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________________ अग्रवालों का जैन संस्कृति में योगदान परमानन्द जैन शास्त्री छन्वीसवें कवि वासीलाल है। यह दिल्ली निवासी सत्ताईसवे कवि सतलाल है, जो तहसील नकुड़ जिला थे, इनके माता-पिता के सम्बन्ध मे कुछ ज्ञात नही हो सका सहारनपुरके निवासी थे। इनका जन्म सन् १८३४ में अग्रसेठ सुगुनचन्द के पुत्र पं० गिरधारीलाल ने, जो प्राकृत वाल कुल में हुआ था। इनके पिता का माम शीलचन्द था संस्कृत के अच्छे विद्वान थे, और धर्मपुरा के नये मन्दिर मे सतलाल अग्रेजी के अच्छे विद्वान थे, उसकी शिक्षा रुडकी शास्त्र प्रवचन किया करते थे। कालेज मे हुई थी, और बी. ए की डिगरी प्राप्त की थी वैराग्यशतक १०१ पद्योका प्राकृत ग्रथ है जिसमें ससार प्रापकी बुद्धि तीक्ष्ण थी, और तर्क-वितर्क में प्राप दक्ष थे। की दशा का चित्रण करते हए वैगग्य का स्वरूप और जैन दर्शन का परीक्षामुख और प्रमाण परीक्षा प्रादि दार्शउसकी महत्ता का वर्णन किया गया है। उक्त प० गिरधारी निक ग्रन्थो का अध्ययन किया था। धार्मिक रुचि मे दृढ़ता लालजी ने प्राकृत वैराग्यशतक का हिन्दी मे अर्थ बतलाया होने के कारण आपने नौकरी नही की आर्य समाजियों से और कवि वासीलाल ने जीवसुखराय के पढ़ने के लिये भी आपका शास्त्रार्थ हुआ था परन्तु वे पाप की युक्तिपूर्ण उन्ही की प्रेरणा से स० १७८४ मे पौष शुक्ला द्वितिया के बातों का उत्तर नहीं दे सके । आप समाज और कुरीतियों दिन पद्यानुवाद बनाकर समाप्त किया था। पद्यानुवाद के निवारण मे अग्रसर थे । आपके बनाये हुए अनेक पद दोहों में किया गया है। पाठको की जानकारी के लिये और पूजन मौजूद है आपकी कविता सरल और भावपूर्ण है दो तीन दोहे नीचे दिये जाते है। : यापकी सूझ-बूझ निराली थी। आप ५० ऋषभदास जी सुख नाहीं संसार में, कैसा है संसार । चिलकाना के नजदीकी रिश्तेदार थे। आपके सहयोग से सार रहित बाषा सहित, और वेदना लार॥ ऋपभदासजी को दार्शनिक ग्रन्थों के अभ्यास करने का शौक प्राज काल परसू करू, और अतरसों जेय। हना था । कवि मतलाल जी ने मिद्ध चक्र का पाठ बनाने ऐसे पुरुष विचार है, सो भटके जग तेय ॥ के बाद अपनी शक्ति धर्मध्यान की ओर लगाई थी। प्ररथ सम्पदा चितवै, प्राऊ ख्यौं नहि जोय । आपके स्वभाव मे सरलता थी। आपने सन् १८८६ के अंजलि में जल क्षीण है, तसें देह समोय ॥ जन महीने मे ५२ वर्ष की वय मे इस नश्वर शरीर का रे जिय जो कल की कर, सो ही प्राज करेय । परित्याग किया था । ढील न करि यामें कछु, निश्चै उर धर लय ॥१० कवि ने सिद्ध चक्र पाठ की रचना ४० वर्ष की अवस्था के बाद की है। इसमें दोहा, चौपाई, पद्धडिया, १ मूल ग्रन्थ को मर्म खोलिक, पत्ता, सोरठा, अडिल्ल, छप्पय, माला, गीता, चकोर, अर्थ कियो गिरधारीलाल । मोदक, गेला और लावनी आदि छन्द दिये गए हैं। ता अनुसार करी सुभ भाषा, कविता भावपूर्ण और सरस है । एक पूजा का पद देखिये, लखि मन पुनि कवि वासीलाल । कितना सरल है। है परिणाम प्रभिन्न परिणामी, सो तुम साषु भए शिवगामी। पौष सुकल दोयज थिति संवत विक्रम जान । साधु भए शिव साधन हारे, सो सब साषुहरो अध म्हारे॥ ठारास चौरासिया, वारगुरु शुभमान ॥१४७ सिद्ध ० ० १०६ पढने कारण प्रेरणा करी जीयसुखराय । पडड़ी छन्द में लिखी जयमाला, स्तुति पढिए कितनी यातै यह भाषा करी, मनवचकाय लगाय ॥१४१ सुन्दर है:
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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