SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त भ. शुभचन्द्र ने इनकी मुन्दरता एव मयम का एक कामदेव की सेना प्रापस में मिल गई। बाजे बजने रूपक गीतमें बहुत ही सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया है। रूपक लगे। कितने ही मनुष्य नाचने लगे। धनुष-बाण चलने गोत का सक्षिप्त निम्न प्रकार है। लगे और भीषण नाद होने लगा। विषम नाद किये गये। मिथ्यात्व तो देखते ही डर गया और कहने लगा कि इस कामनानो पर विजय का पता चला तो वह ईर्ष्या से जल मन्न ने नो मिथ्यात्व रूपी महान विकार को पहिले ही भन गया और क्रोधित होकर मन्त के मयम को डिगाने धो डाला है। इसके पश्चात कमति की बारी प्राया का निश्चय किया। लेकिन उसे थी कार्य मे सफलता नहीं मिली। मोह की नाद एक वैरि वरिंग रंगि कोई नावीयो। मेना भी शीघ्र ही भाग गई अन्त मे स्वय कामदेव ने उस मल सधि पट्ट बंध विविह भावि भावीयो। पर आक्रमण किया। इसका वर्णन पढ़िएतसह भेरी ढोल नाद वाद तेह उपानो। महा मयण महीयर चडीयो जयवर कम्मह परिकर साथि कियो भणि मार तेह नारि कवण प्राज नोपन्नो। मत्सर मद माया व्यसन निकाया पाखंड राया साथि लियो। कामदेव ने तत्काल देवांगनानो को बुलाया और उधर विजयकोति ध्यान मे तल्लीन थे। उन्होने शम, विजयकीति के मंयम को नष्ट करने की प्राज्ञा दी लेकिन दम एव यम के द्वारा एक भी नहीं चलने दो जिससे जब देवागनामों ने विजयकोनि के बारे में मुना तो उन्हे मदन राज को उसी क्षण वहा से भागना पड़ा। अत्यधिक दुख हुमा और मन्त के पाम जाने मे कष्ट अनु- झंटा झंट करीय तिहां लग्गा, मयणराय तिहां ततक्षण भग्गा भव करने लगी। इस पर कामदेव ने उन्हे निम्न शब्दों से प्रागति घो मयणाधिय नासइ, उन्माहित किया। ज्ञान खडग मुनि प्रतिहि प्रकास ॥२७ वयण सुनि नव कामिणी दुख धारिइ महत । इस प्रकार हम गीत में शुभचन्द्र ने विजयकीति के कही विमासण मझहवी नवि वारयो रहि कंत ॥१॥ चरित्र की निर्मलता ध्यान की गहनता एव ज्ञान की महत्ता रे रे कामणि म करि तु दुखह । पर अच्छा प्रकाश डाला है। इस गीत से उनके महान इंद्र नरेन्द्र मगाच्या भिखह । व्यक्तित्व की झलक मिलती है। हरि हर बभमि कीया रंकह। विजयकीति के महान् व्यक्तित्व को सभी परवर्ती लोय सव्व मम वसीहुँ निसंकह ॥१४॥ कवियो एव भट्टारको ने प्रशसा की है। ब्र० कामराज ने इसके पश्चात् क्रोध मान मद एव मिथ्यान्व की मेना उन्हे सुप्रचारक के रूप मे स्मरण किया है१ । भ० सकलखडी की गई। चारो ओर वसन्त ऋतु करदी गई जिसमे भूषण ने यशस्वी, महामना, मोक्षसुखाभिलाषी, आदि कोयल वह-कुह करने लगी और भ्रमर गुजाने लगे। भेरी विशेषतायो से उनकी कोति का बखान किया है। शुभबजने लगी। इन मब ने मन्न विजयकीति के चारो ओर चन्द्र तो उनके प्रधान शिष्य तो थे ही इसलिए उन्होने जो माया जाल बिछाया उमका वणन कवि के शब्दो मे अपनी प्रायः सभी कृतियो में उनका उल्लेख किया है। पढिए-- श्रेणिक चरित्र में यतिराज, पुण्यमूति प्रादि विशेषणों से बोलत खेलंत चालत धावत धूणत । अपनी श्रद्धाजलि अर्पित की है।। धूजत हाक्कत पूरत मोडत । जयति विजयकोति पुण्यमूर्तिः सुकीर्तिः तुदंत भंजंत खंजत मुक्कत मारत रगेण । ____जयतु च यतिराजो झूमिपः स्पृष्टपादः । फाउंत जाणंत घालंत फेडत खग्गेण । जाणीय मार गमणं रमणं य तीसो। १. विजयकीतियोऽभवत् भट्टारकपदेशिनः ।।७।। -जयकुमार पुराण बोल्याबइ निज वलं सकलं सुषोसो। २. भद्रारक श्रीविजयादिकीतिस्तदीयपटे वरलब्धकीत्तिः । सन्नाह बाहुबहु टोर तुषार बंती। महामना मोक्षसुखाभिलाषी बभूव जनावनियाच्यंपादः।। रायं गणंयता गयो बहु युद्ध कंती ॥१८॥ -उपदेश रत्नमाला
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy