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________________ अलोप पार्श्वनाथ-प्रासाद (मुनि कान्तिसागर) व्यक्तिस्वातंत्र्यमूलक श्रमण-सस्कृति की गरिमा का बड़ा महत्व है। यहा के कगा-कण मे शताब्दियों के को सर्वागरूपेण अभिव्यक्त करने वाले नामहृद-नागदा हास-विकास अविस्मरणीय का इतिवृत्त परिवशित होता रियन अरक्षिन-उपेक्षित प्रासादो में प्रलोप पार्श्वनाथ का है। किसी समय प्रात्मलक्षी, परकल्याणवाछू और मयमशिखरमण्डित मन्दिर प्रत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । राजमाग से शील मनीषियों का यह सतत मिवास रहता था, प्रासाद ही दष्टि आकृष्ट कर लेता है। लगभग एक सहस्र वर्ष से के घण्टानादो से नागदा की उपलकाए लोकोत्तर स्वर भी अधिक प्राचीन शिखर, भले ही कालिमावृत्त हो गया है लहरियो से गूज गूज उठती थी एवम् भारत के विभिन्न पर इसकी विशालता उसके व्यतीत वैभव को व्यक्त कर कोरगो मे प्रागन श्रद्धालु जन भावभीनी प्रर्पणांजलि रही है। नागदा और कैलाशपुरी के गण्यमान लेखयुक्त समषित कर कृतकृत्य होते थे किन्तु पाज स्थिति यह है मन्दिगे मे इमकी परिगणना की जाती है। यद्यपि यह कि चमगादडे चक्रमण करती हैं और यदाकदा हिसपश ममय-ममय पर जीर्णोद्धत होता रहा है नथापि इमकी भी निर्भयता में विचरण करते है। प्राश्चर्य तो इस बात मौलिकता अपना विशिष्ट महत्व रखती है इम स्वतन्त्र का है कि अहिमा और सस्कृति के परमोन्नायक पाश्वप्रामाद की अपेक्षा गृहा-प्रमाद कहना अधिक उपयुक्त नाथ के स्थान पर कभी विश्वकल्याण का चिन्तन होता जान पडता हैं। कारण कि इसके गर्भगृह की मयोजना था, पर प्राज तो निमिन इतिहास को रौंदने वाला भी किमी गुहा से कम नहीं। पुरातन काल में गृहा-मन्दिगे कदाचित् ही भूले-भटकते पहुंच पाते है, नही कहा जा की ही परम्पग थी, वही मुनि वाम करते थे। भारतीय गकता उनमे में कितने पापागों पर बिखरी हुई स्वनिगम सम्कृति का विकाम गृहा-संस्कृति से सम्बद्ध है। मेदपाट इतिहास की पाठ्य रेखाग्रो को हृदयनेत्रो में पढ-देन शिल्पियो ने इस कला में अद्भुत नैपुण्य प्राप्त किया था। पाते है। । यो तो मन्दिर मात्र प्राध्यात्मिक माधना और पद्म रावल या पार्श्वनाथ उत्प्रेरणा का पावन केन्द्र होता है। पर जहा माधक प्रात्म-निरीक्षण के द्वारा प्रगति का प्रशस्त-पथ पाना है। अपेक्षित ज्ञान की अपूर्णता के कारण और पुरातन पर जहां नमगिक मुषमा है वहां वह मॉस्कृतिक साधनो अवशेषो के प्रनि निश्चित दृष्टिकोण के प्रभाव में भारत में और भी अतुल बल प्रदान करता है। कलाकार भी ग्थापत्यावशेषों के माथ ममुचित न्याय नहीं हो पाया है। प्रकृति से समुज्जवल उपशन ग्रहण कर मौदर्य की रचना प्रामीण जनता द्वारा उनके माथ अनेक प्रकारके लौकिक करता है और अपनी सौदर्याभिव्यजक माधना में जगत् प्राज्यान जोड दिये जाने है। और क्रमश. उन पर जन श्रा को भी सम्मिलित कर लेता है. लोकोनर-साधना पोर थ निया का इतना प्रबार चढ़ जाता है कि सत्य भी अन्तर्मुखीचित्तवत्तियो के विकाम भ निष्ठावंक जो गति- धूमिल हो जाना है। इसी में मंस्कृति और सभ्यता के मान होता है उसे बाह्य-भौतिक वातावरण अधिक मुख को उज्जवल करने वाले प्रेरक कलात्मक प्रतीको प्रभावित नही करता, परन्तु जो सामान्य कोटि के लोग का वास्तविक इतिहास निमिगबन रहा है। पाषाणो हैं उन्हे प्रारम-माधना में बायोपादानो का महाग लेना की वाचा रहित वाणी को प्रात्ममान करना सभी के पड़ता है। प्रत: प्रकृति के प्रांगण मे स्थापित देव भवनो लिए मम्भव नही है । यहा की सदाम रेखाम्रो में शतान्दि.
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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