SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महान सन्त भट्टारक विजयकोति य-नलिन हिमांशानभूषस्य पट्टे, मिल गया था। उस समय भट्टारक ज्ञानभूषण जीवित थे विविध पर विवादि माषरे वनपातः ॥२२॥ क्योकि उन्होने मंवत् १५६० मे तत्त्वज्ञान तरगिणी को -श्रेणिक चरित्र । रचना समाप्त की थी विजयकीति ने सभवतः स्वय ने भ. देवेन्द्रकीति एव लक्ष्मीचन्द चादवाड ने भी कोई कृति नही लिखी। वे केवल अपने विहार एवं अपनी कृतियों में विजयकीति का निम्न शब्दों में उल्लेख प्रवचन में ही मार्ग दर्शन देते रहे। प्रचारक की दृष्टि से किया है। उनका काफी ऊंचा स्थान बन गया था और बहुत से विजयकीर्ति तस पटधारी, पगल्या पूरण मुखकार रे। राजामो द्वारा भी सम्मानित होते थे। वे शास्त्रार्थ एवं -प्रद्युम्न प्रबन्ध । वाद विवाद भी करते थे और अपने अकाट्य तको से तिन पट विजयकीर्ति जैवंत, गुरू प्रन्यमती परवत समान। प्रपने विरोधियो मे अच्छी टक्कर लेते थे। जब वे बहस --श्रणिक चरित्र करने तो श्रोतागण मत्र मुग्ध हो जाते और उनकी तको सांस्कृतिक सेवा को सुनकर उनके ज्ञान की प्रशंसा किया करते। भ० शुभविजयकीति का समाज पर जबरदस्त प्रभाव होने के चन्द्र ने अपने एक गीत में इनके शास्त्रार्थ का निम्न प्रकार कारण समाज को गतिविधियों में उनका प्रमुख हाथ वर्णन किया। रहता था। इनके भट्टारक काल में कितनी ही प्रतिष्ठाएं वादीय वाद विटंब वादि मिगाल मद गंजन । हुई। मन्दिरो का निर्माण एवं जीर्णोद्धार किये गये। वादीय कुंद कुदाल वादि श्रावय मन रजन। इनके अतिरिक्त सांस्कृतिक कार्यक्रमों के सम्पादन मे भी वादि तिमिर हर मूरि, वादि नीर सह सुधाकर । इनका विशेष उल्लेखनीय योगदान रहा । मर्वप्रथम इन्होंने वादि विट बन वीर वादि निगाण गुण सागर । सवत् १५५७-१५६० और उसके पश्चात् मवत् १५६१, वादोन विवध सरसति गछि मूलसंधि दिगंबर रह । १५६४, १५६८,१५७० प्रादि सवतो मे सम्पन्न होने कहि ज्ञानभषण सो पदिश्रीविजयकीति जागी यतिवरह ॥५ वाली प्रतिष्ठानों में भाग लिया और जनता को मार्गदशन इनके चरित्र ज्ञान एव सयम के सम्बन्ध मे इनके शिष्य दिया । इन सवतो में प्रतिष्ठित मूर्तियां डूंगरपुर, उदयपुर शुभचन्द्र ने कितने ही पद्य लिखे है उनमें से कुछ का रसाप्रादि नगरों के मन्दिरों में मिलती है। सवत् १५६१ मे स्वादन कीजिए--- इन्होंने सम्यग्दर्शन सम्यज्ञान एवं सम्यकचारित्र की। सुरनर खग वर चारूच चित चरणद्वय । महत्ता को प्रतिष्ठापित करने के लिए रत्नत्रय की मूर्ति समयसार का सार हंस भर चितित चिन्मय । को प्रतिष्ठापित किया। वक्ष पक्ष शुभ मुक्ष लक्ष्य लक्षण पतिनायक । स्वर्णकाल : विजयकीति के जीवन का स्वर्ण काल ज्ञान दान जिनगान प्रय चातक जलदायक । मबत् १५५२ से १५० तक का माना जा सकता है। कमनीय मति सुन्दर सुकर धर्म शर्म कल्याण कर । इन १८ वर्षों में इन्होंने देश को एक नयी सास्कृतिक जय विजयकोर्ति सूरीश वर श्री श्री बद्धन सौख्य वर ॥७ चेतना दी तथा अपने त्याग एवं तपस्वी जीवन से देश को विशद विसंबद वादि वरन कुंड गद भेषज । आगे बढाया । सवत् १५५७ मे इन्हे भट्टारक पद अवश्य दुर्नय बनद समीर वीर वंदित पद पंकज । १. भट्टारक सम्प्रदाय ०१४४ पुन्य पयोषि सुचंद्र चा चामोकर सुन्दर।। २. यः पूज्यो नृपमल्लिभैरवमहादेवेन्द्र मुख्य पः। स्फति कोर्ति विख्यात सुमूर्ति सोभित सुभ संकर । षटतांगमशास्त्रकोविदमतिर्जाग्रतयशश्चंद्रमाः ।। समार सर्प बह बप्प हर नागरमनि चारित्र पर । भव्यांभोरुहभास्कर: शुभकर: संसारविच्छेदकः । श्री विजयकोर्सि सूरीय जयवर श्रीवर्धन पंकहर ॥८॥ सोव्याच्छी विजयादिकीति मुनिपो भट्टारकाधीश्वरः। इस प्रकार विजयकीति अपने समय के महान् सन्त थे वही पृ० १४४ जिनके विषय मे प्रभी पर्याप्त खोज होना बाकी है।
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy