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गत किरण ३ १ १.५ से प्राग--
सागारधर्मामृत पर इतर श्रावकाचारों का प्रभाव
बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
इम उपासकाध्ययन में चचिन श्रावकाचार का प्रभाव उपामकाध्ययन प० प्रागाधर के ममक्ष रहा है व उन्हान प्रस्तुत सागारधर्मामन पर बहुत अधिक दिखता है । यह मागारधर्मामत की रचना में उसका बहुत कुछ उपयोग १. पं. प्राशाधर ने सोमदेव मूरि और उनके इम उपा- .
भी किया है। उदाहरण के रूप में उक्त दोनों ग्रन्थों के मकाध्ययनका उल्लेख भी जहातिहा स्वयं किया है- कुछ मे स्थलो को यहाँ प्रस्तुत किया जाता है जिनमे
क-'मन्त्रभेद, परीवाद.. .. ' (उपाम० ६८१) बहन कुछ ममानता दर इति यशस्तिलके अतिचागतरवचन तबरे प्याद्यास्त
१ उपासकाध्ययन के अन्तर्गत भव्य मेन मुनि के परीक्षादात्यया इत्यनेन मगहीन प्रतिपनयम । (माघ प्रकरण (पृ०६२-६६) मे मौन मे मम्बद्ध एक श्लोक स्वो. टीका ४-४५)
(१८०) पाया है, जो ग्रन्थान्तर का प्रतीत होता है। वह ख-मामदेवपण्टिनस्तु मानन्यनाधिकवे दावनी- हग प्रकार है-- चारी मन्यमान इदमाह--मानवन्यनताधिक्य म्तनकम
अभिमानस्य रक्षार्थ प्रतीक्षार्थ अनस्य च । नतो ग्रह । विग्रह गग्रहोऽर्थम्याम्तेयस्यने निवर्तका ।। वनन्ति मुनयो मोनमदनाविषु कर्मसु । (उपाम. ३७०-उपा में मानवन्य' के स्थान पर
मका मिलान मा ध. के निम्न श्लोक (४-५) में 'पोतवन्य' और मा ध. में 'म्तेनकम' के स्थान पर 'तेन का
कीजिये- कर्म' व 'विग्रह' के स्थान पर "विन हो' पाठ है। मा
अभिमानावने गतिरोषाद वर्षयते तपः२ । ध. स्वो टीका ४-५०।।
मौन तनोति श्रेयश्च श्रुतप्रश्रयतायनात ।। ग-तदाह सोमदेवपण्डित.-वधू-वित्तस्त्रियो
मानवा उपासकाध्ययन अग ही विवक्षित है, न कि मुक्त्वा ॥ (उपा. ४०५) सा. ध. स्वो. टीका ४-५२ प्रस्तुत उपामकाध्ययन । दूमरे, वह प्रकरण प्रस्तुत
घ-सोमदेवपण्डितस्त्विदमाह-कृतप्रमाणो लोभेन उपामकाध्ययन में उपलब्ध भी नहीं होता। धनाद्यषिकसंग्रहः । पञ्चमाणुव्रतज्यानी करोति २ मौन से चंकि गतिका निरोध होता है-लोलुपता गृहमेधिमाम् ॥ (उपा. ४४४-मुद्रित उपासका. को छोड़ना पडता है, मन उस मौन से इच्छानिरोध ध्ययन में 'कृतप्रमाणाल्लो' और 'धमादधिक' पाट प तप की वृद्धि होती है। इसके अतिरिक्त उके मुद्रित हुए है, इनकी अपेक्षा सा. ध. की टीका म प्राश्रय से मनःसिद्धि-मन के ऊपर नियन्त्रणजो पाठ उपलब्ध है उनकी मम्भावना अधिक है)। और वचनकी सिद्धि-सरस्वती की प्रसन्नता (श्लोक मा. ध. स्वो. टीका ४-६४
३६)-भी होती है। यह कथन भी यहां उपासकादु-तद्वच्पेमेऽपि श्रीसोमदेवबुधाभिमता:-दुप्प- ध्ययनगत निम्न श्लोको के आधार से किया गया हैक्वस्य निषिद्धस्य" ..|| (उपा. १६३) सा. घ. म्वो. लौल्यत्यागात् तपोवृद्धिरभिमानस्य रक्षणम् । टीका ५-२०
नतश्च समवाप्नोति मनःसिद्धि जगत्त्रये ॥ श्लोक ७-१६ और २० की स्वो. टीका में 'उपास- श्रुतस्य प्रश्रयाच्छय समृद्ध. स्यात् समाश्रय. । काध्ययन' का नामोल्लेख हुआ है। पर उससे जैसा ततो मनुजलोकस्य प्रमीदति सरस्वती ॥ कि मूल में (सप्तमे प्रक्ष-७.२०) निर्दिष्ट है,
उपा. ८३५-३६