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________________ अब मै ऐमे मून पद्यो की टीका के कुछ नमूने और नमस्कारादि प्रोमित्य (त्येका) क्षरा मंत्र प्रहमिति दयदिखला देना चाहता है जिनपर विवरण नहीं है जिन्हे क्षगे मंत्र इत्यादि परिशदक्षरो नमस्कारादीनां स्मृति विवरण में 'स्पष्ट' कहकर छोड़ दिया है अथवा नाम कराताति पदस्थ । प्रातमादिकावयवध्यान करोतीति पदस्थ । प्रतिमादिकावयवध्यान करोतीति मात्र का साधारण विवरण है - रूपस्पं । रूपातीतं निरजनमिति । उपतापमसंप्राप्तः शीतवातातपादिभिः। पाविवो स्यावाग्नेयी मारुती वाणी तथा। पिपासुरमरीकारि योगामृतरसायनम:। तत्र (स्व) भूः पंचमी चेति पिणस्ये पाधारणाः। ॥ टीका-शीतवातातपादिभि. शीतश्च बातश्च पात टीका--पथिव्या भवा धारणा पारिवी । प्रथानन्तरपश्च शीतवातातपा ते पादौ येषा ते गीतवातातपादयः माग्नेमो प्रग्नो भवाग्नेयी। वायोर्भवा वायवी वरुणे भवा पादिशब्दात् दशमशक-तषारोगादयस्तरुपताप कष्ट वारुणी । तत्वभू तत्त्वे भवतीति तत्वभूरिति कपभूता सप्त. प्रसज्ञाप्नाऽवेदिता पिपासु पीतु मत्म पीनाभिलाषी प्रमग धानुहित निष्कलंक निर्मल चन्द्रबिम्बसदश उज्वलकाति इत्यादि अमरं करोतीत्यमराकानि । एवविध योगामत सर्वज्ञमदशमात्मान स्मरेदिति । बहुलतेजः पुजैश्च दलितरसायन योग एवामृतं योगामृत तदेव रसायन योगामृत- तमोभरं मिहामनाहट देवदानव गणधरगंधर्वसिदवारणरसायन अनन्तकालजीवितकर योगामन मापन पीतमूसक मनिप्रभृतिभि मेक्तिनरण अनेकातिशय शोभायमान इति भावः ॥३॥ विदलितकर्म महिम्ना निधान । रागादिभिरनाक्रान्त क्रोधादिभिरक्षिम । पानि शरीरे पुरुषाकारमात्मान स्मरेदित्येषा तत्त्वभूः प्रात्मारामं मनः कुर्वन्निर्लेपः सबंबस्नुष ॥७-४॥ पचमी धारणा झंया ॥६॥ विरत (क्तः) कामभोगेभ्य स्वशरीरेऽपि नि:म्पहः। टीका के इन नमुनो से विज्ञ पाठक टीका की प्रकृतिसवेगहवनिर्मग्नः (सवेबवनिमग्नः) सर्वत्र समता अपन् । स्थिति उमके महत्व एव उपयोग को भली प्रकार अनुभव में ला सकते है। इस प्रकार योगशास्त्र द्वितीय विभाग के टोका-योगी समता स्वर्ण-तण-भित्र-रत्न-दृषत्स्व. पाठो प्रकाशों के मैकडों पयो की ठीका को यह 'योगिरमा' पगदिष्वेकभावः समता श्रयेदाभजेत् । कथंभूत मन् रागा- टीका अपने मे प्राविर्भूत किये हुए है। और इसलिए इसकी दिभी राग-द्वप-मत्सरादिभिरनाक्रान्तो नाक्रान्तो न व्याप्त उपयोगिता कुछ कम मालूम नहीं होती। यह प्राचीन टीका इति । किविशिष्ट सर्वकर्ममुनिलेप मर्वव्यापारादिपु शीघ्र प्रकाश मे पाने के योग्य है। इससे योगशास्त्र के कर्मम् व्यतिरिक्त । कथभूतः ? कामभोगेभ्यः विरक्तो पाठान्तरो का भी कितना ही पता चलेगा और उससे विवक्त सन् स्वशरीरेऽपि नि:स्पृह. । अपि तु प्रात्मदेहेऽपि अनुसधान का विषय प्रशस्त बनेगा। स्पहाजितः। मवेदहनिमग्नः वेदै सह-सवेद तच्चहृन् इस टीका को कोई दुसरी प्रति अभी तक नहीं मिली। तस्मिन्नेव निमग्नः सवेदहृनिमग्न वेदा पंवेदादय वेद- हाल में जनसिद्धान्तभवन मारा, ऐल्लक पन्नालाल व्याप्तहदयेऽनिमग्न. । क्रोधादिभि. क्रोध-मान-माया-लोभा सरस्वती भवन व्यावर और महावीर भवन जयपुर आदि प्रादिशब्दात् प्रमादा अपि प्राह्मास्तरदूषित तेषां दोप- को खाम तौर से लिखकर तलाश कराई गई: परन्तु सब रहितमिति । एवंभूतं मनश्चित्त । पुन. कथभूत ? प्रान्मा- जगह से उनर नकारात्मक ही प्राप्त हुआ। दिगम्बर और राम मात्मन्यारमतीत्यात्माराम स्वरूपचिन्तनपर कुर्वन् । श्वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदायो के शास्त्र भण्डारों में इसकी सर्वत्र समभावमश्नीयादिति भाव ॥४,५॥ पौर प्रयत्न पूर्वक खोज होनी चाहिए। मुनि श्री पुण्यपिण्डस्थं च पदस्थ च रूपस्य रूपवजितम् । विजय जी को श्वेताम्बर शास्त्र भण्डारों का बहुत पता है, पातुर्षा ध्येयमाम्नातं ध्यानस्यालम्भनं वर्षः॥॥ उन्हे कृपया प्रकट करना चाहिए कि क्या उनके परिचय के (विवरण) पिण्ड शरीर तत्र तिष्ठतीति पिण्डस्थं प्यये। किसी भण्डार में यह टीका उपलब्ध है । जो सजन अपने ____टोका-पिण्डे शरीरे पार्थवप्रभतिकधारण करो- अनुसंधान के फल स्वरूप इस टीका की किसी दूसरी प्रति तीति । शरीरे यो (यद्) ध्यायेत् तपिंडस्पमिति ध्यान। का परिचय देगे वे मामार के पात्र होंगे। *
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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