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________________ अनेकान्त यह प्रागमन प्रक्रिया का विज्ञान ही जैनों का 'तकं अथवा existence and Law of Succession कहते है५ । इस कहा है, जो व्याप्तिरूपी सामान्य ज्ञान की खोज और प्रकार अनिवार्य मबध मे हेतु के सभी दृष्टान्त साध्यमय मिद्धि करता है और अनुमान-क्रिया का प्राधार निर्मित होते है अथवा हेतु का कोई दष्टान्त साध्य के बिना सम्भव करता है। अतः पश्चिम के प्राकारी तकंशास्त्री ठीक नही है । यदि साध्य नही है, तो हेतु भी नही हो सकता; जैनो की भांति हेन्वनमान मे न तो उदाहरण, न उपनय उमी के माथ-साथ यदि हेतु उपलब्ध है तो इसका अर्थ है और न निगमन ही स्वीकार करते है, बल्कि मध्यम पद कि वहा माध्य अवश्य है। इस प्रकार न्याय की पदावली अथवा हेतु (Middle term) के द्वारा पक्ष अथवा धर्मी मे हेतु व्याप्य और साध्य व्यापक कहा जाता है, क्योकि (Minor term) के साथ साध्य अथवा धर्म (Major माध्य ही हेन के दृष्टान्तो में व्यापक होता है। इस से term) का सम्बन्ध-स्थापन होना मानते है।। स्पष्ट हुआ कि हेतु और साध्य का सम्बन्ध व्याप्य-व्यापक हेतु-मीमांसा सम्बन्ध होताहै, जो सहभाव मोर क्रमभाव दोनो रूपों मे अब हम हेत्वनुमान के समस्त पहलुमों के विस्तार में व्यक्त हो मकता है। न जाकर केवल हेतुपद पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं, जैन नैयायिक जब हेवनुमान का कथन करता है, तो क्योंकि हेतु ही सम्पूर्ण हेत्वनुमान की धुरी है। हेतु के उसके दोनो अवयवों में त्रिकोणीय सम्बन्ध को व्यक्त माध्यम से ही अप्रत्यक्ष साध्य का ज्ञान होता है। अतः करता है। यथा--- माध्य की सम्यक ज्ञानोपलब्धि के लिए हेतु का मम्यक पर्वत पर अग्नि है, ज्ञान प्रावश्यक है। क्योकि वहाँ धूम्र है। हेतु की परिभाषा मे जैन नैयायिक माणिक्यनन्दि का इममे त्रिकोणीय मम्बन्ध इस प्रकार है :कथन है, कि 'जिस पद का साध्य के माथ अविनाभाव अग्नि (साध्य) सम्बन्ध हो वही हेतु या लिङ्ग है२।' अविनाभाव का तात्पर्य है, कि जिसके होने पर ही हो और न होने पर न हो। माना क हेतु है और ख माध्य । क और ख के प्रविनाभाव का तात्पर्य है कि ख के होने पर ही कहो, न होने पर न हो, तो ऐसा सम्बध अविनाभाव होता है। पश्चिमी तक. पर्वत शास्त्र में इसे पनिवार्य (Necessary) सम्बन्ध कहते है३ । (पक्ष) ऐमा अनिवार्य सम्बन्ध सहभाव मोर क्रमभाव दो रूपो में एक पोर, पर्वत और अग्नि का गुह्य सम्बन्ध, दूसरी ध्यक्त होता है। । पश्चिम में इसे क्रमश Law of Co- मोर, पर्वत और धूम्र का प्रकट सम्बन्ध तथा तीसरी ओर १. देखिए-Bradley-Principles of Logue Bk. l] Principlesoflawle pt. धूम्र प्रार धूम्र और अग्नि का ऊहाधित अविनाभाव सम्बन्ध है। Pt. I Ch. IV P. 10. इसमे अविनाभाव को प्राधार बनाकर धूम्र और अग्नि Joseph--An Introduction to logic, P. 253 को क्रमशः प्रकट और गुह्य मान कर अनुमान के निम्नSecond Ed. Revised. लिम्वित चार रूप मम्भव हो जाते है :परीक्षामुखम् ३-१४ (१) क-पर्वत पर अग्नि है; प्रमाण मीमांसा १-२-७ क्योंकि वहा धूम्र है। २. परीक्षामुखम् ३-१५ ख-पर्वत पर शीत स्पर्श नहीं है। ३. देखिए-एल. एस. स्टेविग कृत A modern Intro क्योकि वहाँ धूम्र है। duction to Logic, पृ. २७१ (२) क-पर्वत पर धूम्र नहीं है। ४. परीक्षामुखम् ३-१६; प्रमाण मीमांसा १-२-१. ५. जे. एस. मिल कृत Logic Bk. III Ch.xXII पृ. ४
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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