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________________ कविवर देवीदास का पदपंकत २८५ क्यौपार वे माफिक लंह बनज की नाही नावं कवि कमों को अत्यन्त निर्दयी मानता है। कर्मों का संस फोर खटीक चमार धीवर पुन सु हलालिया। विविध म्वांग-रचना के कारण ही व्यक्ति की मात्मनिधि इनसो उधार कर न, कबहुं लेह वह लौ हालीया ।२। खो जाती है और उस ससार में भटकना पड़ता है। इससे . + + + + मुक्त होने के लिए स्यावाद में पगी हुई जिनवाणी के तीरय जज विवाहम लग वडं जो दर्ज। माध्यम से प्रात्म द्रव्य को पहचानना चाहिए। यह क्रिया तीरथ जज विवाह की नही मृजादा सर्व ॥ अत्यन्त सरस, मधुर, अगोचर और अनुपम है। . लोभष्टि करिक जो ही जा मृजाद तज देह । मातम रस प्रति नीठौ साधो भाई मातम रस प्रति मीठो। ताको फल यह जगत मैं नर्काविक खुब लेह ॥१॥ स्याद्वाद रसना बिन जाको मिलत न स्वाद, गरीटी टेक। पाग परवनी धोवती खोर पिछौरी आदि । पीवत होत सरस सुख सो पुनि बहुरि न उलट पुलीठौ।. छोडि वहरक सुवो वही बचे तज मृजाद ।।२।। अचरज रूप अनूप अपुरख जा सम और न ईठो॥ वस्त्र पुरानो जानकै धोवत रंग न लेह। साधो भाई ॥१॥ थोरो मोल विसाहक बड़ती भावो ना देह ॥३॥ तिन उत्कृष्ट इष्ट रस चाखो मिथ्यामति दे पीठौ। जाको नहीं प्रमान कछु बसा लह कर कौल । तिन्ह को इंद्र नरेंद्र मादि सुख सो सब लगत न सोने ।। टका रुपया को कलग देत लेत में तौल ॥४॥ . साधो भाई॥२॥ इन पद्यों में बुन्देलखण्डी बोली का तात्कालिक रूप पानंद कंद मुछंद होयकरि भुगतन हार पटौठो। और भी स्पष्ट हो जाता है। नाज, विछोना, वनज, परम सुधा सुसमै इक पर सत जनम जरादिन चोठी॥ खटीक, हलालिया, परदनी, पिछौरी आदि शब्द तो प्राज साधो भाई ॥३॥ भी उसी रूप मे है जिस रूप में १८-१९वी शती में थे। बचन प्रतात सुनात अगोचर स्वादत फिर न उवीठो । भाषा की दृष्टि से इसलिए प्रस्तुत ग्रन्थ का और भी देवियदास निरक्षर स्वारथ अंतर के द्रग दीठौ ।। महत्त्व समझना चाहिए। साधो भाई ।। . इसके बाद क्रोध, मान, कपट (माया) कृपणता दवीदास मूलतः भक्ति रस के कवि है। कही उन्होने (लोभ) इन चार कपायों पर सुन्दर कवित्त लिये है और प्रात्म-दर्शन करने का प्रयत्न किया है और काहीं भगवद्दर्शन इमी सन्दर्भ में जिनमत को "मारग मक्त की मगन थनी" का । अात्मदर्शन का प्रयत्न करते समय उमसे विमुख रहने कहकर मानव जन्म और जैनधर्म दोनों की दुर्लभता का के कारणी पर विचार किया है और भगवद्दर्शन का विवेव्याख्यान किया है। आगे दानपूजा को "मुक्तिपुर की चन करते ममय छवि को मुन्दरता का पाख्यान किया है। गली" कह कर जैनधर्म का पालन करने के लिए मलाह इमी में कवि मुख और प्रानन्द की कल्पमा मरता है-- पुन नदय मूरत देख सुख पायो मैं प्रभ तेरी। ' वन क्षेत्र के विषय में कवि ने एक दादग लिखा एक हजार पाठ गुन सोभित लछन सरस सुहायौ। है । संभव है, यह उसका प्रिय क्षेत्र रहा हो । __ मे प्रभ तेरी सूरत देख सुख पायौ टिक। चलत भव क्यों नाही विघन हरन थवोन । जनम जनम कित प्रशुभ करम को रिन सब तुरत चुकायो। प्रति उन्नति जिन प्रतिमा जाको बरन सके छवि कौन ॥१ परमानन्द भयो परपूरत ग्यान घटा घट छायौ ॥१॥ . जो अपनी निज चहत सुधारयो या भव परभव दोन।२ प्रति गंभीर गुन ठान वाद तुम मुख कर जात न गायो। इह यही काल विर्षे तुम का मुकत महल को सौन ॥३ जाकं सुनै सरदहत प्रानो करम फंदा सुरमायौ ॥२॥ देखत दूर होत विकलप सब अति परमानंद भौन ॥४ विकलपता नस गई अब मेरो निज गुन रतन मजायो। जा परसाद होत सुभ कारज अशुभ करम कर बौन ॥५ जात हतौ कौडी के पलटं जब लग परख न पायो । देवीदास कहत लतापुर ये गुन काज निरौन ॥६ पर परनाम कुग्राम बास तज प्रातम नगर बसायो।
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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