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सागारधर्मामृत पर इतर श्रावकाचारों का प्रभाव
बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
ग्रन्थ-परिचय
वन तथा मरण ममय मे सल्लेखना; इसे पं० पाशाधर ने पण्डितप्रवर श्री माशाधर विरचित सागारधर्मामत परिपूर्ण मागारधर्म बतलाया है (१-१२) । उन्होने श्रावकाचार सम्बन्धी एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसकी थावक के पाक्षिक, नैष्ठिक और माधक ये तीन भेद रचना उनके समय में वर्तमान ममस्त श्रावकाचार निर्दिष्ट किये है और तदनुसार ही उन्होने यहा मागे सम्बन्धी साहित्य के परिशीलनपूर्वक की गई है। प्रस्तुत थावकाचार का वर्णन भी किया है। अन्य पं. माशाधर विरचित 'धर्मामत' ग्रन्थ का उत्तगर्ध
द्वितीय अध्याय में पाक्षिक श्रावक के प्राचार की है। इसके ऊपर स्वयं उन्हीं के द्वारा रची गई एक भव्य- प्रकपणा करते हुए सर्वप्रथम श्रावकधर्म के प्राधारभूत कुमुदचन्द्रिका नाम की उपयोगी टीका भी है, जो मा. ८ मूलगुणो का निर्देश किया है३ । तत्पश्चात् वर्णभेद को प्रन्थमाला द्वारा मूलग्रन्थ के साथ प्रकाशित हो चकी है। लक्ष्य मे रखकर यथायोग्य पूजाविधान, दानविधि व उसका इसके अतिरिक्त ज्ञानदीपिका नामकी एक पजिकार भी फल, यतिपरम्परा के स्थिर रखने की प्रेरणा, विशेष उनके द्वारा रची गई है।
व्रतविधि और कीति-मर्जन; इत्यादि विषयो का विवेचन प्रस्तुत ग्रन्थ ८ अध्यायो मे विभक्त है। प्रथम अध्याय
किया गया है। पाक्षिक श्रावक देशचारित्र को पक्ष-. भूमिका स्वरूप है। उसमे प्रथमतः गृहस्थों की अवस्था
प्रतिज्ञा का विषय बना कर यथासम्भव उसके परिपालन का चित्रण करके सम्यक्त्व व मिथ्यात्व के प्रभाव को
का प्रयत्न करता है। प्रगट करते हुए सम्यग्दृष्टियो के विरल होने से भद्र
तृतीय अध्याय में नैष्ठिक-उक्त देशव्रत का निष्ठा मिथ्या धर्म में स्थित होकर भी समीचीन धर्म से द्वेष न
पूर्वक परिपालन करने वाले-श्रावक के भेदभूत दर्शनिक करने वाले-पुरुषों को भी उपदेश के योग्य बतलाया है।
आदि ग्यारह श्रावको में से प्रथम दर्शनिक की कतव्यनिर्मल सम्यक्त्व; निरतिचार अणुव्रत, गुणव्रत व शिक्षा
विधिका विचार किया गया है। उसमे न्यायोचित
माजीविका, अभक्ष्य भक्षण का त्याग, सात व्यसनों की १. यथा-प्रा. कुन्दकुन्द का चारित्रप्राभूत, उमास्वामी
विरति और पत्नी को धर्माधिष्ठित करना; इत्यादि की का तत्वार्थसुत्र (म०७), स्वामी समन्तभद्र का
चर्चा की गई है। उक्त दर्शनिक श्रावक के लक्षण में रत्नकरण्डक, प्रा. जिनसेन का महापुराण (पर्व ४०), . हरिभद्र सूरि की थावकप्रशप्ति, हेमचन्द्र सूरि का ३. इन मूलगुणो का निर्देश करते हुए प० पाशाधर ने योगशास्त्र, सोमदेव सूरि का उपासकाध्ययन, प्रा. मोमदेव सूरि का अनुसरण कर स्वमत से मद्य, मास, अमितगति का अमितगति-श्रावकाचार, अमृतचन्द्र मूरि मध और पाच उदुम्बर फलों के त्यागरूप पाठ का पुरुषार्थसिद्ध्युपाय मोर वमुनन्दी का वसुनन्दि- मूलगुणो को अपनाया है। साथ ही स्वामी समन्नश्रावकाचार मादि।
भद्र सम्मत पाच अणुव्रतों के साथ मद्य-मास-मधु के २. इसका उल्लेख उन्होंने भव्य-कुमुदचन्द्रिका टीका को त्याग को और जिनसेन स्वामी के मतानुसार उक्त प्रारम्भ करते हुए निम्न श्लोक में किया है
पाच उदुम्बर फलों के परित्याग के साथ मद्य, मांस समर्थनादि यन्नात्र व्यासभयात् क्वचित् ।
और द्यूतक्रीडा के परित्याग को पाठ मूलगुण कहा तज्ज्ञानदीपिकास्यतत्पञ्जिकायां विलोक्यताम् ॥ गया है। (देखिये श्लोक, २, २-३ व १८)