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________________ अखिल भारतीय जैन शिक्षा-परिषद के सप्तम अधिवेशन में यशपाल जैन का अध्यक्षीय भाषण प्रिय बहनो और भाइयो, नगण्य है । शिक्षा-सस्थाए सम्भवत जैन इसलिए कही जाती अखिल भारतीय जैन शिक्षा परिषद के इस अधिवेशन है, क्योकि उनका प्रबन्ध जैन करते है। इन सस्थानो द्वारा के सभापति-पद पर आपने मुझे बिठाने का अनुग्रह किया, जैन-धर्म. सस्कृति अथवा तत्वज्ञान को कितना बल मिलता इसके लिए मैं पापका अत्यन्त आभारी हूं, लेकिन इस है, यह एक विचारणीय बात है । जहा तक मेरी जानकारी चनाव पर मैं आपको बधाई नही दे सकता । वस्तुत इस है, इन जैन शिक्षा-सस्थाओं में अध्यापक और छात्र स्थान पर आपको किसी शिक्षा-शास्त्री को प्रासीन करना अधिकतर जैनेतर है। फिर एक कठिनाई यह भी है कि चाहिए था, अथवा किसी ऐसे व्यक्ति को, जिसे शिक्षा के शिक्षा-सस्थानों पर संवैधानिक प्रतिबन्ध है । वर्तमान धर्मक्षेत्र का व्यावहारिक अनुभव होता । ऐसे महानुभावो की निरपेक्ष राज्य में आप किसी भी संस्था को धर्म की शिक्षा हमारे समाज में और देश में कमी नही थी । पर मै तो देने के लिए विवश नही कर सकते । यदि इन स्कूलो और अपने को इन योग्यताप्रो से शून्य पाता है। फिर भी आपने कालेजो में बहुसंख्या जैनो की हो, तो कुछ बाते विशेष रूप मुझे सम्मान प्रदान किया, इसे मैं आपका स्नेह तथा मौजन्य से चालू की जा सकती है, लेकिन मौजदा परिस्थितियो में मानता है और आप सबके प्रति बडे विनम्र भाव से अपनी कृतज्ञता अर्पित करता है। ____ मेरी निश्चित धारणा है कि धार्मिक शिक्षा को जब जिस संस्था के विशाल प्रागण में आज हम सब इकट्ठे तक अनिवार्य विषय के रूप में स्थान नही दिया जाता तब हुए है, वह मुझे पूज्य गणेशप्रशादजी वर्णी का स्मरण __ तक वह पूरी तरह फलदायक नही हो सकती । दिलाती है । वर्णीजी का समूचा जीवन त्याग-तपस्या का जीवन था। वह मानव-जाति के एक अमूल्य रत्न थे । मै बन्धुओ, जबसे हमारा देश स्वतन्त्र हुअा है, बहुतउनकी स्मृतिको अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता है। सी बड़ी-बड़ी योजनाए बनी है। उनमे से कछ कार्यान्वित मुझे इस बात का बहुत ही हर्ष है कि आप यहा भी हुई है, लेकिन सबसे अधिक उपेक्षा शिक्षा की हई है। विभिन्न जैन शिक्षा-सस्थाओं के गण्यमान्य प्रतिनिधि तथा विदेशी सत्ता ने शासनकाल में एक ऐसी शिक्षा-पद्धति चाल वो इतनी बड़ी संख्या में इकटठे हा है। मै अाशा की थी, जो देश की मौलिक प्रतिभा पर कुठाराघात करे करता हूं कि आप सब मिलकर शिक्षा-सम्न्धी वर्तमान और उसके शासन-तन्त्र में काम करने के लिए बाब लोगो समस्यानो पर विचार करेगे और ऐसा मार्ग निकालेगे, की जमात खडी कर दे । स्वराज्य के बाद बहुत-सी कमेटिया जिससे जैन-धर्म तथा जनदर्शन का अध्ययन अधिक-से- बैठी, कमीशन बने, लेकिन दुर्भाग्य से थोडे-बहुत परिवर्तन अधिक फलदायक हो और जैन शिक्षा संस्थाए पूरी उपयो- के साथ आज भी हम उसी पुरानी, देश-हित-विरोधी, शिक्षा गिता से काम कर सके। पद्धति से चिपके हुए है। ___ आज तो देखने में आता है कि जैन समाज द्वारा लाखो इसका दुष्परिणाम आज आप स्वय अपनी आखो मे । रुपये व्यय करके जिन संस्थानो का सचालन किया जा रहा देख रहे है । देश का नैतिक स्तर बराबर गिरता जा रहा है, उनमें से अधिकाश नाममात्र को जैन है । उनका पाठ्य- है और चरित्र एवं नैतिक आस्थाओं के अभाव में प्राज क्रम वही है, जो जैनेतर संस्थानो का है । कुछ मे जैन-धर्म सरस्वती के मन्दिर सत्तात्मक राजनीति के अखाड़े बन रहे तथा जैन-दर्शनकी शिक्षा की व्यवस्था है। पर उसकी सख्या हैं। छात्र-छात्राएं उनमें निष्ठापूर्वक अध्ययन न करके बात
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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