SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १. - কা १ से ५ स्थान रिक्त उसमें अवकाश नही । प्रात्म-दर्शन ही उसका काम्य है । ६ पाश, अंकुश, माला, खण्डित, समाजमूलक प्रध्यात्मवाद उसकी मौलिक विशेषता है। ७ कम, वर, कमल, कमण्डलु, इन सब बातो के बावजूद भी कालान्तर में सर्वथा वैदिक ८ रिक्त धर्म और परम्परा मे अपने असंपृक्त न रख सकी। ६ त्रिशूल, खण्डित, माला, खण्डित, तान्त्रिक विधानो ने इममें प्रवेश कर ही लिया। देव१. रिक्त देवियो के विशद् परिवार की कल्पना इमी की परिणति इन प्रतिमानो के ऊपर कक्षासन के बाहरी अंशो में है। प्राचारदिनकर, निर्गणलिका आदि कृतियाँ इन मृत्तियां थी, अब नहीं हैं। पक्तियो के समर्थन में उपस्थित की जा मकती है। तीर्थशिखर करी के अधिष्ठाता और अधिष्ठातयो की केवल कल्पना ही नही की, अपितु उनके परिकर में भी इन्हे भारतीय प्रासाद निरिणकला में शिखर का विशिष्ट समुचित स्थान मिला बाद में एतद्विषयक शास्त्रों की स्वस्थान है। छज्जे के ऊपर इसका प्रारम्भ होता है। शुग तन्त्र-रचना भी प्रावश्यक मानी गई। सोलह विद्यादेवियाँ, शिखर की विविध अभिव्यक्ति का माध्यम है। प्रत्युत निशिगयो तान्त्रिक प्रभाव का ही परिणाम है। यद्यपि कहना यह चाहिए कि शृगो के प्राधार पर ही शिखर का इन्हें वहाँ ममकिती मान कर अपनाया गया है। नात्पर्य कि ठाठ बनता है। प्रासादो के विविध नामकरण इन्ही पर जैन संस्कृति में अपने ढंग से तन्त्रवाद प्रविष्ट हो गया और प्राचत है । कैलाशपुरी पोर नागदा में मध्यकालिक शिखर समर्थ जैनाचार्यों ने भी इसका विरोध नहीं किया, परिअध्ययन की नव्य दिशा प्रस्तुत करते है। शिम्वर शिव- णामतःक्तिपूजा ने अपनी जड ऐसी जमाई कि प्राज भी लिंग का प माना गया है। शिल्पशास्त्रीय विकासात्मक उसका अस्तित्व मर्वत्र है। देवियों के स्वतन्त्र बिम्ब और परम्पग के परिप्रेक्ष्य में शिखरों के कमबद्ध और तुलना- प्रसाद भी बनने लगे, पद्मावती प्रामाद भी उसी परम्परा त्मक अध्ययन नही किया गया है। विवेच्य मन्दिर का की एक मबल कही है। शिवर कला की दृष्टि से बहुत मुन्दर और पाकर्पक नो जैन शान्तिपूजा की म्पृति रूप पद्मावती का स्वतन्त्र नही है तथापि परम्परा की अपेक्षा मे नव्यस मूत्र तो प्रामाद साधना का केन्द्र था। अवगहपुगरण, नारदीयदेता ही है। त्रिदक् त्रिमूतियो का सपरिकर खनन है। पूगगा और रुद्रयामल में पदमावती का उल्लेख पाता है, तीन उगो में लघु तीन-तीन शृग निर्मित है । ऊपर पर सूचित पद्मावती इमसे भिन्न है। कोणो में छः छः है। प्रत्येक मे पुष्पाकृतिया तक्षित है। श्रभा-गरम्परा प्रचलित अर्चनपद्धति और प्रतिमादक्षिण में द्वार है। विधानानुमार इनको सुन्दर प्रतिमाए प्रभून परिमाण में प्रामाद पीठ पर लकुन्नीश मन्दिर का अनुकरण उपलब्ध है। दोनों सम्प्रदायों में वह समान भावेन पूज्या दृष्टिगोचर होता है। तमालपत्रिका ग्रासपंक्ति आदि है। वाहन और प्रायुधो में किचित् परिवर्तन अवश्य है, उसीके अनुरूप है। छाद्य के प्रद्यो भाग में तीनो पोर , यह विषमता तो वदिक शक्तिरूपों में भी परिलक्षित प्रतिमाएं विद्यमान है, इनमे कतिपय तो तीर्थकरो की होती है। पोर शेष त्यागमय जीवन की मोर मकेत करती है। मुचित मन्दिर के उत्तर में उमी क्षेत्रफल में अधिनि मन्दह ये प्रतिमाए मुरक्षित और अखण्ड है। इनमे की प्ठातका प्रामाद निमिन है । दशा ग्रास बहुत ही दयनीय ऋषि प्रतिमाएं यहा पाश्चर्य उत्पन्न करता है। है। उपत्यका में पतित मृतिका का मबम अधिक प्रभाव पद्मावती-प्रासाद इमी मन्दिर पर पड़ा है, यहा तक कि इमका गर्भगृह ऐमा जैन मम्कृति त्याग प्रधान रही है। ऐहिकता को दब गया है कि मानो ममतल भूमि ही हो, यह मण्डप मेदर
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy