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सागारमममृत पर इतर बायकाचारों का प्रभाव
उपयुक्त 'परमेष्ठिपर्दकधी विशेषण का स्पष्टीकरण करते हुए स्वोपज्ञ टीका में कहा गया है कि दर्शनिक श्रावक धापत्ति में घिर कर भी उनसे छुटकारा पाने के विचार से शामनदेवतादि की कभी भी आराधना नही करता है१ ।
चतुर्थ अध्याय में व्रतिक (द्वितीय) श्रावक की प्ररूपणा को प्रारम्भ करते हुए उसके लक्षण में कहा गया है कि जो
सम्यग्दर्शन के साथ निर्मल माठ मूलगुणो और बारह उत्तरगुणो का परिपालन करता है उसे प्रतिकक कहा जाता है। यहा ग्रहिसाणुव्रत के वर्णन मे उसके प्रतिचारों का निर्देश करते हुए हिसा हसा का विस्तार पूर्वक विचार किया गया है ( ४,१५- ३८ ) । तत्पश्चात् सत्यव्रतचर्यात स्वदारसन्तोष और परिग्रहपरिमाण प्रणुव्रत की प्ररूपणा की गई है ।
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पाचवें अध्याय मे ७ शीलों-३ गुणव्रत र ४ शिक्षा तो का दर्शन किया गया है। यहा भोगोपभोगमा व्रत के प्रसग मे मद्य, माम व मधु तथा त्रसघात, बहुघात एव प्रमाद के विषयभूत पदार्थों के परित्याग के साथ ही प्रति जवृद्धि जनों के घाव से रकमों के भी प्राश्रय खरकर्मो के भी परित्याग का उपदेश दिया गया है।
छठे अध्याय में उपर्युक्त व्रतिक श्रावक की दिनचर्या के वर्णन मे प्रथमतः प्रात कालीन अनुष्ठेय विधि का विवेचन करते हुए शय्या को त्याग कर श्रावक को क्या करना चाहिये, जिनमन्दिर में किस प्रकार जाना चाहिये तथा वहा क्या करना चाहिये और क्या न करना चाहिये, इत्यादि की चर्चा की गई है। तत्पश्चात् अर्थार्जन की विधि, हानि-लाभ में समभाव का विधान, भोजनविधि मौर श्रागमरहस्य को जानकारी आदि का कथन करते हुए सान्ध्य कृत्य का वर्णन किया गया है । अन्त में निद्रा के नष्ट होने पर क्या विचार करना चाहिये, इसका निरूपण करते हुए अध्याय को समाप्त किया गया है ।
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इस प्रकार तीसरे प्रध्याय में दर्शन प्रतिमा तथा चौथे. पाचवे और छठे इन तीन मध्यायों मे व्रतप्रतिमा का वर्णन
१. प्रापदाकुलितोऽपि दर्शनिकस्तन्निवृत्त्यर्थं शासन देवतादीनू कदाचिदपि न भजते पाक्षिकस्तु भवत्यपीत्येवमर्थमेकग्रहणम् (सा. प. स्वो टीका ३३)
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करके आने के सातवें अध्याय में सामायिक आदि शेष नी प्रतिमाओं की प्ररूपणा की गई है।
अन्तिम आठवे अध्याय में श्रावक के तीसरे भेद रूप साधक का वर्णन करते हुए अन्त मे मनुष्ठेय सहलेखना का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है । यह प्रस्तुत ग्रन्थ का मक्षिप्त विषयपरिचय है ।
१ तत्त्वार्थसूत्र व उसकी टोका
स्वार्थ के माये घयाय में सुभाभव की प्ररूपणा सूत्र करते हुए सक्षेप में श्रावकाचार की प्ररूपणा की गई है । उसके और उस पर रची गई सर्वार्थसिद्धि, तस्यार्थवातिक एवं दलोकवार्तिक प्रादि टीकाओ के भी रहते हुए उपत सामान्धर्मामृत की रचना में उनका विशेष प्राथय नही लिया गया है। उसकी रचना रत्नकरण्डक, उपासकाध्ययन, योगशास्त्र और वसुनन्दिश्रावकाचार से अधिक प्रभावित दिखती है। यथा
२. रत्नकरण्डक और सागारधर्मामृत प्राचार्य समन्तभद्रविरचित रत्नकरण्डक मे मक्षिप्त होने पर भी श्रावकाचार की सर्वाङ्गपूर्ण प्ररूपणा की गई है । यद्यपि इममें प्रमुखता से श्रावकाचार का वर्णन देखा जाना है, पर ग्रन्थरचना का उद्देश धर्म की देशना रही है३ । धर्म मे अभिप्राय मम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान श्रीर २. यत्र वचित्वार्थमूत्र का भी उपयोग किया गया
है । यथा -- तत्त्वार्थ सूत्रके ७वं प्रध्याय में विधि द्रव्यदान्पावशेषात् तद्विशेष. यह मंत्र (३१) उपलब्ध होता है। इसका प्रभाव सा. ध. के निम्न श्लोक पर पूर्णतया देखा जाता हैग्रतमतिथिमविभाग. पात्रविशेषाय विधिविशेषण | द्रव्यविशेषवितरण दातृविशेयस्य फलविशेषाय ॥ ४१
इसके प्रतिरिवत मा. घ. मे उसके नाम का उल्लेख भी स्वयं पं० प्राशाधर ने किया है । यथा
त्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनलक्षणमतिचारद्रय तत्वार्थशास्त्रोपदिष्टमपि सङ्गृहीत भवति 1 मा० प० स्वो० टीका ४-५८ २. प्रत्य के प्रारम्भ मे सूचना भी बेमी की गई हैदेशयामि समीचीनं धर्म कर्म निवर्हणम् ।
ससाग्दु खत. सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुने ।। र. क. २