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________________ अनेकान्त छत्तत्तयमालंबियाणम्मलमुत्ताह लच्छला तुजा । जणलोयणेसु बरिसइ अयमं पि व गाह विहि ॥२५॥ अर्थ-हे नाथ ! आपके तीन छत्र लटकते हुए निर्मल मोतियो के छल से मानो बिन्दुप्रो के द्वारा भव्य जनो के नेत्रो में अमृत की वर्षा करते हैं-भगवान ऋषभ जिनेन्द्र के शिर के ऊपर जो तीन छत्र अवस्थित थे उनके मब अोर जो सुन्दर मोती लटक रहे थे, वे लोगों के नेत्रों में ऐसे दिखते थे जैसे कि मानो वे तीन छत्र उन मोतियो के मिष से अमृत बिन्दुनो की वर्षा ही कर रहे हैं। कमलोयलोयणुप्पलहरिसाइ सुरेसहत्थ चलियाई। तुह देव सरयससहरकिरणकयाई व चमराई ॥२६॥ प्रथ-हे देव । लोगो के नेत्रोरूप नील कमलों को हषित करने वाले जो चमर इन्द्र के हाथों से आपके ऊपर रे जा रहे थे वे शरत्कालीन चन्द्रमा की किरणों में किये गए (निर्मित) के समान प्रतीत होते थे । विहलीकयपंचसरे पंचसरो जिण तुमम्मि काऊण । अमरकयपुप्फविट्ठिच्छला बहू मुवइ कुसुमसरे ॥२७॥ अर्थ-हे जिन ! अापके विषय में अपने पच बागों को व्यर्थ देख कर वह कामदेव देवो के द्वारा की जाने वाली पुष्प वृष्टि के छल से मानो अापके ऊपर बहुत से पुष्पमय बागो को छोड़ रहा है--काम देव का एक नाम पचार भी है, जिसका अर्थ प व बाणों वाला होता है । ये बाग उमके लोहमय न होकर पुष्पमय माने जाते है । वह इन्ही बारगो के द्वारा कितने ही अविवेकी प्राणियों को जीत कर उन्हें विषयासक्त किया करता है। प्रस्तुत गाथा में भगवान ऋषभ जिनेन्द्र के ऊार जो देवो के द्वारा पुष्पो की वर्षा की जा रही थी उस पर यह उत्प्रेक्षा की गई है कि वह पुष्प वर्षा नहीं है, किन्तु भगवान को वश में करने के लिये जब उस कामदेव ने उनके ऊपर अपने पांचो बागो को चना दिया और फिर भी वे उसके वश मे नही हो सके तब उ मने मानो उनके उपर एक साथ बहुत से बाणों को छोडना प्रारम्भ कर दिया था ॥२८॥ एस जिणो परमप्पा णाणो अण्णाण सुणह मा वयगं। तुह दुदही रसंतो कहा व तिजयस्य मिलियस्स ॥२८॥ अर्थ-हे भगवन् । शब्द करती हुई तुम्हारी भेगे तीनो लोको के सम्मिलित प्राणियो को मानो यह कह रही थी कि हे भव्य जीवो । यह जिनदेव ही ज्ञानी परमात्मा हैं, दूसरा कोई परमात्मा नही है; अतएव एक जिनेन्द्र देव को छोड कर तुम लोग दूसरों के उपदेश को मत सुनो ॥२८॥ रविणो संतावयर ससिणो उण जड्यायरं देव। संतावजडत्तहरं तुज्न च्चिय पहु पहावलयं ॥२६॥ अर्थ-हे देव । सूर्य का प्रभामण्डल तो सताप को करने वाला है और चन्द्र का प्रभामण्डल जडता (शैत्य) को उत्पन्न करने वाला है। किन्तु हे प्रभो । सताप और जडता (अज्ञानता) इन दोनो को दूर करने वाला प्रभामण्डल एक प्रापका ही है ।।२६।। मंदिरमहिज्जमाणंबरासिणिग्घोससंणिहा तुज्न । वाणी सुहा ण अण्णा संसारविसस्स णासयरी ॥३०॥ प्री-मेरु पर्वत के द्वारा मथे जाने वाले समृद्रकी ध्वनि के समान गम्भीर प्राप की उत्तम वाणी अमृत स्वरूप हो कर संसार रूप विष को नष्ट करने वाली है, इसको छोड़ कर और किसी की वाणी उस समार विष को नष्ट नहीं कर सकती।
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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