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________________ सागारधर्मामृत पर इतर भावकाचारों का प्रभाव १५३ इसी का अनुसरण करके प० प्राशाधर ने सा. ध. मे ११. सागारधर्मामृत मे सत्याणवत के प्रसंग मे वचन यह कहा है के जो सत्यसत्य प्रादि चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं वे भजन मद्याविभाज स्त्रीस्तादृशः सह ससृजन् । उपासकाध्ययन मे वणित उन वचनभेदों से पूर्णतया प्रभाभक्त्यावौ चंति साकीति मद्यादि वितिक्षतिम् ॥३-१० वित है। उक्त भेदो मे चौथा भेद प्रसत्यासत्य है। चर्मस्थमम्भः स्नेहश्च हिंग्वसंहृतचर्म च ।। व्यवहार का विरोधी होने से उसे दोनों ही प्रन्थो मे सर्व च भोज्यं व्यापन्नं दोषः स्यादामिषव्रते ॥३-१२ समान रूप से हेय बतलाया गया है । ७. अन्तरायो के टालने की प्रेरणा जैसे उपासका- १२. उपासकाध्ययन मे बाह्य भौर अभ्यन्तर वस्तुयो ध्ययन में की गई है वैसे ही सा. ध. मे भी की गई है। मे 'ममेद' इस प्रकारका जो सकल्प हुमा करता है उसे दोनों का अर्थसाम्य व शब्दसाम्य दर्शनीय है परिग्रह कहा गया है। । इसी प्रकार सागारधर्मामृत मे प्रतिप्रसगहानाय तपसः परिवहये। भी चेतन, प्रचेतन और मिश्र (चेतन-अचेतन) वस्तुमो मे अन्तरायाः स्मृताः सवित-बीजविनिक्रियाः ।। जो 'ममेद' इस प्रकारका संकल्प होता है उसे ही परिग्रह उपा. ३२४ कहा गया है। प्रतिप्रसंगमसितुं परिवर्धयितुं तपः । १३ सोमदेव सूरि के समय में मुनियो में प्राचारव्रत-बीजवतीभक्तेरन्तरायान् गृही श्रयेत् ।। विषयक शिथिलता देखने में माने लगी थी, जिससे उन्हे सा. ध. ४-३० उनकी मान्यता में कमी का अनुभव होने लगा था। इसी८. रात्रिभोजन के परित्याग के सम्बन्ध में भी से उन्हे उपासकाध्ययन में यह कहना पड़ाउक्त दोनों ग्रन्थों के श्लोक देखिये यया पूज्यं जिनेन्द्राणां रूपं लेपादिनिमितम् । अहिसावतरक्षार्थ मूलवतविशद्धये । तथा पूर्वमनिच्छायाः पूज्याः सप्रति संयताः ।।७७ निशायां वर्जयेद भक्तिमिहामुत्र च टूखदाम् ।। इसी प्रभिप्राय को ५० प्राशाधर ने सागारधर्मामल उपा. ३२५ (२-६४) मे इन शब्दों में व्यक्त किया हैअहिंसावतरक्षार्थ मलव्रतविशद्धये। नक्तं भुक्ति चतुर्षापि सदा धीरस्त्रिया त्यजेत् ॥ प्रारम्भेऽपि सदा हिसां सुधी. सांकल्पिकी त्यजेत् । ६. उपासकाध्ययन मे श्रावक के उत्तरगुणो का घ्नतोऽपि कर्षकादुच्चः पापोऽनन्नपि धीवरः ॥ निर्देश इस प्रकार किया गया है सा. २-८२ अणुवतानि पञ्चैव विप्रकारं गणवतम् । २ देखिए उपाम. पृ. १७५-७६ का गद्यभाग और सा. शिक्षावतानि चत्वारि गुणाः स्यदिशोत्तरे ॥ १४ ध. श्लोक ४, ४१-४३ (उन वचनभेदो के नाम भी दोनों ग्रन्थों में शब्दश: समान हैं)। सा. ध मे ये ही १२ उत्तर गुण निर्दिष्ट किये गये है । वहा उनगे सम्बद्ध श्लोक का चतुर्थ चरण उपयुक्त सुरीय वर्जये नित्य लोकयात्रा त्रये स्थिता । उ. ३८४ लोकयात्रानुरोधिन्वात् सन्यसत्यादिवाक्त्रयम् । उपासकाध्ययन के उक्त श्लोक का ही है-गुणा. स्युदि. शोत्तरे (४-४) । ब्रू यादसत्यासत्य तु तद्विरोधान्न जातुचित् ।। यत् स्वस्य नास्ति तत् कल्ये दास्यामीत्यादिसविदा । १०. उपासकाध्ययन में जो साकल्पिक हिंसा के व्यवहारं विरुन्धान नासत्यासत्यमालपेत् ।। लिए धीवर का और प्रारम्भज हिंसा के लिए कर्षक सा. घ. ४-४० व ४-४३ (किसान) का उदाहरण दिया गया है वही उदाहरण सा. ४ ममेदमिति सकल्पो बाह्याभ्यन्तरवस्तुषु । घ. में दिया गया है । परिग्रहो मत: xxx| उपा. ४३२ १ अध्नन्नपि भवेत् पापी निघ्नन्नपि न पापभाक् । ५ ममेदमिति संकल्पश्चिदचिन्मिश्रवस्तुष । अमिध्यानविशेषेण यथा धीवर-कर्षको ॥ उ. ३४१ ग्रन्थ: xxx ॥सा. घ. ४-५६ ।
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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