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________________ २२६ अनेकान्त शाखाएं विभिन्न स्थानों पर खोली जा सकती है। बहनों ने उनकी अहिंसक क्रान्ति को सफल बनाने के लिए ७. जैनधर्म के हस्तलिखित ग्रथ जगह-जगह जैन-भण्डारों अपना जीवन समर्पित कर दिया है। वे 'जीवनदानी' कहमें भरे पडे हैं । उनकी एक सूची सक्षिप्त परिचय के साथ लाते हैं । ऐसे ही कुछ सेवा-भावी व्यक्ति जैन-समाज में भी शीघ्र ही तैयार हो जानी चाहिए। पाने चाहिए। वे समाज-सेवा के लिए अपने जीवनको अर्पित ८. मुझे संसार के अनेक देशो मे घूमने का अवसर कर दें और अपने-अपने क्षेत्र में समाज-सेवा का कार्य करे । मिला है । यूरोप, दक्षिण-पूर्वी एशिया, अफ्रीका प्रशान्त वे अपना पूरा समय समाज-सेवा को दे और समाज का महासागर के देश, सब जगह मुझे ऐसे व्यक्ति मिले है, दायित्व हो कि वह उनकी जीविका की व्यवस्था करे। जिन्होंने जन-धर्म के प्रति बडी जिज्ञासा व्यक्त की है और १३. ऐसे पारितोपिको की भी सुविधा होनी चाहिए, ऐसे साहित्य की मांग की है, जो उन्हे सरल भाषा मे जैन- जो सदाचार, निर्भीकता, भ्रातृभाव प्रादि की दृष्टि से धर्म के बुनियादी सिद्धातोंकी जानकारी दे सके । विदेशियो उच्च कोटि के छात्रों को दिये जा सके । ऐसे पारितोपिको के लिए हमारे कुछ विद्वानों ने साहित्य तैयार किया था, से छात्र-छात्राओं में स्वास्थ प्रतिस्पर्धा उत्पन्न होगी। लेकिन तब से अब तो संसार बहुत आगे बढ गया है । ते १४. हमारी शिक्षा बहुत-कुछ एकागी है। वह पुस्तलोग धर्म का इसलिए अध्ययन करना चाहते है कि उन्हें कीय ज्ञान कराने का तो प्रयत्न करती है, लेकिन वह अपने दैनिक जीवन की समस्याग्री को सुलझाने में सहायता यवको मे स्वावलम्बन की भावना और आत्मविश्वास पैदा मिले । उनका धरातल बौद्धिक है और वे उसी साहित्य नहीं कर सकता है जवाक हसारी शिक्षा-सस्थानो मे उद्योग को अगीकार कर सकते सकते है, जो बुद्धि की कसौटी पर । के शिक्षण की भी व्यवस्था हो । गाधीजी ने बुनियादी कसा जा सके । शिक्षा का प्रचलन इसीलिए किया था । श्रम के बिना ज्ञान ६. इसके लिए ऐसे प्रकाशन-गृह की आवश्यकता है, अधूग है और बिना शिक्षा खरी मेहनत के धर्म भी अपंगु जो विद्वान लेखको स ग्रब तैयार कराकर उसका प्रकाशन है। इसलिए हमारी शिक्षा-सस्थायो मे उद्योग का शिक्षण करे। यह प्रकाशन-गृह उन हस्तलिखित ग्रथों का भी प्रका- अनिवार्य होना चाहिए। शन कर सकता है, जो अत्यन्त उपयोगी है और जो भण्डारी ऐसे और भी बहुत-से कार्य हो सकते है मैं उन सब मे बन्द पडे है। को यहा गिनाना नही चाहता । मैंने तो केवल सकेत किया १०. जैन साधु तथा साध्वियों देश में घूम-घूमकर धर्म- है। आप सब विज्ञ है । गम्भीरता से विचार करके व्यावप्रभावना प्रसारित करती है, लेकिन उनके दायरे सीमित हारिक योजनाए बनाये और उन्हे क्रियान्वित करे। है, अत. उनकी उपयोगिता भी सीमित है। जैन समाज के जैन धर्म की बडी व्यापकता है और जन-समाज की चुने हुए विद्वानो के, जा अच्छ वक्ता भी हो, छाट-छाट बड़ी उपयोगिता भी हो सकती है, लेकिन यह तभी संभव शिष्टमण्डल देश के विभिन्न भागो मे जा सके, ऐसी है, जबकि सारा समाज सगठित हो और उन आदर्शों को व्यवस्था होनी चाहिए। कुछ शिष्टमण्डल विदेशों में भी अपने पाचरण से ससार के सामने रक्खे, जो सबके लिए जाने आवश्यक है। वहां के निवासी हिसा से तग पाकर अहिंसा की ओर आकर्षित हो रहे है और वे मानते है कि जैन-दर्शन का सम्यक् ज्ञान वास्तव में अद्भुत है मन जैन-दान का मस उस दिशा में जन-धर्म की विशेष देन है। का ज्ञान सदा अह की एकागी अहता से निर्धारित तथा ११. दिल्ली तथा अन्य केन्द्रीय स्थानो पर समय-समय विकृत होता है । वह कभी सम्यक् भी नही होता । उसकी पर गोष्ठियो का आयोजन भी उपयोगी होगा । ये गोष्ठियाँ उपयोगिता सामाजिक व्यवहार की है । उसमे यथार्थता जनेतर व्यक्तियों को जन-धर्म की ओर आकर्षित करने में नहीं होती और तभी 'शिव' और 'सुन्दर' के साथ एकत्व सहायक हो सकती है, ऐसा मेरा विश्वास है। भी उसमे नही होता। हमारा वर्तमान ज्ञान एकागी, आशिक १२. प्राचार्य विनोवा के आह्वान पर बहुत-से भाई- है। उसमे 'शिव' और 'सुन्दर' का समन्वय नही है।
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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