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________________ कवि देवीदास का परमानन्द विलास डा० भागचन्द जैन एम. ए. पी-एच. डो. श्री दि० जैन परिवार मन्दिर, इतवारा, नागपुर के रह कर ही शायद वर्तमान चौबीसी विधान पूजा ग्रन्थ हस्तलिखित ग्रन्थों का अवलोकन करते समय कवि देवी- रचा गया है । इसका रचना काल सं० १८२१ है । शायद दास द्वारा रचित कुछ ग्रन्थों के देखने का अवसर मिला। यह प्रतिम रचना हो। कवि की एक रचना प्रवचनसार उनमें परमानन्द विलास, पदपकत और वर्तमान चौबीसी का पद्यानुवाद भी है कवि का वश गोलालारे और गोत्र विधान पूजा मुख्य है। प्रथम दो ग्रन्थ एक साथ लिखे कासिल्ल (कोशिल) था। इनके पुत्र का नाम गोपाल गये है और अन्तिम ग्रन्थ पृथक है जिसकी अनेक प्रतियां था। वह भी कवित्त कला का धनी कहा गया है। उपलब्ध है। परमानन्द विलास की प्रति ७४१५ इञ्च कवि ने. लगता है, किमी स्कल में शिक्षा नहीं प्राप्त है। पत्र मस्या ४८ है | इञ्च का चारो तरफ हासिया की। यह बात उन्होने परमानन्द विलास में अनेक बार छूटा हुआ है। लिपिकार ने उसका उपयोग जहा कही ग जहा कहा दुहगयो है । शायद लघुता प्रदर्शन के निमित्त उक्त पद्य गयी प्रशद्धि होने पर पाठ को शुद्ध करने के लिए किया है। में कमलापति का नाम अवश्य दिया है-कमलापति सीख प्रत्येक पत्र के पृष्ठ पर ११ पक्तिया है और प्रत्येक पक्ति मिखावन वारं । राभव है वे ग्रन्थ समाज में प्रेरक बने में प्राय: ४५ अक्षर है। सर्वत्र काली स्याही का उपयोग हो। प्रागे भी उन्होंने गरु के रूप मे किगीका नामाकिया गया है। परन्तु शीर्षक, छन्द नाम और पद्य मख्या लेख नही किया है-- लिखते समय लिपिकार ने लाल स्याही का भी उपयोग भाषा विमतिमा भाषा कवि मतिमन्द अति होत महा असमर्थ । किया है । अक्षर सुपाच्य है। कागज भी अच्छा है। बुद्धिवत धरि लीजियो जहं अनर्थ करि अर्थ ।। स्थितिकाल और जीवनदर्शन। गुरु मुख ग्रन्थ सुन्यौ नही मन्यौ जथावत जास । कवि ने परमानन्द विलास मे कोई ऐसी प्रशस्ति नही निरविकलप समझाइनो निज पर देवीदास ॥ दी है जिसके माधार पर उनका स्थितिकाल और अवसान देवीदास ने अनेक छन्दों मे जैनधर्म के प्रति अत्यधिक काल निश्चित रूप से जाना जा सके । अन्य के मध्य मे अनुराग, वात्सल्य और दृढ़ता प्रदर्शित की है। परमार्थ बुद्धि-बावनी के अन्त्य पद्य में यह अवश्य निर्देश मिलता पथ को जान लेने के बाद ही प्रस्तुन ग्रन्थ की रचना की है कि प्रस्तुत ग्रन्थ स. १८१२ मे चैत्र वदी परमा (एवम्) गई हैगुरुवार को समाप्त हुआ। कवि दुगोडा ग्राम के निवासी प्रादि जिनेश्वर प्रादि अन्त महावीर बखानी। थे जो औरछा स्टेट मे था। के मूल निवासी रहे है- जिनको जग चरनारविंद नित प्रति उर प्रानौ ॥ संवत् साल अठारह से पुन द्वादस और घरो अधिकारे। परगट समदरसन सुपंथ निजकर सुखकारन । चंत्रवदी परमा गुरुवार कवित्त सर्व इकठ करि धारे॥ ज्ञानावरणादिक सुग्र दुरबन्ध निवारन । गंगह रूप गपाल कहै कमलापति सीख सिखावन वारे। तसु पढ़त सुनत प्रहलाद प्रदि परमारथ पथ को विक्ति । कैलगा पुनि प्राम दुगोडह के सब ही बस वासन हारे॥ समझे सुसंत गुनवंत अति भाषा करि बनो कवित्त ।। वर्तमान चौबीसी विधानपूजा में दी गई प्रशस्ति के कवि ने भले ही स्कूली शिक्षा प्राप्त न की हो, परन्तु अनुसार भी ये दुगोड़ह-कलगा के ही मूल निवासी रहे वह निश्चित रूप से एक विद्वान कवि रहा है। और है। बाद में ये कलगुवा मे पाकर बसे । ललितपुर में उसने जैन शास्त्रों का अभ्यास निःसन्देह गभीरतापूर्वक
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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