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________________ १७४ अनेकान्त से पृथक हो जाता है दिन दिन पुनि विपरीत कुभिंग, जती वतीकरिव कुलिंग।' पाहन मै जैसे कनिक वही दूध में घीऊ। पहरे वसन भोगविधि चहै, तिन सो मुगद मुनीस्वर कहे ॥२६ काठ माहि जिमि प्रगिनि है त्यो सरीर में जीऊ ॥२५॥ धर्म पंचविशतितेल तिलो के मध्य है पर गट नहीं दिखाय । जतन जगत से भिन्नता खरो तेल हो जाय ॥२६ सांसारिक दशा का वर्णन करते हुए श्रावक के लिए समस्त भ्रमजाल छोड़कर धर्म धारण करने की सलाह दी गई जीवचत दादि वतीसो है-तजहु सकल भ्रम जाल रे भाई, तू इह धर्म विचार । जीव के चार भेद है-सत्ता, भूत, प्राण और जीव। उसे जैन रसायन पीने को कहा गया है। अनेक उदाहरण सत्ता के चार भेद है-पृथ्वी, जल, पावक और पवन । देकर धर्म की उपयोगिता बताईवनस्पति के जीव को भूत की श्रेणि मे गिनाया है। ज्यों निस ससि विनऊ नहै जी। नारि पुरुष विन ते न विकलत्रों को प्रानवान् कहा है तथा पचेन्द्रियवान् को जैसे गज दन्त बिना जी ।। धर्म विना नर जे मरे भाई॥११ जाव की सजा दी है। जैसे फूल विवासु को जी जल विन सरवर जेह। इसके बाद किस जीव का घात करने से कितना जैसे ग्रह संपति विना जी धर्म विना नर देह रे भाई ॥१३ पाप लगता है यह बताया है। प्रसंख्यात सत्ता का घात करने पर एक भूत के वध के बराबर, असंख्यात वृक्षों का का पंचपद पच्चीसी पच विनाश करने पर दो इन्द्रिय जीव के वध के बराबर, कवि ने पच परमेष्ठी की भक्ति वशात् २५ कवित्त एक लाख दो इन्द्रिय जीवो का वध करने पर तीन इन्द्रिय लिखे है जो भाव और भाषा दोनों की दृष्टि से सुन्दर जार के वध बराबर, हजार तीन इन्द्रिय जीव के घात बन पड़े हैंकरन पर एक चतुरिन्द्रिय जीव के वध बराबर, सौ चतु- उदधि जान गंभीर मोह मद विषय विहंडित । रिन्द्रिय जीवो का वध करने पर एक पचेन्द्रिय जीव के हारक सम गन विमल सुद्ध जिय प्रखय मखडित ॥ वध बराबर और एक पचेन्द्रिय जीव के वध की समानता । केवल पर परगास भयो भववीर विभंजन। सुदर्शन मेरु से दी है सकल तत्व वक्तव्य देव धुव परम निरंजन ।। हेम सुदर्शन मेर समान घर पुन कोट रतन परधान । मति हि वोष परगट प्रवध हरन तिमिर जन मन मरन। ऐसी दर्व करें जो पुन्न एक जीव घातत् सब सुन्न । चाहत सुख जिनदेव युति बहु प्रकार मंगल करन ॥५॥ इसके बाद पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु कायिक दसधा सम्यक्त्व त्रयोदशीजोवी की तथा विकलत्रयो की स्थिति और प्रायु का इसमे सम्यक्त्व का दस प्रकार से भिन्न-भिन्न छन्दों मांगोपाग विवेचन दिया है । तदनन्तर स्वयम्भूरमण मच्छ, में वर्णन किया गया है। छन्दो में प्रमुख हैं-छप्पय, लिग, नारकी, निगोद आदि जीवो का ध्याख्यान किया सोरठा, गीतिका, तेईसा, अडिल्ल, कवित्त प्रादि सम्यक्त्व है। अन्त में यह कह दिया है-"जीव दरव की कथा के दस प्रकार ये हैंपनन्न । जाको कहत न मावे अन्त" ॥३१॥ प्राज्ञा प्रथम सुभाव द्वितीय मारग सुख वायक । जिनातराउली ततीय नाम उपदेस सूत्र चौथो बुध लायक ॥ __ इसमें चौबीस तीर्थकरों के बीच हुए अन्तराल का वीर्यमा पंचमौ षष्ठ सक्षेप भनिज्जह । वर्णन किया गया है। उसके बाद हुई मुनि परम्परा और सप्तम विधि विस्तार अर्थ अष्टम गुन लिज्जा। पचम तथा षष्ठम काल के विषय में भी व्याख्यान है। परमावगाढ नवमौ कथन पर प्रवगाढ विचारचित । मुनियों में उत्पन्न हुई प्राचार शिथिलता के विषय में इह भिन्न-भिन्न दस भांति कहि कहा है समकित निज हित सुनहु मित ॥२॥
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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