशेषता है---उसका अनुवाद । हिन्दी तर भाषा- चाहूँगा। डा० प्रेमसागर जैन भाषी का यह हिन्दी अनुवाद मजा हुआ तो है ही, हिन्दी २. देवागम अपरनाम प्राप्तमीमांसा-मूलकर्ता प्राचार्य विरोध के खोखलेपन का स्पष्टीकरण भी है । जैन साधुओ समन्तभद्र, अनुवादक प० जुगल किशार मुख्तार, प्रस्तावना Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० अनेकान्त लेखक पं० दरबारी लाल जी न्यायाचार्य प्रकाशक दरबारी ३. राजस्थान के जैन सन्त व्यक्तित्व एवं कृतित्वलाल जैन कोठिया मत्री, वीरसेवा मदिर-ट्रप्ट, २१ दरिया लेखक डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल, प्रकाशक गैदी लाल गंज, दिल्ली ६ । मूल्य १-२५ पैसा । साह एडवोकेट, मत्री श्री दि० जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहा वीर जी जयपुर । पृ. संख्या ३००, सजिल्द प्रति का मूल्य प्रस्तुत ग्रंथ विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी के ३) रुपया। तार्किकशिरोमणी अचार्य समन्तभद्र की महत्वपूर्ण दार्श प्रस्तुत पुस्तक में राजस्थान मे ५४ जैन सन्तों और निक कृति है। इसमे अनेकांत मत की स्थापना करते हुए उनकी कृतियो का परिचय कराया गया है। जैन सन्तो के उनकी द्वैतकान्त अद्वैतकान्त, क्षणिकैकान्त, भेदकान्त, अभेदकान्त परिचय में जैनियो का कोई ग्रथ अभी तक प्रकाशित नहीं नित्यकान्त, पौरूषकान्त और देवकान्त आदि एकान्तों की हुआ था । डा. कस्तूरचन्द जी कासलीवाल ने इस कमी ममीक्षा की है। स्याद्वाद और सप्तभगी को समझाने की को महसूस किया और उसकी पूर्ति निमित्त इस पुस्तक का यह एक कुंजी है। ११४ कारिकाओं में वस्तु तत्त्व की निर्माण किया है। प्राशा ही नहीं किन्तु विश्वास है कि गहन चर्चा को गागर में सागर के समान समाविष्ट किया इससे उसकी आशिक पूति हो जाती है। परिशिष्टो मे मूल गया है। इसके अनुवादक जैन समाज के च्यात नाम रचनाए देकर पूस्तक की महत्ता को बढ़ा दिया है। ऐतिहासिक विद्वान पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार है। प्रस्तुत कृति में भारतीय जैन सन्तो मे से राजस्थान प्रस्तत का जिन्होंने ग्रंथ की गम्भीर करिकाओं का ग्रा० विद्यानन्द का के १४५० से १७५० तक के ५४ सन्तों का उनकी रचप्रष्ट सहस्री का सहारा लेकर हिन्दी मे सुन्दर पार सरल नायो महित परिचय दिया गया है। उसमे कुछ ऐसे अनुवाद किया है । अनुवाद मूलानुगामी है । मुख्तार सा० विद्वानो का भी परिचय निहित है जो स्वय सन्त तो नही की लेखन शैली परिकृत है कि जब वे किसी प्रथ का कहलाते थे परन्तु उन सन्तो के शिष्य-प्रशिष्यादि रूप में अनुवाद करने का विचार करते है, तब उस ग्रथ का ख्यात थे और उनके सहवास से ज्ञानार्जन कर साहित्य ख्यात थे और उनके केवल वाचन ही नही करते प्रत्युत उसका गहरा अभ्यास सेवा का श्री गणेश किया है। और जो ब्रह्मचारी के रूप भी करते है । जब उसके रस का ठीक अनुभव हो जाता है में प्रसिद्ध रहे है। उदाहरण के लिए ब्रह्म जिनदास को ही तब उस पर लिखने का प्रयत्न करते है । मुख्तार साहब लीजिए, यह भट्टारक मकलकीति के कनिष्ठ भ्राता और की इस कृति में प० दरबारी लाल जी की महत्वपूर्ण शिष्य थे, वे स्वय भट्टारक नही थे। उन्होंने अपने जीवन प्रस्तावना ने चार चांद लगा दिये है । परिच्छेदी कारि- मे जैन साहित्य की महती मेबा की है। उसने अकेले ४५ कामों के परिचय मे ग्रंथकार की दृष्टि को अच्छी तरह से रामा ग्रन्थ बनाये और अन्य सस्कृत के पुराण चरित एव स्पष्ट किया गया है । इस तरह ग्रथ एक महत्व पूर्ण कृति पूजा ग्रन्थ, स्तुति स्तोत्रादि, जिनको संख्या साठ से अधिक बन गया है । स्वाध्याय प्रेमियो और विद्यार्थियों के लिए है। उनका परिचय भी इस ग्रन्थ में दिया गया है। अत्यन्त उपयोगी हो गया है। यदि साथ मे वसुनन्दी की प्रस्तावना में सन्तों के स्वरूप के साथ उनकी महता पर सस्कृत वृत्ति भी दे दी जाती तो यह संस्करण विद्याथियों भी प्रकाश डाला है। पूस्तक की भूमिका राजस्थान विश्वके लिए और भी महत्त्व का बन जाता। कारण कि वसु- विद्यालय जयपुर के हिन्दी विभागाध्यक्ष डा. सत्येन्द्र मे नन्दि वृत्ति भी अब मिलती नही है । ६१ वर्ष की इस लिखा है । पुस्तक की आवश्यकता और महत्ता पर भी वृद्धावस्था में इतने लगन से साहित्य-सेवा करना मुख्तार प्रकाश डाला है, जो सुन्दर हैं । इस सुन्दर और समयोपसाहब की समाज को खास देन है । पुस्तक का मूल्य योगी प्रकाशन के लिए महावीर तीर्थक्षेत्र कमेटी और डास लागत से भी कम रक्खा गया है। अतः इसे मगा कर कस्तूरचन्द जी धन्यवाद के पात्र हैं। प्राशा है डा० साहब अवश्य पढ़ना चाहिए। अन्य पुस्तकों द्वारा साहित्य की श्री वृद्धि करते रहेंगे। -परमानन्द शास्त्री Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त की महत्त्वपूर्ण फाइलें जैन समाज के प्रतिष्ठित पत्र अनेकान्त की कुछ महत्त्व की पुरानी फाइल अवशिष्ट है। वर्ष पाठ और दश को ४-५ फाइले शेष रही है । और ११ मे २०वे वर्ष की फाइले, जिनमें साहित्यिक ऐतिहासिक और पुरातत्त्व विषयक महत्त्वपूर्ण सामग्री का सकलन है । फाइले लागत मूल्य पर मिलेगी। पोस्टेज खर्च अलग होगा : फाइले थोड़ी हो है । अतः मंगाने में जल्दी करे । व्यस्थापक 'अनेकान्त' वोरसेवामन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली। वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक १०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता । १५०) श्री जगमोहन जो सरावगी, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्र कुमार जैन, ट्रस्ट, १५०) ,, कस्तूरचन्द जी आनन्दीलाल जी कलकत्ता श्री साहु शीतलप्रसाद जो, कलकत्ता १५०) , कन्हैयालाल जी सीताराम, कलकत्ता ५००) श्री रामजीवन सरावगी एण्ड संस, कलकत्ता | १५०), पं० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता ५०.) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता १५०) , मालीराम जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता १५०) ,, प्रतापमल जी मदनलाल पांड्या, कलकता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता १५०), भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जो झांझरी, कलकत्ता १५०) , शिखरचन्द जी सरावगी, कलकत्ता २५१) श्री रा. बा. हरखचन्द जी जैन, रांची १५०), सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ जी कलकत्ता २५१) श्री अमरचन्द जी जैन (पहाडया), कलकत्ता १०१) , मारवाड़ी दि. जैन समाज, व्यावर २५१) श्री स० सि० धन्यकुमार जी जैन, कटनी १०१) , दिगम्बर जैन समाज, केकड़ी २५१) श्री सेठ सोहनलाल जी जैन, १०१) , सेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई नं० २ मैसर्स मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता १०१) , लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागंज दिल्ली २५१) श्री लाला जयप्रकाश जी जैन १०१) , सेठ भंवरीलाल जी बाकलीवाल, इम्फाल स्वस्तिक मेटल वर्क्स, जगाधरी १०१) , शान्तिप्रसाद जी जैन, जैन बुक एजेन्सी, २५०) श्री मोतीलाल हीराचन्द गांधी, उस्मानाबाद नई दिल्ली २५०) श्री बन्शीवर जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता १०१) , सेठ जगन्नाथजी पाण्ड्या अमरीतलया २५०) श्री जगमन्दिरदास जी जैन, कलकत्ता १०१) , सेठ भगवानदास शोभाराम जी सागर २५.) श्री सिंघई कुन्दनलाल जी, कटनी (म०प्र०) २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता १०१) , बाबू नृपेन्द्रकुमार जी जैन, कलकत्ता २५०) श्री बी. प्रार० सी० जन, कलकत्ता १००) , बद्रीप्रसाद जी प्रात्माराम जी, पटना २५०) श्री रामस्वरूप जी नेमिचन्द्र जी, कलकत्ता १००) , रूपचन्दजी जैन, कलकत्ता १५०) श्री बजरंगलाल जी चन्द्रकुमार जी, कलकत्ता १००) , जैन रत्न सेठ गुलाबचन्द जी टोग्या १५०) श्री चम्पालाल जी सरावगी, कलकत्ता इन्दौर । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन R. N. 10591/62 (१) पुरातन-जनवाक्य-मूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-प्रन्थो की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थो मे उद्धृत दूसरे पद्यो की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। सपादक मुख्तार थी जुगलकिशोर जी की गवेपणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट के प्राक्कथन (Foreword) और डा.ए. एन उपाध्ये एम. ए. डी. लिट् की भूमिका (Introduction) से भूपित है, शोध-खोज के विद्वानोके लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द १५.०० (२) ग्राम परीक्षा-श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर, विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पदग्वारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८.०० (३) स्वयम्भूस्तोत्र-ममन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेपणापूर्ण प्रस्तावना में मुशोभित । ... २.०० (४) स्तुतिविद्या-स्वामी ममन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, मटीक, सानुवाद और श्री जुगल. किशोर मुख्नार की महत्व की प्रस्तावनादि मे अलकृत मुन्दर जिल्द-सहित । (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पचाध्यायीकार कवि गजमल की सुन्दर प्राध्यात्मिकरचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १.५० (६) युक्त्यनुगामन-तत्वज्ञान में परिपूर्ण ममन्तभद्र की अमाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हुमा था। मुख्नार श्री के हिन्दी अनुवाद यौर प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द। ... ७५ (७) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द चित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ७५ (6) शामनचतुस्थिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीर्ति की १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ७५ (९) समीचीन धर्मशास्त्र--स्वामी ममन्तभद्र का गृहस्याचार-विषयक अत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना में युक, सजिल्द । ... ३.०० (१०) जैन ग्रन्थ-प्रगम्ति मग्रह भा० १ गस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशिन ग्रन्थो की प्रशस्तियो का मगलाचरण महित अपूर्व सग्रह उपयोगी ११ पशिष्टो की और पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहाग-विषयक गाहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना गे अलकृन, मजिल्द । ४-०.. (११) ममाधितन्त्र पौर हादोपदेश-प्रध्यात्म कृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका माहित ८-०० (१२) अनित्यभावना-पा० पद्मनन्दीकी महत्वका रचना, मुरतार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ महिन २५ (१३) तत्वाथमूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्नार श्री के हिन्दी अनुवाद तया व्याख्या में युक्त । ... २५ (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जननी । १-२५ (१५) महावीर का गदिय नीर्थ १६ पैम, (५) ममन्तभद्र विचार-दीपिका १६५म, (६) महावीर पूजा २५ (१६) बाहुबली पूजा-जगलकिशोर मुख्तार कृत (ममाप्त) .२५ (१७) अध्यात्म रहस्य-प. पाशाधर की सुन्दर वृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । १.०० (१८) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति म ग्रह भा २ अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोका प्रशस्तिगो का महत्वपूर्ण मग्रह । ५५ ग्रन्थकागे के ऐतिहासिक प्रथ-परिचय और परिशिप्टो महित । स. प० परमान्द शास्त्री । सजिल्द १२.०० (१६) जैन माहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द (बीर गामन-मध प्रकागन ५.०० (२०) कसायपाहुड मुत्त-मूलग्रन्थ की रचना प्राज में दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृपभाचार्य ने पन्द्रह मौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चणितष लिये । सम्पादक प हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दो अनुवाद के साथ बडे माइज के १००० से भी अधिक पृष्ठो मे। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । ... २००० (२१) Reality मा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अग्रेजी में मनूवाद बड़े प्राकार के ३००१. परको जिल्द ६.०० प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीग्मेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिटिग हाउस, दरियागज, दिल्ली से मुद्रित । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वैमासिक फरवरो १६८ Bকান ************************************* *** O मोहनजोदड़ों से प्राप्त ध्यानस्थ योगियों की मूर्तियां देवगढ़ के प्राचीन मन्दिर के ऊपरी भाग का एक दृश्य xxxxx******xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुख पत्र Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २५५ विषय-सूची प्राकृत भाषा एवं साहित्य पर परिसंवाद विषय । शिवाजी विश्वविद्यालय, कोल्हापूर के तत्वावधान में १ श्रेयो--जिन-स्तुति----समन्तभद्राचार्य २४१ विश्वविद्यालय अनुदान पायोग की सहायता से इसी ग्रीप्मा२ कारी तलाई की जन मूर्तियां-१० गोपीलाल वकाश में बुधवार दिनाक २२ मई से २५ मई तक प्राकृत 'अमर' एम. ए भाषा एव माहित्य, पर एक परिसवाद प्रायोजित किया गया है, देश के प्रसिद्ध विद्वान विशेष कर प्राकृत भाषा और ३. समर्पण और निष्ठुरता-मुनि कन्हैयालाल २४६ साहित्य के पडित इस परिमवाद मे सम्मिलित हो रहे है, ४. वादामी चालुक्य अभिलेखो मे वणित जैन प्राकृत भाषायों के अध्ययन का महत्व सर्वविदित है, मम्प्रदाय तथा प्राचार्य-प्रो० दुर्गाप्रसाद हिन्दी, मगठी, गुजगती प्रादि आधुनिक भारतीय भाषाम्रो दीक्षित एम. ए. 01 की उत्पत्ति और विकास भिन्न-भिन्न प्राकृतो से हुआ है, ५. एलिचपुर के राजा श्रीपाल उफ ईल इतना ही नही द्रविड कुल की कन्नड आदि भाषाम्रो का नेमचन्द धन्नूसा जैन २५२ शब्द भडार भी प्राकृतो की सहायता से ही समृद्ध हुआ है ६. वैधता और उपादेयता-... डा. प्रद्युम्नकुमार भारत के प्राचीन शिलालेख, नाटक, अलकार प्रथ और जैन मुक्तक माहित्य में प्राकृत भाषाओं का महत्व पूर्ण स्थान है बुधजन के काव्य मे नीति-गगागम 'गग' पाली में लिग्वित त्रिपिटक के समान अर्धमागधी में रचित प्रागम साहित्य भी महत्वपूर्ण है, भारतीय विचारधारा तथा एम ए. मस्कृति की ममृद्धि मे प्राकृतिक साहित्य का विशेष योगदान मोक्षमार्ग प्रकाशक का प्रारूप -- बालचन्द है, भारतीय विद्या विभिन्न क्षेत्रो में प्रसृत है। एतद्सबधी मिद्धान्त शास्त्री-परमानन्द शास्त्री गोध-कार्य प्राकृत भाषा एव साहित्य के अध्ययन के बिना ६ श्रमण सस्कृति का प्राचीनत्व-मुनि श्री अधग ही रहेगा, प्राकृत भाषा और साहित्य में पाश्चिमात्य विद्यानन्द एवं पौर्वात्य पहितो ने व्यक्तिगत रूप से अनुसंधान किया है १०. यशस्तिलक का सास्कृतिक अध्ययन- - डा. और कर भी रहे है, जितना कार्य हा है उससे अधिक गोकुलचन्द जैन प्राचार्य एम.ए पी-एच डी २७३ शोध कार्य शेष है, अपने देश में इसके लिए विपुल साहित्य ११. कविवर देवीदाम का पदपकत-डा० भाग और माधन उपलब्ध है, इस क्षेत्र मे आज तक किए गये चन्द एम ए पी-एच डी. अनुसधान के परिदेश मे, भारतीय विद्यानो की ममृद्धि के १२. माहित्य-समीक्षा--परमानन्द शास्त्री | लिए भविष्य में जो कुछ कार्य करना है उसका दिशा१३ अनेकान्त के २०वे वर्ष की विषय-सूची २८७ / दर्शन इस परिसवाद में किया जायगा। प्राकृत के प्रसिद्ध पडित डा० परशुराम लक्ष्मण वैद्य सम्पादक-मण्डल जी के नेतृत्व मे इस परिसवाद की तैयारी का प्रारम्भ हो डा० प्रा० ने० उपाध्य चुका है। अखिल भारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन के भूतडा० प्रेमसागर जेन पूर्व अध्यक्ष, डा. आ. ने. उपाध्ये, डीन कला-सकाय श्री यशपाल जैन शिवाजी विश्वविद्यालय, इम परिसवाद के निर्देशक है । २८२ प्रनुसका। अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक मण्डल उत्तरदायी नहीं है। -व्यवस्थापक अनेकान्त | अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य १ रुपया २५० Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् अहम् अनेकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ । वर्ष २० किरण ६ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६४, वि० स० २०२४ { फर्वरी सन् १९६८ श्रेयो-जिन-स्तुतिः अपराग समाश्रेयन्ननाम यमितोभियम् । विदार्य सहितावार्य समुतसन्नज वाजितः ॥४६ अपराग स मा श्रेयन्ननामयमितोभियम् । विदार्यसहितावार्य समुत्सन्नजवाजितः ॥४७ -समन्तभद्राचार्य अर्थ-हे वीतराग ! हे मर्वज्ञ ! आप सुर, अमुर, किन्नर आदि सभी के लिए आश्रयणीय हैं-सेव्य हैसभी आपका ध्यान करते है, आप सबका हित करने वाले है अत: हिताभिलाषी जन सदा आपको घेरे रहते है आपकी भक्ति वन्दना आदि किया करते है । आपकी शरण को प्राप्त हुए भक्त पुरुष भय को नष्ट कर-निर्भय हो, हर्ष मे रोमाञ्चित हो जाते है । आप पराग से-कपाय रज से--रहित है । ज्ञानवान् श्रेष्ठ पुरुषों से सहित है, पूज्य है, तथा राग-द्वेप रूप सग्राम से आपका वेग नष्ट हो गया है-आप राग-द्वेष से रहित है। मैं आपके दर्शनमात्र से ही आरोग्यता और निर्भयता को प्राप्त हो गया है । हे श्रेयान्स देव । मेरी रक्षा कीजिए ॥४६॥४७॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारी तलाई को जैनमूतियाँ श्री पं० गोपीलाल 'प्रमर' एम. ए. स्थान-परिचय लगभग १८५० ई० में यहाँ के बागह मन्दिर मे सं० १७४ कारी तलाई' का प्राचीन नाम कर्णपुर या कर्णपुरा का एक शिलालेख प्राप्त हुया था। कलचुरि-काल के है। यह कैमूर पर्वत श्रेणियों के पूर्व मे, जबलपुर जिले तीन शिलालेख और प्राप्त हुए । इनमे से तीसरा रायपुर की कटनी मुडवारा तहसील मे महियार से दक्षिण पूर्व में मग्रहालय में सुरक्षित है जिससे ज्ञात होता है कि कलचुरि २२ मील और उचहरा से दक्षिण मे ३१ मील पर काल में कारी तलाई को मोमस्वामिपुर भी कहा जाता स्थित है। पर्वत के किनारे यहाँ अनेक हिन्दू और जैन था। इनके अतिरिक्त दो अन्य शिलालेख भी यहाँ प्राप्त मन्दिरों के अवशेष विद्यमान है। इन अवशेषो के पूर्व में हुए हैं। जिनमें से प्रथम शइकु लिपि में उत्कीर्ण है और लगभग प्राधा मील लम्बा एक सागर नामक तालाब है- दूसरे में महाराज वीर गजदेव का नाम तथा स० १४१२ जिसके किनारे देशी पाषाण की अनेक अर्घनिर्मित जैन वि० उत्कीर्ण है। उत्तर-कलचुरि काल में भी कारी तलाई मतियाँ बिखरी हैं। कारी तलाई के मन्दिरो की सामग्री का महत्त्व रहा, इसके प्रमाण है । स्थानीय पं० रामप्रपन्न और मूर्तियाँ बहुत बड़ी मात्रा मे इसी स्थान पर बिखरी जी के संग्रह में एक ताम्रपत्र है-जिसके अनुसार १८वी पडी है और कुछ जबलपुर तथा रायपुर के संग्रहालयो मे शती मे उनके पूर्वजो को मैहर राजा के भाई ने नौ ग्रामो सुरक्षित कर दी गई है । कहा जाता है कि विजयराघोगढ के उपाध्याय (पुरोहित) का पद दिया था। के किले का निर्माण कारी तलाई के प्राचीन पत्थरो से ध्वंसावशेष हमा था'। १८७४-७५ में श्री कनिघमने यहाँ का अत्यन्त यह स्थान कलिचरि कालीन अवशेषों के लिए विशेष सक्षिप्त सर्वेक्षण किया था। फिर श्री बालचन्द्र जैन ने प्रसिद्ध है पर सूक्ष्म निरीक्षण करने पर प्रतीत होता है कि १९५८ ई. के लगभग यहाँ का विस्तृत सर्वेक्षण किया यहाँ यी-वी शती के प्रोष भी विटाम यहाँ ७वी-८वी शती के अवशेष भी विद्यमान है। विभिन्न और कई महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले। स्थानों पर ग्रामवासियों ने ईटे और पत्थर प्राप्त करने के स्थान की प्राचीनता लिए खुदाई की है जिसमे कम से कम ८ फुट नीचे तक कारी तलाई की उन्नति कलचुरि-काल में सवाधिक इंटो की दीवाले प्राप्त हुई है। यदि इस स्थान का सिलई पर उसका इतिहास काफी प्राचीन है। यहाँ की कुछ सिलवार उत्खनन किया जाए तो अाश्चर्य नही जो यहाँ गफानोंमें २००० वर्ष प्राचीन ब्राह्मी अभिलेख प्राप्त हुए है' मौर्यकालीन अवशेष भी प्राप्त हो। १. श्री कनिंघम ने इसका उच्चारण 'कारि-तालई' माना मूर्तियाँ है। ए पार, ए. एस. पाई, जिल्द ६, पृ०७। कलचुरि काल मे कारी तलाई जैनो का महत्त्वपूर्ण २. वही। केन्द्र तथा तीर्थ स्थान था। यहाँ कम से कम छह जैन ३. जैन बालचन्द्र : कारी तलाई का कला वैभव : जैन मन्दिरों का निर्माण हुआ था । यहाँ तीर्थकरों और शासन सन्देश १६।१११६५६ । ४. श्री कनिंघम की उपर्युक्त जिल्द । ७. श्री कनिंघम ने इसे गुप्त संवत् माना है। दे० वही। ५. रायपुर संग्रहालय के पुरातत्त्व उपविभागकी प्रदर्शिका ८. १८७४-७५ ई० में यह शिलालेख भी कनियम के भाग १-२। अधिकार में था। जन बालचन्द्र : उपर्युक्त लेख । ६. जैन बालचन्द्र : उपर्युक्त लेख । 50 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फारी सलाई की बंन मतियां २४३ देवियों को प्रतिमाएं अधिकांग में है। तीर्थंकरों में भी खण्डित है। इन्द्रो के ऊपरी भाग भी खण्डित हैं। चौकी प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की प्रतिमाएं सर्वाधिक हैं। के ऊपरी भाग पर दाएं यक्ष गोमुख और बाएँ यक्षी विशेष प्रतिमाओं मे द्विमूर्तिकाएँ, त्रिमूर्तिकाएँ, सर्वतोभद्रि- अम्बिका की छोटी-छोटी प्रतिमाएं है। सिंहों की पीठ काएँ और सहस्रकूट जिन चैत्यालय की प्रतिकृति की प्रति- प्रापस मे सटी हुई है और उनके पास एक-एक पुजारी माएँ उल्लेखनीय है। इनमें से कुछ प्रतिमाएं स्थानीय लाल खडा है। शेष पूर्ववत् । पत्थर की और कुछ सफेद बलुवा पत्थर की है। जैसा कि ४. ऋषभनाथ (२५६४), ६८.५ से. मी. कहा जा चुका है, यहाँ की अधिकांश प्रतिमाएँ यही, इस सफेद बलुमा पत्थर की पद्मासन प्रतिमा का गले अत्यन्त अस्त-व्यस्त एव खण्डित स्थिति में बिखरी पड़ी है। के ऊपर का भाग खण्डित है। कन्धों पर जटाए लटक कुछ प्रतिमाएँ अासपास के लोग उठा ले गये है" । यही रही है। इसे मूलनायक मानकर इसके दाएँ पद्मासन और की एक, बाइसवे तीर्थकर नेमिनाथ की शासन देवी बाए कायोत्सर्गासन तीर्थकर उत्कीर्ण किए गये है । यक्षी अम्बिका की प्रतिमा, कारी तलाई के समीपवर्ती ग्राम चनेश्वरी है, अम्बिका नहीं । शेष पूर्ववत् । करनपुरा में एक वृक्ष के नीचे रख दी गई है जिसे स्थानीय ५. ऋषभनाथ, (२५४८) ११२ से. मी. गोड़ लोग खेरमाई के नाम से पूजते है। यहाँ की कुछ यह प्रतिमा पद्मासन है और उसका मुख खण्डित है । प्रतिमाएं महन्त घासीदास स्मारक संग्रहालय, रायपुर में सिहो के जोडे के साथ हाथियों का जोड़ा भी बनाया गया प्रदर्शित है जिनमें से कुछ का संक्षिप्त विवरण यह है -- है। शेप पूर्ववत् । १. ऋषभनाथ, (२५२७)", १३५ से. मी. ६. ऋषभनाथ, (२५२५), १०२ से. मी. तीर्थकर ऊंची चौकी पर पद्मामन में ध्यानस्थ बैठे है। सफेद बलमा पत्थर की बनी यह प्रतिमा खाण्डत हान ण्डत है। श्री वृक्ष, प्रभा- के साथ ही प्रकृति के दुष्प्रभाव से गलकर भद्दी हो गयी मण्डल, तीन छत्र, महावतयुक्त हाथी, दुन्दुभिक और है। श्री वृक्ष जटाएं और वृपभ चिह्न अकित है। पुष्प वृष्टि करता हा विद्याधर युगल तथा उनके नीचे ७ऋषभनाथ और अजितनाथ, (२५८६), १०७ से. मी. चमरधारी इन्द्र अकित है। चोकी अलकृत है। उम पर सफेद बलुआ पत्थरकी इस द्विमूर्तिका मे दोनो तीर्थकर पडा झल पर ऋषभनाथ का चिह्न बृपभ है। वृपभ के कायोत्सर्गासन में है। दोनो के प्रातिहार्य और परिकर पृथक नीचे चौकी के ठीक मध्य मे धर्मचक्र बना है जिसके दोनो पृथक् हैं। चौकी के नीचे एक छोटा लेख उत्कीर्ण है पर पोर एक-एक सिह है। सिहासन के दाहिने छोर पर वह अत्यन्त खण्डिन हो गया है दोनो मूर्तियों के मुख तथा ऋषभनाथ का शासन देव गोमुख और बाएं छोर पर उनकी हाथ खण्डित है। शामन देवी चक्रेश्वरी की ललितासन में बैठी प्रतिमाएँ है। ८. अजितनाथ और संभवनाथ, (२५५७), १३८ से. मी. २. ऋषभनाथ, (३५७६), १३२ से. मी. लाल बलुया पत्थर की इस विशाल द्विमूर्तिका में यह उपर्युक्त प्रतिमा के समान है किन्तु इसका मस्तक द्वितीय और तृतीय तीर्थंकरों की कायोत्सर्गासन मे स्थित अखण्डित है केश घुघराले है । चक्रेश्वरी अपने वाहन गरुड प्रतिमाएँ है। दोनो के मस्तक और हाथ खण्डित हैं । प्रातिपर आसीन है। हार्य और परिकर है। तीर्थकरो के चरणों के पास बैठे ३. ऋषभनाथ, (००३३), ७४ से. मी. भक्तजन उनकी पूजा कर रहे है । कला अत्यन्त उच्चकोटि इस पद्मासन प्रतिमा का मस्तक और दोनों घुटने की है। १०. कटनी के पं० कजीलाल जी ने कारी तलाई से एक . पृष्पबन्त और शीतलनाथ, (२५५६), १०७ से. मी. सर्वतोभद्रिका प्रतिमा लाकर अपने बगीचे मे रखी है। यह द्विमूर्तिका प्रतिमा सफेद बलुमा पत्थर की हैं । जन सन्देश, १२।११।१६५६, पृ० ६, कालम १। इसमे नौवें और दसवें तीर्थकर खडे हैं। नौवें का दायाँ ११. कोष्ठकके अन्दर के अंक रायपुर संग्रहालयके क्रमांक हैं और दसवें का बायां हाथ खण्डित है । शेष पूर्ववत् । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ अनेकान्त उसके पैरों के नीचे बैठा है। आम्रवृक्ष पर बाइसवे के दाये और नीचे के बाये हाथ में वीणा ले रखी है। तीर्यवर नेमिनाथ की छोटी-सी पद्मासन प्रतिमा है। वृक्ष वाहन अस्पष्ट है । नीचे एक भक्त उसकी पूजा कर रहा के दोनों ओर खड़ी एक-एक विद्याधरी पुष्पवृष्टि करती है और प्रतिमा के ऊपरी छोरों पर विद्याधर पुष्पमालाएँ हुई दिखाई गयी है । अम्बिका की पूजा करने वाली एक लिए उड़ रहे हैं। स्त्री उसके दाये ओर है। पूजा करने वाला पुरुष उसके ३५. महावतयुक्त हाथी, (००६६), २० से.मी. बाये ओर हाथ जोड खड़ा है । स्त्री बहुत से आभूषण यह किसी तीर्थकर-प्रतिमा का खण्डित ऊपरी भाग पहिने है और पुरुष की हल्की सी दाडी है। है। एक हाथी दाये बैटा हुआ है, उसकी पीठ पर घण्टा ३३. अम्बिका और पद्मावती, (२५८१). ४८ से मी. लटक रहा है । दो दिव्य पुरुष हाथी पर सवार है। हाथी यह किसी जैन मन्दिर की चौखट का खण्ड है । इसके के सामने भी एक पुरुष खडा है। ओर के प्राधे भाग में कोई तीर्थकर पद्मासन मे शंव और वैष्णव के अतिरिक्त अन्य हिन्दू देव-देवियो मासीन है जिनके दोनो योर एक-एक तीर्थकर कायोत्सर्गा- की मूर्तियां भी कारी तलाई में विपुल मात्रा में प्राप्त सन मे ध्यानस्थ खड़े है। धुर-छोर पर मकर और पुरुप होती है। इनके कुछ अत्यन्त मनोरम नमूने रायपुर सनहैं। बायी अंर के आधे भाग मे ऊपर एक विद्याधर है। हालय में देखे जा सकते है। खजुराहो की भांति यहाँ भी और नीचे प्रतिमास्थान में अम्बिका और पद्मावती एक अप्सराओं, नायिकायो और शाल-भजिकाग्री प्रादि की साथ ललितासन में बैठी है। अम्बिका की गोद में बालक अधिकता है। यहा अदलील प्रतिमाएं भी प्राप्त होती है, और पद्मावती के मस्तक पर सर्प दिखाया गया है। यद्यपि उनकी सख्या अधिक नहीं है। मकर, नरशार्दूल, ३४. सरस्वती, (२५२४), ७६ से.मी. गजशार्दूल और कीर्तिमुख अादि अलकरण, लोकजीवन के इस अत्यन्त खण्डित प्रतिमा में चतुर्भुजी सरस्वती विभिन्न दृश्य तथा दैनिक उपयोग की विविध वस्तुएं भी देवी ललितासन मे बैठी है। उसके मस्तक और हाथ भी कारी तलाई मे मदिगे की दीवालो पर उत्कीर्ण की गय खण्डित है पर प्रभामण्डल पूर्णतः स्पष्ट है । उसके ऊपर थी। समर्पण और निष्ठुरता मुनि श्री कन्हैयालाल लक्ष्मी ! तेरे जैसी सौभाग्यशालिनी ससार में कोई नही है। तेरी चरण रज पाने के लिए बड़े-बड़े गजा चक्रवर्ती आदि सभी प्रतिष्ठित लालायित रहते है। भला, इस वसुधा मे तेरा स्वागत कौन नहीं करता। तेरी शुश्रूषा के लिए अमीर-गरीब सभी अपना सम्पूर्ण जीवन तेरे चरणो में समर्पित किए चलते है। तेरे लिए ठिठुरती हुई सर्दी, कड-कड़ाती हुई बिजली व चिलचिलाती गर्मी मे भी मनुष्य भटकते रहते है। भूख और प्यास को भी भूल जाते है । खाते, पीते, सोते, जागते तेरा ही ध्यान करते है । तेरी रक्षा के लिए नगी तलवारो का पहरा लगता है। दो-दो तालों वाली तिजोरियां तेरे विश्रामार्थ शय्या बनती है। अपनी प्राण-रक्षा की अपेक्षा तेरी रक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण समझी जाती है। रहने के लिए अच्छे-से-अच्छा स्थान तुझे मिलता है । मौका आने पर तेरा स्वामी तेरे पर प्राण न्योछावर करने को भी तैयार रहता है और तुझे किमी भी प्रकार का कष्ट नहीं होने देता। चपले! इतना होते हुए भी तू अपनी चचलता का परित्याग नहीं करती। आज कही, तो कल कही ? लक्ष्मी! तू क्यो भूल रही है ? क्या तुझे यह ज्ञात नही है कि अस्थिर मनुष्यों को ससार मे क्या गति होती है और उनका सम्मान कैसे होता है ? हन्त ! समय पर तू किसी की भी सहयोगिनी नही बन सकती है और न किसी के कष्टों को भी दूर करने का प्रयत्न करती है। क्या यह तेरी कृतघ्नता और निष्ठुरता नहीं है ? Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादामी चालुक्य अभिलेखों में वर्णित जैन सम्प्रदाय तथा आचार्य प्रो. दुर्गाप्रसाद दीक्षित, एम. ए. दक्षिण के उन सजवशो ने जिन्होंने सभी धर्मों को ज्य की सीमानो मे इस संघ के अनुयायियों का बाहुल्य पुष्पित, पल्लवित और फलित होने के लिए समान अवसर था। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते है कि इस सघ दिया, बादामी के चालुक्य गजवश का नाम विशेषोल्ले- विशेष के ही अनुयायियो ने विशेष रूप से इस क्षेत्र में जैन खनीय है । इस राजवश के उपलब्ध अभिलेखो मे करीब धर्म का प्रचार किया था। जैन समुदाय के जो मुनि नग्नता १२ अभिलेखो का सम्बन्ध, येन केन प्रकारेण जैन धर्म मे के ममर्थक थे और उसे ही महावीर का मूल माचार है। इन अभिलेखों में गजपरिवार के सदस्यो तथा अन्य मानते थे वे दिगम्बर कहलाए'। इनका श्वेताम्बरों से व्यक्तियो द्वाग जैन मुनियो तथा संस्थानो को दान देने का वमन्य था। दिगम्बर सम्प्रदाय अपने को जैनो का मूल उल्लेख है । इमी प्रसग मे अनेक जैन सम्प्रदायो, प्राचार्यो समुदाय मानता है फलत: उन्हें ही मूलसघ नाम से जाना नथा विद्वानों का उल्लेख है। इस लघु लेख का उद्देश्य जाता है । विद्वानो के अनुसार मूल सघ नामकरण अधिक बादामी के चालुक्य नरेशों के अभिलेखों मे वणित विभिन्न पुगना नही है । परन्तु नोणमाल के दानपत्र में इस नाम जैन सघ, गण प्राचार्यों तथा मूनियो के विषय मे चर्चा का उल्लेख इसकी प्राचीनता की प्रतिष्ठापना ४थी-पाँचवी करना है। इन अभिलेखो के सूक्ष्म विश्लेषण से यह शताब्दी मे कर देता है। बादामी चालुक्य अभिलेखो मे ध्वनित होता है कि इस राजवश के दरबार मे जैन इमका उल्लेख इस नामकरण की प्राचीनता का सकेत देते प्राचार्यों और प्रसारको की अच्छी प्रतिष्ठा थी । इतिहास हए इस तथ्य को प्रकाशित करता है कि यह नामकरण प्रसिद्ध ऐहोल प्रशास्ति' का लेखक रविकीत्ति, जो जैन उतना अर्वाचीन नही है जैसी कि कुछ विद्वानो की धारणा धर्मावलम्बी था, सम्भवत: चालुक्यो के राजनैतिक अधि- है। "अपने से अतिरिक्त दूसरो को अमूल-जिनका कोई कारियो मे से था। ऐहोल प्रशस्ति मे उसके द्वारा राज- मूल ग्राधार नही-बतलाने के लिए ही यह नामकरण नैतिक घटनामो का क्रमबद्ध एवम् चित्रात्मक वर्णन इम किया गया होगा।" इस सदर्भ मे इतना कहना ही पर्याप्त सम्भावना की पुष्टि करता है। जिन जैन मूचनामो का होगा कि अाज हम मूल सघ का जो अर्थ बताकर उसके इन अभिलेखों मे वर्णन है उन्ही का क्रमबद्ध विवेचन निम्न उद्देश्य को स्पष्ट करते है वह अवश्य अर्वाचीन लगता है पक्तियो मे प्रस्तुत है। परन्तु म्वय मूलसघ नामकरण से किसी प्रकार की प्रामूलसंघ :-प्रायः बादामी चालुक्य राजवश के सभी चीनता का आभास नहीं मिलता है। उसे प्राचीन मानने से अभिलेखों मे (जैन धर्म से सम्बन्धित) मूलसघ से सम्ब- किसी प्रकार से साक्ष्य सम्बन्धी भी कोई कठिनाई दृष्टिन्धित जैन मुनियो का उल्लेख है। केवल कुरताकोटि से गोचर नहीं होती है। प्राप्त एक अभिलेख में एक अन्य संघ का उल्लेख है। सभी - ३. कैलाशचन्द्र शास्त्री "जैनधर्म" पृ० २८६-३०३ । चालुक्य जैन अभिलेखो में केवल मूलसंघ के अनुयायियों का एवम् जैन साहित्य तथा इतिहास पृ० ४८५ । उल्लेख इस बात का द्योतक है कि बादामी चालुक्य माम्रा ४. कैलाशचन्द्र शास्त्री "जैनधर्म" पृ० २८१-३०३ एवम् १. एपीग्राफिया इण्डिका जिल्द ६ पृष्ठ १-१२ । जैन साहित्य तथा इतिहास पृ० ४८५ । २. इण्डियन एन्टिक्वेरी जिल्द ७ पृ. २१७-२० । ५. जैन शिलालेख सग्रह भाग २ पृ. ६०-६१ । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ अनेकन्त अल्तेम से प्राप्त चालुक्य ताम्रपत्र में मूलगण का अभिलेखो में पाया है। इस मन्दर्भ मे देवगण को प्रधानता उल्लेख है।' इस अभिलेख में मूलगण परम्पग रूपी वृक्ष मिली है । यद्यपि इस सन्दर्भ मे एकाध स्थानीय गणों का को कनकोपल पर्वत पर उत्पन्न बताया गया है। भी उल्लेख है। विशेष महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन "कनकोपलसम्भूतवृक्षमूलगुगान्वये। अभिलेखो मे गच्छों का उल्लेख नहीं मिलता है। भूतस्समप्रशद्धान्तस्सिद्धन्दि मुनीश्वरः ॥" बेवगण :- लक्ष्मेश्वर से प्राप्त बादामी चालुक्य जैन श्री राईस ने इस पर्वत की पहिचान मैसूर के चामराज अभिलेखों में मुलसघ की शाखा के रूप मे इस गण का नगर तालुका में स्थित मलेयूम पर्वत में की है। कुछ उल्लेख है । लक्ष्मेश्वर से प्राप्त अधिकाश चालुक्य अन्य अभिलेखो मे इसे कनकगिरि कहा गया है । एक अभिलेखो को पलीट तथा अन्य कुछ विद्वानो ने जाली अन्य अभिलेख मे इसे कनकाचल भी कहा गया है। अलेम कगर दिया है परन्तु इस तथ्य से मुख मोड़ा नही जा अभिलेख की सत्यता के विषय में विद्वानों में मतभेद है।" सकता है कि इसमे उल्लिखित संघ सप्रदाय तथा अन्य परन्त इग अभिनन में वणित मूलगण का तात्पर्य मूल-मध जैनधर्म सम्बन्धी मामग्री की प्रामाणिकता अन्य आधारो से है अथवा किसी अन्य प्राचीन जैन सम्प्रदाय मे यह कहना पर निश्चित है। हाल ही में कुछ विद्वानो ने यह मत कठिन है। सम्भव है कि गण शब्द संघ के लिए त्रुटि हो। व्यक्त किया है कि लक्ष्मेश्वर के अभिलेख केवल प्राचीन बसुरिसंघ : -कुरताकोटि से प्राप्त अभिलेख में इस ताम्रपत्रो की पापाणो पर प्रति लिपियां हे तथा उनकी संघ का उल्लेख है। इस संघ के एक व्यक्ति विशर्मा का मत्यता को सकिन दृष्टि से नही देखा है। अत: इन अभिलेख में उल्लेख है, जो मामवेद पारगत माववशर्मा का अभिलेखों में प्राप्त सामग्री प्रामाणिक प्रतीत होती है। पौत्र तथा जयशर्मा का पुत्र था। उसे अगस्थि (स्त्य) गोत्र आचार्य दन्द्रनन्दि ने अपने 'श्रुतावतार' में प्राचार्य अहंद(गात्र) का बताया गया है" । उपलब्ध जैन माहिन्य बलि का उल्लेख किया है और उन्ही के दाग अशोक सामग्री में इस प्रकार के किमी मघ का उल्लेख नही वाटिका से पाये जैन मुनियो मे कुछ को 'अपगजित' तथा मिलता है। गोत्र तथा सामवेद का नाम के साथ उल्लेख कुछ को "देव" नाम से अभिहित किया है। इन्ही मुनियो इस मप के जैन न होने का मन करता है परन्तु मामवेद के गिप्य प्रमिप्य तथा अनुयायी देवगण मे सम्बन्धित और गोत्र का उल्लेख पितामह के विशेषणा के रूप में है। हग"। इस प्रकार "देवगण" मूलसघ की शाखा मात्र है। सम्भवत कि रविशर्मा के पितामह एवम पूर्वज वैदिक अन्य वृछ विद्वानों का मत है कि अशोक वन से आने वाले धर्मावलम्बी रहे हों परन्त स्वयम् उनकी आस्था जैन मत मुनियों को "देवगण" के अन्तर्गत रखा गया था। में ही रही हो। इस विषय में निश्चित रूप मे कुछ कहना चालुक्य साम्राज्य के धारवाड क्षेत्र मे इस गण के अनुतो कठिन है परन्तु यह सम्भवत. कोई जैन संघ ही था जो यायियों का विशेप वाहुल्य था। जिन जैन आचार्यों अथवा प्रनयायियो के अभाव में विशेष प्रसिद्ध न हो सका। विद्वानो का उल्लेग्व चालुक्य अभिलेखी मे मिलता है उनमे मूल संघ के कई गणो का भी उल्लेख चालुक्य जन से अधिकाश देवगण शाखा के थे अतएव यह अनमान ६. इ. ए. जि. ७० २०९-२१७ । म्वाभाविक ही प्रतीत होता है कि देवगण शाखा के अनु७ इपीग्राफिका कर्नाटिका जिल्द ४ पृ० १४० । यायियो का चालुक्य साम्राज्य में विशेप बोलबाला था। ८ ए. कर्ना० जिल्द ४ Ch. No. १४४, १५०, १५३ पर लूर गण :-अडर से प्राप्तं दो अभिलेखों में इस इत्यादि । १२. इ० ए० जिल्द ३० पृ० २१८-२१६ न० ३३,३८ । ९. ए. पी. कर्ना, जिल्द ४ Ch No. १५८ । १३ साउथ इण्डियन इन्स्क्रिप्सन्स जिल्द २०, (बाम्बे १० इ० ए.जिल्द ७ पृ० २०९-२१७ एवम जिल्द ३० कर्नाटक इन्सक्रिप्सन्स जिल्द ४) भूमिका पृ०७, ८ । पृ. २१८ नं. ३५। १४. कैलाशचन्द्र शास्त्री "जैनधर्म"पृ० ३०० । ११. इ. एक जिल्द ७ पृ. २१७-२० । १५. कैलाशचन्द्र शास्त्री "जैनधर्म" पृ. ३०१ । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादामी चालुक्य अभिलेखों में वर्णित जैन सम्प्रदाय तथा प्राचार्य २४९ मण का उल्लेख मिलता है। अभिलेखो में इस प्रकार पुस्तकान्वय उपशाखा के थे। यह प्रभिलेख लगभग शक का अन्य कोई मूत्र उपलब्ध नही है जिसके आधार पर यह १०४० ई० है"। पता लग सके कि यह गण किस सघ मे सम्बन्धित था। २ चितकाचार्य:-इन प्राचार्य का उल्लेख भी प्रल्तेम (अप्रासीब विनय नन्दीति परलरगणापणीरितभतिरिव" ताम्रपत्र में है । वह प्राचार्य सिद्धनन्दि के शिष्य थे। तस्यासीत प्रथमविशष्यो देवताविनुतकमः। (ब) "किडिप्पोरवर्तपापम परलूराचेदि यबकि प्रभाचन्द्र शिष्यः पञ्चशतंयुक्तश्चितकाचार्य संक्षितः॥ गुरावपडेदार।" पल्लेम दानपत्र में उनके ५०. शिष्य संख्या का प्रभाचन्द्र नाम के अनेक प्राचार्य हो गये है अतएव उल्लेख है । उनके विषय में अधिक जानकारी प्रकाशित इम प्राधार पर गण के विषय में अनुमान लगाना कठिन मामग्री मे उपलब्ध नही है। है। अभिलेख की लिपि तथा ऐनिहामिक उल्लेख के ३ नागदेव-यह चितकाचार्य के शिष्यों में से थे। आधार पर वह छठी शताब्दी ई. का है। फलन उसमे अल्लेम दानपत्र मे उल्लिखित दान के ग्रहणकर्ता जिननन्दि उल्लिखित प्रभाचन्द्र की पहिचान चन्द्रगिरि पर्वत पर उप पापके ही शिष्य थे। नागदेव नामक एक व्यक्ति का लब्ध लगभग गक ५२२ मे उल्लिखित प्रभाचन्द्र से की उल्लेव महानवमी मण्डप (चन्द्रगिरि पर्वत) स्तम्भलेख जा सकती है"। पग्लूग्गण मम्भवत एक स्थानीय गण (शक १०६६) मे है जो किसी राजा का मन्त्री था और था तथा परलूर चेडिय में रहने वाले जैन मुनि सम्भवत । जनगुरु नयकीनि का शिष्य था। "परन्तु यह उपरोक्त परलुर गण के ही रहे होगे । इम सन्दर्भ में विशेष मामग्री नागदेव प्राचार्य नही हो सकते । क्योंकि वह चितकाचार्य उपलब्ध नहीं है। पग्लूग्गण के जैन अनुयायियो का कार्य के शिप्य थे तथा उनका समय इतने बाद का नही हो म्थल भी सम्भवत धारवाड जिले के अन्तर्गत ही था। मकता है । इसके अतिरिक्त इस सन्दर्भ में अधिक जानबादामी-चालुक्य अभिलेखोंमें उल्लिखित जैन प्राचार्य कारी उपलब्ध नहीं है। बादामी चालुक्य जैन अभिलेखो में अनेक जैन प्राचार्यों जिनन्दि-प्राचार्य जिननन्दि अलक्तक नगर मे गुरुग्रो और पण्डितो का उल्लेख मिलता है। अल्म में स्थित त्रिभुवन निलक जिनालय के अधिष्ठाता थे। प्राप प्राप्त अभिलेख में चार जैन आचार्यों का उल्लेख है जो नागदेव प्राचार्य के शिष्य तथा सेन्द्रक सामन्त सामिया के मूलसघ परम्परा के थे। विशेष कृपापात्र थे । प्राचार्य जिननन्दि का उल्लेख शिवार्य सिद्धनन्दि-त्रिभुवन तिलक जिनालय के जिननन्दि के गुरुमो में पाता है। इन्ही के चरणो में अच्छी तरह के पूर्व प्राचार्यों के वर्णन में सर्वप्रथम इन मुनि का उल्लेख मूत्र और उनका अर्थ समझकर 'शिवार्य ने "भगवती आराधना" की रचना की थी। इस आधार पर यह कहा "भूतस्समपरायान्तस्सिकनन्दि मुनीश्वरः" जा सकता है कि जिननन्दि सम्भवत. यापनीय सप्रदाय के श्रीनप्रथराम प्रेमी ने इनके यापनोय होने का अनुमान थे और शिवार्य उनके प्रमुख शिष्यो मे रहे होंगे। लगाया है। "रडुकट्ट (चन्द्रगिरि पर्वत पर) वस्ति मे ५रामदेवाचार्य-लक्ष्मेश्वर से उपलब्ध शक ६५६ के प्रादीश्वर की मूर्ति के सिंहपीठ पर उपलब्ध अभिलेग्व में विक्रमादित्य द्वितीय के पाषाण अभिलेख मे इन प्राचार्य शभचन्द्र मुनीन्द्र को सिद्धान्त परम्पराओ मे एक सिद्धनन्दि का उल्लेख मिलता है। यह मूग्नसंघ की देवगण शाखा के का उल्लेख है जो सम्भवतः मूलसघ के देसिग गण और माचार्य थे। इनके शिष्य का नाम जयदेव पण्डित था। १६. इ० ए० जिल्द ११६८-७१ एवम कर्नाटक अभि- १६ जशि० स० भाग १ पृष्ठ १४७-१४८ । लेख भाग १ पृ. ४-८। २० ज०शि० सं० भाग १ पृष्ठ ३३ । १७ जैन शिलालेख भाग १ पृ. १-२ २१ जैन साहित्य और इतिहास (प्रेमी) पृष्ठ ६८। १८ श्री प्रेमी जी, जैन साहित्य और इतिहास पृष्ठ १६७। २२ इ. ए. जि०७ पृ. १०६-७ । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अनेकन्त अल्तेम से प्राप्त चालुक्य ताम्रपत्र में मूलगण का अभिलंग्वो में पाया है। इस मन्दर्भ में देवगण को प्रधानता उल्लेख है। इस अभिलेख में मुलगण परम्पग रूपी वृक्ष मिली है । यद्यपि इस सन्दर्भ मे एकाध स्थानीय गणों का को कनकोपल पर्वत पर उत्पन्न बताया गया है। भी उल्लेख है। विशेष महत्वपूर्ण बात यह है कि इन "कनकोपलसम्भूतवृक्षमूलगुगान्वये । अभिलेखो मे गच्छों का उल्लेख नहीं मिलता है। भूतस्समग्रशसान्तस्सिद्धन्दि मुनीश्वरः ॥" देवगण :- लक्ष्मेश्वर से प्राप्त बादामी चालुक्य जैन श्री राईस ने इस पर्वत की पहिचान मैसूर के चामराज अभिलेखो मे मूलसघ की शाखा के रूप में इस गण का नगर तालुका में स्थित मलेयूरू पर्वत में की है। कुछ उल्लेख है । लक्ष्मेश्वर से प्राप्त अधिकाश चालुक्य अन्य अभिलेखों में इसे कनकगिरि कहा गया है । एक अभिलेखो को पलीट तथा अन्य कुछ विद्वानो ने जाली अन्य अभिलेख मे इसे कनकाचल भी कहा गया है। अल्लेम करार दिया है। परन्तु इस तथ्य से मुख मोडा नहीं जा अभिलेख की सत्यता के विषय में विद्वानो मे मतभेद है।" सकता है कि इसमे उल्लिखित संघ सप्रदाय तथा अन्य परन्तु इम अभिल में वणित मूलगण का तात्पर्य मूल-मध जैनधर्म सम्बन्धी सामग्री की प्रामाणिकता अन्य आधागे से है अथवा किसी अन्य प्राचीन जैन सम्प्रदाय मे यह कहना पर निश्चित है। हाल ही में कुछ विद्वानों ने यह मत कठिन है । सम्भव है कि गण शब्द संघ के लिए त्रुटि हो। बम किया है कि लक्ष्मेश्वर के अभिलेख केवल प्राचीन बसुरिसंघ :-कुरताकोटि से प्राप्त अभिलेख में इस ताम्रपत्रो की पापाणों पर प्रति लिगियों है तथा उनकी संघ का उल्लेख है। इस मघ के एक व्यक्ति रविशर्मा का मत्यता को मशकिन दष्टि से नही देखा है। अत. इन अभिलेख में उल्लेख है, जो मामवेद पारगत माधवशर्मा का अभिलेखों में प्राप्त सामग्री प्रामाणिक प्रतीत होती है । पौत्र तथा जयशर्मा का पुत्र था। उसे अगस्थि (म्त्य गोत्र प्राचार्य इन्द्रनन्दि ने अपने 'श्रुतावतार' में प्राचार्य अर्हद(गात्र) का बताया गया है" । उपलब्ध जैन माहित्य बलि का उल्लेख किया है और उन्ही के दाग अशोक मामग्री में इस प्रकार के किमी गघ का उल्लेख नही वाटिका से पाये जैन मुनियों में कुछ को 'अपगजिन' नथा मिलता है । गोत्र तथा मामवेद का नाम के साथ उल्लेख कुछ को "देव" नाम से अभिहित किया है। इन्ही मुनियो इस सघ के जैन न होने का मन करता है परन्त मामवेद के गिाय प्रशिप्य तथा अनुयायी देवगण से सम्बन्धित और गोत्र का उल्लेख पितामह के विशेषणो के रूप में है। हा" । इस प्रकार "देवगण" मूनसघ की शाखा मात्र है। सम्भवतः कि रविशर्मा के पितामह एवम पूर्वज वैदिक अन्य कुछ विद्वानो का मत है कि अशोक वन से आने वाले धर्मावलम्बी रहे हों परन्त स्वयम उनकी पाम्था जैन मन मुनियों को "देवगण" के अन्तर्गत रखा गया था। में ही रही हो। इस विषय में निश्चित रूप मे कुछ कहना चालुक्य साम्राज्य के धारवाउ क्षेत्र में इस गण के अनुतो कठिन है परन्त यह सम्भवत कोई जन मघ ही था जो यायियों का विशेप वाहुल्य था। जिन जैन प्राचार्यों अथवा अनुयायियो के अभाव में विशेष प्रसिद्ध न हो सका। विद्वानों का उल्लेख चालुक्य अभिलेखी मे मिलता है उनमें मूल सष के कई गणो का भी उल्लेख चालुक्य जैन से अधिकाश देवगण शाखा के ये अतएव यह अनमान ६. इ. ए. जि. ७पृ० २०६-२१७ । स्वाभाविक ही प्रतीत होता है कि देवगण शाग्वा के अनु७ इपीग्राफिका कनाटिका जिल्द ४ पृ० १४०। यायियो का चालुक्य साम्राज्य में विशेप बोलबाला था। ८ ए. कर्ना० जिल्द ४ Ch. No १४४, १५०, १५३ पर लूर गण :-अडूर से प्राप्त दो अभिलेखों में इस इत्यादि। १२. इ० ए० जिल्द ३० पृ० २१८-२१६ न० ३७, ३८ । ९. ए पी. कर्ना. जिल्द ४ Ch No. १५८ । १३. माउथ इण्डियन इन्स्क्रिप्सन्स जिल्द २०, (बाम्बे १० इ० ए. जिल्द ७ पृ० २०९-२१७ एवम जिल्द ३० कर्नाटक इन्सक्रिप्सन्स जिल्द ४) भूमिका पृ० ७, ८ । पृ. २१८ त० ३५। १४. कैलाशचन्द्र शास्त्री "जैनधर्म" पृ० ३००। ११. ३० ए० जिल्द ७ पृ० २१७-२० । १५. कैलाशचन्द्र शास्त्री "जैनधर्म" पृ. ३०१ । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादामी चालुक्य अभिलेखों में वणित जैन सम्प्रदाय तथा प्राचार्य २४९ गण का उल्लेख मिलता है। अभिलेख में इस प्रकार पुस्तकान्वय उपशाखा के थे। यह अभिलेख लगभग शक का अन्य कोई मूत्र उपलब्ध नही है जिसके आधार पर यह १०४० ई० है। पता लग सके कि यह गण किस सघ से सम्बन्धित था। २ चितकाचार्यः-इन प्राचार्य का उल्लेख भी पल्तेम (प्र)"मासीद विनय नन्दीति परलरगणाग्रणोरिन्द्रभतिरिव" ताम्रपत्र में है । वह प्राचार्य सिद्धनन्दि के शिष्य थे। तस्यासीत प्रथमश्शिष्यो देवताविनुतकमः । (ब) "किडिप्पोरवपापम परलूराचेदि यदबकि प्रभाचन्द्र शिष्यः पञ्चशतंयुक्तश्चितकाचार्य संजितः ॥ गुरावपडेदार ।" अलेम दानपत्र में उनके ५०० शिष्य संख्या का प्रभाचन्द्र नाम के अनेक प्राचार्य हो गये है अतएव उल्लेख है । उनके विषय में अधिक जानकारी प्रकाशित इम आधार पर गण के विषय में अनुमान लगाना कठिन मामग्री मे उपलब्ध नही है। है। अभिलेख की लिपि तथा ऐतिहासिक उल्लेख के ३ नागदेव-यह चितकाचार्य के शिष्यों में से थे। आधार पर वह छठी शताब्दी ई० का है। फलन उममे अल्लेम दानपत्र में उल्लिखित दान के ग्रहणकर्ता जिननन्दि उल्लिखित प्रभाचन्द्र की पहिचान चन्द्रगिरि पर्वत पर उप आपके ही शिष्य थे। नागदेव नामक एक व्यक्ति का लब्ध लगभग शक ५२२ में उल्लिखित प्रभाचन्द्र से की उल्लेख महानवमी मण्डप (चन्द्रगिरि पर्वत) स्तम्भलेख जा सकती है। पग्लूरगण मम्भवन एक स्थानीय गण (शक १०६६) मे है जो किसी राजा का मन्त्री था और था तथा पग्लर चेडिय में रहने वाले जैन मुनि सम्भवत जैनगुरू नयकीति का शिष्य था। परन्तु यह उपरोक्त परलर गण के ही रहे होगे। इस सन्दर्भ में विशेष मामग्री नागदेव प्राचार्य नही हो सकते। क्योंकि वह चितकाचार्य उपलब्ध नहीं है। पग्लूग्गण के जैन अनुयायियो का कार्य के शिष्य थे तथा उनका समय इतने बाद का नहीं हो स्थल भी मम्भवत धारवाड जिले के अन्तर्गन ह. ।। मकता है। हमके अतिरिक्त इस सन्दर्भ में अधिक जानबादामी-चालुक्य अभिलेखोंमें उल्लिखित जैन प्राचार्य कारी उपलब्ध नही है। बादामी चालुक्य जैन अभिलेखो में अनेक जन प्राचार्यो ४ जिननन्दि -प्राचार्य जिननन्दि अलक्तक नगर मे गुरुग्रों और पण्डितो का उल्लेख मिलता है। अल्लेम से स्थित त्रिभुवन तिलक जिनालय के अधिष्ठाता थे। आप प्रारत अभिलेख मे चार जैन प्राचार्यों का उल्लेख है जो नागदेव प्राचार्य के शिष्य तथा सेन्द्रक सामन्त सामिया के मूलमघ परम्परा के थे। विशेष कृपापात्र थे । प्राचार्य जिनन्दि का उल्लेख शिवार्य सिद्धनन्दि-त्रिभूवन तिलक जिनालय जिननन्दि के गुरुत्रो में पाता है। इन्ही के चरणो मे अच्छी तरह • के पूर्व प्राचार्यों के वर्णन मे सर्वप्रथम इन मुनि का उल्लेग्व मूत्र और उनका अर्थ समझकर शिवार्य ने "भगवती पागधना" की रचना की थी। इस प्राधार पर यह कहा "भूतस्समग्रराद्धान्तस्सिद्धनन्दि मनीश्वरः" जा सकता है कि जिननन्दि सम्भवत यापनीय सप्रदाय के श्री नपथराम प्रेमी ने इनके यापनोय होने का अनुमान थे और शिवार्य उनके प्रमुख शिष्यो मे रहे होंगे। लगा है। “एरडुकट्ट (चन्द्रगिरि पर्वत पर) वस्ति में ५रामदेवाचार्य- लक्ष्मेश्वर से उपलब्ध शक ६५६ के पर की मति के सिंहपीठ पर उपलब्ध अभिलेग्व में विक्रमादित्य द्वितीय के पाषाण अभिलेख में इन प्राचार्य शभचन्द्र मनीन्द्र की सिद्धान्त परम्परामो मे एक सिद्धनन्दि का उल्लेख मिलता है। यह मूलसंघ को देवगण शाखा के का उल्लेख है जो सम्भवतः मूलसध के देसिग गण और प्राचार्य थे। इनके शिष्य का नाम जयदेव पण्डित था । १६ इ० ए० जिल्द ११ पृ ६५-७१ एवम कर्नाटक अभि- १९६०शि० सं० भाग १ पृष्ठ १४७-१४८ । लेख भाग १ पृ. ४-८।। २० जे०शि० सं० भाग १ पृष्ठ ३३ । १७. जैन शिलालेख भाग १ पृ.१-२॥ २१ जैन साहित्य और इतिहास (प्रेमी) पृष्ठ ६८ । १८ श्री प्रेमी जी, जैन साहित्य और इतिहास पृष्ठ १६७। २२ इ० ए० जि०७ पृ० १०६-७ । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० अनेकान्त अधिक सामग्री इस सन्दर्भ मे उपलब्ध नही है। मानते है, और वह यथार्थ ही प्रतीत होता है । इनके ६ जयदेव पण्डित-शक ६५६ के लक्ष्मेश्वर अभि- द्वारा लिखा गया जैनेन्द्र व्याकरण जैनो का सर्वप्रथम लेख मे विजयदेव पण्डित के गुरू के रूप मे इस जैन पण्डित व्याकरण है। इसके अतिरिक्त सवार्थसिद्धि, समाधितत्र का उल्लेख है। वे मूल संघ की देवगण शाखा की गुरू इप्टोपदेश तथा दशभक्ति आदि ग्रन्थो के भी वह कर्ता परम्परा के थे । हेमचन्द्र ने अपने “छन्दोनुशासन" (१३वी माने जाते है। शताब्दी) मे अनेक छन्द प्रणेता तथा पूर्वाचार्यो का उदयदेव पण्डित--यह पूज्यपाद के शिष्य तथा उल्लेख किया है । उसमे जयदेव का भी नाम प्राता है मूलसघ की देवगण शाखा से सम्बन्धित थे । वह चालुक्य बहुत सम्भव है कि यह जयदेव वही हो । उनकी पण्डित सम्राट् विनयादित्य के पुरोहित थे जैसा कि शक ६५१ के उपाधि से उनके व्याकर्णाचार्य होने की सम्भावना का पता लक्ष्मेश्वर अभिलेख से स्पष्ट है । वे निरवद्य पण्डित, इस लगता है। उपाधि से भी जाने जाते थे । सम्भवत इनका जीवनकाल ७ विजयदेव पण्डित :-यह जयदेव पण्डित के शिष्य ६७५ ई० से ७३० ई० के बीच में रहा होगा। तथा रामदेवाचार्य के प्रशिप्य थे । वे मूलसघ की देवगण १० प्रभाचन्द्र :-अडूर से प्राप्त दोनो बादामी शाखा के प्राचार्य थे। विक्रमादित्य ने शख तीर्थ वमति के चालुक्य अभिलेखो मे पाप का उल्लेख है । वह सम्भवत घवल जिनालय के जीर्णोद्धार के निमिन तथा जिन पूजा गुरुर्गुरू वासुदेव प्राचार्य के शिष्य थे । धर्म , पुण्ड पुत्रज की वृद्धि के लिए कुछ भूमिदान बाहुबलि श्रेष्ठी के आग्रह श्रीवाल जिसने अडूरमे पच्छिलापट्ट स्थापित किया था, इनका पर विजयदेव पण्डित को प्रदान किया था । शिष्य था। प्रभाचन्द्र नाम के अनेक जैन आचार्यों और गुरुयो का उल्लेख, प्राचीन जैन साहित्य और अभिलेखो ८ पूज्यपाद :-चालुक्य राजा विक्रमादित्य के शक में मिलता है। सम्भवत यह वही प्राचार्य है जिनका ६५१ के लक्ष्मेश्वर अभिलेख में " इनका उल्लेख है आप उल्लेख श्री प्रेमी जी ने भी किया है। साक्ष्यो के अभाव चालुक्य सम्राट् विनयादित्य के पुरोहित श्री उदयदेव में अधिक विस्तार में न जाकर इतना निसन्देहात्मक रूप पण्डित के गुरू थे । मूलसघ की देवगण शाखा के प्राचार्यो से कहा जा सकता है कि इन प्रभाचन्द्र की पहचान ६ठीमे उनका अपना विशिष्ट स्थान है सम्भवत. पाप बहावी शताब्दी मे हा प्राचार्य प्रभाचन्द्र स हा का जाना पूज्यपाद है जिनका वास्तविक नाम देवनन्दि था तथा | चाहिए, क्योंकि अडर से प्राप्त अभिलेख पूर्णत प्रामाणिक अपनी बद्धिमत्ता के कारण जा जिनन्द्र बुद्धिकहलाय। है तथा ऊपर बताए गए समय के है। तथा देवो ने उनके चरणो की पूजा की इस कारण उनका ११ वासुदेव :- अडूर से प्राप्त अभिलेखों में प्रभानाम पूज्यपाद पड़ा। चन्द्र के गुरु के रूप में गुरुर्गुरु वासुदेव प्राचार्य का भी यो देवनन्दि प्रथमाभिधानो बुद्धया महत्या स जिनेन्द्र उल्लेख है । इनके ग्रुझ का नाम विनयनन्दि था जो परबुद्धिः । लुग्गण के थे। सम्भवत. यह वही प्राचार्य है जिनका ____ श्री पूज्यपादो ऽजनिदेवताभिर्यत्पूजित पादयुग उल्लेख 'वसुदेव-हिडि' के दूसरे खण्ड मे गणितानुयोग के यदीयम् ॥ कर्ता के रूप मे धर्मसेन गणी ने किया है । ___इनके जीवन काल के विषय में विद्वानो मे मतभेद "अरहंत-चक्कि-वासुदेव-गणितानुयोग-क्रमणि घिट्ट वमुहै। बहुसख्यक विद्वान इनका समय ५वी-६ठी शताब्दी व चरित ति।" इस सन्दर्भ में अभिलेख में अन्य सूत्रों के २३ जैन साहित्य और इतिहाम (प्रेमी) पृष्ठ । प्रभाव में विशेष दृढता के साथ यह मत प्रस्तावित नही २४ इ० ए० जि०७ पृ० ११२ । २६ जैन साहित्य और इतिहास (प्रेमी) पृष्ठ २५ और २५ जैन साहित्य और इतिहास (प्रेमी) पृष्ठ २५ और मागे । प्रागे । २७ जैन साहित्य तथा इतिहास (प्रेमी) पृष्ठ ६५ । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादामी चालुक्य अभिलेखों में वर्णित जैन सम्प्रदाय तथा प्राचार्य २५१ किया जा सकता है। __ है कि चालुक्य साम्राज्य में जैनधर्म का पर्याप्त प्रचार १२ विनयनन्दि :--प्राचार्य विनयनन्दि का उल्लेख था। राजानों की ओर से भी उन्हे उत्साह तथा सहयोग अडर अभिलेख मे मिलता है । इन्हे परलूरगण का अग्रणी मिलता था। इसी धर्म निरपेक्ष दृष्टिकोण के कारण जैन बताया गया है। परलूरगण सम्भवत एक अप्रचलित गण धर्म के परिश्रमी प्रचारक इस क्षेत्र मे जैनधर्म का अनेक था। अत. इन प्राचार्य के विषय मे अधिक सामग्री और शताब्दियों पूर्व प्रचार कर सके थे । इस विषय के मनीपरम्परानों का प्रभाव है । अभिलेख के आधार पर इनका षियो को चिन्तन तथा अध्ययन की पर्याप्त सुविधाएं प्राप्त समय ६ठी-७वी शताब्दी के बीच मे रखा जा सकता है। थीं फलतः वे अपने विश्वास का पूर्ण निष्ठा के साथ प्रचार उपर्युक्त प्राचार्यों के अलावा कुछ अन्य नामो का कर सके । राजवश के अनेक सदस्य उनके सात्विक विचारों उल्लेख इन अभिलेखों मे मिलता है, उदाहरणार्थ-इन्द्र- से पर्याप्त प्रभावित थे । चालुक्य सम्राट विनयादित्य का भूति तथा रविशर्मा इत्यादि । उपलब्ध साक्ष्यो मे इनके पुरोहित स्वयम् एक जैन आचार्य था। इससे राज दरबार विषय मे समग्री का प्रभाव है अत इस सन्दर्भ की कोई में जैन सिद्धान्तो के सम्मान और प्रतिष्ठा का प्राभास निश्चित धारणा बनाना कठिन है। इस प्रकार यह स्पष्ट मिलता है। 'अनेकान्त' के स्वामित्व तथा अन्य व्योरे के विषय में प्रकाशन का स्थान वीर सेवा मन्दिर भवन, २१ दरियागज, दिल्ली प्रकाशन की अवधि द्विमासिक मुद्रक का नाम प्रेभचन्द राष्ट्रीयता भारतीय पता २१, दरियागज, दिल्ली प्रकाशक का नाम प्रेमचन्द, मन्त्री वीर सेवा मन्दिर राष्ट्रीयता भारतील पता २१, दरियागज, दिल्ली सम्पादक का नाम डा० प्रा. ने. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट्, कोल्हापुर डा० प्रेमसागर, बड़ौत यशपाल जैन, दिल्ली राष्ट्रीयता भारतीय पता मार्फत वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागज दिल्ली स्वामिनी सस्था वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागज, दिल्ली मैं प्रेमचन्द घोषित करता हूँ कि उपरोक्त विवरण मेरी जानकारी और विश्वास के अनुसार सही है। १७-२-६४ ह० प्रेमचन्द (प्रेमचन्द) Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एलिचपुर के राजा श्रीपाल उर्फ ईल नमचन्द धन्नुसा जैन (१) अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ के बस्ती मन्दिर मे जो १.६ पर लिखते है-"करकड़ चरित जिनके अनुराग सफेद पाषाण की पद्मावती माता की दिगम्बरी प्रतिमा है, बश बनाया गया था, ग्रन्थकार ने उनका नाम कही भी उनके सामने वहा की सुवासिनी स्त्रिया यह मगल पारती उल्लिखित नही किया। कवि ने उन्हे धर्मनिष्ठ और नित्य गाती है। व्यवहार कुशल बतलाया है। वे विजयपाल नरेश के 'जाउ चला ग सखे, गाउ चला ग सखे, जाउ लवकरी ।। स्नेह पात्र थे। उन्होने भूपाल नरेश के मन को मोहित घेउनी हाती दीपक ज्योती, रत्नखचित हिर माणिक माती कर लिया था। वे कर्णदेव के चित्त का मनोरजन किया देवाची पद्मावती, काय सागू साजणी ग जाउ लवकरी ॥१॥ करते थे ।... भपाल राजाची कन्या सगोनी, श्रीपाल राजाची एका कपाना उक्त राजा गण कब और कहा हा इसी पर यहा गधोद घे ग सखे, मत्रप्रभावना । ग जाउ लवकरी ॥शा विचार किया जाता है-एक लेख में लिखा कि विजय(जसी) सूर्या सुन्दर सती, (तसी) श्रीपाल राजामती।। पाल नरेश विश्वामित्र गोत्र के क्षत्रिय वश मे उत्पन्न हुए प्रसन्न हो ग सखे, मत्रप्रभावना। ग जाउ लवकरी ॥३॥ थे। उनके पुत्र भुवनपाल थे, उन्होंने कलचूरी, गुर्जर और इसमे दूसरा तथा तीसरा भाग एतिहासिक महत्व दक्षिण को विजित किया था। यह लेख दमोह जिले के रखता है । जब श्रीपाल राजा को कुप्ट राग हुप्रा और हटा तहसील में मिला था। जो आजकल नागपुर के विश्राम के लिये उसने श्रीपुर का प्राश्रय लिया था। तब अजायब घर में सुरक्षित है । उसके साथ भूपाल राजा की कन्या थी। जिमने राजा को मग लेख-बादा जिले के अतर्गत चदेले की पुरानी मत्र साधना में साथ देकर तथा कूपजल याने मूति ससग राजधानी कालिजर में मिला है। उसमे विजयपाल के से हा गधोदक उससे स्नान कराकर व्याधि से राजा को पुत्र भूमिपाल का दक्षिण दिशा और राजा कर्ण से जीतने मुक्त किया था । वह कैसी थी? तो जैमी सूर्य को सती, का उल्लेख है। वैसी वह श्रीपाल गजा की रानी थी। उसका नाम राजामती था। मत्र प्रभाव से माता पद्मावती ने राजा को __तीसरा लेख-जबलपुर जिले के अतर्गत 'तीवर' में साक्षात्कार देकर मूर्ति की प्राप्ति कराई थी। । मिला है, इसमें भूमिपाल के प्रसन्न हाने का स्पष्ट उल्लेख श्रीपाल गजाकी रानीके उल्लेख तो अनेक साहित्य में है। है। उनके उतारे यहा देने की आवश्यकता नहीं है। तथा जब स० १०६७ के लगभग कालिजर में विजयपाल नाम दूसरा प्रबल विरोधी प्रमाण हमारे सामने नहीं पाता तब का राजा हुआ। यह प्रतापी कलचरि नरेश कर्णदेव के तक इसको ग्राह्य मानने में कोई आपत्ति नहीं आएगी। समकालीन था। आदि।। तथापि इमके प्रामाण्य के लिए मुनि कनकामर रचित मुनि कनकामर इन सबके समकालीन होने से अगर 'करकडु चरित्र' की प्रशस्ति में उल्लेग्वित 'राजा भूपाल' ये भूपाल और भूमिपाल एक ही व्यक्ति हो तो भूपाल के काल और स्थल पर यदि उचित प्रकाश पडे तो अच्छा नरेश का संबध दक्षिण मे पाता है। अतः उसकी लडकी होगा। उससे श्रीपाल राजा के समदी राजापो की जिसका घरेलू नाम शायद 'संगोनी' हो और ब्याह समय परपरा का पता चल जाएगा। इसके लिए श्री प० परमा- या व्यवहार मे जिसे 'राजा मती' कहते थे, उसकी शादी नदजी शास्त्री 'जन-ग्रथ-प्रशस्ति-सग्रह' द्वितीय भाग पृष्ठ हमारे राजा श्रीपाल से हुई हो तो कोई बाधा नही पाती। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एलिचपुर के राजा श्रीपाल उर्फ ईल २५३ सिर्फ अभी उनके निश्चित समय नथा स्थान और इसको राजा ने एकदम नकार दिया । बाद में राजा को कार्यक्षेत्र पर अधिक प्रकाश पड़ना चाहिए। पूछा गया कि माप अगर विजयी होते तो क्या करते? (२) अब राजा श्रीपाल के गजब का धर्मप्रेम तथा राजा ने उत्तर दिया कि “मै अब्दुल रहमान को वीर और अभिमानी मृत्यु प्रसग का ज्ञान पठक गण को उडा देता। तीक्ष्ण शस्त्रों से उसकी चमडी (खाल)निकालकगते है । यह वार्ता प्रमगवती जिला गजेटियर में उल्ले- कर उसको जला देता। किसी भी तरह का समय न लगाते खित मुसलमानी कथा के अनुमार इस तरह है। हुए इसी तरह की शिक्षा राजा को देने की अब्दुल रहमान "किसी एक समय एक मूमलमानी फकीर एलिचपुर ने आज्ञा दी और उसको एक प्रमुख नरक में भेज दिया। के गजा ईल के दरबार में पहुँचा, पीर उमन राजा को घटना का समय हिजरी सन् ३९२ याने १००१-२ सन् इम्लाम धर्म स्वीकाग्ने को कहा तथा धर्म प्रचार की अनु- ईस्वी है। अब्दुल रहमान गाजो के अनुयायी, जिन्होने मति मागी। राजा ने उमको परत जाने को कहा। लकिन राजा ईल को पकडा था, साधारणत पचपीर या पचपीर उसके हठ के कारण उसके हाथ कटवा दिए। के नाम से प्रसिद्ध थे।" आदि । फकीर ने भारत छोड़ा और अपनी दैन्यावस्था शाह गजेटीयर के अन्त में लिखा है कि, जनश्रुति के अनुअब्दुल रहमान के मामने रखी। रहमान उम ममय गजनी सार इस गाजी का सिर उड़ा दिया गया है। में था, और वह वहा के गजा महमद का भाजा था। उस यह है एक शहीद की पुण्य गाथा, जो खुद मुसलमान समय उमकी शादी का उत्सव मनाया जा रहा था। फकीर खाने रमको प्रमर बनाने के लिा जिवी रा? की वह करण दशा देखकर उसका धर्मप्रेम जाग उठा और गजनी में । कहते है कि उम पर मे 'तवारीब-ई-प्रमजीदया' उसने वह ममारभ बाजु रम्बकर एकदम कित्येक हजार नाम की एक छोटी पुस्तिका पारसी में एलिचपुर के खतीफ मैनिको के माथ बेगर (विदर्भ) की ओर चल पड़ा। ने प्रकाशित की थी। उसके माथ उसकी माता बीबी मलिका-ई जहान भी थी। यहा ऊपर की कथा में एक अमम्भव बात बताई गई उम ममय उत्तर भारत में वकद (Vakad) (बरला है कि अब्दुल रहमान ने अपना सिर कटा लेने पर भी यह शिलालेख के अनुसार जिसका नाम उछद बकल था। जीवित रहा, तथा उसने ईल राजा को भी हगया । गजा राज्य करता था। इसको एक समय ईल राजा ने इमके सत्यामत्य के लिए श्री यादव माधव काल केपगभूत किया था वह अब्दुल रहमान को मिल गया याने 'कहाडचा इतिहास' के लेख का उल्लेख देख ना उचित उसकी इस युद्ध में सहायता की। यह अाक्रमण का हाल है पृष्ठ ७१ पर. गाजी रहमान दुल की और ईल गजा सुनते ही ईल राजा ने सेनापति को उसका प्रतिकार की लडाई हुई। उसमे गजा ईल सौर शाह रहमान दोनो करने को ससैन्य भेजा । दोनो सेनाप्रो की भेंट बेग्ला में ही पड़े । इस लड़ाई में मुसलमानो के ग्यारह हजार सैनिक हुई जो वैतूल जिले में है। प्रारम्भ में मुसलमानो की हार खर्ची पड़े। उन मबको एक जगह गाड दिया गया है। होने लगी। इतने में आकाशवाणी हुई, उममे अब्दुल उम पर एक बड़ा इमाला बधाया है। उनको 'गजशहीदा' रहमान ने उत्तेजित होकर शिर कटा लिया और लड़ने कहते है । दुल रहमान की बडी कबर हाल में ही एलिचलगा। इससे उसके मैनिक भी उत्तेजित होकर लडने पुर में मौजूद है। उमके वर्चा के लिए काइली' यह गाव लगे। उन्होंने हिन्दुओ को लूटा और एलिचपुर तक पीछे अभी तक जहागीर है। यह जहागीर एलिचपुरके नवाब नही देखा। ने दी है । दुल रहमान गाजी की कबर प्रथम अलाउद्दीन खिलजी ने बधायी थी। हाल की इमारत बाद में की है। बहा फिर खुद राजा ईल से सग्राम हुआ, वहा भी । नजदीक ही ईल गजा का गाड दिया है।' प्रादि । ईल पराभूत हुमा और उसने शहर का आश्रय लिया। उसको पकडकर अब्दुल रहमान के सामने लाया गया। ऊपर के उल्लेख से यह तो स्पष्ट हुआ कि रहमान अब्दुल रहमान ने उसको इस्लाम धर्म स्वीकारने को कहा, गाजी इस लड़ाई मे माग गया था। तथा खेरला के पास Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ अनेकान्त गाजी के मड की कबर बनाई जाती है, इससे और मृत्यु हुई। अगर बाण से राजा की मत्यू होती, तो पंच सलमानी कथा से रहमान दुल का सिर खेरला मे ही पीरो से उसका पकडे जाना और स्वाभिमानी मरण यह काटा गया था और उससे उनकी हार हो रही थी। लेकिन घटना झूठी ठहरती । लेकिन राजा के वैसे मरण का स्पष्ट ऐसा लगता है कि उसको मा बीबी मलिका-ई-जहान ने उल्लेख होने से बाण से मृत्यु की कल्पना ठीक नही बैठती। उस समय धैर्य रख कर अपनी सैन्य को उत्तेजित करते जंचता तो ऐसा है कि जब पचपीरो से राजा पकड़ा जा हए कहा होगा कि "अल्ला की आवाज आने से और रहा था, तब एक पीर राजा से आए हुए तीर से घायल अपने को विजय मिलने के लिए दुला रहमान ने अपना हो पडा हो, इमीलिए वह स्थान मुस्लिम लोग पूज्य सिर कटा लिया है और वे दाद मांगने के लिए अल्ला के मानते है। दरबार मे पहुँच गये है। तब क्या आप भाग जानोगे ? इस बात पर विश्वास तो जरूर रखना पड़ता है कि क्या काले मुह वहाँ बतायेगे? क्या आपकी प्रतिज्ञा--- उन पीरो के द्वारा राजा किसी भी तरह पकडा गया और जियेंगे तो इस्लाम के लिए, और मरेगे तो इस्लाम के इस गंधवार्ता को सुनते ही बीबी मलिका ने बचे हुए लिए-आप भूल गये? जय जिहाद की पुकार करो और सैनिको से फिर एकदम हमला कर नगर को कब्जे में कर लडो । अल्ला आपकी मदद करेगा।" लिया हो और विजय की पताका फहगई हो। इम तरह आवाज सुन कर मुस्लिम सैन्य उत्तेजित हई, और रहमान गाजी के गिरने से उनके सैन्य की घब. ऐमी असहाय स्थिति में ईल राजा को इस..:म का डाहट देख कर राजा ईल के सैनिक गाफिल रहे होगे। उपदेश दिया गया । मगर उससे ऐसी स्थिति मे भी स्पष्ट अचानक बीबी मलिका ने उनपर कडाके से हमला किया। नकार पाने से राजा को पूछा गया कि अगर आप विजयी __ अबकी बार ईल राजा के सैनिक पीछे हटे । पीछ। होते और अब्दुल रहमान आपके हाथ पड़ता, तो आप क्या हटने से शायद गजा का सेनापति मारा गया होगा। इस करते ? लिए गजा के सैनिक नेतृत्व के अभाव के कारण एलिचपूर जबाब वही मिला, जो कि ऊपर दिया गया है । धन्य भाग पाये। और इनका पीछा करते हुए मुसलमानो ने है वह राजा, जिमने शरीरपर की खाल उतारनेकी अनन रास्ते में जो मिला उनको लूटा और नष्ट भ्रष्ट किया। वेदना सहन की मगर सच्चे धर्म का परित्याग नहीं किया। जिसने इस एक जीबन का नाश मान्य किया मगर अनत एलिचपुर में मुसलमानो के ग्यारह हजार मैनिक मारे भवो मे दुःखदाई ऐसा भयावह परधर्म नहीं अपनाया । गए, इसपर से ऐसा लगता है कि वहाँ ईलराजा का नेतृत्व इमी का नाम धर्मप्रेम है और इसी का नाम सम्यकत्व है। उचित रहा । शायद इस युद्ध मे ईल गजा ही विजयी हुआ होगा। वयोकि लड़ाई मे पराजित होनेवाला और आश्रय उस धर्मनिष्ठ और वीर राजा श्रीपाल उर्फ ईल को हमारा के लिए शहर मे भागनेवाला राजा पकड़े जाने पर वीरश्री प्रणाम । उसके जीवन से हमे यही सदेश मिलता है कि, पूर्ण तथा स्वाभिमानी उत्तर नहीं दे सकता था। वीर युद्ध अात्महितेच्छु जीव किसी भी परिस्थिति में धर्म का त्याग मे ही मरण स्वीकार करते है। अतः युद्ध मे सरलता से नहीं करते। उलटा प्रसंग बीतने पर प्राण की बाजी लगा विजय न मिलती देख बीबी मलिका ने युद्ध को समाप्त कर धर्म की रक्षा करते है। तो क्या अभी हम उसी ईल राजा के निर्माण किये हुए इस श्रीअतरीक्ष पार्श्वनाथ तीर्थ होने की घोषणा कर कूटनीति अपनाई होगी। की रक्षा नही कर सकेंगे? करेंगे, करेंगे, अवश्य ही करेगे। एलिचपुर के कमानपुरे मे एक देवडी में बाण की निशानी बताई है। यह स्थान मुसलमान पूज्य मानते है। १ दुला रहमान की कबर एलिचपुर में है, इसका अर्थ बाण की निशानी गाँव मे से बाहर की ओर बताई है। यही कि उसके शव को वहाँ गंज शहीदा के पास जनश्रुति तो यह है कि यहाँ ईल राजा की बाण लग कर दफना दिया है। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'वैधता और उपादेयता' डा. प्रद्युम्नकुमार जैन स्याद्वाद मिद्धान्त की आलोचना करते हा कतिपय निष्कर्ष की वैधता प्राधार को सापेक्षता का विषय है। ममीक्षको ने कुछ भौडे आरोप भी लगाए. जिनमे से एक वैधता प्राधार-निष्कर्ष सापेक्ष होती है। यहाँ 'गांधी भारतो यही कि 'जैन स्याद्वाद के अन्तर्गत 'यह भी सत्य है' तीय है' बाक्य एक वैध निष्कर्ष के रूप में नहीं बिठाला कि रट लगा कर यह प्रदर्शित करते है कि उन्हे किसी जा सकता, जबकि वही निम्नलिखित तक में वैधरूप में मत्य पर निश्चय नही। वे महा अनिश्चय के शिकार है। कहा जा मकता है - एब जब उन्हे किमी कथन पर निश्चय ही नही, तो फिर (२) सब गुजराती भारतीय है, वे कैसे निर्णय कर सकते है कि जीवन-विकास के लिए और गांधी गुजगती है, क्या उपादेय है। जब उपादयना की उनके समक्ष कोई अत गाँधी भारतीय है। सम्बोधना नही, तो फिर सम्यक् जीवन-प्रणाली की इस प्रकार वैधता की एक निश्चित सीमा है। वह एक सम्भावना कमे और कैसे सद्धर्म की स्थापना भी। उनके ताकिक इकाई में पाबद्ध है । वह अपनी तार्किक इकाई से मनानमार जिम कथन मे अनिश्चय है वह वैध नही हो तदाकार है और उमकी प्रात्मा है। ताकिक इकाइया मकता। जो वैध नही है वह उपादेय नही हो सकता अनन्त है, प्रत वंधता, माम्बोधनिकः अस्तित्व में एक अस्तु, स्याद्वाद उपादेय तत्त्व से रहित है। होते हा भी अस्तित्वगतता के क्षेत्र में अनन्न है। इस अब, पूर्व पक्ष में जो तक प्रक्रिया प्रस्तुत की गई उसे प्रकार प्रत्यक अस्तित्वगत वैध इकाई अपन मे मालिक यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए, तो उसमे दो भिन्न सम्बा- पार यथाथ है। उस मोलिक और यथार्थ का ही यह धनायो को एकार्थक समभन की भल स्पष्ट दिखाई पडगी। परिणाम है कि उपर्युक्त तक म०१ का निष्कर्ष केवल वे दो सम्बोधनाएँ है-वैधता और उपादेयता। क्या वैध उमा तक म वध है, दूमर तक में नहीं । उमा प्रकार तक है ? क्या उपादेय है ?-वे दोनो दो भिन्न-भिन्न प्रत्यय स० २ का निष्कर्ष उसी में वैध है, स०१ मे नहीं। क्षेत्रों के प्रतिनिधि वाक्य है। वैधता का क्षेत्र है न्याय अस्तित्वगत इकाइयों की इसी मौलिक और यथार्थ वैधता (Logic), और उपादेयता का क्षेत्र है नीति (Ethies), की अभिव्यक्ति स्याद्वाद का सिद्धान्त करता है। दोनो मम्बोधनाएँ भिन्न-भिन्न क्षेत्रो में रहती हई भिन्न स्याद्वाद के अनुमार गाँधी मरणशील हे' कथन कथरूप से अस्तित्वगत भी होती है। वैधता उस ताकिक चित बंध या मत्य है, क्योकि उसकी अपनी अस्तित्व गत स्थिति का दूसरा नाम है जो एक न्याय-प्रक्रिया में प्राधार मीमा है। उम भीमा के परे वह मन्य नहीं हो सकता। (Premises) पोर निष्कर्ष (Conclusion) की पारम्प अब इसी वाक्य का विरोधी वाक्य भी निम्नलिखित रिक सगति में उपलब्ध होती है; यथा तार्किक इकाई में कर्थाचत सत्य की काटि में प्राता है . (३) मब यशस्वी प्रात्माएँ अमर है, (१) सब मनुष्य मरणगील है, और, गांधी एक यशस्वी यात्मा है, और गाँधी मनुष्य है; अन , गाँधी अमर है। अतः, गांधी मरणशील है। इम प्रकार स्याद्वाद के अनुसार 'गाँधी मरणशील है' और यहाँ 'गाँधी मरणशील है वाक्य वैध है, क्योकि वह 'गाँधी अमर है' दोनो कथन, यद्यपि निरपेक्ष दृष्टि से ऊपर के दोनो आधार-वाक्यो से सगत है। इस प्रकार विरोधी है किन्तु अपनी-अपनी सापेक्ष इकाइयो में कय Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ अनेकान्त चित वैध हैं। इन कथनी को कथचित वैध कहना अनिश्चय तुरन्त उसके अाधारभूत मूल्य में जाना पडेगा और देखना का द्योतक कहाँ हुआ? इस कथचितता मे तो यह दृढ होगा, कि उक्त निष्कर्ष अपने आधार से वैध रूपेण निगनिश्चय निहित है कि अपने-अपने आधार की दृष्ट्या मित हुआ है। वैधता इस प्रकार उपादेयता को निर्णायिक प्रत्येक निष्कर्ष निश्चयपूर्वक सत्य है। इस प्रकार बंधता है। दोनो नत्व महजात है। हिसादि धर्म उपादेय है; सापेक्षता का उपसिद्धान्त (Corollary) है। कोई वैध क्योकि व निर्वाण नामक मूल्य में वैध रूपेण निगमित है वाक्य निरपेक्ष रीति से प्रकट किया ही नहीं जा सकता। किन्त हिमादि को उपादेय उम हालत में नहीं कहगे जब साथ ही साथ कोई भी निरपेक्ष रीति से कथित वाक्य तितके मद में रखा जाएगा। गा.विजय के किसी दूसरे वाक्यकी वैधता, चाहे वह कितना ही विरोधी आधारसे वैधरूपेण हिमा को ही निगमित किया जा सकता क्यो न लगे, बाधित नही कर मकता, क्योकि निरपेक्ष है । अतः उपादेयता के लिए दो पूर्वापेक्षाएं आवश्यक है। रामपाले रीति के वाक्य तर्कबुद्धि से अनुगत नही होते, बल्कि पहली-मल्यगत सदर्भ और दमरो मदर्भ से निगमित किमी प्रास्था के विषय होते है, जो वैध और अवैध की निष्कर्ष की सगाँन । प्रस्त. उपादेयता स्याद्वाद का विषय कोटि मे नही पाते । सार रूप में, वध कथन वह है जो और उसमे कोई प्रनिटिजनता नटी । म्याटाट प्रत्येक अपने प्राधार से मगत हो और अवैध बह, जो अपने प्राचारिक कृत्य का ताकिक प्राधार है। वह प्रत्येक कृत्य सामान माघार से सगत न हो। 'गाँधी मग्णशील है' वाक्य अपने का, चाहे वह कितना ही माधारण क्यों न हो, विवेक या माघार की दृष्टया वैध है तथा अन्य प्राधागं की अपेक्षा 'क्यो' प्रस्तुत करता है। व्यक्ति उपवास करना है; भक्ति अवैध । ऐसे ही अन्य निष्कर्ष-वाक्यो के बारे में भी । इम करता है, उपासना करता है, आदि आदि स्याद्वाद उन प्रकार एक ही कथन कथचित असन्य भी। यही स्याद्वाद सभी पर पहले प्रश्न चिह्न खीचना है कि यह क्यो ? सिद्धान्त का आशय है। उत्तर में धार्मिक अन करण कहता है, कि यह सब मोक्ष इस प्रकार वैधता शुद्ध रूपेण वैचारिक मगति का के लिए । तो फिर म्याद्वाद विवेक का रचनात्मक स्वरूप अभिज्ञान है । एक निर्णय में दूसरे निणय का गीतबद्ध प्रस्तुत करता है, कि क्या यह मारे क्रियाकलाप मोक्ष से निगमन वैधता का प्रकाशन है। वैधता का क्षेत्र प्रत्यय वैधरूपेण मगत है ? तब प्रत्येक कार्य की वैधता निर्णीन जगत है । उपादेयता वैधता के क्षेत्र मे कुछ विलग पडती कर वह उसे मुल्य मापेक्ष और उपादेय घोषित कर देता है। उपादेयता का क्षेत्र मूल्य-जगत मे है । मूल्य जीवन- है। इस घोषणा में कहाँ अनिश्चितता है और कहाँ अनुपाव्यष्टि और समष्टि दोनो, की वह मापेक्ष वस्तुस्थिति है देयता - यह समझ में नही पाना । जो काम्य है। इमी काम्य वस्तुस्थिति की मापेक्षता में - कुछ का विचार है कि धर्म और प्राचार के लिए एक उपादेयता का निर्णय होता है। जैसे निर्वाण एक मूल्य, निश्चित और अपरिवर्तनीय दर्शन की आवश्यकता होती शायद चरम मूल्य है। निर्वाण की वस्तुस्थिति कामना का है। उसे चाहे ताकिक दप्टि मे निरपेक्ष कहा जाए या चरम अधिकरण है। उस निर्वाण की दिशा में प्रवर्तित , एकान्त, धर्म प्रवर्तन मे है उमीकी आवश्यकता । जैन दार्शयदि कोई कार्य-व्यापार है, तो उसे उपादेय कहा जाएगा। निको का यहाँ कुछ मतभेद है। उनकी निगाह मे कोई धार्मिक चारित्र उक्त मूल्य का सवाहक है । अन वह निरपेक्ष (Absolute) कथन बुद्धि मम्मत नहीं हो उपादेय है । इसी प्रकार उपादेयता की अनेक कोटियाँ बन मकता । वह केवल किमी अनुभूति की ही अभिव्यक्ति हो जाती हैं, क्योंकि मूल्यों की अनेकानेक कोटियाँ है । कहने सकती है। जैसे कि यदि हम 'गॉधी मरणशील है' वाक्य का तात्पर्य यह है कि उपादेयता मूल्य-सापेक्ष है। बिना किमी आधार का सदर्भ लिए व्यक्त करे, तो यह उपादेयता इस प्रकार एक निष्कर्ष है जो मूल्यों के किसी व्यक्ति या समूह की अनुभूति का ही बिषय होगा। आधार से निगमित होता है । कोनसा कार्य-व्यापार उपा- इसे वैध या अवैध नही कहा जा सकता। वैध यह तभी देय है-यह निरपेक्ष रीति से तय नहीं हो सकता । हमे होगा, जब इसे 'सब मनुष्य मरणशील हैं, प्रादि वाक्यो Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन के काव्य में नीति २५७ के संदर्भ मे परखा जाए । और जब तक कोई कथन वैध पा सकता । प्रागे चलकर फिर ऐसे ही वास्तविक रूपमें नहीं होगा, वह उपादेय नहीं हो सकता; क्योंकि वैधता हो गये अवैध निर्णय जब पाचार के मन स्तम्भ बन जाते का तात्पर्य है निष्कर्षगत सत्य की प्राधारगत सत्य के साथ है तो वे अधविश्वास का रूप धारण कर लेते है । स्याद्वाद संगति; और जब तक ऐसी संगति उपलब्ध नहीं होगी, रूपी विवेक इसीलिए उपादेयता का अनन्य सहचर है। आधारगत सत्य की पृष्ठभूमि में निष्कर्षगत सत्य वस्तुतः उसे धर्म से अलग नहीं किया जा सकता। धर्म प्रधकाम नही कर सकता है । जब वह काम नही कर सकता, विश्वासो की नुमायश नहीं है । वह ज्ञान और विवेक का तो वह उपादेय भी नहीं कहा जा सकता। यह बात दूसरी उन्नायक है । वह जीवन मूल्यों का सर्जक है। मोक्ष उन है, कि कोई किसी कथन को सदर्भगत माघार की पृष्ठ- मूल्यो की शृखला में सर्वोच्च मूल्य है। जैनधर्म और भमि मे परखे ही नही और उसे सही मानकर पाचरण प्राचार का लक्ष्य-विन्दु वही सर्वोच्च मूल्य है जो स्याद्वादी का मानदण्ड बना ले; लेकिन यह निश्चित है, कि वह विवेक के बिना सम्भव नही। अस्तु, स्याद्वाद सर्वोच्च कथन आचरण मे उपादेय तभी होगा जब वह वस्तुतः उपादेयता का अधिकरण है। वैध होगा। उदाहरण स्वरूप अहिंसा को ही ले । अहिंसा सार रूप में :नामक सत्य तभी उपादेय है जबकि वह चित्तशुद्धि और वैधता निष्कर्ष-प्राधार-सापेक्षता मे अनुव्याप्त तार्किक निर्वाण-प्राप्ति की भूमिका मे आचरित होता है। चित्त- सगति का दूसरा नाम है। शुद्धि की भूमिका मे अहिंसा एक वैध निष्कर्ष है। अब उपादेयता मूल्य-सापेक्षतामे किया गया वैध निर्णय है। यही पर कोई निर्वाण-प्राप्ति के सदर्भ में हिंसा का उपदेश उपादेयता वैधता के बिना सम्भव नही । करे, तो इस निर्णय को कोई कितना ही एकान्त या निर- स्यावाद वैधता की एजेसी है। पेक्ष क्यो न माने, वह उपादेय निर्णय की कोटि मे नही अस्तु, स्याद्वाद उपादेयता का अधिकरण है। 'बुधजन के काव्य में नोति' गंगाराम गर्ग' एम. ए. कवि एक सामाजिक प्राणी है। वह केवल अपनी पारस्परिक कलह, वैमनस्य, विद्रोह, गोषण व परतत्रता के काल्पनिक दुनिया में ही उडान नही भर सकता; उमे काल मे तुलमी और मैथिलीशरण जैसे भारती के प्रसर लोकोन्नति की दष्टि से भी अपनी कृति को उपादेय बनाना गायक ही मन मे शान्ति व एकता तथा प्राणो मे वीरता होता है। जीवन से घनिष्ट सम्बन्ध होने के कारण जीव- का मत्र फूक देने में समर्थ हुए है। उनका युग-युगीन नोपयोगी बातें बतलाना उसकी कविता का प्रमुख लक्ष्य साहित्य चिरकाल तक भारतीय जीवन का प्रतिनिधित्व बन जाता है। कोरा उपदेश बुद्धि-ग्राह्य होने के कारण करता रहेगा। मनुष्य को सुधारने में सफल नही होता; क्योकि काव्यगत जैन-रचनाए भारतीय नीति-काव्य को प्रक्षय राशि नीति तत्त्व हृदय को स्पर्श करने के कारण व्यक्ति के कटु है। जैन-धर्म की प्राचार-प्रधानता के कारण जैन साहित्य स्वभाव-परिवर्तन अथवा लोकोन्नति मे अधिक प्रभावशाली में भी नीति उक्तियाँ प्रधान लक्ष्य बन कर पाई है। मध्यसिद्ध होता है। काव्य-सागर में निमग्न व्यक्ति शन. शनै कालीन हिन्दी काव्याकाश मे तुलसी, विहारी, रहीम व कवि की विचारधारापो से प्रेरित होकर स्वतः जीवनोः वृन्द के समान बनारसीदास, द्यानतराय, भूधरदास व बुधपयोगी पथ की ओर उन्मुख होता है। यही कारण है कि जन आदि जैन कवि भी उन नक्षत्रो में से है जो अपने Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ अनेकान्त विवेक-आलोक से अज्ञानान्धकार में भूले बटोहियों का पथ विपत मेंटिये मित्र की तन धन खरच मिजाज । प्रशस्त करते रहे है तथा आगे भी करते रहेगे। काहूंबांके बखत में करहै तेरौ काण ॥४५०॥ बघजन जैन-काव्य में सर्वाधिक सम्मानप्राप्त नीति- मखते बोले मिष्ट जो उर में रावं घाल। कार है। इन्होंने यर्याप तत्त्वार्थबोध, योगमार भाषा, मित्र नहीं वह दुष्ट है तुरत त्यागिये भात ॥४५॥ दर्शन पच्चीसी आदि कई ग्रन्थो की रचना की किन्तु नैतिक बुधजन ने यति, लखपति, बालक, जुपारी, चुगलखोर, उद्भावना की दृष्टि से इनके 'पद-सग्रह' और 'बुधजन- चोर तथा नशेवाज व्यक्ति को मित्र बनाना बुरा बतसतसई' दो ग्रन्थ अधिक महत्त्वपूर्ण है। 'पद-सग्रह' में लाया है। विभिन्न राग-रागिनियो मे २४३ पद है। 'बुधजन-सतसई' विद्या-परम्परागत नीनिकारो की तरह बुधजन भी में 'देवानुगग शतक' सुभापित नीति, उपदेशान्धकार तथा विद्या को खर्च करने से वढनेवाला एवं अमूल्य धन तथा विगग-भावना चार विभागो मे ६६५ दोहे है। बुधजन ने । सम्मानदात्री वस्तु मानते है। उन्होने विद्यार्थी के अल्प दया, मित्र, विद्या, सतोष, धैर्य, कर्म-फल, मद, समता, भोजन व वस्त्र; कम निद्रा; आलस्य का परित्याग कर लोभ, धन व्यय वचन, द्यूत, मास, मद्य, पर-नारी-गमन, विद्या-चिन्तन करते रहना तथा खेल-तमाशे से दूर रहना वेश्या गमन, स्त्री आदि विषयो पर नीतिपरक उक्तिया चार लक्षण बतलाए हैकही है। प्रलप वसन निद्रा अलप ख्याल न देष कोर। ___ 'दया-नीतिकार नारद ने क्षुद्रतम जीवो की भी पालस तजि घोखत रहै विधारथी सोइ ॥४३३॥ पुत्रवत् रक्षा अनिवार्य एव सर्वोत्तम बतला कर दया का राजपुत्र के अनुमार विद्या की सार्थकता के लिए नदबडा महत्व दिया है।' बुधजन भी दया को पट्दर्शनो का नुकूल आचरण करना व्यक्ति का धर्म है। यही बुधजन सार तथा समस्त जप, तप की सार्थकता के लिए अनिवार्य कहते हैमानते है। उन्होने दयालु व्यक्ति को अपना निकटतम जो पढ़ि कर न पाचरण नहिं कर सरधान । व परम हितपी तथा मन-वचन-काया से वन्दनीय समझा ताको भणिवो बोलिवो काग वचन परमान ।४३१॥ मित्र-- जैमिनि ने सुख-दुख मे समान स्नेह करनेवाले संतोष-अपनी विविध अभिलपित वस्तुओं को साथी को मित्र कहा है। बुधजन मित्र के सम स्नेह से ही अप्राप्य देख कर दु.खी न होना तथा अपनी वर्तमान स्थिति सतुष्ट नहीं हो जातं अपितु सूख-दु.ख मे उसका सम्यक मे ही प्रमन्न रहना सतोष कहलाता है । सतोप न होने परामर्श भी चाहते है। उनकी दृष्टि में मित्र का परामर्श देने का मूल कारण तृष्णा है। मुन्दर कवि ने तृष्णा को बिगडे कामो को सुधारनेवाला, अनीति और व्यसनो से दुःख व सतोष को सुख का कारण कहा है। यही बुधजन बचानेवाला तथा सशयों को दूर करनेवाला होता है। की भी धारणा है।" बधजन सर्व बाघापो से अच्छे मित्र की सहायता तथा शोक कोई विपत्ति आ जाने पर दुःखी रहना शोक कुमित्र के परित्याग का उपदेश देते है : है। शोक को भारद्वाज ने शरीर-शोषक तथा कौशिक ने १ पं० मुन्दरलाल शास्त्री द्वारा अनूदित नीति वाक्यामृत ६ वही, दो० ४४७ । पृ० १७॥ ७ वही, दो० ४२७, ४२४ । २ बुधजन पद-सग्रह, पद १७४ । ८ अनु० सुन्दरलाल शास्त्री, नीतिवाक्यामृतम् पृ० ३० । ३ दुधजन सतसई, दो० १६४ तथा बुधजन पद-सग्रह, गगाराम गर्ग : 'तुलसी का नीति-दर्शन' को पाण्डपद १७४। लिपि, पृ० ४१ । ४ अनु० सुन्दरलाल शास्त्री, नीति वाक्यामृत, पृ. ३०३। १० अनु० सु० लाल शास्त्री : नीतिवाक्यामृतं, पृ० ३४५। ५ बुधजन सतसई, दो० ४३६, ४४१, ४४२ । ११ बुधजन पद-संग्रह, पृ० ५२ । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधवन के काव्य में नीति २५९ धर्म प्रादि को त्रिवर्ग का नाशक बतलाया है ।"शोक के बुधजन की दृष्टि मे अधिक बोलना भी उचित नहीं। विषय मे लगभग यही विचार बुधजन के है वह तो कहते हैं कि जितने परिमित तथा हितकारी वचन सोक हरत है बुद्धि को सोक हरत है धोर। कहे जाए उतना अच्छा । बुधजन अवसर बिना बोलने सोक हरत है धर्म को सोक न कीजै वीर ।२७१॥ को मान का विनाशक बतला कर अवसर पर ही बोलना विपत्ति को दूर करने का सबसे बड़ा उपाय है निवि- उचित समझते है। कल्प मन से उसके लिए यत्न करना। मन पर पड़ी दुख त -भारतीय नीतिकारो ने चुत को भी वयं कहा की छाया मनुष्यको इस ओर प्रेरित नही होने देती इस तरह है। न जुमारी के तिरस्कार की चर्चा करते हुए कहते है विपत्ति सर्वदा बनी रहती है। अतः कवि का कहना है कि- कि प्रेमपूर्वक नीवी खीचने पर पत्नी भी जुमारी पति से विपति पर सोच न करौ को जतन विचार ।३०॥ इमलिए दूर भागती है कि वह कहीं मेरे वस्त्रो को भी न घन-सस्कृत नीतिकारो ने स्थान-स्थान पर धन को छीन ले व मुनन्दि के अनुमार जुआ में प्रासक्त मनुष्य सर्वगुणसम्पन्न कहलाने वाला बतलाते हुए उसकी महिमा खाने की परवाह नही करता, रात-दिन सोता भी नही, गाई है। सोमदेव मूरि के अनुसार धनवान् व्यक्ति ही किसी भी काम मे उमका मन भी नही लगता तथा सर्वदा महान् और कुलीन है।" बुधजन भी धन के प्राधिक्य को चिन्ताकुल रहता है। उक्त नीतिकार-द्वय के समान बुधसौन्दर्य, बल, बुद्धि, धैर्य तथा हितैपियो को समाज मे बढाने जन भी जुआरी के परिजनों द्वारा तिरस्कार तथा शारीवाला बतला कर उमका महत्व स्वीकार करते है।" रिक दुव्यवस्था की चर्चा इन पक्तियो में करके जुमा को किन्तु वह अधर्म, क्लेश व दीनता के साथ लिए धन-मग्रह हेय ठहराने हैको बहन अनुचित भी मानने है ज्वारी को जोड़ तज तजं मातु पितु भ्रात। धर्म हानि संक्लेश प्रति शत्रु विनय करि होय । द्रव्य हरं बरज लर बोले बात कुबात।४५५॥ ऐसा धन नहिं लीजिए भूखे रहिए सोय ।१७२॥ प्रसुचि प्रसन को ग्लानि नहीं रहै हाल-बेहाल । परम्परागत नीतिकारो की तरह बुधजन ने जहाँ धन तात मरत हूँ रत रहै तर्ज न भूमा ख्याल ।४५८॥ के बहुत से लाभ गिनाये वहाँ दो बड़ी हानियो की और बुधजन के अनुसार जुना से केवल परिजनो द्वारा भी संकेत किया है। एक तो उसकी अस्थिरता, दूसरी तिम्रकार तथा ग्यान, पान एव परिधान की अशुचिता ही सर्वदा उसके अपहरण की चिन्ता का बने रहना।" नही मिलती अपितु धन, धर्म या व सुवृत्तियों का विनाश वचन-भारतीय नीति-साहित्य में कटु वचन की बडी भी देखा जाता है। निन्दा की गई है। दशवकालिक मे कठोर, पर-पीड़क, शिकार एवं मांस-भक्षण-प्राचीन नीनि-ग्रन्थों मे सत्य-वचन कहना भी पाप के पाश्रव का कारण बतला कर शिकार-विगेधिनी अनेक उक्तिया मिलती है। व्यास के उसे वजित समझा गया है। बुधजन समस्त मनुष्यो को अनुसार निग्पगध प्राणियों के बधिक की समस्त पुण्यअपना परिजन मानने व उनसे कर्कश वचन कहने का परि क्रियाये क्षीण हो जाती है एवं उनको आपत्तिया बढ जाती त्याग करने पर बड़ा बल देते है हैं।" उत्तगयण में भय और बैर से उपग्त हुए मनुष्य के राम बिना है मानुष जेते भात तात सम जान। जीवन के प्रति ममता रखनेवाले सभी प्राणियों को अपने कर्कश वचन वर्क मति भाई फूटत मेरे कान ।" १८ बुधजन सतसई, दो० २१७ । १२ अनु० मुन्दरलाल शास्त्री : नीतिवाक्यामृत, पृ०३४१ । १६ वही, दो० २२१। १३ अनु० सुन्दरलाल शास्त्री . नीतिवाक्यामृतं, पृ०२६५। २० अनु० सुन्दरलाल शास्त्री, नीतिवाक्यामृतं, पृ०१८ । १४ बुधजन सनसई, दो० १७० । १५ वही. दो०५१६ व १०७। २१ उत्तरायण, ६-७। १६ दशवै कालिक, पृ. ७-११ । २२ वही, दो० ४५४ । १७ बुधजन पद-सग्रह, पद ५७ । २३ अनु० सुन्दरलाल शास्त्री, नीतिवाक्यामृत, पृ० १५ । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० अनेकान्त समान जान कर उनकी हत्या के लिए मना किया है।" निपट कठिन पर तिय मिलन मिल न पूर होस । बुधजन भी निर्जन वन मे घूमते हुए भूखे-प्यासे तथा मूक लोक लरं नप बंड कर परे महत पुनि बोस ।४६३॥ पशुभों के पेट में छुरी भोंक देने को बुग कहते है ऊंचा पर लोक न गिन कर पाबा दूर । निरजन वन घन में फिर मरं भूख भय हान । मोगुन एक कुसोलतं नास होत गुन भर ४९४॥ देखत ही धुंसत छुरी निरबह प्रथम प्रजान ।४८०॥ वेश्या-मन-शुक्र गुरु", हारीत प्रादि सभी प्राचीन उनका कहना है नीतिकारो ने वेश्या-प्रेम की बड़ी भर्त्सना की है । गुरू के प्रान पोषना धर्म है, प्रान नासना पाप ।४५४॥ अनुसार शील और परिजनो से परित्यक्त होकर ही वेश्या दूध, घी, फल प्रादि मिष्ट तथा पौष्टिक पदार्थो को की अभिलापा सतुष्ट की जा सकतो है।" हारीत ने त्याग कर अपने मांस की पुष्टि के लिए अन्य पशुओ का वेश्या-गमन को सुख और धन के क्षय का कारण कहा मास खानेवाले मनुष्यों को बुधजन मधम' की सजा है। बुधजन ने भी वेश्या को सर्वस्वहीनता और दुःख का मूल बतलाया है। ___मद्य-मद्य एक नशीली वस्तु है । बसुनदि के विचार हीन बीन ते लीन ह सेती अंग मिलाय । से नशे में बेसुधि कारण शरावी अपने अपहृत धन के लिए लेती सरबस संपदा, देती रोग लगाय।४७४॥ भटकता रहता है, उसे निन्दनीय काम करने में भी कोई जे गनिका संग लोन है सर्व तरह से लोन । चूक नहीं होती।" शुक्र के मतानुसार तो नशे में उन्मत्त तिनके कर ते खावना धर्म कर्म सब छीन ।४७५ ॥ कुलीन पुरुप भी अपनी मा के सेवन को भी अनुचित नहीं उक्त नीति-विषयो के अतिरिक्त बुधजन ने काम-क्रोध मानता ।" मद्यप के शरीर की बेमुधि व उचित-अनचित को निर्लज्जता व अज्ञान का कारण", ममता को दुःख के ज्ञान की न्यूनता के विषय में बुधजन के भी उक्त की नीव", कुसग को प्राणो का नाशक" बतलाकर अग्राह्य नीतिकारो जैसे ही विचार है कहा है। युवापन, जीवन व धन की क्षण-भगुरता दिखला दारू को मतवात में गोप बात कह देय । कर मद की अ-यथार्थता भी प्रमाणित की है। पीछे बाका दुःख सहै नुप सरबस हर लेय ।४७०॥ मागश में कहा जा सकता है कि बुधजन ने जीवनके मतवाला हूंबावला चाल चाल कुचाल । विविध विषयो पर जहाँ बसुनदि, हारीत, शक्र, गुरू, जा तं जावं कुगति मै सवा फिर बहाल ।४७१॥ पुत्रक प्रादि प्राचीन नीतिकागे के समान विचार पर-नारी-गमन-भारतीय नीतिकारो मे ऋषि पुत्रक प्रकट किए है वहाँ उन विषयो को अपनी मौलिक दृष्टि भी ने पर-नारी-गमन का दुप्परिणाम दरिद्रता व अपयश प्रदान की है । 'पद-सग्रह' व 'बुधजन सतसई' मे विवेचित तथा गौतम ऋषि ने दुःख, बन्धन और मरण" कर कर उनको नीति-परक उक्तियां जोवन-पथ पर डगमगाते उसको वजित समझा है। कवि बुधजन भी उसे गुण, मनुष्यो को सर्वदा सम्बल का काम करती रहेगी, प्रत सम्मान तथा यश का विनाशक बतलाकर सदोष ठहराते कवि बुधजन सर्वथा प्रशंसा व कीर्ति के पात्र है । ३० अनु० सुन्दरलाल शास्त्री : नीतिवाक्यामृत, पृ. ३६५ । २४ उत्तरायण, ६-७ । ३१ वही, पृ० ३५३ । २५ वही, दो० ४६२ । ३२ वही, पृ० ४६ । २६ बसुनदि श्रावकाचार, ७३ । ३३ बुधजन सतसई, दो० ६७२, ६७३ । २७ अनु० सुन्दरलाल शास्त्री : नीतिवाक्यामृतं पृ० २४४ । ३४ वही, दो० ५४४ ।। २८ 'नीतिवाक्यामृत', पू० ५६ । ३५ बुधजन सतसई, दो० ३८३ । २६ वही, पृ० ५६। ३६ बुधजन पद-सग्रह, पद १२७ । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्गप्रकाशकका प्रारूप बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री-परमानन्द शास्त्री श्रीप० टोडरमल जी के द्वारा विरचित मोक्षमार्ग- श्री ५० टोडरमलजी द्वारा लिखित इस प्रति में काटा प्रकाशक यह एक बहुत उपयोगी ग्रन्थ है। ऐसा कोई कूटी करके जहाँ-तहाँ पर्याप्त संशोधन किया गया है विरला ही स्वाध्यायप्रेमी होगा जिसने इस ग्रन्थ का स्वा- (इमके लिए सोनगढ सस्करण व दिल्ली सस्करण के प्रारभ ध्याय न किया हो। ग्रन्थ के नामानुसार ही इसमे मोक्ष- मे दिए गए उक्त प्रति के प्रारम्भिक व प्रन्तिम पत्रों को मार्ग को प्रकाशित करनेवाले तत्वो की चर्चा निश्चय और देखा जा सकता है। साथ ही वह अपूर्ण भी है. जहाँ व्यवहार के प्राथय से बहुत ऊहापोह के साथ की गई है। तहाँ उसमे अन्य लेखकों के द्वारा लिखित पत्र भी सम्मिइसकी रचना पण्डितजीने पचासो जैन-अजन ग्रन्थोके गभीर लित किये गये है। प्रति की जो परिस्थिति है उसे देखते मध्ययन के पश्चात् मौलिक रूपमे की है। दुर्भाग्य यह रहा हुए यदि यह कहा जाय कि यह उस मोक्षमार्गप्रकाशक है कि वे उसे पूरा नहीं कर सके और बीच में ही काल- का अन्तिम रूप नही है, किन्तु प्राग्रूप या कच्ची कापी कवलित हो गये। इससे उन्होने यत्र तत्र जिन अनेक जैसा है, तो यह अनुचित न होगा। बहुधा ऐसा हमा भी महत्त्वपूर्ण विषयो के आगे विवेचन करने की जो सूचना करता है कि यदि कोई महत्त्वपूर्ण निबन्ध आदि लिखना है की है तदनुसार उनका विवेचन हो नहीं सका। तो पहिले उसकी कच्ची कापी (Rough) करके उसे तैयार कर लिया जाता है और तत्पश्चात् उसे अन्तिम इस ग्रन्थ के कितने ही सस्करण प्रकाशित हो चुके है। रूप (Fair) मे लिख लिया जाता है। तदनुसार ही यह वर्तमान में (वी०नि०म० २४६३) इसका एक नवीन पडित जी के द्वारा मोक्षमार्गप्रकाशक का पूर्व रूप तैयार सस्करण शुद्ध हिन्दी में अनूदित होकर जैन स्वाध्याय मदिर किया गया है। इसपर से वे उसे अन्तिम रूप मे लिखना ट्रस्ट सोनगढ की ओर से प्रकाशित हुआ है। उसकी चाहते थे। पर दुर्भाग्यवश या तो आकस्मिक निधन के अप्रामाणिकता और प्रामाणिकता के सम्बन्ध मे इधर समा कारण वे उसे लिख ही नही सके या फिर यदि लिखा चारपत्रो में परस्पर विरोधी कुछ लेख प्रगट हुए है । इसके गया है तो कदाचित् जयपुर में उसकी बह प्रति उपलब्ध पूर्व सस्ती ग्रन्थमाला कार्यालय दिल्ली से भी उसके चार सस्करण प्रगट हो चुके है। इसका सम्पादन' हम दोनोमे से १ मूल प्रति के प्रारम्भ के १५ पत्र (फोटो प्रिंट पृ. एक (परमानन्द शास्त्री के द्वारा हुआ है। उसका आधार १०६) दूसरे लेखक के द्वारा लिखे गये है। इनमें प्रायः प. टोडरमलजी के द्वारा स्वय लिखी गई प्रति को प्रत्येक पत्र में अक्षर-मात्रामों की अशुद्धिया है, शब्द भी बनाया गया है। इसीलिए सम्पादनवश समाचारपत्रों के यत्र तत्र कुछ स्वलित हुए है। साथ ही वैसे सशोधन अतिरिक्त कुछ व्यक्तिगत पत्र भी सम्पादक को प्राप्त हुए। का प्राप्त हुए यहा नही है जैसे कि आगे के पत्रों में पण्डितजी के द्वारा है, जिनमे उसके स्पष्टीकरण की मांग की गई है। किये गये है। पत्र ५५ पर केवल । पक्तिया है, प्रागे उधर सोनगढ़ से जो प्रस्तुत सस्करण प्रकट हुमा है वहाँ कोष्ठक मे 'इससे मागे पत्र संख्या ५६ पर देखें उसका आधार भी पूर्वोक्त ५० टोडरमलजो द्वारा लिखित यह किसी दूसरे के द्वारा पतले अक्षगे में लिखा गया है। प्रति बतलाई गई है। (प्रकाशकीय पृ० ३) पृ० १८७ को सर्वथा रद्द किया गया है। पृ. ३३६-३७ और ४०८-६ भी किसी अन्य लेखक के द्वारा लिखे १नाम केवल प्रथम संस्करण मे ही दिया गया है। यह Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ४० भी हो सकती है। सार उसकी पूर्ति के लिए यह प्रावश्यक समझा गया कि जैन स्वाध्याय मदिर ट्रस्ट ने इस प्रति को जयपुरस्थ उपर्युक्त फोटो प्रिंट प्रति से दिल्ली व सोनगढ़ द्वारा प्रकावधीचन्द्रजी दीवानजी-मदिर के ग्रन्थभण्डार से प्राप्त करके शित दोनों संस्करणों का मिलान कर लिया जाय। इसके उसके सब पत्रों की दो फोटो प्रिट प्रतियाँ तैयार करा ली लिए श्री पं० चैनसुखदामजी न्यायतीर्थ जयपुर की सत्कृपा है। उनमें से एक प्रति को ट्रस्ट ने स्वय अपने अधिकार में से उस फोटो प्रिट प्रति को प्राप्त करके हम दोनों ने उस रख कर दूसरी प्रति को मूल प्रति के साथ जयपुर वापिस पर से पूर्वोक्त दोनों संस्करणोंका सावधानी मे क्रमश: भेज दिया। इसी के आधार से ट्रस्ट द्वारा प्रस्तृत सस्करण मिलान कर लिया है। उससे ज्ञात हुआ है कि सस्ती ग्रन्थतयार कराया गया है। माला दिल्ली द्वारा प्रकाशित सस्करणमे जहाँ यत्र तत्र कुछ जैसी कि उसके स्पष्टीकरणकी मांग की गई है तदनु- वाक्यों व शब्दों की हीनाधिकता या कुछ उनमे परिवर्तन . भी रहा है वहाँ जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित सस्करण में भी उसी प्रकार कुछ वाक्यो व शब्दो की के समय उनका सामान जयपुर सरकार द्वारा जब्त किया हीनाधिकता और परिवर्तन भी दृष्टिगोचर हुआ है। इसगया था। उसकी लिस्ट भी रही मुनते है । सम्भव है उसमे को स्पष्ट करने के लिए हम यहाँ उदाहरण के रूप मे ऐसी कोई मोक्षमार्गप्रकाशक की प्रति भी रही हो। दोनो ही सस्करणो के ऐसे कुछ पाठभेद ५ देते है:२ दोनो सस्करणो मे जो फोटो प्रिट प्रति की अपेक्षा कुछ अधिक वाक्य देवे जाते है (देखिये सो० संस्करण पृ० सोनगढ़ द्वारा प्रकाशित संस्करण के पाठभेव ६३ व १०९ के पाठभेद और दिल्ली सस्करण के पृ०८, प्रति पृष्ठ पंक्ति पाठभेद २३, ३७, ११, १५६ व ४३६ के पाठभेद) उनसे ऐसा सोन. ३४ १२ पर्यायो को अत्यन्त स्पष्टरूप प्रतीत होता है कि दोनों ही सस्करणो के तैयार करने मे से जानता है। प्रस्तुत प्रतिके अतिरिक्त अन्य हस्तलिखित व मुद्रित प्रतियो फो. ३६ १४ 'स्पष्टरूप से' के स्थान मे का भी प्राश्रय लिया गया है। कारण कि वे वाक्य अन्य 'अस्पप्टपन' है। हस्तलिखित प्रतियोमे पाये जाते है। दिल्ली मम्करण सो ४६-४७ २८,१ तथा मैने नृत्य देखा, गग पृ० ८ का वह अधिक पाठ नया मन्दिर दिल्लीको ३ हस्त सुना, फूल सूघे (पदार्थ का लिखित प्रतियो मे भी है। जैन ग्रन्थ रलाकर द्वारा स्वाद लिया, पदार्थका स्पर्श प्रकाशित प्रति में भी परिशिष्ट पृ० ४६० मे किमी प्रति किया), शास्त्र जाना। के प्राश्रय से ऐसे बाक्य ले लिये गये है। दि० सं० प.. ५४ २ कोष्ठगत पाठ वहाँ नही है। २३ का कोष्ठकस्थ सन्दर्भ नया मदिर दिल्ली की प्रति ४७ २६-२७ इन्द्रियजनित (पत्र ११५० १०) मे भी नही है। इत्यादि । फो. ५५४ इन्द्रियादिजनित साथ ही कुछ दुरुह तृढारी भाषा के शब्दो के स्पप्टी- सो. १८ उस वस्त्रको अपना प्रग जान करण के लिए भी अन्य प्रतियो का प्राश्रय लेना कर अपने को और वस्त्र को पड़ा है। जैसे-थानक (यह शब्द मूल प्रति में ही अशुद्ध एक मानता है। रहा दिखता है, उसके स्थान में 'घातक' रहनासम्भव फो. ५८ ११ तिस वस्त्र को अपना अग है-सो. स. पृ० ८६ = थानक (बाधक ?), स० ग्र० जानि प्रापकों पर शरीर कों पृ० १२४ = कारण), गदा (= 'डला' सो००६८, दि. वस्त्रको एक मान। पृ० १४१), प्रौहटे (= 'लज्जित' सो० पृ० ११६, दि०० सो. ५४ १२-१३ कोई मारे तो भी नही छोडती, १७२), झोल दिये बिना (= 'सच को मिलाये सो. विना' सो यहाँ कठिनता से प्राप्त पृ० १२४, दि० पृ० १८१)। होने के कारण तथा वियोग Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग प्रकाशकका प्रारूप २६३ फो. सो. ६२ १४-१५ कोउ मार तो भी न छोरै सो यहाँ नीठि पावना बहुरि वियोग (नीठि शब्द की दुरूहता के फो. कारण पाठपरिवर्तन हुआ है, सो. एक अन्य ह. लि प्रतिमे 'सो यहाँ भी रोग पावना' ऐसा पाठ है; दूमरी एक प्रति मे हाशिये पर 'नीठि' का अर्थ रोग निखा गया है)। फो ६३ २५ तथा ऐमा जानना कि जहा कषाय बहुत हो और शक्ति हीन (हो वहाँ बहुत दुख सो होता है और ज्या-ज्यो कपाय कम होती जाए तथा शक्ति का बढ़ती जाए त्यो त्यो दुख कम होता है । परन्तु एकेन्द्रियो के सो कपाय बहन और शक्तिहीन) इमलिए एकेन्द्रिय जीव महा दुखी है। ७३ १२ मा प्रति का कोप्टकगत पाठ यहाँ नही है। महादुम्बी होते है। वनस्पति है सो पवनसे टूटती है, शीन उष्णता से ७४ २ महादुखी हो है पवनत टूट है बहुरि वनस्पति है सो शीत उष्णकरि ७३ १३ निन्दक स्वयमेव अनिष्ट को प्राप्त होता ही है, स्वय क्रोध किस पर करे? ८४ १४ निन्दक स्वयमेव अनिष्ट पावै फो. नाहीं है क्रोध कौनसो करें। (फोटो प्रिंट प्रति मे 'पावे ही हैं' ऐसा पूर्व में लिखा गया, तत्पश्चात् 'पावै नाही है ऐसा उसके स्थान में सशोधन किया गया है)। ८५ १२.१७-१८ 'सम्यग्ज्ञान-मिथ्याज्ञान' १८ ४-५,८-६ "मिथ्याज्ञान-सम्यग्ज्ञान' ९६ ६-७,६ इन्द्र, लोकपाल इत्यादि, तथा अद्वैत ब्रह्म, राम, कृष्ण, महादेव, बुद्ध, खुदा, पीर, पैगम्बर इत्यादि, तथा हनुमान, भंगे, ......तथा गाय सर्प इत्यादि ११११ इन्द्र लोकपाल इत्यादि खुदा पीर पैगम्बर इत्यादि बहुरि भैरु......बहुरि सर्प इत्यादि ६६ १७ एक कैसे माना जाये ? इन का मानना नो १७ एक कैसे मानिये है एक मानना तो - वह ब्रह्म कोई भिन्न वस्तु तो सिद्ध नही हुई, कल्पना मात्र ही ठहरी । तथा एक प्रकार ११२ ४-५ तौ ब्रह्म कोई जुदा वस्तु तौ न ठहरया बहुरि एक प्रकार ६८ २६ परन्तु मूक्ष्म विचार करने पर तो एक प्रश अपेक्षा से ब्रह्मके परन्तु सूक्ष्म विचार किए तो एक अश घटया एक अश अपेक्षा ब्रह्म के RE १६ जहां न्याय नही होता ११६७ सो न्याय होय है तहाँ १०० १०-११ जो समवाय सम्बन्ध है तो ११७६ जो सयोग सम्बन्ध है तो पीडा उत्पन्न करे तो उसे बावला कहते है, ११८ पीडा उपजावै तौ ताको वाउला कहिये है ('तौ ताकों बाउला कहिये है इस प्रगको लिखने के पश्चात् काट दिया गया है, फो. Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ अनेकान्त सो. १३४ १६२ प्रयोजनभूत तत्त्वनिका निर्णय करि सके तात ए तत्त्व कहे है (पूर्वमे 'जान' के स्थान मे 'निर्णय भएं' लिखा गया था तत्पश्चात् उसे काटकर 'जान' सशोधन किया गया है, आगे भी।) ३ सो अपने अभावको ज्ञानी हित कैसे मानेगा? सो आपका अभावको ज्ञान हित कसे मान ४ तथा ऋषीश्वर भारत में ६ बहुरि भारत विप ३ गणधर ने प्राचारागादिक बनाये है सो ८ 'बनाये है' के स्थान मे यहाँ कोई क्रियापद नहीं है ८ अनुमानादिकमे नही आता ४ उन्मानादिकमैं प्राव नाही १७ यदि पाप न होता तो इन्द्रा दिक क्यों नही मारते ? ३ सो पाप न होता तो क्यो न १४४ १७२ १४५ १७३ १०६ २२ यह महेश लोकका सहार कैसे करता है ? (अपने अंगो से ही संहार करता है कि इच्छा होने पर स्वयमेव ही सहार होता है ?) यदि अपने अगो से संहार करता है १३० २ सो प्रति का कोष्ठकगत पाठ यहाँ उपलब्ध नहीं होता सो १३ अचेतन हो जाते है १६ 'अचेतन' के स्थानमे वहाँ फो. 'चेतन' है ११५ १५-१६ तथा वे मोक्षमार्ग भक्तियोग मो. और ज्ञानयोग द्वारा दो प्रकार फो. से प्ररूपित करते है। अब, सो. भक्तियोग द्वारा मोक्षमार्ग कहते है फो. १३७ ६ यहाँ 'बहुरि मोक्षमार्ग भक्ति योगज्ञानयोग' दोय प्रकार प्ररूपै सो, है। तहाँ यह लिखकर 'पहिले फो. आगे ज्ञानयोग का निरूपण सो. कर है सो लिपि पीछे याको लिषना' ऐसी सूचना ऊपर फो. की गई है। तदनुसार पहिले ज्ञानयोग का प्रकरण होना सो चाहिए था, तत्पश्चात् भक्ति- फो. योग का । परन्तु सोनगढ़ सो. सस्करणमें इसके विपरीत फो. पहिले भक्तियोगका (पृ. सो. ११५-१८) और तत्पश्चात् (पृ. ११८-२०) ज्ञानयोगका फो. प्रकरण दिया गया है। १२७ २७ फिर कहोगे-इनको जाने बिना सो. प्रयोजनभूत तत्त्वों का निर्णय फो. नही कर सकते, इसलिए यह सो. तत्त्व कहे है; फो. १५५ १ बहुरि कहोगे उनको जाने फो. १४८ १७७ १५८ मारे ० umu X ० ० २७ तो प्रतिज्ञा भंगका पाप हुश्रा २ तौ प्रतिज्ञा भगका पाप न हुप्रा । ६ अर्थ:८-६ अथ ६ तथा जो इष्ट-अनिष्ट पदार्थ पाये जाते है १५ बहुरि जो इप्ट अनिष्ट बुद्धि पाइये है १५ कुगुरु के श्रद्धान सहित ६ कुगुरुका श्रद्धान रहित २४ अधःकर्म दोषों में रत है . अधःकर्म आदि दोपनिविष रत है सो. १८१ १८२ २२३ फो. Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का प्रारूप २६५ सो. २२८ ४ . १८५ १७ तथापि अन्तरंग लोभी होता' फो. है इसलिए सर्वथा महतता सो. नही हुई फो. ७ तथापि अन्तरंग लोभी होइ सो दातारको ऊचा मान पर दि. दातार लोभीको नीचा मान ताते वाके सर्वथा महतता न भई २२ इसलिए गुरुओं की अपेक्षा १२ तात गुणनिकी अपेक्षा ४ जीवित मरण लेते है ५ जीवित माटी ले है दि. १० इसलिए उसका कार्य सिद्ध नहीं हुआ १४ बहुरि तिनिका कार्य सिद्धि भया १२ ऐमी दशा होती है। जैनधर्म मे प्रतिज्ञा न लेने का दण्ड तो है नही ३०२ १३ ऐसी इच्छा होय सो जैनधर्म विप प्रतिज्ञा लेनेका दण्ड तो है नही २६५८ वैसे अनेक प्रकार से उस यथार्थ श्रद्धानका अभाव होता HMMM ३७५ - ६ प्रबहू त्रिकरण करि शुद्ध जीव २९५ १२ इसी प्रकार अन्यत्र जानना ३७७७ ऐसे ही अन्य जानना दिल्ली संस्करण के पाठभेद ११ जिनके दर्शनादिकतै (स्वपर भेदविज्ञान होय है कषाय मंद होय शान्तभाव हो है वा) एक धर्मोपदेश बिना ७ ३-५ यहाँ दिल्ली संस्करणका कोप्ठकगत पाठ नहीं है। २३ १.-१७ समाधान कर (जो प्रापर्क उत्तर देने की सामर्थ्य न होय तो या कहै याका मोकों ज्ञान नाही किसी विशेष ज्ञानीसे पूछकर तिहारे ताई उत्तर दृगा अथवा कोई ममय पाय विशेष ज्ञानी तुमसौ मिले तो पूछकर अपना सन्देह दूर करना और मोकू हू बताय देना । जाने ऐसा न होय तो अभिमानके वशते अपनी पडिताई जनावनेकौ प्रकरणविरुद्ध अर्थ उपदेश, तात श्रोतानका विरुद्ध श्रद्धान करनेत बुरा होय जैनधर्मकी निदा होय ।) जातं जो ऐसा न होय ७ यहा दि. मस्करणका कोप्ठक गत पाठ नही उपलब्ध होत।। ३७ १७ आप ही मिल है (अर सूर्यास्त का निमित्त पाय आप ही विछुरै है। ऐसा ही निमित्त नैमित्तिक बनि रहा है। ३१ १० दि. सं. का कोप्ठकगत पाठ यहाँ नही है। ३३७ -१० तैसे अनेक प्रकार करि तिम पर्यायार्थी(?)श्रद्धानका अभाव २६० १६ और करणानुयोगका अभ्यास करने पर १७ अर चरणानुयोगका अभ्यास ३७० किए दि २६३ ११ वह सम्यक्त्व स्व-परका श्रद्धान होने पर होता है १ सो सम्यक्त्व स्वपरादिक का श्रद्धान भए होय २९४३ अाज भी त्रिरत्नसे शुद्ध जीव ३७४ फो Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त दि. फो. ७२ १९-२० वह बाउला तिस वस्त्रको फो. अपना अंग जानि प्रापर्व पर शरीरको एक मान ५८ ११ ...अपना अंग जानि आपका पर शरीरकू वस्त्र• एक माने दि. ७८ १२ जैसे बिल्ली मूसाको पकरि फो. पासक्त हो है । कोऊ मारै तौ दि. भी न छोरै । सो इहाँ इष्ट पना है। बहुरि ६२ १५ यहां 'सो इहाँ इप्टपना है' के स्थानमे 'सो इहाँ नीठि पावना' पाठ है। फो ६१ १७-२० बहुरि ऐसा जानना, तहा कषाय बहुत होय अर शक्ति- दि. हीन (होय तहाँ घना दुख हो है बहुरि जैसे कषाय घटता जाय शक्ति बघती जाय तैसे दुख घटता हो है। सो एकेन्द्रियनिक कषाय बहुत पर शक्तिहीन) तात एकेन्द्रिय महादुखी है। दि ७३१२ दि. स. का कोष्ठकगत पाठ यहाँ नही है। जेवरी सादिकके अयथार्थ फो. ज्ञान का जेवरी सादिकके यथार्थ अय थार्थ ज्ञान का १३८ १५ लोकपाल इत्यादि । अद्वैतब्रह्म दि. खुदा लोकपाल इत्यादि खुदा १६ बहुरि गउ सर्प इत्यादि १११ बहुरि मर्प इत्यादि २० बहुरि शास्त्र दवात १२ वहुरि शस्त्र दवात १३ परन्तु सूक्ष्म विचार किए तो एक अंश अपेक्षा ब्रह्मक अन्यथापना भया ११५६ परन्तु सूक्ष्म विचार किए तो एक अश घटया एक अंश अपेक्षा ब्रह्मकै अन्यथापना भया १४३ १४ मो जहाँ न्याय न होय है.महां ११६७ सो न्याय होय है तहाँ १५६ २-३ कैसे सहार कर है (अपने अंगनि ही करि सहार कर है कि इच्छा होतं स्वयमेव ही संहार होय है ?) जो अपने अगनि करि संहार कर है १६० २ दि. स. का कोप्टकगत पाठ यहाँ नहीं है। १६७ १५ फो. प्रि. प्रति (पृ. १३७ प. ६) मे की गई सूचना के अनुसार ही यहाँ प्रथमत. ज्ञानयोग का (पृ. १६७-७१) और तत्पश्चात् भक्तियोगका (पृ. १७१-७५) प्रकरण अप नाया गया है। १८६ १७ बहुरि कहोगे इनको जाने बिना प्रयोजनभूत तत्त्वनिका निर्णय न करि सके, २५५ बहुरि कहोगे इनको जाने प्रयोजनभूत तत्त्वनिका निर्णय करि सकै (देखो मोस. का मिलान) १९८८ बहुरि एक शरीरविष पृथ्वी आदि तौ भिन्न भिन्न भासै है चेतना होय तो लोहू उश्वा सादिकक (बीचमे पाठ छूटा है) ५ बहुरि एक शरीरविष पृथ्वी प्रादि तो भिन्न भिन्न भास है चेतना एक भास है जो पृथ्वी आदिक आधार चेतना होय तो होउ (सो. सं. हाड़) लोहो उश्वासादिक के फो. १६ जेवरी १३८ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का प्रारूप दिः दि. फो. दि. २१० १८ बहुरि ऋषीश्वर भारतविर्षे उदयके निमित्तकरि कबहूँ ५ बहुरि भारतविर्षे ज्ञानादिक धन प्रगट हो हैं २१२ ३-४ सो उनको पूछिए है गणधरने कबहूँ थोरै प्रगट हो हैं प्राचारांगादिक बनाए हैं सो दि. ४५६ १६-१६ तहाँ रागादिक का तीव्र उदय तुम्हारे प्रबार पाइए है होते ती विषयकषायादिकके १७३८ सो उनको पूछिए है गणधरने कार्यनिविष ही प्रवृत्ति बने आचारांगादिक तुम्हारे अवार पर पाप पुरुषार्थ करि तिन पाइए है उपदेशादिकविष उपयोगका ४३६ १६-१८ वस्त्रादिकका कथनविष मही लगावै, तो धर्मकार्यनिविष नका नाम सूक्ष्म, मोटाका प्रवृत्ति होय । भर निमित्त बने, नाम बादर, ऐसा अर्थ है। वा आप पुरुषार्थ न कर (करणानुयोग के कथनविर्ष फो. ४०३ ३-६ तहाँ रागादिक का तीव्र उदय पुद्गल स्कन्धके निमित्ततं रुक होते तो विषय कपायादिक के नाही ताका नाम सूक्ष्म है पर कार्यनिविष भी प्रवृत्ति होइ ।। रुक जाय ताका नाम बादर है) बहुरि रागादिक मंद उदय २ दि. म. का कोष्ठकगत पाठ होते बाह्य उपदेशादिक का यहा नहीं है। निमित्त बन पर आप पुरुषार्थ २० प्रमाणभेदनिविपं स्पष्ट व्यवहार करि (यहाँ पाठ अव्यवस्थित प्रतिभासका नाम प्रत्यक्ष है अधिक है) ३८० ३-४ प्रमाणभेदनिविष स्पष्ट प्रतिभास का नाम प्रत्यक्ष है कुछ अनिष्ट भी प्रसंग ४५६ -१० उत्कर्षण अपकर्पण सक्रमणादि प्रस्तुत ग्रन्थ का महत्त्व उभय पक्षों द्वारा ही स्वीकार होते तिनकी शक्तिहीन अधिक किया जाता है । पर जहां तक हम समझते है उसके अन्तहोय वर्मउदय निमित्त र्गत सब ही विषयों से वे शायद ही सहमत हो। उदाहरकरि तिनका उदयभी मदतीय णार्थ यहां हम ऐसे दो चार स्थलों को उदधत करते हो है । तिनके निमित्तते है जिनको प्रतिकूलता का अनुभव प्रथासम्भव दोनों ही नवीन बघभी मद तीव्र हो है। पक्ष कर सकते हैतात ससारी जीवनिक कब १ अनेक उपाय करने पर भी कर्म के निमित्त बिना जागतिक हो सामग्री नहीं मिलती। (सोन संस्करण पृ. ४८) कबहे थोरे प्रगट हो । २ अथवा बाह्य सामग्री से सुख-दुख मानने सो ही ०२ १५-१७ उत्कर्षण अपकर्षण सक्रमणादि भ्रम है। सुख-दुख तो साता-असाता का उदय होने होतं तिनकी शक्ति हीन आधक पर मोह के निमित्त से होते है, ऐसा प्रत्यक्ष देखने में माता होइ है तातै तिनका उदय भी है। (मो० पृ० ५६) मद तीव्र हो है तिनके निमित्त- ३ इसलिए सामग्री के अधीन सुख-दुख नहीं है। ते नवीन बंध भी मद तीव्र हो साता-असाता का उदय होने पर मोहपरिणमन के निमित है तात संसारी जीवनिके कर्म से ही सुख-दुख मानते हैं। (सो. पृ०६०) फी Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ अनेकान्त ४ तथा वह कहता है कि-जिन शास्त्रों में अध्यात्म द्रव्यों में न लगे, यदि स्वयमेव उनका जानना हो जाये उपदेश है उनका अभ्यास करना, अन्य शास्त्री के अभ्यास और वहीं रागादिक न करे तो परिणति शद्ध ही है। (सो. से कोई सिद्धि नही है ? सं० पृ० २१२) उससे कहते हैं-यदि तेरे सच्ची दृष्टि हुई है तो ७ यहाँ कोई निविचारी पुरुष ऐसा कहे कि तुम सभी जैन शास्त्र कार्यकारी हैं। वहां भी मुख्यत: अध्यात्म व्यवहार को असत्यार्थ-हेय कहते हो, तो हम वत, शील, शास्त्रों में तो पात्मस्वरूप का मुख्य कथन है, सो सम्यग्- सयमादिक व्यवहारकार्य किसलिए करे ? सबको छोड़ दृष्टि होनेपर प्रात्मस्वरूप का निर्णय तो हो चुका, तब देगे। तो ज्ञान की निर्मलता के अर्थ व उपयोग को मंद कषायरूप उमसे कहते है कि--कुछ व्रत, शील, संयमादिक का रखने के अर्थ अन्य शास्त्रों का अभ्यास मुख्य चाहिये। माम व्यवहार नहीं है, इनको मोक्षमार्ग मानना व्यवहार है, तथा यात्मस्वरूप का निर्णय हुया है, उसे स्पष्ट रखने के उसे छोड दे। और ऐमा श्रद्धान कर कि इनको तो बाह्य अर्थ अध्यात्म शास्त्रों का भी अभ्यास चाहिये; परन्तु सहकारी जान कर उपचार से मोक्षमार्ग कहा है, यह तो अन्य शास्त्रों में अरुचि तो नहीं होना चाहिये। (सो० परद्रव्याश्रित है, तथा सच्चा मोक्षमार्ग वीतरागभाव है, पृ० २००-२०१) वह स्वद्रव्याथित है। इस प्रकार व्यवहार को असत्यार्थ ५ तथा वह पूजनादि कार्य को शुभास्रव जान कर हेय जानना । व्रतादिक के छोडनेमे तो व्यवहार का हेयदेय मानता है, यह सत्य ही है; परन्तु यदि इन कार्यों को पता होता नीति पर foवानिक छोड़ कर शुद्धोपयोग रूप हो तो भला ही है, और विषय- छोड़कर क्या करेगा? यदि हिसादिरूप प्रवर्तेगा तो वहाँ कषाय रूप-अशुभ रूप-प्रवर्तं तो अपना बुरा ही किया। तो मोक्षमार्ग का उपचार भी संभव नहीं है-वहा प्रवर्तने शुभोपयोग से स्वर्गादि हों अथवा भली वासना से या भले से क्या भला होगा? (मो० पृ० २५३-५४) निमित्त से कर्म के स्थिति-अनुभाग घट जायें तो सम्यकत्वादि को भी प्राप्ति हो जाये। (सो० पृ० २०५) आगे तथा यदि बाह्य सयम से कूछ सिद्धि न हो तो पृ. २०८ के दूसरे पैराग्राफ को (अब उनसे पूछते है......) सर्वार्थसिद्धिवामी देव मम्यग्दष्टि बहुत ज्ञानी है, उनके तो चौथा गुणस्थान होता है और गृहस्थ श्रावक मनुष्यों के और पृ. २०६ के अन्तिम पैराग्राफ को भी देखिए। पंचम गुणस्थान होता है सो क्या कारण है ? तथा तीर्थ६ फिर वह कहता है-जैसे, जो स्त्री प्रयोजन जान कगदिक गृहस्थपद छोड़ कर किमलिए सयम ग्रहण करे ? कर पितादिक के घर जाती है तो जाये, विना प्रयोजन जिस-तिस के घर जाना तो योग्य नही है। उसी प्रकार इसलिए यह नियम है कि बाह्य संयमसाधन विना परिणाम परिणति को प्रयोजन जान कर सात तत्त्वो का विचार निमल नहीं हो सकते; इसलिए बाह्य साधन का विधान करना, विना प्रयोजन गुणस्थानादिक का विचार करना जानने के लिये चरणानुयोग का अभ्यास अवश्य करना योग्य नहीं है ? चाहिये । (सो पृ० २६२) समाधान :-जैसे स्त्री प्रयोजन जानकर पितादिक या (प्रस्तुत संस्करण में जिस प्रकार अध्यात्म के पोषक मित्रादिक के भी घर जाये, उसी प्रकार परिणति तत्त्वों के कुछ वाक्यो को यत्र-तत्र-जैसे पृ० ५१, ५२, ५७ व१५८ विशेष जानने के कारण (कारणभूत) गुणस्थानादिक व प्रादि-काले टाइप में मुद्रित कराया गया है उसी प्रकार कर्मादिक को भी जाने। तथा ऐसा जानना कि-जैसे बाह्य संयम के पोषक उपयुक्त सदोंमें से भी कुछ वाक्यों शीलवती स्त्री उद्यमपूर्वक तो विट पुरुषों के स्थान पर न का मुद्रण यदि काले टाइप मे करा दिया जाता तो बहुत जाये, यदि परवश वहाँ जाना बन जाये, और वहाँ कुशील अच्छा होता ।) सेवन न करे तो स्त्री शीलवती ही है। उसी प्रकार बीतराग परिणति उपायपूर्वक तो रागादिक के कारणभूत पर- १ किसी जीवकरि अपना प्रात्मा ठिग्या । सो कौन ? Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का प्रारूप जिह जीव जिनवर का लिंग धार्या पर राखकरि माथा का ए भेषधारी है''लीचकरि समस्त परिग्रह छांड्या नाहीं। (सस्ती ग्रंथ माला ताका उत्तर-जैसे राजाची स्थापना चित्रामादिक प्रथन सं. पृ. २६९-७०) करि कर तो राजा का प्रतिपक्षी नाही; पर कोई सामान्य - २ बहरि जहां मनिक धात्री'-दुत प्रादि छयालीस दोष मनुष्य आपकी गजा मनाव, तौ तिसका.प्रतिपक्षी होह। माहारादिविष कहे हैं, तहा गहस्थनिके बालकनिकौं प्रसन्न तैसे अरहतादिक की पाषाणादिविर्षे स्थापना बनाव, ता करना, समाचार कहना, मंत्र-पोषषि ज्योतिषादि कार्य तिनका प्रतिपक्षी नाही, पर कोई सामान्य मनुष्य आपको बतावना इत्यादि, बहुरि किया कराया अनुमोद्या भोजन मुनि मनावं, तो वह मुनिन का प्रतिपक्षी भया। ऐसे भी 'लना इत्यादि क्रिया का निपंध किया है, सो अब कालदोष स्थापना होती हाय, तो प्ररहंत भी माफ्को मनाया। (स इन ही दोषनिको लगाय पाहारादि ग्रहै है। (स. न. प. प. पृ. २७३) २७०) ४ पद्मपुराणविष यह कथा है-जो श्रेष्ठी धर्मात्मा ३ यहा कोउ कहै, ऐसे गुरु तो अबार नाही, तात चारण मुनिनको भ्रमत भ्रष्ट जानि आहार न दिया, तो जैसे परहत की स्थापना प्रतिमा है, तसं गुरुनिकी स्थापना प्रत्यक्ष भ्रष्ट तिनको दानादिक देना कैसे सभव? (स.प्र. पृ. २७४-७५) मज्जण-मंडणधादी खेल्लावण-खीर-प्रबधादी य । ५ बहुरि जिनमदिर तो धर्म का ठिकाना है। तहां पचविधधादिकम्मेणुप्पादो धादिदोपो दु॥ नाना कुकथा करनी, सोवना इत्यादिक प्रमादरूप प्रवर्त, वा मूलाचार ६-२८) नहा बाग वाडी' इत्यादि बनाय विषय-कषाय पोप, बहुरि घापयति दधातीति वा घात्री। मार्जनयात्री बाल लोभी पुरुषनिकी गुरु मानि दानादिक दें वा तिनकी असत्य स्नपयति या सा मानधात्री । मण्डयति विभूषयति तिल- मति करि महतपनी मान, इत्यादि प्रकार करि विषयकादिभिर्या सा मण्डनधात्री मण्डननिमित्त माता। बाल कार्यानको तो बघावं अर धर्म मान सो जिनधर्म तो क्रीडयति रमयति क्रीड़तधात्री क्रीडानिमित्त माता। क्षीर वीतरागभावरूप है, तिस विर्ष ऐसी प्रवृत्ति कालदोषत ही धारयति दधाति या सा क्षीरधात्री स्तनपायिनी। अम्ब- देखिए है । (म. प्र. पृ. २०) घात्री जननी, स्वपयति या साप्यम्बधात्री। एतासा पञ्च हमारा अपना अभिप्राय विधानां धात्रीणां क्रियया कर्मणा य आहारादिरुत्पद्यते स धात्रीनामोत्पादनदोषः। वाल स्नापयानेन प्रकारेण बाल. प्रस्तुत मोक्षमार्गप्रकाशक की यथार्थ परिस्थिति क्या स्नाप्यते येन मुखी नीरोगी च भवतीत्येवम्, माजननिमित्त है, यह जानने की चकि कुछ सज्जनों ने अपेक्षा की थी, वा कर्म गृहस्थाय उपदिशति । नेन च कर्मणा गृहस्थो दानाय ३ यथा पूज्य जिनेन्द्राणा रूप नेपादिनिमितम् । प्रवर्तते । तद्दानं यदि गृह्णाति साधुस्तस्य धात्रीनामोत्पादन तया पूर्वमुनिच्छाया पूज्या: मंप्रति सयताः ।। दोषः........... (मूला. वसु. वृत्ति ६.२८) (उपास. ७६७) २ उग्गम उप्पादण एमण च सजोजणं पमाण च । विन्यम्यदयुगीनष प्रतिमासु जिनानिव । इगाल धूम कारण अद्वविहा पिंडमुद्धी दु॥ भक्त्या पूर्वमुनीनचेत् कुतः श्रेयोऽतिचिमाम् ॥ (मूला. ६-२) (सा. ध २-६४) १६ उद्गम दोष (६, ३-२५), १६ उत्पादन दोष ४ देखिये पद्मपुगण पर्व ६२ श्लोक १५-३७ । (६, २६-४२), १० एषण (अशन) दोष (६, ४३-६२) ५ मत्रमप्यनुकम्प्यानां मृजेदनुजिघृक्षया । तथा संयोजन आदि ५ अन्य दोष; इन सब दोपों की यहाँ चिकित्साशालवद् दुष्यन्नेज्याय वाटिकाग्रपि । विस्तार से प्ररूपणा की गई है। (सा. घ. २-४० लामो पुरुषनिको न्यादि बनायो Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० अनेकान्त अत एव उसीसे प्रेरित होकर हमें जो उसकी स्थिति दिखी फिर अपनी समझ के अनुसार ही किया गया है। (सस्ती ग्रं. है उसे विना किसी पक्षव्यामोह के स्पष्ट करने का प्रयल मा. संस्करण में पृ. ७८ पर जो उसका 'सो इहाँ इष्टहमने यहां किया है। जहां तक हम समझ सके है उक्त पना है' ऐसा स्पष्टीकरण किया गया है वह जैन ग्रन्थ दोनों संस्करणों में से किसी में भी बुद्धिपूर्वक अर्थ- रत्नाकर द्वारा प्रकाशित संस्करण (पृ. ७५) के अनुसार विपर्यास या भावविपर्यास का प्रयत्न नहीं किया गया। किया गया है, नया मन्दिर दिल्लीकी एक हस्तलिखित प्रति मूल प्रति की अपेक्षा जो उनमें यत्र स्वचित् भेद दिखता में 'नीठि' को लिखकर तत्पश्चात् उसके स्थान मे 'रोग' है वह असावधानी-विशेष कर प्रूफ संशोधन की असाव लिखा गया है।) धानी-या अन्य हस्तलिखित व मुद्रित प्रतियों का प्राश्रय __ पृ. ६३ पं. २५ में जो फोटो प्रिंट प्रति (पृ. ७३) की लेने से हुआ है । जैसे अपेक्षा अधिक अश पाया जाता है वह सम्भवतः सस्ती ग्रंथ सोन. सं. पृ०.८५ पर मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान माला संस्करण (पृ. ६१) से लिया गया है। जैन ग्रं. र. का क्रमवैपरीत्य, प०११५-२० में जो ज्ञानयोग और द्वारा प्रकाशित संस्करण (प.५८) मे भी वह अंश पाया भत्तियोग प्रकरणों में पौर्वापर्य की विपरीतता हुई है जाता है। वह मूल प्रतिमें श्री पं. टोडरमल जी द्वारा की गई सूचना प. १३५ पर फो. प्रिं. प्रतिगत (पृ. १६४) 'होउ (?) (फो. प्रि० पृ० १३७, पं०६) को सावधानी से न पढ लोही' का अनुवाद 'हाड़, रक्त' किया गया है। न. मं. सकने के कारण हुई। दिल्ली की एक प्रति (पत्र ६१) में भी 'हाड़' पाया जाता प्रफ संशोधन की असावधानी मे जैसे है। स. ग्रं. संस्करण (पृ. १६८) में 'होउ' को छोड दिया सो. ग. पृ. ६५--'उसी प्रकार' इत्यादि लगभग २ गया व 'लोही' के स्थान मे लोहू लिखा गया है। इत्यादि । पंक्तियां दुवारा छप गई है, पृ. १००-समवायसम्बन्ध अन्त मे ग्रंथ की इस परिस्थिति को लक्ष्य में रखते (सयोगसम्बन्ध), पृ. १५५--मान (माया), पृ. १८२ हए हमाग उभय पक्षसे यही नम्र निवेदन है कि इस इक्षुफल (इक्षुफूल.). पृ. १८५ गुरुप्रो की (गुणन की), विवाद में कुछ तथ्य नहीं है, उसे समाप्त कर दिया जाय। इत्यादि। भूल होना कुछ असम्भव नहीं है । पर भूल को भूल मान दिल्ली संस्करण में ऐसी अशुद्धियो के लिए अन्त में उसे परिमाजित कर लेना कठिन होते हुएभी महत्त्वपूर्ण है। २१ पृ. का लम्बा शुद्धिपत्र ही दे दिया गया है। शान्ति व स्व-परहित भी उसी में है। भूल को पुष्ट करते अन्य प्रतियों के माश्रय से जैसे---सो. स. पृ. ५४ पर रहने से वातावरण कभी शान्त नही बन सकता। वि मूल प्रतिगत (फो. पृ. ६२). सो इहां नीठि पावना' का वादीभमिह की यह यथार्थ उक्ति बहुत ही महत्त्वपूर्ण है-- 'सी यहा कठिनता से प्राप्त होने के कारण' यह स्पष्टीकरण अन्यदीयमिवात्मीयमपि दोष प्रपश्यता । या तो किसी अन्य प्रति के प्राश्रय से किया गया है या कः समः खलु मुक्तोऽय युक्तः कायेन चेदपि ।' अनेकान्त के ग्राहक बनें 'अनेका-त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-सस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों, विश्वविद्यालयों और जैन श्रुत को प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वयं बनें और दूसरों को बनावें। और इस तरह जैन सस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें। व्यायापक 'अनेकान्त' Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति का प्राचीनत्व मुनि श्री विद्यानन्द मंगलाचरण- . सिरि णमो उसह समरणाणं। व्याकरण के अनुसार सस्कृति शब्द का अर्थ है सस्कार सम्पन्नता। संस्कार से वस्तु उत्कृष्ट बन जाती है अथवा कहना चाहिये कि वस्तु सस्कार किये जाने पर अपने में निहित उत्कर्ष को अभिव्यक्त करने का अवसर प्राप्त करती है। संस्कार किये जाने पर ही खनिज सुवर्ण शद्ध म्वर्ण बनता है। मनुष्य भी संस्कृति के द्वारा ही अपने उच्चतम ध्येय और पवित्र संकल्पो को प्राप्त करने के लिए दिशा प्राप्त करता है। एक कलाकार अनगढ़ पाषाण में छेनी हथोड़े की सहायता से वीतराग प्रभु की मुद्रा अकित कर देता है, एक चित्रकार रगो और तूलिका की सहायता से केनवास पर मुन्दर चित्र बना देता है, इसी प्रकार संस्कृति भी मनुष्य के अन्तस्थ सौन्दर्य को प्रकट कर देती है । यही मनुष्यके प्राचार विचार और व्यवहार को बनातीसंवारती है । ये आचार-विचार और व्यवहार ही संस्कृति के मूलस्रोत के साथ सम्बद्ध होकर उसका परिचय देते है। अन. जब हम संस्कृति का सम्बन्ध श्रमण शब्द के रााय करते है, नब हमारे सामने श्रमग धर्म और उसके आचार-विचार स्पष्ट हो उठते है। श्रमग का अर्थ है निर्गन्ध दिगम्बर जैन मुनि । अतः श्रमण-सस्कृति का अर्थ हया वह सस्कृति जिसके प्रवर्तक व प्रस्तोता दिगम्बर जैन मूनि है। इसको और भी स्पष्ट करके कहें तो जिन प्राचार-विचार और आदर्शो का आचरण और उपदेश दिगम्बर जैन मुनियों द्वारा किया गया है, वह श्रमण संस्कृति है। भगवान ऋषमदेव प्रथम दिगम्बर मुनि है, बे ही प्रथम श्रमण है । अतः उनके द्वारा जिन प्राचार-विचारव्यवहार और आदर्शों का पाचरण और उपदेश के द्वारा प्रचार-प्रसार और प्रचलन हुआ, वही संस्कृति श्रमण संस्कृति के नाम से जानी पहचानी जाती है। अब हम श्रमणत्व और उसकी प्राचीनता के बारे में कुछ प्रमाण प्रस्तुन करेंगे। ("नाभेः प्रियचिकोर्षया तदवरोधायने मेरदेव्या धर्मान दर्शयितुकामो वातरशनाना श्रमणानामृषीणामूर्य मंपिना शुक्लया तनुवावतार"" ०२०). महाराज नाभि का प्रिय करने के लिए उनके अन्त:पुर में महारानी मरुदेवी के गर्भ से 'दिगम्बर श्रमण ऊर्ध्वगामियों का धर्म प्रगट करने के लिए वृषभदेव शुद्ध मत्वमय शरीर से प्रगट हुए। भागवतकार ने आद्य मन स्वायम्भुव के प्रपौत्र नाभि के पुत्र ऋषभ' को दिगम्बर श्रमणों और ऊर्ध्वगामी मुनियों के धर्म का प्रादि प्रतिष्ठाता माना है, उन्होने ही श्रमण धर्म को प्रगट किया था। उनके सौ पुत्रों में से नौ पुत्र श्रमण मुनि बने, भागवत मे यह ही उल्लेख मिलता है "नवाभवन् महाभागा मुमयो हार्यशसिनः। श्रमणा वातरशना प्रात्मविद्या विशारदाः॥ -लागवत ११।२।२० ऋषभदेव के सौ पुत्रो में से नौ पुत्र बड़े भाग्यवान थे पात्मज्ञान में निपुण थे और परमार्थ के अभिलाषी थे। वे श्रमण-दिगम्बर मुनि हो गये, वे अनशन प्रादि तप करते थे। यहां श्रमग मे अभिप्राय है (श्राम्यति तपः क्लेश १ प्रियव्रतो नाम मुतो मनोः स्वायम्भवस्य यः । तस्याग्नीध्रस्ततो नाभिः ऋषभस्तत्सुतः स्मृतः ।। ११।२।१५ भागवत पुराण । स्वायम्भुव मनु के प्रियनात नाम के पुत्र थे। प्रियव्रत के अग्नीघ, अग्नीध्र के नाभि और नाभि के पुत्र ऋषभदेव हए । वैदिक परम्परा के अनुसार स्वायम्भव मनु मानवों के पाद्य अष्टा और मन्वन्तर परम्परा के प्राद्य प्रवर्तक थे। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ अनेकान्त सहते इति श्रमणः) अर्थात् जो स्वयं तपश्चरण करते है, जैन शास्त्रों में गुणस्थान चर्चा में जो मुनि क्षपणक वे श्रमण है। श्रेणी प्रारोहण करता है, उसके सम्बन्ध मे भी लगभग "वातरशना हवा ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्वमथिनी बभूवः।" ऐसा ही वर्णन आता है। श्रेणी प्रारोहण करनेवालाश्रमण -तैत्तिरीयारण्यक २१७ मुनि पाप और पुण्य दोनों से रहित हो जाता है और सायण-"वातरशनाल्या ऋषयः श्रमणास्तपस्विनः कषाय तथा घातिचतुष्क का नाश करके कैवल्य की प्राप्ति . . ऊर्वमन्थिनः कवरेतसः" कर लेता है। श्रमण सतयुग में प्रायः होते हैं, ऐसी मान्यता भागवत-दिगम्बर श्रमण ऋषि तप से सम्पूर्ण कर्म नष्ट करके ऊर्ध्वगमन करनेवाले हुए। कृते प्रवर्तते धर्मश्चतुष्पात्तन्जन तः । ___ सम्पूर्ण कर्म नष्ट होने पर जीव ऊर्ध्वगमन करता है सत्यं दया तपो वानमिति पादा विभोन प॥ और लोक के अन्त तक चला जाता है। जीव का स्वभाव सन्तुष्टाः करुणा मंत्राः शान्ता बान्तास्तितिक्षवः । ऊर्ध्वगमन करने का ही है, वह सदा से इसके लिए प्रयत्न मात्मारामाः समदृशः प्रायशः श्रमणा जनाः ॥ करता रहा है। किन्तु कर्मों का भार होने के कारण वह --भागवत १२-३-१५-१६ उतना ही ऊर्ध्वगमन करता रहा, जितना कर्मों का भार श्री शुकदेव जी कहते है-हे राजन ! कृतयुग में कम था। किन्तु जब कर्मों का भार बिल्कुल हट गया और धर्म के चार चरण होते है-सत्य, दया, तप और दान । ___ इस धर्म को उस समय के लोग निष्ठापूर्वक धारण करते जीव कर्मों के बन्धन से मुक्त हो गया तो अपने स्वभाब के है । सतयुग मे मनुष्य सन्तुष्ट, करुणाशील, मित्रभाव रखने अनुसार वह लोक के अन्त तक ऊर्ध्व गमन करता है। वाले, शान्त, उदार, सहनशील, प्रात्मा मे रमण करने वाले ("तदनन्तरमूवं गच्छत्यलोकान्तात्॥" तत्वार्थ सूत्र१०१५) और समानदृष्टि आदि प्रायः श्रमणों में ही होती है। जैन शास्त्रों में जहा पर भी मोक्ष का वर्णन पाया है, जैनाचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में कृतयुग में ही वहा पर इसका विस्तार से कथन मिलता है। सम्भवत. ऋषभदेव का जन्म माना है । उस युग का नामकरण ही श्रमण वातरशना मुनियो के लिये ऊर्ध्वमथी ऊर्ध्वरेता कहने। ऋषभदेव के कारण हुमा और वह कृतयुग कहलायामें वैदिक ऋषियों को जन-शास्त्र मम्मत ऊर्ध्वगमन ही "युगादि ब्रह्मणा तेन यदित्थं स कृतो युगः । अभीष्ट रहा है। ततः कृतयुगं नाम्ना तं पुराणविदो विदुः ।। अब यहा वृहदारण्यकोपनिषद् का एक और स्पष्ट प्राषाढ़मासबहुलप्रतिपद्दिवसे कृती । उद्धरण अवतरित करते है कृत्वा कृतयुगारम्भं प्रजापत्य मुपेयिवान् ॥" "श्रमणोऽश्रमणस्तापसोऽतापसोऽनन्वागतं पुण्यना नन्या- (शेष पृष्ठ २८१) -आदि पु० १६।१८६-१९० गतं पापेन ती! हि तवा सच्छिोकान् हृदयस्य भवति ।" कान् हृदयस्य भवात । १ कृतयुग-१७२८०००। सतयुग का प्रारम्भ कातिक ___-वृहदा० ४१३।२२ से हुग्रा। श्रमण प्रथमण और तापस अतापस हो जाते है। उस वेतायुग-१२६६०००। ममय तक पुरुष पुण्य से असम्बद्ध तथा पाप में भी असम्बद्ध द्वापर-८६४०००। (वैदिक काल-गणना) कलियुग-४३२०००। होता है और हृदय के सम्पूर्ण गोको को पार कर लेता २ "मसमदसमम्मि णामे सेसे चउसीदिलक्खपत्वाणि । वासतए अडमासे इगिपक्खे उसह उप्पत्ती ॥ ४।५५३ (श्रमणः परिवाट्-यत्कर्म निमित्तो भवति, सतेन -तिलोयपण्णत्ती भा० १ बिनिमक्तत्वादश्रमणः।" -शांकर भाप्य "सुषम दुःषमा नामक काल मे चौरासी लाख पूर्व, तीन "श्रमण' अर्थात् जिस कर्म के कारण पुरुष परिवाट वर्ष आठ माह और एक पक्ष शेष रहने पर वृषभदेव होता है उससे मुक्त होने के कारण बह श्रमण हो का अवतार (जन्म) हुमा"। (यहां कृतयुग काल जैन जाता है। गणना के अनुसार है)- ।. Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन डा० गोकुलचन्द जैन, प्राचार्य, एम. ए., पो-एच. डो. सोमदेव सरिकृत यशस्तिलक महाराज यशोधर के मंत्री का व्यवहार रखा और उन्हे अपने यहाँ व्यापार की जीवनचरित्र को आधार बनाकर गद्य और पद्य मे लिखा मुविधाए दी। इस वग के राजाम्रो का विरुद् वल्लभराज गया एक महत्त्वपूर्ण संस्कृत ग्रंथ है। इसमे आठ पाश्वास प्रसिद्ध था जिसका रूप अरव लेखको में बल्हरा पाया या अध्याय हैं। पूरे ग्रन्थ मे दो हजार तीन सौ ग्यारह जाता है। पद्य तथा शेप गद्य है। मोमदेव ने गद्य तथा पद्य दोनो गष्टकटो के राज्य में साहित्य, कला, धर्म और दर्शन को मिलाकर आठ हजार श्लोक प्रमाण बताया है। को चतुर्मखी उन्नति हुई। उस युग की सांस्कृतिक पृष्ठयशस्निलक का रचनाकाल निश्चित है, इसलिए इसके भूमि को आधार बनाकर अनेक ग्रन्थो की रचना की गई। अनुशीलन मे वे अनेक कठिनाइयाँ नही पाती, जो समय यशस्तिलक उमी युग की एक विशिष्ट कृति है। की अनिश्चितता के कारण भारतीय साहित्य के अनुशीलन यशरितलक की रचना गद्य और पद्य मे हुई है। में साधारणतया उपस्थित होती है। सोमदेव ने यशस्तिलक माहित्य की इस विधा को समीक्षको ने चम्पू कहा है । के अन्त में स्वय लिखा है कि चैत्र शक्ल त्रयोदशी शक स्वय मोमदेव ने इमं महाकाव्य कहा है। प्रत्येक प्रादवाम मंवा ८१ (६५६ ई.) को जिस समय श्रीकृष्णगनदेव के अन्त में जो प्रणिका वाक्य पाया जाता है, उममे 'यशोपाण्डय, मिहल, चोल, चेर आदि राजाश्री का जीतकर धरमहागजग्नि यग्तिनकापरनाम्नि महाकाव्ये' पद मैलपाटी मेना शिविर में थे, उम ममय उनके चरणकम पाया है। वास्तव में यह अपने प्रकार का एक विशिष्ट प्रथ लोपजीवी, चालुक्य वशीय अरिकेमरी के प्रथम पुत्र सामन है और अपने प्रकार की स्वतन्त्र विधा । एक उत्कृष्ट काव्य वहिग (वद्यग) की राजधानी गगपाग में यह काव्य ग्वा के सभी गुण मम विद्यमान है। कया और आख्यायिका के शिलाट, गेमा चकारी पोर गेचक वर्णन, गद्य और पद्य राष्टकट नरेश कृष्णगज तृतीय के एक दानपत्र में भी के सम्मिश्रण का चि वैचित्र्य, रूपक के प्रभावकारी और सोमदेव के विवरण के ममानही कृष्णगजदेव की दिग्विजय हृदयग्राही मग्न कथनोपकथन, महाकाव्य का वृत्तविधान का उल्लेख है। यह दानपत्र मोमदेव के यस्तिलक की रसमिद्धि, प्रलकृत चित्राकन तथा प्रसाद और माधुयं युक्त रचना के कुछ ही सप्ताह पूर्व फाल्गुन वृष्ण त्रयोदशी शक सरम शैली, मगचिपुणं कथावस्तु और माहित्यकार के मंवत् ८८० (६ मार्च सन ६५६ ई०) को मेलपाटी (वर्त- दायित्व का कलापूर्ण निर्वाह, यह याम्तिनकका माहित्यिक मान मेलाडी जो उनर अकोट की वादिवाय तहशील में स्वरूप है। गद्य का पद्यो जमा मग्ल बिगाम, प्राकृत है) लिया गया था। छन्दों का मस्कृत में अभिनव प्रयोग तथा अनेक प्राचीन राष्ट्रकूट मध्ययुग में दक्षिण भारत के महाप्रतापी अमिद्ध शब्दो का मकलन यशस्तिलक के साहित्यिक म्वनरेश थे। धारवाड कर्नाटक तथा वर्तमान हैदराबाद प्रदेश रूप की अतिरिक्त विशेषताएं है। मस्कृत माहिन्य मर्जन पर गष्ट्रकूटों का अखण्ड गज्य था। लगभग पाठवी शती के लगभग एक सहस्र बों में सुबन्धु बाण और दण्डि के के मध्य में लेकर दशम शती के अन्त तक गष्ट्रकूट सम्राट् ग्रन्थो मे गद्य का, कालिदास, भवभूति और भार्गव के न केवल भारतवर्ष में, प्रत्युत पश्चिम के अरब साम्राज्य महाकाव्यों में पद्य का तथा भास और शुद्रक के नाटको में में भी अत्यन्त प्रसिद्ध थे। अरबों के माथ उन्होंने विशेष म्पक रचना का जो विकास हुआ, उमका और अधिक गया । । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ अनेकान्त परिष्कृत रूप यशस्तिलक में उपलब्ध होता है। यशस्तिलक में प्रयत्नपूर्वक किया है। उनका उद्देश्य था यशस्तिलक की यह अन्यतम विशेषता है कि प्राचीन कि दशमी शताब्दि तक की अनेक साहित्यिक और सांस्कृभारतीय वाङ्मय में संभवतया यह प्रथम और अकेला तिक उपलब्धियों का मूल्यांकन तथा उस युग का सम्पूर्ण ग्रथ है, जिसकी कथावस्तु को दुग्वान्त माना जा सकता है। चित्र अपने ग्रन्थ में उतार दें। नि मदेह सोमदेव को अपने काव्य के विशेप गुणो के अतिरिक्त यशस्तिलक में को इस उद्देश्य में पूर्ण सफलता मिली। यशस्तिलक जैसे इस मी प्रचुर मामग्री है, जो इसे प्राचीन भारत के मास्कृतिक महनीय ग्रन्थ की रचना दशमी शती की एक महत्त्वपूर्ण इतिहास की विभिन्न विधाओं से जोड़ती है। पुरातत्त्व, उपलब्धि है। सामग्री की इस विविधता और प्रचुरता के कला इतिहास और साहित्य की मामग्री के साथ तुलना । कारण यास्तिलक को स्वय सोमदेव के शब्दो में एक करने पर इसकी प्रामाणिकता और उपयोगिता और भी और योगिता और भी महान् अभिधान कोण कहना चाहिए। परिपुष्ट होती है। एक बड़ी विशेषता यह भी है कि सोम- यशस्तिलक में सामग्री की जितनी विविधता और देव ने जिम विषय का स्पर्श भी किया उस विषय में प्रचुरता है, उतनी ही उसकी शब्द सम्पत्ति और विवेचन पर्याप्त जानकारी दी। इतनी जानकारी कि यदि उमका शैली की दुरूहता भी। इसलिए जिम वैदुग्य और यत्न विस्तार में विश्लेपण किया जाये तो प्रत्येक विषय एक के साथ सोमदेव ने यशस्तिलक की रचना की शायद ही लघुकाय म्वनन्त्र ग्रन्थ नैयार हो सकता है। यशस्निलक उमसे कम वैदुप्य और प्रयत्न यशस्तिलक के हार्द को पर श्रीदेव कृत यशस्तिलक पजिका नामक एक सक्षिप्त समझने मे लगे। मभवतया इम दुरुहता के कारण ही सस्कृत टीका है। इसे सस्कृत टिप्पण कहना अधिक उप- यगस्तिलक याचारण पाटको की पहुँन में दूर बना पाया, युक्त होगा। यद्यपि इनके ममय का ठीक पता नही चलता पर दक्षिण भाग्न से लेकर उनर भारत, गजस्थान और फिर भी ये सोमदेव में अधिक बाद के नही लगते । मोल- गुजरात के शारत्र भण्डाग में उपलब्ध यगम्तिलक की हवी गती में श्रुतसागर मूरि ने यशस्तिलक चद्रिका नामक हस्तलिग्विन पाण्डुलिपियाँ म बात की प्रमाण है कि मंस्कृत टीका लिग्वी। यह लगभग माई चार पाश्वासो पर पिछली शताब्दियों में भी यगम्तिलक का सम्पूर्ण भारतवर्ष है। सभवतया वे इस पूरा नहीं कर मके। श्रीदेव ने में मूल्याकन हुआ। पंजिका में यशस्तिलक के विषयों को इस प्रकार गिनाया बीमवी शती में पीटरसन और कीथ जैसे पाश्चात्य विद्वानों का ध्यान यतिलक की महत्ता और उपयोगिता १ छन्द, २ शब्द निषटु, ३ अलकार, ४ कला, की ओर आकर्षित हुया है। भारतीय विद्वानों ने भी अपनी ५ मिद्धान्न, ६ सामुद्रिक ज्ञान, ७ ज्योतिप, ८ वैद्यक ह वेद इम निधि की मोर अब दष्टि डाली है। १. वाद, ११ नाट्य, १२ काम, १३ गज, १४ अश्व, सम्पूर्ण यस्तावक श्रुतमागर मूरि की अपूर्ण मस्कृत १५ आयुध, २६ तर्क, १७ पाख्यान, १८ मत्र, १९ नीति, टीका के साथ दो जिन्दो में अब तक केवल एक बार २. शकुन, २१ वनस्पात, २२ पुगण, २३ म्मृति, २० लगभग माठ वर्ष पूर्व निर्णयसागर प्रेम, बम्बई में प्रकाशित मोक्ष, २५ अध्यात्म, ०६ जगतस्थिति और २७ प्रवचन ।। हुआ था। तीन आवासो का पूर्व खण्ड सन् १९०१ मे यदि श्रीदेव के अनुमार ही यशस्तिलक के विपयो का और पाच पाश्वामो का उत्तर खण्ड सन् १६०२ में । पूर्व वर्गीकरण किया जाये तो इस सूची में कई विपय और ग्वण्ड मन् १९१६ म पुनर्मुद्रित भी हुआ था। इस मस्करण जोड़ने होगे । जैसे-भूगोल, वास्तुशिल्प, यन्त्रशिल्प, चित्र- मे पाठ की अशुद्धियों है। उनरखण्ड मे तो अत्यधिक है। कला, पाक विज्ञान, वस्त्र और वेशभूपा, प्रसाधन सामग्री मन् १९४६ में बम्बई से केवल प्रथम प्राश्वास श्री जे. और ग्राभूषण, कला विनोद, शिक्षा और माहित्य, वाणिज्य एन. क्षीरसागर द्वाग अग्रेजी टिप्पण आदि के साथ और सार्थवाह, सुभाषित आदि। सम्पादिन होकर प्रकाशित हुआ था । मन् १९४६ मे शोला इम सूची के कई विषयो का समावेश मोमदेव ने पुर से प्रो. कृष्णकान्न हन्दिकी का 'यशरितलक एण्ड Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन २७५ इंडियन कल्चर' प्रकाश में पाया । इमम प्रो० हन्दिकी ने ३. ललित कलाये और शिल्प विज्ञान । यशस्तिलक की सास्कृतिक विशेषकर धार्मिक और दार्श- ४. यशस्तिलककालीन भूगोल । निक मामग्री का विद्वनापूर्ण अध्ययन और विश्लेषण ५ यशस्तिलक की शब्द-सम्पत्ति । प्रस्तुत किया है। प्रथम अध्यायमे वह सामग्री दी गई है जो यशस्निलक मन् १९६० मे वागणसी में प मुन्दरलाल शास्त्री ने के परिशीलन की पृष्ठभूमि के रूप में अनिवार्य है। इम हिन्दी अनुवाद के साथ प्रथम तीन पाश्वासी का सम्मादन अध्याय में तीन परिच्छेद है। पहले परिच्छदमे यशस्तिलक करके प्रकाशन किया है। अन्त में लगभग उतने ही श्रीदेव का रचनाकान, यशस्तिलक का साहित्यिक और सांस्कृतिक के टिप्पण भी दे दिये है। इस संस्करण में सम्पादक ने स्वरूप, यशस्तिलक पर अब तक हुए कार्य का लेखा-जोखा, मूल पाठ को प्राचीन प्रतियो में बहुत कुछ शुद्ध किया है। सोमदेव का जीवन और माहित्य, सोमदेव और कन्नौज के पिछले ५-६ दशको में पत्र-पत्रिकाओं में भी सोमदेव गुर्जर प्रतिहार तथा देवसथ के विषय में मंक्षेप मे प्रावश्यक और यशस्तिलक पर विद्वानों के कई लेख प्रकाशित हुए जान है, जिनमे स्व० ५० नाथूगम प्रेमी, म्व० ५० गाविदगम मोमदेव के जीवन और साहित्य का जो परिचय उपशास्त्री, डॉ० वी० गघवन तथा डॉ. ई. डी. कुलकर्णी लब्ध होता है, उससे उनके उज्ज्वल पक्ष का ही पता के नेव विशेष महत्त्वपूर्ण है। चलता है। नीतिवाक्यामृत और यशस्तिलक उनकी उपयशस्तिलक के अन्तिम नीन प्राप्वामी का प० कनाश- लब्ध रचनाएं है । पण्णबतिप्रकरण प्रादि चार अन्य ग्रथ चन्द्र शास्त्री ने संपादन और हिन्दी अनुवाद किया है, जो अनुपलब्ध है। भारतीय ज्ञानपीठ वाराणमी द्वारा सन् १९६४ के अन्त मे नीतिवाक्यामृत के मस्कृत टीकाकार ने मामदेव को उपासकाध्ययन नाम में प्रकाशित हुआ है। सम्पादक ने कन्नीज के गुर्जर प्रतिहार नरेश महेन्द्रदेव का अनुज बताया मूलपाठ को प्राचीन प्रतियो से बहुत कुछ ठीक किया है। है। यशस्तिलक के दो पद्य भी महेन्द्रदेव और सोमदेव के प्रारम्भ में मंपादक ने छयानबे पृष्ठो की हिन्दी प्रस्तावना सम्बन्धो की और मकेत करते है। उनका अनुपलब्ध ग्रन्थ भी दी है। प०जिनदास शास्त्री, सोलापुर ने श्रुतमागर महेन्द्रमातनिमजला और सोमदेव का देवातनाम भी शायद मूरि की टीका की पूर्ति स्वरूप मस्कृत टीका लिग्बी है, वह इस पोर इगित है । महेन्द्रपाल देव द्वितीय तथा सोमदेव के भी इमके अन्त में मुद्रित हुई है। सम्बन्धो में कालिक कठिनाई भी नही पानी । यशस्तिलक . यशम्तिलक पिछले लगभग बम वर्षों में मेरे विशेप में गजनीति और गासन का जो विशद वर्णन है, उससे अध्ययन का विषय रहा है। हिन्दू विश्वविद्यालय की पी- मोमदेव का विशाल गज्यतन्त्र मोर शासन में परिचय एच. डी उपाधि के लिए लिख गये शोध प्रवन्ध में मैंने म्पाट है। इतनी मब सामग्री होते हुए भी मेरी समझ में इसकी सास्कृतिक मामग्री का विवेचन किया है। मैने मोमदेव को प्रतिहार नरेश महेन्द्रपाल देव का अनुज मानने भग्मक उम सामग्री का विवेचन किया है जिमके विषय के लिए अभी और अधिक ठोग माध्यो की अपेक्षा बनी में इसके पूर्व किमी ने भी प्रकाश नही डाला किन्तु जिमका रहती है। उपयोग भाग्नवप का नवान उपलब्धिया म किया जाना यम्निलक चालुक्यवशीय अरिकेसरी के प्रथम पुत्र चाहिए। वद्यग की राजधानी गगधारा में रचा गया था। परिकेमरी अपने शोध-निष्का को मैन मव पाच अध्यायों में तृतीय के एक दानपत्र से सोमदेव और चालुक्यो के समेटा है मम्बन्धो का और भी दृढ निश्चय हो जाता है। चालुक्य १. यशस्तिलक के परिशीलन की पृष्ठभूमि । वा दक्षिण के महाप्रतापी गष्ट्रकूटो के अधीन मामन्त २. यगस्तिलककालीन सामाजिक जीवन । पदवी धारी था। याम्निलक गष्ट्रकूट मंस्कृति को एक Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ अनेकान्त विशाल दर्पण की तरह प्रतिबिम्बित करता है जिस तरह लगभग आज तक यशोधर की कथा कहते पाये । उद्योतन बाणभट्ट ने हर्षचरित और कादम्बरी में गुप्त युग का चित्र मूरि (७७७ ई.) ने प्रभजन के यशोधरचरित्र का उल्लेख उतारने का प्रयत्न किया, उसी तरह सोमदेव ने यशम्तिलक किया है। हरिभद्र की समराइच्चकहा में यशोधर की कथा में राष्ट्रकूट युग का। आयी है। बाद के साहित्यकारोंने प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रश, सोमदेव देवसंघ के साधु थे । परिकेसरी के दान पत्र पूरानी हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी, तमिल और कन्नड़ में उन्हें गौण सघ का कहा गया है। वास्तव मे ये दोनों भाषाओ मे यशोधरचरित्र पर अनेक ग्रन्थों की रचना एक ही सघ के नाम थे। देवसघ अपने युग का एक की। प्रो०प० ल. वैद्य ने जसहरचरिउ की प्रस्तावना में विशिष्ट्र जैनसाघु संघ था। सोमदेव के गुरु, नेमिदेव ने उन्तीम ग्रन्थो की जानकारी दी थी। मेरे सर्वेक्षण से यह सैकडो महावादियो को वाग्युद्ध में पगजित किया था। सख्या चौवन तक पहुंची है। अनेक गास्त्र भण्डारो की मोमदेव को यह सब विरासत में मिला। यही कारण है मूचियों अभी भी नहीं बन पायी। इसलिए मभव है अभी कि उनके लिए भी वादीभपचानन, नाकिक चक्रवर्ती ग्रादि और भी कई ग्रन्थ यशोधर कथा पर उपलब्ध हों। विशेषण प्रयुक्त किये गये है। द्वितीय अध्याय में यशस्तिलककालीन सामाजिक इस सम्पूर्ण सामग्री को प्रमाणक माक्ष्यों के माथ पहले जीवन का विवेचन है। इसमें बारह परिच्छेद है। परिच्छेद परिच्छेद में दिया गया है। एक में समाज गठन भौर यशस्तिलक में उल्लिखित सामादूसरे परिच्छेद में यशस्तिलक की मक्षिप्त कथा दी जिक व्यक्तियों के विषय में जानकारी दी गई है। सांगदेव गई है तथा उसकी मास्कृतिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डाला कालान ममाज अनक वा म विभवा था । वर्ण गया है। महाराज यशोधर के पाठ जन्मो की कहानी का की प्राचीन श्रीन-म्मात मान्यताय प्रचलित थी। ममाज मूल यशस्तिलक के प्रासगिक विस्तृत वर्णनों में कही खो न और साहित्य दाना पर उन मान्यनामों का प्रभाव था। जाये, इसलिए सक्षिप्त कथा का जान नना यावश्यक है। ब्राह्मण के लिए यशस्तिलक में ब्राह्मण, द्विज, विप्र. भदेव, थोत्रिय, वाडव, उपाध्याय, मौलनिक, देवभोगी, पुरोहित ___ कथा के माध्यम से सिद्धान्त और नीति की शिक्षा और त्रिवेदी शब्द आये है। ये नाम प्राय उनके कार्यों के की परम्परा प्राचीन है। यशस्तिनक की कथा का उद्देश्य ६५ आधार पर थे। हिमा के दुष्प्रभाव को दिखाकर जनमानस मे अहिसा के क्षत्रिय के लिए क्षत्र और क्षत्रिय शब्द प्राय है। उच्च आदर्श की प्रतिष्ठा करना था। यशोधर को पाटे के पौरुष सापेक्ष्य पोर गज्य सचालन प्रादि कार्य क्षत्रियोचित मुर्गे की बलि देने के कारण छह जन्मो तक पशुयोनि में माने जाते थे। भटकना पडा तो पशु बलि या अन्य प्रकार की हिसा का तो और भी दुप्परिणाम हो सकता है। सोमदेव ने बड़ी वैश्य के लिए वेश्य, वणिक, प्ठि और सार्थवाह कुशलता के साथ यह भी दिखाया है कि मकल्प पूर्वक शब्द आये है। ये देशी व्यापार के अतिरिक्त टाडा बाधहिंसा करने का त्याग गृहस्थ को विशेष रूप में करना कर विदेशी व्यापार के लिए भी जाने थे। थुप्ठ व्यापारी चाहिए । कथावस्तु की यही सास्कृतिक पृष्ठभूमि है। को गज्य की ओर मे गजथेप्ठी पद दिया जाता था। तीसरे परिच्छेद मे यशोधरचरित्र की लोकप्रियता का प्रियता का शुद्र के लिए यगस्तिलक में शूद्र, अन्त्यज पोर पामर सर्वेक्षण है। यशोधर की कथा मध्ययुग से लेकर बहत शब्द आये है। प्राचीन मान्यतायों की तरह मोमदेव के बाद तक के साहित्यकारो के लिए एक प्रिय और प्रेरक समय भी अन्त्यजो का स्पर्श बजनीय माना जाता था और विषय रहा है। कालिदास ने प्रवन्ति के उदयन-कया वे राज्य गचालन आदि के अयोग्य समझे जाते थे। कोविद ग्रामवृद्धो की बात कही थो, यशोधर कथा के अन्य मामाजिक व्यक्तियों में सोमदेव ने हलायुधजीवि. विशेषज्ञ मनीषी पाठवी शती के भी बहुत पहले से लेकर गोप, वजपाल, गोपाल, गोध, नक्षक, मालाकार कौलिक Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन २७७ स्वजिन्, निपाजीव, रजक, दिवाकीति, पास्तरक, सवाहक, लन था। सोमदेव ने चिरपरिचित पारिवारिक सम्बन्ध धीवर, चर्मकार, नट या शैलूष, चाण्डाल, शबर, किरात, पति, पत्नि, पुत्र, आदि का सुन्दर वर्णन किया है । बालवनेचर और मातग का उल्लेख किया है। इस परिच्छेद क्रीडा का जमा हृदयग्राही वर्णन यशस्तिलक में है, वैसा में इन सब पर प्रकाश डाला गया है। अन्यत्र कम मिलता है। स्त्री के भगिनी, जननी, दूतिका, परिच्छेद दो में जनाभिमत वर्णव्यवस्था और मोमदेव महवरी, महानसकी, धातृ भार्या श्रादि रूपा पर प्रकाश की मान्यताप्रो पर विचार किया गया है । सिद्धान्त प डाला गया है। से जैनधर्म में वर्णव्यवस्था की श्रीतम्मातं मान्यताये स्वीकृत यगस्तिलक में विवाह के दो प्रकारों का उल्लेख है। नहीं है । कर्मग्रन्थों में वर्ण, जाति ओर गोत्र की व्याख्या प्राचीन गजे-महाराजे तथा बहुत बड़े लोगो मे स्वयवर प्रचलित व्याख्यानो से सर्वथा भिन्न है। इसी प्रकार जैन की प्रथा थी । स्वयवर के आयाजन की एक विशेष विधि ग्रन्थो मे चतुर्वर्ण की च्याम्या भी कर्मणा की गयी है। थी। माता पिता द्वारा जा विवाह प्रायोजित हात थे, सिद्धान्त रूप में मान्यताओं का यह रूप होते हुए भी व्यव- उनमें भी अनेक बाता का ध्यान रखा जाता था। सामदेव हार में जन गमाज में भी श्रीन-स्मात मान्यताये प्रचलित ने बारह वर्ष की कन्या नथा मोलह वर्ष के युवक को थीं। इसलिए सोमदेव ने चिलन दिया कि गृहस्थ के लो- विवाह योग बनाया है। बाल विवाह की परम्परा स्मृतिकिक और पारलौकिक दो धम हे । लोक धर्म लौकिक मा- काल से चली प्रायी थी। स्मृति ग्रन्थों मे अरजस्वला न्यताओं के अनमार तथा पारलौकिक धर्म अागमो प्रामार कन्या के ग्रहण का उल्लंग्व है। अलबरनी ने भी लिखा है मानना चाहिए। प्राचीन कर्मग्रन्थों में लेकर मोगदन नक के कि गाग्नवर्ष म बाल विवाह की प्रथा थी। इस परिच्छद जैन माहित्य के परिप्रेक्ष्य में इस विषय पर विचार निया म:म सम्पूर्ण मागग्री का विबनन किया गया है। गया है। परिच्छद पाच में यगरिनलक में पायी खान-पान परिच्छेद नीन में पाश्रम व्यवस्था और सन्यम्न व्यक्ति विषयक मामग्री का विवचन है। सोमदेव की इस सामग्री यो का विवचन है । पाश्रम व्यवस्था की प्राचीन मान्यनाए की विविध उपयोगिता है। एक तो इससे खाद्य प्रा. पव प्रचलित थी। ब्रह्मचर्य प्राथम की समाप्ति पर मोमदेव वस्तयो की लम्बी सूची प्राप्त होती है, दूसरे दशमा शतो ने गोदान का उल्लेख किया है। बाल्यावस्था में मन्यम्न में भारतीय परिवाग-विशेषकर दक्षिण भारत के पार होने का निपंध किया जाता रहा है। पर इसके भी पर्याप्न बार्ग की खान-पान व्यवस्था का पता चलता है। तासर अपवाद रहे है। यशस्तिलक के प्रमुख पात्र अभय चि ऋतूमों के अनसार सलिन और स्वास्थकर भाजन पर और अभयमति भी छोटी अवस्था में प्रजित हो गये थे। व्यवस्थित जानकारी प्राप्त होती है। पाकविद्या 1444 सन्यम्न व्यक्तियो के लिए प्राजीवक, कर्मन्दी, कापालिक, में भी मोमदेव ने पर्याप्त जानकारी दी है। शुभार कौल, कुमाग्श्रमण,चिणिखडि, ब्रह्मचारी, जटिल, देशनि, मसर्ग भेद में मठ प्रकार के व्यजन बनाये जा स॥ ५ । देशक, नास्तिक, परिव्राजक, पागशर, ब्रह्मचारी, भविल, मपशास्त्र विशेषज्ञ पांगंगव का भी उल्लेख ह। पना महानती, महामाहसिक, मुनि, मुमुक्षु, यति, यागज, यागी, पकायी गई खाद्य मामग्री में गाधूम, यय, दीदिषि, 4110 वैखानम, शमितव्रत, श्रमण, माधक, माधु, पोर रिपब्दो मालि. कलम. यवनाल, चिपिट, मूल, मुद्ग, मा. 11. का प्रयोग हुआ है। इनमें से अधिकाश नाम अपने-अपने माल तथा द्विदल का उल्लख है। भोजन के साथ जल सम्प्रदाय विशेष को व्यन करते है । इनके विषय में मक्षेप किम अनपात पाना चाहिए, जल को अमृत पार ... में जानकारी दी गयी है। क्या कहा जाता ह, ऋतुमा के अनुसार वापी, कूप, .... परिच्छेद चार में पारिवारिक जीवन और विवाह की कहाँ का जल पीना उपयुक्त है, जल को ससिद्ध . प्रचलित मान्यताओं पर प्रकाश डाला गया है। सोमदेव- जाता है, इसकी जानकारी विस्तार से दी गयी। कालीन भारत में संयुक्त परिवार प्रणाली का प्रन- ममालो में दरद, क्षपारम, मरिच, पिप्पली ..... Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७% अनेकान्त तथा लवण का उल्लेख है। स्निग्ध पदार्थ, गौरस तया करता है। मनुष्यों को प्रकृति भिन्न भिन्न प्रकार की होती अन्य पेय सामग्री में घृत, प्राज्य, तेल, दधि, दुग्ध, नवनीत. है। ऋतु के अनुसार प्रकृति में परिवर्तन होता रहता है। तक्र, कलि, या अवन्ति, सोम, नारिकेलफ लाभ पानक तथा इसलिए भोजनपान आदि की व्यवस्था ऋतुओं के अनुसार शर्कराय पेय का उल्लेख है। घृत, दुग्ध, दधि तथा तक करना चाहिए। भोजन का समय, सहभोजन, भोजन के के गुणों को सोमदेव ने विस्तार से बताया है। मधुर समय वर्जनीय व्यक्ति, भोज्य और अभोज्य पदार्थ, विषपदार्थों में गर्करा, शिता, गुड़ तथा मधु का उल्लेख है। युक्त भोजन, भोजन करने की विधि, नीहार या मलमूत्र माग-सब्जी और फलों की तो एक लम्बी सूची पायी है- विसर्जन, अभ्यंग उद्वर्तन व्यायाम तथा स्नान इत्यादि के पटोल, कोहल, कारवेल, वृन्ताक, बाल, कदल, जीवन्ती, विपय मे यशस्तिलक में पर्याप्त सामग्री पायी है। उम मलय, विस, वास्तूल, तण्डुलाय, चिल्ला, चिभाटका, सबका इस परिच्छेद मे विवेचन किया गया है। मूलक, पाक, धात्रीफल, एर्वारु, अलाब, कारु, मालूर, चक्रक, अग्निदमन, रिगणीफल, अगस्ति, आम्र, आम्रातक, रोगो में अजीर्ण, अजीर्ण के दो भेद विदाहि और पिचुमन्द, सोभाजन, वृहतीवार्ताक, एरण्ड, पलाण्डु, बल्लक, दुर्जर, दृग्मान्य वमन, ज्वर, भगन्दर, गुल्म तथा सितश्वित रालक, करेकून्द, कोकमाची, नागरग, ताल, मन्दर, नाग- के उल्लेख हैं। इनके कारणों तथा परिचर्या के विषय में वल्ली, बाण, आसन, पूग, अक्षोल, खजूर, लवली, जम्बीर, भी प्रकाश डाला गया है। अश्वत्थ, कपित्थ नमेरु, पारिजात, पनस, ककुभ, बट, कुरबक, औषधियो मे मागधी, अमृता, सोम, विजया, जम्बक, जम्ब, दर्दरीक, पुण्डेक्ष, मद्वीका, नारिकेल, उदम्बर तथा मुदर्शना, मरुद्भव, अर्जुन, नकुल, सहदेव, अभीरु, लक्ष्मी, वती, नपस्विनी, चन्द्रलेखा, कलि, अर्क, अरिभेद, शिवप्रिय, __ तैयार की गई सामग्री मे भक्त, मूग गाकुली, समिध गायत्री, ग्रन्थिपर्ण तथा पारदरस को जानकारी पायी है। या समिता, यवाग्, मोदक, परमान्न, खाण्डव, रसान मोमदेव ने प्रायुर्वेद के अनेक पारिभाषिक शब्दों का भी अमिक्षा, पक्वान्न, प्रवदश, उपदंश, सपिपिस्नात, अगार- प्रयोग किया है । इम मब पर इस परिच्छेद में प्रकाग डाला पाचिन, दनापरिप्लुत, पयषा-विशाक तथा पर्पट के उल्लेग्न गया है। परिच्छेद सात मे या यशस्तिलक में उल्लिखित वस्त्रो मामाहार तथा सासाहार निषेध का भी पर्याप्त वर्णन तथा वेशभूषा का विवेचन है। सोमदेव ने बिना सिले है। जैन मामाहार के तीव्र विरोधी थे, किन्तु कील-कापा वस्त्रो मे नेत्र, चीन, चित्रपटी, पटोले, रल्लिका, दुकूल, लिक प्रादि सम्प्रदायो में मासाहार धार्मिकम्प से अनुमत अशक तथा कौशेय का उल्लेख किया है। नेत्र के विषय था। वध्य पशु-पक्षी तथा जलजन्तुग्रो मे मेप, महिप, मय, में सर्वप्रथम डॉ० वामदेवशरण अग्रवाल ने विस्तार में मातग, मितदु. कुभीर, मकर, मालूर, कुलीर, कमठ, पाठीन, जानकारी दी थी। नेत्र का प्राचीनतम उल्लेख कालिदास भेमण्ड, कोच, कोक, कुकट, कुरर, कलहम, चमर, चमूर के रघवग का है । बाण ने भी नेत्र का उल्लेख किया है। हरिण, हरि, बक, वराह, वानर तथा गोबर के उल्लेख है। नाक में इसके चौट प्रकार बताये है। चौदहवी मामाहार का ब्राह्मण परिवारों में भी प्रचलन था। यज दाती तक बगाल में नेत्र का प्रचलन था। नेत्र की पाचूडी पौर श्राद्ध के नाम पर मासाहार की धामिक म्वाकृति गोटी और बिछायी जाती थी। जायसी ने पद्मावत में कर मान ली गई थी। इस परिच्छेद में इस मपूर्ण मामग्री का वार नेत्र का उल्लेख किया है। गोरखनाथ के गीतों तथा विवेचन किया गया है। भोजपुरी लोकगीतो मे नेत्र का उल्लेख मिलता है। चीन परिच्छेद छह मे स्वास्थ्य, रोग और उनकी परिचर्या देश से आने वाले वस्त्रों को चीन कहा जाता था। भारत विषयक सामग्री का विवेचन है। खानपान और स्वास्थ्य में चीनी वस्त्र प्राने के प्राचीनतम प्रमाण ईसा पूर्व पहली का अनन्य संबंध है। जठराग्नि पर भोजन पान निर्भर दाताब्दी के मिलते है। डॉ० मोतीचन्द्र ने इस विषय पर Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन २७६ पर्याप्त प्रकाश डाला है। कालिदाम ने शाकुन्तल में चीना- मोमदेव ने कोट के अर्थ में ही प्रयोग किया है। भारतीय शुक का उल्लेख किया है। वृहत्कल्पमूत्र में इसकी व्याख्या माहित्य में बारबाण के उल्लेख कम ही मिलते है। चोलक आयी है। चीन और वाहीक से और भी कई प्रकार के भी एक प्रकार का कोट था। यह पौर कोटो की अपेक्षा वस्त्र पाते थे। चित्रपट सभवतया वे जामदानी वस्त्र थे, गबसे अधिक लम्बा और ढीला बनता था। इमे सब वस्त्रों जिनकी बिनावट में ही पशु-पक्षियों या फूल-पनियो की के ऊपर पहनते थे। उत्तर-पश्चिम भारत में नोगे के समय भॉन डाल दी जाती थी। बाण ने चित्रपट के तकियों का चाला या चोलक पहनने का रिवाज अब भी है। भारत में उल्लेख किया है। पटोल गुजगत का एक विशिष्ट वस्त्र चालक मभवतया मध्य एशिया से शक लोगो के साथ था। आज भी वहाँ पटोला माही का प्रचलन है। ग्राया और यहाँ की वेशभूषा मे समा गया। भारतीय गल्लिका लक नामक जगली बकरे के ऊन मे बना वेग- फिल्म में इस प्रकार के कोट पहने मूर्तियां मिलती है। कीमती वस्त्र था। युवागच्चाग ने भी इसका उल्लेच नाहातवः एक प्रकार का घधरीनुमा वस्त्र था। इसे स्त्री किया है। वस्त्रों में मवम अधिक उल्लेख दुकान के है। योर प्ररूप दानों पहनते थे। उष्णीष पगडी को कहते थे । आचाराग नथा निशीथ-वणि मे दुकूल की व्याम्या यागा भाग्न में विभिन्न प्रकार की पडियों बाधने का रिवाज है। पोण्ड नथा सुवर्णकुण्या के इकल विशिष्ट होते थे। प्राचीनकाल मे चला आया है। छोटे चादर या दुपट्टा को दुकूल की बिनाई, दुकल का जोड़ा पहनने का रिवाज, हम कोपीन कहत थे । उनरीय आढने वाला चादर था। चीवर मिथन लिखित कूल के जोडे दृकल के जाट पहनने की वाद्ध भिक्षुग्रो के वस्त्र कहलाते थे। प्राथमवामी माधुनो अन्य माहित्यिक माझी, दल की माडिया, पलगपोत, के वस्त्रों के लिए मोमदेव ने अावान कहा है। परिधान तकियों के गिलाफ, दुकूल और क्षाम वस्त्रों में अन्ना मोर , पुरुष की धोती को कहते थे । बुन्देलखण्ड की नोकभापा में ममानता इत्यादि का इस परिच्छेद में पर्याप्त विवंचन एमका गग्दनिया प अब भी सुरक्षित है। उपसव्यान किया गया है। अशक एक प्रकार का महीन वस्त्र था। डोटे नोछ को कहने थे। गुह्या कछुटिया लगोट था। यह कई प्रकार का होता था। मफेद तथा गीन मी हमालका ई भरे गई को कहा जाता था। उपधान प्रकार का ग्रशुक बनता था। भारतीय और चीनी याक तकिया के लिए बहु-प्रचलित शब्द था । कन्था पुगने कपड़ो की अपनी-अपनी विशेषताएं थी। कौगेय कोगकार कीटो को एक माथ मिलकर बनाई गई रजाई या गदरी थी। से उत्पन्न रेगम से बनना था। इन कीडोकी चार योनिया नमत ऊनी नमर्द थे । निचोल विस्तर पर बिछाने का बतायी गयी है। उन्ही के अनुसार कौशेय भी कई प्रकार चादर कहलाता था । सिचयोल्लोच चन्द्रातप या चदोवा का होता था। की कहते थे । इस परिच्छेद में इन समस्त वस्त्री के विषय पहनने के वस्त्रा में मामदेव ने कचुक, बारबाण. म प्रमाणक मामग्री के माथ पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। चालक, चण्डातक, उप्णीप, कोपोन, उत्तरीय, चीवर, परिच्छेद पाठ में यशस्तिलक में उल्लिग्वित पाभूषणो भावान, परिधान उपमंव्यान, और गृह्या का उल्लेख किया का परिचय दिया गया है। भारतीय अल कारणास्त्र की है । कचुक एक प्रकार के लम्बे कोट को कहा जाता था। प्टि में यह सामग्री महत्त्वपूर्ण है। सोमदेव ने सिर के और स्त्रियों की चोली को भी। मोमदेव ने चोली के प्रथं प्राभपणा में किरीट, मौलि, पट्ट और मुकुट का उल्लेख में कचुक का उल्लेख किया है। वाग्वाण युटनों तक किया है। किरीट, मौलि और मुकुट भिन्न-भिन्न प्रकार पहुँचनेवाला एक शाही कोट था। भारतीय वंगभूपा में यह के मुकूट थे । किरीट प्रायः इन्द्र तथा अन्य देवी देवताओं मामानी ईगन की वेशभूषा में पाया। बारवाण पहलवी के मकट को कहा जाना था। मौलि प्रायः राजे पहनते थे भापा का संस्कृत रूप है। गिल्प नथा मृण्मूर्तियों में वार- नथा मुकुट महासामन्त पट्ट सिर पर बाधने का एक विशेष वाण के प्रकन मिलते है। स्त्री और पुरुप दोनो बाग्बाण प्राभूषण था, जो प्रायः सोने का बनता था। बृहत्सहिता पहनने थे। बारबाण जिरहबख्तर को भी कहते थे, किन्तु में पात्र प्रकार के पट्ट बताये है। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त कर्णोभषणों में सोमोव ने प्रपतंस, कर्णपूर, कणिका, पहनने के आभूषण थे। कर्णात्पल तथा कुंडल का उल्लेख किया है। अवतंस प्रायः इस परिच्छेद में इन सब प्राभषणों के विषय में पल्लव या पुष्पों के बनते थे। सोमदेव ने पल्लव, चम्पक, विस्तार से जानकारी दी गई है। कचनार, उत्पल तथा करव के बने अवतसो के उल्लेख परिच्छेद नव मे केश विन्यास, प्रसाधन सामग्री तथा किये है। एक स्थान पर रत्नावतसो का भी उल्लेख है। पुष्प प्रसाधन की मुकुमार कला का विवेचन है। शिर कर्णपुर पुष्प के प्राकार का बनता था। देशी भाषा मे धोने के बाद स्त्रियां सुगधित धूप के धुएं से केशो को अभी इसे कनफूल कहा जाता है। कणिका तालपत्र के धुपायित करती थी। इससे केश भभरे हो जाते थे । भभरे भाकार का कर्णाभूषण था। आजकल इसे तिकोना कहते केशों को अपनी रुचि के अनुसार अलकजाल, कुन्तलकलाप, हैं। उत्पल के भाकार का बना कर्ण का आभुषण कर्णात्पल केशपाश, चिकुरभग, धम्मिल्ल विन्यास, मौली, सीमन्तकहलातामा । कुण्डल, कुड्मल तथा गोल बाली के आकार मन्नति, वेणीदण्ड, जटाजूट या कबरी की तरह सवार के बनते हैं। इनमें कानो को लपेटने के लिए एक पतली लिया जाता था। कैश संवारने के ये विभिन्न प्रकार थे। जंजीरी रहती थी। बुन्देलखण्ड में इस प्रकार के कला, शिल्प और मृण्मूर्तियो मे इनका अकन मिलता है। कृण्डनों का देहांतो में अब भी रिवाज है। हम परिच्छेद मे इन सबका परिचय दिया गया है। मले में पहनने के आभूषणों मे एकावली, कठिक। प्रमाधन सामग्री मे अजन, अललक, कज्जल, अगुरु, मौलिकदाम, हार तथा हाग्यष्टि का उल्लेख । एकावली ककोल, कुकुम, कर्पूर, चन्द्रकवल, तमालदलधूलि, ताम्बुल, मोहियों की इकहरी माला को कहते थे। मोमदेव ने इसे पटवाम, मन. सिल तथा सिन्दूर का उल्लेख है। पुप्प समरत पृथ्वीमण्डल को वश में करने के लिए आदेशमाला प्रमाधन में पुष्पों के बने विभिन्न प्रकार के अनंकागे के के समान कहा है। गुप्त युग में ही विशिष्ट प्राभपणो के नाम आये है। जैसे-अवतम कुवलय, कमल केयूर, विषय मे अनेक किंवदंतिया प्रचलित हो गई थी। एकावली कदलीप्रवाल मेखला, कर्णोत्पल, कर्णपूर या कर्णफूल, के विषय में बाण ने एक रोचक किवदन्ती का उल्लेख मृणालवलय, पुन्नागमाला, बन्धूक नूपूर, गिरीष जघापिया है। कठिका कठी को कहते थे। हार अनेक प्रकार लकार, शिरीपकुमृमदाम, विकिलाहारर्याप्ट तथा कुरवकके बनने थे। सोमदेव ने पाठ बार हार का उल्लेख किया मकन्नरक । इन सबके विषय में प्रस्तुत परिच्छेद मे जानहै। हारयष्टि संभवतया मागुल्फ लम्बा हार कहलाता था। कारी दी गयी है। मौक्तिक दाम मोतियो की माला को कहने थे । परिच्छेद दश मे शिक्षा और साहित्य विषयक सामयी भूजा के आभूषणो में प्रगद और केयुर का उल्लेख का विवेचन है। बाल्यावस्था शिक्षा का उपयुक्त समय है। केयूर भजा के शीर्ष भाग में पहना जाता था। अगद माना जाता था। गुग्कुल प्रणाली शिक्षा का प्रादर्श थी। बहत मुम्त होने के कारण ही मभवतया अगद कहनाता। शिक्षा ममाप्ति के बाद गोदान किया जाता था। शिक्षा था। स्त्री और पुरुष दोमो अगद पहनते थे। कलाई के के अनेक विषयों का मोमदेव ने उल्लेख किया है । अमृतप्राभपणो में कंकण और वमय का उल्लेख है। ककण प्राय मति महागनी की द्वारपालिका को समस्त देशो की सोने प्रादि के बनो थे और बलय सीग, हाथी दात पा भाषा और वेश की जानकागे कहा गया है। तर्कशास्त्र, काच के। हाथ की अगुली में पहना जाने वाला गान पुराण, काव्य, व्याकरण, गणित, शब्दशास्त्र, धर्माख्यान मल्ला उमिका कहलाता था। प्रगुलियक भी अगुली में प्रमाणशास्त्र, राजनीति, गज और अश्व शिक्षा रथ, वाहन पहना जाने वाला प्राभूपण था। कटि के प्राभूषणो मे और शस्त्र विद्या, रत्नपरीक्षा, सगीत, नाटक, चित्रकला, कांचो, मेखला रसना, सारमना तथा घर्घरमालिका का आयुर्वेद, युद्ध विद्या तथा कामशास्त्र शिक्षा के प्रमुग्व विषय उल्लेख है ये सब करधनी के ही भिन्न-भिन्न प्रकार थे। थे। इन्द्र, जैनेन्द्र, चन्द्र, अपिशल, पाणिनि तथा पतंजलि के मजीर, हिंजीरक, नूपुर, लुलाकोटि और मसक पेगें मे व्याकरणों का अध्ययन अध्यापन होता था। (क्रमशः) Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति का प्राचीनत्व २८१ (पृष्ठ ७२ का शेपारा) रहित, जरारहित और उत्क्षेपण-अवक्षेपण गतियुक्त हो। -चूंकि युग के आदि ब्रह्मा भगवान् ऋषभदेव ने इस किन्च आप भेदक (भेद विज्ञानी) किन्तु दूसरों से भेदन न |कार कर्मयुग का प्रारम्भ किया था, इसलिये पुराण के किये जा सकने वाले, बलवान, तृष्णारहित् पौर निर्मोह जाननेवाले उन्हें कृतयुग के नाम से जानते है । कुतकृत्य हों। भगवान् ऋषभदेव पाषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा विशेष-जिम चारित्रसे श्रमण कहलाता है, उससे मुक्त कि दिन कृतयुग का प्रारम्भ कर प्रजापति कहलाये। अर्थात् प्रात्मस्त होने पर वह प्रश्रमण कहलाता है । शिथि ऋषभदेव ने जैन मान्यतानुसार कर्म की तरह धर्म लाचार रहित एवं मृत्यु, भय, बुढ़ापा, तृष्णा और लोभ का भी प्रचलन और उपदेश किया। उस समय कृतयुग से रहित कोई भी श्रमण तपस्वी अन्तर्मुहुर्त से अधिक काल था, जिसमें लोगों की प्रवृत्ति धर्म की ओर थी। जैन श्रमण प्रात्म-ध्यान के बिना नहीं रह सकता अर्थात् छठा'मुनियों का सर्वत्र विहार था। यही बात भागवतकार सातवां गुण स्थान बदला करता है। किच ( प्रभविष्णव. कहते है । भागवत के उपर्युक्न श्लोको में "प्रायश." गब्द । उत्क्षेपणावक्षेपण गत्युपेता) बार बार ऊपर नीचे गुणस्थान विशेष उल्लेख योग्य है। उसका आशय यही है कि अधि में चढ़ता उतरता रहता है । तथा निर्मोही, निम्पृह, दुखों काग श्रमणों में ये गुण पाये जाने थे। प्राय सभी श्रमणी पौर सगयों मे रहित, इन सब में बलवान होने से वह का जीवन निष्पाप था। इसी प्रकार ऋषभदेव-काल की प्रादर योग्य और मबसे भिन्न होता है। जनता के प्राचार-विचारो के सम्बन्ध में दोनो परम्परा श्रमण शब्द का अधिक महत्व रहा है। वैयाकरण अत्यन्त अनिवार्य स्थिति में ही किसी शब्द विशेष के लिए ब्रह्मोपनिषद् में भी पर ब्रह्म का अनुभव करनेवाल नियम बनाने है, अन्यथा नही। किन्तु श्रमण शब्द के की दशा का जो वर्णन पाया है, उममे भी पहले कहे हुए मम्बन्ध मे व्याकरण ग्रन्थों में विशेष नियम उपलब्ध होता प्राशय की पुष्टि होती है है । सर्वप्रथम शाकटायन ने ऐसा नियम बनाया है"श्रमणो न श्रमणस्तापसो न तापसः एकमेव तत् पर "कुमारः श्रमणादिना"-शाकटायन २-१-७८ ब्रह्म विभाति निर्वाणम् ।" -ब्रह्मोपनिषद्पृ० १५१ श्रमण शब्द के साथ कुमार और कुमारी शब्द की चतुर्थ संस्करण निर्णयसागर प्रेम। श्रमण शब्द सर्व प्रथम ऋग्वेदके दशम मण्डल में उप सिद्धि विषयक यह सूत्र है । उस काल में "कुमार श्रमणा" लब्ध होता है। इस ऋचा में भी वृहदारण्यकोपनिषद् की जैसे पदलोक प्रचलित थे। यह शब्द मजा उस वापसी के लिए प्रचलित थी। जो कुमारी अवस्था में श्रमणा तरह ध्यान को उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन किया गया है-- (प्रायिका) बन जाती थी। “भमणादि गणपाठ" के दिला प्रतृदिलासो प्रयोऽश्रमणा प्रभृथिता प्रमृत्यवः ।। अन्तर्गत कुमार प्रवजिता, कुमार तापसी जैसे निष्पन्न मनातुरा अजराः स्थामविष्णवः सुपविसो प्रतृषिता प्रतृष्णजः ।। शब्दों से यह सिद्ध होता है कि उस समय कुमारियां -ऋग्वेद १०८।१४।११ प्रव्रज्या ग्रहण करती थी, यह लोक विश्रुत था। भगवान् (सायण )-प्रश्रमणाः श्रमणवर्जिताः प्रथिताः ऋपभदेव की ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों पुत्रियों ने कुमारी अन्यरशिथिलीकृता अमृत्यवः अमारिताः अनातुराः प्ररोगा' अवस्था में ही श्रमणपद ग्रहण किया था। विवाह के लिए अजराः जरारहिता. स्थभवथ । किञ्च प्रभविष्णवः उत्क्षेप समृद्यत गजीमती भी नेमिनाथ द्वारा दीक्षा लेने पर श्रमण गावक्षेपणगत्युपेता. हे आवाण : तृदिला: अन्येषा भेदका. (प्रायिका) बन गई थी। तीर्थकर नेमि-पावं, वीग्ने भी अतृदिलास स्वयमन्येनाभिन्नाः सुपविम मुबला · अतृपिना तृषा रहिता. अतृष्णजः निःस्पृहा भवथ । १ भरतम्यानुजा ब्राह्मी दीक्षित्वा गुर्वनुग्रहात् । हे आदरणीय ! प्रश्रमण प्राप श्रमण रहित, दूमरो के गणिनी पदमार्याणां मा भेजे पूजितामर. ॥ द्वारा शिथिल न किये जा सकने वाले, मृत्युवजित, रोग -महापुराण २४-१७५ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ अनेकान्त कुमार अवस्था में ही श्रमण दीक्षा धारण की थी। अस्तु- परपरा अनेकेश्वर तथा अनेकान्त के साथ तप मे, श्रम से स्वयं शकटायन थमण संघ के प्राचार्य थे जिसकी मूल संगति प्राचार (सम्यक चारित्र) के साथ है, "महाश्रमण संघाधिपतियः शाकटायनः।" मोक्ष मानती है। यही इनका शाश्वतिक विरोध है। -शाकटायन व्याकरण चिन्तामणि टीका १ वास्तव में तो ज्ञान और क्रिया का एकायन हो मोक्षहेतु प्रसिद्ध वयाकरण पाणिनि ने कहा है है। "ज्ञान क्रियाभ्या मोक्षः" इति सर्वज्ञोपदेशः ।। "कुमारः श्रमणादिभिः" (अष्टाध्यायी २-१-७०) -मूत्रार्थ मुक्तावली ४५ येषां च विरोषः शाश्वतिकः इत्यस्यावकाशः श्रमण ब्राह्मणा भुंजते नित्यं नाथवन्तश्च भुजते । ब्राह्मणम्।" -पातंजल महाभाप्य ३-४-६ तापसा भुजते चापि श्रमणाश्चैव भजते पाणिनि के इस सूत्र का यह उदाहरण है। जिनका बाल्मीकि रामायण वा० १११२ शाश्वत विरोध है, यह सूत्र का अर्थ है । यहा जो विरोध वहा नित्य प्रति बहुत मे ब्राह्यण, नायवन्त, नपस्वी शाश्वतिक बनाया है, वह किसी हेतु विशेष से उत्पन्न और 'श्रमण भोजन करते थे। नही हया । शाश्वतिक विरोध मैद्धान्तिक ही हो सकता है "मोहनजोदगंसे उपलब्ध ध्यानस्थ योगियांकी मतियोंकी गयोंकि किमी निमित्त से पैदा होने वाला विरोध उस प्राप्ति में जैनधर्म की प्राचीनता निर्विवाद सिद्ध होती है। निमित्त के दूर होने पर समाप्त हो जाता है। वैदिक, युग मे व्रात्यो और श्रमण-ज्ञानियों की परम्परा परन्तु महर्षि के "शाश्वतिक" पद से यह सिद्ध होता है का प्रतिनिधित्व भी जैनधर्म ने ही किया। धर्म, दर्शन, कि श्रमणों और ब्राह्मणों का कोई विरोध है, जो शाश्व- संस्कृति और कला की दृष्टि से भारतीय इतिहास मे जनतिक है। इस आशय से हम इस निर्णय पर पहुंच धर्म का विशेष योग रहा है।" सकते है कि ब्राह्मण वैदिक धारा का प्रतिनिधित्व करते -श्री वाचस्पति गैरोला, प्रयाग हा, एकेश्वरवाद तथा ज्ञान से मुक्ति मानते हैं तथा श्रमण भारतीय दर्शन प० ६३ कविवर देवीदास का पदपंकत डा० भागचन्द जैन, प्राचार्य, एम. ए., पो-एच. डो. जैसा मैंने पिछले अंक में लिखा था, कविवर देवीदास प्रारम्भ भी टेक से ही हया है जिम सापुनयम कीती के दो ग्रन्थ परमानन्द विलास और पदपंकत लिपिकार कहा है। श्री ५० प्रागदास तिवारी के द्वारा एक ही ग्रन्थ में संग्रहीत नाभिनन्दन चरन सेवहु नाभिनन्दन चरन । कर दिये गये है। उन्होने ४८वे पृष्ठ पर परमानन्द तीन लोक मंझार सांचे देव तारन तरन ॥टेक।। विलास की समाप्ति की घोषणा कर दी और तुरन्त ही धनुष से तन पांच सोभित विमल कंचन बरन । उसी पृष्ठ पर पदपंकत का लेखन प्रारम्भ कर दिया। कामदेव सो कोट लाजोट रवि छवि हरन ॥ से०१॥ परमानन्द विलास की तरह यह ग्रन्थ भी कवि की विभिन्न भक्तिवंत सोपुर घतिनके सत श्वेताकरन । कालो में की गई रचनायो का संग्रह मात्र है। परन्तु ऊच गति कुल गोत उत्तिम लहत उमि वरन ॥से०२॥ काल की इस विभिन्नता से काव्य में किसी भी प्रकार की मान कर भव भय सुभवन जन मान लेत सो सरन । विरसता अथवा प्रवाहहीनता नही आ पायो। देवीदास सो देत पनी युक्त तरवर जन ।। सेवहु ३॥ प्रायः समूचे ग्रन्थ में टेकों का उपयोग किया गया है। परमानन्द विलास में जो भाव और भाषा का गांभीर्य Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर देवोदास का पदपंकक २९३ दिखाई देता है वह पदपंकत में नहीं मिलता। वहाँ जैसा द्वितीय ग्रन्ध परमानन्दविलास की प्रति मे अवश्य अन्तर विषयवार विवेचन है वह भी यहाँ नहीं। इसका मुख्य दिखाई देता है। शास्त्रीजी ने जिस प्रति का उल्लेख किया कारण शायद यह हो सकता है कि कवि की ये फुटकर है उसमे उन्हें कुल २४ रचनाओं का संग्रह मिला था। रचनाएं है। बीच में जहाँ कहीं रचनाकाल भी दिया गया और मैने जिस प्रति का उल्लेख किया है उसमे २८ रचहै । जैसे पृ० ५८ पर सं० १८२४ जेठ वदी ५ लिखा है। नानों का संकलन है। मीतलाष्टक, सरधान पच्चीसी, इसके बाद संवत् ४३ लिखा है जो १८४३ का संक्षिप्त कपायावलोकन गच्चीमी और पचमकाल की विपरीत रूप होगा। पृ०७८ पर एक रचना के बाद सवत् १८७ रीति ये चार विपय अधिक है। इसके अतिरिक्त पद्य लिखा है । लिपिकार की भूल मे इमका अन्तिम अक छूट सम्या में भी अन्नर है। कविका तृतीय ग्रन्थ पदपंकत है, गया जान पड़ता है। परन्तु यह तो निश्चित किया ही जो शायद अभी तक अपरिचित रहा है। इनके अतिरिक्त जा सकता है कि यह काल संवत् १८७१ से १८७६ तक कवि के और भी ग्रन्थ होगे जो किन्ही मन्दिरी मोर कोई भी होगा। इससे यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता भण्डारों में अभी भी किसी शोधक की गह देखते होंगे। है कि कविवर देवीदाम सवत् १८८० तक रचनाएं लिखते पदपकन भी कवि की अन्त.पुकार का परिणाम प्रतीत रहे । इसके बाद की उनकी रचना अभी तक कोई नहीं होता है। उसमें उन्होंने रामकली, स्याल, ध्रुपद प्रादिका मिली। परमानन्द विलास के बुद्धि वावनी के अन्तिम उपयोग कर १२४ कविन लिखे हैं। विषय का मंक्षिप्त पद्य में रचनाकाल म० १८१० चैत्रवदी प्रतिपदा गुम्बार विवेचन इस प्रकार है। लिखा है । इसे यदि तीस वर्ष की अवस्था में भी लिग्वा कवि की प्राध्यात्मिक रसिकता "भगतिमह चित देत गया माना जाय तो देवीदाम का स्थितिकाल लगभग सवत् प्रभ तेरी" आदि जैसे पद्यों से स्पष्ट है। निजतत्त्व का १७८० से १८८० नक मिद्ध होगा। श्रद्धान न होना अथवा अात्मिक शक्ति का प्राभास न होना श्रद्धेय प. परमानन्द जी शास्त्री प्रारम्भ से ही ही मंमार भ्रमण का कारण है। अनन्त काल से विषय प्राकृत अपभ्रश और हिन्दी के प्राचीन कवियों के विपय में वासनाप्री में रमण करते हुए भी जीव को उनसे सन्तोष बहुत लिखते रहे है उन्होंने अनेकान्त के वर्ष ११ किरण नहीं हुआ, इसका कविको बड़ा दुःख और माश्चर्य है -- ७-८ सितम्बर अक्टूबर, १९५२ के अंक में "बुन्देलखण्ड के तु जीय रे निज तत कौन भयो सरपानी। कविवर देवीदाम" नामक शीर्षक से एक लेख लिखा था। काल बहुत भटकत गये तो ये सौज विरानी ॥ टेक॥ उममें उन्होंने कवि के विषय में अनेक प्रचलित किंवदन्तियो मिथ्या मद करकं मतो गुरु सीख न मानी। का उल्लेख किया है जिनको परमानन्द विलास के कवित्री तापं और न दूसरी जग माहि प्रल्हानी ॥१॥ के सन्दर्भ में भी देखा जा सकता है। शास्त्री जी को उम जब जब जिय गति मै गयो अपनी करमानी। ममय कविवर देवीद.म के कुल दो ग्रन्थ मिले थे-- उर अंतर लोचन बिना बरसी न निसानी ॥२॥ चतुविशति जिनगुजा और परमानन्द विलास । पिछले पर परमति रचि ज्यों तज्यौ पावक जुत पानी। अक में मैंने अपने लेख "कविवर देवीदाम का परमानन्द धाय धाय विषयन लग्यो प्रसना न बुझानी। विलास' में कवि के वर्तमान चौबीसी विधानपूजा, परमा- काल के गाल में वमता हुग्रा भी जीव मचत नही नन्द विलास और पदपंकत इन तीन ग्रन्थों का उल्लेख होता । प्राज और कल करते हुए माग जीवन विना धर्म किया था। वर्तमान चौबीमी विधानपूजा वही है जिसका पालन करते हा व्यतीत कर देता है। उल्लेख गास्त्रीजी ने चतुर्विशति जिनपूजा के नाम मे किया वसत काल के गाल में जगजीव नसंगो। है। शास्त्रीजी ने इस ग्रन्थ के विषय में अधिक नहीं हेय सहज समझ नहीं अथवत दिन ऊंगो ॥टेक।। लिखा और मेरे पास भी इस समय उसकी कोई प्रति नहीं किन-छिन प्रति तन छवि घट दिन पावत नीरौ। इसलिए दोनों प्रतियो में तुलना करना सम्भव नही। जनम मरन लख और को चेतति न सवेरी ॥१॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अनेकान्त पन कारन डोलत फिरी जोवन मद भूलो। का जपन करना, पूजन करना.प्रादि धर्म बताया है । इसके छिन संतोष न मन पर दुष ज्यों चूलौ ॥२॥ बाद जिन वचन का रसायन मान कर प्रत्येक व्यक्ति से विषया रसको लोलुपी गुरु प्रान न झेले। उसके पान करने का आग्रह किया हैकर्म कलंदर वस परौ मरकट सम खेले ॥३॥ जिन वचन रसायन पीज जी। तिन निज गुन साथर गही उर अन्तर जागौ। अमृत तुल स्वाद जाकं विषय सुक्ख बम दो जी। देवीदास सुकाल के बसते वच भागौ ॥४॥ परम प्रतींद्रिय मुख को कारन अनुवभव रस उर भोजंजी ।। आत्मा के स्वरूप का विवेचन निम्न पक्तियों मे जनम जरा मरनो त्रिदोष यह सो स्वयमेव हि छीज जी। देखिए देवीदास करजकर मनको सूरवीर होई दीज जी। मातम तत्व विचारौ सुधी, तुम प्रातम तस्व विचारो। वीतराग परिनामन को करि विकलपता सब डारो॥ कवि ने प्रत्येक व्यक्ति के लिए परिग्रह की एक सीमा निश्चित की है जिसके पालने वाले को 'बैठे देवीदास भारी सुधी तुम प्रातम तत्त्व विचारो॥टेक॥ घरम जिहाज में" कहा है। दरसन ज्ञान चरनमय चासुर सो निह उर धारी। निज अनुभूति समान चिदानंद हीन अधिक न निहारौ ॥१॥ भम कास स सु एक व्यापार के निमित्त जाय, पांस रुपैया रोक पांचस को गहनौ। सुर दुरगंष हरित पीपरी दुत सेत असन पुन कारौ । तीस मानी नाज चार दुवती बनाव ग्रेह, कोमल कठिन चिकन रूक्ष सु-सव पुद्गल दरव पसारो ॥२॥ भाजन सुमन डेढ सं न और चाहनौ । सीत उसन हलको पन भारी कटु कामल मधुरारौ। ताही जमा म ते वीस चौमना रुई कम, तिकत कसाय लगुन सु अचेतन सो नहि रूप निहारो॥३॥ सिगर गौन नौन चार वारा गौ न लहनौ। श्राप निकट घट माहि बिलोकहु सो सब देखन हारौ। पाठ मन घोऊ मन एक तेल के प्रमान, देवीदास होहि इहि विषि सौ जड़ चेतन निरवारौ ॥४॥ राख ना सिवाय प्राप करके विसहनी ॥१॥ इसके बाद वर्तमान चौबीस तीर्थकरो के नामो को + + + + छन्दोबद्ध करके कवि ने विमलनाथ भगवान की विशेष राख दस पलिंग विछौना वसहि उडोना रूप से स्तुति की है और उसमें भक्तिरस का आकलन दस ही सुगंडुवे सुपंतो दस जाजमै । किया है । उदाहरणतः घोरौ एक महिषो सु दोय गौयें चार वल तुमै प्रभु जू पुकारत हौं। सुहित अपनी विचारत हो। चार ही छेरो एक विसावं सु साजमें ।। करम वैरी सो तुम नास। तुम जब ज्ञान गुन भास। वीस चर जूती दोय दूसरी ना कर जोय धरों निज भक्ति उर तेरी। हरौ अब आपदा मेरी । अदत्ता ना लैहि थूल प्रापनी समाजमैं । तप का महत्त्व मुक्ति प्राप्त करने तक है। तीर्थकर इतनी प्रतिज्ञा करिके सुभवसागरमै बैठे वरह ने तप के ही माहात्म्य से मोक्षपद पाया है। 'देवीदास' भारी धरम जिहाज मैं ॥२॥ "लप सबको हितकारी जगत मै" यह उसकी मुख्य पक्ति + + + + है। धर्मगीता मे "ई भात धर्म सो लागी जी जात घरी कुपरा कोरी वीस ली कर खरीद निदान । जाहा असही' इस टेक के साथ पाठ पद्य है जिनमें कवि रगवावं ना धुवावही वनज हेत दिक थान ।। ने परम्परानुसार धर्म के स्वरूप का चित्रण किया है। लाख लील सन मैन लोह सावन अरसी सौ । सच्चे देव-गुरू-शास्त्र को प्रमाण मानकर चलना, पञ्च सोरा विष हथियार नाज बोघे सुन पीसे । पापादिक से दूर रहकर दयादिक पालना, णमोकार मन्त्र महवा गुली तिलो हेत भंड सार ना गवं ।। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर देवीदास का पदपंकत २८५ क्यौपार वे माफिक लंह बनज की नाही नावं कवि कमों को अत्यन्त निर्दयी मानता है। कर्मों का संस फोर खटीक चमार धीवर पुन सु हलालिया। विविध म्वांग-रचना के कारण ही व्यक्ति की मात्मनिधि इनसो उधार कर न, कबहुं लेह वह लौ हालीया ।२। खो जाती है और उस ससार में भटकना पड़ता है। इससे . + + + + मुक्त होने के लिए स्यावाद में पगी हुई जिनवाणी के तीरय जज विवाहम लग वडं जो दर्ज। माध्यम से प्रात्म द्रव्य को पहचानना चाहिए। यह क्रिया तीरथ जज विवाह की नही मृजादा सर्व ॥ अत्यन्त सरस, मधुर, अगोचर और अनुपम है। . लोभष्टि करिक जो ही जा मृजाद तज देह । मातम रस प्रति नीठौ साधो भाई मातम रस प्रति मीठो। ताको फल यह जगत मैं नर्काविक खुब लेह ॥१॥ स्याद्वाद रसना बिन जाको मिलत न स्वाद, गरीटी टेक। पाग परवनी धोवती खोर पिछौरी आदि । पीवत होत सरस सुख सो पुनि बहुरि न उलट पुलीठौ।. छोडि वहरक सुवो वही बचे तज मृजाद ।।२।। अचरज रूप अनूप अपुरख जा सम और न ईठो॥ वस्त्र पुरानो जानकै धोवत रंग न लेह। साधो भाई ॥१॥ थोरो मोल विसाहक बड़ती भावो ना देह ॥३॥ तिन उत्कृष्ट इष्ट रस चाखो मिथ्यामति दे पीठौ। जाको नहीं प्रमान कछु बसा लह कर कौल । तिन्ह को इंद्र नरेंद्र मादि सुख सो सब लगत न सोने ।। टका रुपया को कलग देत लेत में तौल ॥४॥ . साधो भाई॥२॥ इन पद्यों में बुन्देलखण्डी बोली का तात्कालिक रूप पानंद कंद मुछंद होयकरि भुगतन हार पटौठो। और भी स्पष्ट हो जाता है। नाज, विछोना, वनज, परम सुधा सुसमै इक पर सत जनम जरादिन चोठी॥ खटीक, हलालिया, परदनी, पिछौरी आदि शब्द तो प्राज साधो भाई ॥३॥ भी उसी रूप मे है जिस रूप में १८-१९वी शती में थे। बचन प्रतात सुनात अगोचर स्वादत फिर न उवीठो । भाषा की दृष्टि से इसलिए प्रस्तुत ग्रन्थ का और भी देवियदास निरक्षर स्वारथ अंतर के द्रग दीठौ ।। महत्त्व समझना चाहिए। साधो भाई ।। . इसके बाद क्रोध, मान, कपट (माया) कृपणता दवीदास मूलतः भक्ति रस के कवि है। कही उन्होने (लोभ) इन चार कपायों पर सुन्दर कवित्त लिये है और प्रात्म-दर्शन करने का प्रयत्न किया है और काहीं भगवद्दर्शन इमी सन्दर्भ में जिनमत को "मारग मक्त की मगन थनी" का । अात्मदर्शन का प्रयत्न करते समय उमसे विमुख रहने कहकर मानव जन्म और जैनधर्म दोनों की दुर्लभता का के कारणी पर विचार किया है और भगवद्दर्शन का विवेव्याख्यान किया है। आगे दानपूजा को "मुक्तिपुर की चन करते ममय छवि को मुन्दरता का पाख्यान किया है। गली" कह कर जैनधर्म का पालन करने के लिए मलाह इमी में कवि मुख और प्रानन्द की कल्पमा मरता है-- पुन नदय मूरत देख सुख पायो मैं प्रभ तेरी। ' वन क्षेत्र के विषय में कवि ने एक दादग लिखा एक हजार पाठ गुन सोभित लछन सरस सुहायौ। है । संभव है, यह उसका प्रिय क्षेत्र रहा हो । __ मे प्रभ तेरी सूरत देख सुख पायौ टिक। चलत भव क्यों नाही विघन हरन थवोन । जनम जनम कित प्रशुभ करम को रिन सब तुरत चुकायो। प्रति उन्नति जिन प्रतिमा जाको बरन सके छवि कौन ॥१ परमानन्द भयो परपूरत ग्यान घटा घट छायौ ॥१॥ . जो अपनी निज चहत सुधारयो या भव परभव दोन।२ प्रति गंभीर गुन ठान वाद तुम मुख कर जात न गायो। इह यही काल विर्षे तुम का मुकत महल को सौन ॥३ जाकं सुनै सरदहत प्रानो करम फंदा सुरमायौ ॥२॥ देखत दूर होत विकलप सब अति परमानंद भौन ॥४ विकलपता नस गई अब मेरो निज गुन रतन मजायो। जा परसाद होत सुभ कारज अशुभ करम कर बौन ॥५ जात हतौ कौडी के पलटं जब लग परख न पायो । देवीदास कहत लतापुर ये गुन काज निरौन ॥६ पर परनाम कुग्राम बास तज प्रातम नगर बसायो। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ अनेकान्त देवीदास प्रत भाव पर हाथ जोर सिर नायौ ॥४॥ है-सिउणागिर बड़ी क्षेत्र चलो वदन को, वंदन को कर्म भगवजिनेन्द्र के दर्शन के बिना कवि विह्वलता का पाप निकदन को। इसके बाद पुन: धर्म का महत्त्व दिया अनुभव करता है। प्राश्रवका मूल उसकी दृष्टि में भगवद्दर्शन है। धर्मपालन करनेके बिना चतुर्गति में भटकना पड़ेगाके प्रति अरुचिभाव ही है। यहां कवि की आलोचक दृष्टि धर्म विन तूं बैल हुहै। इसी प्रसंग में दर्शन और पूजन के प्रवर हो जाती है। और उसे दुख व आश्चर्य होता है कि विषय मे भी कवित्त लिखे है। अन्तिम कवित्त है धर्मगीत व्यक्ति अभी तक आत्म बचक क्यों बना रहा? उसे अभी -सुन लाला रे जिन मत की वात कान दे। इसके अन्त तक हेयोपादेय का ज्ञान क्यो नही हुमा ? इसे कवि ने भोदू- में लिखा है-इती पद पंकत संपूर्ण संवत् १९३५ माघ पन की मंजा दी है। भौदू जब लगु आई तो को समझ नहीं वदि १२ लिखतं पं० श्री प्रागदास तिवारी जी। पत्रा ७८. इस भौंदुपन को दूर करने के लिए कवि ने श्रद्धा ज्ञान और इस प्रकार बुन्देलखण्ड के कविवर देवीदास का प्रस्तुत चारित्र के साथ-साथ सोनगिरि, शिखर सम्मेद, गिरिनार, ग्रन्थ है पदपंकत भाव और भाषाकी दृष्टि से अत्यन्त महत्व कूण्डलपुर प्रादि जैसे पवित्र तीर्थ क्षेत्रों की बन्दना करने पूर्ण है। कवि संस्कृत भाषा से परिचित है फिर भी उसने को कहा है। इनमें भी सायद कुण्डलपुर, महावीर पोर बुन्देलखण्डी बोली में अपने भाव व्यक्त किये है। इसलिए सोनगिरि की वन्दना करना उमे अधिक प्रिय था- उस समय की और आज की बोली जाने वाली बुन्देलखण्डी कंडिलपुर महावीर चलौ भव वंदिये जू । बंदिये पाप बोली पर भाषा विज्ञान की दृष्टि से विचार करने के लिए निकंदिये ज। इस प्रकार सोनगिरि के विषय में लिखा यह ग्रन्थ पर्याप्त सहायक होगा, ऐसा मेरा विश्वास है। साहित्य-समीक्षा १. श्री मदाबचन्द्र और भक्तिरत्न- -लेखक प्रेमचन्द उनकी प्रवृत्ति निरन्तर बढती जाती थी। ये कहा करते रवजी भाई कोठारी, अनुवादक डा० जगदीशचन्द प्रकाशक, थे अाज दनिया में झूठ, फरेब, अहंकार और छल कपट प्रेमचन्द रवजीभाई कोठारी' ब्लाक नं०६ महात्मा गांधी की प्रवृत्ति बढ़ रही है। उसको देखकर उनका हृदय गेड, घटिकोपर, वम्बई ७७ । मूल्य ३) रुपया। अत्यन्त व्यथित होता था, इनसे हटकर प्रात्मधर्म की ओर प्रस्तुत कृति श्रीमद्राजचन्द्र की जयन्ती के उपलक्ष्य में प्रवृत्ति करना व श्रेयस्कर मानते थे। जिसने स्वयं कल्याण निकाली गई है। श्रीमद्राजचन्द्र भी संत परम्पग में हुए मार्ग में प्रवृत्ति करते हुए दूसरो के सामने कल्याण का हैं । सन् १९२४ में उनका जन्म काठियावाड में हुआ था। मार्ग प्रशन्त किया, जीवन के लिए उपयोगी नर्चा वार्तामो लधुवय में ही उन्होंने तत्त्वज्ञान की प्राप्ति की थी। का सकलन किया । ऐसे महापुरुप की जयन्ती मनाना उनकी स्मरण शक्ति पाश्चर्यजनक थी। कोई भी बात __ अत्यन्त उपयोगी है। उससे मुमुक्षत्रों को प्रात्म गुणो के एक बार देखने सनने से उनके हदय पटत हर प्रकित हा विकास से सहायता मिलती है। प्रस्तत में रामचन्द्रजी के जाती थी। वे हीरे जवाहरात के तुगल व्यापारी थे। परिचय के अतिरिक्त उनके बाद में उस परम ज्योति को किन्तु लौकिक महत्वकाक्षाओं से अत्यन्न दूर रहते थे। उज्जीवित करने वालो का भी परिचय दिया हुया है। दनिया की मान प्रतिष्ठा को उन्होंने कभी स्वाकार नही ममक्षयी उमं मगाकर अवश्य पढ़ना चाहिए। किया, किन्तु उन्होंने लोकेपणा से रहित होकर लौकिक कर्तव्यों का पालन किया। उनकी प्रान्तरिक वृति यात्म २. जैन ग्रन्थ भण्डाराज इन राजस्थान-डा. कस्तुर स्वरूप की ओर थी । वैराग्य और उपशम भाव की पोर चन्द कासलीवाल, प्रकाशक श्री गंदीलाल शाह एडवोकेट Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीक्षा २८७ मंत्री थी दि० प्रतिदाय क्षेत्र महावीर जी, जयपुर। ने अपने प्राक्कथन में कामलीवाल के इस पोष प्रबन्ध मूल्य १५) रुपया। की बहुत प्रशमा की है। इस तरह जहाँ यह शोधप्रबन्ध यह एक शोध प्रबन्ध है। इस पर कस्तूरचन्द जी अन्वेषक विद्वानो के लिए महत्व की सामग्री प्रदान करता कासलीवाल को पी. एच. डी. की डिग्री राजस्थान विश्व- है वहा गजस्थानीय ग्रन्थ भण्डारी में प्राप्त दुर्लभ सामग्री विद्यालय ने प्रदान की है। प्रबन्ध की भाषा अंग्रेजी है, का भी परिचय मिल जाता है। महावीर तीर्थ क्षेत्र कमेटी किन्तु उद्धरण सभी संस्कुन हिन्दी मे दिये गए है। ग्रन्थ का यह कार्य अन्यन प्रशमनीय है। समाज को चाहिए छह अध्यायो मे विभक्त है। प्राथमिक कथन में ग्रन्थ कि वह मे ग्रन्थों को मगा कर अंबश्य पढ़ें। लेखन आदि के सम्बन्ध में विस्तृत एव जानने योग प्रकाग ३. युक्त्यनुशासन पूर्वाध-सम्पादक क्षुल्लक गीतलडाला गया है। कागज, स्याही, लेखन, लिखित प्रति की मागरजी और अनुवादक प० मूलचन्द्र जी शास्त्री, प्रकाशक मुरक्षा और वेष्ठन आदि के विपय में लिखा गया है। दि० जन पुस्तकालय मांगानेर (राजस्थान) मूल्य ७५ पैसे । दूमरे अधिकार में ग्रन्थ भण्डारी की स्थापना पर प्रकाा ग्रानार्य ममन्तभद्र के युक्त्यनुशासन (वीरस्तवन) को डालने हुए उत्तर और दक्षिण भारत के भण्डागं का परि- १२ काग्किाग्री का विस्तृत हिन्दी विवेचन है। प्राचार्य चय दिया गया है। नीसरे में राजस्थान के (अजमेर विद्यानन्द की संस्कृत टीका के आधार पर उमका विवेचन जोधपुर, बीकानेर, उदयपुर और कोटा डिवीजन के) जन किया गया है यदि इसमे मूल कारिकामों के साथ संस्कृत ग्रन्थ भण्डारी का विस्तृत परिचय दिया है। चतुथं अधि- टीका पोर लगा दी जानी पीर कारिका में पाये हर कार में आमेर प्रादि जैन ग्रन्थ भण्डारों की ऐतिहासिक दानिक मन्तव्यों का ऐतिहामिक दृष्टि से तुलनात्मक महत्ता पर प्रकाश डाला गया है। पाचवें में जैन ग्रन्थ विवेचन किया जाता और प्रन्थ को एक ही भाग में रखा भण्डारों में उपलब्ध शोध-सामग्री, पार्ट और प्रिन्टिग का जाता तो यह निम्मन्देह विशेष लाभ प्रद होता । माय में विवेचन किया है । और छठवे मे अनुसन्धान की मामग्री प्रस्तावना भी आजकल के दृष्टिकोण के अनुमार होना का मूल्य प्राकते हुए हिन्दी राजस्थानी भाषामो के लेखको चाहिए । उमस माहित्य की महत्ता का सहज ही बोध हो की रचनाओं का भी परिचय दिया गया है। अन्त के जाता है । छपाई मफाई माधारण है, ग्रंथ मंगाकर अवश्य परिशिष्ट तो बहुत ही उपयोगी है। डा. हीगलाल जी पहना चाहिए । अनेकान्त के २०वें वष को विषय-सूचो १ अग्रवालों का जैन संस्कृति में योगदान-. परमानन्द शास्त्री ९८,१७७,२३३ २ अलोप पाश्र्वनाथ प्रमाद-मुनि कान्ति सागर ५१ ३ प्राचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र पर एक प्राचीन - दिगम्बर टीका-श्री जुगलकिशोर मुख्तार १०७ ४ अत्मनिरीक्षण-परमानन्द शास्त्री ५ पात्म विद्या क्षत्रियों की देन-मुनिश्री नथमल १६२ ६ एलिचपुर के राजा श्रीपाल उर्फ ईल नेमचन्द धन्नूसा जैन ७ ऋषम जिन स्त्रोत्रम्-मुनि श्री पअनन्दि ४६ कविवर देवीदाम का परमानन्द विलास-. डा० भागचद जैन एम. ए. पी-एच. डी. २८२ कविवर प. श्रीपाल का व्यक्तित्व एवं कृतित्व -डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल १० कारी नलाई की जैन मूर्तियां-पं. गोपीलाल 'अमर' एम. ए ११ केशी गौतम सवादप० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री २८८ १२ कंवल्य दिवस एक सुझाव-मुनि श्री नगराज ७४ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ अनेकान्त १३० १७ १३ ग्वालियर के तोमर राजवश के समय जैनधर्म- ३३ यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन-डा. परमानन्द शास्त्री गोकुलचन्द जैन प्राचार्य एम. ए. पी-एच. डी. २७६ १४ चार कीति गीत-डा. विद्याधर जोहरापुरकर २८ ३४ राजा श्रोणिक या विम्बसार का प्रायुष्यकाल १५ जैन प्रागों के कुछ विचारणीय शब्द -५० मिलापचन्द्र कटारिया " .. . ९४ मुनि श्री नथमल . ४० ३५ रूपक पद (कविता)--कवि घासीराम २७ १३ जैन ग्रन्थ संग्रहालयो का महत्त्व-डा. ३६ वादामी चालुक्य अभिलेखों में वर्णित जैन कस्तुरचन्द कासलीवाल ६६६ मम्प्रदाय तथा प्राचार्य-प्रो० दुर्गाप्रसाद दीक्षित १७ जैनतर्क में हेत्वनुमान-डा० प्रद्युम्नकुमार एम.ए. -१८ ज्ञानार्णव योगशास्त्र एक तुलनात्मक अध्ययन ३७ वादामी चालुक्य नरेश और जनधर्म-बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री प्रो० दुर्गाप्रसाद दीक्षित एम. ए. १६ तृष्णा की विचित्रता-श्री मद्राजचन्द्र १५० ३८ वैधता और उपादेयता-डा० प्रद्युम्नकुमार जैन २५५ २० देवगढ़ का शान्तिनाथ जिनालय- . २६ शिरपुर जैन मन्दिर दिगम्बर जैनियों का ही है २२७ प्रो० भागचन्द जैन.एम. ए. ४० श्रमण सस्कृति का प्राचीनत्व- ' २१ धनपाल, विरचित भविसयत्तकहा और उसको ' २७१ मुनि श्री विद्यानन्द रचना तिथि-~-डा. देवेन्द्रकुमार जैन ३३ ४१ श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ पवली दिगम्बर जैन २२ पं० भगवतीदासकृत वैयविनोद मन्दिर शिरपुर-नेमचन्द धन्नूसा जैन .. १६६ ___डा० विद्याधर जोहरापुरकर ६० ४२ श्री अंतरिक्षपार्श्वनाथ पौली मन्दिर शिरपुर२३ परप्रभ जिनस्तुति-समन्तभद्राचार्य १६३ नेमचन्द धन्नसा जैन ११ २४ भगवान महावीर और बुद्ध परिनिर्वाण-- ४३ श्री प्रतरिक्ष पार्श्वनाथ वस्ती मन्दिर तथा मूल- . मुनि श्री नगराज १८७, २१६ नायक मूर्ति शिरपुर-१० नेमचन्द्र धन्नूसा जैन १६६ २५ भ० विनयचन्द्र के समय पर विचार ४४ श्री अमृतचन्द्र मूरिकृत एक अपूर्व प्रन्थ-डा. परमानन्द शास्त्री ए. एन. उपाध्ये (टा० पेज २) २६ भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा १९६६ का पुरस्कार ४५ श्री गुरुवर्य गोपालदास जी वरया-पं. घोषित-लक्ष्मीचन्द्र जैन ६१ माणिकचन्द जी न्यायाचार्य २७ भारतीय वास्तुशास्त्र में जैन प्रतिमा सम्बन्धी ४६ श्रीधर स्वामी की निर्वाणभूमि कुण्डलपुर--- । ज्ञातव्य-पगरचन्द नाहटा २०७ प० जगन्मोहनलाल शास्त्री २८ मन्दसौर में जैनधर्म-१० गोपीलाल ४७ श्री शान्तिनाथ स्तवनम्बादीर्भासह १ ____ 'अमर' एम. ए. १८६, ४८ श्रेयो जिन स्तुति-ममन्तभद्राचार्य २६ महाकवि समयसुन्दर और उनका दानशील तग ! - ४६ ममर्पण और निष्ठुरता-मुनि श्री कन्हैयालाल २४६ भावना संवाद-सत्यनारायण स्वामी एम. ए १४० ५० मागार धर्मामत पर इतर श्रावकाचारो का ३० महान् सन्त भ० विजपकीति-डा. कस्तूरचन्द ८ प्रभाव-प० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री १५१ कासलीवाल १६७१ पाव जिन-स्तुति-समन्तभद्राचाय ३१ महावीर और बुद्ध के पारिपाश्विर भिक्ष ५२ स्वर्गीय नरेन्द्रसिंह सिधी का संक्षिप्त परिचय २३७ भिक्षुणियाँ-मुनि श्री नगराज ७५ ५३ माहित्य-समीक्षा-परमानन्द शास्त्री ६३,१४३,२३६ ३२ यशपाल जतका अध्यक्षीय भाषण २२२ ५४ साहित्य-ममीक्षा-डा. प्रेमसागर २३६ १६४ मवादीमित २४१ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमती रूपादेवी का स्वर्गवास श्रीमान धर्मवीर सेठ भागचन्द जी सोनी अजमेर को मातेश्वरी श्रीमती रूपादेवी का स्वर्गवास दिनाक १८ अप्रैल को हो गया, यह बड़े खेद की बात है। अजमेर का यह घराना अतिशय धार्मिक रहा है। सेठानी रूपा देवी अतिशय धार्मिक वृत्ति की महिला थी। वीर सेवा मन्दिर परिवार उनके वियोग से जो कुटाम्बी जनो को दुख हुआ है उसमे सहभागी होता हुआ यह हादिक कामना करता है कि स्वर्गीय प्रात्मा को शान्तिलाभ के साथ कुटुम्बीजनो को इस महान् दुःख के सहन करने का धयं प्राप्त हो। वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक १०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता १५.) श्री जगमोहन जी सरावगी, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्रकुमार जैन, ट्रस्ट १५०) , कस्तूरचन्द जी मानम्बीलाल जी कलकता श्री साहु शीतलप्रसाद जी, कलकत्ता १५०) , कन्हैयालाल जी सीताराम, कलकत्ता ५००) श्री रामजीवन सरावगी एण्ड सस, कलकता । १५०) , पं० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता ५००) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता १५०), मालीराम जी सरावगी, कलकता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता १५०) , प्रतापमल जी मदनलाल पांड्या, कलकता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्म वन्द जी, कलकत्ता १५०), भागचन्द जी पाटनी, कलकता ५००) श्री रतनलाल जी झांझरी, कलकत्ता १५०) , शिखरचन्द जी सरावगी, कलकता २५१) श्री रा. बा. हरखचन्द जी जैन, रांची १५०) । सुरेन्द्रनाथ जो नरेन्द्रनाथ जी कलकत्ता २५१) श्री अमरचन्द जी जैन (पहाड्या), कलकत्ता १० ) , मारवाड़ी वि० जैन समाज, व्यावर २५१) श्री स० सि० पन्यकुमार जी जैन, कटनी १०१) , दिगम्बर जैन समाज, केकड़ी २५१) श्री सेठ सोहनलाल जी जैन, १०१) , सेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्बज़ी, बम्बई न. २ मससं मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता १०१) , लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागज बिही २५१) श्री लाला जयप्रकाश जी जैन १०१) ,, सेठ भंवरीलाल जो बाकलीवाल, इम्फाल स्वस्तिक मेटल वर्क्स, जगाधरी १०१) , शान्तिप्रसाद जो जैन, जैन बुक एगेन्सी, २५०) श्री मोतीलाल होराचन्द गांधी, उस्मानाबाद नई दिल्ली २५०) श्री बन्शीवर जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता १०१) , सेठ जगन्नाथजी पाण्ड्या झूमरीतलैया २५०) श्री जगमन्दिरदास जी जैन, कलकत्ता १०१) , सेठ भगवानदास शोभाराम जी सागर २५०) श्री सिंघई कुन्दनलाल जी, कटनी (म.प्र.) २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्सा १०१) , बाबू नृपेन्द्रकुमार जी जैन, कलकत्ता २५०) श्री बी० प्रार० सी० जन, कलकत्ता १००) , बद्रीप्रसाद जी मारमाराम गो, पटना २५०) श्री रामस्वरूप जो नेमिचा जी, कलकत्ता १००) , रूपचन्दजी जैन, कलकत्ता १५०) श्री बजरगलाल जो चन्द्रकुमार जी, कलकत्ता १००) .. जैन रत्न सेठ गुलाबचन्द जो टॉग्या १५०) थो चम्पालाल जो सरावगी, कलकत्ता इन्दौर Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन R. N. 10591/62 ( पुरातन-जैनवावय-मूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थो को पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थो मे जदयत दसरे पद्यो की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। मब मिलाकर २५३५३ पद्य-चाक्यो की सूची। मपादक मस्तार थी जगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा. कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम.ए डी.लिट् की भूमिका (Introduction) मे भूपिन है, शोध-ग्वोज के विद्वानोके लिए प्रतीव उपयोगी, बडा साइज, मजिल्द १५.०० (२) प्राप्त परीक्षा-श्री विद्यानन्दाचार्य की म्वोपज्ञ मटीक अपूर्व कृति,प्राप्तो की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक ___ मन्दर, विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द। ८.०० (३) स्वयम्भूस्तोत्र--ममन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना मे सुशोभित । ... २.०० (४) स्तूतिविद्या-वामी ममन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, मटीक, मानवाद और भी जुगल किशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलकृत मुन्दर जिल्द-पहित । (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पचाध्यायीकार कवि गजमल की सुन्दर माध्यात्मिकरचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १.५० (६) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञान में परिपूर्ण ममन्नभद्र की असाधारण कृति, जिमका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हपा था। मुक्तार श्री के हिन्दी अनुवाद पोर प्रस्तावनादि से अजंकृत, मजिल्द । ... ७५ (७) श्रीपुरपाश्र्वनाथस्तात्र-मानार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि महित । ७५ (6) शामनचतुम्ििशका--(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीति की १३वीं शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद महित ७५ (E) ममीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी ममन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाप्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक, मजिल्द । ... ३.०० (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० १ मम्वृन और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मगलाचरण महिन अपूर्व मग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टो पोर पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक माहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना मे अलकृत, मजिल्द । ४.०० (११) ममाधितन्त्र और इष्टोपदश-अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका महिन ४.०० (१२) अनित्यभावना-- प्रा. पद्मनन्दीकी महत्वका रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ महित २५ (१३) तत्वाथमूत्र--(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार थो के हिन्दी अनुवाद तथा व्यास्या मे पृक्त । (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जनतीर्थ । (१५) महावीर का मर्वोदय नीर्थ १९ पैसे, (५) ममन्तभद्र विचार-दीपिका १६ मे, (६) महावीर पूजा २५ (१६) बाहुबनी पूजा-जुगलकिशोर मुरूनार कृत (ममाप्त) (१७) अध्यात्म रहस्य--प. प्राशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुगद महित । (१८) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति मग्रह भा २ अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोकी प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण मग्रह। ५५ ग्रन्थकारो के ऐतिहासिक अथ-परिचम और परिशिष्टो महित । स. प. परमान्द शास्त्री । सजिल्द १२.०० (१६) जैन साहित्य और इनिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ट मख्या ७४० सजिल्द (वीर-शासन-मध प्रकाशन ५.०० (२०) कमायपाहुड सुत्त--मूलग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गृणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे। सम्पादक प हीगलालजी मिदान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दो अनुवाद के साथ बडे माइज के १... में भी अधिक पृष्ठो में। पृष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । ... २०.०० (२१) Reality पा० पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अंग्रेजी पे अनुवाद बड़े प्राकार के ३०.१. पक्की जिल्द ६०. प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागज, दिल्ली में मुद्रित। ... xx Page #316 -------------------------------------------------------------------------- _