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________________ अनेकान्त विन्यस्यवंयुगीनेषु प्रतिमासु जिनानिव । उपयुक्त ग्यारह पद सम्यक्त्व से विरहित जीव के सम्भव भक्त्या पूर्वमुनीनचेत् कुतः मेयोऽतिचिनाम् ॥ नहीं हैं, प्रतः सर्वप्रथम वहा पाठ प्रगों सहित सम्यक्त्व और १४ सोमदेव सूरि ने पुण्योदय से प्राप्त धन का उसके विषयभूत जीवादि तत्त्वों का विवेचन किया गया उपयोग जैनधर्मानुयायी के लिए करने की इस प्रकार से है। तत्पश्चात् यह निर्देश करते हुए कि दर्शनश्रावक वह प्रेरणा की है होता है जो सम्यक्त्व से विभूषित होकर पांच उदुम्बर वाल्लषं धनं धन्यवप्तव्यं समयाश्रिते। फलों के साथ सातों व्यसनों को छोड़ देता है। इन एको मुनिर्भवेल्वभ्यो न लभ्यो वा यथागमम् ।।२१ जूतादि सात व्यसनो की यहां विस्तार से प्ररूपणा की यही प्रेरणा सा. घ. (२-६३) में इस प्रकार से की गई है। प. प्राशाघर ने सागारधर्मामत के अन्तर्गत कितने वाम्लम्ब बनं प्राणः सहावश्यं विनाशिक ही विषयों के वर्णन में उक्त वसुनन्दि-श्रावकाचार का बहमा विनियुजानः सुधीः समयिकान् क्षिपेत् ॥ प्राश्रय लिया है। उनमे उदाहरण स्वरूप कुछ इस १५ उपासकाध्ययन मे लक्षणनिदंशपूर्वक दान के प्रागे यथाक्रम से इस गाथा मे निर्दिष्ट विनयादि तीन भेद कहे गये हैं-राजस, तामस भोर सात्विक । का वर्णन किया गया है। उसमे भी प्रमुखता से इनमें सात्त्विक दान को उत्तम, राजस को मध्यम पोर पूजनविधान का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है। तामस को सर्वजघन्य दान बतलाया है। ५ पचुबरसहियाइ सत्त वि विसणाइ जो विवज्जेइ । पं. पाशाधर ने अतिथिसंविभाग के प्रकरण मे श्लोक सम्मत्तविसुद्धमई सो दसणसावप्रो भणियो ॥५॥ ५-४७ में दाता का स्वरूप बतलाते हुए उसकी स्वोपज्ञ गा० ६०-१३३ । टीका में कहा है कि चूंकि वासा सस्वादि गुणो से युक्त , ७ स्वयं पं० प्राशाघर ने सा. घ. की स्वो. टीका मे होता है, अतः उसके द्वारा दिया जाने वाला दान भी प्रा. वसुनन्दी के नामोल्लेखपूर्वक वसु.धा. की सात्त्विक मादि के भेव से तीन प्रकार का है। गाथाम्रो को भी उद्धृत किया है। यथा४. बसुनमि-श्रावकाचार और सागारधर्मामृत क-'प्रथ-पंचुंबरसहियाइ सत्त वि वसणाई जो विवज्जेइ। वसुनन्वि-श्रावकाचार के रचयिता मा. वसुनन्दी हैं। सम्मत्तविसुद्धमई सो दंसणसावनो भणिमो ॥व. ५७ उन्ही के नाम पर यह ग्रन्थ 'वसुनन्दि-श्रावकाचार' नाम से इति वसुनन्दिसैद्धान्तिमते'। सा. घ. स्वो. टीका ३-१६ प्रसिरहमा है। इसमें दर्शन-व्रत प्रादि ग्यारह स्थानो ख-यस्तु 'पचुंबरसहियाई..॥५७' इति वसुनन्दिसंवान्ति(प्रतिमामों) के माधय से बावकधर्म का वर्णन किया मतेन दर्शनप्रतिमायां प्रतिपन्नस्तस्येद तन्मतेनैव व्रतगया है। साथ ही वहां धावकों के द्वारा पौर भी जो प्रतिमा बिभ्रतो ब्रह्माण व्रत स्यात् । तद्यथायथायोग्य विनय, वयावृत्त्य, कायक्लेश व पूजन-विधान "पम्वेसु इत्थिसेवा...."॥" (व. श्रा. २१२) सा. अनुष्ठेय है उनका भी कथन किया गया है।। चूकि घ. स्वो. टीका ४-५२ १ उपा. ८२८-३१ । ग-इनके अतिरिक्त मनगारधर्मामृत की स्वो. टीका २. किं -सत्वादिगुणदातक दानमपि सात्विकादि- (८.८८)में भी जो 'एतच्च भगवसुनन्दिसैद्धान्त [न्ति]. भेदात् त्रिविमिष्यते । तदुक्तम्-इतना कह देवपादैराचारटोकाया "दुप्रोणद जहाजाद" इत्यादिसूत्रे कर भागे उपासकाध्ययन के उपयुक्त चार श्लोकों (मूला.७-१०४) व्याख्यात द्रष्टव्यम् । (मूला. वृत्ति के को उदत भी कर दिया है। सा. घ. ५-४७ कर्ता के रूप मे यहा भी जिस ढंग से उनके नाम का ३ यह वर्णन प्रारम्भ की ३१३ गाथामो में पूर्ण हुमा है। उल्लेख किया गया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि ४ विणमो विग्जाविच्च कायकिलेसो य पुग्मणविहाणं । वसुनन्दि-श्रावकाचार के कर्ता वसुनन्दी पौर उक्त सत्तीए जहजोम्ग कायब्वं देसविरएहि ॥३१६ माचारवृत्ति के कर्ता बसुनन्दी दोनों एक ही है।)
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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