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________________ जैन तर्क में हेत्वनमान इसमें पहला अवयव पक्ष और दूसरा हेतु है। इसी है। यहाँ तक कि जैन नयायिक की दृष्टि में उदाहरण न को हिन्दू न्याय मत मे निम्न प्रकारेण पाच अवयवों में केवल निरर्थक ही है, बल्कि साध्य-ज्ञान की उपलब्धि मे व्यक्त किया जाता है२ : बाधक है, क्योकि हमे सिद्ध करना है कि प्राग पर्वत पर है, पर्वत पर अग्नि है; (प्रतिज्ञा) जब कि उदाहरण में प्राग पर्वत के बिना भी सम्भव क्योंकि वहां धूम्र है; (हेतु) दिखाई गई है। प्रत. प्रस्तुत पक्ष के मुकाबिले दूसरे पक्ष जहाँ-जहाँ धूम्र, वहाँ-वहाँ अग्नि, को प्रकट कर संदेह का बीजारोपण होता है, जो साध्य जैसे- (उदाहरण) ज्ञान की सिद्धि मे सहायक नहीं कहा जा सकता । ऐसा ही यहाँ है; (उपनय) उदाहरण के अतिरिक्त पंचावयव हेत्वनुमान में अंतिम प्रतः पर्वत पर अग्नि है। (निगमन) दो अवयव, यथा-उपनय पौर निगमन, भी जनो के अनु पारस्तवीय हेत्वनुमान मे उपर्युक्त पाँच अवयवो मे से सार पिष्टपेषण मात्र है। जैन नैयायिक माणिक्यनन्दि पहले तीन को विलोम रीति से रखा जाता है३, यथा- पूछते है . 'कुतोऽन्यथोपनय निगमने' (अर्थात्-पन्यथा जहाँ धूम्र है वहाँ अग्नि है; (Major premise) किसलिए उपनय और निगमन हों ?), उपनय और पर्वत पर धूम्र है, (Minor premise) निगमन में जो यह कहा गया, कि ऐसा यह पर्वत धूम्रमय प्रतः पर्वत पर अग्नि है। (Conclusion) है 'अतः पर्वत पर अग्नि है', तो क्या उपयुक्त अवयवो मे जैन नैयायिक पंचावयव हेत्वनुमान में उदाहरण वणित और उदाहरण मे प्रमाणित पर्वत पर धूम्र से प्रभृति तीन अवयवों को तर्क की विद्वद् गोष्ठी के लिए अग्नि के ज्ञान में कोई संदेह रह गया था? अन्यथा उपव्यर्थ मानते है। उनका तर्क है कि हेत्वनुमान मे उदाहरण नय और निगमन की क्या प्रावश्यकता पड गई? अतः नामक अवयव का कोई कार्य नहीं है। उदाहरण से न तो जैन नैयायिक के अनुसार उपनय पौर निगमन भी अनुसाध्यज्ञान उपलब्ध होता है, क्योंकि साहा के लिए तो मान के अंग नहीं है, क्योंकि पक्ष मे साध्य और हेतू के हेतु ही है और न व्याप्ति का ही उदय होता है, क्योकि निश्चय हो जाने पर कोई संशय शेष नही रहता। व्याप्ति अथवा अविनाभाव के निश्चय के लिए विपक्ष का हेत्वनुमान मे उदाहरण पंग के प्रति जनों की उपेक्षा प्रतियोग सिद्ध होना प्रावश्यक है। मात्र रसोई के उदा. वस्तुतः एक विशेष माने रखती है। हिन्दू नैयायिक व्याप्ति हरण से व्याप्ति का निश्चय नहीं होता। साथ ही निर्माण की क्रिया को वस्तुतः अनुमान से पृथक 'नही उदाहरण केवल विशिष्ट दृष्टात का निदर्शन करता है मानता, बल्कि उसी का एक अंग मानता है। परन्तु जैन जबकि व्याप्ति सामान्य सत्य का। एक विशेष सामान्य नैयायिक व्याप्ति प्रथवा भविनाभाव सम्बन्ध के निश्चयीकी सिद्धि के लिए अपर्याप्त है। यदि उस एक विशेष पर करण की क्रिया को तर्क प्रयवा ऊहा का नाम देता है, संदेह करे, तो दूसरा विशेष, दूसरे पर सदेह की अवस्था जिसे अनुमान की ही तरह अनुमान से अलग स्वतन्त्र मे फिर प्रौर, प्रौर ऐसे ही अवस्था दोष सुनिश्चित है५। प्रमाण स्वीकार करता है। यही पर जैन और पारस्तवीय अब कोई कहे, कि उदाहरण से व्याप्ति-स्मरण हो जाता तर्कशास्त्र एकमत हो जाते हैं । अरस्तू ने सामान्य है, तो वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि व्याप्ति-स्मरण के साध्यवाक्य (Major premise) अथवा व्याप्ति-वाक्य लिए हेतु ही पर्याप्त है, और उदाहरण सर्वथा निरर्थक की उपलब्धि प्रागमन प्रक्रिया के द्वारा मान्य की है, जिसे १. परीक्षामुग्क्म् ३-३७, प्रमाणनय तत्वालोकाल कार ३.२८ वह ताकिक अनुमान की प्रक्रिया से पृथक स्थान देता है। २. तर्कसंग्रह ४५; न्यायसूत्र, १-१-३२ ६. प्रमेय रत्नमाला ३-४१ प्रमाण नय तत्वा० ३-३७ ३. वेल्टन कृत इन्टरमीडिएट लॉजिक, पृ. २०० ७. परीक्षामुखम् ३-४२ ४. परीक्षामुखम् , ३-३८, ३६ ८. वही, ३-४३ ५. वही, ३-४. प्रमाणनय तत्वालोकालंकार ३-३६ ६. वही ३-४ प्रमाण नय तत्वा० ३-४.
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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