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________________ ज्ञानार्णव व योगशास्त्र: एक तुलनात्मक अध्ययन यहा धर्मध्यान के प्राज्ञाविचयादि चार भेदों का विस्तार- वह वर्षा, प्राधी और शीतातपादि को बाधा से कभी पूर्वक निरूपण किया गया है (पृ. ३३६-८०)। विचलित नहीं होता; तथा वह न कुछ देखता है, न कुछ तत्पश्चात् ध्यान के पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ पौर सुनता है, न सूंघता है, और न किसी प्रकार के स्पर्श का रूपातीत, इन चार भेदों का निर्देश करके पिण्डस्थ ध्यान भी अनुभव करता है। इस प्रकार योगी धर्मध्यान के मे पार्थिवी, प्राग्नेयी, श्वसना (वायव्य), वारुणी और प्रभाव से देव व मनुष्यों के अनुपम सुख को भोगता हुमा तन्वरूपवती. इन पांच धारणामो का तथा पदस्थ ध्यान में इस शुक्ल ध्यान का सहारा लेकर प्रविनश्वर पद को प्राप्त अनेक प्रकार के मत्रपदों का वर्णन किया गया है । तृतीय करता है (पृ. ४२३-२६) । रूपस्थ पान में निरन्तर स्मरणीय प्रहंत प्रभ के अलौकिक अन्त में सर्वसाधारण के लिए असभव उस शुक्ल माहात्म्य को प्रगट किया गया है तथा अन्तिम रूपातीत ध्यान ध्यान के पथक्त्ववितर्क प्रादि चार भेदो का उल्लेख का वर्णन करते हुए यह कहा गया है जो योगी वीतराग कर ग्राहंन्त्य अवस्था, केवलिगमुद्घात और योगनिरोध परमात्मा का स्मरण करता है वह स्वय वीतराग होकर प्रादि का दिग्दर्शन कराते हुए ग्रन्थ को समाप्त किया गया कमबन्धन ने मुक्ति पा लेता है, और जो रागी सराग है तथा सन्ति में यह सूचना कर दी है कि ज्ञानार्णवदवादि का आश्रय लेता है वह कर कर्मो के दह बन्धन मे ज्ञान-समुद्र-के माहात्म्य का चिन मे निर्धारण कर भव्य बद्ध होकर भयानक दुख को सहता है। इस रूपातीत जाव दुस्तर भव-समुद्र स पार ह ध्यान में ग्राकाश के समान निर्लेप, निराकार-वर्णादि से योगशास्त्र राहत, सिद्धि को प्राप्त-कृतकृत्य, शान्त, अच्युत-जन्म- जिस प्रकार दिगम्बर सम्प्रदाय मे योगविषयक मरणादि मे प्रतीत, अन्तिम शरीर से कुछ हीन, सघन पूर्वोक्त ज्ञानार्णव अन्य अप्रतिम है उसी प्रकार श्वेताम्बर ग्रामप्रदेशों मे अवस्थित, लोकशिखर पर विराजमान, सम्प्रदाय में प्राचार्य हमचन्द्र का यह योगशास्त्र भी एक गिवीभूत-सर्व दुखों से निर्मक्त होकर निराबाध व महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। बारह प्रकाशो में विभक्त वह भी शाश्वनिक अनन्त सुख मे परिपूर्ण, रोग से सर्वथा रहित ज्ञानार्णवके ममान सरल व सुबोध सस्कृत मे रचा गया है । और पुरुषाकार को प्राप्त, ऐसे अमूर्त मिद परमात्मा का इसका ६१ पद्यमय ११वां प्रकाश पार्यावृत्त मे मोर १२वं ध्यान करना बतलाया गया है। (पृ. ३८१-४२३) प्रकाश के प्रारम्भिक ५१ पद्य भी आर्या मे, ५२ व ५३ ये इस प्रकार धर्मध्यान को पूर्ण कर व शुक्लध्यान को दो पद्य क्रम से पृथ्वी व मन्दाक्रान्ता वृत्तों मे तथा मन्तिम लक्ष्य बनाकर ग्रन्थकार कहते है कि जो मुनि विश्वदृश्वा दो पद्य शार्दलविक्रीडित वृत्त मे रचे गये है । शेष सब ही को श्री को-सार्वजय लक्ष्मी को-चाहता है उसे दुरन्त अन्य अनुष्टप छन्द में निर्मित हुमा है । ग्रन्थ के कर्ता जन्म-मरण रूप ज्वर से कृटिल अपने मनका सम्यक् प्रकार हेमचन्द्र मुरि ने मंगल के पश्चात् प्रकृत योगशास्त्र के निरोध करना चाहिए। पर अल्प वीर्यवाला मुनि यदि रचने की प्रतिज्ञा करते हुए यह सूचना की है कि मैं श्रुतउसे वश में करने के लिए समर्थ नही होता है तो उसे समुद्र, गुरूपरम्परा और स्वकीय अनुभव से योग का निर्णय राग-द्वेष को दूर कर उस मन को स्थिर करना चाहिए। कर हम योगशास्त्र को रचता हूँ। तत्पश्चात् योग के प्रल्ल शक्तिके धारक प्राणियो का मन चकि स्थिर करने पर प्रभाव को प्रदर्शित करते हुए यह कहा गया है कि वह भी विचलित हो उठता है, अतएव ऐसे हीन शक्ति वाले योग समस्त विपत्तियो का विघातक व अनेक ऋद्धियो का प्राणियों को शुक्ल ध्यान का अधिकार नहीं प्राप्त है. उत्पादक है। यह उम योग का ही प्रभाव है जो भरत किन्तु जो वर्षभ-वचनाराचसहनन का धारक-महा- क्षेत्र का अधिपति भरत विस्तृत साम्राज्य को भोगकर शक्तिशाली-पुरुष है वही उस क्लध्यान मे अधिकृत है। १. ताम्भोधेरधिगम्य संप्रदायाच्च सद्गुरो । ऐमा महानुभाव शरीरके छिन्न-भिन्न होने, नष्ट होने और स्वमवेदनतश्चापि योगशास्त्र विरच्यते ॥ जन जाने पर भी अपने को उससे सर्वथा दूर देखता है, यो. शा.१-४.
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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