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________________ मोम पहन 3ণকান परमागस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुर विधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष २० । किरण २ . वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सम्वत २४६३, वि. स. २०२३ । सन् १९६७ ऋषभ जिन स्तोत्रम् (मुनि श्री पद्मनन्दि) णिहोसो प्रकलंको प्रजडो चंदो 'व' सहसि तं तह वि। सीहासणायलत्थो जिणिद कय कुवलयाणंदो ॥२३॥ अर्थ - हे जिनेन्द्र ! मिहासन का उदयाचल पर स्थित प्राप चू कि चन्द्रमा के समान कुवलय (पृथिवीमण्डल, चन्द्र पक्ष में कुमुद) को प्रानन्दित करते है, अतएव उस चन्द्रमा के समान मुशोभित होते है, तो भी प्रापमें उस चन्द्रमा की अपेक्षा विशेषता है-कारण कि जिस प्रकार प्राप अज्ञानादि दोपो से रहित होने के कारण निर्दोष हैं। उम प्रकार चन्द्रमा निर्दोष नही है-वह सदोष है। क्योकि वह दोषा (रात्रि) से सम्बन्ध रखता है। तथा प्राप जड़ता (अज्ञानता) से रहित होने के कारण अजड है, परन्तु चन्द्रमा अजड नही है। किन्तु जड़ है-हिम मे ग्रस्त है। प्रच्छत ताव इयरा फरिय विवेया णमंतसिर सिहरा। होइ प्रशोमो रुक्खो विगाह वह संणिहाणत्थो ॥२४॥ प्रथं-हे नाथ ! जिनके विवेक प्रगट हुआ है नथा जिनका शिररूप शिखर प्रापको नमस्कार करने में नम्रीभूत है ऐसे दूसरे भव्य जीव तो दूर ही रहे, किन्तु प्रापके समीप में स्थिन वक्ष भी प्रशोक हो जाता है। विशेषार्थ- यहाँ स्तुतिकार ऋषभ जिन की स्तुति करते हुए उनके समीप मे स्थित प्रष्ट प्रातिहार्यो में से प्रथम अशोक वृक्ष का उल्लेख करते हैं। यद्यपि वह वक्ष नाम से ही 'अशोक' प्रसिद्ध है, फिर भी वे अपने शब्द चातूथ मे यह व्यक्त करते हैं कि जब जिनेन्द्र मगवान की केवल समीपता को पाकर वह स्थावर वक्ष भी प्रशोक (शोक रहित) हो जाता है तब भला जो विवेकी जीव उनके समीप में स्थित होकर इन्हे भक्सि पूर्वक नमस्कार प्रादि करते हैं वे शोक रहित कैसे न होगे ? अवश्य ही वे शोक रहित होकर अनुपम सुख को प्राप्त करेंगे ॥२४॥
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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