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________________ २८६ अनेकान्त देवीदास प्रत भाव पर हाथ जोर सिर नायौ ॥४॥ है-सिउणागिर बड़ी क्षेत्र चलो वदन को, वंदन को कर्म भगवजिनेन्द्र के दर्शन के बिना कवि विह्वलता का पाप निकदन को। इसके बाद पुन: धर्म का महत्त्व दिया अनुभव करता है। प्राश्रवका मूल उसकी दृष्टि में भगवद्दर्शन है। धर्मपालन करनेके बिना चतुर्गति में भटकना पड़ेगाके प्रति अरुचिभाव ही है। यहां कवि की आलोचक दृष्टि धर्म विन तूं बैल हुहै। इसी प्रसंग में दर्शन और पूजन के प्रवर हो जाती है। और उसे दुख व आश्चर्य होता है कि विषय मे भी कवित्त लिखे है। अन्तिम कवित्त है धर्मगीत व्यक्ति अभी तक आत्म बचक क्यों बना रहा? उसे अभी -सुन लाला रे जिन मत की वात कान दे। इसके अन्त तक हेयोपादेय का ज्ञान क्यो नही हुमा ? इसे कवि ने भोदू- में लिखा है-इती पद पंकत संपूर्ण संवत् १९३५ माघ पन की मंजा दी है। भौदू जब लगु आई तो को समझ नहीं वदि १२ लिखतं पं० श्री प्रागदास तिवारी जी। पत्रा ७८. इस भौंदुपन को दूर करने के लिए कवि ने श्रद्धा ज्ञान और इस प्रकार बुन्देलखण्ड के कविवर देवीदास का प्रस्तुत चारित्र के साथ-साथ सोनगिरि, शिखर सम्मेद, गिरिनार, ग्रन्थ है पदपंकत भाव और भाषाकी दृष्टि से अत्यन्त महत्व कूण्डलपुर प्रादि जैसे पवित्र तीर्थ क्षेत्रों की बन्दना करने पूर्ण है। कवि संस्कृत भाषा से परिचित है फिर भी उसने को कहा है। इनमें भी सायद कुण्डलपुर, महावीर पोर बुन्देलखण्डी बोली में अपने भाव व्यक्त किये है। इसलिए सोनगिरि की वन्दना करना उमे अधिक प्रिय था- उस समय की और आज की बोली जाने वाली बुन्देलखण्डी कंडिलपुर महावीर चलौ भव वंदिये जू । बंदिये पाप बोली पर भाषा विज्ञान की दृष्टि से विचार करने के लिए निकंदिये ज। इस प्रकार सोनगिरि के विषय में लिखा यह ग्रन्थ पर्याप्त सहायक होगा, ऐसा मेरा विश्वास है। साहित्य-समीक्षा १. श्री मदाबचन्द्र और भक्तिरत्न- -लेखक प्रेमचन्द उनकी प्रवृत्ति निरन्तर बढती जाती थी। ये कहा करते रवजी भाई कोठारी, अनुवादक डा० जगदीशचन्द प्रकाशक, थे अाज दनिया में झूठ, फरेब, अहंकार और छल कपट प्रेमचन्द रवजीभाई कोठारी' ब्लाक नं०६ महात्मा गांधी की प्रवृत्ति बढ़ रही है। उसको देखकर उनका हृदय गेड, घटिकोपर, वम्बई ७७ । मूल्य ३) रुपया। अत्यन्त व्यथित होता था, इनसे हटकर प्रात्मधर्म की ओर प्रस्तुत कृति श्रीमद्राजचन्द्र की जयन्ती के उपलक्ष्य में प्रवृत्ति करना व श्रेयस्कर मानते थे। जिसने स्वयं कल्याण निकाली गई है। श्रीमद्राजचन्द्र भी संत परम्पग में हुए मार्ग में प्रवृत्ति करते हुए दूसरो के सामने कल्याण का हैं । सन् १९२४ में उनका जन्म काठियावाड में हुआ था। मार्ग प्रशन्त किया, जीवन के लिए उपयोगी नर्चा वार्तामो लधुवय में ही उन्होंने तत्त्वज्ञान की प्राप्ति की थी। का सकलन किया । ऐसे महापुरुप की जयन्ती मनाना उनकी स्मरण शक्ति पाश्चर्यजनक थी। कोई भी बात __ अत्यन्त उपयोगी है। उससे मुमुक्षत्रों को प्रात्म गुणो के एक बार देखने सनने से उनके हदय पटत हर प्रकित हा विकास से सहायता मिलती है। प्रस्तत में रामचन्द्रजी के जाती थी। वे हीरे जवाहरात के तुगल व्यापारी थे। परिचय के अतिरिक्त उनके बाद में उस परम ज्योति को किन्तु लौकिक महत्वकाक्षाओं से अत्यन्न दूर रहते थे। उज्जीवित करने वालो का भी परिचय दिया हुया है। दनिया की मान प्रतिष्ठा को उन्होंने कभी स्वाकार नही ममक्षयी उमं मगाकर अवश्य पढ़ना चाहिए। किया, किन्तु उन्होंने लोकेपणा से रहित होकर लौकिक कर्तव्यों का पालन किया। उनकी प्रान्तरिक वृति यात्म २. जैन ग्रन्थ भण्डाराज इन राजस्थान-डा. कस्तुर स्वरूप की ओर थी । वैराग्य और उपशम भाव की पोर चन्द कासलीवाल, प्रकाशक श्री गंदीलाल शाह एडवोकेट
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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