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________________ कवि देवीदास का परमानन्द विलास किया है। कवि ने प्रस्तुत ग्रन्थ में चौपाई, छप्पय, सोरठा, नही पढया मोहिम सुमति सो निज पोरी। गीतिका, तेईसा, अडिल्ल, कवित्त, सवैया, तोटक, कुण्ड- भाषा करि इतनी पुजी सुकम-क्रम करि जोरी॥ लिया, चर्चगे, मरहठा, पद्धरी, नराच, गगोदक आदि ताप भयो न मै निवान करि मति माहित । उन्दो का उपयोग किया है। साथ ही चित्रबन्ध, चक्रबन्ध, मति विसेष वारी इहा न कोई पुनि पंडित ॥ ॥ कमलबन्ध, धनकबन्ध, कडारबन्ध प्रादि का भी प्रयोग हिये मझार सुमति नही वैरी को वस वास। किया है। भाषा अलंकारिक और मिष्ट है। यह कवि माफिक अपनी सवित कवि वरन देवीदास ॥ की विनम्रता है कि वह अपने को मतिमन्द और छन्दअर्थ ज्ञानहीन बतलाता है परमानन्दविलास का विषय ग्रन्थ उक्त देखी प्रगट कहि भाषी जिहि ठौर । परमानन्द विलास के कवि ने ग्रन्थ में लगभग २८ कान मात पद प्ररथ घट घर लोजो बुष और ॥ विषयों पर कवित्त लिग्वे हैं । मर्व प्रथम परमानन्द स्तोत्र ग्रन्थ प्ररथ छवि हन्द को मरति कला न पास । लिखा है। और उमके बाद है जीव चतुर्भेदादि वत्तीसी, संली दिन मंली भई गति मति देवियदास ॥ जिनातगउली, धर्म पंचविशती काय, पचपदपच्चीसी, तीन मूढ़ अडतीमी-३८ दमधा सम्यक्त्व त्रयोदमी, पुकारपच्चीमी, वीतरागपच्चीसी, दरसनछत्तीसी, बुद्धिबाउनी, नीन मूढ भारतीसी, देवशास्त्र परमानन्द विलास के अन्त में भी कवि ने यहा गरुपजा.सीलाग चनदमी, सप्तविमन, विवेक वनीसी, विनम्रता अभिव्यक्त की है। यथार्थ वस्तु जानने की अभि.. म्वायोग गछगे मालोचभावांतरावनी, पचवग्न के लापा से ही इस ग्रन्थ की उन्होने रचना की है। गुरु की कविन, योग पनीमी, तुवकमरी व्यवहार कथन उपदेश, बिना सहायता से जो कुछ भी ज्ञान क्रम-ऋम से प्राप्त द्वादम बावनी, उपदेश पच्चीगी, जिन स्तुति द्वार हर किया जा सका, कवि ने ग्रन्थो के रूप में जन समक्ष दौर की. हित उपदेशकी जवगे, मीतलाष्टक, सरधानप्रस्तुत किया है। साथ ही अपने पापको अल्पज्ञ कहकर पच्चीसी, कषायावलोकन चोबीमी, पचमकाल की विपरीत ग्रन्थ के अन्त मे कविने विधिहीन कथन को मुधार कर गैति । इन सभी पर पृथक-पृथक विवेचन इस अल्पकाय पढ़ने के लिए भी निवेदन किया है। निबन्ध में सम्भव नही। इसलिए कुछ मुख्य विषयो की पोथी जिन तनको विषं लिखी तारता सोई। और हम चले। भाषा छन्द मझार वा घरी वनिका कोई ।। परमानन्द स्तोत्रघरी वचनका कोई करी जाकी हम भाषा। इममे कवि ने प्रात्मा-परमात्मा के विषय में बई ही मोहि जथारय वस्तु जानवे को अभिलाषा ।। मुलझे, न ग से अपने विचार प्रस्तुत किये है। प्रात्मा का गाथा पर असलोक समझिवे को मति थोथी। निश्चय नय और व्यवहार नय दोनों नयो के आधार पर भाषा की भाषा बनाइ इह लिखी मुहम पोयो॥॥ विवेचन किया है। प्रान्मा के विविध कंपों का वर्णन मानंदकारी बात है भाषा ग्रन्थ मझार । करने के बाद कह दिया है अर्थ कर सुन चाहिए समझे सब संसार । भिन्न भिन्न को कहि मकं ब्रह्म रूप गन भाम । समझ सब ससार लिखो देखी हम तंसी। अल्प बुद्धि कर अल्प गन वरन देवीदास ॥॥ विन गुर मुख सर वही कही भाषा करि जमी।। देह और प्रात्मा के बीच जो सम्बन्ध है उसे उन्होने गैर विधि जहं होइ सोधि लीजो बुधवारी। मुन्दर उदाहरण देते हुए समझाया है। दूध अथवा दही परमानन्द विसास यह सु प्रति प्रानंदकारी ॥२॥ मे धो और काष्ठ में अग्नि रहती है उमी प्रकार शरीर में पंडित विना सु कौन पे पढे पढया होहि । प्रात्मा रहता है। ये दोनों उमी प्रकार परस्पर भिन्न-भिन्न मिलो यहाँ अवलोक हू नहीं पढ़या मोहि ।। भी हो जाते हैं जैसे तिली के मध्य रहने वाला तेल, तिल
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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