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________________ १६६ अनेकान्त के सिंहों के प्राधार पर उन्हे भगवान महावीर घोषित द्रोणीमति प्रबल कुण्डल मेढ़के च किया। वैभार पर्वत तले वर सिद्धकूटे चूकि कुण्डलपुर भगवान महावीर का जन्मस्थान ऋष्याद्रिके च विपुलाद्रि बलाह के च प्रसिद्ध है । और यह स्थान कुण्डलपुर कहलाता है फलतः विध्ये च पोवनपुरे वृषदीपके च ॥६॥ इस साम्य के कारण भी उनका ध्यान भगवान श्री महा -संस्कृत निर्वाण भक्ति वीर की ओर गया हो और इन्हे भगवान महावीर मान निर्वाण भक्ति में इसके पूर्व के श्लोको मे तीर्थकरों की लिया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। निर्वाण भूमियो के नाम देकर ८वे श्लोक के पूर्व उत्थानिका दूसरा लेख श्री पं० दरबारीलाल जी कोठिया न्याया भी है जो इस प्रकार हैचार्य का था। उन्होंने अपने लेख मे प्रतिपादित किया इदानी तीर्थकरेग्योऽन्येषां निर्वाणभूमिम् स्तोतु माहथा कि कुण्डलगिरि स्थान यह नहीं है जो दमोह (म०प्र०) अर्थात् तीर्थंकरों के बाद अन्य केवलियों की निर्वाणभूमि के पास है। बल्कि राजगह की पंचपहाडियो मे किसी की स्तुति करते है। आठवें श्लोक मे शत्रुजय-तुगीगिरिपहाडी का नाम कपडलगिया। और वही सिट स्थान का नामोल्लेख है। तदनन्तर इस श्लोक का अर्थ होता है। श्री श्रीधर केवली का हो सकता है। प्रमाण स्वरूप उन्होने द्रोणीमिति (द्रोणगिरि) प्रबलकुण्डल, प्रबलमेढ़क ये पूज्यपाद स्वामी, जो पांचवी या छठवी शताब्दी के विद्वान दोनों, वैभार पर्वत का तलभाग, सिद्धकूट, ऋष्याद्रिक, प्राचार्य हैं, उनकी दशभक्ति का दिया था। उसमे निर्वाण विपुलाद्रि, बलाहक, विध्य, पोदनपुर वृषदीपक । भक्ति में पंचपहाडियों के साथ कुण्डल शब्द पड़ा है । इसके बाद दसवे इलोक में---सह्याचल, हिमवत्, कोठिया जी के निर्णय से हम सहमत नही हो सके और लम्बायमान गजपथ प्रादि पवित्र पृथिवियो मे जो साधुजन आज भी सहमत नहीं है इसके कारण निम्न प्रकार है। कर्म नाश कर मुक्ति पधारे वे स्थान जगत् में प्रसिद्ध हुए। आगे के श्लोको मे इन स्थानो की पवित्रता का वर्णन कर (१) दशभक्ति मे जो निर्वाण भक्ति का प्रकरण है स्तुति की है। उसमें निर्वाण क्षेत्रो के नामो की गणना है। उसमे केवल प्रस्तुत प्रसंग में कुण्डल शब्द पर विचार है । टीका पच पहाड़ियो के नाम है बल्कि ऋप्याद्रि-मेढ़ क-कुण्डल मे कुण्डल और मेढ़क को "प्रबल कुण्डले प्रवल मेढ़के च" द्रोणीमति-विध्य-पोदनपुर आदि अनेक निर्वाण भूमियो के ऐसा लिखा गया है जिसका अर्थ स्वतन्त्रता से श्रेष्ठ कुण्डलनाम है । इनमे पच पहाड़ियो मे सभी के नाम नही है। गिरि और श्रेष्ठ मेढगिरि होता है। पांच पहाडियो मे केवल उनके नाम है जो सिद्धि स्थान है। वे है वैभार केवल ३ नाम आए हैं। ऋष्याद्रिक इसे टीकाकार ने विपुलाचल-ऋष्याद्रिक । कुण्डल शब्द के साथ मेढ़क शब्द श्रमणगिरि लिखा है। यह कोई सही तर्क न होगा कि ४ उसके पूर्व पड़ा है और उसके बाद भी पचपहाड़ियो मे पहाड़ियो के नाम उसमें है तो एक नाम शेष मे से हम . उसका नाम है। इससे सिद्ध है कि जिस प्रकार मेढ़क । मक पाचवी पहाडी को मान ले । पाच पहाड़ियो के नाममेढगिरि के लिए अलग से आया है इसी प्रकार कुण्डल (१) रत्नागिरि (ऋषिगिरि (२) वैभारगिरि (३) विपुशब्द कुण्डलगिरि के लिए अलग से आया है फलत: मेढ़गिरि की तरह कुण्डलगिरि स्वतन्त्र निर्वाणभूमि है। लाचल (४) बलाहक (५) पाण्डु ये पाच है। बौद्ध प्रथो में पांच पहाडियो के नाम इस प्रकार है-(१) वेपुल्स अन्यथा निर्वाण भूमि मे उसका उल्लेख न पाया जाता । निर्वाण भूमियो में उसका नाम पाना उस स्थान को सिद्ध (२) वेभार (छिन्न) (श्रमणगिरि) (३) पाण्डव (४) भूमि मानने के लिए पर्याप्त प्रमाण है । इसगिलि (उदयगिरि) (ऋषिगिरि) और (५) गिज्झश्लोक निम्न प्रकार है कूट । घवला टीका मे इनके नाम है (१) ऋषिगिरि (२) वैभार (३) विपुलगिरि (४) छिन्न (बलाहक) १. अनेकान्त वर्ष ८ पृ० ११५ (५) पाण्डु । उक्त तीनों नामावली से सिद्ध है कि
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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