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अनेकान्त
सप्तति शतस्थान में बतलाया गया है कि जैन, शैव वेदोत्तर युग में प्रात्म-विद्या और उसके परिपार्श्व में और सांख्य-ये तीन धर्म-दर्शन भगवान् ऋषभ के तीर्थ विकसित होने वाले अहिंसा, मोक्ष प्रादि तत्त्व दोनो में प्रवृत्त हुए थे। इससे महाभारत के उक्त तत्थ्यांश का धाराओं के संगम स्थल हो गए। समर्थन होता है।
वैदिक साहित्य मे श्रमण-सस्कृति के प्रऔर श्रमणश्रीमद्भागवत मे लिखा है-भगवान ऋषभ के साहित्य मे वैदिक-सस्कृति के अनेक संगम-स्थल हैं। यहां कुशावर्त प्रादि नौ पुत्र नौ अधिपति बने, कवि आदि नौ हम मुख्यत: प्रात्म-विद्या और उसके परिपाश्च में हिसा पुत्र प्रात्म-विद्या-विशारद श्रमण बने और भरत को छोड़ की चर्चा करेंगे। कर शेष ८१ पुत्र महाश्रोत्रिय, यज्ञशील पोर कर्म-शुद्ध प्रात्म-विद्या और वेद । ब्राह्मण बने । उन्होंने कर्म-तंत्र का प्रणयन किया।
महाभारत का एक प्रसंग है-महर्षि बृहस्पति ने भगवान ऋषभ ने प्रात्म-तंत्र का प्रवर्तन किया और
प्रजापति मनु से पूछा-भगवन् ! जो इस जगत का उनके ८१ पुत्र कर्म-तंत्र के प्रवर्तक हुए। ये दोनों धाराएं
कारण है, जिसके लिए वैदिक कर्मों का अनुष्ठान किया लगभग एक साथ ही प्रवृत्त हई। यज्ञ का अर्थ यदि
जाता है, ब्राह्मण लोग जिसे ज्ञान का प्रन्तिम फल बतप्रात्म-यज्ञ किया जाए तो थोड़ी भेद रेखामों के साथ उक्त
लाते है तथा वेद के मत्र-वाक्यों द्वारा जिसका तत्त्व पूर्ण विवरण का सवादक प्रमाण जैन-साहित्य में भी मिलता
रूप से प्रकाश मे नही माता, उस नित्य वस्तु का प्राप २३ और यदि यज्ञ का अर्थ वेद-विहित यश किया जाए मेरे लिए यथार्थ वर्णन करें। तो यह कहना होगा कि भागवतकार ने ऋषभ के पुत्रों को यज्ञशील बता यज्ञ को जन-परम्परा से सम्बन्धित करने
श्रमण परम्परा और क्षत्रिय
श्रमण परम्परा में क्षत्रियों की प्रमुखता रही है और का प्रयत्न किया है। प्रात्म-विद्या भगवान् ऋषभ द्वारा परिवर्तित हुई।
वैदिक परम्परा में ब्राह्मणों को। भगवान् महावीर का
देवानन्द की कोख से त्रिसला क्षत्रियाणी की कोख में संक्र उनके पुत्रों-बातरशन श्रमणों-द्वारा वह परम्परा के रूप में प्रचलित रही । श्रमण और वैदिक धारा का सगम
मण किया गया, यह तथ्य श्रमण परम्परा सम्मत क्षत्रिय हमा तब प्रवृत्तिवादी वैदिक मार्य उससे प्रभावित नहीं
जाति की श्रेष्ठता का सूचक है। महात्मा बुद्ध ने कहा हुए । किन्तु श्रमण परम्परा के अनुयायो असुरों की पति
था-वाशिष्ठ ! ब्रह्मा सनत्कुमार ने भी गाथा कही हैमात्म-लीनता और प्रशोकभाव को देखा मोर भौतिक गोत्र लेकर चलने वाले जनों मे क्षत्रिय श्रेष्ठ हैं । समृद्धि की तुलना में पात्मिक समृद्धिको अधिक उन्नत जो विद्या और माचरण से युक्त है, वह देव मनुष्यों देखा तो वे उससे सहसा प्रभावित हुए बिना नहीं रह में श्रेष्ठ है । वाशिष्ठ ! यह गाथा ब्रह्मा सनत्कुमार ने सके।
ठीक ही कही है, बेठीक नहीं कही। सार्थक कही, मनर्थक एते योगविदो मुख्या: सांख्यज्ञानविशारदाः।
नहीं । इसका मैं भी अनुमोदन करता हूँ। प्राचार्या धर्मशास्त्रेणु मोक्षधर्मप्रवर्तकाः ।।
क्षत्रिय की उत्कृष्टता का उल्लेख बृहदारण्यकोपनिषद् सप्तति शतस्थान ३४०, ३४१
में भी मिलता है। वह इतिहास की उस भूमिका पर जहणं सहवं संखं, वेमंतिय नाहिमाण बुद्धाणं ।
प्रकित हुमा जान पड़ता है, जब क्षत्रिय और ब्राह्मण एक वइसे सियाण वि मयं, इमाइं सग दरिसणाई कम ॥
दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी हो रहे थे। वहा लिखा है-भारम्भ तिन्नि उसहस्स तित्थे, जायाई सीयलस्स ते दुन्नि ।
मे यह एक ब्रह्म ही था। अकेले होने के कारण वह दरिसण मेगं पासस्स, सत्तमं वीरतित्थंमि ।।
विभूति-युक्त कर्म करने में समर्थ नहीं हुमा । उसने २. श्रीमद्भागवत्, स्कन्ध ५, म० ४१६-१३
अतिशयता से क्षत्र इस प्रशस्त रूप की रचना की प्रर्थात ३. आवश्यक नियुक्ति, पृ० २३५,२३६
४. महाभारत, शान्तिपर्व, २०१४