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________________ १५२ अनेकान्त उपयुक्न उपासकाध्ययन के मोक में मोन के लिए ४. उपासकाध्ययन के इमो प्रकरण में मद्यदोषो का दो कारण-अभिमानरक्षा पोर श्रुतप्रतीक्षा (श्रुतविनय)- उम्लग्न करते हुए सोमदेव मूरि ने कहा है (२७५) कि निहित है। वे दोनो कारण गा. ध के इम इनोक में भी यदि मद्य की एक बंद में सम्भव समस्त जीवराशि फल गभित है। 'अभिमानस्य रक्षार्थ' और 'अभिमानावने' म जाय तो वह समस्त लोक को व्याप्त कर सकती है। यही शाब्दिक समानता भी है। कि मा. ध. मे यहा प्रकरण बात १० आशाधर के द्वारा मा. ध. (२-४) मे भी वही ही मौन का रहा है, अत: उसका वर्णन वहा कुछ विशेष गई है। रूप में-३४-३८ श्लोको मे-उपलब्ध है। ५. उपामकाध्ययन में (पृ. १३०-३३) मद्यपायी २. उपासकाध्ययन में सम्यक्त्व के प्रादुर्भाव की एकपात परिव्राजक और उमका व्रत रखने वाले धूतिल मामग्री का निर्देश करते हए 'उक्त च' कहकर ग्रन्थान्नर चोर की कथा पृथक-पृथक कही गई है। इन्ही नामो का से यह श्लोक उद्धृत किया गया है निर्देश मा. ध में उदाहरण के रूप में किया गया है४ । मासम्मभव्यता-कमहानि-संज्ञित्व-शुद्धपरिणामाः । ६ उपामकाध्ययन में कहा गया है कि जो भोजसम्यक्त्वहेतुरन्त ह्योऽप्युपदेशकाविश्च ॥२२४ नादि के समय-पक्तिभोजनादि मे-प्रवतियो-मद्य इससे मिलता जुलता सा. घ. में निम्न श्लोक पाया मासादि का सेवन करने वालो-के माथ समर्ग करना है जाता है वह इम लोक में निन्दा को प्राप्त करना है तथा परलोक मासन्नभग्यता-कर्महानि-सशित्व-शुद्धिभाक् । उसका निष्फल जाता है। साथ ही वहा चर्मपात्र में ये देशनाचस्तमिथ्यात्वो जीवः सम्यक्त्वमानुते ॥१-६ हए पानी व तेल प्रादि के परित्याग के माथ व्रत में इसका पूर्वार्ध तो प्राय: उपर्युक्त श्लोक का ही है। विमुख-मद्यादिका सेवन करने वाली-स्त्रियो के परिउत्तरार्ध में भी पूर्व श्लोक मे जैसे सम्यक्त्वोत्पत्ति के बाह्य त्याग की भी प्रेरणा की गई है ५ । हेतुभूत उपदेश का उल्लेख किया गया है वैसे ही सा ध. पिछले श्लोक में प्रयुक्त 'एतान्' पद को स्पष्ट मे भी उक्त श्लोक के उत्तरार्ध में उमका (उपदेश-देशना करते हुए उसकी स्वोपज्ञ टोका मे प्रस्तुत उपासकाका) निर्देश किया गया है। ध्ययन का नामोल्लेख भी इस प्रकार किया गया है३. उपासकाध्ययन मे मद्य, मांस और मधु के त्याग किविशिष्टान् ? एतान्-उपासकाध्ययनादिशास्त्राके साथ पाच उदुम्बर फलों के त्याग स्वरूप आठ मूलगुण नृमारिभिः पूर्वमनूष्ठेयतयोपदिष्टान् । निर्दिष्ट किये गये है। सा. ध. स्वो, टीका २,२-३ प. प्राशाधर ने इन्हो को मान्यता देकर अपने सा. ४ मा.ध. मे इसी प्रकार से अन्यत्र भी जो जहा-तहा ध. मे उन्हें प्रथम स्थान देते हुए तत्पश्चात् प्रा. समन्तभद्र उदाहरण के रूप में कितने ही नामों का उल्ले ग्व और जिनसेन के तद्विषयक अभिमत को सूचित किया है। किया गया है उनमे से अधिकाश की कथाये प्रस्तुत १ प्रनगारधर्मामृत की स्वोपज्ञ टीका (१-१) मे इसे उपासकाध्ययन मे यथास्थान पायी जाती है । यथा मांसभोजी सौरसेन (उपा. पृ. १४०-४१; सा. ध. स्वय प० प्राशाधर ने उद्धृत भी किया है। २ मद्य-मांस-मधुत्यागः सहोदुम्बरपञ्चकै. । २-६) और उसका व्रत रखने वाला चण्ड नामक अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणाः श्रुते ॥२७० चाण्डाल (उपा. पृ. १४२-४३; सा. ध. २-६) इत्यादि। ३ तत्रादौ श्रद्दधज्जनीमाज्ञां हिंसामपासितुम् । कुर्वन्नतिभि: मार्च संसर्ग भोजनादिषु । मद्य-मांस-मधून्युज्भेत् पञ्च क्षीरफलानि च ।। प्राप्नोति वाच्यतामत्र परत्र च न सत्फलम् ॥ प्रष्टतान् गृहिणा मूलगुणान् स्थूलवधादि वा । दृतिप्रायेषु पानीय स्नेह च कुतुपादिषु । फलस्थाने स्मरेत् धून मधुस्थान इहैव वा ।। व्रतस्थो वर्जयेन्नित्य योषितश्चावतोचिता. ॥ सा. . २,२-३ उपा २६८-६९
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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