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सागारधर्मामृत पर इतरभावकाचारों का प्रभाव
उत्तम-मम्झ-बहन् तिहिं पोसहविहानमुडिं। १. पा. में सात व्यसनों का वर्णन करते हुए सगसत्तीए मासम्मि परसु पम्बेसुबाप ॥२८० प्रकरण के अन्त में १-१ गापा द्वारा उक्त व्यसनों का इस प्रकरण सम्बन्धी उभय प्रन्यगत कुछ पद-वाक्यों सेवन करके जो दुर्गति को प्राप्त हुए है उनका उदाहरण की समानता देखिएदिया गया है१ । तदनुसार सा. ध. मे भी उक्त व्यसनों
व. श्रा.-सत्तमि-तेरसिदिवसम्मि प्रतिहिजणभोयका सेवन करने वालों में उन्ही का नामोल्लेख किया है णावसाणम्मि भुंजणिज्जं भोत्तण-२८१ (सा. प.जो व. श्रा. में उदाहृत हैं२ ।
पर्वपूर्वदिनस्या प्रतिथ्य शितोत्तरं भुक्त्वा-५-३६); २ व. श्रा. में प्रथमत: मेधावी-तीव्रबुद्धि जीवो को व. श्रा.-वायण-कहाणुपेहण - सिक्खावण-चिंतणोव. लक्ष्य करके दान के फल की प्ररूपणा की गई है। प्रोगेहि दिवससेसं णेऊण, प्रवराण्हियवंदणं किच्चा-२८४ तत्पश्चात् मन्दबुद्धि जनों को लक्ष्य करके जो दानफल की (सा.प.-धर्मध्यानपरो दिनं नीत्वा, पापराहिकं कृत्वा वहां प्ररूपणा की गई है। उसका अनुसरण कर पं० माशा. -५-३७); घर ने सा. ध. मे उक्त दानफल का वर्णन किया है। व. श्रा.-रयणिसमयम्हि काउसग्गेण ठिसचाxx
३ प्रोषधोपवास के प्रसग मे ५० प्राशाधर ने सा. ४ संथारं दाऊण Xxx जिणालये णियघरे वा, अहवा घ. मे प्रोषधविधान के उत्तम, मध्यम और जघन्य ये तीन सयलं रत्ति काउस्सग्गेण णेऊण-२८५-८६ (सा.-पतिभेद बतलाये है। उनमें पर्वदिनों मे १६ पहर के लिए- वद्विविक्तवसति श्रितः-४-३६, स्वाध्यायरत' प्रासुकसंस्तरे सप्तमी व त्रयोदशीके दोपहर से नौवी व प्रमावस्या (या पूर्ण- त्रियामा नयेत्-४.३७); मासी) के दोपहर तक–पूर्ण रूप से चारो प्रकार के माहार व.श्रा.-पच्चूसे उद्विता वंदणविहिणा जिणं णमंसित्ता का परित्याग कर धर्मध्यानपूर्वक एकान्त स्थान में समय -२८७ (मा.-ततः प्राभातिकं कुर्यात्-५-३८); विताने को उत्तम, जल के अतिरिक्त अन्य चारों प्रकार के व. श्रा.-जि-सुय-सारण दव्य-भावपुज्जं काऊणपाहार के त्याग को मध्यम और प्राचाम्ल-निविकृति प्रादि २८७ (सा.-पूज्यान भावमय्येव प्रासुकद्रव्यमय्या वा को रखकर शेष भोजन के परित्याग को जघन्य प्रोषध- पूजया पूजयेत् -५-३६) विधान कहा है।
मायंबिल-णिम्वियमी एयट्ठाणं च एयभत्तं वा। इसका प्राधार वसुनन्दि-श्रावकाचार का तद्विषयक
___ जंकीरह त णेयं जहष्ण पोसहविहाणं ।। व. २९२ वर्णन रहा है। वहां उसके इसी प्रकार से तीन भेद व तत्राचाम्लमसंस्कृतसौवीरमिश्रीदनमोजनम्, सिविउनके लक्षण निर्दिष्ट किये गये है। यथा
कृति - विक्रियेते जिह्वा-मनसी येनेति विकृतिःxx
विकृतनिष्क्रान्त भोजन निविकृति । प्रादिशब्देनकस्थानक१ वसु. श्रा. १२५-३१
भक्त-रसन्यागादि । सा. घ. स्वो. टीका ५-३५ २ सा. ध. ३-१७
४ सा. ध. में उद्दिष्टविरत-प्रन्तिम श्रावक-की ३ व. श्रा. २४०-४३
जो प्ररूपणा की गई है वह इम व. श्रा. की प्रकृत प्ररूपणा ४ व. श्रा. २४४-४८
के ही प्राधार से की गई है। वहां उत्कृष्ट श्रावक के जैसे ५ सा. घ. २-६७
दो भेद किये गये हैं वैसे ही सा. घ. में उसके दो भेद एवमुत्तमं प्रोषधविधानमुक्त्ता (५-३४) मध्यमं निर्दिष्ट किये गये हैं। यथाजघन्यं च तदुपदेष्टुमाह
एयारसम्मि ठाणे उक्किट्ठो सावनो हवे बुषिहो। उपवासाक्षमः कार्योऽनुप वासस्तदक्षमैः ।
बत्येकघरो पहमो कोवीणपरिगहो विविधो ॥व. ०१ पाचाम्ल-निर्विकृत्यादि शक्त्या हि श्रेयसे तप ॥ पम्मिल्लागं चयणं को कत्तरिणवा पदमो।
सा. ५-३५ ठाणासु पडिलेहा उपयरमेण पक्रया॥३०२