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________________ २४० अनेकान्त लेखक पं० दरबारी लाल जी न्यायाचार्य प्रकाशक दरबारी ३. राजस्थान के जैन सन्त व्यक्तित्व एवं कृतित्वलाल जैन कोठिया मत्री, वीरसेवा मदिर-ट्रप्ट, २१ दरिया लेखक डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल, प्रकाशक गैदी लाल गंज, दिल्ली ६ । मूल्य १-२५ पैसा । साह एडवोकेट, मत्री श्री दि० जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहा वीर जी जयपुर । पृ. संख्या ३००, सजिल्द प्रति का मूल्य प्रस्तुत ग्रंथ विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी के ३) रुपया। तार्किकशिरोमणी अचार्य समन्तभद्र की महत्वपूर्ण दार्श प्रस्तुत पुस्तक में राजस्थान मे ५४ जैन सन्तों और निक कृति है। इसमे अनेकांत मत की स्थापना करते हुए उनकी कृतियो का परिचय कराया गया है। जैन सन्तो के उनकी द्वैतकान्त अद्वैतकान्त, क्षणिकैकान्त, भेदकान्त, अभेदकान्त परिचय में जैनियो का कोई ग्रथ अभी तक प्रकाशित नहीं नित्यकान्त, पौरूषकान्त और देवकान्त आदि एकान्तों की हुआ था । डा. कस्तूरचन्द जी कासलीवाल ने इस कमी ममीक्षा की है। स्याद्वाद और सप्तभगी को समझाने की को महसूस किया और उसकी पूर्ति निमित्त इस पुस्तक का यह एक कुंजी है। ११४ कारिकाओं में वस्तु तत्त्व की निर्माण किया है। प्राशा ही नहीं किन्तु विश्वास है कि गहन चर्चा को गागर में सागर के समान समाविष्ट किया इससे उसकी आशिक पूति हो जाती है। परिशिष्टो मे मूल गया है। इसके अनुवादक जैन समाज के च्यात नाम रचनाए देकर पूस्तक की महत्ता को बढ़ा दिया है। ऐतिहासिक विद्वान पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार है। प्रस्तुत कृति में भारतीय जैन सन्तो मे से राजस्थान प्रस्तत का जिन्होंने ग्रंथ की गम्भीर करिकाओं का ग्रा० विद्यानन्द का के १४५० से १७५० तक के ५४ सन्तों का उनकी रचप्रष्ट सहस्री का सहारा लेकर हिन्दी मे सुन्दर पार सरल नायो महित परिचय दिया गया है। उसमे कुछ ऐसे अनुवाद किया है । अनुवाद मूलानुगामी है । मुख्तार सा० विद्वानो का भी परिचय निहित है जो स्वय सन्त तो नही की लेखन शैली परिकृत है कि जब वे किसी प्रथ का कहलाते थे परन्तु उन सन्तो के शिष्य-प्रशिष्यादि रूप में अनुवाद करने का विचार करते है, तब उस ग्रथ का ख्यात थे और उनके सहवास से ज्ञानार्जन कर साहित्य ख्यात थे और उनके केवल वाचन ही नही करते प्रत्युत उसका गहरा अभ्यास सेवा का श्री गणेश किया है। और जो ब्रह्मचारी के रूप भी करते है । जब उसके रस का ठीक अनुभव हो जाता है में प्रसिद्ध रहे है। उदाहरण के लिए ब्रह्म जिनदास को ही तब उस पर लिखने का प्रयत्न करते है । मुख्तार साहब लीजिए, यह भट्टारक मकलकीति के कनिष्ठ भ्राता और की इस कृति में प० दरबारी लाल जी की महत्वपूर्ण शिष्य थे, वे स्वय भट्टारक नही थे। उन्होंने अपने जीवन प्रस्तावना ने चार चांद लगा दिये है । परिच्छेदी कारि- मे जैन साहित्य की महती मेबा की है। उसने अकेले ४५ कामों के परिचय मे ग्रंथकार की दृष्टि को अच्छी तरह से रामा ग्रन्थ बनाये और अन्य सस्कृत के पुराण चरित एव स्पष्ट किया गया है । इस तरह ग्रथ एक महत्व पूर्ण कृति पूजा ग्रन्थ, स्तुति स्तोत्रादि, जिनको संख्या साठ से अधिक बन गया है । स्वाध्याय प्रेमियो और विद्यार्थियों के लिए है। उनका परिचय भी इस ग्रन्थ में दिया गया है। अत्यन्त उपयोगी हो गया है। यदि साथ मे वसुनन्दी की प्रस्तावना में सन्तों के स्वरूप के साथ उनकी महता पर सस्कृत वृत्ति भी दे दी जाती तो यह संस्करण विद्याथियों भी प्रकाश डाला है। पूस्तक की भूमिका राजस्थान विश्वके लिए और भी महत्त्व का बन जाता। कारण कि वसु- विद्यालय जयपुर के हिन्दी विभागाध्यक्ष डा. सत्येन्द्र मे नन्दि वृत्ति भी अब मिलती नही है । ६१ वर्ष की इस लिखा है । पुस्तक की आवश्यकता और महत्ता पर भी वृद्धावस्था में इतने लगन से साहित्य-सेवा करना मुख्तार प्रकाश डाला है, जो सुन्दर हैं । इस सुन्दर और समयोपसाहब की समाज को खास देन है । पुस्तक का मूल्य योगी प्रकाशन के लिए महावीर तीर्थक्षेत्र कमेटी और डास लागत से भी कम रक्खा गया है। अतः इसे मगा कर कस्तूरचन्द जी धन्यवाद के पात्र हैं। प्राशा है डा० साहब अवश्य पढ़ना चाहिए। अन्य पुस्तकों द्वारा साहित्य की श्री वृद्धि करते रहेंगे। -परमानन्द शास्त्री
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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