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________________ मात्म-विद्या मंत्रियों को देन १६५ देवतामों में जो क्षत्रिय, इन्द्र. वरुण, सोम, रुद्र, मेघ, यम, मोर उससे बोला-श्रीमान् ने मुझे शिक्षा दिये बिना ही मृत्यु और ईशान् मादि हैं, उन्हें उत्पन्न किया। अत: कह दिया था कि मैंने तुझे शिक्षा दे दी है। क्षत्रिय से उत्कृष्ट कोई नही है। इसी से राजसूय यज्ञ मे उस क्षत्रिय बन्धु ने मुझसे पांच प्रश्न पूछे थे, किन्तु ब्राह्मण नीचे बैठ कर क्षत्रिय की उपासना करता है, वह मैं उनमें से एक का भी विवेचन नहीं कर सका। उसने क्षत्रिय मे ही अपने यश को स्थापित करता है। कहा-तुमने उस समय (पाते ही) जैसे ये प्रश्न मुझे मुनाए है, उनमे से मैं एक को भी नही जानता। यदि मैं प्रात्म-विद्या के लिए ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रियों को उन्हे जानता तो तुम्हे क्यों नहीं बतलाता? उपासना तब वह गौतम राजा के स्थान पर पाया और उसने क्षत्रियों की श्रेष्ठता उनकी रचनात्मक शक्ति के अपनी जिज्ञासाएं राजा के सामने प्रस्तुत की। कारण नहीं, किन्तु प्रात्म-विद्या की उपलब्धि के कारण राजा ने उसे चिरकाल तक अपने पास रहने का थी । यह पाश्चर्य पूर्ण नहीं, किन्तु बहुत यथार्थ बात है अनुरोध किया और कहा-गौतम ! जिस प्रकार तुमने कि ब्राह्मणों को प्रात्म-विद्या क्षत्रियों से प्राप्त हुई है। मुझसे कहा है, पूर्वकाल मे तुमसे पहले यह विद्या ब्राह्मणों के पास नहीं गई। इसीसे सम्पूर्ण लोको मे क्षत्रियों का प्रारुणि का पुत्र श्वेतकेतु पंचालदेशीय लोगो की। ही (शिष्यों के प्रति) मनुशासन होता रहा है।। सभा मे पाया। प्रवाहण ने कहा--कुमार! क्या पिता ने तुझे शिक्षा दी है। बृहदारण्यक उपनिषद् में भी राजा प्रवाहरण प्रारुणि श्वेतकेतु-हां भगवन् ! से कहता है-इससे पूर्व यह विद्या (मध्यात्म विद्या) प्रवाहण-क्या तुझे मालूम है कि इस लोक से (जाने पर) किसी ब्राह्मणों के पास नही रही। वह मैं तुम्हें बता. प्रजा कहां जाती है ? ऊगा२। श्वेतकेतु-भगवन् ! नहीं। उपमन्यु का पुत्र प्राचीनकाल, पुलुष का पुत्र सत्ययज्ञ, प्रवाहण-क्या तू जानता है कि वह फिर इस लोक मे मल्लविके का पुत्र इन्द्रद्युम्न, शर्करक्षा का पुत्र ज कैसे पाती है ? अश्वतराश्व का पुत्र वुडिल-ये महा गृहस्थ और परम श्वेतकेतु-नहीं। भगवन् । श्रोत्रिय एकत्रित होकर परस्पर विचार करने लगे कि प्रवाहण-देवयान और पितयाण-इन दोनों मागों का हमारा प्रात्मा कोन है और हम क्या हैं ? एक दूसरे से विलग होने का स्थान तुझे मालूम है ? उसने निश्चय किया कि अरुण का पुत्र उद्दालक इस श्वेतकेतु-नहीं भगवन् ! समय इस वैश्वानर प्रात्मा को जानता है। प्रतः हम प्रवाहण-तुझे मालूम है, यह पितृलोक भरता क्यों नही उसके पास चलें। ऐसा निश्चय कर वे उसके पास पाए। उसने निश्चय किया कि ये परम श्रोत्रिय महागृहस्थ श्वेतकेतु-भगवन् ! नहीं। मुझमे प्रश्न करेगे, किन्तु मैं इन्हें पूरी तरह से बतला नहीं प्रवाहण-क्या तू जानता है कि पाचवीं पाहुति के हवन सकूगा । प्रतः मैं इन्हें दूसरा उपदेष्टा बतला दू। कर दिये जाने पर प्राप (सोमघृतादि रम) पुरुष उसने उनसे कहा-इस समय केकयकुमार पश्वपति सज्ञा को कैसे प्राप्त होते हैं ? इस वैश्वानर संज्ञक मात्मा को अच्छी तरह जानता है । श्वेतकेतु-भगवन् ! नहीं। 'तो फिर तु अपने को' मुझे शिक्षा दी गई है, ऐमा १. छान्दोग्योपनिषद् २३१-७,१०४७२-४७९ क्यों बोलता था? जो इन बातों को नहीं जानता २. बृहदारण्यकोपनिषद् ६१८वह अपने को शिक्षित कैसे कह सकता है? यथेय विदयेतः पूर्व न कस्मिश्चन ब्राह्मण उवास तां तब वह त्रस्त होकर अपने पिता के स्थान पर पाया त्वह तुभ्यं वक्ष्यामि।
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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