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________________ २६२ ४० भी हो सकती है। सार उसकी पूर्ति के लिए यह प्रावश्यक समझा गया कि जैन स्वाध्याय मदिर ट्रस्ट ने इस प्रति को जयपुरस्थ उपर्युक्त फोटो प्रिंट प्रति से दिल्ली व सोनगढ़ द्वारा प्रकावधीचन्द्रजी दीवानजी-मदिर के ग्रन्थभण्डार से प्राप्त करके शित दोनों संस्करणों का मिलान कर लिया जाय। इसके उसके सब पत्रों की दो फोटो प्रिट प्रतियाँ तैयार करा ली लिए श्री पं० चैनसुखदामजी न्यायतीर्थ जयपुर की सत्कृपा है। उनमें से एक प्रति को ट्रस्ट ने स्वय अपने अधिकार में से उस फोटो प्रिट प्रति को प्राप्त करके हम दोनों ने उस रख कर दूसरी प्रति को मूल प्रति के साथ जयपुर वापिस पर से पूर्वोक्त दोनों संस्करणोंका सावधानी मे क्रमश: भेज दिया। इसी के आधार से ट्रस्ट द्वारा प्रस्तृत सस्करण मिलान कर लिया है। उससे ज्ञात हुआ है कि सस्ती ग्रन्थतयार कराया गया है। माला दिल्ली द्वारा प्रकाशित सस्करणमे जहाँ यत्र तत्र कुछ जैसी कि उसके स्पष्टीकरणकी मांग की गई है तदनु- वाक्यों व शब्दों की हीनाधिकता या कुछ उनमे परिवर्तन . भी रहा है वहाँ जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित सस्करण में भी उसी प्रकार कुछ वाक्यो व शब्दो की के समय उनका सामान जयपुर सरकार द्वारा जब्त किया हीनाधिकता और परिवर्तन भी दृष्टिगोचर हुआ है। इसगया था। उसकी लिस्ट भी रही मुनते है । सम्भव है उसमे को स्पष्ट करने के लिए हम यहाँ उदाहरण के रूप मे ऐसी कोई मोक्षमार्गप्रकाशक की प्रति भी रही हो। दोनो ही सस्करणो के ऐसे कुछ पाठभेद ५ देते है:२ दोनो सस्करणो मे जो फोटो प्रिट प्रति की अपेक्षा कुछ अधिक वाक्य देवे जाते है (देखिये सो० संस्करण पृ० सोनगढ़ द्वारा प्रकाशित संस्करण के पाठभेव ६३ व १०९ के पाठभेद और दिल्ली सस्करण के पृ०८, प्रति पृष्ठ पंक्ति पाठभेद २३, ३७, ११, १५६ व ४३६ के पाठभेद) उनसे ऐसा सोन. ३४ १२ पर्यायो को अत्यन्त स्पष्टरूप प्रतीत होता है कि दोनों ही सस्करणो के तैयार करने मे से जानता है। प्रस्तुत प्रतिके अतिरिक्त अन्य हस्तलिखित व मुद्रित प्रतियो फो. ३६ १४ 'स्पष्टरूप से' के स्थान मे का भी प्राश्रय लिया गया है। कारण कि वे वाक्य अन्य 'अस्पप्टपन' है। हस्तलिखित प्रतियोमे पाये जाते है। दिल्ली मम्करण सो ४६-४७ २८,१ तथा मैने नृत्य देखा, गग पृ० ८ का वह अधिक पाठ नया मन्दिर दिल्लीको ३ हस्त सुना, फूल सूघे (पदार्थ का लिखित प्रतियो मे भी है। जैन ग्रन्थ रलाकर द्वारा स्वाद लिया, पदार्थका स्पर्श प्रकाशित प्रति में भी परिशिष्ट पृ० ४६० मे किमी प्रति किया), शास्त्र जाना। के प्राश्रय से ऐसे बाक्य ले लिये गये है। दि० सं० प.. ५४ २ कोष्ठगत पाठ वहाँ नही है। २३ का कोष्ठकस्थ सन्दर्भ नया मदिर दिल्ली की प्रति ४७ २६-२७ इन्द्रियजनित (पत्र ११५० १०) मे भी नही है। इत्यादि । फो. ५५४ इन्द्रियादिजनित साथ ही कुछ दुरुह तृढारी भाषा के शब्दो के स्पप्टी- सो. १८ उस वस्त्रको अपना प्रग जान करण के लिए भी अन्य प्रतियो का प्राश्रय लेना कर अपने को और वस्त्र को पड़ा है। जैसे-थानक (यह शब्द मूल प्रति में ही अशुद्ध एक मानता है। रहा दिखता है, उसके स्थान में 'घातक' रहनासम्भव फो. ५८ ११ तिस वस्त्र को अपना अग है-सो. स. पृ० ८६ = थानक (बाधक ?), स० ग्र० जानि प्रापकों पर शरीर कों पृ० १२४ = कारण), गदा (= 'डला' सो००६८, दि. वस्त्रको एक मान। पृ० १४१), प्रौहटे (= 'लज्जित' सो० पृ० ११६, दि०० सो. ५४ १२-१३ कोई मारे तो भी नही छोडती, १७२), झोल दिये बिना (= 'सच को मिलाये सो. विना' सो यहाँ कठिनता से प्राप्त पृ० १२४, दि० पृ० १८१)। होने के कारण तथा वियोग
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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