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________________ अनेकान्त स द्वघा प्रथमः श्मश्रुमूर्धजानपनाययत् । - यदि इस प्रकार से मार्ग में कोई नही रोकता है तो सितकोपीन संव्यात. कर्तर्या वा क्षुरेण वा ॥ सा. ७-३८ क्या करे, इसके लिए दोनों ग्रन्थो मे कहा गया है- . स्थानाविषु प्रतिलिखेत मृदूपकरणेन सः । ३६ पू. ग्रहण भणइ तो भिक्खं भमेज्ज. णियपोटपुरणपमाण ! सद द्वितीयः किन्त्वार्यसंज्ञो लुञ्चत्यसो कचान् । पच्या एम्मि गिहे जाएज्ज पासुगं सलिल ।। कौपीनमात्रयग धत्ते यतिवत् प्रतिलेखनम् १ ।।७-४८ ज कि पि पडियभिक्खं भुजिज्जो सोहिऊण जत्तेण । दोनो ही ग्रन्थो मे उत्कृष्ट श्रावक के लिए उपवास । पखालिऊण पत्तं गच्छिज्जो गुरसयासम्मि ॥ की अनिवार्यता समान रूप में बतलायी गई है व. था. ३०७-८ उपवास पुण णियमा चउविहं कुणइ पव्वेसु ॥ व. ३०३ ।। प्रार्थयेतान्यया भिक्षा यावत् स्वोबरपूरणीम् । कुर्यादेव चतुष्पांमपवासं चतुविधम् ॥ सा. ७-३६ लभेत् प्रासु यत्राम्भस्तत्र संशोध्य तां चरेत् ।। इसी प्रकार दोनो ग्रन्यो में उक्त श्रावक के लिए। प्राकांक्षन संयम भिक्षापात्रप्रक्षालनादिषु । बैठकर हाथो मे अथवा वर्तन में भोजन करने का निर्देश स्वयं यतेत चादपंः परथाऽसयमो महान् ॥ किया गया है __मा. ध.७, ४३-४४ भंजेइ पाणिपत्तम्मि भायणे वा सई समवइट्ठो। व. ३०२ तत्पश्चात् दोनो ग्रन्थो मे समान रूप से यह कहा स्वय समुपविष्टोऽद्यात् पाणिपात्रेऽथ भाजने। सा.७-४० गया है कि पश्चात् गुरु के पास जाकर विधिपूर्वक चार भिक्षा याचना की विधि दोनो ग्रन्थो में निम्न प्रकार के प्रत्याख्यान को ग्रहण करते हुए सबको पालोप्रकार कही गई है चना करे । यथापक्वालिऊण पत्तं पविसइ चरियाय पंगणे ठिच्चा। गतूण गुरुसमीवं पच्चक्खाणं चउग्विह विहिणा। भणिऊण धम्मलाहं जाय भिक्ख सयं चेव ॥ गहिऊण तनो सव्वं पालोचेज्जा पयत्तण ।। व. ३१० सिघं लाहालाहे प्रदीणवयणो णियत्तिऊण तम्रो। ततो गत्वा गुरूपान्तं प्रत्याख्यानं चतुविषम् । अण्णम्मि गिहे वच्चा बरिसइ मोणेण कायं वा॥ गलीयाद् विधिवत् सर्व गरोश्चालोचयत् पुरः ।। व. श्रा. ३०४-५ सा. ७-४५ स धावकगहं गत्वा पात्रपाणिस्तबङ्गणे ॥ माथ ही दोनों ग्रन्थो मे यह भी कहा गया है कि जिसको स्थित्वा भिक्षां धर्मलाभं भणित्वा प्रार्थयत वा। यह भिक्षाभोजनविधि रुचिकर नहीं है व जिसके एकमानेन वयित्वांग लाभालाभे समोऽचिरात् । भिक्षा का ही नियम है वह मुनि के प्राहार ग्रहण कर निर्गत्यान्य गृह गच्छेद् ....... ॥ सा. ७, ४०-४२ लेने पर किमी श्रावक के घर जाकर भोजन करे। पर भिक्षा के लिए जाते हुए यदि कोई अधबीच मे भोजन यदि विधिपूर्वक वहा भोजन नहीं प्राप्त होता है तो फिर करने के लिए प्रार्थना करता है तो क्या करे, इसके लिए उसे उपबाम ही करना चाहिए । यथादोनो ही ग्रन्थों में यह कहा गया है जह एव ण रएज्जो काउरिस (?) गिहम्मि चरियाए । जह प्रखबहे कोइ वि भणह पत्थेइ भोयण कुणह । पविसत्ति (?) एपभिक्ख पवित्तिणियमणं ता कुज्जा । भोतण जिययभिक्खं तस्सण्णं भुंजए सेसं ॥ व. .०६ व. श्रा. ३०६ । यस्त्वेकभिक्षानियमो गत्वाऽद्यादनुमन्यसौ। ................. भिक्षोद्युक्तस्तु केनचित्। भुक्त्यभावे पुनः कुर्यादुपवासमवश्यकम् ॥७.४६ भोजनायाथितोऽचात्तद् भुक्त्वा यद् भिषितं मनाक ॥ ५. वमुनन्दि-श्रावकाचार में इसी प्रसा में यह कहा सा. ७,४१-४२ गया है कि देशव्रती श्रावक को दिनप्रतिमा, रिचया, १ एमेव होइ विमो पवरि विसेसो कुणिज्ज गियमेण । त्रिकाल योग और सिद्धान्त रहस्यों के पढने का अधिकार लोचं धरिज्ज पिच्छं भुजिज्जो पागिपतम्मि ॥ व. ३११ नहीं है । यधा
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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