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________________ १८० अनेकान्त करता हुआ कवि कहता है कि-हे जियरा ! तू सुन, राज्यकाल मे सं० १७०६ मे पूर्ण को थो१ । परमात्मसुन, तू तो तीन लोक का राजा है तू घर बार को छोड़ प्रकाश की भाषाटीका म० १७१७ में पांडे रूपचन्द जी कर अपने सहज स्वभाव का विचार कर, तू पर में क्यों के प्रसाद से बनाई थी। कर्म प्रकृति की टीका भी सं० राग कर रहा है, तूने प्रनादि काल से प्रात्मा को पर १७१७ मे बनाई थी। पाडे हेमराज अध्यात्म साहित्य के ममझा है और पर को प्रात्मा। इसी कारण दु ख का अच्छे विद्वान थे। आप की कविता बड़ी भावपूर्ण है। पात्र बन रहा है। अब तू एक उपाय कर, अब सुगुणों कवि ने अध्यात्मी कुंवरपाल की प्रेरणा से 'सितपट का प्रावलम्बन कर, जिससे कर्म छीज जाय-विनष्ट चौरासी बोल' की रचना भी रचना की थी, जिसका हो जाय । तू दर्शन ज्ञान चारित्रमय है, और त्रिभुवन का आदि मगल पद्य इस प्रकार है :राव है, जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है :- सुनयपोष हतदोष, मोषसुख शिवपद दायक । सुन सुन जियरा रे, तू त्रिभुवन का राव रे गुनमनिकोष सुपोष, रोषहर तोष विधायक । तू तजि पर भाव रे चेतसि सहज सुभाव रे। एक अनंत स्वरूप संत वंदित अभिनदित । चेतसि सहन सुभाव रे जियरा, परसों मिलि क्या राच रहे, निज स्वभाव परभाव भावि भासेइ अमक्ति । अप्पा परजान्या पर प्रप्पाणा, चउगइ दुःख प्रणा सहे। प्रविदित चारित्र विलसित अमित, अब सो गुन कोजे कर्महि छोज, सणह न एक उपाव रे। सर्व मिलित अविलिप्त तन । वंसण णाण चरण मय रे जिय,तू त्रिभुवन का राव रे ॥१॥ अविचलित कलित निजरस ललित, जय जिन दलित सुकलिल धन । इससे पता चलता है कि कवि दरगहमल की कविता भक्तामर स्तोत्र के पद्यानुवाद का जैन समाज में धार्मिक होते हुए भी सरस भाव पूर्ण और स्व-पर-सम्बोधक है। अन्य एक जकडी के पद्य मे कहा है कि हे मूढ तू पर्याप्त प्रचार है । कवि की अन्य क्या कृतिया है ? उनका मानव जनम को व्यथ न गमा, इसी से तू शाश्वत सुख अन्वेपण होना चाहिए। कवि के जीवन का अन्त कब को नही ढूढ़ पा रहा है। हुप्रा यह भी विचारणीय है। पन्द्रहवे कवि बिहारीदास है, जो आगरा के निवासी तू यह मणुयतन, काहे मढ गमाव; थे और वहा की अध्यात्म शैली मे प्रमुख थे। कवि सासय सुखदायक, सो तू ढूंढि न पावै । द्यानत राय ने इन्हे अपना गुरु माना है। द्यानतराय मानढूंढन पावं पासि तुम ही, पाप प्राप समावए । गुन रतन मूठोमाहिं तेरी, काई दहरिसि धावए । १ नगर प्रागरेमे हितकारी, कंवरपाल ज्ञाता अविकारी। तिन विचार जियमे यह कीनी, जो भाषा यह होइ नवीनी। वह राज अविचल करहिं शिवपुर, फिर संसार न प्रावए। यो कहै बरिगह यह मणुयतण, काहे मूढ़ गमावए ॥२ अल्प बुद्धिभी प्ररथ बखान, अगम अगोचर पद पहिचान । यह विचार मन मे तिन राग्वी, पाडे हेमराज सो भाखो। कवि का समय १८वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। xx चौदहवे कवि हेमराज है, जो अग्रवाल और गर्गगोत्री अवनीपति वदहि चरण, सुवरण कमल विहसत । थे। और आगरा के रहने वाले थे। आप अपने समय के साहजिहा दिनकर-उदै, परिगण-तिमिर-नसत ।। अच्छे विद्वान टीकाकार और कवि थे। कवि ने अपनी पुत्री 'जैनुलदे' को, जो रूपवान, गुणशीलवान थी खूब हेमराज हिय प्रानि, भविक जीव के हित भणी। विद्या पढ़ाई थी। हेमराज ने उसका विवाह नन्दलाल के जिनवर-प्राण-प्रमानि, भाषा प्रवचन की कही। साथ कर दिया था। नन्दलाल भी उस समय प्रागरा में सत्रह से नव उतर, माघ मास सित पाख । ही रहते ये । मापने कुवरपाल ज्ञाता की प्रेरणा से कुन्द- पंचमि प्रादित वार को, पूरन कीनी भाख । कुन्दाचार्य के प्रवचनसार की बालबोध टीका शाहजहां के -प्रवचनसार प्रशस्ति
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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